राजा राममोहन राय-
भारत के इतिहास एवं संस्कृति का परिचय देनेवाली पुस्तकें राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि उस युग में राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उस समय प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों पर प्रहार करके समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप सन् 1828 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बना।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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Ved Katha Pravachan _41 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
उन्हीं के प्रान्त के एक अन्य महापुरुष ईश्वरचन्द विद्यासागर ने 1856 में विधवा-विवाह को वैधता प्रदान करनेवाला कानून बनवाया। मूलत: राजा राममोहन राय वैदिक विचारधारा के प्रति आस्थावान् थे । उनके द्वारा संस्थापित ‘ब्रह्मसमाज’ का ट्रस्टडीड 8 जनवरी सन् 1830 को लिखा गया था। उसके अनुसार ब्राह्मसमाज के निम्न सिद्धान्त निर्धारित किये गये थे --
1. वेदों और उपनिषदों को मानना चाहिए।
2. इनमें एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है।
3. मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध होने से त्याज्य है।
4. बहुविवाह, बालविवाह, सतीप्रथा आदि सब वेदविरुद्ध हैं, इसलिए त्याज्य हैं। मूत्तिपूजा के सम्बन्ध में राजा राममोहन राय ने लिखा था-
‘‘If idolatory, as now practised by our countrymen and which the learned Brahman so zealously supports as condusive to morality, is not only universally rejected by shastras, but must also be looked upon with great horror by common sense, as leading to immorality.’’ - Monotheistical System of the Vedas, P. 123
अर्थात् जो मूर्त्तिपूजा हमारे देशवासियों में आजकल प्रचलित है और जिसको ब्राह्मण सदाचार का साधन बतलाने में इतना उत्साह दिखाते हैं, वह न केवल सभी शास्त्रों द्वारा निषिद्ध है, प्रत्युत सामान्य बुद्धि से भी बडी भयानक है, क्योंकि इससे दुराचार बढता है।
इससे आगे महादेव और पार्वती की मूत्तियों के याथातथ्य चित्र का संकेत करते हुए राजा राममोहन राय का कहना है कि मूत्तिपूजा और पुराणों में उपलब्ध गाथाओं से, जिनके आधार पर मूर्त्तिपूजा प्रचलित है, सदाचार की आशा करना रेत की नींव पर दीवार बनाने जैसा है। अन्यत्र वे लिखते हैं-
‘‘For, whenever a Hindu purchases an idol from the market, or constructs one with his own hands, or has one made under his superintendence, it is his invertible practice to perform certain ceremonies, called ‘Prana-pratishtha’ (प्राणप्रतिष्ठा) or the endowment of animation, by which he believes that its nature is changed from that the mere materials from which it is formed and that it acquires not only life but also supernatural powers. Shortly afterwards, it the idol be of the masculine gender, he marries it to a feminine one with no less pomp and magnificence than he celebrates the nuptials of his own children. The mysterious process is now complete and the god and the godess of their own making are esteemed the arbiters of their destiny.” - English works of Raja Rammohan Rai, by H.C. Sarkar, 1982, P. 72
अर्थात् जब एक हिन्दू बाजार से मूर्त्ति लेता है या अपने हाथों से बनाता है या अपनी देखरेख में किसी से बनवाता है तो सदा उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करवाता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह मानता है कि प्राण-प्रतिष्ठा करने से मूर्त्ति की प्रकृति बदल जाती है और उसमें न केवल प्राण आ जाते हैं किन्तु उसमें देवत्व भी आ जाता है। फिर, यदि वह मूर्त्ति पुल्लिंग हुई तो उसका स्त्रीलिंग मूर्ति से उसी शान से विवाह किया जाता है, जैसे अपनी सन्तान का। इस रहस्यपूर्ण प्रक्रिया के पूर्ण हो जाने पर उसी के बनाये हुए देवी-देवता स्वयं उसके भाग्य-विधाता बन जाते हैं। राममोहन राय आगे कहते हैं-
‘‘Every Hindu who devotes himself to this absurd practice, constructs for that purpose a couple of male and female idols, sometimes indecent in form, as representatives of his
favourite deities; he is taught and enjoined from his infancy to contemplate and repeat the history of these, as well as their fellow deities, though the actions ascribed to them be only a continued series of debauchery, sensuality, falsehood, ingratitude, breach of trust and treachery to friends.”
-Monotheistical System of the Vedas, P.123
अर्थात् जो हिन्दू पूजा करता है, वह इसके लिए स्त्रीलिंग और पुल्लिंग मूर्त्तियों का जोडा अपने इष्टदेवों के प्रतिनिधि रूप में तैयार करता है। कभी-कभी इनकी आकृति बडी अश्लील होती है। उसे बचपन से सिखाया जाता है कि इनकी और इसी प्रकार के अन्य देवताओं की कहानियॉं स्मरण करते रहें और जो क्रिया-कलाप उनसे सम्बद्ध किये जाते हैं, वे उनके निरन्तर व्यभिचार, इन्द्रिय-विलास, मिथ्याचार, कृतघ्नता, विश्वासघात और मित्रद्रोह के होते हैं| लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...