वेद-सन्देश
सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक अनेक मत एवं सम्प्रदाय चले , बहुतेरी सभाएं और समितियां बनीं। विविध दल और मण्डल स्थापित हुए। प्रश्न है , क्यों ? इन सबका प्रादुर्भाव मनुष्यों के बीच में हुआ। इससे स्पष्ट है कि मानवता के प्रश्न को सुलझाने के लिये , मानव जीवन की समस्याओं को पूरा करने के लिये अर्थात् मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन , गृहस्थ जीवन , सामाजिक जीवन , राष्ट्रीय जीवन और आध्यात्मिक जीवन सुखी बने , श्रेष्ठ हो , ऊँचा उठे , यह है उद्देश्य इन सब मतों , सम्प्रदायों , सभाओं , समितियों , दलों और मण्डलों का। जिसका यह उद्देश्य न हो उसे संसार से समाप्त हो जाना चाहिये।
जीवन का प्रश्न जिस समय हमारे सामने आता है , हमें सर्वप्रथम संसार में दो प्रकार के जीवन मिलते हैं- 1. चेतन जीवन 2. जड़ जीवन। चेतन जीवन में मनुष्य , पशु-पक्षी आदि प्राणी वर्ग। जड़ जीवन में वृक्ष , पौधे , लता-तृण आदि वनस्पति जीवन है।
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों। पर्यावरण के शोधन के लिए यज्ञ अनिवार्य है।
Ved Katha Pravachan _70 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
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प्रथम जड़ जीवन को देखते हैं। कोई वृक्ष जहॉं लगा है , यदि वहॉं उसके लिये खाद्य (खाद) न मिले तो मर जाता है। वर्षा धारा के तीव्र प्रताप से (मुसलाधार वर्षा से) पौधा गल जाता है। गर्मी के तीक्ष्ण ताप से पौधा सूख जाता है , शीत के घोर हिमपात से पौधा पीला पड़ जाता है , मर जाता है , अपने को बचा नहीं सकता। कोई मनुष्य उसका पत्ता तोड़े , फूल तोड़े , शाखा तोड़े , समूल ही नष्ट कर दे , उससे भी बचने की उसमें शक्ति नहीं है। यह जड़ जीवन है। जिस व्यक्ति , जिस समाज और जिस राष्ट्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की शक्ति नहीं , वह जड़ , निकम्मा और निरर्थक है।
वियुज्यमाने हि तरौ पुष्पैरपि फलैरपि। पतति छिद्यमाने वा तरुरन्यो न शोचते।।
किसी वृक्ष के फूल आने बन्द हो जाएं , फल आने बन्द हो जाएं , गिर जाने पर या काट दिये जाने पर पास का खड़ा वृक्ष उसके सम्बन्ध में कुछ सोच नहीं सकता , चिन्ता नहीं करता। सहानुभूति हीन जीवन जड़ जीवन है , चाहे वह व्यक्ति हो , समाज हो या राष्ट्र हो। जड़ जीवन यानी निष्क्रिय जीवन।
इसके आगे चेतन जीवन के दो विभाग हैं। 1. मनुष्यों का जीवन। उसे मानव जीवन के नाम से कहेंगे। 2. मानव से अतिरिक्त प्राणियों का जीवन। उसे जान्तव जीवन के नाम से कहेंगे।
कोई गधा , घोड़ा या बैल जहॉं रहता है , यदि उसके लिये वहॉं चारा न मिले तो दूसरे स्थान पर चारा लेता है। दूसरे स्थान पर न मिले तो तीसरे स्थान पर लेता है। यदि वहॉं भी न मिले तो अपने लिए चारे को खेती करके उपजा नहीं सकता। वर्षा से बचने , गर्मी से बचने , ठण्डी से बचने के लिये किसी बने-बनाये भवन (मकान) का आश्रय लेकर अपना बचाव कर सकता है। यदि ऐसा स्थान कहीं न मिले , तो मकान बनाने में वह असमर्थ है। कोई आक्रमणकारी आक्रमण करे तो उसका उत्तर सींग , दांत और पञ्जों से दे सकता है। दूर खड़े आक्रमणकारी से अपना बचाव नहीं कर सकता। सहानुभूति भी जान्तव जीवन में थोड़ी मात्रा में होती है। जब उसके शिशु (बच्चे) समर्थ हो जाते हैं , तब उनसे सहानुभूति भी हट जाती है।
जान्तव जीवन है सक्रिय जीवन। परन्तु इसकी क्रियाओं के दो विभाग हो जाते हैं। अति दीनता या अति क्रूरता। ग्राम-नगर के पशुओं में अति दीनता पाई जाती है। किसी घोड़े , गधे , बैल को लें। उस पर बोझे पर बोझा लादते चले जायें और डण्डे पर डण्डा लगाते चले जायें , वह अतिदीन है। जङ्गल के पशुओं में अतिक्रूरता पाई जाती है। सिंह आदि पशुओं को मार-मारकर खा जाते हैं। यह अतिदीनता मनुष्यों के अन्दर आ जाये तो दास बन जाता है। अतिक्रूरता आ जाये तो दस्यु बन जाता है। मानव को दस्यु और दास नहीं बनना चाहिये , न बनने देना चाहिये।
मानव अपने भोजन (आहार) के लिये पृथ्वी से नाना प्रकार के बीजों का संग्रह करता है। उन्हें कृषिविद्या , उद्यानविद्या के द्वारा पुष्ट अन्नों और फलों के रूप में प्राप्त करता है। पाकविधि से भोजन बनाकर स्वास्थ्य सुख का लाभ लेता है। ऋतुओं के कोप से बचने के लिए ऋतु-ऋतु के अनुसार प्रासाद (मकान) बनाकर जीवन यात्रा सुख से निर्वाहित करता है। किसी आक्रमणकारी से बचने के लिए दण्ड , तलवार , बन्दूक आदि से अपने को बचाता है। सहानुभूति भी यदि कहीं पूर्ण स्थान लेती है तो मानव-हृदय में लेती है। जो ग्रह-तारे-नक्षत्र-सितारे इन आँखों से स्पष्ट नहीं दीखते , उन्हें दूरवीक्षण (दूरबीन) से साक्षात करता है। इन्द्रियों का सुख बिना विपत्ति के कैसे मिल सके , इसके लिए भी उपाय करता है। शरीर में क्या रोग है , इसका निदान करके औषधिज्ञान से चिकित्सा करता है। नाना प्रकार की विद्याओं का अध्ययन करके मनोविकास और मानसिक कल्याण को प्राप्त करता है। अध्यात्म मार्ग परमात्मा की उपासना से परमानन्द , परमशान्ति और मोक्ष को पाता है। यह है मानव जीवन। जो अपनी रक्षा में स्वतन्त्र और विकासी जीवन है , ऐसे जीवन को परम सफल और श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों में पञ्चशील बताए गए हैं-
1. स्वावलम्बन की भावना - स्वयं वाजिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व। महिमा तेऽन्येन न सन्नशे।। यजुर्वेद 23.15 ।।
हे (वाजिन्) शक्तिशाली जीवात्मन् मनुष्य! (स्वयं तन्वं कल्पयस्व) स्वयं अपने तनु=शरीर को समर्थ बना। शरीर के समस्त साधनों अर्थात् कर्मेन्द्रियों , ज्ञानेन्द्रियों और अन्तःकरण को समर्थ बना। पैरों में चलने की शक्ति है , इसे मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न किया है। बालक ने उठ-उठकर गिर-गिरकर चल-चलकर स्वयं शक्ति को उत्पन्न किया है। उसके अन्दर उठने और चलने की भीतरी इच्छा और भीतरी प्रयत्न होता था। यदि भीतरी इच्छा और प्रयत्न से काम न लिया जाये तो कोई मनुष्य अपने घर से कहीं भी जाने में समर्थ न होता। यह देखा गया है कि हठयोगी साधु अपनी एक भुजा को ऊपर किये रहते हैं। भीतर इच्छा और भीतरी प्रयत्न से काम नहीं लेते , इसलिए भुजा सूख जाती है। इसी प्रकार नेत्रों में देखने की शक्ति और मन में समझने की शक्ति भी मनुष्य स्वयं उत्पन्न करता है। इन साधनों को समर्थ बनाकर (स्वयं यजस्व) स्वयं किसी कार्य क्षेत्र में लगा। (स्वयं जुषस्व) स्वयं उनका फल प्राप्त कर। जो कर्त्ता है सो भोक्ता है। (महिमा तेऽन्येन) तेरी यह त्रिविध महिमा अन्य के द्वारा (न सन्नशे) नष्ट नहीं की जा सकती।
जो व्यक्ति , जो समाज और जो राष्ट्र स्वावलम्बी होता है , वह संसार में उठ जाता है , उन्नत होता है। जो दूसरे के आश्रय पर निर्भर रहता है , उसका उन्नत होना दुर्लभ है।
2. आशावाद -
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः। गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनञ्जयो हिरण्यजित्।। ( यजुर्वेद 7.50)
कर्म मेरे दाएं हाथ में , जय-विजय फिर बाएं हाथ में हैं। मेरे दोनों हाथ भरे हुए हैं , रिक्त नहीं हैं , खाली नहीं हैं। शेखचिल्ली की भांति हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला मैं नहीं हूँ। इसलिए मैं गौवों और भूमि का विजेता बनूं , घोड़ों और राष्ट्रों का विजेता बनूं , धन और सम्पत्ति का विजेता बनूं। इस प्रकार मनुष्य को कर्मशील होते हुए आशावादी होना चाहिए।
3. कर्मण्यता -
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। (यजुर्वेद 40.2)
मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए 100 वर्षों और अधिक से अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। एक कर्म समाप्त हुआ तो दूसरा आरम्भ कर देना चाहिए। दूसरा समाप्त हुआ तो तीसरा प्रारम्भ कर देना चाहिए। यावज्जीवन निरन्तर काम करते रहने से निष्काम कर्म होगा। सकाम कर्म तब होगा जब कर्म करते हुए रुक जायेगा , उसके फल की टटोल में पड़ेगा। कर्म का फल तो ईश्वर की व्यवस्था से अनिवार्य है। निरन्तर कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए। मरने की इच्छा करना पाप है। यह इससे सूचित होता है। आत्म-हत्या तो महापाप है।
मनुष्य दीर्घायु तक जीने के लिए अनेक रसायनों और औषधियों का सेवन करता है। पर यहॉं वेद में औषधि बताई है- निरन्तर कर्म करने की। दो पहिये की सायकिल में जब निरन्तर कर्म अर्थात् क्रिया होती है , तो वह सवार को बिठाये हुए आगे बढ़ती चली जाती है। जब क्रिया बन्द हो जाती है तो सायकिल और सवार धड़ाम से नीचे गिर जाते हैं। निरन्तर कर्म या क्रिया संकट तक से बचाती है। मोटर सायकिल का खेल करने वाला लोहे की पत्तियों के बहुत ऊंचे गोल पिञ्जरे में अपने साथी को नीचे खड़ा करके मोटर सायकिल ऊपर-नीचे चलाता है। उसके पहिए ऊपर की पत्तियों को छूते हैं और सिर नीचे होता है , फिर भी वह गिर नहीं पाता। मोटर सायकिल में निरन्तर कर्म या क्रिया होने से गिरने का अवकाश नहीं है। अपने साथी को नीचे इसलिए खड़ा करता है कि जब गति बन्द करे तब नीचे का पता लग जाए।
इस मन्त्र में एक विशेष बात कही गई है जो "कुर्वन् ' शब्द से स्पष्ट होती है। यह पद व्याकरण शैली से शतृ प्रत्ययान्त है , जो क्रिया के लक्षण हेतु इन अर्थों में होता है- लक्षणहेत्वौः क्रियायाः (अष्टाध्यायी 3.2.126) जैसे जब यह कहा जाये कि विद्यार्थी खादन् विद्यालयं गच्छति , विद्यार्थी खाता हुआ विद्यालय जाता है। यह 'जाना ' क्रिया का लक्षण है। और जब यह कहा जाए कि विद्यार्थी पठन् विद्यालयं गच्छति , विद्यार्थी पढ़ने के हेतु विद्यालय जाता है। यह 'हेतु ' हुआ। ऐसे 'कुर्वन् ' शब्द भी दो अर्थों में आता है। कर्मों को करता हुआ जीने की इच्छा करे। यह जीने की क्रिया का लक्षण हुआ और (शतं समाः जिजीविषेत्) मनुष्य 100 और उससे भी अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करे। हेतु क्यों ? कर्माणि कुर्वन्। कर्मों के करने के हेतु। मानव का जीवन जीने मात्र के लिए नहीं है , किन्तु कर्मों के करने के हेतु है। जीने मात्र के लिए कर्म तो चोरी आदि पाप कर्म भी हो सकते हैं। इसीलिए जीना तो ऊंचे कर्मों के करने के हेतु है , जो मानव को ऊंचे स्तर पर ले जाने वाले हैं। आज के युग में मानव का जीवन जीने मात्र के लिए समझ लिया गया है। इसीलिए सर्वत्र अशान्ति है। जो रोटी मनुष्य के द्वारा खाई जाने वाली थी , आज वह मनुष्य को खा जाने वाली हो गई है। इसलिए ऊंचे स्तर पर कर्म करने की शीलता मनुष्य में होनी चाहिए।
4. यशस्वी होने की भावना -
यशो मा द्यावापृथिवी यशो मा इन्द्रा बृहस्पती। यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम्। यशस्वयस्याः संसदो अहं प्रवदितः स्याम।। ( सामवेद पूर्वार्चिक 6.3.13.10)
मेरे माता-पिता मेरे यश का कारण हों। द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्। मैं माता पिता की आज्ञा का पालन करूं , जिससे मेरा यश हो! मेरा आचार्य मेरे यश का कारण हो। जैसे विरजानन्द का शिष्य विरजानन्द के यश का कारण है। मैं आचार्य के आदेश का ऐसा पालन करूं , जैसे स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के आदेश का पालन किया।
विद्या समाप्ति पर दयानन्द उनके लिये लौंग ले जाते हैं। विरजानन्द ने पूछा- मेरे लिये क्या भेंट लाये हो ? दयानन्द ने लौंग बताई। विरजानन्द ने कहा , अरे! मैंने तुम्हें लौंगों के लिए पढ़ाया था। दयानन्द ने कहा कि मेरे पास तो और कोई वस्तु भेंट देने के लिए नहीं है। विरजानन्द ने कहा कि मैं उस वस्तु को मांगता हूँ जो तुम्हारे पास है , बोलो दोगे ? दयानन्द ने देना स्वीकार किया। विरजानन्द ने कहा , संसार में अवैदिकता , अनार्षता और भ्रष्टाचार फैला हुआ है। उसके निवारण के लिये तुम अपने प्राणोें को दे दो। दयानन्द ने इस प्रकार इनके निवारण के लिए प्राण दे दिये। इससे उनका यश है।
भग ऐश्वर्य मेरे यश का कारण हो। ऐश्वर्य मनुष्य के पास आता और चला भी जाता है। सम्पत्तियॉं गाड़ी के पहिये की भांति आवर्त्तन करती रहती हैं। भूमि बदलती रहती है। आज किसी की सम्पत्ति कल किसी के पास चली जाती है। परसों तीसरे के पास चली जाती है। सम्पत्तियों या ऐश्वर्य का लाभ तो उसका दानादि में सदुपयोग करके यश लेना है। संसार में यह शरीर नहीं रहेगा , परन्तु अच्छे कार्यों के कारण नाम रह सकता है। इस समाज का मैं यशस्वी वक्ता बनूं। मेरे मुख से जो कथन , वचन और प्रवचन निकले , वह उसके हित में निकले। वेद में उदाहरण के रूप में यश के स्थान बताये गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य को यश प्राप्त करना चाहिये। यह मानव जीवन की सफलता है।(जारी) -स्वामी ब्रह्ममुनि
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