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प्रखर राष्ट्रभक्त लाला लाजपतराय

इस युग में देश की श्रद्धा-विभोर जनता ने दो महामानवों को पंजाब केसरी की उपाधि से अलंकृत किया है। उनमें से प्रथम थे महाराज रणजीतसिंह। 18 दिसम्बर 1854 को जन्म हुआ मुन्शी राधाकिशन का, जिनकी प्रथम सन्तान के रूप में पंजाब को अपना दूसरा केसरी प्राप्त हुआ। अपने देश और धर्म के लिए जिस प्रकार का स्वाभिमान, अपने हिन्दूपन के लिए जितनी तड़प और उसका अपमान अथवा हानि होते देखकर जितनी तीव्र प्रतिक्रिया लाला लाजपतराय में जीवन भर होती रही, उसे देखकर यह आश्चर्यजनक लगता है कि उनके पिता अपनी आधी उम्र तक केवल नाम के हिन्दू थे। नहीं तो रमजान के दिनों में रोजे रखने में, हर रोज पॉंच बार नमाज पढ़ने में और कुरान आदि मुस्लिम ग्रन्थों के पारायण में शायद ही कोई मुसलमान उनसे बाजी ले पाता होगा। यह उनके उस्ताद का प्रभाव था, जिसके परिणामस्वरूप उनके अनेक सहपाठी विधिवत्‌ इस्लाम स्वीकार कर चुके थे।

Ved Katha Pravachan _78 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

मुस्लिम संस्कृति में पोषित पिता - मुन्शी राधाकिशन कलमा पढ़कर बाकायदा मुसलमान नहीं बने। इसका श्रेय बहुत अंश में उनकी पत्नी गुलाब देवी को ही है। मुन्शी जी ने अपने मुसलमान मित्रों को घर पर बुलाकर उनकी इच्छानुसार कई बार मांसादि का भोजन करवाया और कभी-कभी उनके यहॉं से पका हुआ भोजन लाकर खाया। यह सब उनके जैन मत, (अग्रवाल वैश्य) के लिए कितना सह्य था यह तो अलग प्रश्न है। किन्तु इसने उस साध्वी नारी के जीवन को अत्यन्त दुःखित बना रखा था और कई-कई दिन तक उसने गम के सिवा कुछ न खाकर और आंसू पीकर काटे थे। गोद के शिशु पर उसने अपनी ममता भी उंडेली और उसी पर अपनी सारी आशाएं भी केन्द्रित की। परन्तु सारी व्यथा सहकर भी कभी उसने उन्हें छोड़ जाने की कल्पना को पास तक नहीं आने दिया।

एक बार तो मुन्शी जी ने इस्लाम की दीक्षा लेने का फैसला कर ही डाला और पत्नी व बालक को लेकर मस्जिद में जा पहुंचे। परन्तु सती नारी के अन्तर्मन की पीड़ा उसकी आंखों की मूक वाणी से कुछ ऐसी प्रकट हुई कि बाहर सीढ़ियों पर ही बाल लाजपत चीखकर रोने लग पड़ा। बसइस रुदन से मुन्शी राधाकिशन के दुर्बल मन का अस्थिर निश्चय डगमगा गया और वे लौट आए। आगे चलकर लाला जी ने शुद्धि का जो कार्य करना था उसका भी श्रीगणेश जैसे साक्षात्‌ अपने पिता से शैशवावस्था में ही उन्होंने कर दिया। परन्तु माता के दुःख और पिता के व्यामोह को दूर करने में अभी उन्हें देर लगने वाली थी।

विद्यार्थी जीवन- लाला लाजपतराय को पढ़ने की लगन पिता से विरासत में मिलीपरन्तु गरीबी के कारण उनका विधिवत्‌ शिक्षण न हो पाया। जहॉं-जहॉं उनके पिता अध्यापक रहेप्रायः उन्हीं स्कूलों में वे पढ़े। शिक्षाकाल में ही वे दो-तीन बार लाहौर आए तो उन्हें दो साथी मिले- गुरुदत्त और हंसराज। कुछ समय पूर्व ही वहॉं आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी और वे दोनों उस रंग में रंगे हुए थे। इस मैत्री से और इसके द्वारा आर्यसमाज के जो संस्कार लाजपतराय को मिलेउनसे उन्हें देश-जाति की सेवा का संकल्प प्राप्त हुआ। हंसराज में जो सरल सेवा की वृत्ति थीगुरुदत्त में जो बौद्धिक प्रतिभा थी और लाजपतराय में जो उग्र देश-प्रेम तथा करुणा का सागर थाउनके मिश्रण से ये त्रिमूर्ति आर्यसमाज की नींव बन गई। गुरुदत्त तो अकाल मृत्यु के ग्रास बनेपरन्तु लाला लाजपतराय और महात्मा हंसराज की मैत्री आजीवन रही।

समाज सेवा - लाजपतराय अत्यन्त भावुक प्रकृति के थे। स्वभाव की भावना प्रधानता के कारण उन्हें जहॉं कहीं कष्ट दिखाई पड़ाचाहे वह राजपूताना का अकाल थाचाहे कांगड़ा का भूकम्पवहीं पहुंचे और जन-जन के कष्ट को कम करने में जुटे। पैसा उन्होंने कमाया पर उसमें मन नहीं लगायाउसे जीवनपूर्ति का प्रमुख कार्य नहीं बनाया। यही नहींउन्होंने अन्याय के विरुद्ध सदा आवाज उठाई। कौन कितना बड़ा हैइसकी परवाह किए बगैर उन्होंने अन्यायपूर्ण बात का विरोध किया।

मुस्लिम कांग्रेस अध्यक्ष को उत्तर - ऐसा ही एक प्रसंग थाजब 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से मौलाना मुहम्मद अली ने कहा था कि हिन्दू अपनी अछूत जाति की समस्या हल नहीं कर सकते। इसलिए क्यों न उन्हें आधा-आधा बांट लिया जाये! आधे अछूत मुसलमानों को दे दिए जाएं। यह तर्क जितना लचर और निर्लज्ज थाउतना ही हिन्दू भावना पर चोट करने वाला भी था। बाकी लोग भले ही इस अपमान को पी सकेपरन्तु लालाजी की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी- "यह हमारा घरेलू प्रश्न है। किसी और के दखल की इसमें जरूरत नहीं। हिन्दू ही छूआछूत की समस्या का हल करेंगे। फिर अछूत जातियॉं क्या ढोर पशु हैंजिनके इस तरह बंटवारे की बात की जा रही है?''

हिन्दू भाव उनके हृदय में क्यों रहता थाइसका उत्तर उन्हीं के शब्दों में यह है- "यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनेंतो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगाजब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएं। उन्हें त्याग कर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है।''

जब वे कांग्रेस में रहे तो ऐसे उत्साह के साथ जो सरल व सच्चे हृदयों में ही हो सकता है और जो हर कदम पर हानि-लाभ का विचार करने का अभ्यस्त नहीं होता। वह "आग से खेलता है तो झुलस जाने के लिए तैयार भी रहता है।'' और इसमें कोई दो मत नहीं कि ब्रिटिश सरकार के साथ संघर्ष में इन प्रश्नों पर उलझने के अवसर उनके लिए अनेक आए।

हिन्दूपन का भाव - राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण से लाला लाजपतराय के जीवन का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही अलीगढ़ के सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को उससे अलग रखने का झण्डा उठा लिया था। उनके लेखों के उत्तर में अनेक पत्र उन्हीं के पुराने विचारों के हवाले से छपे। चाहे वे पत्र गुमनाम थेपरन्तु अधिक दिन तक यह छिपा न रहा कि वे किस लेखनी का प्रसाद थे। उनके कारण लाला जी की जो प्रसिद्धि हुईउसका परिणाम यह था कि कांग्रेस के संस्थापक श्री ह्यूम और पण्डित मालवीय आदि ने प्रयाग कांग्रेस के समय उनका स्वयं स्टेशन पर स्वागत किया और श्री ह्यूम ने उन चिट्ठियों का स्वयं सम्पादन करके पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। लाला जी सम्भवत पहले व्यक्ति थेजिन्होंने तब अंग्रेजी में काम करने वाली कांगे्रस के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया। उनकी असाधारण वक्तृत्व शक्ति ने उन्हें शीघ्र ही संस्था की चोटी के नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

बंग-भंग आन्दोलन में - और तब 1905 में आया बंग-भंग का वह निर्णयजिसके विरोध में 'लाल-बाल-पालकी त्रिमूर्ति गरम दल के रूप में देश के उद्‌गारों का प्रतिनिधित्व करने लगी। प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर बनारस अधिवेशन में कांग्रेस के नरम और गरम दलों में टक्कर हो गई। इसके बाद जागृति की जो लहर देश भर में चली वह मीठे-मीठे भाषणोंसरकार के नाम भेजे गये आवेदन पत्रों और 'गॉड सेव द किंगके गायन की मर्यादाओं को ध्वस्त करके 'स्वराज्यस्वदेशी और बहिष्कारके मन्त्रों के रूप में चारों दिशाओं में व्यापक हो गई। इस नए जागरण के निर्माता यदि महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक और इनका 'केसरीथेतो पंजाब में लाजपत राय और उनका 'पंजाबीतथा बंगाल में विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष के सम्पादन में चलने वाला 'वन्देमातरम्‌'। लाला जी की वाणी में ओज तो था हीअब वह आग बरसाने लगी। नौकरशाही इस ताक में रहने लगी कि उनको किस प्रकार रास्ते से हटाए। तभी पंजाब में नहरी आबादियों के कानून के विरुद्ध आन्दोलन चला। सही या गलत यह धारणा कृषकों में घर कर गई कि अंग्रेज कानून द्वारा उत्तराधिकार के नियम को बदलने की तैयारी में है। लाला जी आन्दोलन के समर्थक तो थेपर उसमें सक्रिय नहीं हुए। किन्तु चाहते हुए भी वे खिंचकर उसमें उलझ ही गए। लायलपुर की एक सभा में वे अध्यक्ष बनाए गए। वहीं भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह ने भाषण दियाजो काफी विद्रोहपूर्ण था।

नरम और गरम दल - अजीत सिंह और लाजपतराय दोनों को 1818 के पुराने रेगुलेशन के अधीन निर्वासन का दण्ड दिया गया। 6 महीने की कैद के बाद लाला जी मांडले जेल से रिहा होकर लौटे। इस कैद ने उनकी कीर्ति को दिग्‌दिगन्त तक फैला दिया। उसके शीघ्र बाद ही सूरत कांग्रेस का अधिवेशन था। जनता के हृदयों पर तो लाला जी का शासन था और तिलक भी चाहते थे उन्हीं को अध्यक्ष बनाना। परन्तु लाला जी दलबन्दी में पड़ना न चाहते थे। अधिवेशन तो मार-पिटाई और उछलते जूतों की गड़गड़ में समाप्त हो गया। साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि नरम और गरम दल वालों के रास्ते बिलकुल फट गये हैं। लाला जी ने कांग्रेस को छोड़ा तो नहीं पर विरक्ति उन्हें अवश्य हो गईकांग्रेस से ही नहीं राजनीति से भी। कुछ काल के लिए उन्होंने फिर आर्यसमाज के क्षेत्र को अपना लिया। 1914 में वे इंग्लैंड चले गये। वे वहीं थे जब महायुद्ध शुरू हो गया।

युद्ध नीति - अब भारतीयों और कांग्रेस के सामने यह प्रश्न था कि उनकी नीति युद्ध के बारे में क्या होगांधी जी बिना किसी शर्त के सरकार की सहायता करने के पक्ष में थे। लाला जी का दृष्टिकोण क्या था? "मैं युद्ध में अंग्रेजों की सहायता के विरोध का आन्दोलन चलाने के पक्ष में तो नहीं था। मैं तो उनकी युद्ध नीति का समर्थन करने को भी उद्यत थायदि उसमें हमारे युवकों को भी सेना में प्रतिष्ठित पदों की प्राप्तिशस्त्रास्त्र के प्रयोग तथा युद्धकला में निपुणता प्राप्त करने का अवसर मिल जाता। सरकार ने ये दोनों बातें अस्वीकार कर दीं। .... इस दशा में मैं बिना किसी शर्त के युद्ध में भर्ती होने को तैयार नहीं था। परन्तु मेरे देश के शिक्षित नेताओं का मत इससे भिन्न था।'' लाला जी व तिलक जी दोनों का दृष्टिकोण एक ही था जो कि गांधी जी तुलना में यथार्थवादी भी था और जो कम से कम आज तो स्वीकार किया जा सकता है। अधिक दूरदर्शिता पूर्ण भी था। लाला जी और तिलक जी का दृष्टिकोण! इसी दूरदर्शिता ने लाला जी को देश न लौटने तथा कहीं नजरबन्द हो जाने के स्थान पर बाहर रहने के लिए प्रेरित किया। वे फरवरी 1920 तक नहीं लौटे।

निरंकुश लाठियॉं - लौटे तो ब्रेडला हाल के पीछे मैदान में उनका पहला भाषण हुआ। उसमें उनकी अंग्रेजों को चुनौती थी- "खिचड़ी पक रही है। न खाएंगे न खाने देंगे। न सोएंगेन सोने देंगे! मंजिल पर पहुंचे बिना चैन न लेंगे।'' और सच में वह महापुरुष न सोया न उसने प्रतिपक्षी को सोने दियाजब तक निरंकुश शासकों की लाठियों ने उसे सदा की नींद न सुला दिया। उन लाठियों के विषय में लाला जी के शब्द किसी भी क्रांति की चिनगारी से कम ज्वलन्त नहीं थे- "हम पर की गई एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में एक-एक कील सिद्ध होगी!'' उन्होंने यह भी कहा कि ''यदि मैं मर गया और जिन नवयुवकों को मैंने काबू में रखा हुआ थाउन्होंने शांतिपूर्ण उपायों के अतिरिक्त अन्य मार्ग ग्रहण करने का निश्चय कियातो मेरी आत्मा उनके कार्य को आशीर्वाद देगी!''

अपने निर्वांण समय के निकट मद्रास समुद्र तट पर हुई एक विशाल सभा में जो कुछ लाला जी ने कहावह उनके जीवनभर के भावों को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकट करता है- "अब जब जीवन की संध्या होते देखता हूँ और सिंहावलोकन करता हूँ तो खेद होता है कि जिस माता की कोख से जन्माजिसकी गोद को मलमूत्र से अपवित्र कियाजिसका स्तन पियावह माता बन्धन में ही है और मेरे जीवन के सूर्य का अस्ताचल की ओर प्रयाण तीव्रगति से हो चला है। माता के बन्धन तोड़ने के लिए मैंने कुछ नहीं कियाइसी की तीव्र वेदना मुझे व्यथित करती रहती है।''

आज जब माता के बन्धन टूट चुके हैंलाला लाजपतराय और उनके अन्य साथियों के आदर्श कहॉं तक पूरे हो रहे हैंआज की राजनीति की ऊहापोह में मन खोजता है ऐसे साहसी व उदात्त चरित्रों कोजिन्होंने आदर्शवाद से प्रेरित होकर जीवन को यज्ञ बनाया होजिनके श्वासों में देशप्रेम होजिनकी धड़कनों में राष्ट्र की व्यथा हो। कहॉं हैं ऐसे राजनीतिज्ञ जो स्वयं को उन महापुरुषों के उत्तराधिकारी कह सकेंजिन्होंने पत्थर बनकर स्वातन्त्र्य मन्दिर की नींव को भरा था?

यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनें तो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है। -डॉ. भाई महावीर (पूर्व राज्यपालम.प्र.)

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