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  • जीवन के पञ्चशील और उनसे आगे -1

    वेद-सन्देश

    सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक अनेक मत एवं सम्प्रदाय चले, बहुतेरी सभाएं और समितियां बनीं। विविध दल और मण्डल स्थापित हुए। प्रश्न है, क्यों? इन सबका प्रादुर्भाव मनुष्यों के बीच में हुआ। इससे स्पष्ट है कि मानवता के प्रश्न को सुलझाने के लिये, मानव जीवन की समस्याओं को पूरा करने के लिये अर्थात्‌ मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन, गृहस्थ जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और आध्यात्मिक जीवन सुखी बने, श्रेष्ठ हो, ऊँचा उठे, यह है उद्देश्य इन सब मतों, सम्प्रदायों, सभाओं, समितियों, दलों और मण्डलों का। जिसका यह उद्देश्य न हो उसे संसार से समाप्त हो जाना चाहिये।

    जीवन का प्रश्न जिस समय हमारे सामने आता है, हमें सर्वप्रथम संसार में दो प्रकार के जीवन मिलते हैं-1. चेतन जीवन2. जड़ जीवन। चेतन जीवन में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणी वर्ग। जड़ जीवन में वृक्ष, पौधे, लता-तृण आदि वनस्पति जीवन है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    पर्यावरण के शोधन के लिए यज्ञ अनिवार्य है।

    Ved Katha Pravachan _70 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    प्रथम जड़ जीवन को देखते हैं। कोई वृक्ष जहॉं लगा हैयदि वहॉं उसके लिये खाद्य (खाद) न मिले तो मर जाता है। वर्षा धारा के तीव्र प्रताप से (मुसलाधार वर्षा से) पौधा गल जाता है। गर्मी के तीक्ष्ण ताप से पौधा सूख जाता हैशीत के घोर हिमपात से पौधा पीला पड़ जाता हैमर जाता हैअपने को बचा नहीं सकता। कोई मनुष्य उसका पत्ता तोड़ेफूल तोड़ेशाखा तोड़ेसमूल ही नष्ट कर देउससे भी बचने की उसमें शक्ति नहीं है। यह जड़ जीवन है। जिस व्यक्तिजिस समाज और जिस राष्ट्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की शक्ति नहींवह जड़निकम्मा और निरर्थक है।

    वियुज्यमाने हि तरौ पुष्पैरपि फलैरपि।
    पतति छिद्यमाने वा तरुरन्यो न शोचते।।

    किसी वृक्ष के फूल आने बन्द हो जाएंफल आने बन्द हो जाएंगिर जाने पर या काट दिये जाने पर पास का खड़ा वृक्ष उसके सम्बन्ध में कुछ सोच नहीं सकताचिन्ता नहीं करता। सहानुभूति हीन जीवन जड़ जीवन हैचाहे वह व्यक्ति होसमाज हो या राष्ट्र हो। जड़ जीवन यानी निष्क्रिय जीवन।

    इसके आगे चेतन जीवन के दो विभाग हैं। 1. मनुष्यों का जीवन। उसे मानव जीवन के नाम से कहेंगे। 2. मानव से अतिरिक्त प्राणियों का जीवन। उसे जान्तव जीवन के नाम से कहेंगे।

    कोई गधाघोड़ा या बैल जहॉं रहता हैयदि उसके लिये वहॉं चारा न मिले तो दूसरे स्थान पर चारा लेता है। दूसरे स्थान पर न मिले तो तीसरे स्थान पर लेता है। यदि वहॉं भी न मिले तो अपने लिए चारे को खेती करके उपजा नहीं सकता। वर्षा से बचनेगर्मी से बचनेठण्डी से बचने के लिये किसी बने-बनाये भवन (मकान) का आश्रय लेकर अपना बचाव कर सकता है। यदि ऐसा स्थान कहीं न मिलेतो मकान बनाने में वह असमर्थ है। कोई आक्रमणकारी आक्रमण करे तो उसका उत्तर सींगदांत और पञ्जों से दे सकता है। दूर खड़े आक्रमणकारी से अपना बचाव नहीं कर सकता। सहानुभूति भी जान्तव जीवन में थोड़ी मात्रा में होती है। जब उसके शिशु (बच्चे) समर्थ हो जाते हैंतब उनसे सहानुभूति भी हटजाती है।

    जान्तव जीवन है सक्रिय जीवन। परन्तु इसकी क्रियाओं के दो विभाग हो जाते हैं। अति दीनता या अति क्रूरता। ग्राम-नगर के पशुओं में अति दीनता पाई जाती है। किसी घोड़ेगधेबैल को लें। उस पर बोझे पर बोझा लादते चले जायें और डण्डे पर डण्डा लगाते चले जायेंवह अतिदीन है। जङ्गल के पशुओं में अतिक्रूरता पाई जाती है। सिंह आदि पशुओं को मार-मारकर खा जाते हैं। यह अतिदीनता मनुष्यों के अन्दर आ जाये तो दास बन जाता है। अतिक्रूरता आ जाये तो दस्यु बन जाता है। मानव को दस्यु और दास नहीं बनना चाहियेन बनने देना चाहिये।

    मानव अपने भोजन (आहार) के लिये पृथ्वी से नाना प्रकार के बीजों का संग्रह करता है। उन्हें कृषिविद्याउद्यानविद्या के द्वारा पुष्ट अन्नों और फलों के रूप में प्राप्त करता है। पाकविधि से भोजन बनाकर स्वास्थ्य सुख का लाभ लेता है। ऋतुओं के कोप से बचने के लिए ऋतु-ऋतु के अनुसार प्रासाद (मकान) बनाकर जीवन यात्रा सुख से निर्वाहित करता है। किसी आक्रमणकारी से बचने के लिए दण्डतलवारबन्दूक आदि से अपने को बचाता है। सहानुभूति भी यदि कहीं पूर्ण स्थान लेती है तो मानव-हृदय में लेती है। जो ग्रह-तारे-नक्षत्र-सितारे इन आँखों से स्पष्ट नहीं दीखतेउन्हें दूरवीक्षण (दूरबीन) से साक्षात करता है। इन्द्रियों का सुख बिना विपत्ति के कैसे मिल सकेइसके लिए भी उपाय करता है। शरीर में क्या रोग हैइसका निदान करके औषधिज्ञान से चिकित्सा करता है। नाना प्रकार की विद्याओं का अध्ययन करके मनोविकास और मानसिक कल्याण को प्राप्त करता है। अध्यात्म मार्ग परमात्मा की उपासना से परमानन्दपरमशान्ति और मोक्ष को पाता है। यह है मानव जीवन। जो अपनी रक्षा में स्वतन्त्र और विकासी जीवन हैऐसे जीवन को परम सफल और श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों में पञ्चशील बताए गए हैं-

    1. स्वावलम्बन की भावना -
    स्वयं वाजिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व। महिमा तेऽन्येन न सन्नशे।। यजुर्वेद 23.15।।

    हे (वाजिन्‌) शक्तिशाली जीवात्मन्‌ मनुष्य! (स्वयं तन्वं कल्पयस्व) स्वयं अपने तनु=शरीर को समर्थ बना। शरीर के समस्त साधनों अर्थात्‌ कर्मेन्द्रियोंज्ञानेन्द्रियों और अन्तःकरण को समर्थ बना। पैरों में चलने की शक्ति हैइसे मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न किया है। बालक ने उठ-उठकर गिर-गिरकर चल-चलकर स्वयं शक्ति को उत्पन्न किया है। उसके अन्दर उठने और चलने की भीतरी इच्छा और भीतरी प्रयत्न होता था। यदि भीतरी इच्छा और प्रयत्न से काम न लिया जाये तो कोई मनुष्य अपने घर से कहीं भी जाने में समर्थ न होता। यह देखा गया है कि हठयोगी साधु अपनी एक भुजा को ऊपर किये रहते हैं। भीतर इच्छा और भीतरी प्रयत्न से काम नहीं लेतेइसलिए भुजा सूख जाती है। इसी प्रकार नेत्रों में देखने की शक्ति और मन में समझने की शक्ति भी मनुष्य स्वयं उत्पन्न करता है। इन साधनों को समर्थ बनाकर (स्वयं यजस्व) स्वयं किसी कार्य क्षेत्र में लगा। (स्वयं जुषस्व) स्वयं उनका फल प्राप्त कर। जो कर्त्ता है सो भोक्ता है। (महिमा तेऽन्येन) तेरी यह त्रिविध महिमा अन्य के द्वारा (न सन्नशे) नष्ट नहीं की जा सकती।

    जो व्यक्तिजो समाज और जो राष्ट्र स्वावलम्बी होता हैवह संसार में उठ जाता हैउन्नत होता है। जो दूसरे के आश्रय पर निर्भर रहता हैउसका उन्नत होना दुर्लभ है।

    2. आशावाद -

    कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।
    गोजिद्‌ भूयासमश्वजिद्‌ धनञ्जयो हिरण्यजित्‌।।(यजुर्वेद 7.50)

    कर्म मेरे दाएं हाथ मेंजय-विजय फिर बाएं हाथ में हैं। मेरे दोनों हाथ भरे हुए हैंरिक्त नहीं हैंखाली नहीं हैं। शेखचिल्ली की भांति हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला मैं नहीं हूँ। इसलिए मैं गौवों और भूमि का विजेता बनूंघोड़ों और राष्ट्रों का विजेता बनूंधन और सम्पत्ति का विजेता बनूं। इस प्रकार मनुष्य को कर्मशील होते हुए आशावादी होना चाहिए।

    3. कर्मण्यता -

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।(यजुर्वेद 40.2)

    मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए 100 वर्षों और अधिक से अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। एक कर्म समाप्त हुआ तो दूसरा आरम्भ कर देना चाहिए। दूसरा समाप्त हुआ तो तीसरा प्रारम्भ कर देना चाहिए। यावज्जीवन निरन्तर काम करते रहने से निष्काम कर्म होगा। सकाम कर्म तब होगा जब कर्म करते हुए रुक जायेगाउसके फल की टटोल में पड़ेगा। कर्म का फल तो ईश्वर की व्यवस्था से अनिवार्य है। निरन्तर कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए। मरने की इच्छा करना पाप है। यह इससे सूचित होता है। आत्म-हत्या तो महापाप है।

    मनुष्य दीर्घायु तक जीने के लिए अनेक रसायनों और औषधियों का सेवन करता है। पर यहॉं वेद में औषधि बताई है- निरन्तर कर्म करने की। दो पहिये की सायकिल में जब निरन्तर कर्म अर्थात्‌ क्रिया होती हैतो वह सवार को बिठाये हुए आगे बढ़ती चली जाती है। जब क्रिया बन्द हो जाती है तो सायकिल और सवार धड़ाम से नीचे गिर जाते हैं। निरन्तर कर्म या क्रिया संकट तक से बचाती है। मोटर सायकिल का खेल करने वाला लोहे की पत्तियों के बहुत ऊंचे गोल पिञ्जरे में अपने साथी को नीचे खड़ा करके मोटर सायकिल ऊपर-नीचे चलाता है। उसके पहिए ऊपर की पत्तियों को छूते हैं और सिर नीचे होता हैफिर भी वह गिर नहीं पाता। मोटर सायकिल में निरन्तर कर्म या क्रिया होने से गिरने का अवकाश नहीं है। अपने साथी को नीचे इसलिए खड़ा करता है कि जब गति बन्द करे तब नीचे का पता लग जाए।

    इस मन्त्र में एक विशेष बात कही गई है जो "कुर्वन्‌शब्द से स्पष्ट होती है। यह पद व्याकरण शैली से शतृ प्रत्ययान्त हैजो क्रिया के लक्षण हेतु इन अर्थों में होता है- लक्षणहेत्वौः क्रियायाः (अष्टाध्यायी 3.2.126) जैसे जब यह कहा जाये कि विद्यार्थी खादन्‌ विद्यालयं गच्छतिविद्यार्थी खाता हुआ विद्यालय जाता है। यह 'जानाक्रिया का लक्षण है। और जब यह कहा जाए कि विद्यार्थी पठन्‌ विद्यालयं गच्छतिविद्यार्थी पढ़ने के हेतु विद्यालय जाता है। यह 'हेतुहुआ। ऐसे 'कुर्वन्‌शब्द भी दो अर्थों में आता है। कर्मों को करता हुआ जीने की इच्छा करे। यह जीने की क्रिया का लक्षण हुआ और (शतं समाः जिजीविषेत्‌) मनुष्य 100 और उससे भी अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करे। हेतु क्योंकर्माणि कुर्वन्‌। कर्मों के करने के हेतु। मानव का जीवन जीने मात्र के लिए नहीं हैकिन्तु कर्मों के करने के हेतु है। जीने मात्र के लिए कर्म तो चोरी आदि पाप कर्म भी हो सकते हैं। इसीलिए जीना तो ऊंचे कर्मों के करने के हेतु हैजो मानव को ऊंचे स्तर पर ले जाने वाले हैं। आज के युग में मानव का जीवन जीने मात्र के लिए समझ लिया गया है। इसीलिए सर्वत्र अशान्ति है। जो रोटी मनुष्य के द्वारा खाई जाने वाली थीआज वह मनुष्य को खा जाने वाली हो गई है। इसलिए ऊंचे स्तर पर कर्म करने की शीलता मनुष्य में होनी चाहिए।

    4. यशस्वी होने की भावना -

    यशो मा द्यावापृथिवी यशो मा इन्द्रा बृहस्पती।
    यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम्‌।
    यशस्वयस्याः संसदो अहं प्रवदितः स्याम।।(सामवेद पूर्वार्चिक 6.3.13.10)

    मेरे माता-पिता मेरे यश का कारण हों। द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्‌। मैं माता पिता की आज्ञा का पालन करूंजिससे मेरा यश हो! मेरा आचार्य मेरे यश का कारण हो। जैसे विरजानन्द का शिष्य विरजानन्द के यश का कारण है। मैं आचार्य के आदेश का ऐसा पालन करूंजैसे स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के आदेश का पालन किया।

    विद्या समाप्ति पर दयानन्द उनके लिये लौंग ले जाते हैं। विरजानन्द ने पूछा- मेरे लिये क्या भेंट लाये होदयानन्द ने लौंग बताई। विरजानन्द ने कहाअरे! मैंने तुम्हें लौंगों के लिए पढ़ाया था। दयानन्द ने कहा कि मेरे पास तो और कोई वस्तु भेंट देने के लिए नहीं है। विरजानन्द ने कहा कि मैं उस वस्तु को मांगता हूँ जो तुम्हारे पास हैबोलो दोगेदयानन्द ने देना स्वीकार किया। विरजानन्द ने कहासंसार में अवैदिकताअनार्षता और भ्रष्टाचार फैला हुआ है। उसके निवारण के लिये तुम अपने प्राणोें को दे दो। दयानन्द ने इस प्रकार इनके निवारण के लिए प्राण दे दिये। इससे उनका यश है। 

    भग ऐश्वर्य मेरे यश का कारण हो। ऐश्वर्य मनुष्य के पास आता और चला भी जाता है। सम्पत्तियॉं गाड़ी के पहिये की भांति आवर्त्तन करती रहती हैं। भूमि बदलती रहती है। आज किसी की सम्पत्ति कल किसी के पास चली जाती है। परसों तीसरे के पास चली जाती है। सम्पत्तियों या ऐश्वर्य का लाभ तो उसका दानादि में सदुपयोग करके यश लेना है। संसार में यह शरीर नहीं रहेगापरन्तु अच्छे कार्यों के कारण नाम रह सकता है। इस समाज का मैं यशस्वी वक्ता बनूं। मेरे मुख से जो कथनवचन और प्रवचन निकलेवह उसके हित में निकले। वेद में उदाहरण के रूप में यश के स्थान बताये गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य को यश प्राप्त करना चाहिये। यह मानव जीवन की सफलता है।(जारी) -स्वामी ब्रह्ममुनि

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    The person, who is a society and the nation who is self-reliant, gets up in the world, is advanced. One who depends on the other's shelter, it is rare to be advanced.

     

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  • डॉ. कलाम 2020 तक ऐसा भारत चाहते हैं परन्तु......

    भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आगामी 2020 तक भारत को जैसा देखना चाहते हैं, वह इस प्रकार है- 1.शहरी व ग्रामीण का अन्तर कम हो। 2. ऊर्जा और जल की पर्याप्त उपलब्धता व समान वितरण। 3. कृषि उद्योग व सेवाक्षेत्र साथ मिलकर काम करें। 4. सामाजिक अथवा आर्थिक भेदभाव के कारण किसी योग्य विद्यार्थी को शिक्षा से वंचित न रहना पड़े। 5. जो निवेशकों, वैज्ञानिकों और योग्य व्यक्तियों को प्रिय हो। 6. उच्चस्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं हों 7. सरकार पारदर्शी और भ्रष्टाचार रहित हो। गरीबी और अशिक्षा समाप्त हो। 8. महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध न हों। समाज का कोई तबका अलग-थलग महसूस न करे। 9. समृद्ध, स्वच्छ, सुरक्षित और शान्त राष्ट्र सतत विकास के पथ पर अग्रसर हो। 10. ऐसा देश बने जिसे अपने नेतृत्व पर गर्व हो और जिसे दुनियॉं में सबसे बेहतर स्थान समझा जाए। 

    Ved Katha Pravachan -2 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    डॉ. कलाम के ये स्वप्न, ये आकांक्षाएँ उस स्वर्णिम युग का स्मरण कराते हैं, जब भारत का नेतृत्व महान्‌ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, अपने श्रेष्ठतम मार्गदर्शक आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में कर रहे थे, जिन्होंने न केवल बिना भेदभाव के न्यायसंगत प्रशासन का संचालन ही किया, बल्कि अपने उज्ज्वल चरित्र के प्रकाश से सम्पूर्ण भारत को आलोकित कर दिया था। यह वह युग था जब लोगों को चोरी, लूट व हत्या का भय नहीं था। महिलाएँ सम्मानित थी और बाल-गोपाल सुरक्षित थे। विदेशी हमलों से देश सुरक्षित था। भारत का इस महिमा के प्रशंसक विदेशी यात्री थे। वर्तमान भारत के सन्दर्भ में डॉ. कलाम जी की ये आकांक्षाएँ उस वैज्ञानिक सोच की उपज हैं, जिसके अनुसार आम आदमी के चरित्र, सामाजिक व आर्थिक स्थिति आदि पर गंभीरता से अध्ययन, चिन्तन व मनन किया गया प्रतीत होता है। धन्य है ये चिन्तन और धन्य है चिन्तक, जिसने मत-सम्प्रदायों के चौखटों से बाहर निकलकर भारत को भेदभावरहित, सुखी-सम्पन्न, सुरक्षित राष्ट्र के रूप में देखने की आकांक्षा अभिव्यक्त की। भारत का यह महान्‌ वैज्ञानिक चिन्तक आगामी सन्‌ 2020 तक अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप भारत को देखना चाहता है। परन्तु यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इस अल्पावधि में ऐसा होना सम्भव है? हॉं, ऐसा होना सम्भव है। डॉ. कलाम ने इस सन्दर्भ में युवा पीढ़ी का आह्वान करते हुए कहा है- ""आई केन डू इट, वी केन डू इट, इंडिया केन डू इट'' (मैं यह कर सकता हूँ, हम यह कर सकते हैं, भारत यह कर सकता है)। यह सब कुछ तभी सम्भव है, जब ऊँच-नीच के भेदभाव, धर्म-सम्प्रदायों के चौखटों में आबद्ध असंख्य नागरिक, चरित्रहीनता के कारण भ्रष्टाचारी चरित्र, राष्ट्र व राष्ट्रीयता के प्रति उदासीनता के कारण आर्थिक विषमता और वे समस्त कारण जिन्होंने हमें अपने उत्तरदायित्वों के प्रति संवेदनाशून्य बना रखा है, इन सब क्या और क्यों के प्रश्नों का उत्तर ढूंढ निकालना होगा। साथ ही इनके निराकरण के उपायों की भी खोज करनी होगी। कहीं यह खोज पुस्तकों के प्रकाशन तक ही सीमित न रह जाए, इसे प्रभावशाली ढंग से व्यावहारिक रूप देने की जिद भी मन-मस्तिष्क में संजोना होगी। 

    डॉ. कलाम की यह अपेक्षा कि हम भारत को एक ऐसा देश बनाएं, जिसे अपने नेतृत्व पर गर्व हो और जिसे दुनिया में सबसे बेहतर स्थान समझा जाए, वन्दनीय है। इस महान्‌ स्थिति को स्थापित करने के लिए भारत के पास उपाय हैं, क्योंकि वह अतीत में "जगद्‌गुरु' के वैभव से गौरवान्वित हो चुका है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे युवा वैज्ञानिक अपने वैज्ञानिक चिन्तन व सोच से उन तत्वों को खोज निकालें, जिनके आधार पर भारत को विश्व में गौरवान्वित किया जा सके। अपेक्षा है उस नेतृत्व की जिस पर गर्व किया जा सके। उस परिवर्तन के लिए वैज्ञानिक आधार पर क्या-क्यों, कैसे की खोज अपेक्षित है। आचार्यश्री डॉ. संजयदेव

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    The expectation of Dr. Kalam that we should make India a country that is proud of its leadership and which is considered the best place in the world, is praiseworthy. India has remedies to establish this great position, because it has been proud of the glory of "Jagadguru" in the past. The need is that our young scientists should discover those elements from their scientific thinking and thinking, On the basis of which India can be made proud in the world. Expectation of leadership that can be proud of it. That change requires the discovery of what-why, on scientific basis. - Acharyashree Dr. Sanjay Dev

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  • तत्त्ववेत्ता महान क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द सरस्वती

    महर्षि के कार्य क्षेत्र में आने के समय यद्यपि भारत में कई छोटे बड़े सम्प्रदाय काम कर रहे थे, परन्तु सबके सब अपने पुराने आदर्शों से गिर चुके थे। विचार स्वातन्त्र्य का ऐसा तिरोभाव था, मानो उसका कभी प्रादुर्भाव ही नहीं हुआ हो। धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक पराधीनता ने भारत सन्तान को मुर्दा बना दिया था। किसी क्षेत्र में भी भारतवासियों को दासता की जंजीरें काटने का साहस नहीं होता था। ऐसे समय में किसी ऐसे महापुरुष की आवश्यकता थी जो धार्मिक संशोधन के क्षेत्र में मायावाद, प्रकृतिवाद और नैष्कर्म्यवाद तथा शून्यवाद के विभिन्न जालों को छिन्न-भिन्न करके कर्मवाद तथा त्रैतवाद की स्थापना करके समकालीन सब सम्प्रदायों की कमियों को पूरा कर सके।

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    Ved Katha Pravachan - 8 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ईश्वरीय नियम में अनुसार जब-जब धर्म पर भारी आपत्ति आती हैतब-तब किसी महान आत्मा का प्रादुर्भाव होकर उसके द्वारा धर्म को शक्ति और बल प्रदान करने वाले अखण्ड स्रोत का मार्ग फिर से बतलाया जाता हैजैसा कि श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के निम्नलिखित श्लोक में कहा है-

    यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।।

    इसी के अनुसार सन्‌ 1824 में गुजरात स्थित मौरवी राज्य के टंकारा ग्राम में एक औदीच्य ब्राह्मण के घर मूलशंकर नामक एक पुण्य नक्षत्र का उदय हुआ। बाल्यावस्था में ही मूलशंकर ने देखा तथा समझ लिया कि उनके स्वजन झूठे देवों की उपासना करते हैं तथा हानिकारक अन्धश्रद्धा तथा सिद्धान्तों में फंसे हुए हैं। गौतम बुद्ध की भांति मृत्यु आदि के दु:खों को देखकर उन्होंने सच्चे शिव की खोज तथा अपने देश एवं संसार सेवा करने की तैयारी करने के लिए ऐसे स्थान से भागना चाहा जहॉं जीवनावस्था एक मिथ्या कृत्रिम तथा संकीर्ण प्रणाली के सांचे में ढली थी।

    महर्षि ने सत्य की खोज के लिए कठोर परिश्रम किया। देश के भिन्न-भिन्न भागों में उन्होंने भ्रमण कर साधुओं के आश्रमों तथा तीर्थस्थानों को खोजा। एकान्त गुफाओं व निर्जन स्थानों को खोजा। ऋषियों और योगियों की तलाश में वे इस अभिप्राय से घूमे कि उनके सत्संग से अपने को अपने देश तथा संसार की सेवा के योग्य बना सकें। उन्होंने दृढ संयम और वेद विहित सच्चे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अपने गुरु विरजानन्द सरस्वती की अभिलाषा की पूर्तिअपनी मातृभूमि के पुनरुत्थानसत्य के प्रचारज्ञान के प्रसार और धर्म की वृद्धि के निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया। उन्होंने असत्य के साथ तन-मन से संग्राम करनेरोशनी फैलानेबुराई की जड़ काटने तथा न्यायाचार और धर्म का झण्डा ऊंचा गाड़ देने का पवित्र प्रण किया था।

    महर्षि दयानन्द केवल सुधारक ही नहीं थे। वरन्‌ संसार भर के शिक्षक भी थे। उनकी शिक्षा मनुष्य मात्र के कल्याण और सुधार के लिए थी। न किसी से द्वेष था और न किसी से प्रेम था। आपने देखा कि सत्य ज्ञान के बिना संसार अविद्या और अन्धविश्वास में डूबा हुआस्वार्थ परायणता और पक्षपात में टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। व्यक्तिदेश व जाति को अपने उद्धार का मार्ग बतलाने की आवश्यकता है तथा उसकी पूर्ति केवल वेदों का ज्ञान ही कर सकता है। क्योंकि केवल यही ग्रन्थ सत्य विद्याओं का स्रोत है। आपने इसका भाष्य हिन्दी में कियाताकि उस पुष्टिकरप्राणपदबलवर्धक अमृत कुण्ड के आस-पास जो घास-पात उग आया है तथा जिन सड़े-गले प्रक्षिप्त पदार्थों की वृद्धि ने उसे ढांप लिया हैवह हट जावे और उस अमृत कुण्ड तक सबकी पहुँच हो सके। संसार के इतिहास में यह प्रथम अवसर था कि स्वामी जी की कृपा से अमीर-गरीबउच्च-नीचसंस्कारी तथा असंस्कारी सबकी पहुँच वेदों तक हो गई। वेद भाष्य के अतिरिक्त महर्षि ने महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाशसंस्कार विधिगौ करुणानिधिआर्याभिविनयऋग्वेदादि भाष्य भूमिका आदि अनेकानेक ग्रन्थ लिखे तथा देश भर में भ्रमण करके उन्होंने सत्य और ज्ञान के प्रकाश को फैलाया। जहॉं कहीं वे गये वहॉं वैदिक सत्य और वैदिक भावों को सार्वजनिक वक्तृताओंव्यक्तिगत सम्भाषणों एवं प्रेमपूर्वक वाद विवादों द्वारा पादरियोंमौलवियों और अन्य मतावलम्बियों पर प्रकट किया। ऐसे ही उन विद्वान ब्राह्मणों को भी समझाया जो कि अन्धविश्वासमूर्ति पूजाहानिकारक प्रथाओंअसदाचार और प्रतिष्ठाहीन बनाने वाले व्यवहारों का आचरण करते थेजिन्होंने कि हिन्दू जाति को इस दीन दशा में पहुँचाकर निर्बल बना दिया था।

    हिन्दू जाति की शक्ति का ह्रास करने वाली अनेक बुराइयॉं उस समय समाज में फैली थीं। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उन सबको दूर करने का संकल्प किया। मनुष्यों के उद्धार का कार्य यथेष्ठ रीति से चलाने और अपने प्रचलित किए हुए सुधारों को स्थाई और शाश्वत रूप देने के लिये स्वामी जी ने आर्य समाज का स्थापन किया।

    स्वामी जी संसार को कैद से छुड़ाने आये थे। मानवमात्र की कल्याण कामना के इच्छुक महर्षि जीवन भर सत्य ज्ञान का उपदेश देते रहे।

    महान्‌ पुरुषों का जैसे जीवन अद्‌भुत होता है मृत्यु भी वैसी ही अद्‌भुत होती है। संसार के ऐसे हितैषीवैदिक संस्कृति के पोषकमहान समाज सुधारकराष्ट्र की स्वतन्त्रता के स्वप्नद्रष्टा को विधर्मी मतों के प्रचारकों व फिरंगी शासकों ने एक वेश्या से मिलकर महर्षि के पाचक द्वारा इस युग पुरुष को विष दिलवा दिया। धन्य है क्षमाशील भगवान्‌ दयानन्द जिन्होंने ज्ञात होने पर अपने विष दाता को भी रुपया देकर भगा दिया व फांसी के फन्दे से बचा लिया।

    एक मास तक तीक्ष्ण पीड़ा के पश्चात्‌ कार्तिक संवत 1940 की अमावस्था के सायं दीपावली को ईश्वर प्रार्थना के पश्चात हर्ष सहित गायत्री मन्त्र का पाठ करने लगे। फिर प्रफुल्लित बदन समाधि में रहकर आँखें खोली और प्रेम भरे शब्दों में कहा-

    हे दयामय ! हे सर्व शक्तिमान्‌ ईश्वर ! तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो, अहा तैने अच्छी लीला की। इतना कहकर करवट ली और श्वांस रोककर एक बार ही प्राण त्याग दिये। संसार का प्रकाश स्तम्भ, प्यारा ऋषि जो कि विष पान कर अमृत दान करने आया था, हमसे अलग हो गया। 

    आओ उनके पावन आदर्शों पर चलकर सत्य का प्रचार करते हुए हम ऋषि की धरोहर से लाभ उठावें व उनके भारत को जगद्‌गुरु बनाने के स्वप्न को साकार करें । - जगदीश प्रसाद आर्य

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    Hey Day! O all powerful God! This is your wish, may your wish be fulfilled, aha leela well. Having said this, he took a turn and stopped breathing once and gave up his life. The pillar of light of the world, the lovely sage who came after drinking poison and donating nectar, broke away from us.

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  • तस्य वाचकः प्रणवः का रहस्य

    १/२७ योग के इस सूत्र के वास्तविक अर्थ को समझने में अध्येता प्रायः मूल करते है और केवल शब्दार्थ मात्र को ही फालतार्थ समझ लेते है। यहाँ ओ३म् पर की जगह पुरुष विशेष ईश्वर पद का प्रयोग है। यह है कि उस ओ३म् का वाचक ''प्रणव'' शब्द है तदनुसार उस ईश्वर को ओ३म् कहे या प्रणव कहें बात एक ही है। यहाँ वाचक शब्द सापेक्ष है, वह किसी दूसरे पद की यानी वाच्य है ओ३म् शब्द।

    इस सूत्र में वाच्य ओ३म् पद है और वाचक प्रणव पद है। वाचक का अर्थ वाच्य के स्वरूप को विस्तार कहने वाला है। अतः प्रणव पद का सीमित अर्थ न लेकर, शब्दार्थ-पदार्थ मात्रा न लेकर फलिस्तार्थ - विस्तारित भावार्थ लेना चाहिये। यह विस्तृत भावार्थ यौगिक अर्थ द्वारा जाना जाता है।

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    वेद कथा - 4 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर | धर्म लड़ना नहीं सिखाता

    इसी अभिप्रायः से प्रणव शब्द का प्रयोग महर्षि पतन्जलि ने किया है। प्रणव शब्द की व्युत्पति आदि भी यही बताती है। प्रकर्सेण नूयते स्तूयते अनेनेति प्रणवः, प्रकर्सेध नीति स्तौति इति वा प्रणवः'' प्र उपसर्गपूर्वक णु स्तुतौ अदादि धातु से प्रणव पद निष्पन्न होता है प्रणवैः- ओंकारैः यजुर्वेद १९/२५। यहाँ प्रणव शब्द का का प्रयोग बहुवचन में किया गया है। अमृतं वैप्रणवः गोपथ ब्राह्मण उतर भाग ३/११। ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्राहमण ११/४ ! इन अर्थो का तात्पर्य समझने का प्रयत्न कीजिये।

    स्तुति परम जिसमें शब्दों द्वारा नम्रता से स्तुति की जाये जिसकी वह प्रणव है। ओ३म् है। अथवा मन्त्र जिसकी उत्तमता से स्तुति करता है, वह प्रणव है। ओ३म् है इन अर्थो को प्रणव पद ही बता सकता है क्यांकि केवल प्रणव पद में ही णु स्तुतौ धामु का प्रयोग है।

    ओ३म् के वाचक अन्य जितने भी पद हैं, वे इस फलितार्थ को प्रकट नहीं करते। इस वाक्य से यहाँ वाक्य ओ३म् को समझना चाहिये। यही फलितार्थ महर्षि दयानन्द जी ने पन्च महायज्ञ विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या करते समय ओ३म् पद से लिया है। संस्कार विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या है। पद दो प्रकार के होते है व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द। मैंने यहां ओ३म के साथ एक साथ एक जगह पद शब्द का तथा दूसरी जगह पद की शब्द का प्रयोग किया है ऐसा क्यों किया है यह व्याकरण जानने वाले विद्वाने ही समझ सकते है। अन्य नहीं। सामान्यतया पद की जगह शब्द का और शब्द की जगह पद का प्रयोग किया जाता है।

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    महर्षि दयानन्द ने अ, उ, म, से निष्पन्न ओ३म् शब्द की विस्तृत व्याख्या कि है और परमात्मा के समस्त गुण कार्य स्वभाव वाले सभी पदों से ओ३म् पद में से लिया है। जिसकी विस्तृत व्याख्या आप सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में पढ़ सकती है। यही बात प्रणव पद से भी कही गई है या यों कहिये कि ये सारी बाते कहने एक सामर्थ्य प्रणव पद में है। इसलिए पूर्व वर्णित उस समय ईश्वर का वाचक प्रणवः कहा है।

    यह व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक है, इसी व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक प्रणव शब्द है। इसीलिए सभी शास्त्रों का सार है कि ''ओ३म् इत्येकाक्षरं ब्रह्म'' ब्रहम - ओ३म् इति एक अक्षर वाला है। अ उ म् के संयोग से नहीं बना है। सयुक्त ओ३म् पद तो केवल एकाक्षर ओ३म् को समझने के लिए है।

    ओ३म् के गुणों को कहने वाला वाचक कोई एक पद नहीं है, क्योंकि अनंत गुणों के भंडार ओ३म् का वर्णन किसी एक पद से एक शब्द से किया जा सकता है। जितने भी गुण कथन करने वाले शब्द हैं, वे सब ''प्रणव'' पद में आ जाते है। अतः उस ईश्वर का ओ३म् का वाचक प्रणव पद है।

    यजुर्वेद के मन्त्र ४०/१५ में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ''ओ३म् इति सनन्नाम वाच्य ईश्वरम् वाच्य तो केवल अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द है अन्य जितने भी नासम परमात्मा के है व र्स्ववाचक है। स्वयम् ओ३म् से निष्पन्न व्युत्पन्न ओ३म् पद की वाचक है अव्युत्पन्न एकाक्षर ओ३म् वाच्य है।-प्रो. रमेशचन्द्र शास्त्री

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    Maharishi Dayanand ji has taken the OM while explaining Gayatri Mantra in Panch Mahayagya method. Gayatri Mantra is explained in Sanskrit method. The terms are of two types, derivative and non-derivative. Here, along with OM, I have used the word 'Pad' in one place and the word 'Pad' in another place, only the scholars who know this grammar can understand it. No other. Generally, the word is used instead of the word and the word is used instead of the word. 

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  • दर्शनों और ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद-महिमा

    दर्शनकारों ने मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है। वैशेषिकदर्शन में गया कहा है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्‌।। वैशोषिक. 10.1.3 

    ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं। बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। वैशेषिक. 6.1.1. वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें  सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं। अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है। सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है- न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्‌।। सांख्य. 5.46

    वेद पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं हैं। क्योेंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।

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    वेद का शान्ति सन्देश (वेद कथा)

    Ved Katha Pravachan _60 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम्‌।। सांख्य. 5.51. वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं। 

    मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य, परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है। अतः वेद परम-प्रमाण है। 

    योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि का कथन है- स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्‌। योग. 1.26 

    वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वज गुरुओं का भी गुरु है। अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं। परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है। 

    वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है- शास्त्रयोनित्वात्‌। वेदान्त. 1.1.3 

    ईश्वर शास्त्र=वेद का कारण है। अर्थात्‌ वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। इस सूत्र पर शङ्कराचार्य का भाष्य पठनीय है। यहॉं उसका हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है-

    "ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके, ऐसा सम्भव नहीं है।'' 

    एक अन्य सूत्र में कहा गया है- अत एव च नित्यत्वम्‌। वेदान्त. 1.3.29 

    इसी कारण से (परमात्मा से वेद की उत्पत्ति हुई है) वेद नित्य हैं। मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है- चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।। मीमांसा. 1.1.3 

    जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्‌।। 1.3.18 

    शब्द नित्य है, नाशरहित है। क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता। 

    इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं। 

    ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहॉं तैत्तिरीयब्राह्मण 3.10.11.3 की एक आख्यायिका दी जा रही है-

    "महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए 300 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये, तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा- "यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे?' भरद्वाज ने उत्तर दिया कि मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्‌ठी भरकर भरद्वाज से कहा कि ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं। इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। अनन्ता वै वेदाः। वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने 300 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है, तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। 300 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्‌ठी ज्ञान प्राप्त किया है।'' 

    ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    The Vedas are not Pourusheya (maleized). Because their author is not a male. Being a superficial and superfluous person, all the disciplines are unable to create the Veda. Since Vedas are not the creation of humans, their inauspiciousness is proved.

     

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  • दीवाली का देवता और वेद

    दीपमाला का पर्व प्रतिवर्ष आता है। भारतवासी देश में हैं अथवा विदेशों में, अपनी-अपनी भावना व धारणा के अनुरूप इसे अपने-अपने स्थानों पर मनाते हैं। पर्व व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के विशाल शरीर व जीवन में समय-समय पर आने वाली न्यूनता अथवा त्रुटियों को पूर्ण करने का एक मौन सन्देश दे जाता है। इस दिन प्रत्येक अपने बही खाता की जांच पड़ताल करता है कि क्या पाया और गंवाया। जहॉं भी किसी प्रकार की हानि हो उसे नये वर्ष से लाभ में बदलने का संकल्प किया जा सकता है। पर्व जीवन में प्रेरणा व चेतना का सबसे बड़ा साधन है। इस की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। आर्यसमाज भी दीवाली का पर्व यत्र-तत्र-सर्वत्र समारोह से मनाता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है, मानव निर्माण के वैदिक सूत्र
    Ved Katha Pravachan -7 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस पर्व का सम्बन्ध आर्य समाज के महान्‌ संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती के साथ है। इस दिन अजमेर नगर में भिनाय भवन में उस देवता ने अपने भौतिक जीवन की आहुति देकर विश्व को एक महान्‌ सन्देश दिया था। वेद में आता है- मा यज्ञादिन्द्र सोमिन:। हे मनुष्यो! उस वेद प्रचार व धर्म प्रसार के महान्‌ यज्ञ से विचलित मत होना। उस वेद प्रचार के पुनीत पथ पर निरन्तर बढते जाना तथा इस वेद प्रसार के महान्‌ यज्ञ में तन-मन-धन व जीवन की हर प्रकार की आहुति श्रद्धा भावना से भरकर देते चले जाना।

    उस देवता दयानन्द ने अपना सारा जीवन लगा दिया। गुरु दीक्षा के बाद वह एक ही व्रत के व्रती बन गये। संकल्प के संकल्पी बने। एक ही कल्प के कल्पकार तथा एक ही पथ के पथिक बनकर महान्‌ कार्य क्षेत्र में उतरे। अपने अन्तिम दिन भी सभी को यही दिव्य सन्देश दिया कि आर्यो ! मेरे पीछे खड़े हो जाओ। कभी-कभी ऋषि सरल सूत्र में सारा सन्देश दे जाते हैं। देव दयानन्द ने अपना जीवन जिस महान्‌ मिशन में अर्पित कियावह था वेद का विश्व में प्रचार और वैदिक धर्म का सर्वत्र प्रसार। मथुरा गुरुधाम से बाहर कार्यक्षेत्र में आकर वेद प्रचार का कार्य ही उनके जीवन का व्रत बन गया। इतो वेदा: ततो वेदा: सर्वत्र वेदा: एव। इस दिशा में वेद फैलेउस दिशा में वेद फैल जायेंसभी स्थानों पर वेदों का प्रचार होता जाये- यही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय बन गया। यही निष्ठा थीइसी को व्रत का रूप दे दिया। प्रलोभन की चमकीली राहों में तथा लुभाने सुहाने दृश्यों मेंभीषण यातनाओंघोर विपदाओंभारी अपमान के वातावरण में भी उस वेद प्रचारकधर्म प्रसारकविश्व सुधारकव्रतधारकसर्वजीवोपकारकदीन दलितोद्वारक देव दयानन्द का पांव तनिक भी नहीं लड़खड़ाया। न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: - के अनुसार न्यायपथ के उस महान पथिक को किसी प्रकार भी विचलित न किया जा सका। ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: - वेद के शब्दों के अनुसार वह देवता वेद प्रसार के कार्य में अविचल व अविकल अटल रहे।

    इस धरती पर समय-समय पर नानाविध व्यक्ति आयेकार्य क्षेत्र में भी उतरे तथा हलचल भी मचाई। किन्तु कुछ समय के बाद पथ से डांवाडोल हो गये। कोई सत्ता के सूत्रों में सम्बद्ध हो गया तो कोई सौन्दर्य का स्तोता बनकर सुन्दरियों का सेवक बन बैठा। कोई गुरुडम का डमरू बजाने लगा। कोई स्वर्ण के भण्डार का भण्डारी बनने में ही मस्त हो गया। कोई भय से ही भाग गया। पर धन्य हैं देव दयानन्द जीवन में जो व्रत लिया उसी पर अटल रहे। उनके सामने काम बेकाम बनकर भागा। सुन्दरियॉं दरियों में जा छिपी। धन का प्रभाव स्वयं प्रभावहीन हो गया। सत्ता अपनी महत्ता समाप्त कर बैठी। दीवाली का देवता दयानन्द अपने वेद प्रचार के महान्‌ पुनीत व्रत में निरन्तर अडिग रहा।

    उनका व्रत था वेद का प्रचार। आर्य समाज की स्थापना भी इस महान्‌ कार्य के लिए की गई। पहिले वेद का कोई नाम भी न जानता था। वेद की पवित्र पुस्तक कहीं होगी तो किसी के घर में पता नहीं कहॉं छिपाई थी। वेद मन्त्रों का पाठ व उच्चारण कौन करता थाइस बारे में तो एक धारणा बन गई थी कि वेद को वृत्रासुर ले गया है। अब वेद धरती पर हैं नहीं। अमेरिका में अपने प्रवचनों में स्वामी विवेकानन्द तक ने भी वहॉं की जनता को उत्तर दिया कि वेद तो अब हैं नहींशंकर ने अपने वेदान्त भाष्य में वेदों के सार्वजनिक पठन-पाठनश्रवण-श्रावण पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।

    दूसरी ओर वेदों को बदनाम करने में भी उस समय के विद्वानों ने कोई भी कसर नहीं उठा रखी थी। यज्ञों में क्या थावेदमन्त्रों को किस-किस प्रसंग में लगा रहे थे। सायण हो या महीधरइन लोगों ने मन्त्रों के भाष्य में वह पाप किया जो रहती दुनिया उनको कलंकित करता रहेगा। ऐसा पापमय भाष्य करते उनको तनिक भी लज्जा नहीं आई। सातों समुद्रों का जल भी उनके इस कलंक को धो नहीं सकेगा।

    स्वामी दयानन्द वेदों वाले थे। वेद उनको बहुत प्यारे थे। यह इनकी निष्ठा थी कि वेदों का सर्वत्र प्रचार हो। बाकी सभी बातें गौण थी, पर वेद प्रमुख था। दीवाली पर अन्तिम समय में भी यही सन्देश दिया कि मेरे पीछे खड़े हो जाओ। जो वेद प्रचार का कार्य मैं करता रहा हूँ, उसी को करते जाना। वेद पथ पर चलते रहना। अत: स्वामी दयानन्द जी का सबसे बड़ा यही प्रमुख सन्देश है कि वेदों को घर-घर जन-जन तक पहुँचा दो। वेद के बिना कोई परिवार, कोई संस्था, कोई प्रदेश, मनुष्य न रहे। यह उस देवता दयानन्द का सबसे प्रमुख दिव्य सन्देश है। - त्रिलोक चन्द्र शास्त्री

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    This festival is related to Maharishi Swami Dayanand Ji Saraswati, the great founder of Arya Samaj. On this day, in the Bhinay Bhawan in Ajmer city, that deity gave a great message to the world by sacrificing his physical life. Veda comes in- Ma Yajnadindra Somin:. Hey man Do not get distracted by the great yagya of propagating Vedas and spreading religion.

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  • दीवाली, दयानन्द और आर्य समाज

    मानव जीवन बहुमूल्य है। बहु आयामी है। समग्रता से युक्त जीवन, अनेक जीवनों को ज्योतित कर देता है। त्याग, तप और शुद्धाचरण व्यापक प्रभाव छोड़ता  है। देह के विसर्जन होने पर भी अदृश्य देही के गुण शताब्दियों तक नहीं भूलते। क्या अल्पज्ञ जीव जीवन में समग्रता को संजोकर साधना के मार्ग पर तत्परता के साथ जब चलता है तो उसे ही लोकोत्तर कार्य करने के कारण पूर्ण पुरुष कहते हैं। उसी के बतलाए ज्ञान के प्रकाश में जीवन को जीने की कला तो सीखते ही हैंउसको ज्योति स्तम्भ मान कर अपना पथ प्रदर्शक हृदय से स्वीकारते ही नहीं अपितु उसके एक-एक शब्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐसी विभूतियॉं आध्यात्मिक दृष्टि से भी सभी की पूज्यार्ह हो जाती हैं। शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) हजारों वर्षों से अपने नाम को सार्थक करती हुई धूमधाम से मनाई जाती है, परन्तु जो दीपावली सम्वत्‌ 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार को मनाई गई उसकी प्रभा महर्षि दयानन्द सरस्वती की उच्च आत्मा ने नश्वर देह का परित्याग करते हुए गहरे नास्तिक को आस्तिक बनाने का चमत्कार से कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है क्या?

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    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    कितनी दीवालियॉं आई और चली गईपरन्तु एक दीपमाला ऐसी भी आई कि एक ज्योति तो देह छोड़ कर जगज्जननी की अमृतमयी क्रोड़ में आनन्द प्राप्ति हेतु समर्पण कर रही है और दूसरी ओर महर्षि दयानन्द के देह त्याग से आकर्षक मुख मण्डल की आभा-प्रभा-प्रसन्नता को देखकर एक सुपठित गुरुदत्त नास्तिकता के गहरे गर्त्त से निकल आस्तिकता की आनन्दमयी लहरों की उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो रहा है। ऐसे अवसर के लिये जो सांसारिक मुहावरा बना "जादू वही जो सिर चढ कर बोले" चरितार्थ हो गया। यह विश्व के इतिहास में आश्चर्य चकित करने वाली घटना है। किसी की मृत्यु भी किसी को जीवन दे सकती है। यदि मृत्यु मार्ग दिखा सकती है किसी को तो उसके जीवन में क्या शक्ति रही होगी यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे महापुरुषों का लोकोत्तर जीवन में आना और जाना लोक कल्याण के लिये होता है। चमत्कार में महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोई विश्वास नहीं। सांसारिक दृष्टि से महत्ता प्रकट करणार्थ इससे सरल और चिरपरिचित शब्द भी नहीं जो अभिधा में ये अर्थ प्रकट करे।

    मूलशंकर ने एक सामान्य ग्राम टंकारा में जन्म पाया। माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र मूलशंकर रहा। चौदह वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना और माता-पिता की आज्ञा मान कर शिवरात्रि में व्रत रख कर मन्दिर में जागरण करना मूलशंकर की मातृ-पितृ भक्ति परायणता का परिचायक है। चौदह वर्ष की बालावस्था में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना जिसके चालीस अध्याय और एक हजार नौ सौ पिछत्तर मन्त्र हैं। ये उस युग के घरों की शिक्षा का खुला विवरण है। आज हमारे घरों में गृहशिक्षा न के बराबर है। गायत्री मन्त्र भी शायद हमारे बच्चों को नहीं आता। यह विडम्बना कहॉं तक झेलते रहेंगे हमस्वामी दयानन्द जी महाराज से किसी नवयुवक ने पूछा कि आप बड़े विद्वान्‌तार्किकसंस्कृतज्ञत्यागी-तपस्वी एवं वेदों के मर्म को जानने वाले हैं परन्तु आपको अपने जैसा आदमी क्यों नहीं मिलास्वामी जी महाराज का सत्यता से परिपूर्ण सरल यह उत्तर था कि "मैंने जीवन में अपना घर छोड़ कर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण किया। अत: मुझे जीवन में मेरे जैसा आदमी नहीं मिला।" यह स्वाभाविक उत्तर स्वामी जी के किसी भाव को इंगित करता है। स्वामी जी के आज के अनुयायियों को सोचना चाहिए। पितृ यज्ञ का पंचमहायज्ञ विधि में नैतिक जीवन के लिये विधान है। हमारे घरों में केवल पितृयज्ञ का पालन कैसा हो रहा हैयह विचारणीय है। स्वामी जी के समस्त साहित्य में जो व्यावहारिक शिक्षाएं हैं वे सर्वोपयोगी सर्वग्राह्य है। आज भौतिकवाद की अन्धी आन्धी ने सबको आँख होते हुए भी अन्धा बना दियाहै। आर्यों के लिये भौतिकवाद की खुली चुनौती है और आर्य समाज मूक दर्शक बना हुआ है। किंकर्त्तव्यविमूढ नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।

    आर्य समाज की स्थापना करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जो स्फूर्ति और जो उर्वरा भूमि आर्य समाज के माध्यम से वेद के रूप में शाश्वत मूल्यों को प्रदान कीजिसमें विश्व के मनीषियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ चरित्र के निर्माण हेतु आर्यावर्त्त देश में आकर शिक्षा ग्रहण का सन्देश उच्च स्वर से प्रदान कियाक्या उत्तरदायित्व लेने वाले लोगों ने इसे गम्भीरता से निभायाऐसे अकर्मण्य दिशाहीन वेदविहीन लोगों ने ऋषि की महिमा और उद्देश्य को समझा ही नहीं। अन्धेरे में लाठी चलाने का कोई लाभ नहीं। जगाने वाले गहरी नींद में सो गये। इनको कौन जगाये?

    वेद निर्भ्रान्त नित्यशाश्वतअपौरुषेय और परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद केवल चार हैं। मूल संहिताएं ही वेद हैं। ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद इनके नाम हैं। इन वेदों के लिये स्वामी दयानन्द ने कहा "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आर्य समाज की स्थापना को एक सौ अड़तीस वर्ष हो गए हैं। आर्य समाज के प्रारम्भिक पचास वर्ष को छोड़कर उपरोक्त नियमानुसार कितनी सत्यविद्याओं का प्रकाश आर्य समाज ने कियाशास्त्रार्थ युग में भी सामाजिक क्षेत्र में वेद का नाम लोगों को परिचित कराने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। जिस दृढता के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यान्वेषक बन कर वेद को प्रमाण मान और जनता के बीच में वेद प्रमाण पुस्तक से दिखा कर वेद के लुप्त ज्ञान को जनता से सहज स्वीकार कराया। यह दयानन्द की प्रकट विधि आर्य समाज में दीर्घ जीवी नहीं हो सकी। स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेदों के विषय में सत्य घोषणा से प्रभावित हुए अन्य लाखों लोगों ने दयानन्द की विचारधारा को स्वीकारा। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हुए लिखा-

    "वेदों के जानने वाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं।"

    "कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के बिना सम्पूर्ण सांगोपांग वेद विद्याओं को प्राप्त होने के योग्य नहीं होता।"

    "जो मनुष्य पुरुषार्थीविचारशीलवेद विद्या के जानने वाले हैं वे ही संसार के आभूषण होते हैं।"

    तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये।
    कितने शहीद हो गये कितनों ने सर कटा दिये।।
    अपने लहू से लेखराम तेरी कहानी लिख गये।
    तूने ही लाला लाजपत शेरे बब्बर बना दिये।।

    ये पंक्तियॉं किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखती। ये स्वामी जी का बोलबाला था।

    आज आर्य समाज के पुस्तकालयों में वेद गर्दोगुब्बार के नीचे दबे पड़े हैं। क्योंकि वेद स्वाध्याय का समय नहीं और वेद आर्यों के लिए उपयोगी नहीं। क्योंकि सारी सत्य विद्याओं का भण्डार आर्य समाजी बन गया। पूछो तो वेद का क ख नहीं बता सकते। ये तो पण्डित जी बतायेंगे। पण्डित जी को अपनी रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं। क्योंकि आर्य समाज इन अधूरे पण्डितों को रखकर इनकी विवशता का पूरा लाभ उठा कर पण्डितों को गुलाम बना कर वेद प्रचार करना चाहता है। तो पूरी गलफांसी का शिकार है आर्य समाज। जो थोड़े बहुत गुरुकुलोंविद्यालयों या उपदेशक विद्यालयों में सीख कर इस क्षेत्र में आते हैं वे अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण सड़क पर रहते हैं। लगभग विद्वानों की स्थिति आर्य समाज में भिखारियों जैसी है। आर्य समाज वेद के कार्य में गम्भीर नहीं।

    चरित्र के धनी स्वामी दयानन्द ने चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बाह्य शक्ति के साथ अन्तर्तम के साहचर्य से दिव्य पावन प्रकाश के पावन आलोक में मानव का नवोत्थान है। गायत्री मन्त्र का उपदेश शिक्षा के प्रारम्भ में नैतिक शिक्षा का विश्वोपयोगी सूत्र है। बुद्धि की पवित्रता की कामना प्रभु से करे। स्मृति-श्रुति में जिस आचार का उपदेश दिया गयाउसका आचरण करके आत्मवित बनने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य से राजा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की व्यावहारिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे स्वामी दयानन्द। यही उनकी सफलता का रहस्य था। आर्ष शिक्षा प्रणाली के प्रबल व्यावहारिक समर्थक थे स्वामी जी। शिखा सूत्र भी हमारी शिक्षा के प्रमुख सूत्र थे। इनके नियमों को पालन करते हुए आत्मवित के साथ जीवन के मूल्यों को आचरण में रचा-पचा कर उच्च शिखर पर आरूढ होता था मनुष्य। आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:। जिस मनुष्य का आचार ठीक नहीं उसको तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की सफलता का रहस्य आचार पर ही सर्वथा निर्भर करता था। पांच यम नियम स्वामी जी ने जीवन में रचा-पचा कर ही सभी प्रकार के पाखण्डों से लड़ाई लड़ी। आजकल आचार सदाचार की परिभाषा ही बदल गई है। "लुच्चा सबसे ऊंचा" तो आचार क्या करेगा।-आचार्य हरिदत्त शास्त्री (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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    The secret of success of Maharishi Swami Dayanand Saraswati depended solely on ethics. The five Yama Niyam Swamis fought and fought all kinds of hypocrisies in life. Nowadays the definition of ethics has changed. What will the ethics do if "the scoundrel is the highest"? - Acharya Haridutt Shastri (Aryajagat Delhi, 26 October 1997)

     

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  • धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है

    "धर्म" के विषय में जन-मानस में अनेक भ्रांन्तियॉं हैं। धर्म अंग्रेजी के रिलिजन अथवा उर्दू के मजहब शब्दों का न तो हिन्दी अनुुवाद है और न ही पर्याय। धर्म किसी सम्प्रदाय का भी पर्यायवाची नहीं है। धार्मिक व्यक्ति का अभिप्राय पूजा-पाठ करने वाला अथवा दिन में पांच बार नमाज अदा करने वाला या फिर चर्च में जाकर ईसा की वन्दना करने वाला कदापि नहीं है। यह सब करने वाला व्यक्ति मजहबी या सम्प्रदायिक तो हो सकता है, किन्तु धार्मिक कदापि नहीं। संस्कृत के एक कवि द्वारा दुर्योधन के मुख से धर्म के विषय में कहलवाया हुआ एक श्लोक है- 

    जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः,जानाम्यधर्मं न चे मे निवृत्ति।
    केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भव सागर से पार होने का रास्ता (वेद कथा)
    Ved Katha Pravachan _59 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अर्थात्‌ मैं धर्म को जानता तो हूँ किन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है और मैं अधर्म को भी जानता हूँ किन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है। मेरे हृदय में किसी देवता ने जैसी मेरी नियुक्ति कर दी है, मैं वैसा कर देता हूँ। 

    अधार्मिकता का ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहॉं मिलेगा? अर्थात्‌ दुर्योधन अपनी अधार्मिकता के लिये स्वयं को दोषी न मानकर "अपने हृदयस्थित किसी देवता' पर दोषारोपण करके मुक्ति पा लेता है। किसी अधार्मिक वृत्ति के मनुष्य का यह स्पष्ट चरित्र-चित्रण है। मनुष्य के धर्म सम्बन्धी स्वभाव के लिये एक अन्य कवि ने भी कहा है- 

    फलं धर्मस्य चेच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः।
    फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।। 

    अर्थात्‌ मनुष्य धर्म के सुफल की इच्छा तो करते हैं, किन्तु धर्म पालन करने की इच्छा बिल्कुल नहीं करते। इसी प्रकार पाप के कुफल की इच्छा तो नहीं रखते, किन्तु प्रयत्नपूर्वक पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं। 

    तो धर्म क्या है? महाभारत में कहा है- "धारणात्‌ धर्म इत्याहुः। धर्मो धारयते प्रजा। अर्थात्‌ धारण करने से इसे धर्म कहा जाता है और धारण किया हुआ धर्म प्रजा अर्थात्‌ धारक की रक्षा करता है। वह धारण किया जाने वाला धर्म क्या है? वह है "करणीय कर्त्तव्य' जो किसी यज्ञ से कम नहीं। करणीय कर्त्तव्य की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति ही धार्मिक कहलाता है, किसी पूजा-पद्धति विशेष का परिपालन करने वाला नहीं। किसी पूजा-पद्धति का पालन करने वाला साम्प्रदायिक कहलाता है, धार्मिक नहीं। जैसे नमाज अदा करने वाला मुसलमान, चर्च की घण्टी बजाने वाला ईसाई और मन्दिर में आरती करने वाला पुराणपन्थी कहलाता है। 

    धर्म को यज्ञ इसलिये कहा गया है, क्योकि धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है। अन्यथा नीति वचन के अनुसार तो धर्महीन व्यक्ति पशु के समान ही माना गया है। धर्महीनता से राक्षसी वृत्ति हो जाती है। राक्षस और हिंसक पशु में किंचित्‌ भी अन्तर नहीं होता। नीति वचन है- 

    आहारनिद्राभय मैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
    धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।। 

    अर्थात्‌ खाना-पीना, सोना-जागना, डरना और सन्तानोत्पत्ति, ये सब तो पशुओं और मनुष्यों में एक समान ही होते हैं, किन्तु वह धर्म ही है जो मनुष्यों में पशुओं से अतिरिक्त होता है। जो मनुष्य धर्म से रहित हैं वे पशु के समान हैं। संत तुलसीदास जी ने भी इसे इस प्रकार कहा है-

    सुत दारा अरु लक्ष्मी तो पापी के भी होय।
    संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय।।

    यहॉं पर तुलसीदास जी ने पापी और धार्मिक (पुण्यात्मा) मनुष्य की तुलना की है। उनकी दृष्टि में धार्मिक मनुष्य वह है जो संतों की संगति में रहता है और परमेश्वर के गुणगान (हरिकथा) पर विश्वास करता हुआ तदनुरूप आचरण करता है। तदनुरूप आचरण और करणीय कर्त्तव्य का पालनही यज्ञ है। ऐसा यज्ञ करने वाला व्यक्ति ही धार्मिक है। जो व्यक्ति अग्निहोत्र (हवन-यज्ञ) तो करता हो, किन्तु सदाचरण न करता हो, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं कहला सकता, यज्ञकर्ता नहीं कहला सकता।

    एक लोक कथा के माध्यम से विषय स्पष्ट हो जायेगा। भारत में प्राचीन समय से वर्णाश्रम परम्परा है, जो आज भी आंशिक रूप से प्रचलित है। यहॉं पर यह बात विशेष ध्यान रखने की है कि ये वर्ण जन्म-जात नहीं, अपितु अपने कर्म अथवा उद्योग से माने गये हैं। चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनमें वैश्य को समाज का भरण-पोषण करने वाला माना गया है। वैश्यों में अपने व्यापार के लाभांश में से कुछ प्रतिशत दान करने के लिये पृथक रखने की प्रथा है। एक अन्न के व्यापारी सेठ अन्न भण्डार गृह में फर्श पर गिरे अन्न कणों को एकत्रित कर उनकी पिसाई कुटाई करके उसकी दाल-रोटी बनवाकर अन्न-सत्र चलाते थे। अन्न-सत्र को सदावर्त भी कहा जाता है, उसमें भिक्षुओं अथवा आगन्तुकों को भोजन दिया जाता है। सेठ को यह भ्रम हो गया कि इस प्रकार अन्न-सत्र चलाकर वह पुण्य लाभ कर रहा है। किन्तु उसकी बहू इसको इस रूप में नहीं मानती थी। उसने किसी प्रकार अपने श्वसुर को समझाने का यत्न किया, किन्तु सेठ ने सुनी-अनसुनी कर दी। बहू को श्वसुर का अनिष्ट होता दिखाई दिया तो उसने एक उपाय किया। उसने अन्न-सत्र से एक रोटी के बराबर आटा मंगवाकर रोटी बनाई और श्वसुर जी जब भोजन करने बैठे, तो उनकी थाली में पहले वही रोटी परोस दी। श्वसुर ने मुंह में रोटी पड़ते ही थूथू करके उसे थूक दिया। उसके मुख का स्वाद बिगड़ गया, तो उसने बहू से इसका कारण पूछा। बहू ने समझाया कि मरणोपरान्त स्वर्ग में सेठ जी को वैसी ही रोटी तो मिलेगी, जैसी उन्होंने अन्न-सत्र के आटे की बनाने का निश्चय किया है। सेठ ने सुना तो उसका माथा ठनका। उसकी समझ में बात आई और उसने तुरन्त अपने अन्न-सत्र में अच्छे अन्न की रोटी बनवानी आरम्भ करके अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहा। सेठ जी परिपाटी का पालन तो करते थे, किन्तु उसमें उनकी भावना सदाचरण की नहीं, अपितु केवल परिपाटी पालनमात्र की थी। इस दृष्टि से अन्न-सत्र का संचालन करते हुए भी वे धार्मिक नहीं कहे जा सकते थे। 

    महाभारत में "यक्ष युधिष्ठिर संवाद' प्रसंग में धर्म की चर्चा हुई है। यक्ष ने पूछा- "धर्म का स्थान क्या है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "दक्षता ही धर्म का स्थान है।' दक्षता अर्थात्‌ करणीय कर्त्तव्य में दक्षता। यक्ष ने फिर प्रश्न किया- "कौन सा धर्म सबसे उत्तम है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "सब भूतों (प्राणियों) को अभय देना ही सबसे उत्तम धर्म है।' यक्ष द्वारा एक अन्य प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने बताया, "दया ही परम धर्म है।' इस प्रकार विस्तार से यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य धर्म पर चर्चा हुई। संत तुलसीदास जी ने दया को धर्म का मूल मानते हुए कहा है- 

    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
    तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।।

    ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि धर्म पालन में दया का सर्वोच्च स्थान है। दया को परम धर्म माना गया है। एक नीति वाक्य है- "धर्मस्य गहना गतिः।' अर्थात्‌ धर्म की गति बड़ी गहन है। धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति सदा अपना मस्तक ऊंचा करके ही विचरण करेगा। उसे कहीं, किसी बात पर संकुचित अथवा लज्जित होना नहीं पड़ेगा।

    धर्म का किसी मजहब, रिलिजन, पंथ अथवा सम्प्रदाय के कृत्यों से कोई सरोकार नहीं। उसका सम्बन्ध तो मनुष्यमात्र के करणीय कर्त्तव्य से है। वेदशास्त्रों ने इसे ही यज्ञ का नाम दिया है और वेद ने कहा- अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। अर्थात्‌ यह यज्ञ भुवन की, समस्त संसार की नाभि अर्थात्‌ केन्द्र बिन्दु है। धार्मिकता ही संसार का मुख्य केन्द्र-स्थल है। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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  • नेताजी सुभाष की अग्नि परीक्षा

    नेताजी सुभाष को अनेक अग्नि परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था। एक बार उन्होंने भारत के सबसे बड़े राजनीतिक नेता महात्मा गान्धी तक को चुनौती दी थी। उनकी इच्छा के विरुद्ध डॉ. पट्टाभिसीतारामैया के मुकाबले में चुनाव लड़ा था और चुनाव जीत गये थे। हाथी ने हिमालय को परे धकेल दिया था। जन साधारण के मानस पर सुभाष के छाये रहने के बाद भी कांग्रेस संगठन पर गान्धी भक्तों की जकड़ पक्की थी। जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेता सुभाष के नेतृत्व को सहन नहीं कर पा रहे थे। रामगढ़ कांग्रेस के बाद एक वर्ष तो उन्होंने जैसे-तैसे सुभाष बाबू को सह लिया था, पर त्रिपुरा कांग्रेस में उन्होंने खुल्लमखुल्ला विद्रोह कर दिया। गान्धी जी समेत सभी ने कांग्रेस कार्यसमिति में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। 

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    पद तभी तक, जब तक आदर से मिले - सुभाष के लिए यह अग्नि परीक्षा की घड़ी थी। अन्त में उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया, जिससे कांग्रेस में एकता बनी रहे और स्वाधीनता आन्दोलन में कोई बाधा न पड़े। इस संघर्ष में सुभाष आग की लपट की तरह दमकते रहे, प्रतिद्वन्दियों के हिस्से में केवल राख की कालिमा ही आई।

    ईर्ष्या भुजंगिनी - निःसन्देह वे सभी त्यागी, तपस्वी, बलिदानी देशभक्त थे। परन्तु वे अपने सिवाय अन्य किसी को ऐसा देशभक्त नहीं देखना चाहते थे, जो उनसे बढ़कर हो। यही विडम्बना है! विद्वान किसी को अपने से बड़ा विद्वान्‌ नहीं देखना चाहता, वीतराग संन्यासी-महात्मा किसी को अपने से बड़ा वीतराग नहीं देखना चाहता। बलिदानी अपने से बड़े बलिदानी से खार खाता है। जो खार न खाये, वह देवता होता है। 

    सुभाष की दूसरी अग्निपरीक्षा तब हुई, जब वह न जाने किसी धुन में कालकोठरी (ब्लैकहोल) स्मारक को हटाने के लिए सत्याग्रह कर बैठे। सरकार ने अच्छा बहाना पाकर उन्हें जेल में डाल दिया।

    महापलायन - सुभाष ने कहा कि मैं कुछ व्रत-अनुष्ठान करना चाहता हूँ, इसलिए कुछ दिन बिलकुल एकान्त में रहूंगा, किसी से भी मिलूंगा नहीं। उनका भोजन पर्दे के नीचे से उनके कमरे के दरवाजे पर रख दिया जाता था और बाद में जूठे बर्तन वहीं से उठा लिये जाते थे। इस तरह दो-तीन सप्ताह बीत गये।

    मौलवी जियाउद्दीन - इस अवधि में हुआ यह कि उनकी दाढ़ी बढ़ गई। उनकी शक्ल बदल गई। एक रात वह मुसलमान मौलवी का वेश बनाकर बाहर निकल गये। पुलिस और गुप्तचर धोखा खा गये। कलकत्ते से 120 किलोमीटर कार से जाने के बाद एक छोटे से स्टेशन से उन्होंने पेशावर जाने वाली गाड़ी पकड़ी। उस समय के सैकंड क्लास के डिब्बे में वह जियाउद्दीन नाम से मौलवी के भेष में बैठे रहे। एक गुलूबन्द से उन्होंने अपना चेहरा काफी कुछ ढक रखा था। गले में कष्ट है, ऐसा दिखाकर वह बातचीत को टाल देेते थे।

    नया हनुमान भगतराम - पेशावर स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए एक आदमी आया हुआ था। अन्य किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। भगतराम नामक एक साहसी, सूझबूझ वाले युवक के साथ वह पेशावर से काबुल गये। तब तक कलकत्ते से उनके गायब होने का समाचार रेडियो पर प्रसारित हो चुका था और सारे भारत की पुलिस उनकी खोज में थी। प्रतिपल पकड़े जाने का खतरा था। ऐसी दशा में डेढ़ महीने उन्हें काबुल में रहना पड़ा। अन्त में एक दिन मार्च 1942 में बर्लिन रेडियो से उनकी आवाज सुनाई पड़ी- "मैं सुभाषचन्द्र बोस बर्लिन से बोल रहा हूँ।'' भारतीय जनता यह सुनकर आनन्द से पागल हो उठी। अंग्रेज और कांग्रेसी मन मसोसकर रह गये। सुभाष फिर आगे निकल गया था।

    सिंगापुर में - सुभाष की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा सिंगापुर में हुई। जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा करते समय जो युद्धबन्दी बनाये थे, उनमें 45000 भारतीय सैनिक भी थे। प्रसिद्ध भारतीय क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस ने उन्हें अपने पक्ष में करके एक आजाद हिन्द फौज बनानी चाही थी। पर इस कार्य में उन्हें यथेष्ट सफलता नहीं मिली थी। उधर सुभाष ने जर्मनी में एक आजाद हिन्द फौज बनाने का यत्न किया था। वहॉं लीबिया और मिस्र की लड़ाइयों में पकड़े गये भारतीय सैनिक जर्मनों के कब्जे में थे। बाद में यह उचित समझा गया कि सुभाष पनडुब्बी से जापान जायें और वहॉं आजाद हिन्द फौज बनाकर भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने का यत्न करें।

    नमकहलाल युद्धबन्दी - सुभाष सिंगापुर पहुंचे। वहॉं उन्होंने भारतीय युद्धबन्दियों से बात की। ये इंग्लैड के राजा के प्रति निष्ठा की शपथ से बन्धे हुए लोग थे। ये जिसका अन्न खाया है, उसके लिए खून बहाने को उद्यत लोग थे। भारत की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन करने वालों को ये बागी और गद्दार समझते थे। यदि इनके हाथ में हथियार होते, तो अफसर का आदेश होते ही ये बागी सुभाष को गोली से उड़ा देने में एक क्षण का विलम्ब न करते। और अफसर, गोली मारने का आदेश देने से पहले एक पल सोचते तक नहीं। "आल इंडिया रेडियो' दिन-रात सुभाष को बागी और गद्दार कह-कहकर कोसता था।

    नेहरू जी का ऐलान - इन सैनिकों का ही क्या दोष था, जब जवाहरलाल नेहरू तक ने घोषणा की थी, "यदि सुभाष ने जापानी सेना की सहायता से भारत पर आक्रमण किया, तो मैं तलवार लेकर उससे लडूंगा।'' 

    बेचारे नेहरू जी! तलवार उन्होंने देखी अवश्य होगी, परन्तु यह उन्हें पता नहीं होगा कि उसे पकड़ा किधर से जाता है और चलाया कैसे जाता है? फिर वे कांगे्रस के सदस्य होने के नाते अहिंसा की शपथ से बन्धे थे, गान्धी जी की अहिंसा की शपथ से- "कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके आगे कर दो। पलटकर प्रहार करने का विचार भी मन में मत लाओ।" यह उनका सौभाग्य था कि कभी किसी ने उन्हें थप्पड़ नहीं मारा। इसलिए यह पता नहीं चल सका कि वे अहिंसा व्रत पर कितने दृढ़ हैं। फिर, उनकी वह अहिंसा केवल अंग्रेजों के लिए थी। सरकार के सुर में सुर मिलाकर अनेक कांग्रेसी नेता चिल्ला रहे थे- "सुभाष बागी है, सुभाष देशद्रोही है।'' यह शोर इतना मचा कि आखिर गान्धी जी को कहना पड़ा- "सुभाष की देशभक्ति में कोई सन्देह नहीं है। वह हममें से किसी से भी कम देशभक्त नहीं है। पर उसका लड़ने का तरीका गलत है।''

    युद्धबन्दियों का विकट रुख - सिंगापुर के भारतीय युद्धबन्दियों का रवैया इससे कहीं अधिक उग्र था। अफसरों ने देहरादून और सैंडहर्स्ट की रक्षा अकादमियों में शिक्षा पाई थी। अंग्रेजों की कृपा से वे वैभव और प्रभुत्व का जीवन बिता रहे थे। अब बदकिस्मती से वे युद्धबन्दी थे, परन्तु भारतीय वीरों की परम्परा उनके खून में थी- "कट जाये, सिर न झुकना...।" 

    फिर शपथ भंग! राजद्रोह! यह तो सपने में भी सोचने की बात नहीं थी। उन्होंने सुभाष से मिलने और बात करने से ही इन्कार कर दिया। सुभाष को उन्होंने अपने स्तर का ही नहीं माना। सुभाष को अपनी दशा उस हिरन सी लगी, जो अपने सींगों से पहाड़ के टीले को उखाड़ना चाह रहा हो।

    सैनिक समझदार - वह साधारण सैनिकों से मिले और उन्हें अपनी बात समझाई- "तुम कहते हो कि तुमने अंग्रेजों का अन्न खाया है? वह अन्न अंग्रेजों का नहीं था। वह भारत का अन्न था। वह इंग्लैंड में नहीं उपजा था। वह पंजाब, हरियाणा और गंगा-जमना के मैदानों में उपजा था। तुम्हारी निष्ठा भारत के प्रति होनी चाहिए। तुम्हारा देश भारत है। खून बहाना है, तो उसकी आजादी के लिए बहाओ।''

    सैनिकों को सुभाष की बात समझ आ गई। उन्होंने अफसरों को समझाया कि आप लोग नेता जी से बात तो करें। असली सिक्का "खन्‌ खन्‌' बजता है। सुभाष खरा सोना था, बाहर-भीतर एक। उसकी वाणी में सत्य का बल था। शासक की कैद से भागकर जान हथेली पर लिये परदेस में मारा-मारा फिर रहा था। सबको पता था कि उसने आई.सी.एस. की ठाठ की नौकरी को लात मार दी थी। नहीं तो शायद यह आज उन पर ही हुक्म चलाता होता। 

    किसकी शपथ ? कैसी शपथ ! युद्धबन्दी अफसरों ने सुभाष से बात की, तो आग की तपन उन्हें लगी। सुभाष की यह बात उन्हें समझ आ गई कि कोई भी अन्यायपूर्ण, अधर्मपूर्ण शपथ पालने योग्य शपथ नहीं है। अपने देश पर किसी विदेशी का शासन बनाये रखने की शपथ न्यायपूर्ण शपथ नहीं हो सकती। अपनी मातृभूमि की दासता के बन्धनों को काट डालना ही सबसे बड़ा धर्म है। 

    एक बार बान्ध टूटा, तो सारा ही जल प्रवाह उमड़ पड़ा। मेजर जनरल शाहनवाज, सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लो, कर्नल दारा और गिलानी, दौड़-दौड़कर आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित हो गये। वे सुभाष के जितना निकट आते गये, हिमालय के शिखर की भांति वह उन्हें अपने से अधिक और अधिक ऊँचे लगते गये। जब कोहिमा के मोर्चे पर युद्ध शुरू हुआ, तब आजाद हिन्द फौज के हर सैनिक और अफसर ने स्वयं को धन्य माना कि उसे नेताजी सुभाष के नेतृत्व में मातृभूमि की सच्ची सेवा करने का अवसर मिला। -वैद्य विद्यारत्न

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  • प्रखर राष्ट्रभक्त लाला लाजपतराय

    इस युग में देश की श्रद्धा-विभोर जनता ने दो महामानवों को पंजाब केसरी की उपाधि से अलंकृत किया है। उनमें से प्रथम थे महाराज रणजीतसिंह। 18 दिसम्बर 1854 को जन्म हुआ मुन्शी राधाकिशन का, जिनकी प्रथम सन्तान के रूप में पंजाब को अपना दूसरा केसरी प्राप्त हुआ। अपने देश और धर्म के लिए जिस प्रकार का स्वाभिमान, अपने हिन्दूपन के लिए जितनी तड़प और उसका अपमान अथवा हानि होते देखकर जितनी तीव्र प्रतिक्रिया लाला लाजपतराय में जीवन भर होती रही, उसे देखकर यह आश्चर्यजनक लगता है कि उनके पिता अपनी आधी उम्र तक केवल नाम के हिन्दू थे। नहीं तो रमजान के दिनों में रोजे रखने में, हर रोज पॉंच बार नमाज पढ़ने में और कुरान आदि मुस्लिम ग्रन्थों के पारायण में शायद ही कोई मुसलमान उनसे बाजी ले पाता होगा। यह उनके उस्ताद का प्रभाव था, जिसके परिणामस्वरूप उनके अनेक सहपाठी विधिवत्‌ इस्लाम स्वीकार कर चुके थे।

    Ved Katha Pravachan _78 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    मुस्लिम संस्कृति में पोषित पिता - मुन्शी राधाकिशन कलमा पढ़कर बाकायदा मुसलमान नहीं बने। इसका श्रेय बहुत अंश में उनकी पत्नी गुलाब देवी को ही है। मुन्शी जी ने अपने मुसलमान मित्रों को घर पर बुलाकर उनकी इच्छानुसार कई बार मांसादि का भोजन करवाया और कभी-कभी उनके यहॉं से पका हुआ भोजन लाकर खाया। यह सब उनके जैन मत, (अग्रवाल वैश्य) के लिए कितना सह्य था यह तो अलग प्रश्न है। किन्तु इसने उस साध्वी नारी के जीवन को अत्यन्त दुःखित बना रखा था और कई-कई दिन तक उसने गम के सिवा कुछ न खाकर और आंसू पीकर काटे थे। गोद के शिशु पर उसने अपनी ममता भी उंडेली और उसी पर अपनी सारी आशाएं भी केन्द्रित की। परन्तु सारी व्यथा सहकर भी कभी उसने उन्हें छोड़ जाने की कल्पना को पास तक नहीं आने दिया।

    एक बार तो मुन्शी जी ने इस्लाम की दीक्षा लेने का फैसला कर ही डाला और पत्नी व बालक को लेकर मस्जिद में जा पहुंचे। परन्तु सती नारी के अन्तर्मन की पीड़ा उसकी आंखों की मूक वाणी से कुछ ऐसी प्रकट हुई कि बाहर सीढ़ियों पर ही बाल लाजपत चीखकर रोने लग पड़ा। बसइस रुदन से मुन्शी राधाकिशन के दुर्बल मन का अस्थिर निश्चय डगमगा गया और वे लौट आए। आगे चलकर लाला जी ने शुद्धि का जो कार्य करना था उसका भी श्रीगणेश जैसे साक्षात्‌ अपने पिता से शैशवावस्था में ही उन्होंने कर दिया। परन्तु माता के दुःख और पिता के व्यामोह को दूर करने में अभी उन्हें देर लगने वाली थी।

    विद्यार्थी जीवन- लाला लाजपतराय को पढ़ने की लगन पिता से विरासत में मिलीपरन्तु गरीबी के कारण उनका विधिवत्‌ शिक्षण न हो पाया। जहॉं-जहॉं उनके पिता अध्यापक रहेप्रायः उन्हीं स्कूलों में वे पढ़े। शिक्षाकाल में ही वे दो-तीन बार लाहौर आए तो उन्हें दो साथी मिले- गुरुदत्त और हंसराज। कुछ समय पूर्व ही वहॉं आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी और वे दोनों उस रंग में रंगे हुए थे। इस मैत्री से और इसके द्वारा आर्यसमाज के जो संस्कार लाजपतराय को मिलेउनसे उन्हें देश-जाति की सेवा का संकल्प प्राप्त हुआ। हंसराज में जो सरल सेवा की वृत्ति थीगुरुदत्त में जो बौद्धिक प्रतिभा थी और लाजपतराय में जो उग्र देश-प्रेम तथा करुणा का सागर थाउनके मिश्रण से ये त्रिमूर्ति आर्यसमाज की नींव बन गई। गुरुदत्त तो अकाल मृत्यु के ग्रास बनेपरन्तु लाला लाजपतराय और महात्मा हंसराज की मैत्री आजीवन रही।

    समाज सेवा - लाजपतराय अत्यन्त भावुक प्रकृति के थे। स्वभाव की भावना प्रधानता के कारण उन्हें जहॉं कहीं कष्ट दिखाई पड़ाचाहे वह राजपूताना का अकाल थाचाहे कांगड़ा का भूकम्पवहीं पहुंचे और जन-जन के कष्ट को कम करने में जुटे। पैसा उन्होंने कमाया पर उसमें मन नहीं लगायाउसे जीवनपूर्ति का प्रमुख कार्य नहीं बनाया। यही नहींउन्होंने अन्याय के विरुद्ध सदा आवाज उठाई। कौन कितना बड़ा हैइसकी परवाह किए बगैर उन्होंने अन्यायपूर्ण बात का विरोध किया।

    मुस्लिम कांग्रेस अध्यक्ष को उत्तर - ऐसा ही एक प्रसंग थाजब 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से मौलाना मुहम्मद अली ने कहा था कि हिन्दू अपनी अछूत जाति की समस्या हल नहीं कर सकते। इसलिए क्यों न उन्हें आधा-आधा बांट लिया जाये! आधे अछूत मुसलमानों को दे दिए जाएं। यह तर्क जितना लचर और निर्लज्ज थाउतना ही हिन्दू भावना पर चोट करने वाला भी था। बाकी लोग भले ही इस अपमान को पी सकेपरन्तु लालाजी की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी- "यह हमारा घरेलू प्रश्न है। किसी और के दखल की इसमें जरूरत नहीं। हिन्दू ही छूआछूत की समस्या का हल करेंगे। फिर अछूत जातियॉं क्या ढोर पशु हैंजिनके इस तरह बंटवारे की बात की जा रही है?''

    हिन्दू भाव उनके हृदय में क्यों रहता थाइसका उत्तर उन्हीं के शब्दों में यह है- "यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनेंतो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगाजब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएं। उन्हें त्याग कर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है।''

    जब वे कांग्रेस में रहे तो ऐसे उत्साह के साथ जो सरल व सच्चे हृदयों में ही हो सकता है और जो हर कदम पर हानि-लाभ का विचार करने का अभ्यस्त नहीं होता। वह "आग से खेलता है तो झुलस जाने के लिए तैयार भी रहता है।'' और इसमें कोई दो मत नहीं कि ब्रिटिश सरकार के साथ संघर्ष में इन प्रश्नों पर उलझने के अवसर उनके लिए अनेक आए।

    हिन्दूपन का भाव - राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण से लाला लाजपतराय के जीवन का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही अलीगढ़ के सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को उससे अलग रखने का झण्डा उठा लिया था। उनके लेखों के उत्तर में अनेक पत्र उन्हीं के पुराने विचारों के हवाले से छपे। चाहे वे पत्र गुमनाम थेपरन्तु अधिक दिन तक यह छिपा न रहा कि वे किस लेखनी का प्रसाद थे। उनके कारण लाला जी की जो प्रसिद्धि हुईउसका परिणाम यह था कि कांग्रेस के संस्थापक श्री ह्यूम और पण्डित मालवीय आदि ने प्रयाग कांग्रेस के समय उनका स्वयं स्टेशन पर स्वागत किया और श्री ह्यूम ने उन चिट्ठियों का स्वयं सम्पादन करके पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। लाला जी सम्भवत पहले व्यक्ति थेजिन्होंने तब अंग्रेजी में काम करने वाली कांगे्रस के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया। उनकी असाधारण वक्तृत्व शक्ति ने उन्हें शीघ्र ही संस्था की चोटी के नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

    बंग-भंग आन्दोलन में - और तब 1905 में आया बंग-भंग का वह निर्णयजिसके विरोध में 'लाल-बाल-पालकी त्रिमूर्ति गरम दल के रूप में देश के उद्‌गारों का प्रतिनिधित्व करने लगी। प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर बनारस अधिवेशन में कांग्रेस के नरम और गरम दलों में टक्कर हो गई। इसके बाद जागृति की जो लहर देश भर में चली वह मीठे-मीठे भाषणोंसरकार के नाम भेजे गये आवेदन पत्रों और 'गॉड सेव द किंगके गायन की मर्यादाओं को ध्वस्त करके 'स्वराज्यस्वदेशी और बहिष्कारके मन्त्रों के रूप में चारों दिशाओं में व्यापक हो गई। इस नए जागरण के निर्माता यदि महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक और इनका 'केसरीथेतो पंजाब में लाजपत राय और उनका 'पंजाबीतथा बंगाल में विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष के सम्पादन में चलने वाला 'वन्देमातरम्‌'। लाला जी की वाणी में ओज तो था हीअब वह आग बरसाने लगी। नौकरशाही इस ताक में रहने लगी कि उनको किस प्रकार रास्ते से हटाए। तभी पंजाब में नहरी आबादियों के कानून के विरुद्ध आन्दोलन चला। सही या गलत यह धारणा कृषकों में घर कर गई कि अंग्रेज कानून द्वारा उत्तराधिकार के नियम को बदलने की तैयारी में है। लाला जी आन्दोलन के समर्थक तो थेपर उसमें सक्रिय नहीं हुए। किन्तु चाहते हुए भी वे खिंचकर उसमें उलझ ही गए। लायलपुर की एक सभा में वे अध्यक्ष बनाए गए। वहीं भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह ने भाषण दियाजो काफी विद्रोहपूर्ण था।

    नरम और गरम दल - अजीत सिंह और लाजपतराय दोनों को 1818 के पुराने रेगुलेशन के अधीन निर्वासन का दण्ड दिया गया। 6 महीने की कैद के बाद लाला जी मांडले जेल से रिहा होकर लौटे। इस कैद ने उनकी कीर्ति को दिग्‌दिगन्त तक फैला दिया। उसके शीघ्र बाद ही सूरत कांग्रेस का अधिवेशन था। जनता के हृदयों पर तो लाला जी का शासन था और तिलक भी चाहते थे उन्हीं को अध्यक्ष बनाना। परन्तु लाला जी दलबन्दी में पड़ना न चाहते थे। अधिवेशन तो मार-पिटाई और उछलते जूतों की गड़गड़ में समाप्त हो गया। साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि नरम और गरम दल वालों के रास्ते बिलकुल फट गये हैं। लाला जी ने कांग्रेस को छोड़ा तो नहीं पर विरक्ति उन्हें अवश्य हो गईकांग्रेस से ही नहीं राजनीति से भी। कुछ काल के लिए उन्होंने फिर आर्यसमाज के क्षेत्र को अपना लिया। 1914 में वे इंग्लैंड चले गये। वे वहीं थे जब महायुद्ध शुरू हो गया।

    युद्ध नीति - अब भारतीयों और कांग्रेस के सामने यह प्रश्न था कि उनकी नीति युद्ध के बारे में क्या होगांधी जी बिना किसी शर्त के सरकार की सहायता करने के पक्ष में थे। लाला जी का दृष्टिकोण क्या था? "मैं युद्ध में अंग्रेजों की सहायता के विरोध का आन्दोलन चलाने के पक्ष में तो नहीं था। मैं तो उनकी युद्ध नीति का समर्थन करने को भी उद्यत थायदि उसमें हमारे युवकों को भी सेना में प्रतिष्ठित पदों की प्राप्तिशस्त्रास्त्र के प्रयोग तथा युद्धकला में निपुणता प्राप्त करने का अवसर मिल जाता। सरकार ने ये दोनों बातें अस्वीकार कर दीं।.... इस दशा में मैं बिना किसी शर्त के युद्ध में भर्ती होने को तैयार नहीं था। परन्तु मेरे देश के शिक्षित नेताओं का मत इससे भिन्न था।'' लाला जी व तिलक जी दोनों का दृष्टिकोण एक ही था जो कि गांधी जी तुलना में यथार्थवादी भी था और जो कम से कम आज तो स्वीकार किया जा सकता है। अधिक दूरदर्शिता पूर्ण भी था। लाला जी और तिलक जी का दृष्टिकोण! इसी दूरदर्शिता ने लाला जी को देश न लौटने तथा कहीं नजरबन्द हो जाने के स्थान पर बाहर रहने के लिए प्रेरित किया। वे फरवरी 1920 तक नहीं लौटे।

    निरंकुश लाठियॉं - लौटे तो ब्रेडला हाल के पीछे मैदान में उनका पहला भाषण हुआ। उसमें उनकी अंग्रेजों को चुनौती थी- "खिचड़ी पक रही है। न खाएंगे न खाने देंगे। न सोएंगेन सोने देंगे! मंजिल पर पहुंचे बिना चैन न लेंगे।'' और सच में वह महापुरुष न सोया न उसने प्रतिपक्षी को सोने दियाजब तक निरंकुश शासकों की लाठियों ने उसे सदा की नींद न सुला दिया। उन लाठियों के विषय में लाला जी के शब्द किसी भी क्रांति की चिनगारी से कम ज्वलन्त नहीं थे- "हम पर की गई एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में एक-एक कील सिद्ध होगी!'' उन्होंने यह भी कहा कि ''यदि मैं मर गया और जिन नवयुवकों को मैंने काबू में रखा हुआ थाउन्होंने शांतिपूर्ण उपायों के अतिरिक्त अन्य मार्ग ग्रहण करने का निश्चय कियातो मेरी आत्मा उनके कार्य को आशीर्वाद देगी!''

    अपने निर्वांण समय के निकट मद्रास समुद्र तट पर हुई एक विशाल सभा में जो कुछ लाला जी ने कहावह उनके जीवनभर के भावों को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकट करता है- "अब जब जीवन की संध्या होते देखता हूँ और सिंहावलोकन करता हूँ तो खेद होता है कि जिस माता की कोख से जन्माजिसकी गोद को मलमूत्र से अपवित्र कियाजिसका स्तन पियावह माता बन्धन में ही है और मेरे जीवन के सूर्य का अस्ताचल की ओर प्रयाण तीव्रगति से हो चला है। माता के बन्धन तोड़ने के लिए मैंने कुछ नहीं कियाइसी की तीव्र वेदना मुझे व्यथित करती रहती है।''

    आज जब माता के बन्धन टूट चुके हैंलाला लाजपतराय और उनके अन्य साथियों के आदर्श कहॉं तक पूरे हो रहे हैंआज की राजनीति की ऊहापोह में मन खोजता है ऐसे साहसी व उदात्त चरित्रों कोजिन्होंने आदर्शवाद से प्रेरित होकर जीवन को यज्ञ बनाया होजिनके श्वासों में देशप्रेम होजिनकी धड़कनों में राष्ट्र की व्यथा हो। कहॉं हैं ऐसे राजनीतिज्ञ जो स्वयं को उन महापुरुषों के उत्तराधिकारी कह सकेंजिन्होंने पत्थर बनकर स्वातन्त्र्य मन्दिर की नींव को भरा था?

    यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनें तो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है। -डॉ. भाई महावीर (पूर्व राज्यपालम.प्र.)

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    Social Service - Lajpat Rai was of a very emotional nature. Due to the sense of nature, where he had to suffer, whether it was the famine of Rajputana or the earthquake of Kangra, he reached there and was able to reduce the suffering of the people. They earned money but did not mind it, did not make it the main task of life supply. Not only this, he always raised his voice against injustice. He protested against the unjust, regardless of who is big.

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  • प्रभु से मांगना सीखिए

    हम सब याचक हैं, मांगते हैं। मांगना, याचना करना हमारी आदिम मनोवृत्ति है। परमपिता परमात्मा से, परमशक्ति से मांगना मानव की आदिम प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से सिद्ध है। हम आपस में मांगते हैं तो छोटे-बड़े आदि का भेद होता है। पर परमात्मा से मांगने में हम सब एक हैं। वहॉं ऊँच-नीच, अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं। सब अपने-अपने स्तर के अनुसार अपनी मनोकामना याचना के रूप में प्रभु के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूँकि प्रभु चैतन्य हैं, अन्तर्यामी हैं अत: सबकी याचनाएँ उनके द्वारा प्रस्तुत करने के पूर्व ही जान लेते हैं। सरल भाषा में कहें तो सबकी प्रार्थनाएँ सुन लेते हैं।

    Ved Katha Pravachan _103 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    सृष्टि रचयितानियन्ता एवं सर्वशक्तिमान प्रभु की सत्ता समझने से पहिले जरा कुछ दृश्य देखिए । विश्व की अथाह सम्पदा के ज्ञात धनाढ्‌यों में बिल गेट्‌सअरब अमीरात के सुल्तानलक्ष्मी मित्तल और भारत के अम्बानी बन्धुटाटाबिड़ला। इनमें से कोई एक धनपति प्रात: कालीन सूर्योदय की स्वर्णिम प्रभा का आनन्द उठाने कन्याकुमारी के तट पर भ्रमण कर रहा है। शीतल मन्द समीर ने वातावरण को बहुत ही सुखद बना दिया है। इस वातावरण ने कुछ समय के लिये ही सहीउसकी चिन्ताओं का भार हल्का कर दिया है। मन प्रफुल्ल है। इतने में ही एक भिखारी टकरा गया। बाबाभीख दोबाबा नाम से सम्बोधित धनिक ने पूछाक्या चाहिएउत्तर मिलाचवन्नी का जमाना चला गया। एक रूपया लूंगा। बाबा ने कहा- कुछ औरभिखारी समझा कुछ नहीं देना चाहता इसलिए कुछ और कह रहा है। कहा- मैं एक रुपया मांगता हूँदेना हो तो दे दो। लक्ष्मी-मित्तलबिल गेट्‌स सोचता है कि इस अज्ञानी को मालूम नहीं कि मैं कौन हूँक्या कुछ दे सकता हूँऔर यह एक रुपया ही मांग रहा है। यह तो आज की स्वर्णिम बेला में कुछ भीलाख दो लाख मांगता तो भीमैं एक क्षण सोचे बिना इसे दे देता। बाबा ने एक रुपया दे दिया। मांगने वाला खुशदेने वाला नाखुश। प्रभु से मांगने में हम समस्त मानवों की यही स्थिति रहती है। हम सब अपनी-अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये ही प्रभु से याचना करते हैं और नहीं जानते कि वह क्या कुछ दे चुका है अथवा दे सकता है।

    प्रभु के समक्ष हम मानव क्या याचना करते हैंजरा देखिए तो-

    कुम्हार याचना करेगासूरज तपता रहे। जितना ज्यादा तपेगा उतनी जल्दी उसके मिट्‌टी के बर्तन सूखेंगे। किसान प्रभु से मांगेगा कि घनघोर वर्षा होउसकी जोती-बोई फसल लहलहा जावे। मुकदमे के दोनों पक्षधर मांगेंगे उसकी विजय हो। हत्याबलात्कारजघन्य सामूहिक हत्याओं के जिम्मेदार निरंकुश तानाशाह भी अपनी जिन्दगी की भीख मांगते होंगेआजकल के राजनेता बड़े जोश-खरोश से यज्ञ-यागभजन-पूजन कर याचना करते हैं कि प्रभु उनकी पार्टी की जीत हो और उन्हें जनता का खून-चूसने का मौका एक बार और मिले। सन्तानहीन महिला लड़ाई होने पर पड़ोसन की नवागता पुत्रवधु को शाप देती हुई प्रभु से प्रार्थना करेगी कि यह निपूती मर जायेइसके वंश का नाश हो जाये। विद्यार्थी अध्ययन न करने पर भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने की मांग रखेंगे। हिन्दू मंगतों की स्थिति बड़ी दयनीय है । वह यह भी नहीं देखते कि किस देवता से क्या मांगना चाहिए। यदि युवतियॉं हनुमान जी से प्रेम में सफलता या उत्तम वर पाने की मांग रखें तो हनुमान जी ऐसे संकट में पड़ेंगे कि संकटमोचन उपाधि तत्काल उतारने को जी चाहेगा। यही स्थिति तब भी होगी जब कोई विवाहिता महिला उनसे पुत्र मांग बैठे।

    यही नहीं किसी एक देवता पर भी हिन्दू भक्त को विश्वास नहीं है। यदि हनुमान जी प्रसन्न नहीं होंगे तो राम जीयदि राम जी भी नहीं तो सीताराधाकृष्णशिव-पार्वती कोई तो होगातैंतीस करोड़ हैं। यदि इनसे भी काम नहीं बना तो पीर साहब हैंवह (हिन्दू भक्त) यह भी नहीं सोचता कि जिन पीर साहब से वह मांग रहा हैउनका शव तो खुद कब्र में पड़ा कयामत का इन्तजार कर रहा है। बहुतायत हिन्दू मूर्तिपूजक तो हैं हीशव पूजक भी सिद्ध हैं। गुरुद्वारे में भी तो अरदास लगाई जा सकती है। जालंधर के एक गुरुद्वारे में विदेश यात्रा के इच्छुक भक्तों को सौ रुपये से लेकर पांच सौ तक का वायुयान चढावे में देने पर गुरुग्रन्थ साहिब अवश्य मनोकामना पूरी करेंगे- आश्वासन दिया जा रहा है। प्रेम-प्रसंगों की बात ही छोड़िए ऐसी असंख्य मांगें प्रभु के सामने प्रस्तुत की जाती हैं।

    ऐसी मांगों की पूर्ति के करने के लिये भगवान को रिश्वत देने का प्रस्ताव भी बड़ी सुन्दरता से किया जाता है। यह तो आम प्रार्थना है। हे प्रभु ! यदि आप मेरी याचना स्वीकार कर लेंगे तोमांग पूरी कर देंगे तो आपको सवा किलो का प्रसाद चढाऊँगा/चढाऊँगी। यह सवा किलो से सवा मनफिर प्रसाद का प्रकार परिवर्तन चढावा-चादर से लेकर चांदीअपार सम्पत्ति इकट्‌ठी होती जा रही है। भगवान के पास पहुँचती नहीं दिखती। ठीकउसी प्रकार जिस प्रकार श्राद्ध पक्ष में पण्डितोंकौवों को खिलाया हुआ पितरों तक स्वर्ग पहुँचता नहीं दिखता।

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    हमारे में से कुछेक की मनोकामना पूरी हुई तो हजार मुख से प्रचारित होगा कि ऐसी उल्टी-सीधी मनोकामना की पूर्ति भी भगवान करता हैयदि यह कामना/याचना "सच्चे मन" से की जावे। "सच्चे मन का तत्व" इसलिये प्रविष्ट करा दिया जाता है कि यदि कामना की पूर्ति नहीं हुई तो आरोप जड़ा जा सकता है कि तुम्हारा मन "सच्चा" नहीं था। गणेश जी ने भी दुग्धपान किसी आर्यसमाजी से नहीं किया होगाक्योंकि इस काम के लिये उसका मन सच्चा नहीं माना जायेगा। यह व्यक्ति आर्यसमाजी हैजानकर किसी गणेश भक्त ने उस आर्यसमाजी से अनुरोध भी नहीं किया होगा कि वह गणेश प्रतिमा को दुग्धपान करावे। गणेश जी ने दुग्धपान किया थाइसका कारण र्डीीषरलश ींशपीळेप को बताते हुए वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का प्रयास जिस भारतीय वैज्ञानिक ने किया था वह भी संस्कारवश पौराणिक परिवार में ही उत्पन्न हुआ होगा।

    थोड़ा व्यतिरेक हो गया दिखता हैलेकिन ऊटपटांग कामनाओं की पूर्ति ईश्वर करता है या नहींइसका स्पष्ट विवेचन आवश्यक प्रतीत हुआ। वास्तविकता ऐसी नहीं है। वेद का ईश्वर यदि पौराणिकों के ईश्वर की तरह किया करता तो मुस्कराता और कहता- ये याचक न मुझे समझते हैं और न मेरी रचना सृष्टि को। इस सम्पूर्ण सृष्टिकेवल यह पृथ्वी ही नहींचॉंद-सितारेअसंख्य सूर्यअसंख्य आकाश गंगाएँइन सबका रचयितानियन्ता मैंसर्वशक्तिमाननिराकार परब्रह्म हूँ। समस्त कार्य-व्यापारों का नियम न्यायपूर्वक करता हूँ। ईश्वर के इस स्वरूप को न समझते हुए हम मांगते हैं- धन-दौलतमोटरमकानपुत्र-पुत्रीमुकदमे में जीतशत्रु का विनाशदैहिक प्रेम में सफलता आदि- आदि।

    ईश्वर कहता है - सुख-समृद्धि और ये समस्त याचना की गई वस्तुओं को देने का एक मैकेनिज्मएक विधि समस्त मानवों के लिये मैंने निर्धारित कर दी है। मेरे अनन्त वैभव सेअपार क्षमता सेसर्वशक्तिमत्ता से तुम भरपूर लाभ उठा सकते हो। लेकिन माध्यम वही तरीका होगा जिसे विद्वान लोग "कर्मफल सिद्धान्त" के रूप में निरूपित करते हैं। और इसी सिद्धान्त के अनुसार तुम्हारे अनन्त जन्मों केअनन्त पाप-पुण्यों के कर्मों के लेखे अनुसार जो तत्व शेष रहता है उसे "प्रारब्ध" के रूप में परिभाषित करते हैं। सौभाग्य ऐसी कुछ चीज नहीं है जिसे मैं कुछ को देता हूँ और कुछ को नहीं देता।

    महाकवि तुलसीदास का यह वचन सत्य नहीं है- "रहिए जिस विध राम रचि राखा"। रचा तुमने हैकर्म तुमने किए हैंकेवल फल का निर्धारण राम (परमात्मा) ने अपने पास सुरक्षित रखा है। और उस कर्मफल-भाग्य के सहारे मनुष्य कैसे-कैसे नाच नाचता है। इस कर्मफल सिद्धान्त का नियमन परम दयालु परमात्मा अत्यन्त कठोर प्रतीत होने वाली न्याय प्रक्रिया द्वारा करता है।

    मानवतू मेरी रचना है। मैंने तुझे देह देकर सृष्टि के समस्त भौतिक सुखों का आनन्द लेने के लिएमेरी रचना सामर्थ्य देखने के लिये तेरा निर्माण किया है । पर तेरी यह देह भौतिक सुखों के उपभोग के अतिरिक्त और कुछ कर्म-सुकर्म करने के लिये भी दी है। दिए हैं तुझे कुल सौ वर्ष। भोगयोनि से पृथक्‌ करने के लिये "बुद्धि" दी है। तू मुझे व मेरी रचना को समझ। सत्‌ चित्त से आनन्द की ओर अग्रसर करने के लिये ही यह "धी" तुझे दी है। तुझे स्वत: ज्ञान नहीं दियापरन्तु समस्त ज्ञान-विज्ञान के भण्डार वेद तुझे उपलब्ध करा दिए हैं।

    तू अल्पज्ञ हैइसलिये मैं तुझे यह भी बताता हूँ कि तुझे मुझसे क्या मांगना चाहिए। हे देहधारी मनुष्य ! कामक्रोधलोभमोहमदमत्सर में तू सभी अन्य जीवधारियों के सदृश है। इनसे युक्त कार्य-व्यवहार में अन्य जीवधारियों से तुझमें रंचमात्र भी भेद नहीं रखा। इनसे जनित कामनाओंवासनाओं की पूर्ति भी इन जीवधारियों के समान ही तू भी करेगा- परतुझे दी है बुद्धि और विवेक। यही अच्छे-बुरे कर्म का निर्णय करेगी। तेरी सहायता के लिये ही तो मैं तेरे हृदय स्थल में विराजमान हूँ। बुरा काम करने के पहिले चेतावनी दूँगा- भयशंका व लज्जा तेरे मन में उत्पन्न करुँगा- अच्छा काम-सत्कार्य करने पर तेरा मन आनन्दअल्हाद से भर दूँगा। होगा यह क्षण मात्र में ही। मान या न मान तेरी मर्जी। और इस प्रकार विवेक/अविवेक से किए गए कर्मतेरा कर्मफल-भाग्य या दुर्भाग्य निर्धारित करेंगे और तदनुसार ही तुझे सुख-दु:ख मिलेंगे।

    इसलिए तुझे बताता हूँ कि तू मुझसे क्या मांग-

    1. धियो यो न: प्रचोदयात्‌।
    2. दुरितानि परासुव।
    3. उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌।
    4. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।

       सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित्‌ दु:ख भाग्‌भवेत्‌।
    5. द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति:। शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।

    सम्पूर्ण वेद में अपनी तथा समस्त सृष्टि के कल्याण की कामना के अनेक मन्त्र मिल जायेंगेवही मांग और कुछ मांगने योग्य नहीं। अभिमन्यु कुमार खुल्लर

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    In order to fulfill such demands, a proposal to bribe God is also made with great beauty. This is a common prayer. Oh God ! If you accept my petition, then if you fulfill the demand, then I will offer you a prasad of 1.25 kg. This change from a quarter to a quarter to a quarter to a quarter, then from offerings to silver, immense wealth is being collected. Do not appear to reach God. Exactly, in the same way that heaven does not appear to the ancestors and crows fed to the fathers in the Shraddha Paksha.

     

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  • प्रभो ! मुझे वाणी की मधुरता प्रदान कीजिये

    ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।
    औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

    ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के इक्कीसवें सूक्त के छठे मन्त्र में जहॉं अपने उल्लासमय जीवन के लिये अनेक प्रार्थनायें की गई हैं, वहीं "वाचः स्वाद्‌मानं धेहि' कहते हुए वाणी की मधुरता प्रदान करने की भी प्रार्थना परमात्मा से की गई है।

    मनुष्य जीवन में वाणी का बड़ा महत्व है। वाणी को मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण कहा गया है। नीति-शतक के एक श्लोक का सारांश है कि मनुष्य को उसकी सुसंस्कृत वाणी ही अंलकृत करती है। अन्य आभूषण तो क्षीयमान हैं। किन्तु वाणी रूपी आभूषण ही वास्तव में मनुष्य का आभूषण है। रहीम ने भी कहा है- रहिमन कटुक वचन ते दुख उपजत चहुं ओर।

    Ved Katha Pravachan _93 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    महाभारत युद्ध के अनेक कारणों में से एक कारण वाणी का दुरुपयोग भी है। दुर्योधन प्रकृत्या महत्वाकांक्षी और ईर्ष्यालु तो था ही, किन्तु बिना सोचे-समझे द्रोपदी, अर्जुन, कृष्ण, नकुल, सहदेव और भीम के वचन तथा उपहासपूर्ण व्यवहार ने उसकी ईर्ष्याग्नि में घृत का कार्य किया था। युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ के समय उसको भण्डारगृह का अधिपति बनाया गया था। विभिन्न देशों के राजा-महाराजाओं द्वारा दी जाने वाली भेंट और सम्पत्ति, धन-दौलत, आभूषण आदि एकत्रित हो गये थे कि दुर्योधन की आँखें चौंधिया गई और वह ईर्ष्या से दहकने लगा था तथा इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था।

    उसकी ऐसी दशा देखकर मामा शकुनि ने धृतराष्ट्र से इसका वर्णन किया तो धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलाकर कहा, '"पुत्र ! तुम्हारे पास भी किसी वस्तु की कमी तो है नहीं। तम्हारे लिये भी पाण्डवों जैसा सभागार बनवाया जा सकता है। अतः तुम पाण्डवों की समृद्धि को देखकर अपना मन छोटा मत करो।'' यह सुनकर दुर्योधन अपनी व्यथा का बखान करते हुए बोला, "तात ! युधिष्ठिर के सभा-भवन को बहुमूल्य रत्नों से, जिनके ऊपर स्फटिक मणि भी लगी हुई थी, ऐसा रचा है कि उसका फर्श मुझे कमलों से सजी पानी से लबालब भरी वापी (बावड़ी) प्रतीत हुई। मैंने उसे पानी से भरी बावड़ी समझकर उधर से जाते हुए अपने कपड़े ऊपर को उठा लिये तो भीम खिलखिला कर हंस पड़ा। उसके हंसने का एक भाव यह भी था कि उसके पास अपार ऐश्वर्य है और मैं निरैश्वर्य हूं। उस समय मन में आया कि उसका वहीं पर गला घोंट दूँ। किन्तु तभी मेरी समझ में आ गया कि यदि मैंने ऐसा किया, तो मेरी भी वही गति होगी जो गति कृष्ण ने शिशुपाल की की थी। शत्रु द्वारा किया गया इस प्रकार का उपहास मुझे जलाये डाल रहा है। मैंने आगे चलकर फिर देखा कि वैसी ही कमलों से सजी एक अन्य बावड़ी है। मैंने पहले के समान उसे भी रत्नकमल जटिल पत्थर ही समझा और मैं आगे बढ़ा तो पानी में गिर पड़ा। यह देखकर कृष्ण और अर्जुन ठहाका मारकर हंसे, तो द्रोपदी भी अपनी सखियों के साथ खिलखिला पड़ी। इस उपहास से मुझे मर्मान्तक वेदना हुई। पाण्डवों के सेवकों ने मेरे लिये अन्य वस्त्रों की व्यवस्था कर दी। हे राजन ! और भी जो धोखा हुआ वह भी सुनिये। एक दीवार पर द्वार सा प्रतीत होता था। जब मैं उससे निकलने लगा तो मेरा मस्तक दीवार से टकराकर चौटिल हो गया। नकुल सहदेव ने यह देखकर मुझे अपनी बाहों में थामते हुए खेद व्यक्त किया और बोले राजन्‌ ! द्वार यह है वह नहीं। उसी समय उच्च स्वर में हंसते हुए भीम ने कहा, धृतराष्ट्रपुत्र! द्वार यह है, वह नहीं। धृतराष्ट्रपुत्र कहकर प्रकारान्तर से उसने मुझे अन्धा कह दिया।'' 

    इस सारे प्रकरण से स्पष्ट है कि पाण्डवों का गर्व मिश्रित यह उपहास और उसे धृतराष्ट्र-पुत्र कहकर पुकारना, जिससे दुर्योधन को अन्धा कहना ध्वनित होता है, साधारण बात नहीं अपितु व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुत बड़ी भूल थी। कटु और व्यंग्यात्मक वाणी तथा मधुर वाणी में यही अन्तर है। नम्र वाणी तो जादू का सा प्रभाव डालती है। इस प्रकार महाभारत युद्ध का एक कारण कटुवाणी भी थी, जिसने दुर्योधन को विचलित कर दिया और उसने युधिष्ठिर की उस सम्पत्ति को हड़पने के उपाय में पाण्डवों को वनवास तक दिला दिया।

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    इसके विपरीत महाभारत का ही वह प्रसंग भी है जब महाभारत युद्ध आरम्भ ही होने वाला था और समुद्र के समान विशाल सेनायें युद्धभूमि पर खड़ी थी, तब युधिष्ठिर अपने शस्त्रास्त्र अपने रथ पर रखकर हाथ जोड़ता हुआ शत्रु सेना की ओर बढ़ चला। उसे इस प्रकार जाता देखकर अर्जुन भी उसी प्रकार उसके पीछे-पीछे चलने लगा, तो कृष्ण सहित सभी पाण्डव भी चलने लगे। पर कहॉं और क्यों जा रहे हैं, यह किसी को ज्ञात नहीं था। उनकी यह दशा देखकर कृष्ण ने कहा, '"भैया युधिष्ठिर सर्वप्रथम भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य की अनुमति लेकर शत्रु से युद्ध करेंगे।''

    उधर युधिष्ठिर को कौरव सेना की ओर जाता देखकर कौरवों के सैनिक यह अनुमान करने लगे कि हमारी सेना की विशालता को देखकर युधिष्ठिर युद्ध न करने का विचार व्यक्त करने आ रहा है। इस प्रकार चलते हुए युधिष्ठर ने शस्त्रास्त्र से सज्जित भीष्म के सम्मुख जाकर उनके चरण पकड़कर कहा, '"तात! आपसे आपके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति लेने के लिए हम लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं। कृपया आज्ञा और आशीर्वाद देकर हमें अनुग्रहित कीजिये।'' भीष्म, युधिष्ठिर के श्रद्धापूर्ण तथा स्नेहिल वनचों को सुनकर गद्‌गद्‌ हो गये और बोले, '"पुत्र ! मैं प्रसन्न हुआ।

    तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो।'' इसी प्रकार युधिष्ठिर द्रोण, कृप और शल्य के पास गये तो उन सब पर भी उसकी वाणी का वही प्रभाव हुआ जो भीष्म पर हुआ था और उन्होंने भी उसी प्रकार आशीर्वाद देकर उसके विजय की कामना की। उसके बाद युधिष्ठिर कौरव सेना की ओर उन्मुख होकर बोले, "जो योद्धा हमें न्याय के मार्ग पर समझकर हमारी सेना में आना चाहता हो हम उन्हें गले लगाने को उद्यत हैं।'' यह सुनकर दुर्योधन का सहोदर भाई "युयुत्सु' बोला, "यदि आप मुझे अपना सकें तो मैं आपकी ओर से कौरवों से लड़ने को उद्यत हूँ।'' युधिष्ठिर ने उसे गले लगाया और कहा कि प्रतीत होता है युद्धोपरान्त धृतराष्ट्र के नामलेवा तुम ही रहोगे।

    यह बात दूसरी है कि यदि भीष्म आदि इस परिस्थिति के उपस्थित होने से पूर्व ही दुर्योधन को उसके कुमार्ग से हटाने का यत्न करते तो कदाचित महाभारत युद्ध न होता और 18 अक्षोहिणी सेना नष्ट न होती और महिलायें विधवा तथा उनके बाल-बच्चे अनाथ न होते एवं युद्धोपरान्त कुछ काल के पश्चात जो दुराचार और अनाचार देश में फैला वह भी न फैलता।

    इसी प्रसंग में दुर्योधन की कुटिल मृदुभाषिता का भी एक उदाहरण यह है कि लोलुपता और चाटुकारिताप्रिय मद्रनरेश जो नकुल और सहदेव का सगा मामा था, दुर्योधन की नम्रता और सद्‌व्यवहार पर मुग्ध होकर उसकी ओर से युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया था। दुर्योधन के उस अभिनय को लोलुप शल्य समझ नहीं पाया था। पाण्डवों का सगा मामा विरोधी पक्ष में हो जाए, यह मीठी वाणी और सद्‌व्यवहार का ही तो चमत्कार था। 

    मृदु वाणी और कटु एवं व्यंग्यात्मक वाणी के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव से सम्बन्धित महाभारत युद्ध के ये प्रसंग मनुष्य की आँखें खोलते हुए इस लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं कि मृदु वाणी ही सफल एवं स्वच्छ जीवन का सार है। महाभारत के ही एक अन्य प्रसंग में महात्मा विदुर ने वाणी के विषय में एक सुन्दर उदाहरण देेते हुए कहा है कि बाणों से बीन्धा हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाड़ी से काटा गया वृक्ष अथवा वन पुनः हराभरा हो जाता है, किन्तु कटु वाणी द्वारा बीन्धा गया व्यक्ति का घाव कभी नहीं भरता। 

    कागा किससे क्या लेत है, कोयल किसको क्या देत।
    मधुर वचन बोल के, जग अपनो करि लेत।।आचार्य डॉ. संजयदेव

     

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    Voice has great importance in human life. Vani has been called the greatest jewel of man. The summary of one verse of Niti-century summarizes that man is his cultured voice. Other ornaments are dilapidated. But speech ornament is really a human ornament. Rahim has also said - Rahiman katuk vaan te dukh upjat chahinder

     

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  • प्रान्तीयता घातक है

    विनायक दामोदर सावरकर ने सन्‌1911 में अण्डमान (कालापानी) की जेल में अमानवीय यातनाएं सहन कर रहे थे। तेल पेरने जैसे मशक्कत के कठोर काम से छूट मिलते ही वे कैदियों को हिन्दी सिखाने के काम में लग जाते थे। उन्होंने हिन्दी की पुस्तकें मंगवाई तथा उन्हें जेल के पुस्तकालय में रखवाया, जिससे कैदी रामायण, गीता तथा अन्य हिन्दी पुस्तकों का अध्ययन कर सकें।

    Ved Katha Pravachan -10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक दिन सावरकर जी ने गैर हिन्दी भाषी अपने साथी बन्दियों के बीच कहा- "बंगलामराठीतेलगू आदि सभी भाषाएँ प्रान्तीय हैं। उनका विशेष महत्व है। किन्तु तमाम भारत को अटक से लेकर कटक तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक को जोड़ने की सामर्थ्य केवल हिन्दी भाषा में है। बद्रीनाथ-केदारनाथ तीर्थयात्रा के लिये आने वाले दक्षिण भारत के लोग भी हिन्दी सहजता से समझ लेते हैं। संस्कृत के शब्दों की अनेक प्रान्तीय भाषाओं में बहुतायत है। संस्कृत हिन्दी तथा अन्य अनेक भाषाओं की जननी है। इसलिए हिन्दी ही सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा कहलाये जाने की क्षमता रखती है।''

    एक दिन जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट बारी ने कुछ बन्दियों को बरगलाया कि सावरकर हिन्दी की आड़ में बंगालीपंजाबी आदि को खत्म करना चाहते हैं। सावरकर जी ने उन्हें समझाया कि "मैं स्वयं मराठी भाषी हूँफिर भी हिन्दी के महत्व को समझता हूँ। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुजराती भाषी होते हुए भी हिन्दी में "सत्यार्थ प्रकाशलिखा।'' उन्होंने हिन्दी पढ़ानी जारी रखी।

    सन्‌ 1915 में सावरकर जी के भाई बाल ने उन्हें कुछ पत्र-पत्रिकाएं व साहित्य भेजा। एक पत्रिका में 'आन्ध्र माता की जयशीर्षक देखकर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा- "इस प्रकार की प्रान्तीयता की भावना से राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी। हम सब मराठियोंबंगालियोंतमिल वासियों सभी को अपने-अपने प्रान्तों पर गर्व करते हुए हिन्दी को एकता का सूत्र मानकर "भारत-राष्ट्रकी भावना पुष्ट करनी चाहिए। हमें "बंग आमारकी जगह "हिन्दी आमारका गीत गाना चाहिए।'' 

    "महाराष्ट्र में केवल "मराठी चलेगीका दुराग्रह  करने वालों को महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर जी के उपरोक्त विचारों से शिक्षा होनी चाहिए। शिवकुमार गोयल

     

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    One day Jail Superintendent Bari tricked some prisoners that Savarkar wants to end Bengali, Punjabi etc. under the guise of Hindi. Savarkar ji explained to him that "I myself am Marathi speaking, yet I understand the importance of Hindi. The founder of Arya Samaj Swami Dayanand Saraswati wrote" Satyarth Prakash "in Hindi despite being Gujarati speaking." He continued to teach Hindi.

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  • प्रेरक प्रसंग

    हिन्दवी साम्राज्य का सेनापति

    स्वातन्त्र्यवीर सावरकर तात्या टोपे को छत्रपति शिवाजी के समान महान्‌ सेनापति मानते हैं। सावरकर जी लिखते हैं- "श्री तात्या टोपे मानो पराभूत शिवाजी थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रयत्न को यश नहीं मिला, इतना ही दोनों में अन्तर था। किन्तु सेनापतित्व से दोनों समान थे।''

    युद्ध क्षेत्र में होने वाली उनकी गतिविधियॉं इतनी वेगवान थीं कि बड़े-बड़े सेनापति दॉंतों तले उंगली दबाते थे। ब्रिगेडियर राबर्ट्‌स ने तात्या टोपे पर जब आक्रमण किया तो वे दहाड़कर बोले, "हिन्दवी साम्राज्य का मैं सेनापति हूँ।''

    तात्या की बहादुरी देख अंग्रेज हैरान हो गए।18 अप्रैल1859 को तात्या टोपे को फॉंसी की सजा दी गई।

    Ved Katha Pravachan _82 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    धीरज

    भगवान बुद्ध भ्रमण कर रहे थे। लम्बा सफर तय करने के उपरान्त उन्हें मार्ग में प्यास लगी। उन्होंने आनन्द से समीपस्थ झरने से पानी लाने के लिए कहा। जबकि उन्होंने देखा कि कुछ समय पूर्व ही वहॉं से बैलगाड़ियॉं गुजरी थीं तथा बैलों ने सारा जल गन्दा कर दिया था। उसके बावजूद भी बुद्धदेव ने आनन्द से वहीं से जल लाने को कहा।

    आनन्द जल लेने चले गएकिन्तु कुछ ही देर बाद वे आए और बुद्धदेव से बोले- "यहॉं का जल गन्दा है। मार्ग में हमें जो नदी मिली थीमैं वहॉं का जल लाता हूँ।'' किन्तु बुद्धदेव बोले- "झरने से ही जल ले आओ।'' आनन्द जब झरने के पास गए तो उन्होंने देखा कि जल अभी भी साफ नहीं हुआ है। वे वापस आ गए और बुद्धदेव से उन्होंने फिर जल के गन्दे होने की बात बताई। बुद्धदेव ने उन्हें पुनः झरने का ही जल लाने भेजा। किन्तु गन्दा जल देख आनन्द की इच्छा न हुई कि उसे अपने स्वामी को पिलाया जाए। वे लौट आए और बुद्धदेव ने पुनः उन्हें वापस भेजा। ऐसा तीन बार हुआ। चौथी बार जब आनन्द वहॉं गए तो देखा कि मिट्टी और सड़े-गले पत्ते नीचे बैठ चुके हैं तथा पानी आईने की भॉंति चमक रहा है। इस बार वे जल लेकर लौटे।

    तब बुद्धदेव बोले- "आनन्द! जीवनरूपी जल को भी कुविचारूपी बैल प्रतिदिन गन्दा करते रहते हैं और तब हम जीवन से पलायन करते हैं। किन्तु हमें भागना नहीं चाहिएबल्कि मनरूपी झरने के शान्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसके लिए धीरज की आवश्यकता है। तभी सब कुछ स्वच्छ दिखाई देगाठीक इस झरने की तरह।''

    अब जाकर आनन्द की समझ में आया कि बुद्धदेव क्यों बार-बार उसे झरने का ही जल लाने के लिए कह रहे थे। धीरज रखने से ही गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

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    Lord Buddha was traveling. After traveling a long way, he got thirsty on the way. He asked Anand to bring water from the nearby waterfall. While he saw that some time ago bullock carts had passed from there and the bulls had messed up all the water. Even then, Buddhadev asked Anand to bring water from there.

     

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  • बहुआयामी व्यक्तित्व स्वामी श्रद्धानन्द

    बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म पंजाब के तलवन नामक गॉंव में 23 फरवरी 1857 को हुआ था। उनका पहला नाम बृहस्पति था, परन्तु बाद में उन्हें मुंशीराम कहा जाने लगा। 1917 में संन्यास के बाद उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हुआ। उनके पिता नानकचन्द थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारस और लाहौर में हुई। उनका विवाह श्रीमती शिवदेवी से हुआ, जो 35 वर्ष की अवस्था में अपने दो पुत्रों तथा दो पुत्रियों को छोड़कर चल बसी। मुन्शीराम नायब तहसीलदार बने। उन्होंने यह नौकरी छोड़कर फिल्लौर में और बाद में जालन्धर में वकालत शुरू कर दी। यहॉं भी उनका मन नहीं लगा और वे स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाज के क्षेत्र में प्रवृत्त हुए। उन्होंने 4 मार्च 1902 को वैदिक ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप राष्ट्र के लिए समर्पित नवयुवक तैयार करने हेतु गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की।

    Ved Katha Pravachan _77 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    दक्षिण अफ्रीका से लौटकर महात्मा गांधी गुरुकुल कांगड़ी में आए। महात्मा मुन्शीराम से उनका मेलजोल बढ़ा और वे भी देश को स्वाधीन कराने की राह पर चल पड़े। मोहनदास कर्मचन्द गांधी को उन्होंने 'महात्माकी उपाधि से विभूषित किया। 1917 में वे संन्यासी हो गए। वे दिल्ली आकर रहने लगे। यहॉं उन्होंने दलितों और अनाथों के लिए संस्थाएं बनायी। यहॉं से उर्दू में "तेजऔर हिन्दी में "अर्जुननामक समाचार पत्र निकाला। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हड़तालों तथा धरना-प्रदर्शनों का आयोजन किया। रौलट एक्ट का विरोध किया। सैनिकों की संगीनों का छाती तानकर सामना किया। जामा मस्जिद से व्याख्यान देने वाले वे पहले और आखिरी हिन्दू थे। वे हिन्दुओं तथा मुसलमानों सभी के रहनुमा थेउनका जीवन त्याग और तपस्या से परिपूर्ण था। उन्होंने 23 दिसम्बर 1926 को अन्तिम सांस ली। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 30 मार्च 1970 को एक डाक टिकट जारी किया था। शताब्दी वर्ष 2002 में भारत सरकार ने गुरुकुल कांगड़ी पर डाक टिकट जारी किया। 

    स्वामी श्रद्धानन्द के प्रयास से जलियांवाला बाग काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का महाअधिवेशन हुआ था। उसमें कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता उपस्थित थे। पं. मोतीलाल नेहरू और महामना मदनमोहन मालवीय उस समय कांग्रेस के अग्रणी कार्यकर्त्ता थे। स्वामी श्रद्धानन्द उस समारोह के स्वागताध्यक्ष थे। स्वामी जी ने उस समय देशवासियों को चार परामर्श दिए थे- 

    1. केवल इतनी आवश्यकता है कि आर्य लोग अपने आचरण को उत्तम बनाकर दीपक बनेंताकि उनसे दूसरे दीपक जलाए जा सकें। 

    2. सभी प्रान्तों में मैंने देखा है कि हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे पर सन्देह करने लगे हैं। किन्तु हिन्दू सामाजिक दृष्टि से बिखरे हुए हैं। मेरी सम्मति में इसका उपाय एक ही है कि हिन्दू नेता हिन्दू समाज को सामाजिक दृष्टि से संगठित करें और मुसलमान नेता खिलाफत की अपेक्षा स्वराज्य की प्राप्ति पर अधिक ध्यान दें।

    3. यदि देश और जाति को स्वतन्त्र देखना चाहते हो तो स्वयं सदाचार की मूर्ति बनकर अपनी सन्तान में सदाचार की बुनियाद रखो। जब सदाचारी-ब्रह्मचारी शिक्षक हों और कौमी हो शिक्षा पद्धतितब ही कौम की जरूरत पूरी करने वाले नौजवान निकलेंगे। अन्यथा अपनी सन्तान विदेशी विचारों और विदेशी सभ्यता की गुलाम बनकर रहेगी।

    4. ईसाई मुक्ति फौज भारत के साढ़े छः करोड़ अछूतों को विशेष अधिकार दिलाने के लिए प्रयत्नशील हैै। क्योंकि वे भारत में ब्रिटिश सरकार के जहाज के लिए लंगर के समान हैं। आज से ये साढ़े छः करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहेबल्कि हमारे भाई-बहन हैंहमारे पुत्र-पुत्रियॉं हैं। उन्हें मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करो। उन्हें पाठशालाओं में पढ़ाओ। उनके गृहस्थ नर-नारियों को अपने सामाजिक व्यवहार में सम्मिलित करो। 

    स्वामी जी महाराज ने ये चार परामर्श दिये थे। ये भारतीयता की रक्षा के इतिहास मेंभारतीय गौरव की पुनःस्थापना के इतिहास में तथा वैदिक धर्म के प्रसार के इतिहास में प्रकाश-स्तम्भ के समान हैं। पहली बात में उन्होंने सम्पूर्ण आर्यजाति का आह्वान किया है कि वे दीपक के समान तेजस्वी हों। वे दीपक के समान मार्गदर्शक होकर अपने आपको तिल-तिल करके होम कर देने वाले हों। निश्चय ही उनका अपना जीवन दीपक था। उन्होंने दूसरों को मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने आपको दीपक के समान जला दिया। उन्होंने देश और जाति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया। उन्होंने तो सर्वमेध यज्ञ किया था। वे प्रारम्भिक जीवन में क्या थेसभी जानते हैं। पर आगे चलकर उन्होंने अपने आपको कितना आचारवान्‌ बनायायह भी किसी से छिपा नहीं है। वे सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति थे। सार्वजनिक व्यक्ति का कोई व्यक्तिगत जीवन नहीं होता। उसका तो एक-एक क्षण सबके सामने होता है। उसका कोई भी कार्य अपने लिए नहीं होता। उसके सभी कार्य दूसरों के लिए होेते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन स्वच्छ दर्पण के समान आभासमान था। संस्थाओं के सर्वोच्च अधिकारियों को उनके जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। उन्हें सदाचारी बनना चाहिए। उन्हें प्रकाशस्तम्भ बनना चाहिए।

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    स्वामी जी महाराज ने हिन्दू जाति के संगठन की बात कही है। यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यदि हमें कुछ पाना हैअपने राष्ट्र का उद्धार करना हैआर्य जाति को प्रगति के पथ पर लाना है तथा आर्य जाति को गौरवान्वित करना हैतो हमें संगठित होना ही होगा। संगच्छध्वं  संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌का नाद गुंजाना ही होगा। आज हमारे अनेक भाई छोटे-छोटे विवादों में फंसे हैं। वे उस बृहद उद्देश्य को भूल चुके हैंजो ऋषि ने हमें बताया था तथा जिस मार्ग पर स्वामी श्रद्धानन्द चले थे। संगठनात्मक दृष्यि से आज भी सुदृढ़ता की आवश्यकता है। स्वामी श्रद्धानन्द एक शहीद की मौत मरे। हर किसी की कामना हो सकती है कि वह शहीद की मौत मरे। पर शहीद वही होता है जो किसी उद्देश्य के लिए अपने को न्योछावर करे।  स्वामी श्रद्धानन्द ने उसी संगठनात्मक सुदढ़ता और एकता के लिए अपने जीवन का बलिदान किया। वह तो वीर पुरुष थे। वे वीरता की ही मृत्यु को प्राप्त हुए। कायर लोग अपने जीवम में अनेक बार मरते हैं। वे जब भी डरेंगेतभी मरेंगे। परन्तु वे बहादुर ही सदा याद किये जाएंगेजो निर्भीक होंगेअपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होंगे। 

    स्वामी जी ने अपनी सन्तान को सदाचारी बनाने की बात कही है। 'जनया दैव्यम्‌ जनम्‌यह वेद का आदेश है। स्वयं सदाचारी बनो तथा अपनी सन्तति को सदाचारी बनाओ। स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति के माध्यम से दिव्य व्यक्तित्वों के निर्माण की बात अपने मन में सोची थी। उनका सपना सच हुआ। गुरुकुल के सैकड़ों स्नातकों ने अपने-अपने क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। स्वामी श्रद्धानन्द अपने दोनों पुत्रों हरिश्चन्द्र और इन्द्रचन्द्र को लेकर गंगा के किनारे बीहड़ जंगल में चले गए थे। वहीं पर उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के अपने सपने को साकार किया। उन्होंने भारतीय इतिहास एवं दर्शन की उन्हें शिक्षा दी। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उन्हें शिक्षा दी। सदाचार की उन्हें शिक्षा दी। उन्हें अपने देश पर बलिदान होने की शिक्षा दी। उन्हें वीरता एवं निर्भीकता प्रदान की। गुरुकुल का विद्यार्थी "भयकरना नहीं जानता। वह तो साक्षात्‌ "वीरताहै। स्वामी श्रद्धानन्द तो कर्मशूर भी थे। उन्होंने जो कहा वह करके दिखाया। वे केवल भाषण तक सीमित नहीं थे। आज के भाषणकर्त्ताओें का प्रभाव नहीं पड़ताक्योंकि उनकी कथनी और करनी में अन्तर होता है। असली प्रभाव उसी का पड़ता हैजो जैसा कहता है वैसा ही करता भी है। सत्य का उपदेश करने वाले को सत्यवादी होना चाहिए। कर्म का उपदेश करने वाले को कर्मशील होना चाहिए। संयम का उपदेश करने वाले को संयमी होना चाहिए। स्वामी श्रद्धानन्द में ये सभी गुण विद्यमान थे।

    आप अपनी सन्तान को सदाचारी बनाएं। उन्हें देश और जाति पर गर्व करने वाला बनाएं। उन्हें नित्य संध्या और अग्निहोत्र करने वाला बनाएं। तभी देश और जाति की रक्षा हो सकती है। आज के विषाक्त वातावरण में सदाचारी लोगों की आवश्यकता है। 

    स्वामी श्रद्धानन्द का चौथा परामर्श वास्तव में एक चेतावनी है। धर्मान्तरण उस समय भी हो रहा थाआज भी हो रहा है। देश के गरीब लोगों को ईसाई बनाया जा रहा थाआज भी बनाया जा रहा है। उन्हें आज मुसलमान भी बनाया जा रहा है। स्वामी श्रद्धानन्द के हृदय में एक टीस थी। इसीलिए उन्होंने दलितोद्धार सभा बनायी। वे नहीं चाहते थे कि धर्मान्तरण हो। दलितोद्धार का मूल मन्त्र है कि सभी को समानता का अधिकार दिया जाए। सभी जगह समता सम्मेलन आयोजित किए जाएं। जब सभी को समान सम्मान मिलेगाऊँच-नीच का भेद समाप्त हो जाएगासभी को समान अवसर मिलेंगेतो स्वतः ही धर्मान्तरण का चलन समाप्त हो जायेगा। इस कार्यक्रम को वास्तविक व्यवहार में लाने की आज भी उतनी ही आवश्यकता हैजितनी कि स्वामी श्रद्धानन्द के समय थी। स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान दिवस मनाने की सार्थकता इसी बात में है कि भारतवासी उनके सच्चे अनुयायी बनें। अपनी सन्तान को श्रेष्ठ एवं वैदिकधर्मी बनायें तथा सभी को गले लगाएं। अपनी भाषा का प्रयोग करें। मद्यादि व्यसनों से दूर रहें तथा गोरक्षा हेतु प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार हों। -डॉ. धर्मपाल

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    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
    नरेन्द्र तिवारी मार्ग
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    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
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    Akhil Bharat Arya Samaj Trust
    Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
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    Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan
    Annapurna, 
    Indore (M.P.) 452009
    Tel. : 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajannapurnaindore.com 

    The Christian Liberation Army is trying to give special rights to the six and a half crore untouchables of India. Because they are similar to anchors for British government ships in India. From today, these six and a half crores are not untouchables for us, but are our brothers and sisters, our sons and daughters. Cleanse them with the love water of the motherland. Teach them in schools Include their men and women in their social behavior.

     

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  • बोलना सिखाया जिन्होंने अब उनसे ही बोलते नहीं

    घर-परिवार

    शीर्षक में इंगित समस्या आज की ही नहीं, पुरातन काल से चली आ रही है, भले पहले अतिन्यून हो, अब अत्यधिक है। महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूर्ण प्रभावित होकर छलेसर के रईस ठाकुर मुकुन्दसिंह ने उनको आग्रहपूर्वक अपने गॉंव में आमन्त्रित किया। हाथी-घोड़ा-पालकी-सैनिक व विशाल जन-समूह के साथ उनका स्वागत किया। उनके प्रवास के लिये नवीन भवन बनवाया। विशेष यज्ञ रचाया। पण्डित व प्रजाजन की वहॉं भीड़ लगी रही। इतने कोलाहल में भी ठाकुर मुकुन्दसिंह के पुत्र कुँअर चन्दनसिंह का मौन महर्षि को बहुत अखर रहा था। कारण कुछ भी हो, पिता-पुत्र की बोलचाल बन्द थी। ग्राम में कुम्भ जैसा मेला और उसका शोर, फिर भी पिता-पुत्र में मनोमालिन्य बना रहे, महर्षि इस पीड़ा को सहन नहीं कर सके। इन दोनों के सम्मुख वे बोले और ऐसा बोले कि पिता ने निज पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला दी तथा उसे अपनी गोदी में बैठा लिया और मन का मैल सदा-सदा के लिये धुल गया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप-1

    Ved Katha Pravachan _65 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev 


    परमपिता परमात्मा अपने प्रतिनिधि पुत्र सन्तरूप में भेजकर समाज में श्रेष्ठ वार्तालाप का वातावरण बनाते रहते हैं। जब यही तथाकथित सन्त स्वार्थी हो जाते हैंतो समाज में संवाद समाप्त होकर विवाद-परिवाद की वायु बहकर सन्ताप उत्पन्न कर देती है।

    विवाह संस्कार के कारण श्रीमती सहित एक उस नगर में जाने का अवसर मिलाजहॉं हम कभी 49 वर्ष पहले गये थे। श्रीमती जी अपनी दूर की दादी से मिलना चाहती थी और मुझे अपने समवयस्क मित्र से मिलने का आकर्षण था। मित्र मिले। वे उतने ही प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मिलेजितने राजासाहब सम्बोधन से जाने जाने वाले उनके पिता थे। जितनी अधिक उनकी भूमि-भवन-धन की सम्पदा थीउतनी ही उनकी सुकीर्ति मान्यता भी थी। उन्होंने सर्वत्र मुझको भ्रमण कराया और ले जाकर खड़ा कर दिया अपने एक पुत्र के प्रभूत प्रतिष्ठान पर और लगे उससे मेरा परिचय कराने। वह अच्छा खासा समझदार पुत्र न उनसे बोला और न मुझसे नमस्ते तक की। मित्र तो खड़े के खड़े ही रह गये। किन्तु मुझसे वहॉं नहीं रुका गया और मैं उनका हाथ पकड़कर आगे बढ़ा लाया। मार्ग में उन्होंने बताया कि इस पुत्र को मुझसे यह आपत्ति है कि पिता की इतनी उच्च मान-प्रतिष्ठा होेते हुए भी मेरे लिए कुछ नहीं किया।

    यह तो रही मेरी भेंट मित्र सेअब श्रीमती जी की दूर की दादी की कहानी सुनिये। मिलने पहुँची तो उनको घर से बाहर एक टूटी-टाटी खाट पर पड़ा पाया। देखकर उठी। इनको अपने हृदय से चिपटा लिया। दादी के स्वावलम्बी पुत्र का बाल-बच्चों वाला परिवार! किन्तु दादी से कोई बोलता नहीं।

    यह जो हमने दूर के नगर में जाकर देखावह हमारे नगर में आस-पास भी घटता दिखाई देता रहता है। हम दो ऐसे बच्चों को जानते हैं। एक दूसरे ही वर्ष में चलने और बोलने लगा तथा दूसरे बच्चे ने इन दोनों कार्यों में कई-कई वर्ष लगा दिए। जब यह चलता-बोलता नहीं थातो माता-पिता-परिजन सब व्याकुल रहते थे। उपचार-उपाय खोजते व चिन्तित रहते दिन कटते थे। जिन माता-पिता-अभिभावकों ने उन्हें बोलने में समर्थ बना दियाबड़े होकर वही बच्चे अन्य सबसे तो बोलते हैं पर अपनों से ही नहीं बोलते हैंतो उनका हृदय टूट जाता है। इसका दूरगामी दुष्प्रभाव ऐसी सन्तानों पर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता है। माता-पिता ही क्या उस परमेश प्रभु के साथ भी ऐसे लोगों का यही व्यवहार होता हैजो माता-पिता दोनों के रूप में जन्म देकर पालन-पोषण करता है। प्रभुदेव सविता अग्नि के समक्ष शान्त शीतल जलाञ्जलि पूर्वक व्यक्ति मांग करता है- वाचस्पतिर्वाचं ना स्वदतु (यजुर्वेद 30.1) अर्थात्‌ हे वाणी के स्वामी परमेश्वर! आप हमारी वाणी को मधुर बना दीजिये।

    जीभ तो मानव-पशु सबके पास है। पशुओं की जीभ तो सदा समान रहती है, किन्तु मनुष्यों की जीभ अपने स्वाद बदलती रहती है। कभी कड़वी कभी मीठी। कड़वी हुई तो मानो कटार हो गयी। दिल के आर-पार हो गई। अतः इसका कोमल व मधुर रहना ही ठीक है। प्रभु से यही मांग है। इसी क्रम में अभिभावकों की उत्कट कामना द्रष्टव्य है-
    ओ3म्‌ उप नः सूनवो गिरः श़ृण्वन्त्वमृतस्य ये।
    सुमृडीका भवन्तु नः।। सामवेद 1595।।

    अर्थात्‌ हमारे पुत्रगण अविनश्वर परमेश्वर की वाणी सुनें और हम लोगों को सुखी करें। परमेश प्रभु की वाणी वेद का कितना मधुर सन्देश है-

    3म्‌ उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि।
    धनज्जयो रणे रणे।। सामवेद 1382।।

     

    मन्त्र-भावार्थ देखिये-

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    प्रभु हमको शक्ति विमल देते,
    हम जिससे शत्रु मसल देते।

    प्रभु ने जीवन धाम दिया है,
    प्रभु ही इसको चमकाते हैं।।

    जीवन्त प्राणधारी आओ,
    प्रभु से सम्मति ले आओ।

    बैठो प्रभु से करो वार्ता,
    सन्मार्ग वही दिखलाते हैं।।

    जिसने निज को उत्कृष्ट किया,
    हर कष्ट सहन कर पुष्ट किया।

    वे नर जीवन संग्रामों में,
    प्रभु की सहाय पा जाते हैं।।

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    "सामश़्रद्धाके देवातिथि द्वारा रचित सामगीत में यही सन्देश निहित है कि जिस प्रभु से हम हर संग्राम में विजय व वैभव प्राप्त करने की कामना करते हैं और वह हमें सुलभ भी हो जाता है। इस ऋद्धि-सिद्धि-उपलब्धि के बाद अधिकांश व्यक्ति इसी में रम जाते हैं। इसकी ही बात करते रहते हैं। प्रभु से बात करने का उनके पास समय ही नहीं बचता है। मन्त्र का मृदुल आदेश है कि इसे मांगने व मिल जाने के बाद भी प्रभु से बात करते रहो। स्तुति करके धन्यवाद देते व आशीर्वाद लेते रहो।

    परमेश प्रभु की ही भॉंति हमारे पितरजन भी हमें सब कुछ देते हैं। तन देते हैंसुसंस्कृत मन देते हैंयथासम्भव धन देते हैंविद्या और गुण देते हैं। फिर भी हम सर्वसमृद्ध होकर जरा सी बात पर उनसे बोलना ही बन्द कर देते हैं। वे तो वयोवृद्ध हैं। अपने समस्त उत्तराधिकार देकर हमें समृद्ध करके चिर-विदा लेकर चले ही जाने वाले हैं। फिर हम उनसे बात न करें तो इसे हमारा अधर्माचरण ही कहा जायेगा। यहॉं पर हिन्दी के प्रसिद्ध रसिक कवि बिहारी जी का एक दोहा उद्‌धृत किया जा रहा हैजो इस प्रकार से दो अर्थ प्रस्तुत करता है कि एक ओर तो वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण का तथा दूसरी ओर अपने वंश व पिता का स्मरण भी कर लेते हैं। लीजिए पढ़िये-

    प्रगट भए द्विजराज-कुलसुबस बसे ब्रज आइ।
    मेरे हरो कलेस सबकेसव केसवराइ।।

    दोहे में प्रयुक्त "द्विजराजशब्द द्वि-अर्थक है। एक चन्द्रमा व दूसरा ब्राह्मण। दोहे का एक अर्थ बनता है कि केशव कृष्ण चन्द्रकुल में जन्म लेकर ब्रज भूमि में बस रहे हैंवे मेरे सभी कष्टों को दूर करें। दूसरे अर्थ में वे अपने पिताश्री का आराध्यतुल्य स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं भी ब्राह्मण कुल भूषण ब्रजवासी हूँमेरे जन्मदाता केशवराय मेरे कष्टों को दूर करें।

    कभी-कभी ऐसा कुयोग भी आ जाता हैजब सन्तान से पितर वृद्धजन अपनी ओर से बोलना बन्द कर देते हैंवह भी जरा से भ्रम के कारण। एक माता के तीन-चार पुत्री एवं एक पुत्र था। किशोरावस्था में पुत्र नहीं रहा। उनका बड़ा दामाद उनका मातृवत सम्मान करने वाला है। एक बार अपना भोजन साथ लेकर वह दामाद के घर गयी। सदैव की भॉंति दामाद ने स्वागत-अभिवादन किया और उनसे भोजन करने के लिये जोरदार आग्रह करने लगा। माता मना करती रही। दामाद के मुख से निकले शब्द- "आपके कोई है नहींइसलिए मैं आपसे खाने के लिए कह रहा हूँकोई होता तो भला मैं क्यों कहता''- उस माता के हृदय में ऐसे चुभ गये कि कई महीनों से उस माता ने अपने दामाद से बोलचाल बन्द रक्खी। दामाद को स्थिति का आभास हुआ। अनेक प्रकार से उसने माता से बोलना चाहाकिन्तु माता का मुँह बन्द का बन्द ही रहा। माता ने यह स्थिति मुझे बताकर कुछ परामर्श चाहातो मैंने सन्त तुलसीदास के शब्दों को- क्षमा बड़न को चाहियेछोटन को उत्पातदोहरा दिया। तभी माताजी ने कहा कि अब तो वे मुझे अपने बच्चों के साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते हैं। ठीक ही हैसुखद अन्तराल में दुःखद बात विस्मृत होना असम्भव नहीं है। धर्म के दस लक्षणों में "क्षमाविलक्षण है। और सभी एक पक्षीय हैंपर क्षमा द्विपक्षीय है। क्षमा मांगने वाला धर्म का पालन करता है और क्षमा करने वाला सद्धर्म का परिपालन करता है। बड़े लोग किसी भी कारण से बोलना बन्द करने के स्थान पर अपनी सकारात्मक सोच विकसित करके प्रकरण की नकारात्मकता को तिरोहित करके अपने छोटों को सन्मार्ग दिखाने का सत्प्रयास कर सकते हैं।

    उपरोक्त प्रकरण में घोर निराशा को घनघोर आशा में इन्हीं माताजी के शब्दों ने बदल दिया। वे बोली कि कुछ दिनों के लिए बाहर क्या चली गयीपड़ोसी बच्चों ने छत पर कूद-फॉंदकर सीमेण्ट उखाड़ दिया। जरा सी वर्षा में छतें टपकने लगती हैं। प्रयोग में न आने से हस्तचालित नल ने पानी देना बन्द कर दिया और शौचालय का पानी निकलता नहीं। एक अकेले के लिये हजारों रूपये व्यय करके ठीक करायेंफिर चलें जायें बाहर तीर्थयात्रा पर। लौटकर आयें तो वही "ढाक के तीन पात'। मैंने उनसे कहा कि यह सब अव्यवस्थायें इसीलिए हुई हैं कि आप दामाद का आमन्त्रण स्वीकार कर कुछ दिन बाहर तीर्थाटन कर आयें। जब लौटकर आएंगीतो तीन दिन में ही यह सब बिगड़े काम बन जाएंगे और सम्बन्ध स्नेहपूर्ण सामान्य हो जायेंगे। शायद प्रभु भी यही चाहते हैं। माता जी जो सुस्त-मुस्त आयीं थींमस्त-चुस्त मुस्काती चली गयीं।

    3म्‌ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
    धियो विश्वा वि राजति।।ऋग्वेद 1.3.12।।

    इस मन्त्र अनुसार ज्ञान देवी सरस्वती की उपासना से ज्ञान के महासागर का आभास मिलता है। जो माता सरस्वती के ज्ञानध्वज के नीचे आ जाते हैंवे अपनी सब बुद्धियों को विशेषतया दीप्त करके जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाना चाहते हैंउस-उस वस्तु के तत्वबोध को प्राप्त कर लेते हैं। गहराई में उतरने वालों को सबकुछ मिल जाता है और किनारे बैठे रहने वाले इधर-उधर ताकते रह जाते हैं। कहा भी है-

    सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
    खर्चे से घटती नहीं बिन खर्चे घटि जात।।

    शून्य से शिखर पर पहुँचने वाले व्यक्तियों की सन्तानें उनकी प्रतिष्ठा को तो देखती हैंउनकी त्याग-तपस्या-श्रम व पुरुषार्थ को नहीं देख पाती हैं। सन्तानों की अभिलाषा रहती है कि वे भी प्रतिष्ठा पायेंपरन्तु अपने बल पर नहीं पूर्वजों की प्रतिष्ठा के बल पर। उदाहरणस्वरूप एक कथानक प्रस्तुत है। पर्वतीय क्षेत्र से एक किशोर प्रयाग आया। श्रम-साधना एवं सद्‌भावना से प्रयाग विश्वविद्यालय में उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। अनी मेधा के श्रेयस्वरूप उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बना और सेवानिवृत्त हो गया। इस लम्बे अन्तराल में उसके शिष्यों की श़ृंखलायें बढ़ती गयींऔर परिवार की पीढ़ियॉं भी बढ़ती गयीं। महानगर में शिक्षा-सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में वयोवृद्ध प्राध्यापक की अकूत मान्यता होने लगी। इस मध्य हुआ यह कि उनके पौत्र की उपस्थिति कम होने के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। पौत्र व घर वालों ने जोर लगाकर देख लियापर उसको परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिली। थककर घर वालों ने प्रतिष्ठित पितामह से अनुशंसा करने को कहा। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी। घर वालों ने उनसे बोलना बन्द कर दिया। अन्ततः प्राध्यापक पितामह पौत्र को लेकर विश्वविद्यालय के तत्सम्बन्धी विभाग में जा पहुँचे। तेजस्वी विभागाध्यक्ष अपने उच्चासन से उठे और वयोवृद्ध प्राध्यापक के चरणस्पर्श करके अपने आसन पर बैठाया। स्वागत करते हुए वे बोल पड़ेप्रोफेसर सर! आज मैं जो कुछ हूँआपके कारण हूँ। उस समय उपस्थिति कम होने पर आप मुझे परीक्षा में बैठने से रोकते नहींतो मैं विशद तैयारी नहीं करताशीर्ष स्थान न पाता और आज विभागाध्यक्ष न होता। वर्तमान विभागाध्यक्ष ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने कोई अनुशंसा नहीं की। इधर से निकल रहा थासोचा मिलता चलूँ। अच्छा! अब चलता हूँ। पौत्र ने घर आकर सारी बात बतायी। घर वालों को समझाकर सन्तुष्ट कर दिया। आगे की तैयारी के लिये स्वयं को पुष्ट कर लिया। वयोवृद्ध प्राध्यापक से सबके प्रणाम चल निकले और पौत्र का सुनिश्चय उत्कृष्ट हो गया। उसका भी भविष्य समुज्ज्वल हो गया। देवनारायण भारद्वाज

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    According to this mantra, worship of the knowledge goddess Saraswati gives an impression of the ocean of knowledge. Those who fall under the enlightenment of Mother Saraswati, by lighting all their intellects, they attain the essence of the object of which they want to go in depth. Those who get into the depth get everything and those who sit on the sidelines are kept looking around.

     

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  • भगत सिंह का मातृप्रेम

    फॉंसी से पूर्व भगतसिंह जेल में बन्द थे। जेल में जो सफाई कर्मचारी काम करती थी, भगतसिंह उसे मॉं कहते थे। उनका कहना था कि बचपन में मेरी मॉं ने मेरी गन्दगी उठायी थी और जवानी में इस मॉं ने उठायी है।

    जब फॉंसी से पूर्व भगतसिंह से उनकी इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने मॉं के हाथ की रोटियॉं खाने की इच्छा जाहिर की। जेलर ने इसे उनका मातृप्रेम समझा। किन्तु जब जेलर को पता चला कि भगतसिंह सफाई कर्मचारी के हाथ से भोजन करना चाहते हैं तो वह स्तब्ध रह गया।

    जेलर ने जब उस महिला को भगतसिंह की इच्छा बताई, तो वह भाव विभोर होकर रो पड़ी और बोली, "बेटा, मेरे हाथ ऐसे नहीं है कि उनसे बनी रोटी आप खाएँ।'' भगतसिंह ने प्यार से उनके दोनों कन्धे थपथपाते हुए कहा, "मॉं जिन हाथों से बच्चों का मल साफ करती है, उन्हीं हाथों से तो खाना बनाती है। मॉं, तुम चिन्ता मत करो और रोटी बनाओ।' भगतसिंह ने बड़े चाव से उसके हाथ से बनी रोटियॉं खाई।

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    When his wish was asked to Bhagat Singh before Fonsi, he expressed his desire to eat the loaves of mother's hand. The jailer considered it his maternal love interest. But when the jailer came to know that Bhagat Singh wanted to eat from the hand of the sweeper, he was shocked.

     

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  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.2

    कुछ लोगों का कहना है कि हम मूर्त्तियों को ईश्वर नहीं मानते, हम उन्हें केवल मानसिक विकास का साधन मानते हैं। इस पर राजा राममोहन राय का कहना था-

    “Hindus of the present age have not the least idea that it is the attributes of the Supreme Being as figuratively represented by Shapes corresponding to the nature of those attributes, they offer adoration and worship under the denomination of gods and godesses.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.4

    सन्‌ 1857 के संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने कूटनीति का सहारा लिया और महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र (Proclamation) जारी किया । उसकी भाषा बडी लुभावनी थी। उसमें कहा गया था-

    “When by the blessings of Providene, internal tranquility shall be restored, it is our earnest desire to stimulate the peaceful industry in India, to promote works of public utility and improvement and to administer its Government for the benifit of all our subjects residents therein.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.1

    राजा राममोहन राय-

    भारत के इतिहास एवं संस्कृति का परिचय देनेवाली पुस्तकें राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि उस युग में राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उस समय प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों पर प्रहार करके समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप सन्‌ 1828 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बना।

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