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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.3

    स्वयं मैकाले ने लिखा था-

    “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern a class of persons Indian in blood and clour, but English in taste, in opinions, words and intellect”.

    अर्थात्‌ हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग पैदा करने का यत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित करोडों भारतीयों के बीच दुभाषियों का काम कर सके। यह वर्ग हाड़-मांस और रङ्ग से भले ही भारतीय लगे, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से अंग्रेज बन जाए।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती – 2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    केशवचन्द्र सेन- ऐसे समय में कलकत्ते में बाबू केशवचन्द्र सेन का प्रादुर्भाव हुआ। वे बड़े तीव्र बुद्धि,तार्किक और विद्वान्‌ युवक थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ को वे ब्रह्म समाज के लिए बड़े उपयोगी जान पड़े। 1857 में वे ब्रह्म समाज में सम्मिलित हो गये। उन्होंने उत्साहपूर्वक समाज को संगठित करना प्रारम्भ किया और इस कारण महर्षि के कृपापात्र होकर वे शीघ्र ही उसके आचार्य पद पर नियुक्त हो गये,परन्तु केशव बाबू का आना ब्रह्म समाज के संगठन और स्वरूप के लिए अभिशाप बन गया। महर्षि देवेन्द्रनाथ और केशवबाबू के विचार नहीं मिलते थे,परिणामत: ब्रह्म समाज का विभाजन हो गया। मूल ब्रह्म समाज आदि ब्रह्म समाज के नाम से जाना जाने लगा और केशवबाबू का नवगठित समाज भारतवर्षीय ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद का सन्देश सबके लिये, मन्त्र व्याख्या - यजुर्वेद 30.3
    Ved Katha Pravachan _37 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    केशव बाबू की शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य संस्कारों के साथ हुई थी। स्वभावत: ईसाइयत के प्रति उनमें अपार उत्साह था। वे ईसा को एशिया का महापुरुष ही नहींसमस्त मानवजाति का त्राता मानते थे और अपने अनुयायियों को ईसाईमत की धार्मिक एवं आचारमूलक शिक्षाओं को खुलेआम अपनाने की प्रेरणा देते थे। ‘Prophets of New India’नामक पुस्तक में रोम्यॉं रोलॉं (Romain Rolland)लिखते हैं- “Keshab Chandra Sen ran counter to the rising tide of national conciousness then feverishly awakening” (P. 97)अर्थात्‌ केशवचन्द्र सेन देश में बड़ी तेजी से उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना के विरुद्ध दौड़े। जब नेता में ही देशभक्ति की भावना न हो तो उसके अनुयायियों का क्या कहना ! वस्तुत: केशव बाबू के अपने कोई सिद्धान्त नहीं थे। हिन्दू धर्म की मान्यताओं को नकारने के कारण उनके द्वार सबके लिए खुले थे। किन्तु वे पूरी तरह ईसाइयत के रंग-में-रंगे हुए थे और इस कारण ब्रह्म समाज को ईसाईसमाज का भारतीय संस्करण बनाना चाहते थे। अपनी प्रखर बुद्धि तथा ओजस्वी वाणी के कारण वे बंगाल में ही नहींसमूचे देश में प्रसिद्ध हो गये।

    9 अप्रैल 1879 को कलकत्ता के टाउनहाल में ‘India asks: Who is Christ?’शीर्षक व्याख्यान में केशव बाबू ने अपने हृदय के भावों को इन शब्दों में व्यक्त किया था- “My Christ, my sweet Christ, the brightest jewel of my heart. the necklace of my soul! For twenty years have I cherished him in this my miserable heart.अर्थात्‌ मेरा ईसामेरा प्यारा ईसामेरे हृदय का सर्वाधिक आभावान हीरामेरी आत्मा का कण्ठहार ! बीस वर्ष तक मैंने इसे अपने सन्तप्त हृदय में संजोए रक्खा है। कदाचित इसी को लक्ष्य करके रोम्यॉं रोलॉं ने‘Life of Ramkrishna’में केशवचन्द्र के सम्बन्ध में लिखा- “Christ had touched him and it was to be his mission of life to introdue him to Brahma Samaj. Keshav not only accepted Christianity but extolled it with greatness and was enlightened with it. He called it the loftiest expression of the world’s relegious consciousness.”अर्थात्‌ ईसा ने उसके अन्तस्तल करे स्पर्श किया था और ईसा को ब्रह्म समाज में प्रविष्ट करना केशवचन्द्र के जीवन का लक्ष्य था। केशवबाबू ने ईसाईयत को अंगीकर ही नहीं किया थाप्रत्युत उसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया था। वे स्वयं उससे आलोकित थे तथा उसे संसार की धार्मिक चेतना का सर्वोच्च विचार मानते थे। इतना ही नहींरोम्यॉं रोलॉं इससे आगे लिखते हैं- “Did any thing still separate him from Christianity?”अर्थात्‌ क्या अब भी कोई बात उसे ईसाइयत से दूर करती हैफ्रैंच लेखक लिल्लिंगटन ने ‘The Brahma Samaj and the Arya Samaj’नामक ग्रन्थ में लिखा - ‘Let Indian accept Christ’ were the words of Keshav Chandra Sen, one of the leaders of Brahma Samaj of India when he preached to a large congregation at Culcutta in 1879. To christian ears no words were more welcome.” (P. 1)अर्थात्‌ सन्‌ 1879 में कलकत्ता में एक बड़ी सभा में केशवचन्द्र सेन ने कहा था- भारत को ईसा को स्वीकार कर लेना चाहिए। ईसाई कानों को इससे अधिक सुखद शब्द नहीं हो सकते थे । मैक्समूलर ‘Biographical Essays’में पृष्ठ 89 पर पादरी क्लार्क वोयरो का यह प्रमाण उद्धत करता है- “Believers of Keshav Chandra Sen forefieted the name of theists, because their leader has been more and more inclined towards Christianity.”अर्थात्‌ केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों को ब्राह्म कहाने का अधिकार नहीं हैक्योंकि उनका नेता ईसाइयत की ओर अधिक-से-अधिक झुक गया है।

    इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस ब्रह्म समाज की आलोचना स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में की हैवह न राममोहन राय का ब्रह्म समाज है और न देवेन्द्रनाथ ठाकुर का। निश्चय ही वह केशवचन्द्र सेन का ब्रह्म समाज है। वहॉं "ईसाई होने से बचाये" यह वाक्य राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित ब्रह्म समाज से सम्बन्धित है। केशव बाबू‘Brahmo Marriage Act’ पास कराना चाहते थे। आदि ब्रह्म समाज के लोगों ने उसका विरोध किया। वे अपने-आपको हिन्दू मानते थेइसलिए वे उसे अपने ऊपर लागू करवाना नहीं चाहते थे ! केशव बाबू के परामर्श से ब्रह्म समाज की ओर से जो ज्ञापन सरकार को भेजा गया था उसमें स्पष्ट लिखा था-“The term ‘Hindu’ does not include the Brahmo’s who deny the authority of the Vedas.” अर्थात्‌ हिन्दू शब्द में ब्राह्मों को शामिल नहीं माना जाएगाक्योंकि वे वेद को प्रमाण नहीं मानते। जबकि स्थापना के समय ब्रह्म समाज के मूल ट्रस्टडीड में स्पष्ट लिखा गया था- "वेद और उपनिषदों को मानना चाहिए और मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध हैइसलिए त्याज्य है।" अन्तत: उक्त बिल 19 मार्च 1872 को "देशी विवाह एक्ट"(Native Marriage Act) के नाम से पास हुआ।

    केशवचन्द्र सेन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने के कारण ही परवर्त्ती ब्रह्म समाज का विशाल हिन्दू समाज से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। ब्राह्म लोग अपने आपको हिन्दुओं की मान्यताओं और विश्वासों की मुख्य धारा से पृथक्‌ करते गये। परिणाम यह हुआ कि जिस ब्रह्म समाज की स्थापना हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर करके उसे एक स्वस्थ समाज का रूप देने के लिए की गई थीवह एक संकीर्ण समाज बनकर रह गया।‘Modern Religious movements in India’ के लेखन J.N. Farquhar ने ठीक लिखा है- “The Brahma today is as distinctly outside as the Chritians.” (P. 38) भारत में जन्मेंपले और बढे सभी मतों और सम्प्रदायों ने किसी-न-किसी रूप में वेद के प्रामाण्य को स्वीकार किया है। इसी परम्परा के अनुसार राममोहन राय ने वेदों की अपौरुषेयता को स्वीकार किया था और शास्त्र-प्रमाण-विचार में वेद को सर्वोपरि प्रमाण माना था-“A commonly accepted rule for ascertaining the authority of any book is that whatever book opposes the Veda is destitute of authority.” -The Brahmanical Magazine, No.2, Page 162 किन्तु कालान्तर में इस स्थिति में अन्तर आ गया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर के काल में स्थिति कुछ-कुछ बीच की-सी रहीपर केशव बाबू के समय में ब्रह्म समाज ने वेद की प्रामाणिकता को नकार दिया। इस प्रकार अन्तत: Brahmo (Native)विवाह कानून के सन्दर्भ में यह स्पष्ट हो गया कि वेद को मानने वाले हिन्दू होते हैं और न माननेवाले ब्राह्म होते हैं। प्रो. मैक्समूलर ने‘Rammohan to Ramkrishna’ मे लिखा- “Members of the Brahma Samaj, after becoming better acquinted with their own sacred teachings than they ever had before, should solemnly have declared in the year 1850 (17 years after the death of Raja Rammohan Rai) that the claim of being divinely inspired could no longer be maintained in favour of the Brahmans of the Veda.” साथ-साथ यह भी कहना आरम्भ कर दिया कि हमारे लिए बाइबलकुरान आदि सब समान रूप से मान्य हैं। कालान्तर में जब केशव बाबू ने अपनी अल्पवयस्का पुत्री का विवाह कूचबिहार के राजकुमार के साथ करना निश्चित किया और उस अनुष्ठान में भी ब्राह्मविधि का प्रयोग न किया जाकर परम्परागत मूर्त्तिपूजा-प्रधान-संस्कार ही सम्पन्न हुआ तो केशव के रहे सहे साथी थी उनका साथ छोड़ गये। केशव ने अपनी अल्पावस्था पुत्री के विवाह को विधिसम्मत सिद्ध करने के लिए अपने-आपको दैवी आदेश प्राप्त करने वाले सिद्ध पुरुष के रूप में प्रस्थापित किया। मुहम्मद साहब जो कुछ करना चाहते थेउसकी स्वीकृति देने वाली आयत खुदा की ओर से उनपर पहली रात में नाजल हो जाती थी। केशव बाबू की इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण तत्कालीन वायसराय लार्ड लारेंस ने उन्हें  भारतीय जनता का उद्धारक कहकर सम्मानित किया था। 

    राममोहन राय तथा उन्हीं के सम्प्रदाय के केशवचन्द्र सेन ने ईसाईमतपाश्चात्य सभ्यतासंस्कृतिभाषाशिक्षा तथा नैतिक मूल्यों से प्रभावित होकर जो कुछ किया उसके कारण भारतीय जनमानस ने उन्हें सदा के लिए नकार दिया। सत्यार्थप्रकाश में ब्रह्म समाज के प्रकरण में स्वामी दयानन्द लिखते हैं- "इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत कम है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहाउसके स्थान पर भरपेट निन्दा करते हैं।" 

    "ब्रह्मादि ऋषियों का नाम तक नहीं लेते, प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ। आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।....भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं और इसी का अन्न-जल खाया-पिया, अब भी खाते-पीते हैं, तब अपने माता-पिता-पितामह आदि का मार्ग छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्रह्म समाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना बुद्धिमान्‌ का कार्य क्योंकर हो सकता है?"

    "जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है" वे लोग भारत का निर्माण कैसे कर सकते थे?

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    Rammohan Roy and Keshav Chandra Sen of his community, influenced by Christianity, Western civilization, culture, language, education and moral values, rejected the Indian public forever. In the episode of Brahmo Samaj in Satyarth Prakash, Swami Dayanand writes - "These people have very little indoctrination. Many have taken the conduct of Christians. It is far from praising their country and praising their ancestors, they blatantly condemn it"

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.1

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती 

    देशभक्त दयानन्द- जो इस देश को अपना नहीं समझता उससे इसकी उन्नति में प्रवृत्त होने की आशा कैसे की जा सकती है? इसमें सन्देह नहीं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी सबसे बड़ी देन है वह नारा जिसने इस आन्दोलन में जान फूँक दी थी। वह नारा था- "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" परन्तु लोकमान्य की मान्यता है कि आर्यलोग (अर्थात्‌ इस देश की 80 प्रतिशत आबादी) इस देश के मूल निवासी नहीं हैं। वे विदेशी आक्रमणकारी हैं, जिन्होंने उत्तर ध्रूव से आकर अपनी सैनिक शक्ति के बल पर इस देश पर बलात्‌ अधिकार किया और यहॉं के आदिवासियों को खदेड़कर बाहर किया तथा उनके घर-द्वार पर ही नहीं, उनकी स्त्रियों पर भी अधिकार कर बैठे । क्या इस प्रकार बलात्‌ पराये घर पर अधिकार जमानेवाले लोगों का यह अधिकार है कि वह उस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताएँ? लोकमान्य ने अपने मत का उल्लेख ‘Arctic Home in the Vedas’ में किया था। जब "मानवेर आदि जन्मभूमि" के लेखक बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने पूना जाकर उनसे पूछा कि वेदों में यह कहॉं लिखा है, तो लोकमान्य ने उत्तर दिया-"आमि  मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहब अनुवाद पाठ करिये छे" (मैंने मूल वेद नहीं पढे, मैंने तो साहब लोगों (अंग्रेजों) का किया हुआ अनुवाद पढा है)।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन
    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "फूट डालो और राज्य करो" (Divide and rule) के सिद्धान्त के अनुसार भारतीयों को भ्रमित करने के विचार से आर्य-द्रविड़ जातियों के सिद्धान्त की कल्पना लण्डन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के बन्द कमरे में 9 अप्रैल 1866 की सभा में की गई थी। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल (नई मालिका 5, पृ.420 की टिप्पणी) के अनुसार यह सभा राइट ऑनरेबल वाईकाउण्ट स्ट्रांगफील्ड (Viscount Strongfield) की अध्यक्षता में हुई थी। मिस्टर एडवर्ड टामस ने चौथे शीर्षक के अन्तर्गत चर्चा का आरम्भ करते हुए कहा कि "आक्सस नदी से आर्यन आक्रामकों की लहरें अरिमानिया प्रान्त और हिन्दूकुश के मार्ग से भारत में प्रविष्ट हुईं।" तद्‌नुसार भारत में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी स्तर तक की पुस्तकों में पढाया जाने लगा कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहॉं के मूल (आदि) निवासियों को परास्त कर इस देश पर बलात्‌ अधिकार करके इसके स्वामी बन गये। इस प्रकार इस देश के मूल निवासी आर्य आक्राम के रूप में द्वितीय श्रेणी के नागरिक कहलाने लगे। हम अपने ही घर में पराये बन गये। इसी आधार पर आज यह मॉंग की जा रही है कि अन्य विदेशियों (मुसलमानों तथा अंग्रेजों की भॉंति) आर्यों (हिन्दुओं) को भी, इस देश को आदिवासियों को सौंपकर, जहॉं से आये थे वहॉं लौट जाना होगा। यदि दौ सौ वर्ष पूर्व आनेवाले अंग्रेज विदेशी थे तो तीन हजार वर्ष पूर्व आनेवाले आर्य विदेशी क्यों नहीं? इस सन्दर्भ में ‘Muslim India’ के 27 मार्च 1985 के अङ्क में प्रकाशित यह वक्तव्य द्रष्टव्य है- 

    “This land belongs to those who are its original inhabitants and hence its rightful owners. It is they who built Harappa and Mohenjodaro, the world’s most ancient civilisation. Most of India’s Muslims and Christians are converts from these sons of the soil. They are either Dalits or tribals. In all foreign invasions, it is these people who defended India. They (Aryans) don’t belong to India and hence don’t love India. They are foreigners, the enemy within. As Aryans they are India’s first foreigneres. If Muslims and Christians are foreigners and must get out of India, as India’s first foreigners, the Aryans are duty bound to get out first. Those who came first must leave first.” 

    इस प्रकार ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से यह कहा जा रहा है कि इस देश के मुसलमानों में अधिसंख्य यहॉं की छोटी जातियों- अनुसूचित जातियों, जनजातियों, गिरिजनों आदि में से हैं, क्योंकि यही लोग भारत के मूल निवासी हैं, इसलिए हिन्दू से मूसलमान व ईसाई बने लोग ही इस देश के मालिक हैं, अन्य सब विदेशी हैं। अंग्रेज चले गये, पर भारत पर सबसे पहले आक्रमण करके यहॉं बसे विदेशी आर्य नहीं गये। जो सबसे पहले आये थे उन्हीं को सबसे पहले जाना चाहिए था। 

    आर्यों के विदेशी होने की मान्यता का फलितार्थ विभिन्न रूपों में हमारे सामने आ रहा है। 4 सितम्बर 1977 को संसद्‌ में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फैंक एन्थोनी ने मॉंग की- 

    “Sanskrit should be deleted from the 8th schedule of the constitution of India, because it is a foreign language brought to this country by foreign invaders, the Aryans”. - Indian Express, Sept. 9,1977. 

    अर्थात्‌ विदेशी आर्यों द्वारा लाई गई संस्कृत के विदेशी भाषा होने के कारण उसे भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से निकाल देना चाहिए। सन्‌ 1978 के आरम्भ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ा था। उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्‌ट के नाम पर रक्खा गया था। 23 फरवरी 1978 को द्रमुक (द्रविड़मुन्नेत्र कड़गम) के प्रतिनिधि लक्ष्मणन ने उस नाम पर आपत्ति करते हुए राज्यसभा में मॉंग की थी कि आर्यभट्‌ट नाम के विदेशी होने के कारण उसके स्थान पर भारतीय नाम रक्खा जाना चाहिए। कई वर्ष पहले तमिलनाडू के सलेम नामक शहर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आर्य होने के कारण उनकी मूर्ति के गले में जूतों का हार पहनाकर झाडुओं से मारते हुए जलूस निकाला गया। इन सबके मूल में आर्यों के विदेशी होने की मान्यता थी। 

    ऋषि क्रान्तदर्शी होता है। ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पाश्चात्यों की इस विनाशकारी कूटनीतिक चाल को समझा और इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने घोषणा की - 

    "किसी संस्कृतग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहॉं के जङ्गलियों से लड़कर, जय पाके, उन्हें निकालके इस देश के राजा हुए। पुन: विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात्‌ तिब्बत से सीधे इसी देश में आकर बसे थे। इससे पूर्व इस देश का कोई नाम भी नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे।" - सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास

    अपने को आक्रामक मानकर इस देश पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताना और अंग्रेजों को निकालकर इस पर शासन करना न्याय नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार यही है कि यह देश हमारा है, इसलिए इस पर शासन करने का अधिकार हमारा है। इसी से देशप्रेम और देशभक्ति की भावना को बल मिलता है। इस प्रकार दयानन्दकृत "सत्यार्थप्रकाश" तथा "आर्याभिविनय" ही "यतेमहि स्वराज्ये" के आदि प्रेरक हैं। दयानन्द से अतिरिक्त इसमें अन्य कोई भागीदार नहीं है। 

    सन्‌ 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर ब्लण्ट ने आर्यसमाज की समीक्षा करते हुए लिखा था- 

    “The Arya Samajic doctrine has a patriotic has a patriotic side. The Arya doctrine and Arya education alike sing the glories of ancient India and by so doing arouse a feeling of national pride in its disciples, who are made to feel that their country’s history is not a tale of humiliation. Patriotism and politics are not synonymous, but the arousing of an interest in national affairs is a naural result of arosing national pride.” -Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap IV, P. 135

    अर्थात्‌ "आर्यसमाज के सिद्धान्तों में स्वदेशप्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धान्त और आर्यशिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं और ऐसा करके अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को जागरित करते हैं। इस शिक्षा के फलस्वरूप वे समझते हैं कि हमारे देश का इतिहास पराभव की कहानी नहीं है। देशभक्ति और राजनीति एकार्थवाची नहीं हैं, किन्तु राष्ट्रीय कार्यों में रुचि या प्रवृत्ति राष्ट्रीय भावना का स्वाभाविक परिणाम है।" 

    ब्लण्ट के अनुसार स्वदेश के प्रति जागरित इस गौरवगान का यह परिणाम हुआ कि लोगों में अपने खोये गौरव को फिर से पाने की लालसा को बल मिला। किसी भी मामले में विदेशियों के सामने सिर झुकाना दयानन्द को सह्य नहीं था। वह लिखते हैं, "जब अपने देश में सब सत्य विद्या, सत्य धर्म और परमयोग की सब बातें थीं और अब भी हैं, तब विचारिए कि थियोसोफिस्टों को स्वदेशवासियों के मत में मिलना चाहिए या आर्यावर्त्तियों को थियोसोफिस्ट बनना चाहिए?"

    ब्राह्मसमाज के खण्डन के प्रकरण में यह बात और भी अधिक स्पष्टता से उभरकर आती है, "इन लोगों में स्वदेश भक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहा, उसके स्थान में भरपेट निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि ऋषियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ, आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।...भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं, तब अपने माता-पिता, पितामह आदि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृतविद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्यों का बुद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता हैं?"

    कितना स्वदेशाभिमानी था दयानन्द ! सन्‌ 1901 में जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर वर्न थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा- “Dayananda feared Islam and Christianity because he considered that the adoption of any foreign creed would endanger the national feelings he wished to foster.”

    अर्थात्‌ "दयानन्द इस्लाम तथा ईसाइयत के प्रति इसलिए शङ्कित थे, क्योंकि वे समझते थे कि विदेशी मतों के अपनाने से देशवासियों की राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचेगी, जिन्हें वे पुष्ट करना चाहते थे।"

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    According to Blunt, this result of this glorified awareness of home country has resulted in the desire of people to regain their lost glory. In any case, Dayanand was not tolerant to bowing before the foreigners. He writes, "When there was, and still is, all the truth, truth religion, and paramyoga in our country, then should the Theosophists should get the opinion of the indigenous people or should the Aryavartis become theosophists?"

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    इसमें सन्देह नहीं कि हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंगरेजों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम किया है। जब तक किसी देश के लोगों में स्वाभिमान की भावना रहती है तब तक विदेशी शासन के स्थायित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहता है। इसी भावना को नष्ट करने के लिए ईसाइयत ने हिन्दुस्तानियों को असभ्य और जंगली बताकर उनमें हीनता की भावना को उभारने का यत्न किया।

    इस्लाम के इतिहास से सभी भली-भॉंति परिचित हैं। यह ठीक है कि भारत में रहने वाले प्राय: सभी मुसलमान मूलत: इसी देश के वासी हैं,किन्तु आठ सौ वर्ष से इस धरती के अन्न-जल से पोषण पाकर भी वे इस देश के नहीं बन सके। भारत के मुसलमानों ने कभी इस देश पर शासन नहीं किया। शासन करनेवाले मुगल,पठान,खिलजीलोधी,गोरी,आदि सभी आक्रमणकारी विदेशी मुसलमान थे,परन्तु जितना गर्व उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों और इस देश के लोगों पर अत्याचार करनेवालों पर है उतना इस देश में पैदा हुए राम,कृष्ण और ऋषि-मुनियों पर अथवा इस देश के लिए मर मिटनेवाले राणा प्रताप,शिवाजी आदि पर नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म की कसौटी - सबका कल्याण
    Ved Katha Pravachan _20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मिस्टर ब्लण्ट ने ही एक बात और लिखी है-‘Dayananda was not merely a religious reformer, he was a great patriot. It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.’

    अर्थात्‌ दयानन्द मात्र धार्मिक सुधारक नहीं था। वह एक महान्‌ देशभक्त था। यह कहना ठीक होगा कि उसके लिए धार्मिक सुधारराष्ट्रीय सुधार का एक उपाय था। ब्लण्ट ने बड़े पते की बात कही है। इसमें सन्देह नहीं कि दयानन्द ने पाखण्डों और परस्पर विरोधी मतों का खण्डन इसलिए किया कि इनके रहते दयानन्द के अपने शब्दों में "परस्पर एकतामेल-मिलाप या सद्‌भाव न रहकर ईर्ष्याद्वेषविरोध और लड़ाई-झगड़ा ही होगा।" यदि ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्यावर्त्त की दुर्दशा क्यों होती?

    दयानन्द ने सबसे अधिक खण्डन मूर्तिपूजा का किया है। इस प्रकरण में उन्होंने मूर्त्तिपूजा से होनेवाली सोलह हानियों का उल्लेख किया हैजिनमें से अधिकतर का सम्बन्ध उसके कारण देश को होनेवाली हानियों से है। वे लिखते हैं, "नाना प्रकार की विरुद्ध स्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चलकर आपस में फूट बढाके देश का नाश करते हैं। जो मूर्ति के भरोसे शत्रु की पराजय और अपना विजय मानके बैठे रहते हैं उनका पराजय होकर राज्यस्वातन्त्र्य और सुख उनके शत्रुओं के अधीन हो जाता हैक्यों पत्थर पूजकर सत्यानाश को प्राप्त हुएदेखोजितनी मूर्तियॉं पूजी हैं उनके स्थान में शूरवीरों की पूजा करते तो कितनी रक्षा होती?"

    राष्ट्रोत्थान के लिए एकता आवश्यक है। दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" में अनेकत्र इस बात पर बल दिया है। उनका कहना है, "जब तक एक मतएक हानि-लाभएक सुख-दु:ख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है।" जब भूगोल में एक मत थाउसी में सबकी निष्ठा थी और एक-दूसरे का सुख-दु:खहानि-लाभ आपस में समान समझते थे तभी तक सुख थापरन्तु दयानन्द के अनुसार "भिन्न-भिन्न भाषापृथक्‌-पृथक्‌ शिक्षाअलग-अलग व्यवहार के विरोध का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।" एकता-सम्मेलन समझौते का आधार बन सकते हैंएकता का नहीं। समझौतों से सामयिक समस्या का समाधान भले ही हो जाएउसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। ऐसे उपायों से रोग दब सकता हैकिन्तु नष्ट नहीं हो सकता। इतना ही नहींकालान्तर में वह और भी उग्र रूप धारण कर सकता है।

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    एक दिन श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्‌या ने स्वामी दयानन्द से पूछाभगवन्‌ ! भारत का पूर्ण हित कब होगायहॉं जातीय उन्नति कब होगीस्वामीजी ने उत्तर दिया, "एक धर्मएक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण कित और जातीय उन्नति होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्रस्थान ऐक्य है। जहॉं भाषाभाव और भावना में एकता आ जाए वहॉं सागर में नदियों की भॉंति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूँ कि देश के राजा-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्मभाषा और भावों में एकता करें। फिर भारत में आप ही सुधार हो जाएगा।"

    महात्मा गॉंधी ने स्वदेशी के लिए आन्दोलन किया था। उनका वह आन्दोलन स्वदेशी वस्त्रों या खादी तक सीमित था। वर्तमान में एक बार फिर इस प्रकार के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है जिसका लक्ष्य भारत में विदेशी या अर्धविदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार करना बताया जाता है।

    दयानन्द ने अपने समय में देश की आर्थिक समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया। विचार ही नही  किया अपितु निश्चित योजना भी बनाई और तदर्थ विदेशों से पत्र-व्यवहार भी किया। दैवगति से उन्हें अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिला। स्वामीजी इस बात को बड़ी पीड़ा के साथ अनुभव करते थे कि विदेशी माल की खपत से कितनी हानि हो रही है। उन्होंने "सत्यार्थप्रकाश" में लिखा, "जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करें दो दारिद्र्‌य और दु:ख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।" देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के उद्‌देश्य से विदेशी वस्तुओं और रहन-सहन का बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा करते हुए उन्होंने बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा, "इतने से ही समझ लेओ कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते। देखोकुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियनों को हो गये और आज तक ये लोग वैसे ही मोटे कपड़े आदि पहनते हैंजैसेकि स्वदेश में पहनते थेपरन्तु उन्होंने अपने देश का चलन नहीं छोड़ा। तुममें से बहुत-से लोगों ने उनकी नकल कर ली। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। इससे तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। वे अपने देशवालों को व्यापार में सहायता देते हैंइत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है।

    "अन्य देशस्थ मनुष्यों का भी उतना मान नहीं करते जितना अपने देश के जूते का" लिखनेवाले के मन में कितनी पीड़ा रही होगीअपने देश की दीन-हीन दशा देखकर कितनी तीव्र घृणा रही होगी उसके हृदय में विदेशी शासन और विदेशी वस्तुओं के प्रयोग के प्रति! छावली निवासी ठाकुर ऊधोसिंह को विदेशी वेशभूषा में देखकर उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था, "क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इस नये वेश से विभूषित होकर अपने पिताजी से अधिक सुसंस्कृत हो गये हो।?" -श्रीमद्दयानन्द प्रकाश

    स्वामीजी से प्रेरणा पाकर बड़ी संख्या में आर्यसमाजी स्वदेशी वस्त्रों का प्रेरणा करने लगे थे। लाहौर की आर्य समाज के सभासदों द्वारा अंग्रेजी वस्त्रों का प्रयोग न करने और स्वदेशी वस्त्रों का ही प्रयोग करने के निर्णय का समाचार "स्टेट्‌समैन" के 14 अगस्त 1879 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था-

    ‘The present condition of India is one of rapidly increasing improverishment. In this condition of the country, there is no public question of such high importance and absorbing interest as the question of the rivival of our trades and industries. The action of the members of Lahore Arya Samaj, founded by the learned Pandit Dayanand Saraswati should, therefore, be hailed with satisfaction by those who have the interest and welfare of this country at heart. They resolved at a meeting held at the premises of the Arya Samaj building to abstain from the use of English clothes. Hence foreward they will stick to the clothes manufactured solely in India. If they can fulfil their promises, and others follow their example, a great object will be gained. This is the only way be which the influence of Manchaster can be counteracted in the Indian market.’

    अर्थात्‌ "भारत की वर्तमान अवस्था तेजी से बढती हुई दरिद्रता की है। देश की इस अवस्था में अपने धन्धों और उद्योगों की पुन: बहाली का प्रश्न जितना महत्त्वपूर्ण और रोचक है उतना अन्य कोई सामाजिक प्रश्न नहीं है। अत: विद्वान्‌ मनीषी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित लाहौर आर्यसमाज के सदस्यों के कदम का सन्तोष के साथ अभिनन्दन उन सब लोगों को करना चाहिए जिनके हृदय में देश का हित है। आर्यसमाज भवन के परिसर में हुई एक बैठक में उन्होंने अंगे्रजी कपड़ों के उपयोग से विरत होने का निश्चय किया है। आगे से वे केवल भारत में बने कपड़ों का हठ रखेंगे। यदि वे अपने वचनों को क्रियान्वित कर सके और अन्य लोग उनके उदाहरण का अनुकरण कर पाये तो एक महान्‌ लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय बाजार में मैंचेस्टर के प्रभाव का जवाब देने का यह एक उपाय हैं।"

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    Of course, Christians have worked together to strengthen the shackles of our slavery by mixing the shoulders of the British. As long as there is a sense of self-respect among the people of a country, then the stability of foreign rule remains in question. To destroy this sentiment, Christianity tried to instill a sense of inferiority in them by calling Hindustani rude and wild. 

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-11

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    वेदोद्धारक दयानन्द-वेदों के सम्बन्ध में भ्रान्तियॉं महाभारत-काल से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न होने लगीं थीं। किन्तु तत्कालीन ऋषियों की जागरूकता के कारण अभी उनका विस्तार नहीं हुआ था। तत्पश्चात्‌ भी कुछ समय तक भगवान्‌ वेदव्यास और उनकी शिष्य-परम्परा वैदिक ज्ञान को कुछ काल तक अपने स्वरूप में सुरक्षित रखने में प्रयत्नशील रही। जैमिनि वेदव्यास के साक्षात्‌ शिष्य थे। शायद इसी कारण स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में अनेकत्र "ब्रह्मा से जैमिनि पर्यन्त" शब्दों का प्रयोग किया है। वैदिक वाड्‌मय के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उसी काल के हैं। यह स्थिति जैसे-तैसे महाभारत-काल के सौ-दौ सौ वर्षों तक बनी रही। तत्पश्चात्‌ वैदिक युग तेजी से समाप्ति की ओर बढने लगा। परिणामत: मानवजाति शतश: मत-मतान्तरों में विभक्त होने लगी। सायणाचार्य से पूर्ववर्ती आचार्यो के वेदार्थ को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यास्क आदि आप्त ऋषियों के वेदार्थ की परम्परा न्यूनाधिक रूप में उन आचार्यों तक बनी रही। मध्यकाल तक आते-आते वेदों का प्रयोजन द्रव्यमय यज्ञों के अनुष्ठान तक सीमित हो गया और इस प्रकार आर्ष परम्परा धीरे-धीरे ह्रासोन्मुख होकर लुप्तप्राय-सी हो गई।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मानवता ही मनुष्य का धर्म
    Ved Katha Pravachan -19 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शताब्दियों तक वैदिक साहित्य याज्ञिक कीली के ईर्द-गिर्द घूमता रहा। सायण के काल तक ऐसी स्थिति हो गई कि आध्यात्मिक तत्त्वों का स्पष्ट निर्देश करनेवाले मन्त्रों को भी पकड़-पकड़कर बलात्‌ यज्ञप्रक्रिया में घसीटा जाने लगा। यहॉं तक कि शतपथ आदि वेद के व्याख्यान-ग्रन्थों तक में प्रक्षेप कर उन्हें दूषित करने की चेष्टा की जाने लगी। मांसभक्षण, मदिरापान, पशुबलि, गुप्तेन्द्रियपूजन आदि आसुरी दुष्प्रवृत्तियों का "ब्राह्मण" आदि ग्रन्थों में प्रक्षेप कर दिया गया और उन्हें भी "वेद" संज्ञा देकर अपनी मान्यताओं की वेद के नाम पर पुष्टि कर दी गई।

    राजा कालस्य कारणम्‌- "शासन-व्यवस्था का प्रभाव छोटे-बड़े सभी पर पड़ता है।" सायण विजयनगरम्‌ राज्य के प्रधानमन्त्री थे। वह यज्ञप्रधान युग था और यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य मानी जाती थी। उसी के आधार पर उसने वेदों का भाष्य किया। जब सायणाचार्य के मन में यह धारणा काम कर गई कि वेदा यज्ञार्थं प्रवृत्ता:, अर्थात्‌ वेदमन्त्र याज्ञिक प्रक्रिया का ही प्रतिपादन करते हैं तो यह स्वाभाविक था कि वह अपना समस्त बौद्धिक वैभव याज्ञिक प्रक्रिया में समर्पित कर बैठते। वेदार्थ की त्रिविध प्रक्रिया में याज्ञिक प्रक्रिया भी एक है। तद्‌नुसार भी मन्त्रार्थ किया जा सकता है, पर सायणाचार्य ने पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा का सर्वथा परित्याग करके वेदमन्त्रों का केवल याज्ञिक प्रक्रिया-परक अर्थ ही किया। अथर्ववेद के नवम काण्ड का चतुर्थ सूक्त बड़े-बड़े चौबीस मन्त्रों का है। इसमें गोवंश की उन्नति और उसके कृषि में उपयोग से सम्बन्धित अनेक बातों का विशेषत: उत्तम कोटि के बछडे उत्पन्न करने का उल्लेख हुआ है, परन्तु सायण आदि ने वेद के इस सूक्त को बैल को मारकर उसके मांस से यज्ञ करने में लगाया है। सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में बैल को पिता वत्सानां पतिरघ्न्यानाम्‌, उत्तम बछड़े-बछड़ियों का पिता और गौओं का पति बतलाते हुए, त्वष्टा रूपाणां जनिता पशूनाम्‌, सुन्दर-सुडौल सन्तान पैदा करनेवाला और आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेत:, घी-दूध के घड़े भरनेवाला कहा है। जब किसी के घर में उत्तम कोटि का बछड़ा उत्पन्न हो जाए तो उसे ग्राम या नगर की उत्तम गौओं से उत्तम सन्तान उत्पन्न करने के लिए सॉंड के रूप में राष्ट्र के निमित्त दान कर देना चाहिए। मन्त्र-गत "जुहोति" क्रिया की "हु" धातु का अर्थ दान भी होता है। प्रकरणश एव तु निर्वक्तव्या:, यास्क के इस निर्देश के अनुसार, "प्रकरण के अनुकूल ही निर्वचन होने चाहिएँ।" कृषि के प्रसङ्ग में "हु" धातु का "दान" अर्थ ही संगत होगा। काटकर होम किये हुए बैल से न खेती होगी और न उसके द्वारा घी-दूध प्राप्त होगा, पर कर्मकाण्ड की भंवर में फॅंसे होने के कारण वेदार्थ-विषयक मूलभूत सिद्धान्तों की अवहेलना करके पूर्वापर प्रसङ्ग पर विचार किये बिना, यहॉं तक कि गौ के "अघ्न्या" नाम की चिन्ता किये बिना सायण ने होमपरक अर्थ करके बैल के विभिन्न अंगों को काट-काटकर आग में झोंकने का विधान कर डाला।

    सन्तप्त हृदयों की आन्तरिक ज्वाला को शान्त कर आत्म समर्पण द्वारा प्रभु प्रेम में असीम आस्था का अनूठा दृश्य उपस्थित करनेवाला ऋग्वेद का एक अत्यन्त हृदयग्राही मन्त्र है, यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत्‌ सत्यमङ्गिर:। (1.1.6) हे प्रियतम देव ! शरणागत का कल्याण करना तुम्हारा नियम है। मन्त्र के इस भावनापूर्ण अर्थ का दर्शन न करके सायण यजमान के लिए "वित्त-गृह-प्रजा-पशुरूपं कल्याणम्‌" की प्रार्थना करते हैं और वह भी परमेश्वर से नहीं जड़ भौतिक अग्नि से। वस्तुत: यज्ञपरक उपर्युक्त मिथ्या धारणा के पूर्वाग्रह ने सायण को वेदमन्त्रों में निहित अर्थ तक पहुँचने ही नहीं दिया।

    इसमें सन्देह नहीं कि सायण ने अपने समय में वैदिक साहित्य में महान्‌ श्रम किया। वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों पर भाष्य लिखे। अन्य अनेक विषयों पर भी बहुत से प्रौढ ग्रन्थ लिखे या लिखवाये। उनके वेदभाष्य में व्याकरण आदि का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ है। सायण के इस प्रयास के लिए हम उन्हें साधुवाद दिये बिना नहीं रह सकते, परन्तु मूल धारणा के भ्रान्त होने के कारण उन्होंने स्वयं ही अपने किये-कराये पर पानी फेर दिया। महीधर आदि का भाष्य तो पूरी तरह वाममार्ग के रंग में रंगा है। इन भाष्यों को पढने के बाद कौन कणाद के बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे, वैशेषिक दर्शन 6.1.1 या मनु के सर्वज्ञानमयो हि स:, सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति और प्रमाणं परमं श्रुति:, इत्यादि वचनों पर विश्वास कर सकता है? इन सबने मिलकर वेद के प्रति श्रद्धा के मार्ग में पथरीली चट्‌टानें खड़ी कर दीं। वेदार्थ के विषय में भ्रान्ति पैदा करके संसार को वेद से विमुख करने में सबसे बड़ा हाथ सायण का है। सायण का नाम बार-बार इसलिए आता है कि वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों पर सबसे अधिक भाष्य उन्हं के हैं और उन्हीं के आधार पर आगे लोगों ने अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद आदि कार्य किया।

    क्या वेदों में वही कुछ है जो सायण, महीधर आदि ने बताया है? यदि इसका उत्तर "हॉं" में है तो महात्मा बुद्ध के स्वर-में-स्वर मिलाकर हम भी यही कहने को विवश होंगे कि ऐसे वेदों से दूर ही भले, हम ऐसे वेदों को नहीं मानते और यदि वे ईश्वरप्रदत्त हैं तो हम ऐसे ईश्वर को नहीं मानते। इन तथाकथित वेदाचार्यों द्वारा किये गये वेदभाष्यों के आधार पर होनेवाले कुकृत्यों को देखकर चारवाक चिल्ला पड़े, त्रयो वेदस्य कर्त्तारो, धूर्त्तभण्डनिशाचरा:। वेदों के नाम पर प्रसारित अधर्ममूलक दुष्प्रवृत्तियों से जनसाधारण में जो प्रतिक्रिया हुई उसी के फलस्वरुप चारवाक, जैन और बौद्ध मतों का प्रादुर्भाव हुआ। चारवाकों ने ईश्वर और वेदों के परित्याग के साथ-साथ आत्मा की सत्ता को भी नकार दिया। वेदों के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा यज्ञों में मूक प्राणियों की हिंसा से दयार्द्र महावीर और बुद्ध ने परम धर्म के नाम पर अहिंसा को प्रतिष्ठित किया। वेद के नाम पर होने वाली हिंसा, पाखण्ड, जन्मना वर्ण-व्यवस्था को या ऊँच-नीच, मृतक श्राद्ध, स्त्रियों और शूद्रों पर होनेवाले अमानुषिक अत्याचार आदि को सहन न कर सकने के कारण चारवाकों, जैनों और बौद्धों ने वेदों पर भीषण प्रहार किये। साधारण जनता वेदानुयायी-ब्राह्मणों के कदाचारों से तंग आ चुकी थी। अत: महावीर और बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर वह जैन और बौद्ध मतों में दीक्षित होने लगी। वेदों से घृणा हो जाने के कारण वैदिक धर्म विलुप्त होने लगा।

    arya samaj dayanand saraswati

    ऐसी अवस्था में कुमारिल भट्‌ट और शंकराचार्य ने वेदों को पुन: प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि बौद्ध मतानुयायियों द्वारा वेदों पर किये गये भीषण प्रहारों से त्रस्त कोई वेदानुयायी राजकुमारी अपने महल पर खड़ी आँसू बहा रही थी। महल के नीचे से जा रहे कुमारिल भट्‌ट के ऊपर गरम-गरम आँसुओं की बूदें पड़ीं तो उन्होंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा और राजकुमारी से उसके रोदन का कारण पूछा। राजकुमारी बोली, किं करोमि क्व गच्छामि? को वेदानुद्धरिष्यति? इस करुणक्रन्दन को सुनकर राजकुमारी को ढाढस बॅंधाते हुए कुमारिल ने उच्च स्वर से कहा, मा बिभेषी वरारोहे! भट्टाचार्योस्ति भूतले, हे देवि ! रो मत। वेद के उद्धार के लिए इस धरती पर भट्टाचार्य विद्यमान है। परन्तु कुमारिल यज्ञिय कर्मकाण्ड की प्रतिपादक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में ही उलझकर रह गये। मूल संहिताओं का उन्होंने स्पर्श तक नहीं किया।

    शंकराचार्य वेद आदि शास्त्रों में निष्णात थे। उनकी तर्कशक्ति बड़ी प्रबल थी। उन्होंने अकेेले ही वेदविरोधी चारवाकों, जैनों और बौद्धों से लोहा लिया। बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हुए। वे शंकर के प्रचण्ड तर्कों का सामना न कर सके। धीरे-धीरे इन मतों का वर्चस्व मन्द पड़ गया। शंकराचार्य के काल तक वैदिक शाखाओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों की भी "वेद" संज्ञा प्रचलित हो चली थी। अध्यात्मप्रवण शंकर ने "वेदान्त" नाम से अध्यात्मप्रधान उपनिषदों पर अपने अद्वैत मत को स्थापित किया। इस मत का आधारभूत सिद्धान्त है, ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। "जगमिथ्या" का आधार है शंकराचार्य के दादागुरु गौड़पादाचार्य द्वारा प्रतिपादित वह सिद्धान्त कि आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा, अर्थात्‌ "यह जगत्‌ उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय होने पर नहीं रहेगा, इसलिए इस समय भी नहीं है।" मूल संहिताओं का स्पर्श शंकर ने भी नहीं किया। उनके सम्पूर्ण साहित्य में वेद के कहीं दर्शन नहीं होते। वैदिक संहिताओं की उपेक्षा उन्होंने इसलिए की क्योंकि उनके काल तक वेद केवल अपरा-विद्या के ग्रन्थ माने जाने लगे थो। वेदों का प्रयोजन केवल कर्मकाण्ड तक सीमित था। परा-विद्या अथवा ज्ञानकाण्ड के ग्रन्थों के रुप में उपनिषदों की मान्यता थी। प्रस्थान-त्रयी के जिन वचनों में द्वैतवाद का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है, उनका भी शंकराचार्य ने अद्वैतपरक व्याख्यान किया है।

    सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य) का नारा लगानेवाले शंकर को शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:, (श्रीमद्‌भगवद्‌गीता) के अनुसार मनुष्यमात्र को ही नहीं प्राणिमात्र को आत्मवत्‌ समझना चाहिए था, परन्तु वेदान्तदर्शन के "अपशूद्राधिकरण" में मात्र वेद को सुनने के तथाकथित अपराधी शूद्र के कानों में गरम-गरम सीसा या लाख उँडलने का निर्देश करके "प्रश्नोत्तरी" में नारी को नरक का द्वार बतलाकर और काशी में सामने से आ रही शूद्रा को परे हटने का आदेश देकर अपने मनस्यन्यद्‌ वचस्यन्यत्‌ कर्मण्यन्यत्‌ का उदाहरण उपस्थित कर "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के याथार्थ्य का भाण्ड़ा फोड़ दिया। डॉ. राधाकृष्णन्‌ द्वारा वेदान्तदर्शन का अंग्रेजी में किया गया भाष्य शंकराचार्य के भाष्य का अंग्रेजी में अनुवाद मात्र है, सर्वथा उसके अनुकूल है, परन्तु 1.3.38 श्रवणाध्ययनार्थप्रतिरोधात्‌ स्मृतेश्च के अपने भाष्य में वे शंकर से अपना मतभेद प्रकट किये बिना न रह सके। वहीं उन्होंने लिखा हैं-

    ‘But the restricitons imposed with regard to Vedic study cannot be defended. If we take our stand on the potential divinity of all human beings, whatever be their caste or class. race or religion, sex or occupation, the methods for gaining release should be open to all.’  

    अर्थात्‌ "वेदाध्ययन पर लगाये गये प्रतिबन्धों की वकालत असम्भव है। यदि हम अपना पक्ष सब मनुष्यों की निहित दिव्यता पर आधारित करते हैं, भले ही उनकी जाति या श्रेणी नस्ल या धर्म, लिङ्ग या धन्धा कुछ भी हो, तो मोक्षप्राप्ति के उपाय सबके लिए अगोप्य होने चाहिएँ।" परन्तु शंकर ने कलम की एक नोक से मानवसमाज के तीन चौथाई भाग (स्त्री-रूप आधा+शूद्र-रूप अन्य अर्द्ध) को वेदाध्ययन से वञ्चित कर दिया और रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि सभी आचार्यों ने उनका आँख मून्दकर समर्थन कर दिया। यह कैसा वेदोद्धार था और कैसा अद्वैतवाद? वस्तुत: यह सब इन आचार्यों की वेदार्थ सम्बन्धी भ्रान्तियों से उत्पन्न अवैदिक विचारधारा का परिणाम था।

    अहं ब्रह्मास्मि के मिथ्या भूत के कारण शंकर के लिए वेद गौण हो गये और वेदान्त मुख्य। यही कारण है कि उनके ग्रन्थों में ढूँढने पर भी वेदमन्त्र नहीं मिलते। मनु के अनुसार श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेय:, "श्रुति से वेदों (मन्त्रसंहिताओं) का ही ग्रहण होता है", परन्तु शंकर "श्रुति" नाम से ब्राह्मण, उपनिषद्‌, स्मृति आदि को उद्धृत करते हैं। ऐसा लगता है कि शंकर ने केवल वेदविरोधी मतों का खण्डन करने के लिए ही  अद्वैत मत को अपनाया था। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। यदि ऐसा न होता तो अपने से भी पहले वेदमत की प्रतिष्ठार्थ प्रयास करनेवाले, किन्तु द्वैतवादी कुमारिल भट्‌ट से शास्त्रार्थ करने प्रयाग न पहुँच जाते।

    इस प्रकार वेदमत के उद्धार के लिए कृतसंकल्प शंकर उपनिषदों से आगे नहीं बढे। ऐसी अवस्था में मनु आदि द्वारा वेद के लिए कहे गये सर्वज्ञानमयो हि स:, सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति और नि:सृतं सर्व शास्त्रं तु वेदशास्त्रात्‌ सनातनात्‌, इत्यादि कथन जो वेद को सब विद्याओं का आकर ग्रन्थ बताते हैं, निरर्थक हो गये। वस्तुत: कमारिल और शंकर ने अपने वेदोद्धार के कार्य के निमित्त तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन्मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढम्‌, (निरुक्त 13.12) के "मन्त्रार्थ के सत्यमार्गदर्शक, ऋषिभूत तर्क" का आश्रय नहीं लिया। ऐसा न कर पाने के कारण वे वेदों को मनुष्य के लिए अपेक्षित सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार के रूप में प्रस्तुत न कर सके। पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात्‌ प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द की प्रेरणा से प्राप्त इस दिव्यास्त्र का प्रयोग करके संसार में व्याप्त अविद्यान्धकार को दूर करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को मिला।

    वेदोद्धार का जो महत्तम कार्य महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया वह पूर्वकाल के कुमारिल और शंकर के काम से कहीं अधिक क्लिष्ट और दुरूह था। इन दोनों आचार्यों ने जिन चारवाक, जैन और बौद्ध मतों का खण्डन किया वे मूलत: वैदिक और भारतीय थे। स्वामी दयानन्द के काल में पूर्वोक्त अवैदिक मतों के अतिरिक्त कुकुरमुत्तों की भॉंति अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये थे जो अपने को वैदिक मतानुयायी कहते हुए भी वास्तव में अवैदिक थे। स्वयं शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित अद्वैतवाद भी उन्हीं में से एक था। अवतारवाद, बहुदेवतावाद, मूर्तिपूजा, जन्मगत ऊँच-नीच आदि अनेकविध अवैदिक मान्यताअें से ग्रस्त समाज बड़ी तेजी से पतन की ओर बढ रहा था। जिस सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म की राम और कृष्ण उपासना करते थे, उसे छोड़कर उसके उपासक स्वयं राम और कृष्ण को उपास्य मानकर उन्हें वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर उन्हीं की धूप और नैवेद्य आदि से पूजा करने लग गये थे। श्रीमद्भगवद्‌गीता ने कहा था, ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन! तिष्ठति। (17.61) परन्तु भक्तजनों ने उन्हें अपने हृदय-मन्दिरों से निकालकर गली-कूचों में बने ईंट-पत्थरों के मन्दिरों में कैद कर दिया था। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" की मनमानी व्याख्या करके ईश्वर के नाम पर निरीह पशुओं और कभी-कभी मानव-शिशुओं की बलि देकर तथाकथित भक्तजन खुशी में पागल होकर नाचते-कूदते थे। गुण-कर्म-स्वभाव पर आश्रित वर्णव्यवस्था का स्थान जन्ममूलक दूषित जातिप्रथा ने ले लिया था। दुधमुँहे बच्चों के विवाह कर दिये जाते थे। परिणामत: लाखों बाल-विधवाएँ अभिशप्त जीवन व्यतीत करने को विवश थीं। पुरोहित-वर्ग पति की मृत्यु पर पत्नी को स्वर्ग-प्राप्ति का प्रलोभन देकर अथवा सामाजिक दण्ड और अत्याचार का भय दिखाकर सती के नाम पर उसे जीवित ही आग में झोंक देता था। ब्राह्मणवर्ग तरह-तरह के पाखण्ड रचकर जनता को लूटता था। रोगों को भूत-प्रेत की लीला बताकर जहॉं एक ओर अपनी जेबें गरम की जाती थी वहॉं दूसरी ओर रोगी को समुचित चिकित्सा से वंचित कर मौत के मुँह में धकेल दिया जाता था। तीर्थस्थान व्यभिचार के अड्डे बने हुए थे। "स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्‌" का मिथ्या प्रचार करके देश की आधी से अधिक आबादी को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था। इस प्रकार भारत अनपढ, गॅंवारों का देश बनकर रह गया था और यह सब वेदों के नाम पर हो रहा था।

    founder of arya samaj

    उक्त भारतीय मत-मतान्तरों और अवैदिक मान्यताओं के पोषक पौराणिक वेदभाष्यों के अतिरिक्त मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वान्‌ जान-बूझकर वेदों को विकृ त रूप में प्रस्तुत करने के लिए कटिबद्ध थे। जैसे हम वेदों को कण्ठस्थ करनेवाले दाक्षिणात्य ब्राह्मणों के ऋणी हैं, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानों के भी ऋणी हैं। भारतीय ब्राह्मणों ने यदि वेदों को नष्ट होने से बचाया तो पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों को भारत में ही सीमित न रहने देकर उन्हें विश्व की सम्पत्ति बनाया। यूरोपीय विद्वानों के प्रयत्न से वेद सारे संसार में चर्चित होने लगे, किन्तु जैसे सायण आदि का दृष्टिकोण यज्ञपरक था और उनके अनुसार हर मन्त्र का लक्ष्य यज्ञ की किसी क्रिया को सामने रखकर मन्त्र का नियोजन करना था, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानों का लक्ष्य वेदभाष्य करते समय ईसाई मतावलम्बी विदेशी सरकार के हितों को ध्यान में रखते हुए उन पर विकासवादी दृष्टिकोण से विचार करना था। मैक्समूलर के भाष्य पर सायण और डार्विन दोनों छाए हुए हैं और उसके भीतर मैकाले की आत्मा विद्यमान है मैक्समूलर ने विकासवाद को सामने रखकर सायण आदि के भाष्यों का अंग्रेजी में रूपान्तर किया। वस्तुत: पाश्चात्य भाष्यकारों की विचारधारा का आधारभूत सिद्धान्त विकासवाद का विचार है। उनके लिए विकासवाद का सिद्धान्त पहले था। उसके बाद जो कुछ आया उसे विकासवाद की कसौटी पर घटाकर देखा गया। विकासवाद की कसौटी पर परखकर ही ये लोग किसी बात को सही या गलत होने का निश्चय करते हैं। मैक्समूलर ने बहुदेवतावाद (पॉलीथीज्म) और एकेश्वरवाद (मोनोथीज्म) के मुकाबले में "हीनोथीज्म" नाम से एक नये मत की कल्पना सिर्फ इसलिए की क्योंकि वह विकासवाद के सिद्धान्त के विपरीत, यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि एकेश्वरवाद-जैसा उत्कृष्ट विचार मानव-संस्कृति के प्रारम्भिक काल में किसी मनुष्य के विचार में आ सकता था। जब एकेश्वरवार के विचार की पुष्टि में वेद से "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" वाक्य को उद्‌धृत किया जाता है तो कहते हैं कि यह बहुत बाद का विचार (ऑफ्टर थाट) है। मैक्समूलर के प्रमुख शिष्य मैकडानल ने अपनी पुस्तक "ए वैदिक ग्रामर फॉर स्टूडेण्ट्‌स"  में लिख दिया कि ऋग्वेद के 10 मण्डलों में से 8 मण्डल पहले लिखे गये, तत्पश्चात्‌ नवॉं और अन्त में दसवॉं। उनके कहने का अभिप्राय यह है कि पहले आठ और अगले दो (जिनमें एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया है) मण्डलों के लिखे जाने का समय भिन्न है। जब उन्हें यह बतलाया जाता है कि "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" तो पहले मण्डल में ही आया है, तो वे कहते हैं कि वहॉं यह प्रक्षिप्त है। परन्तु यह वाक्य तो वेद का अभिन्न अंग है जो भिन्न-भिन्न शब्दों में यत्र-तत्र-सर्वत्र ओत-प्रोत है। फिर इसे प्रक्षिप्त या बाद में डाला हुआ कैसे कहा जा सकता है? यह शीर्षासन केवल इसलिए किया जाता है, क्योंकि उनकी विकासवादी विचारधारा में यह फिट नहीं बैठता। इस विषय में योगी अरविन्द ने लिखा है-

    “We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn (Rg. 1.164.46), they say, was a later production; this loftier idea, which it expresses with so clear a force, rose up somehow in the mind or was borrowed by those ignorant fire-worshippers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughtout the Veda we have a large number of conformatory hymns and expressions..... Why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism, rather than this new fangled monstrocity of henothism? Well, because primitive barbarians could not possibly have so risen, you imperil our theory of evolutionary stages of human developmet. Truth must hide itself, common sense disappear from the field so that your theory may flourish. I ask in this point and it is the fundamental point, who deals most forwardly with the text, Dayanand or the Western Schoolars?

    इस उद्धरण का अभिप्राय यह है कि यदि "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" से विकासवाद खण्डित होता है तो पाश्चात्य विद्वानों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अपने अर्थ को स्पष्ट करने के लिए वेद की अन्त: साक्षी प्रमाण होगी या मैक्समूलर, कीथ, ग्रिफिथ आदि जो कहेंगे वह प्रमाण होगा? वेदों का अर्थ यदि वेदों से ही स्पष्ट होता हो तो उस प्रक्रिया का सर्वोच्च स्थान होना चाहिए। परन्तु यदि वेदों का स्वत:-प्रसूत अर्थ विकासवाद को पुष्ट नहीं करता तो पाश्चात्य विद्वान्‌ अर्थों को तोड-मरोडकर अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते हैं। अरविन्द के अनुसार दयानन्द ऐसा नहीं करते।

    यद्यपि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों पर पर्याप्त कार्य किया तो भी वे उनमें निहित ज्ञान की थाह न पा सके। सच्चाई तक पहुँचने में विकासवाद के अतिरिक्त उनका पूर्वाग्रह और स्वार्थ आड़े आया। यूरोपियन समाज भारत में ब्रिटिश सााम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारतीयों को ईसाइयत के सॉंचे  में ढालने के उद्‌देश्य से इस देश के साहित्य और इतिहास को विकृत करने में प्राणपण से जुटा हुआ था। इसीलिए उन्होंने वेदों का ऐसा भाष्य किया जिसे पढने के बाद इस देश के लोग अपनी सांस्कृतिक विचारधारा को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। इस अभियान का आरम्भ मैकाले के क्रीतदास मैक्समूलर ने किया। स्वयं मैक्समूलर ने अपने पत्नी के नाम लिखे पत्र में इस तथ्य को स्वीकार किया-

    “This edition on mine and the translation of the Veda will, hereafter, tell to a great extent on the fate of India. It is the root of their religion and to show them what the root is. I feel sure, it is the only way of uprooting all that has sprung the last three thousand years.” (Life and Letters of Frederick Max Muller, Vol. I, Ch. XV, P.34)

    अर्थात्‌, मेरा यह भाष्य भारत के भाग्य को दूर तक प्रभावित करेगा। यह वेद उनके धर्म का मूल है और उन्हें यह दिखा देना कि उनका मूल कैसा है, उनकी गत तीन हजार वर्षों की उपलब्धि को समूल नष्ट कर देगा।

    इसका क्या परिणाम हुआ, यह भारत-सचिव के नाम 16 दिसम्बर 1868 को लिखे मैक्समूलर के निम्न पत्र से स्पष्ट हो जाता है-

    “The ancient religion of India is doomed. Now if Christinity does not step in whose fault will it be?” -Ibid, Ch. XVI, P. 378

    अर्थात्‌ "भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है। अब यदि ईसाइयत उसका स्थान नहीं लेती तो यह किसका दोष होगा?

    मैक्समूलर के प्रयासों की सराहना करते हुए उसके घनिष्ठ मित्र ई. बी. पुसे ने अपने एक पत्र में लिखा-

    ‘Your work will mark a new era in the efforts for the conversion of India.’
    अर्थात्‌ आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने की दिशा में नवयुग लानेवाला होगा।

    भारत को "यावच्चन्द्रदिवाकरौ"दासता की बेड़ियों में जकड़े रखने के लिए बोर्ड ऑफ एजुकेशन के अध्यक्ष लार्ड मैकाले द्वारा निर्धारित शिक्षा-नीति के अनुसार खोले गये स्कूलों और कॉलेजों के लिए जो पाठ्‌यक्रम नियत किया गया वह "मेड इन इंग्लैंड एण्ड फॉर इंगलैंड" था। उसका एकमात्र प्रयोजन पाश्चात्य विचारवाले ऐसे व्यक्ति तैयार करना था जो तन से भले ही काले हों, पर मन से गोरे अर्थात्‌ अंग्रेज बन जाएँ। उस शिक्षा पद्धति के सॉंचे में ढलकर जो भी निकले, डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में "दे वर मोर इंग्लिश दैन द इंग्लिश दैमसैल्व्ज्‌" (इंडियन फिलासफी, वाल्यूम II )। इस शिक्षा-नीति के फलस्वरूप लोकमान्य तिलक जैसे महान्‌ देशभक्त भी वेदों के आधार पर अपने को इस देश में विदेशी मान बैठे, और जब उनसे पूछा गया कि वेदों में यह कहॉं लिखा है तो भेंटकर्त्ता उमेशचन्द्र विद्यारत्न से उन्होंने सहजभाव से कह दिया, "आमि मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहिब अनुवाद पाठ करिये छे"। -मानवेर आदि जन्मभूमि पृष्ठ 124 

    ऐसे समय में सन्‌ 1824 में स्वामी दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से इस देश की समस्याओं पर विचार किया। उन्होंने समझ लिया कि रोगी वृक्ष के पत्तों को सींचने से वृक्ष नहीं पनप सकता। उसकी जड़ों में रोगनाशक दवाइयों का प्रयोग कर अपेक्षित खाद-पानी देने से ही वह फलीभूत होगा। विचार के पश्चात्‌ वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस देश, जाति और समाज की दुर्दशा का मूलकारण वेदविद्या के प्रचार के अभाव में देश में व्याप्त अविद्यान्धकार है। इसलिए जब तक वेदों का उद्धार करके उनको अपने वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाएगा तब तक अविद्यान्धकार दूर नहीं होगा। वेदों को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए दयानन्द को भारतीय अवैदिक मत-मतान्तरों के अनुयायियों, विदेश से आयातित अर्थ व बलपूर्वक आरोपित मतों (इस्लाम और ईसाइयत), पाश्चात्य और तद्‌नुयायी भारतीय विद्वानों द्वारा फैलाई गई विविध भ्रान्त धारणाओं से एक-साथ लड़ना पड़ा । वस्तुत: स्वामी दयानन्द भारतीय पुनर्जागरण (रिनेसेंस) के अग्रदूत थे। फ्रॉंस के महान्‌ लेखक रोम्यॉं रोलॉं ने लिखा है-

    “This man with the nature of a lion is one of those whom Europe is apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost; for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. He was a hero with the athletic strength of Herculese who thundered against all forms of thought other than his own, the only true one. He was so successful that in five years the whole of Northern India was completely changed. He possessed unrivlled knowledge of Sanskrit and the Vedas. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. Dayananda was not a man to come to understanding with religious philosophers imbued with Western ideas.”

    "यह सिंह-सदृश प्रकृतिवाला मनुष्य उनमें से एक था जिसे यूरोप प्राय: उस समय भुला देता है जब वह भारत के सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाता है, किन्तु एक-न-एक दिन विवश होकर उसे अपनी भूल मानकर दयानन्द को स्मरण करना होगा, क्योंकि उसमें कर्मयोगी, चिन्तक तथा नेतृत्व के लिए अपेक्षित प्रतिभा का दुर्लभ मिश्रण था। शारीरिक बल में वह हरकूलीस के समान शक्तिशाली था जो सत्य के विपरीत हर प्रकार के विचार के विरुद्ध गर्जता था। अपने प्रयास में वह इतना सफल हुआ कि पॉंच वर्ष के भीतर सारा उत्तर भारत पूरी तरह बदल गया। संस्कृत और वेदों के ज्ञान में उससे बढकर कोई नहीं था। शंकर के बाद दयानन्द के समान वेदों का प्रवक्ता दूसरा नहीं हुआ। पाश्चात्य विचारों से प्रभावित किसी धार्मिक या दार्शनिक विचारधारावालों से उसने कभी समझौता नहीं किया।"

    पर शंकराचार्य ने वैदिक ज्ञान में निष्णात होते हुए भी वेदों के सम्बन्ध में कभी कोई बात नहीं की। प्रस्थानत्रयी में उलझकर वह वेदों को मानो भूल ही गये थे। वस्तुत: शंकर के लिए वेद आस्था की वस्तु थे। व्यवहार में उसके लिए कोई स्थान नहीं था। उसके विपरीत दयानन्द ब्रह्मा से लेकर जैमिनि-पर्यन्त जितने भी ऋषि-मुनि-आचार्य हुए और उनके द्वारा प्रोक्त जो वाङ़्‌मय इस समय उपलब्ध है तथा जो वेदानुकूल भारतीय शिष्टाचारान्तर्गत परम्परा है, उस सबको अपने भीतर समेटे हुए थे और उस सबको उन्होंने लोकार्पण करके यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रसारित किया। जहॉं "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के सिद्धान्त के अनुसार प्राणिमात्र को ब्रह्मरूप में माननेवाले शंकर ने वेदमन्त्रों को सुननेवाले शूद्र के कानों में सीसा भरने, पढनेवाले की जिह्वा काटने और याद करनेवालों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने का आदेश दिया वहॉं दयानन्द ने "यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्य:" (यजुर्वेद 26.2) इत्यादि मन्त्रों के आधार पर मनुष्य-मात्र को वेद के पढने-पढाने और सुनने-सुनाने का अधिकार प्रदान किया। दयानन्द के मत में जैसे ईश्वर की सृष्टि में जल, वायु आदि सब पदार्थ सबके लिए हैं वैसे ही उसका ज्ञान भी सबके लिए है। वह किसी वर्ग-विशेष की धरोहर नहीं है। इस प्रसंग में रोम्यॉं रोलॉं के निम्नलिखित शब्द विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

    “It was in truth an epoch-making day for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas, whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmanas, but duty of every Arya”.

    अर्थात्‌, "भारत के इतिहास में वह दिन सचमुच युगान्तरकारी था, जब एक ब्राह्मण ने मनुष्यमात्र को वेदाध्ययन का अधिकारी ही घोषित नही किया, जिस पर पहले कट्‌टरपन्थी ब्राह्मणों ने रोक लगा रक्खी थी, अपितु प्रत्येक आर्य के वेदाध्ययन करने और वेद का प्रचार करने को अपना कर्तव्य समझने पर बल दिया।" इस प्रकार जहॉं तक वेद का सम्बन्ध है, स्वामी दयानन्द का स्थान हर दृष्टि से शंकराचार्य से कहीं ऊँचा है। दयानन्द ने जो किया शंकर उसका दशांश भी नहीं कर पाये।

    स्वामी दयानन्द के अनुसार मन्त्रसंहिताओं को छोड़कर सम्पूर्ण वैदिक वाङ्‌मय परत:प्रमाण है। केवल चार संहिताएँ ही स्वत: प्रमाण हैं। वेदार्थ प्रक्रिया में भी दयानन्द का अपना विशिष्ट योगदान है। वेद के सभी शब्दों को उन्होंने यौगिक या योगरूढ माना है। कोई भी शब्द रूढ या यदृच्छा-रूप नहीं है। प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा निर्दिष्ट त्रिविध प्रक्रिया को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने वेदमन्त्रों का व्यावहारिक अर्थ करके वेदों को सर्वजनोपयोगी रूप में प्रस्तुत किया। वेदों के सर्वज्ञानमयत्व और "सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति" आदि वचनों को सार्थक करनेवाला वेदों का एकमात्र भाष्य दयानन्द-कृत ही है। इसके निदर्शनार्थ उन्होंने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" की रचना की। इस अद्‌भुत ग्रन्थ के अध्ययन का यह परिणाम हुआ कि जिस मैक्समूलर ने सन्‌ 1866 में स्वरचित "चिप्स्‌ फ्रॉम ए जर्मन वर्कशॉप" में लिखा था कि "वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या बिल्कुल बचकानी, जटिल, निकृष्ट और अत्यन्त साधारण हैं", उसी ने सन्‌ 1882 में "भारत से हम क्या सीखें?" में लिखा, "वेद में जैसी भाषा पाई जाती है, उसमें जैसा जीवनदर्शन है और जैसे धर्म का दर्शन होता है, उससे जो दृश्यावली दृष्टिगत होती है, वर्षों में तो उसे कोई माप नहीं सकता। वेद में ऐसी भावनाओं का प्रकाश हुआ है जो हम यूरोपियनों को 19वीं शताब्दी में आधुनिक प्रतीत होती हैं। मानव-विचारधारा के इतिहास के विषय में जो जानकारी हमें वेदों से मिलती है वह वेदों की खोज से पूर्व हमारी कल्पना से परे थी" (पृ.130)।

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    इतना ही नहीं जिस मैक्समूलर ने दयानन्द के सम्बन्ध में कभी यह लिखा था-

     “He (Dayanand) actually published a commentary in Sanskrit on Rigveda. But in all his writings there is nothing which can be quoted as original, beyond his somewhat strange interpretations of words and whole passages.”-A Real Mahatman.

    अर्थात्‌ दयानन्द ने ऋग्वेद पर संस्कृत में एक भाष्य प्रकाशित किया है, पर उसके समस्त लेखन में मौलिक रूप से उल्लेखनीय कुछ भी नहीं है, सिवाय शब्दों और पूरे-पूरे अंशों के उसके अजीब-से अर्थों के।

    उसी मैक्समूलर ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" पढने के बाद दिखा-

     “We may divide the whole of Sanskrit literature beginning with the Rigveda and ending with Dayananda’s ‘Rigvedadibhashya bhumika’ (‘Introduction to his commentary on the Rigveda’).

    अर्थात्‌ ऋग्वेद से आरम्भ होनेवाले और दयानन्द की "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" तक समूचे संस्कृत वाङ्‌मय को हम बॉंट सकते हैं।"

    इस प्रकार मैक्समूलर ने संस्कृत साहित्य के एक ध्रुव पर ऋग्वेद को रक्खा और दूसरे पर "ऋग्वेदिभाष्यभूमिका" को। ऋग्वेद का सम्बन्ध ब्रह्मा से है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार दयानन्द ने अनेकत्र "ब्रह्मा से जैमिनिपर्यन्त" शब्दों का प्रयोग किया है वैसे ही यहॉं "ब्रह्मा से दयानन्दपर्यन्त" कहा गया है।

    दयानन्द के वेदभाष्य को लक्ष्य करके श्री अरविन्द ने कहा-

    “There is nothing fantasfic in Dayananda’s idea that the Veda contains truths of science as well as truths of religion. I will even add my own conviction that the Veda contains the other truths of seience which the modern world does not at all possess and in that case Dayananda has rather understated than overstated the depth of the range of Vedic wisdom.” -Dayananda and the Veda

    "दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों सचाइयॉं पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद या कल्पना मूलक बात नहीं है। मैं इसके साथ अपनी यह धारणा भी जोड़ना चाहता हूँ कि वेदों में विज्ञान की वे सचाइयॉं भी हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। ऐसी अवस्था में दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई के सम्बन्ध में अतिशयोक्ति से नहीं अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है।" -दयानन्द और वेद

     “In the matter of Vedic interpretatiohn, I am convinced, whatever may be the final and complete inerpretation of Vedas, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amids the chaos and obscurity of old ignorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He has found out the keys of the doors that time had closed and rent assunder the seals of the imprisoned fountains.”-Vedic Magazine, Lahore, Nov., 1916. 

    "वैदिक व्याख्या के सम्बन्ध में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की अन्तिम और पूर्ण व्याख्या चाहे कुछ भी हो, यथार्थ निर्देशों के प्रथम आविर्भावक के रूप में दयानन्द का नाम सदा सम्मान के साथ लिया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग की मिथ्या ज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच यह उनकी अन्तर्दृष्टि थी जिसने सचाई को खोजा और उसे वास्तविकता के साथ जोड़ दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रक्खा था उनकी चाबियों को उसने ढूँढ निकाला और बन्द पड़ें फौवारे की मोहरों को तोड़ फेंका।" (वैदिक मैगजीन, लाहौर, नवम्बर 1916)

    यह ध्रुव सत्य है कि गत पॉंच सहस्त्र वर्षों में वेद के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर उसे उसी रूप में पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्प, सर्वात्मना समर्पित व्यक्ति दयानन्द से अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हुआ। मनु आदि ऋषियों के "सर्वज्ञानमयो हि स:", सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति", "नि:सृतं सर्वशास्त्रं तु वेदशास्त्रात्‌ सनातनात्‌", "वेद: प्रमाणं लोकानाम्‌", इत्यादि वाक्यों का मानो भाष्य करते हुए दयानन्द ने "वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक" बताया और क्योंकि "धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:" कहा गया है, इसलिए "वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना ही सब आर्यों का परम धर्म" निश्चित किया। जहॉं अन्य समाज-सुधारकों में से किसी ने सत्य को परम धर्म बताया, किसी ने अहिंसा को, किसी ने परोपकार को, वहॉं दयानन्द ने अपने अनुयायियों के लिए वेदाध्ययन को परम धर्म घोषित किया। 10 अप्रेल, 1875 (संवत्‌ 1931-32) को बम्बई में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना करते समय उसका उद्‌देश्य इन शब्दों में निश्चित किया गया था- "आ समाजनो मुख्य उद्देश्य ए छे कि वेदधर्मतत्वो प्रत्येक सभासदे मान्य करवां अने देश-विदेश मा तेनो प्रसार करवाने यथाशक्ति प्रयत्न करवो।" इससे स्पष्ट है कि दयानन्द की दृष्टि में आर्यसमाज की स्थापना का प्रयोजन वेदों का प्रचार-प्रसार करना था।

    स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में जगह-जगह लिखा है, "वेदों की अप्रवृत्ति होने से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत हो जाने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त हो जाने के कारण जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया।" इस कारण दयानन्द ने प्रमुखरूप से वेदविद्या के पुन: प्रतिष्ठापन के लिए ही आर्यसमाज की स्थापना की। यही उनका मुख्य कार्य था, शेष सब कार्य उसी के अंग-प्रत्यंग-रूप थे। "श्रीमद्भगवद्‌गीता" की शैली में कहा जा सकता है कि "लुप्त हुए वैदिकधर्म संस्थापनार्थाय" ही दयानन्द का अवतरण हुआ था।

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    That is, "The day in the history of India was truly epoch-making, when a Brahmin did not declare mankind to be the authority of Vedhyayana, which was previously forbidden by the Katharpanthi Brahmins, but to study every Arya and preach the Veda. Stressed to understand his duty. " Thus far as Vedas are concerned, Swami Dayanand's place is higher than Shankaracharya's in every respect. Shankar could not even tithe what Dayanand did.

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-13

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
    राष्ट्रभाषा-प्रसारक दयानन्द-स्वामी दयानन्द ने स्वरचित "ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका" में "वेदानां नित्यत्वविषय:" के अन्तर्गत लिखा, "जो जिस देशभाषा को पढता है उसको उसी का संस्कार होता है।" भाषा के हर शब्द की एक पृष्ठभूमि होती है। वह तत्तद्‌ देश की संस्कृति और परम्पराओं से बनता है। भाषा के बदल जाने पर उस संस्कृति विशेष में उथल-पुथल होने की पूरी सम्भावना रहती है। संस्कृति समाज की आत्मा होती है। उसके नष्ट हो जाने पर वह समाज या राष्ट्र जीवित नहीं रहता। जब हम "यूनानो मिस्त्र रोमॉं सब मिट गये जहॉं से" कहते हैं तो उनका यह मिटना इन्हीं अर्थों में होता है। इस देश की सभ्यता,संस्कृति,इतिहास और परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए इस देश की भाषा को जीवित रखना और उसका विकास करना स्वामीजी आवश्यक समझते थे। उनके अपने शब्दों में "मैंने आर्यावर्त में भाषा का ऐक्य सम्पादन करने के लिए अपने सकल ग्रन्थ आर्यभाषा में लिखे हैं।" स्वामीजी अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के पढने के विरोधी नहीं थे। किन्तु वे इस बात को जानते थे कि अंग्रेजी विदेशी शासकों की भाषा है और उन्हें इस बात का दु:ख था कि वह यहॉं के लोगों की मातृभाषा बनती जा रही है। इसीलिए उन्होंने अन्य देशीय भाषाओं से पहले देवनागरी अक्षरों के अभ्यास पर बल दिया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुखी जीवन का मूल धर्म
    Ved Katha -17 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक सज्जन ने जब स्वामीजी से उनके ग्रन्थों के उर्दू में अनुवाद की अनुमति चाही तो उन्होंने लिखा, "जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी वे इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्त्तव्य समझेंगे। अनुवाद तो विदेशियों के लिए होता है।" मैडम ब्लेवैटस्की को उन्होंने लिखा था कि "मेरा विचार आपको अनुवाद करने से रोकने का नहीं हैक्योंकि बिना अंग्रेजी अनुवाद के यूरोपीय जातियॉं सत्य के प्रकाश को नहीं पा सकेंगीकिन्तु भारत की जनता मेरे भाष्य के अंग्रेजी में प्रकाशित होने पर संस्कृत और हिन्दी के अभ्यास को त्याग देगी। मेरा वेदभाष्य समझने के लिए संस्कृत और हिन्दी का अध्ययनजो मेरा लक्ष्य हैनष्ट हो जाएगा।" स्वामीजी का किसी भी भाषा से विरोध या द्वेष नहीं था। किन्तु उनका यह कहना था कि जो इस देश में उत्पन्न होकर इस देश की भाषा नहीं सीख सकता उससे और क्या आशा की जा सकती हैइसलिए उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का जानना प्रत्येक आर्य के लिए अनिवार्य कर दिया।

    स्वामीजी उर्दू को म्लेच्छ भाषा नहीं कहते थे। लेकिन पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी के अनुसार उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्रप्रतापनारायण मिश्रबालकृष्ण भट्टबदरीनारायण चौधरी "प्रेमघन" की उपस्थिति में एक दिन उर्दू को "वारविलासिनी" और हिन्दी को "कुलकामिनी" कहा था। इसका एक कारण यह भी था कि उस समय उनके परम हितैषी और प्रशंसक सर सैयद अहमदखॉं भी हिन्दी को "गॅंवारू भाषा" कहकर उसका उपहास करते थे। आज वही गॅंवारू भाषा राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित है।

    रामधारीसिंह "दिनकर" के अनुसार यह कहना अप्रासङ्गिक न होगा कि हिन्दी-साहित्य के इतिहास में रीतिकाल के ठीक बादवाले काल में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी वह थी स्वामी दयानन्द का पवित्रतावादी दृष्टिकोण। इस काल के कवियों को श़ृंगार की कविता लिखते समय ऐसा प्रतीत होता था जैसे स्वामी दयानन्द पास खड़े सब-कुछ देख रहे हैं। इस भय से छायावादी कवि भी प्रत्यक्ष नारी के स्थान पर "जुही की कली" या "विहगिनी" का आश्रय लेकर अपने भावों का विवेचन करने लगे। प्रेमचन्द के आरम्भिक साहित्य पर स्वामी दयानन्द और उनके द्वारा संस्थापित आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट है। जयशंकर "प्रसाद" और मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य में यत्र-तत्र जो इस देश के अतीत का गौरवगान किया है उसके मूल में भी दयानन्द द्वारा "सत्यार्थप्रकाश" में वर्णित प्राचीन आर्यावर्त की गौरव-गाथा का विस्तार है और "दिनकर" के अनुसार साकेत के राम तो दयानन्द के "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌" नारा लगाते प्रतीत होते हैं।

    हिन्दी को देश की एकता के लिए आवश्यक समझ लेने पर स्वामीजी जीवन के अन्तिम क्षण तक उसके प्रचार-प्रसार के लिए सर्वात्मना समर्पित रहे। उन्हेांने श्यामजीकृष्ण वर्मा को वेदभाष्य के पार्सलों पर देवनागरी में पते लिखने की प्रेरणा की। महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित समाजसुधारक श्री गोपाल हरिकृष्ण देशमुख को आर्यभाषा के प्रचार में पुरुषार्थ करने को प्रेरित किया। उन्हीं की प्रेरणा से कर्नल अल्काट ने हिन्दी पढना आरम्भ किया।

    स्वामीजी ने तत्कालीन राजाओं को प्रेरित किया कि वे अपने राज्यों का काम हिन्दी में चलाएँ। तदनुसार उदयपुर के महाराणा ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने जोधपुर नरेश को पत्र लिखा कि राजकुमारों को पहले हिन्दी (देवनागरी)फिर संस्कृत और तत्पश्चात्‌ (यदि समय हो) अंग्रेजी पढाएँ। 12 अगस्त सन्‌ 1883 को राज्य के प्रधानमन्त्री के अधिकार से कर्नल प्रतापसिंह ने एक दिन उर्दू में लिखी 50-60 अर्जियॉं फाड़कर फेंक दीं। उसी दिन से राज्य का सारा काम हिन्दी में होने लगा।

    भारतीय संविधान की धारा 343 के अनुसार-

     “The official language of the Union of India shall be Hindi in Devanagri Script.”

    अर्थात्‌ संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी गई हिन्दी होगी। पुन: धारा 351 के अनुसार-

     “It (Hindi) shall draw for its vocabulary, primarily on Sanskrit and secondarily on other languages.”

    अर्थात्‌ वह (हिन्दी) अपने शब्दभण्डार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करेगी। संस्कृत को यह वरीयता या प्रतिष्ठा क्यों दी गईइसका कारण इसी धारा (351) के आरम्भिक वाक्य में इन शब्दों में बताया गया है-

     “It shll be the duty of the Union to promote the spread of the Hindi language, to develp it so that it may serve as a medium of expresson for all the elements of the composite culure of India.”

    अर्थात्‌ संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी का प्रसार बढाए और उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।

    मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि हिन्दी को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया क्योंकि देश में प्रचलित भाषाओं में 60 से 90 प्रतिशत तक तत्सम या तद्‌भव शब्द संस्कृत के हैं।

    भारतीय संविधान में उक्त धाराओं का समावेश 14 सितम्बर 1949 को हुआपरन्तु इसके लिए आन्दोलन का सूत्रपात स्वामी दयानन्द ने सन्‌ 1882 में हण्टर कमीशन के पास हिन्दी के पक्ष में भेजे गये ज्ञापनों से किया था। अंग्रेजी सरकार ने 1882 में डाक्टर हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया था। इसका उद्देश्य राजकार्य को जो उस समय प्रधानता उर्दू-फारसी और अंग्रेजी में चल रहा थाआर्यभाषा हिन्दी मेंं प्रवृत्त करना था। स्वामी दयानन्द इस अवसर को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इसके लिए विशेष पुरुषार्थ किया। हिन्दी के प्रसङ्ग में यह बात समझ लेनी चाहिए कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास में स्वामीजी किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात से ग्रस्त होने के कारण प्रवृत्त नहीं हुए थे। इसके विपरीत वे राष्ट्रभाषा की आवश्यकता अनुभव करते हुए हिन्दी तक जा पहुँचे थे। सन्‌ 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से भेंट के बाद उन्होंने समझ लिया था कि संस्कृत के देववाणी होते हुए भी उसमें जनवाणी होने की सामर्थ्य नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि "किसी भी देश पर मध्यप्रदेश का शासन होता हैसीमान्त प्रदेशों का नहीं। भारत के मध्य प्रदेशों की भाषा हिन्दी हैवही इस देश की राष्ट्रभाषा होगी।" स्वामी दयानन्द ने अपनी दिव्य दृष्टि से इसी बात को डेढ सौ वर्ष पूर्व देख लिया था।

    जब भारत सरकार ने देश के काम-काज की भाषा के निर्धारण हेतु हण्टर कमीशन गठित किया तो स्वामीजी ने देश भर की आर्यसमाजों को आदेश दिया कि वे उक्त कमीशन के पास भारी संख्या में हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन भेजें। आर्यसमाज फर्रुखाबाद के स्तम्भ बाबू दूर्गादास को भेजे  गये अपने पत्र में उन्होंने लिखा, "यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूकेवह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ तो आशा हैमुख्य सुधार की नींव पड़ जाएगी।" स्वामीजी के प्रयासों से देश के कोने-कोने से हिन्दी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने हेतु स्मरण-पत्र भेजे गये। कानपुर से भेजे मैमोरियल से ज्ञात होता है कि लगभग दो लाख मनुष्यों के हस्ताक्षरों से युक्त दो सौ ज्ञापन हण्टर कमीशन के पास भेजे गये थे। दयानन्द वह दिन देखना चाहते थे जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का प्रचार होगा।

    पं. जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा या राज्यभाषा बने। उन्होंने डटकर विरोध किया पर उनकी एक न चली। जब हिन्दी का राजभाषा होना निश्चित-सा हो गया तो उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कहा कि हिन्दी राजभाषा हो जाएपरन्तु 15 वर्षों तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी चलती रहे। लोगों ने नेहरू का मन रखने के लिए "इतनी-सी" बात मान ली। हमारी तुष्टिकरण की नीति से देश के बड़े-बड़े काम बिगड़ते आये हैं। इसी के फलस्वरूप पाकिस्तान बना । राम तो 14 वर्षों के बाद वन से लौट आये थे पर 66 वर्ष बीत गयेहिन्दी अपने आसन पर न लौटनी थीन लौटी और न अब कभी लौटने की आशा है। 15 वर्ष बीतने से दो वर्ष पूर्व ही 1963 में नेहरू ने संसद से एक प्रस्ताव पास कराके अंग्रेजी को अमरता का वरदान दे दिया। उस प्रस्ताव के अनुसार यदि एक भी प्रदेश हिन्दी का विरोधी होगा और अंग्रेजी को बनाये रखना चाहेगा तो हिन्दी की सौत के रूप में अंगे्रजी प्रतिष्ठित रहेगी। उस समय ऐसा एक प्रदेश नागालैण्ड था अब "वीटो" करनेवाले कुछ और प्रदेश भी हो गये हैं। इस प्रकार हिन्दी के समूचे देश की एकमात्र राजभाषा बनने पर सदा के लिए रोक लग गई है।

    किन्तु राज्यों को अपने-अपने यहॉं हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग की छूट बनी रही। तब राजीव गॉंधी ने स्वत: या नूरजहॉं के संकेत पर सदा के लिए हिन्दी को और उसी के साथ धीरे-धीरे सभी क्षेत्रीय भाषाओं को निकालकर अंग्रेजी के निष्कण्टक राज्य का मार्ग प्रशस्त करने का संकल्प किया। "एके साधे सब सधे" का गुरुमन्त्र जपने पर पता चला कि यदि अकेली संस्कृत को मार दिया जाए तो इस देश की सभी भाषाएँ अपनी मौत आप मर जाएँगीक्योंकि इनका आत्मा संस्कृत में हैं।

    साधारणतया भी इन भाषाओं में 60 से 90 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं और पारिभाषिक शब्द तो शत-प्रतिशत संस्कृत से ही मिलेंगे। पारिभाषिक शब्द सर्वत्र प्राचीन भाषाओं से ही मिलते हैं। अंग्रेजी बड़ी सम्पन्न भाषा मानी जाती हैकिन्तु इसमें लगभग 75 प्रतिशत पारिभाषिक शब्द ग्रीक या लेटिन मूल के और 15 प्रतिशत जर्मन और फ्रेंच मूल के हैं। संस्कृत के बिना हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ शून्य हो जाएँगी- इसे स्पष्ट करने के लिए तो एक पूरा व्याख्यान अपेक्षित होगा। जब ये सब भाषाएँ दिवालिया हो जाएँगी तो विवश होकर अंग्रेजी को छाती से लगाना होगा और इसी के साथ इस देश की सभ्यतासंस्कृतिपरम्परा एक साथ बिदा हो जाएँगे।

    राजीव सरकार द्वारा निर्धारित नई शिक्षानीति के अन्तर्गत स्कूलों के पाठ्‌यक्रम में से संस्कृत को लगभग पूरी तरह निकाल दिया गया है।

     

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    But the states remained free to use Hindi or regional language at their respective places. At that time, Rajiv Gandhi pledged to pave the way for the perfect state of English by removing Hindi and all regional languages ​​gradually, at the behest of either auto or Nurjahan. On chanting the Gurmantra of "AK Sadhe Sab Sadhe", it was found that if Sanskrit alone is killed, then all the languages ​​of this country will die on their own, because their souls are in Sanskrit.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-14

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    खण्डन- ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत अज्ञानान्धकार में बुरी तरह डूबा हुआ था। सबसे बुरी बात तो यह थी कि धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा था। व्यभिचार तक को धर्म का प्रश्रय प्राप्त था। अतएव सभी सुधारक खण्डन में प्रवृत्त थे। वस्तुत: खण्डन और मण्डन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- एक ही क्रिया के दो भाग हैं- एक विनाशक है तो दूसरा विधायक। घास-फूँस काटकर फेंकना विनाशक है तो बीजारोपण करना विधायक है। किसान या माली खेत या बगीचे में उत्पन्न खरपतवार या हानिकारक घास-पात को उखाड़कर फेंकता है और उपयोगी पौधों को खाद-पानी देकर पुष्ट करता है। तब अपेक्षित अन्न प्राप्त होता है। इससे खण्डन और मण्डन एक-दूसरे के पूरक ठहरते हैं। समाज के हितैषी महापुरुष समाज में व्याप्त दोषों,अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करके उसके विकास में सहायक विचारों का प्रचार व प्रसार करते हैं। शरीर को हानि पहुँचा रहे अंग को काटकर फेंक देना और उसके स्थान पर स्वस्थ अंग का प्रत्यारोपण करना शरीरशास्त्र की दृष्टि से खण्डन-मण्डन ही तो हैं।

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    Ved Katha -16 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    निर्माण कार्य में बाधक चट्टानोंजङ्गलोंकुओंतालाबों आदि को नष्ट करके धरती को समतल किये बिना उस पर निर्माण नहीं होता। इसी प्रकार समाज में व्याप्त दोषों को दूर किये बिना समाज-सुधार के कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। सदसत्‌ प्रवृत्तियों का संघर्ष मानवमात्र में सदा से चला आता है। सद्‌गुणरूपी दैवी सेना तथा दुर्गुणरूपी आसुरी सेना दोनों आमने-सामने खड़ी रहती हैं। दोनों ने अपनी-अपनी व्यूह रचना व्यवस्थित कर रक्खी है। वेद में "भद्रमासुव" से पहले "दुरितानि परासुव" कहा है। जब तक "दुरित" दूर होकर जगह खाली नहीं करेंगे तब तक "भद्र" को स्थान कैसे मिलेगा ! गीता में भी "परित्राणाय साधूनाम्‌" के साथ ही "विनाशाय च दुष्कृताम्‌" भी कहा है। दुष्टों का दमन किये बिना सज्जनों की रक्षा नहीं हो सकती। राक्षसों का संहार किए बिना श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ का सम्पादन नहीं हो सकता था। इसलिए ऋषियों को क्षत्रिय कुमारों की आवश्यकता पड़ी- "शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्त्तते"। समाज में क्षत्रिय खण्डन का प्रतीक है तो ब्राह्मण मण्डन का। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

    समस्त दु:खों या पापों का मूल अविद्या है। ज्ञानविद्या तथा सत्य पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार अविद्याअज्ञान और असत्य एकार्थवाची हैं। दवाई की जगह जहर की शीशी चाहे जानकर पी जाएचाहे अनजानेदोनों का परिणाम एक ही है- मृत्यु। सुकरात ने अपने मुकदमे के दौरान कहा था-"अज्ञान के बिना पाप हो ही नहीं सकता। जिसे तुम पाप कहते होवह अज्ञान ही है।" जिसके बिना कोई  पाप हो ही नहीं सकतावह (अज्ञान) स्वयं महा पाप है। कानून का अज्ञान अपराध करने का बहाना नहीं हो सकता (lgnorance of law is no excuse)। ईश्वरीय कानून को न जानना सबसे बड़ा अपराध है। इसलिए समाज का परिष्कार करनेवालों ने सदा अज्ञान-असत्य को मिटाकर सदा ज्ञान-सत्य का प्रचार-प्रसार करना ही अपने जीवन का उद्‌देश्य बनाया।

    देर-सवेर सभी को खण्डन का आश्रय लेना पड़ता है। जब सामान्य ओषधोपचार से काम नहीं चलता तो आपरेशन के लिए सर्जन को चाकू चलाना पड़ता है। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द का निम्न वक्तव्य द्रष्टव्य है-

    "संसार को समय-समय पर कठोर आलोचना की भी आवश्यकता होती है (हिन्दू धर्मपृ.56)। प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं बन सकता (पत्रावली भाग 2पृ.71)। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँपरन्तु जब अन्तरस्थ सत्य से समझौता करने का अवसर आता है तब मैं रुक जाता हूँ (वही पृ. 70)। हमारे  बहुतेरे कुसंस्कार हैंहमारी देह पर बहुत-से काले धब्बे और हानिकारक घाव हैं- उन्हें चीर-फाड़ करके एक दम निकाल देना होगा। नहीसमझौता नहींलीपा-पोती नहींगले-सड़े मुर्दों को फूलों से न ढको (विवेकानन्द चरितपृ. 376)। यदि हम देखें कि परम्परा-प्राप्त आचार-विचार समाज के विकास व परिपुष्टि के मार्ग में बाधक हैंयदि वे हमारे विशुद्धज्ञान की प्राप्ति में रोड़े सदृश हैं तो हम जितनी जल्दी उनका त्याग कर दें उतना अच्छा है (विवेकानन्द चरित168)। पुरातन पौराणिक घटनाओं को रूपक मानकर चिरस्थायी करने की चेष्टा करने और इस प्रकार उन्हें महत्त्व देने से कुसंस्कारों की उत्पत्ति होती है और यह सचमुच दुर्बलता है। असत्य के साथ कभी भी और किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। सत्य का उपदेश दो और किसी प्रकार से भी असत्य के पक्ष में युक्ति देने की चेष्टा मत करो (देववाणी पृ. 161)। उन पाखण्डी पुरोहितों को जो सदा उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैंनिकाल बाहर करोक्योंकि उनका कभी सुधार नहीं होगा (पत्रावली भाग 1पृ.65)। पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे एकदम चकराकर एटलांटिक सागर में जा गिरें (वही पृ.254)"।

    यह सर्वसम्मत तथ्य है कि महाभारत से पहले संसार में वेद से अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं था। महाभारत के पश्चात्‌ कुकुरमुत्तों की तरह फैले अवैदिक मतों का निराकरण आवश्यक था। इस दुरूह कार्य को करने का साहस दयानन्द- जैसा उद्भट विद्वान्‌ तथा सत्यनिष्ठनिष्पक्ष एवं निर्भीक महामानव ही कर सकता था। मत-मतान्तरों की आलोचना से दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म को तर्कसंगतयुक्तियुक्त एवं सहेतुक बनाया जाए। उसमें अन्धविश्वासों के लिए कोई स्थान न हो। बाबा वाक्यं प्रमाणम्‌ के स्थान पर सत्यासत्य की स्वयं परीक्षा करके सत्य को ग्रहण किया जाए और असत्य का परित्याग किया जाए। भगवान्‌ मनु का वचन है- "यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतर:" - जो मनुष्य तर्क के द्वारा अनुसन्धान करता है वही धर्म के तत्व को जानता हैअन्य नहीं। पूर्वकाल में ऋषियों के न रहने पर मनुष्य देवजनों (श्रेष्ठ विद्वानों) के पास गये और जिज्ञासा की- "को न ऋषिर्भविष्यति?" अब कौन हमारा ऋषि होगा (निरुक्त 13.12)। देवजनों ने उन्हें तर्क नाम का ऋषि दिया। मनु के आदेश के अनुसार सत्यासत्य की परीक्षा के लिए धर्म पर तर्क की कैंची चलाना आवश्यक है। तर्करूपी कैंची से जो कट जाएसमझो वह तीन कौड़ी का है- धर्म ही नहीं है। दयानन्द ने वही किया। सत्यासत्य के लिए तर्क द्वारा परख करके असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया।

    अधिक समझदार लोगों को यह कहते सुना जाता है कि समालोचना तो ठीक हैपर खण्डन-मण्डन करना उचित नहीं है। वास्तव में लोग समालोचना से अंग्रेजी के Criticism का और खण्डन से Condemnation का ग्रहण करते हैं। ऐसा इसलिए है कि वे समालोचना शब्द के निहितार्थ को नहीं समझते। समालोचना शब्द "सम्‌+आ" उपसर्गपूर्व "लुच्‌" धातु से निष्पन्न होता है। इस प्रकार इसका अर्थ है किसी वस्तु को विधिपूर्वक हर प्रकार से अच्छी तरह देखना। विधिपूर्वक अच्छी तरह देखने में हम उस वस्तु के आकार-प्रकाररूप-रंगगुण-कर्म-स्वभाव एवं गुण-दोष के आधार पर उससे सम्भावित हानि-लाभ का विवेचन करते हैं। तभी हमें उस वस्तु का पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान होता है। दयानन्द के खण्डन की प्रक्रिया समालोचना से भिन्न नहीं है। दयानन्द ने सदा से चली आ रही परम्परा का ही अनुसरण किया है। उसमें किसी प्रकार का असामञ्जस्य अथवा अनौचित्य नहीं है।

    भारत में दार्शनिक सम्प्रदायों में खण्डन-मण्डन सदा से चला आया है। समन्वयवाद के नाम पर यह कहना कि "अपनी-अपनी जगह सब ठीक है" आधुनिकता या भलमनसाहत की पहचान बन गया हैकिन्तु इस "रामाय स्वस्ति:रावणाय स्वस्ति:" की उपलब्धि तो शून्य है। वह आत्म-प्रवंचन या भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं। कुछ करने की भावनावाले खण्डन में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रह सकते। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का उद्‌घोष करनेवाले आदि शंकराचार्य सारा जीवन जैनबौद्ध और चार्वाक आदि नास्तिक मतों का खण्डन करने में ही लगे रहे। सिद्धान्तभेद के कारण मण्डन मिश्र जैसे वैदिक मतावलम्बी को भी ललकारने में संकोच नहीं किया। समन्वयवाद का आदर्श माने जानेवाले क बीर ने तो सबको खरी-खोटी सुनाईं हीकबीर की अपेक्षा कहीं अधिक सौम्य नानकदेव भी दूसरे मतों का खण्डन करने में पीछे नहीं रहे।

    खण्डन में भी स्वामीजी कितने सन्तुलित रहेइसका पता 11वें समुल्लास का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने पर चलता है। उन्होंने गुरु नानक तथा गुरु गोविन्द सिंह की आलोचना की है। गुरु नानक से सम्बन्धित आपत्तिजनक अंश इस प्रकार है-"विद्या कुछ भी नहीं थी.... वेदादिशास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा।"परन्तु जहॉं स्वामीजी ने यह लिखावहॉं ये स्तुतिपरक वाक्य भी लिखे हैं- "नानक जी का आशय अच्छा था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को (मुसलमान होने से) बचाया।"

    इन शब्दों से स्पष्ट है कि स्वामीजी के मन में गुरु नानक के प्रति दुर्भावना न होकर प्रशंसा के भाव थे। उनका (गुरु नानक) का संस्कृत से और वेदशास्त्र से अनभिज्ञ होना तो निर्विवाद हैपरन्तु इसके लिए भी उन्होंने गुरु नानक को नहींतत्कालीन परिस्थितियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने लिखा है- "उस समय पंजाब संस्कृतविद्या से रहित और मुसलमानों से पीड़ित था।" गुरु नानक सम्बन्धी गपोड़ों के लिए स्वामीजी लिखते हैं-"इसमें उनके चेलों का दोष हैनानकजी का नहीं।" गुरु नानक द्वारा प्रवर्तित भक्तिभावना के विषय में उन्होंने लिखा है- "नानकजी ने कुछ भक्तिविशेष ईश्वर की लिखी थीउसे करते जाते तो अच्छा था।" इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में भी गुरु नानक के उसके परित्याग के लिए भी उनके अनुयायियों को दोष दिया है।

    दशम गुरु गोविन्दसिंह के विषय में स्वामीजी ने लिखा है- "गुरु गोविन्दसिंह शूरवीर हुए। पंच ककार की रीति उन्होंने बुद्धिमत्ता से की। इन सब (अर्थात्‌ सिख गुरुओं) ने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हटाया। जैसे इसको हटाया वैसे विषयासक्तिदुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।" स्वामी दयानन्द वेदों के प्रकाण्ड विद्वान्‌ थे। वे वेदों को सब विद्याओं का मूल मानते थे और उन्हीं के अपनाए जाने में वे मनुष्य मात्र का कल्याण मानते थे। इसलिए वेद विरोधी सभी मतों और उनके प्रवर्तकों की आलोचना की। इसमें उन्होंने कहीं भी पक्षपात नहीं किया। पंजाब में एक ऐसा समय था जब उच्चवर्ग के हिन्दू दलित व पिछड़ेवर्ग के लोगों को अछूत मानते थे। हिन्दुओं में ही नहींअपने को हिन्दुओं से अलग माननेवाले सिखों में भी मजहबीगुलाबदासीरैदासीकबीरपन्थी आदि को भी अछूत समझा जाता था। उस समय ऐसे लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा। उच्चवर्ग (सवर्णों) की तुष्टि के लिए उनके शुद्धि संस्कार और दलितों के सन्तोष के लिए बड़े स्तर पर सहभोजों आदि की व्यवस्था की जाती थी। इन पंक्तियों के लेखक को अपने पिताश्री के साथ अनेक बार ऐसे शुद्धि-संस्कारों तथा समारोहों में सम्मिलित होने का अवसर मिला। इस प्रकार शुद्ध होकर समाज में प्रतिष्ठित होनेवाले लोग स्वाभाविक रूप से अपने को आर्यसमाजी मानकर महाशय जीआर्य जी आदि नामों से पुकारें जाने में गौरवान्वित अनुभव करने लगे। 

    दयानन्द पर खण्डन का आरोप लगाते समय तत्कालीन विशेष परिस्थियों परविचार करना आवश्यक है। हमें भी पिछले पृष्ठों में आलोचना का आश्रय लेगा पडा। ‘All that glitters is not gold’ इसलिए खरे-खोटे की पहचान करने-कराने के लिए अपेक्षित कसौटियों पर कसना,घिसना आवश्यक था।

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    When accusing Dayanand of rebuttal, it is necessary to consider the then special circumstances. We also had to take criticism in the previous pages. 'All that glitters is not gold', therefore, it was necessary to tighten and weave the required criteria in order to identify the mold.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-3

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानन्द- उस काल के धार्मिक महापुरुषों में रामकृष्ण परमहंस की उपेक्षा नहीं की जा सकती। किन्तु तत्कालीन समाज-सुधारकों में उनका कोई स्थान नहीं था। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार श्री रामकृष्ण जगत्‌ में कुछ भी बुराई नहीं देख पाते थे। इसलिए उनके लिए किसी बुराई को दूर करने का प्रश्न ही नहीं था। देशभक्ति, समाज सुधार आदि उनकी दृष्टि में दम्भमात्र थे। यदा-कदा प्रसङ्ग आने पर वे उन समाज-सुधारकों की खिल्ली ही उड़ाते थे जो आत्मोद्धार की बलि देकर समष्टि के हित की चिन्ता करते थे। वस्तुत: रामकृष्ण तथा उनके शिष्य विवेकानन्द जी का विचार और कार्यक्षेत्र अद्वैत वेदान्त के विचार तक सीमित था। समाजहित या देश-सेवा से उनका कुछ लेना-देना नहीं था। देश के स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। वास्तव में-

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दिव्य मानव निर्माण की वैदिक योजना
    Ved Katha Pravachan _28 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    “The policy of Ramkrishna mission has always been faithful to (its founder) Swami Vivekanand’s intention. In the early twenties when India’s struggle with England had become intense and bitter, the mission was harshly criticised for refusing to allow its members to take part in the freedom struggle.”- Teachings of Swami Vivekanand, P. 38

    परन्तु उनके जीवनीकार कहते हैं-“Ramkrishna and Vivekanand were the first awakeners of India’s National Consciousness. They were India’s first nationalist leaders in the true sense of the term. The movement for India’s libration started from Dakshineswar.” - Bio. 231

    अर्थात्‌ रामकृष्ण और विवेकानन्द भारत की राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत थे। वे यथार्थ में भारत के सबसे पहले राष्ट्रीय नेता थे। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन का प्रारम्भ दक्षिणेश्वर से ही हुआ था।

    यह कितना बड़ा झूठ हैयह स्वयं स्वामी विवेकानन्द के कथन से प्रमाणित है-

    “Let no political significance ever be attached falsely to my writings. What nonsense!” He said as early as September 1894. A year later he wrote: “I will have nothing to do with that nonsense. I do not believe in Politics. God and truth are the only politics in the world. All else is trash.” - Bio., 232

    अर्थात्‌ मेरे लेख या कथन का झूठमूठ कोई राजनीतिक महत्त्व न समझा जाए- यह सब बकवास है। राजनीति की बातों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ईश्र्वर और सत्य ही संसार में एकमात्र रीति है और सब बेकार हैं।

    वस्तुत: इन दोनों का समाज से कोई लगाव न था। श्री रामकृष्ण की साधना आत्मकेन्द्रित थी। समाजसेवादेशभक्तिसमाज-सुधार आदि को वे पाखण्ड मानते थे। इतना ही नहींसमाज या देश की सेवा में प्रवृत्त लोगों की वे खिल्ली उड़ाते थे। उनका चिन्तन भावना प्रधान थातर्क के लिए उसमें कोई स्थान नहीं था। वेदान्ती होते हुए भीवेदान्त में निषिद्ध मूर्त्तिपूजा में उनकी पूर्ण श्रद्धा थी। उससे जुड़े अन्धविश्वासोंचमत्कारों तथा क्रियाकलापों आदि के प्रति भी वे पूर्ण आस्थावान्‌ थे। वे अपने को राम और कृष्ण के समान ईश्वर का अवतार मानते थे। इससे सम्बन्धित एक घटना का विवरण Complete Works of Swami Vivekanand (Vol. I, P. 66-67)  में इस प्रकार दिया है-

    “Two days before the death of Ramkrishna, Narendra (Vivekanand) was studying by the bedside of the master when a strange thought flashed into his mind. Was the Master (R.K.) truly an incarnation of God? He said to himself that he would accept Shri R.K.‘s divinity if the Master declared himself to be an incarnation. He stood looking intendedly at the master’s face. Slowly Shri R.K.’s lips parted and he said in a clear voice- “O my Narendra! Are you still not convinced? He who in the past was born as Ram and Krishna is now in this body as R.K.” Thus R.K. put himself in the catagory of Ram and Krishna who are recognised by the Hindus as Avtars or icarnations of God.”

    इस प्रकार श्री रामकृष्ण ने स्वयं अपने को राम और कृष्ण के समान अवतार घोषित कर दिया। इतना अहङ्कार था रामकृष्ण को और इतने भोले थे स्वामी विवेकानन्द।श्री रामकृष्ण शास्त्र ज्ञान से सर्वथा वञ्चित थे। तन्त्रशक्ति से परिचय रखनेवाली एक ब्राह्मण संन्यायिनी उनकी मार्गदर्शिका थीपरन्तु उनकी प्रसिद्धी का श्रेय उनके प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानन्द को हैजिन्होंने कल्पित घटनाओं के सहारे उनके जीवन को अलौकिकता प्रदान करने का प्रयास किया। श्रीरामकृष्ण ने सारा समय काली को अपनी और विश्व की माता=जगज्जननी मानकर उसी की स्तुतिउपासना और कीर्तन में व्यतीत किया। ईश्वर-स्मरण अथवा ईश्वरोपासना में उनकी कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने अपने जीवन और व्यवहार से इस बात को झुठला दिया कि मूर्त्तिपूजा ईश्वर-प्राप्ति की सीढी हैऔर समाधि लगाने में सहायक ध्यान का अभ्यास करने का साधन है। अन्त समय में भी वे प्रभु का नाम न ले सके। स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (Vivekanand-A Biography by Swami Nikhilanand) के लेखक के अनुसार श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द दोनों अन्तिम श्वास तक पहली सीढी पर ही खड़े रहे। उनके जीवनीकार ने श्रीरामकृष्ण के विषय में लिखा है-

    “At two minutes past one, early in the morning of August 16, 1886 Shri Ramkrishna uttered three times in ringing voice the name of his beloved Kali and entered into the Samadhi from which his mind never again returned to the physical world.” - page 66

    अर्थात्‌ मृत्यु के दिन प्रात: एक बजकर दो मिनट पर श्रीरामकृष्ण ने तीन बार अपनी प्यारी काली का नाम लिया और उस समाधि में चले गये जिससे वे फिर कभी भौतिक जगत्‌ में नहीं लौटे। इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द की मृत्यु का वर्णन करते हुए लेखक ने लिखा है-

    “One the supreme day he (Vivekanand) expressed his desire to worship Mother Kali at the Math and asked his disciples to procure all the necessary articles for the worship.” - page 339

    अर्थात्‌ मृत्यु के दिन स्वामी विवेकानन्द ने मठ में स्थित काली की पूजा करने की इच्छा व्यक्त की और अपने शिष्य को पूजा की सारी सामग्री लाने को कहा।

    उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मरते समय भी गुरु और शिष्य दोनों को मठ में बैठी काली की ही याद आईघट-घट व्यापी भगवान्‌ की नहीं। यदि उन्होंने उपनिषदों का कुछ भी अध्ययन किया होता तो काली को भगवान्‌ मानकर कभी उसकी अर्चना-उपासना न करते-"ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति" (गीता) ईश्वर तो प्राणिमात्र के हृदय में विद्यमान है? "न तत्र चक्षुर्गच्छति" (केन. 1.3), "यच्चक्षुषा न पश्यति". (केन. 1.6), "यत्तद्‌द्वश्यम्‌" (मुण्डक. 1.1.6)- परमेश्वर तो आँखों से दिखाई नहीं देता। तब आँखों से दीखनेवाली काली ईश्वर कैसे हो सकती हैं?

    मूर्त्तिपूजा के विषय में स्वामी विवेकानन्द की मान्यता-

    God is eternal, without any form, omnipresent. To think of him as possessing any form, is blasphemy. - VII, 411 परमेश्वर नित्यनिराकार या अकाय तथा सर्वव्यापक हैउसे साकार मानना उसकी निन्दा करना है।

    "वैदिकयुग में प्रतिमापूजन का अस्तित्व नहीं था। उस समय लोगों की यह धारणा थी कि ईश्वर सर्वत्र विराजमान हैकिन्तु बुद्ध के प्रचार के कारण हम जगत्स्रष्टा तथा अपने सखास्वरुप ईश्वर को खो बैठे और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप मूर्तिपूजा की उत्पति हुई । लोगों ने बुद्ध की मूत्ति बनाकर उसकी पूजा करना आरम्भ किया।" (देववाणी 75) "पहले बौद्ध चैत्यफिर बौद्ध स्तूप और उससे बुद्धदेव का मन्दिर बना। इन बौद्ध मन्दिरों से हिन्दू मन्दिरों की उत्पत्ति हुई।" -विवेकानन्द से वार्तालाप 110

    "वेदों के अनुसार बाह्यपूजा या मूर्त्तिपूजा सबसे नीची अवस्था है- बहि: पूजाऽधमाधमा और निष्कर्ष यह है कि मूर्त्तिपूजा हिन्दू धर्म का आवश्यक अङ्ग नहीं है।" अन्यत्र वे लिखते हैं-

    “Idolatory si the attempt of undeveloped minds to grasp spiritual truths.” -Teachings of Swami Vivekanand, P. 142अर्थात्‌ मूर्त्तिपूजा अविकसित मस्तिष्क (अल्पबुद्धि) वाले लोगों के लिए आध्यात्मिक सचाइयों को ग्रहण करने में समर्थ होने में साधनरूप है। यदि ऐसा है अर्थात्‌ मूर्त्तिपूजा अविकसित मस्तिष्क वालों के लिए है तो जिनकी सारी आयु मूर्त्तिपूजा में ही बीती हो और मूर्त्तिपूजा करते-करते जिन्होंने भगवान्‌ की बजाय काली का नाम जपते-जपते ही प्राण त्यागे होंउन्हें क्या कहेंगे?

    अलवर-नरेश मूर्त्तिपूजा के विरोधी थे। स्वामी विवेकानन्द के जीवनीकार लिखते हैं-

    “The Maharaja of Alwar ridiculed the worship of images which to him were nothing but figures of stone, clay or metal. The Swami tried invain to explain to him that Hindus worshipped God alone, using images as symbols. The image is helpful for concentration, especially at the begining of spiritual life. The Maharaja was not convinced.”

    अर्थात्‌ अलवर-नरेश मूर्त्तियों को मिट्टीपत्थर या धातु की आकृतियों से अधिक नहीं मानते थे। स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें समझाने का भरसक किन्तु व्यर्थ प्रयत्न किया कि मूर्त्तियॉं मन को एकाग्र करने में सहायक होती हैं और उनकी पूजा ईश्वर की प्रतीक के रूप में की जाती हैपरन्तु यह सब महाराजा के गले नहीं उतर सका। 

    किसी वस्तु को उसके यथार्थरूप में देखना ही ज्ञानी का लक्षण है। अलवर-नरेश ज्ञानी थे। अतएव वे मिट्टी को मिट्टी और पत्थर को पत्थर ही समझते थे। गारे को गारा समझना विद्या हैउसे हलवा समझना अविद्या है । हिरण निश्छल भाव से पूर्ण श्रद्धा के साथ बालू को जल समझता हैकिन्तु तब भी बालू से उसकी प्यास नहीं बुझती। साधन की आवश्यकता तभी तक रहती है जब तक साध्य की प्राप्ति नहीं होती और यथार्थ साधन भी उसी को माना जाता है जिससे साध्य की प्राप्ति होती है। यदि मूर्त्तिपूजा ईश्वर-प्राप्ति में सहायक होती तो जीवनभर मूर्त्तिपूजा करने वाले श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द को अन्तिम समय में समाधिस्थ होकर प्रभु का स्मरण करना चाहिए था और रामकृष्ण की वाणी को काली की जगह वेदोंउपनिषदों आदि में निर्दिष्ट "ओ3म्‌" को तीन बार उच्चारण करना चाहिए था।

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    That is, Alwar-Naresh did not consider the idols more than the figures of clay, stone or metal. Swami Vivekananda tried his best to convince him that idols help to concentrate the mind and worship him as a symbol of God, but all this could not be embraced by the Maharaja.

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-4

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    वस्तुत: विवेकानन्द का मूर्त्तिपूजा के प्रति आग्रह उनके अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों के कारण था। इसीलिए एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- "यदि मूर्त्तिपूजा में नाना प्रकार के कुत्सित विचार भी प्रविष्ट हो जाएँ तो भी मैं उसकी निन्दा नहीं करूँगा।" - (विवेकानन्द-चरित, पृष्ठ 146)

    मूर्त्तिपूजा की बात करते समय स्वामी विवेकान्नद विवेक को ताक पर रख देते थे,यह निम्नलिखित घटना से स्पष्ट हो जाता है-

    “When Miss noble came to India in January 1898 to work for the education of India, he gave her the name of Sister Nivedita. At first he taught her to worship Shiva and then made the whole ceremony eliminate in an offering at the feet of Buddha.” - Vivekanand A Biography by Swami Nikhilanand, P. 260

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    शिक्षासम्बन्धी कार्य के लिए आने वाली विदेशी महिला को पहले शिवजी की पूजा सिखाना और उसकी विधि पूरी हो जाने पर शिव-पूजा के विरोधी महात्मा बुद्ध के चरणों पर चढानाइन दो परस्पर विरोधी कृत्यों का विधान कहॉं मिलता है और किस प्रकार इनकी संगति बिठाई जा सकती है?

    श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की आराध्य देवी की निर्दोष प्राणियों की हत्या से पूजा होना और उनका खून पीकर उसका तृप्त होना सर्वविदित है। उसके भक्तों में दया-ममता की कल्पना कैसे की जा सकती हैउक्त-जीवनी में उसके विषय में लिखा है- “One day in the Kali temple of Calcutta a western lady shuddered at the sight of blood of goats, sacrificed before the mighty, and exclaimed- ‘Why is there so much blood before the Godess?’ Quickly the Swami (Vivekanand) replied- ‘Why not a little blood to complete the picture?” -Ibid. 261

    स्वामी विवेकानन्द की फ्रैंच भाषा में प्रकाशित जीवनी के लेखक रोम्यॉं रोलॉं के अनुसार रामकृष्ण एक मुसलमान से प्रभावित होकर अपना धर्मपरिवर्तन करने और गोमांस खाने के लिए तैयार हो गये थे। इस प्रसंग में मैक्समूलन ने लिखा है-“For long days the (Ramkrishna) subjected himself to various kinds of discipline to realise the Mohammadon idea of all powerful Allah. He let his beard grow, he fed himself on Muslim diet, he ocmpletely repeated the Koran.” - A Real Mahatman, P. 35. 

    स्वामी विवेकानन्द के इस्लाम के गीत गाने का कारण अपने गुरु के प्रति अन्धभक्ति का अतिरेक था। रामकृष्ण मिशन ने अपने हिन्दु न होने के पक्ष में जो तर्क और प्रमाण कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रस्तुत किये थेउनका एक अंश अहमदाबाद से प्रकाशित होनेवाले Times of Indiaके 23 जनवरी 1886 के अंक से यहॉं उद्‌धृत किया जा रहा है-“During his practice of Islam he repeated the name of Allah and said Namaz thrice daily. During this while he dressed and ate like a Muslim. Another biographical work ‘Ramkrishna Panth’ by Akshoy Sen, provides some more details. A Muslim cook was brought who instructed the brahman cook how to wear a lungi and cook like the Muslim way. We are also told that at this time Ramkrishna felt a great urge to take beef. However, this urge could not be satisfied openly. But one day as he sat on the bank of the Ganges, a carcase of a cow was floating by. He entered the body of a dog astrally and tasted the flesh of the cow. His Muslim Sadhana was now complete.

    All this is highly comic but it holds an important position in the mission. The lawyears of mission did not forget to argue in the court that Ramkrishna was on the verge of eating beef. This was meant to prove that he was an indifferent Hindu and not far from being a devout Muslim.” The mission won the case.

    उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रामकृष्ण में इस्लाम और गोमांसभक्षण के प्रति ललक थी। इसी प्रयोजन से वे अल्लाह का नाम जपते थे और दिन में तीन बार नमाज पढते थे। मुसलमानों-जैसी वेशभूषा भी उन्होंने अपना ली थी। एक मुस्लिम रसोइया उनके ब्राह्मण रसोइये को मुस्लिम खाना बनाना सिखाता था। उस समय रामकृष्ण को गोमांस खाने की इच्छा हुई। इस इच्छा को खुलकर पूरा करना सम्भव नहीं था। कालान्तर में तो उनके परम शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने खुलकर मांस खाया हीदूसरों को भी वैसा ही करने की प्रेरणा दी। इतना ही नहींवैदिक कालीन ब्राह्मणों पर गोमांस भक्षक होने का आरोप लगाया।

    एक दिन जब रामकृष्ण गंगातट पर बैठे थे तो उन्होंने एक गाय के शव को गंगा में बहते देखा। उसे देखते ही उनके मुँह से लार टपकने लगी। तभी उन्होंने पास ही एक मरे हुए कुत्ते को देखा। झट से उस कुत्ते के शरीर में प्रवेश करके उन्होंने गोमांस का रसास्वादन किया । इस प्रकार उनकी मुस्लिम साधना पूर्ण हुई।

    स्वामी विवेकानन्द एक स्थान पर लिखते हैं-“Too much faith in personality has a tendency to produce weakness and idolatory.” - II, 84-85

    व्यक्तिविशेष में श्रद्धा का अतिरेक बौद्धिक निर्बलता तथा मूर्त्तिपूजा को जन्म देता हैपरन्तु जब रामकृष्ण की बात आती है तो उनकी (विवेकानन्द की) श्रद्धा का अतिरेक सब अतिरेकों की सीमा को लॉंघ जाता है और तब वे कहते हैं-“Through thousands of years the lives of the great prophets of yore came down to us, and yet, none stands so high in brilliance as the life of Ramkrishna Paramhansa.” - II,312

    हजारों वर्षों में प्राचीनकाल के अनेक सिद्ध पुरुषों के जीवन हमारे सामने आयेपरन्तु उनमें से एक भी रामकृष्ण की ऊँचाई को न छू सका।

    इतना ही नहींपत्रावली भाग 1पृष्ठ 138 पर संस्कृत के एक श्लोक को उद्धृत कर विवेकानन्द जी अपने आराध्यदेव रामकृष्ण को ब्रह्माविष्णु और शिव तीनों से बढाकर साक्षात्‌ नारायण का अवतार कहते हैं। गुरु के प्रति श्रद्धा के इस अतिरेक ने उन्हें उनकी अपनी ही मान्यता के विपरीत मूर्त्तिपूजक और इतना निर्बल बना दिया कि वे विवेकशून्य हो गये और मन्दिरों में स्थापित मूत्तियों के स्थान पर वे रामकृष्ण की पादुकाओं को पुष्प अर्पित कर उनकी प्रतिमा पर क्षीरभोग चढाने लगे। -विवेकानन्दजी के सङ्ग मेंपृ. 139

    "भगवान्‌ रामकृष्ण परमहंस ईश्वर के अवतार थेइसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ ही थायह हम निश्चितरूप से नहीं कह सकते और बुद्ध व चैतन्य-जैसे अवतार पुराने हैंपर श्री रामकृष्ण सबकी अपेक्षा आधुनिक और पूर्ण है" (पत्रावली 256)। इस प्रकार रामकृष्ण और बुद्ध की ऐतिहासिकता को नकारते हुए उन्हें रामकृष्ण से हीन सिद्ध करने के लिए वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि "उनकी (रामकृष्ण की) पवित्रताप्रेम और ऐश्वर्य का कणमात्र प्रकाश ही रामकृष्णबुद्ध आदि में था।" - पत्रावली भाग 1187

    स्वामी विवेकानन्द इतना भी नहीं सोच सके कि अन्य सभी महापुरुष रामकृष्ण के पूर्ववर्ती थे। पूर्ववर्तियों में पश्चाद्वर्ती का प्रकाश आएगा या पश्चाद्वर्ती में पूर्ववर्ती का।

    श्री रामकृष्ण के सम्बन्ध में विवेकानन्द जी के अधिकांश कथन सर्वथा हास्यास्पद तथा अविश्वसनीय हैं। अन्यान्य महापुरूषों की तुलना करने में तो वे औचित्य की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं और उन्हें चमत्कारी पुरुष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरणार्थ- "उन-(रामकृष्ण)- पर जिनका विश्वास नहीं है और उनमें जिनकी भक्ति नहीं हैउनका कुछ नहीं होगा।" -पत्रावली भाग 1पृ.188

    रामकृष्ण को महिमामण्डित करने के लिए विवेकानन्द इतिहास को यदृच्छया बदलने और अपने को उपहास का पात्र बनाने में भी संकोच नहीं करते। उनके अनुसार "सत्ययुग का आरम्भ रामकृष्ण के अवतार की जन्मतिथि से हुआ।" - पत्रावली भाग 1पृ. 188

    विवेकानन्द को इतना भी ज्ञान नहीं कि सत्ययुग का आरम्भ और अन्त हुए लाखों वर्ष बीत चुकेजबकि कलयुग का आरम्भ हुए लगभग पॉंच हजार और रामकृष्ण को पैदा हुए केवल 60 वर्ष बीते थे।

    जैसाकि हम स्वयं विवेकानन्द के ग्रन्थों के सम्पादक के शब्दों में स्पष्ट करेंगेउनके लेखों तथा व्यक्तव्यों में परस्पर विरोधी वचनों की भरमार है। इस कारण उनकी कथनी और करनी में सामंजस्य का अभाव है। स्वामी जी लिखते हैं-

    “The dead never return, the past night does not reappear. Neither does man inhabit the same body ever again.” - II, 185

    अर्थात्‌ मरनेवाला वापस नहीं आता। मरने के बाद मनुष्य उसी शरीर में फिर नही आताकिन्तु रामकृष्ण को लोकोत्तर अवतारी पुरूष अथवा ईश्वर का अवतार सिद्ध करने के लिए विवेकानन्द रामकृष्ण के शव को भस्म करने के बाद भी उनका अपने उसी शरीर में दर्शन देना स्वीकार करते हैं-“Within a week of the Master’s passing away Narendra was one night strolling in the garden with a brother disciple, when he saw a luminous figure. There was no making. It was Shri Ramkrishna himself. Narendra remained silent, regaridng the phenomenon as an illusion. But his brother disciple exclaimed in wonder. ‘See, Naren! See?’ There was no room for further doubt. Narendra was convinced that he was Ramkrishna who appeared in a luminous body. As he called the other brother discipes to behold, the Master, disappeared. - Bio. 69

    श्री रामकृष्ण की मृत्यु के एक सप्ताह के बाद एक दिन वे अपने एक गुरुभाई के साथ बाग में घूम रहे थे कि उन्हें अपने सामने एक द्युतिमान शरीर दिखाई दिया। इसमें भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं थी। निश्चय ही वे स्वयं रामकृष्ण थेपरन्तु हो सकता हैयह उनके मन का भ्रम ही होइसलिए वे मौन रहे। इतने में उनका गुरुभाई आश्चर्यचकित हो चिल्लाया-"देखो ! नरेन्द्र देखो।" अब सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं था। नरेन्द्र को विश्वास हो गया कि द्युतिमान शरीर में प्रकट होनेवाले रामकृष्ण ही थे।

    जब स्वयं विवेकानन्द के अपने कथनानुसार आत्मा पुन: उसी शरीर में नहीं आती तो रामकृष्ण कैसे आ गयेशरीर के भस्म होने के बाद उसके परमाणु अथवा अन्य कोई परमाणु स्वत: रामकृष्ण का शरीर धारण कर सकते हैं तो सृष्टिरचयिता चेतन ब्रह्म की आवश्यकता क्या रहीऐसी ऊटपटाङ्ग बात विवेकानन्द-जैसे मस्तिष्क में ही आ सकती हैअन्यथा कोई अबोध बालक भी इसे स्वीकार नहीं करेगा।

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    One day when Ramakrishna was sitting on the Ganges, he saw the body of a cow flowing into the Ganges. Seeing him, saliva started dripping from his mouth. Then he saw a dead dog nearby. He quickly tasted the beef by entering the body of the dog. Thus his Muslim practice was completed.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-5

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    स्वामी विवेकानन्द– स्वामी विवेकानन्द का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें समन्वयवादी प्रवृत्ति का महापुरुष माना जाता है, परन्तु उनके ग्रन्थों से उनका वैसा स्वरूप उभरकर सामने नहीं आता। उनके भाषणों तथा लेखों में परस्पर विरोधी विचारों की भरमार है। पदे-पदे वदतोव्याघात के उदाहरण के उदाहरण मिलते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर ‘Teaching of Swami Vivekanand’ के सम्पादक ने अपनी भूमिका में लिखा है-

    “Vivekanand was the last person to worry about formal consistency. He almost always spoke extempore, fired by the circumstances of the moment, addressing himself to the condition of a particular group of hearers, reacting to the intent of a certain question. That was his nature and he was supremly indifferent if his words of today seemed to contradict those of yesterday.”

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    स्वामी विवेकानन्द के विचार- यहॉं हम विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्वामी जी के विचारों को उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे उद्धरणों का स्रोत अद्वैत आश्रम कलकत्ता से प्रकाशित निम्नलिखित दो प्रामाणिक ग्रन्थ हैं-

    1. Vivekanand- A Biography by Swami Nikhilanand Saraswati.

    2. Teachinngs of Swami Vivekanand.

    सुविधा के लिए हमने बार-बार पुस्तक का नाम न लिखकर उपर्युक्त क्रम के अनुसार I और II लिखकर पृष्ठ सं लिख दी है।

    खान-पान1. “To the accusation from some Hindus that the Swami was eating forbidden food, he retorted- ‘If the people of India want me to keep strictly to Hindu diet, please tell them to send me a cook and money enough to keep him.”  -I, 129

    जब कुछ लोगों ने स्वामी विवेकानन्द के गोमांस खाने पर आपत्ति की तो उन्होंने कहा कि यदि भारत के लोग चाहते हैं कि मैं हिन्दूधर्म में निषिद्ध भोजन न करूँ तो उनसे कह दो कि मुझे एक रसोइया भेज दें और उसके वेतन की भी व्यवस्था कर दें ।

    किसी शाकाहारी महापुरुष ने कभी ऐसी बेहूदा मॉंग नहीं की होगी।

    2. “Orthodox Brahmans regarded with abhorrance the habit of animal food. The Swami told them about the habit of beef eating by Brahmans in Vedic times.” - I, 260

    ब्राह्मण मांसाहार से घृणा करते थे। स्वामी जी ने बताया कि वैदिक काल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे। एक समय ऐसा भी था कि इसी भारत में मांस न खानेवाला ब्राह्मण नहीं माना जाता था। तुम वेद पढोतुम देखोगे कि जब कोई संन्यासी या राजा किसी के घर जाता था तब किस तरह और कैसे बकरों और बैलों के सिर धड़ से जुदा होते थे। - स्वामी विवेकानन्द से वार्तालाप - अनुवादस्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द

    बिना वेद पढे और बिना प्रमाण प्रस्तुत किये इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप से स्वामी विवेकानन्द अपने गोमांस खाने और अपने गुरु द्वारा एतदर्थ प्रयत्न करने के कार्य को शास्त्रसम्मत सिद्ध करना चाहते थे।

    3. “He advocated animal food for the Hindus, if they were to cope at all with the rest of the world and find a place among the great nations.” - I,96

    उनका कहना था कि यदि हिन्दू समस्त संसार का मुकाबला करना चाहते हैं और बड़े-बड़े राष्ट्रों में अपना स्थान  चाहते हैं तो उनके लिए मांसभक्षण अनिवार्य है।

    4. “So long as vegetable food is not made suitable for human system there is no alternative to meat eating. What we now want is an immense awaking of Rajasik Shakti. So, I say, eat large quantities of flesh and meat.” - II, 70

    जब तक शाकाहार मानव शरीर के लिए उपयुक्त नहीं बन जाता तब तक मांसाहार ही उसका विकल्प है। अब हमें राजस शक्ति की आवश्यकता हैइसलिए मैं कहता हूँखूब मांस खाओ।

    यदि स्वामी विवेकानन्द को शरीर-शास्त्र का तनिक-सा भी ज्ञान होता तो कभी ऐसी मूर्खतापूर्ण बात न कहते। प्रकृति ने मनुष्य को जिस प्रकार के दॉंत और आँत दी हैंउनके अनुकूल शाकाहार ही हैमांसाहार कदापि नहीं। जहॉं तक शक्ति का सम्बन्ध है वह शाकाहारी Horse- Power के नाम से प्रसिद्ध हैमांसाहारी Lion-Powerके नाम से नहीं।

    5. एक भक्त ने स्वामी जी से पूछा-"मांस तथा मछली खाना क्या उचित और आवश्यक है?" स्वामीजी ने उत्तर दिया- "खूब खाओ भाईइससे जो पाप होगावह मेरा होगा.... वैदिक तथा मनु के धर्म में मछली और मांस खाने का विधान है।.... घास-पात खाकर पेट-रोग से पीड़ित बाबाजी के दल से देश भर गया है..... अत: अब देश के लोगों को मछलीमांस खिलाकर उद्यमशील बनाना होगा।" - विवेकानन्द के सङ्ग में267-70

    मांसाहार के सम्बन्ध में इस प्रकार के कुत्सित विचार उसी व्यक्ति के हो सकते हैं जिसने न वेद पढे हैं और न मनुस्मृति आदिन जिसे भारतीय संस्कृति का ज्ञान है और न शरीर-विज्ञान या चिकित्सा-शास्त्र की जानकारी।

    इस्लाम व ईसाइयत-1. “The vast majority of perverts to Islam and Christianity are perverts by the sword or descendents of those.” - Ibid. II. 13.

    मुसलमान और ईसाइयों में बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनका धर्म-परिवर्तन तलवार के जोर से किया गया था या जो ऐसों की सन्तति हैं।

    2. “The Mohammdon religion allows Mahammdons to kill all those who are  not of their religion. It is clearly stated in Koran- ‘Kill the Infidles if they do not accept Islam. They must be put to fire and sword.” - II, 180

    इस्लाम उन लोगों को कत्ल करने की आज्ञा देता है जो उनके धर्म के मानने वाले नहीं हैं। कुरान में स्पष्ट लिखा है- काफिरों को मार डालो अगर वे इस्लाम को स्वीकार न करेंया तो उन्हें तलवार के घाट उतार देना चाहिए या आग में झोंक देना चाहिए।

    3. “The Mohammdons came upon the people of India always killing and slaughtering. Slaughtering and killing, they over-ran them.” - II, 151.

    वस्तुत: इस्लाम के खलीफा एक हाथ में कुरान और दूसरे में तलवार लेकर यही करते थे- "या इस्लाम स्वीकार करो या मौत को गले लगाओ।"

    इतना सब होने पर भी स्वामीजी कहते  हैं-

    1. “It is the followers of Islam and Islam alone who look upon and behave towards all mankind as their own soul.” - I, 254.

    केवल इस्लाम के अनुयायी ही ऐसे लोग हैं जो मनुष्य मात्र को अपनी आत्मा के समान मानते और वैसा ही व्यवहार करते हैं।

    2. “Without the help of Islam the theories of Vedant, however fine and wonderful they may be, are entirely valueless.” - I, 255.

    वेदान्त के सिद्धान्त कितने ही अच्छे और विलक्षण क्यों न होंइस्लाम की सहायता के बिना किसी काम के नहीं।

    3. “The spirit of democracy and equality in Islam appealed to Narendra’s (Vivekanand’s) mind and he wanted to create a new India with Vedantic brain and Islamic body.”    

    -I, 79.

    इस्लाम की लोकतन्त्र और समानता की भावना से विवेकानन्द बड़े प्रभावित थे और वे एक नया भारत बनाना चाहते थेजिसका शरीर इस्लाम का हो और मस्तिष्क वेदान्त का।

    4. एक ओर वे इस्लाम के थोथे भ्रातृभाव और उसकी तथाकथित सार्वभौमता की आलोचना करते हुए कहते हैं-"मुसलमान सार्वजनिक भ्रातृभाव का शोर मचाते हैंकिन्तु  वास्तविक भ्रातृभाव से कितनी दूर हैं। जो मुसलमान नहीं हैं वे उनके भ्रातृसंघ में शामिल नहीं हो सकते। उनके गले काटे जाने की ही अधिक सम्भावना है।" - धर्मरहस्यपृष्ठ 43

    दूसरी ओर स्वामीजी कहते हैं-

    “For our own motherland a junction of two great religious systems - Hinduism and Islam, is the only hope.” - I, 255. II, 218.

    हमारी अपनी मातृभूमि के लिए संसार के दो महान्‌ धर्मों हिन्दूधर्म व इस्लाम का मेल ही एकमात्र आशा है।

    “I see in my mind’s eye the future perfect India rising out of this chaos and strife, glorious and invincible, with a Vedantic brain and Islami body.” - II, 415-16.

    एक ओर "वसुधैव कुटुम्बकम्‌" का उद्‌घोष करने वाला भारत और मनुष्य को ही नहींप्राणिमात्र को ब्रह्म का रूप माननेवाला वेदान्त और दूसरी ओर मतभेद के कारण दूसरों की गर्दन काटने का आदेश देनेवाला (स्वयं स्वामी विवेकानन्द के पूर्वोद्‌धृत शब्दों में) इस्लाम इन दोनों में 36 का सम्बन्ध होने से मेल होना असम्भव है। संसार के सभी देशों में (विशेषत: भारत में) इसलाम के कारण जो खून की नदियॉं बही हैं और आज भी बह रही हैंइसका थोड़ा-सा भी ज्ञान यदि स्वामी विवेकानन्द को होता तो कभी ऐसी व्यर्थ की बातें न कहते।

    फिर एक जगह वे कह देते हैं- I want to lead mankind to the place where there is neither is neither Veda, nor the Bible, nor the Koran.” (I, 255.)अर्थात्‌ मैं संसार के लोगों को वहॉं ले-जाना चाहता हूँ जहॉं न वेद होन बाइबल और न कुरान।

    ऐसे स्थान का अता-पता उन्होंने नहीं दिया। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द के विचारों में सामंजस्य नहीं है। इसलिए उनके सम्पादक ने पहले ही कह दिया- “Vivekanand was the last person to worry about formal consistency.... That was his nature- and he was supremely indifferent if his words of today seemed to contradict those of yesterday.”

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    On the one hand, he criticizes the slight fraternity of Islam and its so-called universality - "Muslims make a noise of public fraternity, but how far away from genuine fraternity is. Those who are not Muslims cannot join their fraternity. Their throats It is more likely to be cut. " - Religion, page 43

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-6

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    देशप्रेम-“There are people whose brains have become turn by western luxurious ideals and who have drunk deep of enjoyment, this is curse of the west.” -II,159.

    ऐसे लोग भी हैं जिनके दिमाग पश्चिम के भोगवादी विचारों से दूषित हैं और जो पश्चिम के इस भोगवाद में आकण्ठ डूब गये हैं। इतने पर भी-“On April, 1897 in the course of a letter to the lady editor or an Indian Magazine, he wrote- It has ever been my conviction that we shall not be able to rise unless the western countries come to our help.” -I,255.अर्थात्‌ मेरा सदा से यह विश्वास रहा है कि पाश्चात्य देशों की सहायता के बिना हम ऊपर नहीं उठ सकते।

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    “When his spiritual daughter, M.E. Noble, expressed her desire to come to India, the Swami wrote to her on July 29, 1897- ‘India cannot produce great women. She must borrow them from other nations of the west. Your education, sincerity and above all your celtic blood make you just the woman wanted.” -I, 259.

    जब उनकी आध्यात्मिक पुत्री एम.ई. नोबल ने भारत आने की अपनी इच्छा व्यक्त की तो उत्तर में स्वामीजी ने 29 जुलाई 1897 को लिखा- "भारत में महान्‌ स्त्रियॉं पैदा नहीं हो सकतीं। भारत को ऐसी स्त्रियॉं पश्चिम के देशों से उधार लेनी होंगी। अपनी शिक्षानिष्ठा और सबसे अधिक अपने कैल्टिक रक्त के कारण आप बिल्कुल वैसी ही स्त्री हैंजैसी भारत को चाहिएँ।"

    अगले ही क्षण वे कह उठते हैं-“I should very much like our women to have your intellactuality, but not, if it must be at the cost of purity. Intellactuality is not the highest good. Morality and spiritualty are the things for which we strive. Our woman are not so learned, but they are more pure.”

    “Your men bow and offer a chair, but in another breath they offer compliments. They say- ‘O Madam! how beautiful are your eyes! what right have they to do this? How dare a man venture so far and how can your woman permit it?”

    “No sooner are a young man and a young woman left alone then he pays compliments to her, and perhaps before he takes a wife he has courted two hundred women.” - V, 412-13.

    मैं अपने देश की नारियों को आपकी तरह विदुषी देखना चाहूँगाकिन्तु उनकी पवित्रता को खोकर नहीं। वैदुष्य सर्वोच्च गुण नहीं है। नैतिकता और आध्यात्मिकता वे गुण हैं जिनके लिए हम प्रयत्नशील हैं। हमारी नारियॉं इतनी (तुम्हारे जितनी) विदुषी नहीं हैपर वे अधिक पवित्र हैं।

    आपके यहॉं के पुरुष महिला को नमन करते हैं और कुरसी पेश करते हैंपरन्तु दूसरे ही सॉंस में उसकी प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं- आपकी आँखें कितनी सुन्दर हैं... ज्यों ही एक युवक और युवती को एकान्त में छोड़ दिया जाता है.... किसी एक को पत्नी बनाने से पहले दो सौ नारियों से सम्बन्ध कर चुका होता है।

    पश्चिम में तो नारीनारी रूप में ही दिखाई नहीं देती। वह पुरुष का ही प्रतिरूप जान पड़ती है। वह गाड़ी चलातीकार्यालय में काम करती और इसी प्रकार के अन्य व्यावसायिक कार्यों में लगी रहती है। स्त्रियोचित नम्रता तथा मर्यादा के दर्शन तो भारत में ही होते हैं।

    यह सब जानते और मानते हुए भी वे कहते हैं-

    “India cannot produce great women. Now here in the world are women like those in this country (America). How pure and kindhearted.”

    इतनी अति प्रशंसा किस लिएऔर क्यों वे अमरीका में ही बस जाना चाहते थे?

    “They (women of America) are Laxshmi (The Godess of fortune) in beauty and like Saraswati (Godess of learning) in virtue- they are the Divine Mother incarnate and by worshipping them one verily attains perfection in everything. I am really struck with wonder to the women here- most wonderful women are these.” - II, 136

    जिस देश ने शास्त्रार्थ-समर में विश्वविजयी जगद्‌गुरु आदि शंकराचार्य को पराजित करने वाली भारती देवी कोजनक की सभा में महर्षि याज्ञवल्क्य को चुनौती देनेवाली वाचक्नवी गार्गी कोकालिदास के समकालीन देशभर के विद्वानों को धूल चटानेवाली विद्योत्तमा कोयुद्धक्षेत्र में बड़े-बड़े शूरवीरों के दॉंत खट्‌टे करने वाली महारानी दुर्गावती और झॉंसी की रानी लक्ष्मीबाई कोराष्ट्रहित में अपने इकलौते पुत्र का बलिदान करने वाली पन्नाधाय कोअपने पति चूड़ावत को पत्नी-मोह में ग्रस्त देखकर अपने हाथों से अपना सिर काटकर बिदा करने वाली सद्योविवाहिता अनुपम सुन्दरी हाड़ा रानी कोअपने सतीत्व की रक्षार्थ जलती चिता में कूदकर प्राण देनेवाली पद्मिनी जैसी वीरांगनाओं को तथा गणितविद्या में अद्‌भुत नैपुण्य प्राप्त लीलावती को जन्म दिया उसके विषय में विवेकानन्द के भारत-विरोधी उपर्युक्त कथन को पढकर यही कहना पड़ता है-"घर से बैर अपर से नाताऐसी बहू मत देहु विधाता।"

    पर "जादू वह जो सिर पर चढकर बोले।" विवेकानन्द को अमरीकन स्त्रियों का उत्कर्ष दिखाने की दृष्टि से उनका गुणगान करने के लिए उपमान के रूप में भारतीय नारियों-सरस्वती और लक्ष्मी को ही अपनाना पड़ा। उपमेय से उपमान का आसन ऊँचा होने से न चाहते हुए भी उन्हें भारतीय नारियों को उत्कृष्ट मानना पड़ा।

    4. “I belong to the world as much as to India. No country has a special claim on me. Am I India’s slave?”

    मैं जितना भारत का हूँ उतना ही संसार का । किसी देश-विशेष का मेरे ऊपर विशेष अधिकार नहीं है। मैं भारत का गुलाम नहीं हूँ।

    ब्रिटिश सरकार को दृष्टि में रखकर ही उन्होंने अपने सहयोगियों को निर्देश दिया था कि "मेरा भाषण तैयार करते समय ऐसे मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया जाए जिनसे महाराणी विक्टोरिया के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट हो"। - भारतीयमहर्षि दयानन्द और स्वामी विवेकानन्दपृष्ठ 300 

    उन्हें (स्वामी विवेकानन्द को) भारत की अपेक्षा अमरीका में रहना अधिक पसन्द था। उनकी स्पष्टोक्ति थी कि "यहॉं मुझे खाने-पीने और कपड़े-लत्ते की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। फिर मैं कृतघ्नियों और बुद्धिहीनों के देश में क्यों लौटूँं?" - वही पृ.306

    "अंग्रेजीराज का गुणगान करने के कारण ही विवेकानन्द को सर्वप्रथम अंग्रेजों ने ही उठाने का प्रयास किया। उन्हें यह उनकी राजभक्ति का पुरस्कार था।बी.बी.मजूमदार - "हिस्ट्री आफ सोशल एण्ड पोलिटिकल आइडियाज" पृष्ठ 267

    "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"- सर्वमान्य सिद्धान्त रूप है। स्वामी विवेकानन्द इसका अपवाद थे। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं था।

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    "It was the British who tried to raise Vivekananda for the first time due to the praise of the English king. This was his award of royalty. - BB Majumdar -" History of Social and Political Ideas " Page-267

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-7

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    मैक्समूलरमैक्समूलर ही वह व्यक्ति था जिसने क्रीतदास के रूप में लार्ड मैकाले से प्रेरणा पाकर घोषणापूर्वक भारतीय साहित्य को जानबूझकर विकृतरूप में प्रस्तुत किया। उसी विषवृक्ष के फलों का यह परिणाम है कि आज का शिक्षित समाज अपने साहित्य,सभ्यता,संस्कृति और इतिहास को हेय दृष्टि से देखता है। स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में इसी मैक्समूलर से बढकर देशभक्त हमारे देश में नहीं हुआ। उनके जीवनीकार ने लिखा है-

    The Swami was deeply affected to see Maxmuller’s love for India. He wrote enthusiastically- “I wish I had a hundred part of that love for my motherland. Endowed with an extra-ordinary and at the same time, an intensely active mind, he has lived and moved in the world of Indian thought for fifty years or more.”-I,192

    मैक्समूलर के वैदुष्य का बखान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने यहॉं तक कह डाला कि "कभी-कभी मुझे ऐसा अनुमान होता है कि स्वयं सायणाचार्य ने ही अपने भाष्य का पुनरुद्धार करने के लिए मैक्समूलर के रूप में जन्म लिया है।"- विवेकानन्द के संग में,पृ.91

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    स्वामी विवेकानन्द के मैक्समूलर की प्रशंसा में युक्ति और तर्क की सीमा को लांघ जाने का कारण यह था कि उसने स्वामीजी के गुरु रामकृष्ण परमहंस की जीवनी और उपदेशों पर एक बड़ा सुन्दर ग्रन्थ लिखा था- ‘Ramkrishna : His life and sayings’

    Maxmuller invited Vivekanand to lunch with him in Oxford on May 28,1896. The Swami asked Maxmuller- “When are you coming to India? All men there would welcome one who has done so much to place the thoughts of their ancestore in a true light. -I, 193.

    मैक्समूलर ने स्वामी विवेकानन्द को 28 मई 1896 को आक्सफोड में भोजन पर आमन्त्रित किया। वहॉं स्वामीजी ने मैक्समूलर से पूछा- "आप भारत कब आ रहे हैंवहॉं के लोग उस व्यक्ति का स्वागत करेंगे जिसने उनके पूर्वजों के विचारों को उनके सही रूप में प्रस्तुत करने में इतना परिश्रम किया हैं?"

    यदि स्वामी विवेकानन्द ने मैक्समूलर के जीवनवृत्त को और उसके ग्रन्थों को पढा होता तो कभी इस प्रकार की बात कहने का दुस्साहस न करते। मैक्समूलर ने जो किया उसका उद्‌देश्य हिन्दुओं को ईसाई बनाकर भारत की दासता की जंजीरों को सुदृढ करना था। इस बात की पुष्टि में यहॉं मैक्समूलर के दो पत्रों का उल्लेख किया जा रहा है। वेदों के अनुसन्धान के कार्य में लगने के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए मैक्समूलर ने सन्‌ 1866 में अपनी पत्नी को भेजे पत्र में लिखा था-

    “This edition of mine and the translation of the Vedas will, hereafter, tell to a great extent on the fate of India. It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.” -Life and Letters of Frederick Maxmuller, Vol. I, chap. XV, P.34

    मेरा यह संस्करण और वेदों का अनुवाद कालान्तर में भारत के भाग्य को दूर तक प्रभावित करेगा। यह उनके धर्म का मूल है। मेरा यह निश्चित मत है कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा हैगत तीन हजार वर्षों में इससे उत्पन्न होने वाली सब चीजों को जड़ समेत उखाड़ फेंकने का एकमात्र उपाय है।

    और 16 दिसम्बर 1868 को भारत सचिव ड्यूक आफ आर्गाइल के नाम भेजे पत्र में मैक्समूलर ने लिखा था-

    “The ancient religion of India is doomed. Now, if Christianity does not take its place, whose fault will it be?” - Ibid, chap. 16, P. 378

    भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है। अब यदि उसका स्थान ईसाइयत नहीं लेती तो उसके लिए कौन दोषी होगा?

    मैक्समूलर की स्तुति करके स्वामी विवेकानन्द ने जाने-अनजाने परोक्षरुप से अपने को इस पापकर्म में भागीदार बनाया।

    शायद मैक्समूलर से प्रभावित होकर ही स्वामी विवेकानन्द ने लिखा होगा-

    1. “By the Vedas I do not mean any particular books, containing the words of a prophet or deriving sanction from supernatural authority, but the accumulated treasure of spiritual laws, discovered by various Indian seers in different times.- Bio. 122

    अर्थात्‌ वेदों से मेरा अभिप्राय किसी पुस्तक विशेष से नहीं है। वेद का अर्थ है भिन्न-भिन्न कालों में अनेक व्यक्तियों द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक तत्त्वों का संचित कोश।

    2. मैं वेद का उतना ही अंश मानता हूँ जितना युक्तिसंगत हैऽ वेद के अनेक अंश तो स्पष्टत: परस्पर विरोधी (बचकाना व मूर्खतापूर्ण- मैक्समूलर) हैं। -विवेकानन्द की कथाएँपृ.125

    3. वेदों में बहुत-से ऐसे मन्त्र हैं जो प्राणिमात्र को पीड़ा पहुँचाने के लिए अनेक प्रकार के अशुद्ध कर्मों का विधान करते हैं। - स्वामी विवेकानन्द से वार्तालाप पृ.47

    4. कुछ मन्त्रों में हो हास्यास्पद कथाएँ भी वर्णित हैं। - भारत में विवेकानन्द पृ. 95

    5. वे (आर्य) यज्ञवेदी बनाते हैं और पशुबलि देकर उनके पके मांस का नैवेद्य इन्द्र को अर्पण करते है। - हिन्दूधर्म पृ. 31

    6. वेद के संहिताभाग में अनन्त स्वर्ग का वर्णन हैजिस प्रकार ईसाइयों के धर्मग्रन्थों में है। -व्यावहारिक जीवन में वेदान्त पृ. 39

    श्रीरामकृष्ण ईश्वरावतार- 1. “Bhagwan Shri Ramkrishna incarnated himself in India.”- भगवान्‌ श्रीरामकृष्ण ने भारत में अवतार लिया।

    2. “Krishna was the greatest incarnation of God.”

    3. On April 4, 1896 he wrote to India that R.K. was God. If people worship him as God, no harm.

    4. “If I has written about R.K. I would have proved qouting form scriptures and even the holy books of Christians that R.K. was the greatest of all the prophets of the world.” -I, 193

    5. “Of Buddha he said that he was the greatest man that ever lived.” -I, 269

    6. “The Omnipresent God of the unvierse cannot be seen, until he is reflected by prophets, the incarnations, the embodiment of God.” - I, 146

    7. “On August 2,1896 Swami Vivekanand entered the cave of Amarnath. He had a vision of Shiva himself. The details of the experience he never told to anyone, except that he had been granted the grace of Amarnath not to die untill he himself willed it. For days he spoke of nothing but Shiva. He said- ‘The Image was the lord himself.”-I, 272

    क्या स्वामी विवेकानन्द अपनी इच्छा से मरे थे?

    चंगेज खॉं“One day he spoke of Chenghis Khan and declared that he was not a vulgar oppressor. He compared him to Nepoleon and Alaxander, saying that they all wanted to unify the world and it was the same soul that had incarnated itself three times in the hope of bringing about human unity through political conquest. In the same way one soul might have come again and again as Krishna, Buddha and Christ to bring about unity of mankind through religion.”-I, 266-67

    अर्थात्‌ एक दिन स्वामीजी ने चंगेज खॉं के विषय में कहा था कि वह कोई आतंकवादी या अत्याचारी नहीं था। उसकी तुलना नेपोलियन और सिकन्दर से करते हुए उन्होंने कहा कि वे सब संसार को एक करना चाहते थे। एक ही आत्मा ने राजनैतिक विजय के द्वारा मनुष्यमात्र को एकता के सूत्र में बॉंधने की आशा में तीर बार अवतार धारण किया। इसी प्रकार एक ही आत्मा धर्म के द्वारा संसार में एकता स्थापित करने के लिए बार-बार कृष्णबुद्ध और ईसा के रूप में आया होगा।

    इस पर किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहींसिवा इसके कि बहुरूपिया बनकर भी सर्वशक्तिमान्‌ परमेश्वर संसार में एकता स्थापित नहीं कर सकाउस संसार में जो स्वामी विवेकानन्द के मत में स्वयं उसी का रूप था।

    स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म समभाव का प्रतीक माना जाता हैकिन्तु उनके ग्रन्थों को पढने से पता चलता है कि खण्डन करने में वे अपनी मिसाल आप ही थे। पौराणिकों की आलोचना के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है-

    1."और भला चाहते हो तो घण्टा-सण्टा गंगा में बहाकर साक्षात्‌ भगवान्‌ के नर-देहधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा करो। करोड़ो रुपये खर्च कर बनाये गये काशी और वृन्दावन के श्रीठाकुर के दरवाजे खुलते और बन्द होते रहते हैं। अब ठाकुरजी कपड़े बदलते हैं और अब ठाकुरजी भोग पाते हैं और अब ठाकुरजी निपूतों के बाप-दादा के श्राद्ध में पिण्डा निगलते हैंऔर इधर जीते-जागते ठाकुर अन्न के बिना मर रहे हैं।" -पत्रावलीभाग 2पृ.199

    मूर्त्तिपूजकों के आडम्बरों से क्षुब्ध होकर उन्होंने यह सब एक पत्र में लिख डाला। अन्यथा "पर अपदेश कुशल" श्रीरामकृष्ण तथा उनके अन्धभक्त विवेकानन्द जीवनभर निरीह प्राणियों के रक्त मांस पर जीनेवाली काली की उपासना करते रहे और अब उनके शिष्य अपने आश्रमों में काली के साथ-साथ श्री रामकृष्ण को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी षोडशोपचार पूजा-अर्चना में सर्वात्मना प्रवृत्त हैं। इस प्रकार की पूजा में रहते मूर्त्तिपूजा की उनकी दार्शनिक व्याख्या को सुनकर ईसाइयों ने स्वामी के शिकागो भाषण की आलोचना कुछ इन शब्दों में की होगी- "सूक्ष्म तर्क व युक्ति के द्वारा मूर्तिपूजा की दार्शनिक व्याख्या करके वे पाश्चात्य जगत्‌ की आँखों में धूल झोंकने के लिए उद्यत हुए हैंक्योंकि जड़ के उपासक हिन्दू उक्त प्रकार की व्याख्या स्वप्र में भी नहीं सोच सकते।" - विवेकानन्द-चरित पृ. 193

    2. "जैन और बौद्ध आदि के फेर में पड़कर हम लोग तामसिक लोगों का अनुसरण कर रहे हैं। बुद्ध ने हमारा सर्वनाश किया और ईसा ने ग्रीस और रोम का सर्वनाश किया।" - प्राच्य और पाश्चात्यपृ.13-15

    "जहॉं कहीं भी बुद्ध पहुँचेवहीं उन्होंने हिन्दुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली सभी वस्तुओं को मिट्‌टी में मिलाने का यत्न किया।" - हिन्दूधर्मपृ.38

    ईसाई- (1) "सार्वजनिक भ्रातृभाव की बातें करते हैंकिन्तु जो ईसाई नहीं हैंउनके लिए नरक का द्वार खुला बताते हैं। इसलिए ईसाईयों का यह विश्वास कि कोई भी व्यक्ति तब तक अच्छा या भला नहीं हो सकता जब तक वह ईसाई न बन जाएउनकी सार्वजनिक उदारता का पर्दाफाश कर देता हैं।" - धर्मरहस्य पृ. 34

    2. एक दिन ईसाइयों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा कि तुम लोग हमारे देश के लागों को प्रशिक्षण देते होकपड़ा देते होपैसे देते होपर किस लिएइसलिए कि यहॉं आकर तुम हमारे पूर्वजों कोहमारे धर्म को कोसो और गालियॉं दो। तुम एक मन्दिर से गुजरते होयह कहते हुए-"ऐ मूर्त्तिपूजकों ! तुम सब नरक में जाओगेपरन्तु हिन्दू भोला हैइसलिए हॅंस देता हैयह कहते हुए कि मूर्खों को बकने दोपरन्तु तुम्हारे मिशनरियों को ध्यान रखना चाहिए कि यदि सारा भारत उठ खड़ा हुआ और हिन्द महासागर के तल में जमी सारी कीचड़ पाश्चात्य देशों के ऊपर फेंकने लगा तो जितना तुम हमारे साथ कर रहे होउसकी तुलना में वह कुछ भी नहीं होगा।" -ा127-29

    नीचे के दो उदाहरण स्वामीजी के मौलिक एवं अलौकिक चिन्तन के उदाहरण हैं-

    1. "बाल-विवाह से जाति अधिक पवित्र बनती है। बाल-विवाह ने हिन्दूजाति को सतीत्व धर्म से विभूषित किया है। बाल-विवाह की भावना को ग्रहण करने से ही यथार्थ सभ्यता का संचार हो सकता है।" - भारत में विवेकानन्दपृ. 430

    2. "पिछले सौ वर्षों में समाज-सुधार के लिए जो आन्दोलन हुएउनसे देश का कोई हित नहीं हुआ। केवल निन्दा और विद्वेषपूर्ण साहित्य की रचना से क्या लाभ?"- वहीपृ. 126-27

    स्वामी विवेकानन्द दूसरों की निन्दा करने में किसी से पीछे नहीं हैंकिन्तु वे इसका सर्वाधिकार अपने पास सुरक्षित रखना चाहते हैं। उनके विचार न तर्कप्रतिष्ठित हैं और न उनमें परस्पर कोई संगति या सामंजस्य है। न उनमें कहीं हिन्दुत्व के प्रति निष्ठा हैन भारतीयता के प्रति आग्रह। जैसे उनके गुरु आत्मकेन्द्रित थे वैसे विवेकानन्द गुरु-केन्द्रित थे। उनके द्वारा संस्थापित रामकृष्ण मिशन सन्‌ 1986 में कलकत्ता हाईकोर्ट में यह निर्णय कराने में सफल हो गया कि उन्हें हिन्दू न माना जाए। उनका तर्क है कि "हिन्दू वह होता है जो वेदों को मानता है। हमारे लिए वेदबाइबल व कुरान सब एक-समान हैंइसलिए हम हिन्दू नहीं हैं।"

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    Christians- (1) "Speak of public fraternity, but for those who are not Christians, the gates of hell are open. Hence the belief of Christians that no man can be good or good unless he is a Christian. It exposes their public generosity. " - Religious page 34

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-8

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    सर सैयद अहमद खॉं-19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के मुस्लिम नेताओं में सर सैयद अहमद खॉं अन्यतम थे। स्वामी दयानन्द के वे बड़े प्रशंसक थे। दोनों परस्पर मिल-बैठकर विभिन्न विषयों पर चर्चा में प्रवृत्त रहते थे। दिल्ली दरबार के अवसर पर आयोजित एकता सम्मेलन में स्वामीजी ने उन्हें आदरपूर्वक आमन्त्रित किया था। स्वामीजी के सम्पर्क में आनेवाला व्यक्ति उनके बौद्धिक वैभव से प्रभावित होकर उस दिशा में सोचने लगता था। सत्यार्थप्रकाश में मिथ्यार्थ की समीक्षा ने अनेक मुसलमान विद्धानों को कुरान अनुवाद और उसके आधार पर प्रचलित सिद्धान्तों में अपेक्षित संशोधन करने की प्रेरणा की। इस दिशा में सबसे पहले सर सैयद अहमद खॉं ने कदम बढाया और कुरान की बुद्धिगम्य व्याख्या करने का प्रयास किया,परन्तु जिस मजहब में मन्तक (Logic) की किताब के वर्क से पैर छू जाने से ही मनुष्य काफिर और इस कारण वाजिबुल कत्ल करार दे दिया जाता हो,वहॉं अक्ल को दखल कहॉं?मुसलमानों में उन्हें नास्तिक और प्रकृतिपूजक कहा जाने लगा। इस्लाम में काफिर तो वाजिबुल कत्ल है ही,जो इस्लाम के दायरे में हैं और अपने आपको मोमिन कहते हैं उनके सिर पर भी तलवार लटकती रहती है। यदि किसी ने थोड़ी-सी भी अक्ल की बात की या सुधार का नाम लिया या प्रचलित मान्यताओं या विश्वासों से वैमत्य प्रकट किया तो उसके विरुद्ध फतवा जारी कर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। आज सन्‌ 1994 में‘Satanic Verses’ के लेखक ब्रिटिश नागरिक सलमान रुशदी और "लज्जा" उपन्यास की बंगलादेशीय लेखिका तसलीमा नसरीन के साथ यही हो रहा है और हम तो यहॉं 19वीं शताब्दी की बात कर रहे हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    जैसा बोओगे वैसा काटोगे
    Ved Katha Pravachan _23 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    सर सैयद अहमद खॉं और उनके सहयोगियों ने इस्लाम का रूप सॅंवारना चाहा तो मुसलमान बौखला उठे। इस बौखलाहट के नमूने के तौर पर हम यहॉं उस पात्र को उद्‌धृत कर रहे हैं जो "तहजीबुल इखालाक" जिल्द अव्वल के पृष्ठ 261 पर छपा है। यह पत्र मजहरुल्मुल्क ने मौलवी महदी अली। (मोहसिनुल्मुल्क) को लिखा था -

    "हजरत न मुहत्सिब (हिसाब लेने वाला) हैजिसके दुर्रे का खौफ होन काजी है जिसके फतवे से दार (सूली) का डर हो। आजाद सरकार की हकूूमत हैवरना इस आजादी से बकबक करने की कैफियत मालूम हो जाती। अब तक कभी की आजादी आपको दुनिया से हासिल हो गई होती। इससे बेहतर है कि आप मजहवी तहरीरों से बाज आ जाएँवरना कोई जला हुआ मुसलमान कुछ कर बैठे तो सब खैरखाही इस्लाम की मालूम हो। दिलजले बुरे होते हैं।"

    सर सैयद अहमद खॉं के सहयोगियों पर इस प्रकार की धमकियों का क्या प्रभाव पड़ाहम नहीं कह सकतेपरन्तु सर सैयद क्या-से-क्या हो गयेयह यहॉं आगे दिये विवरण से पता लग जाता है। पंजाब के हिन्दुओं के सामने बोलते हुए सर सैयद अहमद खॉं ने कहा था-

    “The world ‘Hindu’ that you have used for yourself is, in my opinion not correct because that is not in my view the name of a religion. Rather, every inhabitant of Hindustan can call himself Hindu. I am, therefore, sorry that you do not regard me as a Hindu, though I am an inhabitant of Hindustan.”

    अर्थात्‌ आपने अपने लिए "हिन्दू" शब्द का प्रयोग करके ठीक नहीं किया। हिन्दू शब्द किसी मत या सम्प्रदाय का वाचक नहीं है। हिन्दुस्तान में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अपने को हिन्दू कह सकता है। मुझे खेद है कि आप लोग मुझे हिन्दू नहीं मानतेयद्यपि मैं हिन्दुस्तान का रहनेवाला हूँ।

    आज कौन विश्वास करेगा कि उपर्युक्त शब्द कभी इस देश में साम्प्रदायिकता की जननी अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खॉं के मुँह से निकले थे। कुछ ही दिन बाद इन्हीं सैयद अहमद खॉं ने लिखा -

    “I object ot every Congress, in every shape or form, whatsoever, which regards India as one nation.”

    अर्थात्‌ मैं किसी भी रूप में हिन्दुस्तान को एक राष्ट्र मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। इन शब्दों से स्पष्ट है कि सन्‌ 1947 में भारत विभाजन के लिए जिम्मेदार द्विराष्ट्रवाद (Two Nation Theory) के प्रवर्त्तक सर सैयद अहमद खॉं थेन कि मुहम्मद अली जिन्नाह। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी रूपी विषवृक्ष का बीजारोपण मुहम्मेडन एंग्लो ओरियण्टल कालिज (M.A.O. College) के रूप में सन्‌ 1875 में सर सैयद अहमद खॉं के द्वारा हुआ था।

    सन्‌ 1883 में बैक (Beck) नामक एक अंग्रेज की नियुक्ति कॉलिज में प्रिंसिपल के पद पर हुई। 1899 तक यह व्यक्ति अपने पद पर बना रहा। इन सोलह वर्षों में सर सैयद अहमद खॉं और उनका कालिज पूरी तरह मिस्टर बैक के प्रभाव में रहे। परिणामत: ये दोनों राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के केन्द्र बन गये। इंग्लैंड से भारत के लिए रवाना होने से पूर्व इन्हीं मि. बैक ने वहॉं एक भाषण दिया था। अपने भाषण में भारत के लिए प्रस्तावित संसदीय पद्धति का विरोध करते हुए मि.बैक ने कहा था कि इस प्रणाली के लागू हो जाने पर -

    “The Muslims will be under the majority opinion of the Hindus, a thing which will be highly resisted by the Muslims and which, I am sure they will not accept quietly.”

    इस प्रकार मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काकरहिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने के इरादे से बैक ने इस देश की धरती पर कदम रक्खा और जब तक यहॉं रहा इस दिशा में प्रयत्न करता रहा। सन्‌ 1885 में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। इसके तीन वर्ष बाद 1888 में मि. बैक के परामर्श और सहयोग से सर सैयद ने ‘Patriotic Association’की स्थापना की जिसका उद्देश्य ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह विश्वास दिलाना था कि स्वराज्य के लिए किये जा रहे आन्दोलन में भारत के मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं है। इंगलैंड लौटने पर सन्‌ 1895 में मि. बैक ने एक भाषण दिया जिसका सार संक्षेप अलीगढ कालिज के मैगजीन में इन शब्दों में छपा था-

    “A friendship between the English people and Muslims was possible but not between the Muslims and followers of other religions.”

    अर्थात्‌ अंग्रेजों के साथ तो मुसलमानों का मेल हो सकता हैकिन्तु अन्य मत वालो के साथ नहीं। इस प्रकार की भावना के रहते साम्प्रदायिक सद्‌भाव तथा देशभक्ति का विचार भी मुसलमानों के भीतर कैसे पनप सकता था?

    सन्‌ 1898 में सर सैयद की और 1899 में बैक  की मृत्यु के बाद बैक के उत्तराधिकारी थियोडार मौरिसन ने बैक का काम जारी रक्खा। वह मुसलमान विद्यार्थियों को बराबर भड़काता रहता था कि भारत में लोकतन्त्र का अर्थ होगा-अल्पसंख्यक मुसलमानों को लकड़हारेघसियारे और पानी भरनेवालें झींवर बना देना।

    मौरिसन के बाद कालिज के प्रिंसिपल के पद पर आर्चिबाल्ड नामक अंग्रेज की नियुक्ति हुई। उन दिनों बंग विभाजन के कारण लोगों में भारी उत्तेजना था। उसे शान्त करने के लिए अंग्रेज सरकार शासन में कुछ सुधार करना चाहती थी। जैसे ही इस बात की भनक आर्चिबाल्ड को पड़ीवह तत्काल शिमला पहुँचा और वायसराय लार्ड मिण्टो से साम्प्रदायिक आधार पर मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की मॉंग की। इसी निमित्त 1 अक्टूबर 1906 को एक शिष्टमण्डल सर आगाखॉं के नेत्तृत्व में भेजा गया। ब्रिटिश सरकार तो "फूट डालो और राज्य करो" (Divide and rule) के अनुसार इसके लिए पहले से तैयार बैठी थी। उसी दिन शाम को वायसराय की पत्नी लेडी मिण्टो के नाम भेजे गये पत्र में एक अधिकारी ने लिखा था-

    “A big thing has happened today. A work of statesmanship that will affect India and Indian history for a long time has been done. It is nothing less than the pulling out of 63 million people from joining the ranks of seditous opposition.”

    इस प्रकार 6 करोड़ मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा से काटकर हिन्दू और हिन्दुस्तान दोनों का कट्‌टर विरोधी बना दिया गया। उसी वर्ष इण्डियन मुसलिम लीग की स्थापना हुई।

    यह थे आधुनिक भारत के निर्माताओं और समाज-सुधारकों में अग्रणी माने जानेवाले सर सैयद अहमद खॉं।

    सर सैयद अहमद खॉं को खुश करने के लिए तत्कालीन ले. गवर्नर सर विलियम म्योर ने उन्हें अपना सलाहकार बना दिया। सर सैयद अहमद खॉं प्रभावशाली मुसलमान थे। अत: अंग्रेज जानबूझकर उन्हें बढावा दे रहे थे। सन्‌ 1871 में सरकार की ओर से बीस एकड़ भूमि पर एक विशाल भवन बनाकर उनके इलाहाबाद में स्थायी रूप से रहने के लिए दे दिया गया। सर सैयद ने अपने बेटे के नाम पर इस कोठी का नाम "महमूद मंजिल" रक्खा। वास्तव में यह देश में अंग्रेजी राज्य को सुदृढ करने लिए सुविचारित योजना के अन्तर्गत मुसलमानों को खुश करने की एक चाल थी। विधि की विडम्बना कहें या अंग्रेजों का दुर्भाग्य कि भारत में ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ करने की नीयत से बनाई गई यह कोठी कालान्तर में पं. मोतीलाल नेहरू द्वारा बीस हजार रुपये में खरीदी जाकर "आनन्द भवन" के नाम से अंग्रेजी हकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए देश के क्रान्तिकारी नेताओं का जुझारू अड्‌डा बन गई और अन्तत: वह "स्वराज भवन" के नाम से प्रसिद्ध हुई।

    अंग्रेज कृतघ्न नहीं निकला। मार्च 1947 में वायसराय बनकर भारत के लिए रवाना होने से पूर्व लार्ड माउण्टबेटन भारत की स्वतन्त्रता के कट्‌टर विरोधी चर्चिल से मिलने गये। इंग्लैंड की सहायता करने के लिए मुसलमानों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण कराते हुए चर्चिल ने माउण्टबेटन से कहा-

    “I am not going to tell you how to do it. But I tell you one thihng- whatever arrangements you make, you must see that you don’t harm a hair on the head of a single Muslim. They are the people who have been our friends and they are the people Hindus are going to oppress. So you must take steps that they can’t do it.” -Indian Express Magazine, April 4, 1982.

    मैं यह नहीं बताऊँगा कि तुम कैसे करोपरन्तु मैं तुम्हें एक बात अवश्य कहूँगा कि तुम जो भी व्यवस्था करोइस बात का ध्यान अवश्य रखना कि किसी एक भी मुसलमान के सिर का बाल बॉंका न हो। यही वे लोग हैं जो हमारे मित्र रहे हैं और यही लोग हैं जिनका हिन्दू दमन करेंगे। अत: तुम ऐसी व्यवस्था करना जिससे वे ऐसा कुछ न कर सकें। 

    लार्ड माउण्टबेटन ने वैसा ही किया। आती हुई स्वाधीनता को तो वह न रोक सकाकिन्तु भारत का बंटवारा इस प्रकार किया कि भारत का एक भाग काटकर पाकिस्तान के रूप में एक स्वतन्त्र देश मिल गया और शेष भारत पर मुसलमानों का अधिकार ज्यों-का-त्यों बना रह गया। क्योंकि पाकिस्तान की सृष्टि ही मुसलमानों की मतान्धता के कारण साम्प्रदायिकता के आधार पर हुई थी । इसलिए भारत में ही नहीं भारत पाक सीमाओं पर भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या और दो देशों के परस्पर वैमनस्य के कारण संघर्ष की स्थिति निरन्तर बनी रहती है। अल्पसंख्यकों के नाम पर मिलनेवाली अतिरिक्त सुविधाओं के कारण हिन्दू अपने को हीन-भावना से ग्रस्त अनुभव करने लगा है। कुल मिलाकर देश की स्थिति आज 1947 से पूर्व की अपेक्षा अधिक भयावह है।

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    "Hazrat is neither a Muhtsib (accountant), who is not afraid of the Durre, nor is the Qazi, whose fatwa is afraid of Dar (the cross). You would have gained freedom from the world at any time. It is better that you get rid of the religious Tehirs, else if a burnt Muslim does something, then everyone knows about Khairikhahi Islam. Diljale is bad"

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-9

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    ईसाइयत का आक्रमण- सन्‌ 1857 तक भारत पर अंग्रेजों का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से होता था। कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चेयरमैन मिस्टर मैंगलस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में अपने भाषण में कहा था-

    “Providence has entrusted the extensive empire of Hindustan to England in order that the banner of Christ should wave triumphant from one end to the other. Every one must exert all his strength that there should be no dilatoriness on any account in continuing in the country the grand work of making all Indians Christians.”

    विधाता ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलैंड के हाथों में इसलिए सौंपा है कि ईसा मसीह का झण्डा इस देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फहरा सके। प्रत्येक ईसाई का कर्त्तव्य है कि समस्त भारतीयों को अविलम्ब ईसाई बनाने के महान्‌ कार्य में पूरी शक्ति के साथ जुट जाए।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य
    Ved Katha Pravachan _22 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    भारतीय स्वाधीनता के प्रथम युद्ध की समाप्ति के दो वर्ष बाद इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लार्ड पामर्स्टन ने घोषणा की-

    “It is not only our duty but in our own interest to promote the diffusion of christianty as far as possible throughout the length and breadth of India.” - Christianity and Government of India. by Mayhew, P. 194.

    अर्थात्‌ यह हमारा कर्त्तव्य ही नहींअपितु हमारे हित में भी है कि भारतभर में ईसाइयत का अधिक-से-अधिक प्रसार हो।

    पंजाब के गवर्नर लार्ड री ने सन्‌ 1876 में ईसाई मिशनरियों के शिष्टमण्डल को प्रिंस ऑफ वेल्स के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था- “They are doing in India more than all those civilians, soldiers, judges and governers your highness has met.” जितना काम आपके सिपाहीजजगवर्नर और दूसरे अफसर कर रहे हैंउससे कहीं अधिक ये (मिशनरी) कर रहे हैं।

    विदेशी शासक और ईसाइयत का चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है। हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंग्रेजों के कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया है। आक्रमणकारी के रूप में जाने से पहले ईसाई मिशनरी भेजे जाते रहे। ईसाई मिशनरी द्वारा मैदान तैयार हो जाने के बाद सेनाएँ भेजी जाती रहीं। सैनिक शक्ति के बल पर शासन जम जाने पर सरकार की ओर से देश के ईसाईकरण में पूरी सहायता दी जाती थी। महात्मा गॉंधी जैसे समन्वयवादी तथा सर्वथा असाम्प्रदायिक व्यक्ति को भी स्वीकार करना पड़ा कि ईसाईयों द्वारा किये जा रहे सेवा-कार्यों का वास्तविक उद्‌देश्य असहाय लोगों की विवशता का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई बनाना है। आज भी केरलनागालैंडमिजोरमअसम आदि में जहॉं-जहॉं ईसाईयों का जोर हैवहॉं-वहॉं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का जोर है।

    मुसलमान इस देश में आततायी आक्रमणकारियों के रूप में आये और लगभग सात सौ वर्ष तक यहॉं राज्य किया। यह ठीक है कि भारत के मुसलमानों में प्राय: सभी इस देश के रहने वाले हैंकिन्तु उन्होंने स्वयं कभी भी इस देश पर शासन नहीं किया। यहॉं शासन करनेवाले - गुलामगौरतुगलकखिलजीलोधीमुगल-सभी विदेशी थेतथापि उनके विदेशी होने के कारण इस देश के मुसलमानों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इतिहास इस बात का साक्षी है। सच तो यह है कि कट्‌टर देशभक्त भी कलमा पढते ही देशविद्रोही बन जाता है। बड़े-से-बड़े राष्ट्रवादी (?) मुसलमान के हृदय में भी जो आदर विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गजनवीमुहम्मद गोरी या बाबर के लिए है वह इस देश की धरती से उत्पन्न रामकृष्णप्रताप और शिवाजी के लिए नहीं है।

    भारत की अस्मिता पर प्रहारलार्ड मैकाले ने अपने मित्र मिस्टर राउस को लिखा था-

    "अब हमें केवल नाममात्र का नहींसचमुच नवाब बनना है और वह भी परदा रखकर नहींखुल्लमखुल्ला बनना है।"(मिल्स कृत "भारतीय इतिहास" खण्ड 4पृ.332)।

    इसी योजना के अन्तर्गत 1899 में आर्थर ए. मैक्डानल ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा। ईसाई मत के प्रचार से भारत के  उद्धार की बाद कहने से पहले यह सिद्ध करना आवश्यक था कि भारत के लोग सदा से बर्बर और असभ्य रहे हैं। कारणयदि उन्हें पहले से सभ्य मान लिया जाए तो वे उन्हें सभ्य बनाने का दावा कैसे कर सकते थेमैक्डानल रचित पुस्तक में जो कुछ लिखा गया उसके निर्देशनार्थ कतिपय वाक्य यहॉं उद्‌धृत किये जाते हैं-

    "इतिहासपूर्व काल में जिन आर्यों ने भारत को जीता था वे स्वयं पुराने समय में दूसरों से पराजित होते चले आये थे। (पृ.408)। भारत में इतिहास का अस्तित्व ही नहीं है। उन्होंने कभी इतिहास लिखा ही नहीं थाक्योंकि उन्होंने कभी कोई ऐतिहासिक कार्य किया ही नहीं था (पृ.10-11)। ईरान को भारत कीमती-कीमती भेंट दिया करता था।"

    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब दूसरे दशक में पढने के लिए इंगलैंड में रहे तो वहॉं से उन्होंने अपने सहपाठी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान्‌ पण्डित क्षत्रेशचन्द्र चट्‌टोपाध्याय को बहुत-से पत्र लिखे थे। उनमें से उनके कैम्ब्रिज से 12 फरवरी 1921 को लिखे एक पत्र का कुछ अंश यहॉं उद्‌धृत कर रहे हैं-

    "साधारण अंग्रेज युवक (एवम्‌ वयस्क भी) भारत के सम्बन्ध में न अधिक जानता है और न जानना चाहता है। वह जानता है कि अंग्रेज जाति एक महान्‌ जाति है एवम्‌ भारतवासियों को सभ्य बनाने के लिए अपनी हानि सहकर भी अंग्रेज भारत गये हैं। इस धारणा के लिए जिम्मेदार हैं हमारे एंग्लो-इंडियन अफसर एवं पादरी लोग। क्रिश्चियन पादरी हैं हमारी संस्कृति के महाशत्रु। यह बात मैंने इस देश में आकर समझी। वे पैसा इकट्‌ठा करने के उद्‌देश्य से पब्लिक को यह समझाने का प्रयास करते है कि भारतवासी एक असभ्य जाति हैं और भील एवम्‌ कोल जातियों के फोटो मॅंगवाकर इस देश के लोगों को दिखाते हैं।   -नवभारत टाइम्सबम्बई22 जनवरी 1994

    इस प्रकार भारत सदा से एक पराभूत होनेवाला देश रहा है। यह सार-संक्षेप है उस इतिहास का जिसे मिथ्या होते हुए भी हमने अपनी मानसिक दासता के कारण स्वीकार किया हुआ है।

    हीनभावना से ग्रस्त कोई व्यक्तिसमाज अथवा राष्ट्र ऊपर उठने की सोच भी नहीं सकता। इसलिए दयानन्द ने सबसे पहले मैक्डानल की बातों का प्रत्याख्यान करते हुए लिखा-"यह आर्यावर्त ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। इसीजिए इस भूमि का नाम "स्वर्ण भूमि" हैक्योंकि यही स्वर्ण आदि रत्नों को उत्पन्न करती है। पारस मणि पत्थर सुना जाता हैयह बात तो झूठ हैपरन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है जिसको लोहेरूपी दरिद्र विदेशी छूते ही स्वर्ण अर्थात्‌ धनाढ्‌य हो जाते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेके पॉंच सहस्त्र वर्षों से पूर्व समयपर्यन्त आर्यों का सार्वभौमिक चक्रवर्ती अर्थात्‌ भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात्‌ छोटे-छोटे राजा रहते थे"। -सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11

    वैदिक धर्म में सार्वजनिक हित की भावना से प्रेरित मातृभूमि के प्रति अत्यन्त आदर का भाव होना स्वाभाविक है। (अथर्ववेद का भूमिसूक्त 12-1) इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अपने विषय का यह अनूठा गीत है। संसार के किसी भी साहित्य में वैसा सुन्दर गीत शायद ही मिले। उसकी एक झलक विष्णुपुराण के इस श्लोक में मिलती है-

    गायन्ति देवा: किल गीतकानिधन्यास्तु ये भारतभूमिभागे।
    स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूतेभवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्‌।।

    यह अपने मुंह मियॉं मिट्‌ठु बनने-जैसी बात नहीं है। ऋषि दयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढने के बाद मैक्समूलर ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service= I.C.S.) में नियुक्त युवकों को इंगलैंड से भेजे जाते समय भारत का परिचय देते हुए कहा था- "आप अपने अध्ययन के लिए जो भी भाषा अपनाएँ-भाषाधर्मदर्शनविज्ञानकानूनपरम्पराएँ- हर विषय का अध्ययन करने के लिए भारत ही सर्वाधिक उपयुक्त क्षेत्र है। आपको अच्छा लगे या न लगेपरन्तु वास्तविकता यही है कि मानवता के इतिहास की बहुमूल्य एवं निर्देशक सामग्री भारतभूमि में संचित हैकेवल भारतभूमि में। (हम भारत से क्या सीखें)

    “We have all come from the East - what we value most has come to us from the East and by going to the East everybody ought to feel that he is going to this ‘old home’ full of memories, if only we can red them.” -Ibid

    अर्थात्‌ यह निश्चित है कि हम सब पूर्व से आये हैं। इतना ही नहींजो कुछ भी हमारे जीवन में मूल्यवान्‌ और महत्तवपूर्ण हैवह सब हमें पूर्व से ही मिला है। ऐसी स्थिति में जब भी हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यही सोचना चाहिए कि हम अपनी पुरानी स्मृतियों को संजोए हुए अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।

    फ्रांस के महान्‌ सन्त तथा विचारक क्रूजे (Cruiser) ने लिखा है-

    “If there is country which can rightly claim the honour of being the cradle of human race or at least the scane of primitive civilisation, the successive development carried in all parts of the ancient world, and even beyond, the blessings of knowledge which is the second life of man, that country assuredly is India.” -J. Beatie : Civilisation and Progress.

    अर्थात्‌ यदि कोई देश वास्तव में मनुष्यजाति का पालक होने और उस आदि सभ्यता का जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार कियास्त्रोत होने का दावा कर सकता है तो निश्चय ही वह देश भारत है ।

    जैकालियट संस्कृत के विद्वान्‌ थे। उन्होंने फ्रैंच भाषा में ‘La Bible dans la Inde’ (बाइबल इन इण्डिया) नामक एक विश्वविख्यात ग्रन्थ की रचना की थी। पं. भगवद्दत्तजी के अनुसार इस ग्रन्थ का प्रकाशन सन्‌ 1869 में हुआ था। "भारत में बाइबल" नाम से हिन्दी में इसका अनुवाद पं. सन्तराम बी.ए. ने किया था। जैकालिस्ट के अनुसार मिश्रजूडियायूनानरोम आदि सब देश अपने जातिभेदअपनी मान्यताओं और धार्मिक विचारों में भारत के ब्राह्मणों का ही अनुकरण करते थे और उसके ब्राह्मणों तथा याज्ञिकों को आज भी वैसे ही मानते हैं जैसे कभी पहले वैदिक समाज की भाषाधर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र को मानते थे।

    अमेरिकन विदुषी श्रीमती व्हीलर विल्लौक्स (Wheeler Willox) ने इस विषय में लिखा है-

    “It (India) is the land of the Great Vedas - the most remarkable works, containing not only religious ideas for a perfect life but also facts which science has since proved true. Electricity, Redium, Electrons, Airships - all seem to have been known to the seers who found the Vedas.”

    अर्थात्‌ यह (भारत) उन महान्‌ वेदों की भूमि हैजो अद्‌भुत ग्रन्थ हैंजिनमें न केवल पूर्ण जीवन के लिए उपयोगी धार्मिक सिद्धान्त बताये गये हैंअपितु उन तथ्यों का भी प्रतिपादन किया गया है जिन्हें विज्ञान ने सत्य प्रमाणित किया है। बिजलीरेडियमइलेक्ट्रॉनविमान आदि सभी कुछ वेदों के द्रष्टा ऋषियों को ज्ञात प्रतीत होता है।

    इस देश का निर्माण वही कर सकता था जिसे इसकी मिट्‌टी से प्यार होजो इस देश को अपना मानता होअर्थात्‌ अपने को इस देश पर बाहर से आकर बलात्‌ अधिकार करनेवाला विदेशी आक्रमणकारी न मानकर इस देश का मूल निवासी मानता हो। इसकी सभ्यता तथा संस्कृति में जिसकी आस्था हो,इसके इतिहास पर जिसे गर्व होइसके महापुरूषों के प्रति श्रद्धा हो और जो वैदिक मान्यताओं के आधार पर इसका निर्माण करने के लिए कटिबद्ध हो। गत सहस्त्रों वर्षों में इस प्रकार का अलौकिक व्यक्तित्व दयानन्द के रूप में अवतरित हुआ। वह न हुआ होता तो हिन्दुस्तानइण्डिया-जैसा नामधारी देश तो होताकिन्तु आर्यावर्त्त अथवा भारत कहीं देखने में न आता। इसलिए आधुनिक भारत का निर्माता दयानन्द के सिवाय कौन हो सकता है?

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    That is, this (India) is the land of the great Vedas, which are wonderful texts, which not only contain the religious principles useful for the whole life, but also the facts which have been proved by science to be true. Electricity, radium, electrons, planes etc. all seem to be known to the seers of the Vedas.

     

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  • भारतीय नारी के उत्थान में महर्षि का योगदान

    भारतीय नारी के उत्थान में महर्षि दयानन्द का क्या योगदान है? यह जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि सृष्टि के आरम्भ अर्थात्‌ वैदिक काल में नारी की क्या स्थिति थी। भारतीय नारी सृष्टि के आरम्भ से ही अनन्त गुणों की आगार रही है। पृथ्वी सी क्षमा, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की सी गम्भीरता, चन्द्रमा जैसी शीतलता, पर्वतों की सी मानसिक उच्चता हमें एक साथ नारी के हृदय में दृष्टिगोचर होते हैं। वह दया, करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचण्ड चण्डी का रूप भी धारण कर सकती है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है । इसलिये प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी ने कहा है-

    नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
    विश्वासरजत नग पग तल में
    पीयूष स्रोत सी बहा करो,
    जीवन के सुन्दर समतल में।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुखी मानव जीवन के वैदिक सूत्र एवं सूर्य के गुण

    Ved Katha Pravachan -10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    वैदिक काल में नारियों को उच्च स्थान प्राप्त था। मनु महाराज का कथन है-

    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
    यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।।

    अर्थात्‌ जहॉं स्त्रियों की पूजा होती है वहॉं देवता निवास करते हैं। जहॉं उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती वहॉं सब क्रियायें निष्फल हो जाती हैं। वैदिक काल में नारी को गृहलक्ष्मी कहकर पुकारा जाता था। उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे तथा वैसी ही शिक्षा मिलती थी। गृहस्थी का कोई भी कार्य उनकी सलाह के बिना नहीं किया जाता था। कोई भी धार्मिक कृत्य उनके अभाव में अपूर्ण समझा जाता था। सीता जी की अनुपस्थिति में श्री रामचन्द्र जी ने उनकी स्वर्ण प्रतिमा रखकर अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण किया था। धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में ही नहींअपितु रणक्षेत्र में भी वे अपने पति को सहयोग देती थीं। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अद्वितीय कौशल से महाराज दशरथ को भी चकित कर दिया था।

    अपनी योग्यताविद्वत्ता और बुद्धि के बल पर कई नारियों ने पुरुषों को भी शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी इसकी ज्वलन्त उदाहरण है। उस समय गृहस्थाश्रम का सम्पूर्ण अस्तित्व नारी पर आधारित था। बिना गृहिणी के गृह की कल्पना भी नहीं की जाती थी। मनु महाराज ने कहा है:-

    न गृहं गृहमित्याहु: गृहिणी गृहम्‌ उच्यते।
    गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यसदृशं मतम्‌।।

    गृहिणी के कारण ही घर वस्तुत: घर कहलाता है। गृहिणी के बिना घर जंगल के समान है। संसार परिवर्तनशील है। उसकी प्रत्येक गतिविधि में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता है। मुगलों के शासन काल में देश की परतन्त्रता के साथ-साथ स्त्रियों की भी स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ। नारी का प्रेमबलिदान और सर्वस्व समर्पण की भावना उसके लिए घातक बन गई। उनको पर्दे में रहने के लिये विवश किया गया। उनकी शिक्षा का अधिकार भी उनसे छीन लिया गया । नारी की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । वह घर की चार दीवारी में बन्द होकर अविद्या और अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकने लगी। उसका पग-पग पर अपमान होताठुकरायी जातीपर वह अशिक्षित होने के कारण इन सभी यातनाओं को मौन होकर मूल पशु की तरह सहती रही। इस समय छोटी-छोटी कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था तथा बेमेल विवाह होते थे । परिणामस्वरूप छोटी उम्र में ही कन्यायें विधवा हो जाती थीं और विधवा का हर क्षेत्र में तिरस्कार किया जाता था। पर्दा प्रथाबाल विवाहविधवाओं की हीन दशाशिक्षा का अभावअनमेल विवाह आदि कुरीतियों के कारण नारी की स्थिति बहुत शोचनीय थी।

    समय के अनुसार हमारे देश में राजनैतिक चेतना के साथ-साथ नारियों में भी जागृति हुई। भारतीय नेताओं का ध्यान सामाजिक कुरीतियों की तरफ गया। इन कुरीतियों को दूर करने के लिये सन्‌ 1824 में महर्षि दयानन्द एक देवदूत बनकर आये। जब महर्षि दयानन्द अज्ञानता और अन्धविश्वास को दूर करने के लिये निकले तो उन्होंने अनुभव किया कि जब तक नारी शिक्षित नहीं होगीतब तक हमारा समाज भी अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहेगा।

    founder of arya samaj

    "मातृमानपितृमानआचार्यवान पुरुषो वेद" के अनुसार उन्होंने माता को प्रथम गुरु बताया। उनकी  प्रेरणा से कन्या गुरुकुलों की स्थापना की गई। स्त्रियॉं जो अब तक घर की चारदीवारी में बन्द थी अब पर्दा छोड़कर शिक्षा प्राप्त करने के लिये घरों से बाहर निकलीं। स्वामी जी ने कहा कि स्त्री और पुरुष दोनों समान शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। दोनों के अधिकार समान हैं।

    स्वामी जी से पहले हमारे देश के धार्मिक नेताओं का कहना था कि वेद पढने का अधिकार केवल सवर्ण पुरुषों को ही हैस्त्रियॉं तथा निम्न जाति के लोग वेद नहीं पढ सकते- स्त्री शूद्रौ नाधीयाताम्‌। परन्तु स्वामी जी ने इसका विरोध किया। वे स्त्री जाति को वैदिक काल वाली उन्नत और उज्ज्वल पदवी देना चाहते थेजिसमें सती साध्वी मातायें देश का मान थीं। स्वामी जी ने कहा कि चाहे कोई स्त्री हो या शूद्र जाति का व्यक्ति होसभी वेद पढ सकते हैं। यह सब स्वामी जी के प्रयास का ही परिणाम है कि आज महिलायें पुरुषों के साथ मिलकर देवयज्ञ करती हैं और देवमन्त्रों का सस्वर पाठ करती हैं।

    महर्षि दयानन्द का समय सामाजिक चेतना का समय था। उस समय राजा राममोहन राय सती प्रथा तथा विधवा विवाह के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे । महर्षि स्वामी दयानन्द ने नारी के सर्वांगीण विकास पर बल दिया। उस समय बाल विवाह होते थेजिससे छोटी अवस्था में कन्यायें मां बन जाती थीं। स्वामी जी ने बाल विवाह की भर्त्सना की और सोलह साल से कम आयु की लड़कियों के विवाह को अनुचित बताया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विधवा विवाह को भी प्रोत्साहन दिया। उन्होंने इस बाल पर बल दिया कि जो विधवा स्त्री संयम और एकान्त का शुद्ध जीवन व्यतीत न कर सकेउसके लिये पुन: विवाह करके गृहस्थाश्रम की शोभा बढाना उचित है। समाज में भ्रष्टाचार कम करने के लिये विधवा विवाह अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी ने कहा कि यदि पुरुष विधुर हो जाने पर दूसरा विवाह कर सकता है तो एक स्त्री को भी अधिकार है कि वह विधवा हो जाने पर अपना दूसरा जीवन साथी चुन सके। इन सब कार्यों के लिये उन्होंने कई आन्दोलन भी किये।

    जब स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना की तो आर्य समाजों ने धर्म प्रचार के साथ सर्वप्रथम स्त्रियों की अशिक्षा दूर करने की ही आवाज उठाई थी। यह स्वामी जी के परिश्रम का ही परिणाम हुआ कि श्रीमती सरोजिनी नायडू ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर पद को सुशोभित किया तथा श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित विदेशी राजदूत के पद पर आसीन हुई और श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने सारे भारतवर्ष का भार अपने बलिष्ठ कन्धों पर सम्भाले रखा। यदि स्वामी जी नारी समाज में इतनी क्रान्ति न लाते तो नारी आज प्रधानमन्त्रीमुख्यमन्त्री आदि न बनकर घर की चार दीवारी में कैद होती। महर्षि दयानन्द के अथक प्रयासों के कारण आज नारी अबला नहीं है बल्कि वह सबला हैजो पुरुष को भी अन्धकार में भटकने से बचा सकती है और अपनी बुद्धिविवेक तथा विद्वता से अपने परिवारसमाज और यहॉं तक कि देश को भी उन्नत बना सकती है।

    स्वामी दयानन्द ने नारी समाज का इतना उद्धार किया कि उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। अब हमें देखना यह है कि भारतीय नारी के क्या आदर्श होने चाहिएंभारतीय सभ्यता का मूल मन्त्र "सादा जीवन उच्च विचार" था। परन्तु आज की नारियॉं सादे जीवन से कोसों दूर हैं। आज के इस समय में जब देश में हजारों व्यक्तियों के पास न खाने को अन्न हैन पहनने को कपड़ा। ऐसे समय में राष्ट्र की सम्पत्ति का एक बहुत बड़ा भाग श़ृंगार के साधनों में लुटा दिया जाता हैजिसका कोई भी महत्त्व नहीं है।

    आज की नारी तितली की तरह अपने शारीरिक  बाह्य सौन्दर्य को सुरक्षित रखने में हर समय तत्पर रहती है। पुरुष को मोहित करने के लिये अपने आपको सजाने की प्रवृत्ति में ही वह अपना अधिकांश समय और धन नष्ट कर देती है। जब तक नारी की यह आन्तरिक दुर्बलता दूर न होगीउसका भीतरी व्यक्तित्व नहीं बदलेगा। जब तक नारी अपनी विद्वत्ताशालीनतावैदिक ज्ञानसहनशीलतासदाचारिताआत्मसंयम आदि गुणों से अपने को अलंकृत नहीं करेगीतब तक नारी ओजस्विनी और तेजस्विनी नहीं बन सकती और वह पुरुष की काम वासना का शिकार बनती रहेगी जैसा कि आजकल हो रहा है। इन गुणों को धारण करने से ही नारी सच्चे अर्थों में आदर्श गृहिणी बन सकती हैजिसकी कल्पना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की अथवा जैसी नारी का स्वरूप हमारे वैदिक काल में था।

    स्वतन्त्र भारत में नारी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह देश की सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करे। दहेज प्रथाबाल विवाहविधवा विवाहअनमेल विवाह आदि कुछ ऐसी भयानक कुरीतियॉं समाज में चल रही है इन सब कुरीतियों को दूर करने के लिये सरकार चाहे कितने भी कानून बनाये पर तब तक यह पूर्णतया दूर नहीं हो सकती जब तक कि नारी जाति स्वयं जागरूक नहीं होगी। कृष्णा बाला (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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    According to the time, there was awakening in our country along with political consciousness. The attention of Indian leaders went towards social evils. In 1824, Maharishi Dayanand came as an angel to remove these evil practices. When Maharishi Dayanand came out to remove ignorance and superstition, he realized that till the time the woman is educated, our society will also be wandering in the darkness of ignorance.

     

    Maharishi Dayanand's Contribution to the Upliftment of Indian woman | Arya Samaj Indore - 9302101186 Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj Mandir Marriage Indore | Arya Samaj Annapurna Indore | Arya Samaj Mandir Helpline Indore for Dindori - Guna - Mumbai City - Mumbai Suburban - Jaipur - Jaisalmer | Official Web Portal of Arya Samaj Bank Colony Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj | Arya Samaj Mandir | Arya Samaj in India | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj in India | Arya Samaj in Madhya Pradesh | Vedas | Maharshi Dayanand Saraswati | Vaastu Correction Without Demolition | Arya Samaj helpline Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Online | Arya Samaj helpline | Hindi Vishwa | Intercast Marriage | Hindu Matrimony | Havan for Vastu Dosh Nivaran | Vastu in Vedas | Vedic Vastu Shanti Yagya | Vaastu Correction Without Demolition

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  • भाव परिवर्तन

    यदि आज आपने एक बार हॉं कहने का साहस बटोर लिया है, तो विश्वास कीजिये कि भविष्य पर आपका अधिकार हो चुका। फिर इस पृथ्वीमण्डल पर कोई शक्ति ऐसी नहीं है, जो आपको आपके इस अधिकार से अधिक समय तक वंचित रख सके। क्योंकि आप और आपके विचार अनन्त काल के लिये अमर हैं और भविष्य आपका अनुचर बन चुका है।

    जो पुरुष धैर्यवान्‌ है और जिसने एक बार प्रतिज्ञा कर ली है, उसके लिये पृथ्वीमण्डल घर के आंगने के समान है, समुद्र बरसाती गड्‌ढे के समान है और पाताल लोक भूमि के तुल्य तथा सुमेरु पर्वत बाम्बी के बराबर है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    चारों वेदों के अलग अलग नाम क्यों

    Ved Katha Pravachan _58 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    क्या मनुष्य का जीवन इसलिये है कि वह सदा अपने भाग्य का रोना रोता रहे? उठो और देखो, पूरब में सूर्य अपनी पूर्ण प्रतिमा और सर्वकलाओं से उदय हो रहा है। सोचो, और बताओ! मनुष्य का मार्ग आज तक कौन रोक पाया है? क्या उच्च पर्वत श्रेणियॉं? क्या विशाल नदियॉं और अगाध तथा अनन्त समुद्र? नहीं!

    आप कहेंगे कि मृत्यु हमारे मार्ग का रोड़ा है। परन्तु ऐसा नहीं है। आप पुनः कहेंगे कि दरिद्रता, दासता, कलियुग रोग और ईर्ष्या हमारे मार्ग को अवरुद्ध करेंगे। परन्तु विश्वास करिये वे आपकी आज्ञानुसार बदलेंगे और सहायक होंगे, यदि आपने एक बार ही अपना सुमार्ग निश्चयपूर्वक सदा के लिये चुन लिया है और दूसरी इच्छाओं को स्थान न देने की प्रतिज्ञा कर ली है। आपको अपना उद्देश्य दृढ़ निश्चय की भूमि पर जमाना होगा और जब एक बार उसको भले प्रकार जमा लिया गया, तो बड़े से बड़े मोहक प्रलोभनों से वह आपकी रक्षा करेगा। जब ऐसा हो जाएगा तब संसार की प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु आपके स्पर्श मात्र से आपके उद्देश्य से एकता प्राप्त करने के लिये बाध्य हो जाएगी । क्योंकि आपका उद्देश्य स्वयं सम्पूर्ण जीवन के प्रवाह के अनुकूल निर्माण किया गया है।

    इस प्रकार आप संघर्षमय जीवन को कलामय बनाने में, झाड़-झंकाड़पूर्ण वन को स्वर्ग-कानन बनाने में सफल मनोरथ होंगे।

    जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन जैसी। -आचार्य डॉ.संजय देव

    जीवनोपयोगी चिन्तन

    1. किसी भी व्यक्ति पर कीचड़ उछालना बड़ा सरल काम है किन्तु अपने गिरेबान में झॉंककर देखना निश्चय ही टेढ़ी खीर है।
    2. किसी भी व्यक्ति की शिक्षा उसके संस्कारों के आधार पर प्रमाणित होती है, उपाधियों के आधार पर नहीं। सदाचारी एवं विचार-प्रधान नागरिक ही किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होती है।
    3. भाग्यवादी एवं आलसी में मानसिक अपंगता होती है।
    4. आत्मनिर्भरता ही जीवन है।
    5. किसी भी व्यक्ति का चिन्तन उसकी सच्चरित्रता (या चरित्रहीनता) का परिचय देता है।
    6. जो मॉं-बाप संस्कारविहीन सन्तानें समाज और देश पर थोपते हैं, वे निश्चय ही बहुत बड़ा अपराध करते हैं।
    7. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक स्तर एवं जीवन-स्तर का निर्माण उसके मानसिक स्तर के आधार पर होता है।
    8. अर्जित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "भूषण' होता है जबकि आरोपित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "दूषण'।
    9. व्यक्ति की जिजीविषा का आधार इसकी कर्मशीलता होती है।
    10.हर दम्पत्ति को अपनी गृहस्थी मिल-जुलकर चलानी चाहिए। आर्थिक दृष्टि से भी तथा गृहविज्ञान की दृष्टि से भी। आज के ज्ञान-विज्ञान प्रधान युग में दम्पत्ती को अकादमिक उपलब्धियॉं अर्जित करने के लिए सम्पूर्ण मन से सचेष्ट रहना चाहिए।
    11."गीता' जीने की कला का मार्गदर्शक ग्रन्थ है। - डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

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    Is the life of a man so that he always weeps for his fortune? Rise and see, in the east, the sun is rising with its full image and all the arts. Think and tell! Who has stopped the path of man till date? What high mountain ranges? What vast rivers and deep and everlasting seas? No!

     

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  • मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

    आचार्य डॉ. संजयदेव के प्रवचनों से संकलित 

    आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌। जैसा व्यवहार हम अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करें। जैसा व्यवहार हम अपने साथ नहीं चाहते, उससे विपरीत व्यवहार दूसरों के साथ भी न करें । यदि मैं चाहता हूँ कि कोई मेरी मॉं-बहिन- बेटी को बुरी दृष्टि से न देखे, तो मैं भी किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से न देखूं । क्योंकि जैसे कोई मेरी मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता है तो मुझे दुःख होता है, मुझे कष्ट होता है। ऐसे ही यदि मैं किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता हूँ तो उसके भी पिता, भाई या पुत्र को कष्ट होता है । धर्म की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि हम सबके साथ अपनी आत्मा के साथ जैसा व्यवहार चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु पश्यति स पश्यति।  जो अपनी आत्मा के अनुकूल सबके साथ व्यवहार करता है, वही वास्तव में देखने वाला होता है। और जो ऐसा व्यवहार करता है, वही अपने जीवन में आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति कर सकता है । त्रासदी यह है कि दुनिया के लोग दुःख से तो बचना चाहते हैं, परन्तु दुःखों के कारण पाप को छोड़ना नहीं चाहते । 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है

    Ved Katha Pravachan _57 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    दुनिया के लोग सुख प्राप्त करना तो चाहते हैं परन्तु सुख देने वाले 
    धर्म का आचरण करना नहीं चाहते। सुख के कारण धर्म को अपने जीवन में ढालोगे, धर्म का अपने जीवन में आचरण करोगे, तभी सुख प्राप्त होगा। नहीं तो सुख प्राप्त नहीं होगा। और यह भी निश्चित रूप से जान लीजिए कि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है। जैसा कि महर्षि कणाद कहते हैं वैशषिक दर्शन में- यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। जिससे इस लोक में और परलोक में उन्नति हो वो धर्म होता है । इस लोक में जैसे धर्म से उन्नति होती है, धर्म से ही परलोक में भी अभ्युदय होता है। मरने के बाद जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, वही हमारे साथ जाएंगे। और हमारा कल्याण, हमारा उत्थान, हमारा उद्धार हमारे अच्छे कर्मों से ही होगा, जिसे शास्त्रों में धर्म कहा गया है। वेद से लेकर महर्षि वेदव्यास पर्यन्त, शंकराचार्य और दयानन्द पर्यन्त जितने भी ग्रन्थ और महापुरुष तथा ऋषि हुए हैं, उन सबका यह मानना है कि मरने के बाद धर्म ही एक साथी होता है। महर्षि मनु कहते हैं-

    एक एव सुहृद धर्मो निधनेऽप्युनुयाति यः।
    शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति।।

    एक ही जो धर्म है वही अपना सगा होता है, वही अपना परम मित्र होता है, जो मरने के बाद भी साथ जाता है। अन्य सब कुछ तो यहीं रह जाता है। जब यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैं महाभारत में, प्रश्न करते हैं कि मरने के बाद कौन मित्र होता है, मरने के बाद भी कौन साथ जाता है ? युधिष्ठिर कहते हैं मरने के बाद धर्म साथ जाता है। मरने के बाद धर्म ही सहयोगी होता है। जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, जो हमारे द्वारा किया हुआ धर्म और अधर्म है, वो मरने के बाद साथ जाएगा और उन धर्म-अधर्म मेें से धर्म हमारा सहयोगी होगा। धर्म हमारा परम मित्र होगा। वही हमारा साथ देगा । कहते हैं -

    धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने।
    देहश्चितायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छतिजीव एक।।

    धनानि भूमौ। जो आपने धन-धान्य कमाया है, वैभव-सम्पत्ति एकत्रित की है, वो सब या तो बैंकों में रखा रह जाएगा या भूमि में आपने गा़ड़ा है अथवा दबाया है वहॉं रखा रह जाएगा । आपके साथ नहीं जाएगा। पशवश्च गोष्ठे। और जो आपके पास गा़डियॉं-घोड़े, कारें या अन्य अच्छे-अच्छे वाहन हैं या पशु आदि हैं, वो सब जो आपकी जगह है गाड़ियों को रखने की या पशुशाला है वहीं रह जाएंगे। वो भी साथ नहीं जाएंगे। और नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने। यहॉं तक कि आपकी जो पत्नी है वह भी घर के दरवाजे तक साथ जाएगी। पत्नी भी घर के दरवाजे से आगे जाने वाली नहीं है। जिसको आपने प्राणों से प्यारी कहा है या जिसने आपको प्राणों से प्यारा कहा है, जिसने आपको प्राणप्रिय कहा है, वह भी मरने के बाद घर के दरवाजे तक ही साथ जाएगी। आगे नहीं जाएगी। और जनाः श्मशाने। जिनके लिए हम जान छिड़कते थे, जिनके लिए हम रात को दो बजे भी आने के लिए तैयार होते थे, वो लोग भी श्मशान तक ही साथ देंगे। आगे साथ नहीं देंगे। यावत्‌ जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। इस सिद्धान्त को लेकर के हम आगे बढ़े हैं कि जब तक जियें सुख से जियें, ऋण लेकर भी घी पीयें। इसको मानकर के हमने अपने शरीर को मोटा-तगड़ा बनाया है। ये शरीर भी हमारे साथ नहीं जाएगा। इसलिए कहते हैं देहश्चितायाम्‌। ये शरीर भी जलने तक, अग्नि तक साथ रहेगा। साथ में ये भी नहीं जायेगा। धर्मानुगो गच्छति जीव एक। केवल धर्म ही एक वो तत्व है जो जीव के साथ जाता है, मनुष्य के साथ जाता है। इसलिए कहते हैं-

    कमा ले धर्म-धन प्यारे साथ तेरे जो जाएगा।
    धन-वैभव और माल खजाना धरा यहीं रह जाएगा।।

    जो भी कुछ आपने कमाया है वह सब यहीं रखा हुआ रह जाएगा। यदि आपने अपने सब कर्त्तव्यों का निर्वहन धर्म के साथ किया है, धर्म के साथ अपने सब कर्त्तव्यों को पाला है तो वह धर्म निश्चित रूप से आपके अन्त समय में साथी होगा। आचार्य चाणक्य जिनका मैंने उदाहरण दिया था वो भी यही कहते हैं-

    विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
    व्याधिस्तस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।

    यदि हम प्रदेश में है जहॉं हमारा कोई परिचय नहीं है, तो विद्या हमारी मित्र होती है। यदि हम विद्वान हैं, ज्ञानवान हैं तो विद्या हमारा साथ देती है। भार्या मित्रं गृहेषु च। घर में पत्नी मित्र होती है। व्याधिस्तस्योषधं मित्रम्‌। यदि हम बीमार हो जाते हैं तो उस अवस्था में औषधि हमारी मित्र होती है और क्या कहते हैं! मनु महाराज द्वारा और अन्य ग्रन्थों में जो कहा गया है, उनके स्वर मेें स्वर मिलाकर चाणक्य भी यही कहते हैं। दुनिया के सबसे बड़े अर्थशास्त्री, जिन्होंने धन-वैभव कमाने का अच्छा रास्ता दुनिया को बताया था, जिनका अर्थ-प्रबन्धन पर सबसे प्राचीन ग्रन्थ है अर्थशास्त्र। वो भी यही कहते हैं धर्मो मित्रं मृतस्य च। मरने के बाद तो धर्म ही मित्र होता है। इसलिए हमारे जितने भी शास्त्र हैं, धर्मग्रन्थ हैं, वो सब यही उपदेश देते हैं कि क्योंकि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है, इसलिए प्रयत्न से धर्म का संचय करो। 

    धर्म के मार्ग पर चलने के लिए और धर्म के लक्षणों में ईश्वर को मानना अनिवार्य शर्त नहीं है। ये बात ध्यान में रख लेना । ईश्वर को मानना धर्म के लिये अनिवार्य शर्त नहीं है। परन्तु ईश्वर को मानने से धर्म का जो मार्ग है वो सुगम हो जाता है। यह अवश्य है। यदि हम ईश्वर पर विश्वास करेंगे, यदि हममे आस्तिक भावना होगी, तो धर्म पर चलने में हमारा रास्ता सुगम हो जाएगा। धर्म पर चलने में हमें सहयोग मिलेगा। जो व्यक्ति ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है, कोई भी कार्य करने से पहले जिसको ये मालूम है कि परमात्मा सर्वव्यापक है और मैं जो भी कार्य कर रहा हूँ वो सब देख रहा है। 

    क्योंकि जो व्यक्ति यह मान लेता है कि ईश्वर सब जगह है, जहॉं भी हम पाप कर्म करते हैं वो हमें सब जगह साक्षी भाव से देख रहा है, तो हम पाप कर्म से बच जाते हैं और अच्छे मार्ग की ओर चल पड़ते हैं। ईशोनिषद्‌ यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। उसमें यही कहा गया है कि परम पिता परमात्मा को सब जगह व्यापक मानते हुए अपने कर्मों का निर्वहन करो, अपने कर्त्तव्यों को करो, तो जीवन में कभी भी दुःख नहीं उठाना पड़ेगा। ईशावास्यम्‌ इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्‌। इस संसार में जो कुछ भी है वो सब ईश्वर से ढका हुआ है। सब स्थानों में ईश्वर है। इसलिए यदि ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करोगे तो तुम कभी भी सन्देह भाव में नहीं पड़ोगे। 

    अगला मन्त्र यह कहता है कि ईश्वर को साक्षी मान करके-

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
    एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

    वेदोक्त धर्मयुक्त कर्मों को करते हुए सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो।  कैसे कर्म करो? धर्मयुक्त करो। वेदोक्त कर्म करो। उन कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो। धर्मयुक्त कर्म करोगे, तो जैसे मैं अपने साथ व्यवहार करता हूँ वैसा ही दूसरों के साथ करूँ, तो दूसरे लोग भी मेरे साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, मुझे अच्छा लगेगा,मुझे सुख मिलेगा। और मुझे सुख मिलेगा तो मेरी आयु भी सौ वर्ष हो जाएगी। क्योेंकि सब दृष्टियों से चाहे प्राकृतिक पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे अन्य जल-वायु आदि पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे प्राणियों के प्रति, मनुष्यों के प्रति मित्र की भावना की दृष्टि हो, सब दृष्टियों से हम धर्म का पालन करेंगे, तो उस धर्म का पालन करने से हमें सुख मिलता है।  दुनिया के जितने भी आज तक वेद से लेकर धर्मग्रन्थ हुए हैं वो सब धर्मयुक्त कर्म करने का उपदेश देते हैं। 

    मैंने बताया था कि धर्म का मतलब सम्प्रदाय, मजहब या पन्थ नहीं है। सम्प्रदाय, मजहब और पन्थ तो अनेकोें हो सकते हैं। परन्तु धर्म एक ही होता है।  और वो ईश्वर प्रणीत होता है। धर्म, सम्प्रदाय और पन्थ तो व्यक्ति स्थापित करते हैं। और धर्म को स्वयं ईश्वर स्थापित करते हैं। हमारे अन्तःकरण में धर्म के पालन की प्रेरणा देते हैं। हम जब कोई गलत काम करते हैं तो हमारे हृदय में जो आवाज आती है, भय, शंका और लज्जा उत्पन्न होती है, वह परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। और जब हम कोई अच्छा कार्य करते हैं तो आनन्द और उत्साह की वृद्धि होती है। वह भी परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। 

    धर्म में और सम्प्रदाय में मूलभूत अन्तर है। आज ये जो कहा जा रहा है कि संसार में धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं, होते रहेंगे या होंगे, यह मिथ्या है। वर्तमान में लोगों को धर्म की परिभाषा समझ में ही नहीं आ रही है । धर्म क्या होता है यह जानते ही नहीं। और एक और बात का जोरों से प्रचार होता है। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। एक तरफ तो यह कहते हैं कि धर्म के नाम से झगड़े होते हैं और एक तरफ उससे विपरीत बात कहते हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। 

    जबकि तथ्य यह है कि मजहब ही सिखाता आपस में बैर करना। दुनियॉं में जितनी भी लड़ाईयां हुई हैं या हो रही हैं या होंगी आगे भी, वो सब अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं। अपनी बात को मनवाने के लिए होती हैं। और अपनी बात को मनवाने की जहॉं बाध्यता होती है, अपनी बात को मनवाने का जहॉं आग्रह होता है, अपनी विचारधारा की कट्‌टरता को जहॉं फैलाने की बात होती है, वही सम्प्रदाय होता है, वही मजहब होता है, वही पन्थ होता है। उसे ही मत कहा जाता है। यही कारण था कि हमारे देश भारतवर्ष में विदेशी लोग अपने एक हाथ में अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को लेकर के और एक हाथ में तलवार लेकर के यहॉं आए थे। उस तलवार के बल पर और अपने उस सम्प्रदाय की पुस्तक के बल पर सारे देश को अत्याचार से युक्त कर दिया था।  सारे देश पर अन्याय ढाया था। वो धर्म के नाम पर नहीं हुआ, सम्प्रदाय के नाम पर हुआ। 

    धर्म तो यह सिखाता है, धर्म तो यह कहता है कि हे प्रभो! धर्म का अनुयायी, वेद का अनुयायी, सनातनधर्मी प्रातः उठते ही मैंने बताया था, कामना करता हैकि- हे प्रभो! सर्वे भवन्तु सुखिनः। सब सुखी रहें। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। सब अच्छा देखें, सर्वे सन्तु निरामयाः। सब निरोग हों। मा कश्चिद्‌ दुःखभाग्‌ भवेत्‌। किसी को कोई दुःख नहीं हो। सनातनधर्मी तो यह मानता है कि चाहे वेद को मानने वाला हो या न हो, आस्तिक हो या नास्तिक हो, राम को मानने वाला हो या रहीम को मानने वाला हो, कृष्ण को मानने वाला हो या अल्लाह को मानने वाला हो, हे प्रभो! सबका कल्याण करना। सनातन धर्म के जितने भी ग्रन्थ हैं, वो सब इसी धर्म पर चलने का उपदेश देते हैं। जब अत्याचार और अन्याय उत्पन्न होता है, जब अत्याचार और अन्याय का इस धरती पर प्रार्दुभाव होता है, तो इसी धर्म की रक्षा के लिए हमारे महापुरुष अवतरित होते हैं। गीता का आरम्भ तो धर्म से ही हुआ है। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः, मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय। धर्मक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में पाण्डवों ने और कौरवों ने इकट्‌ठे होकर क्या किया, हे संजय! मुझे बताओ। धर्म से प्रारम्भ हुआ। क्योेंकि अन्याय और अत्याचार किया जा रहा था। कर्त्तव्यों का ठीक-ठीक पालन नहीं हो रहा था। दूसरे के भाग को, दूसरे के हिस्से को हड़पा जा रहा था। द्वेषाग्नि सुलग रही थी। भगवान कृष्ण ऐसी स्थिति में ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होकर अवतरित हुए थे। और क्या कहते हैं गीता में- 

    परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
    धर्मसंस्थापनार्थायसम्भवामि युगे युगे।।

     

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    There is a fundamental difference between religion and community. Today it is being said that in the name of religion in the world, there are fights and fights taking place in the name of religion, whether it will happen or will happen, it is false. Presently people do not understand the definition of religion. They do not know what religion is. And another thing is propagated loudly. Religion does not teach hating each other. On the one hand it is said that there are quarrels in the name of religion and on the one side it says the opposite thing that religion does not teach hating one another.

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  • मन की दिव्यशक्ति

    ओ3म्‌ वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः।
    प्रजावन्तः सचेमहि।। ऋग्वेद 10.57.6

    ऋषिः बन्धुः सुबन्धु आदयः।। देवता विश्वेदेवाः।। छन्दः-गायत्री।। 

    विनय - हे सोम! तुम्हारा दिया हुआ तुम्हारी महाशक्ति का अंशभूत मन हमारे शरीरों में विद्यमान है। इस मन का, इस तुम्हारी अमूल्य देन का हमें गर्व है। इस मन के कारण ही हम मनुष्य हैं। इस मनशक्ति के कारण ही हम पशुओं से ऊँचे हुए हैं। तो क्या अपने शरीरों में मन जैसी प्रबल शक्ति को धारण किये हुए भी हम लोग तुम्हारे व्रत में न रह सकेंगे? बेशक तुम्हारे व्रत का पालन करना बड़ा कठिन है। तुमने जगत्‌ में जो उन्नति के नियम बनाये हैं, ठीक उनके अनुसार चलना बड़ा दुःसाध्य है। पर जहॉं तुमने ये कठिन नियम बनाये हैं, वहॉं तुमने ही हममें मन की अतुल शक्ति भी दी है। अतः हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अपनी मनःशक्ति के प्रयोग द्वारा सदा तुम्हारे व्रत में ही रहेंगे, कभी इसको भंग न करेंगे। कठिन से कठिन प्रलोभन व विपत्ति के समय में भी मनःशक्ति द्वारा हम व्रत में स्थिर रहेंगे। 

    Ved Katha Pravachan _89 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    पर यह सब व्रतपालन किसलिए है? यह तुम्हारी सेवा के लिए है। यह तुम्हारा दिया मन इसी काम के लिए है। हम चाहते हैं कि केवल यह हमारा मन ही नहीं, किन्तु हमारे मन की प्रजा भी तुम्हारी सेवा में ही काम आवे। मन में जो एक रचनाशक्ति है, उस द्वारा प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कुछ रचना कर जावे, कुछ निर्माण कर जावे। यह रचना ही मन की प्रजा है। यदि हम, हे सोम! सर्वथा तुम्हारे व्रत में होंगे तो हमारी यह रचना (प्रजा) भी निःसन्देह तुम्हारी सेवा के लिए ही होगी, इसी में व्यय होगी। इस प्रकार हम और हमारी प्रजा सदा तुम्हारी सेवा में रहें, तुम्हारी सेवा में ही अपना जीवन बिता देवें। अब यही संकल्प है, यही इच्छा है, यही प्रार्थना है। 

    शब्दार्थ - सोम=हे सोमदेव! तनूषु=अपने शरीरों में मनः=मन को, मनःशक्ति को बिभ्रतः=धारण किये हुए वयम्‌=हम लोग तव व्रते=तुम्हारे व्रत में हैं, तुम्हारे व्रत का पालन करते हैं और प्रजावन्तः=प्रजा-सहित हम लोग सचेमहि=तुम्हारी सेवा करते रहें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    आत्म जीवन निर्माण

    ओ3म्‌ अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ।
    अहं सूर्य इवाजनि।। (ऋग्वेद 8.6.10, साम. पू. 2.2.6.8, अथर्व. 20.11.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।। 

    विनय - मैं सूर्य के सदृश हो गया हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि मैं मनुष्यों में सूर्य बन गया हूँ। मुझ सूर्य से सत्यज्ञान की किरणें सब ओर निकल रही हैं। जैसे इस हमारे सूर्य से प्राणिमात्र को ताप, प्रकाश और प्राण मिल रहा है, सबका पालन हो रहा है, इसी प्रकार मैं भी ऐसा हो गया हूँ कि जो कोई भी मनुष्य मेरे सम्पर्क में आता है उसे मुझसे ज्ञान, भक्ति और शक्ति मिलती है। मैं कुछ नहीं करता हूँ, पर मुझे अनुभव होता है कि मुझसे स्वभावतः जीवन की किरणें चारों ओर निकल रही हैं तथा चारों ओर के मनुष्यों को उच्च, पवित्र और चेतन बना रही हैं। इसमें मेरा कुछ नहीं है। मैंने तो प्रभु के आदित्य (सूर्य) रूप की ठीक प्रकार से उपासना की है। अतः उनका ही सूर्यरूप मुझ द्वारा प्रकट होने लगा है। मैंने बुद्धि द्वारा सूर्य की उपासना की है। मनुष्य का बुद्धिस्थान (सिर) ही मनुष्य में द्युलोक (सूर्य का लोक) है। मैंने अपनी बुद्धि द्वारा सत्य का ही सब ओर से ग्रहण किया है और ग्रहण करके इसे धारण किया है। धारण करने वाली बुद्धि का नाम ही "मेधा' है। इस प्रकार मैंने मेधा को प्राप्त किया है। द्युलोक के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर द्युलोक को अपने में ग्रहण किया है। इसीलिए मैं सूर्य के समान हो गया हूँ। द्युलोक में स्थित प्रभु का रूप ऋतरूप है, सत्यरूप है। मैंने अपनी सब बुद्धियॉं, सब ज्ञान, उन सत्यस्वरूप पिता से ही ग्रहण किये हैं। मैंने इसका आग्रह किया है कि मैं सत्य को ही, केवल सत्य को ही अपनी बुद्धि में स्थान दूँगा। इस तरह मैंने प्रभु के द्युरूप की सतत उपासना की है, ऋत की मेधा का परिग्रह किया है। इस सत्यबुद्धि के धारण करने के साथ-साथ मुझमें भक्ति और शक्ति भी आ गई है। मेरा मन और शरीर भी तेजस्वी हो गया है। पालक पिता के सब गुण मुझमें प्रकट हो गये हैं। मैं सूर्य हो गया हूँ। हे मुझे सूर्यसमान करने वाले मेरे कारुणिक पिताः! तुझ ऋत की मेधा को सब प्रकार से पकड़े हुए मैं तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ। 

    शब्दार्थ - अहम्‌ इत्‌=मैंने तो हि=निश्चय से पितुः=पालक पिता ऋतस्य=सत्यस्वरूप परमेश्वर की मेधाम्‌=धारणावती बुद्धि को परिजग्रभ=सब ओर से ग्रहण कर लिया है, अतः अहम्‌=मैं सूर्यः इव=सूर्य के समान अजनि=हो गया हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay- I have become like the sun. I feel that I have become the sun in humans. The rays of Satyagyan are emanating from me all over the sun. Just like this our sun is getting heat, light and life, all are being followed, similarly I have also become such that any person who comes in contact with me gets knowledge, devotion and strength from me. I do not do anything, but I feel that the rays of life are naturally coming out from me and making the people around them higher, pure and conscious. I have nothing in it. I have worshiped Lord Aditya (Sun) form properly.

     

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  • मन्यु का पात्र

    ओ3म्‌ समस्य विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः।
    समुद्रायेव सिन्धवः।। (ऋग्वेद 8.6.4 साम. पू. 2.1.5.3. अथर्व. 20.107.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय - इन्द्र परमेश्वर जहॉं हमारे पिता हैं, उत्पादक और पालक हैं, वहॉं वे हमारे कल्याण के लिये रुद्र भी हैं, संहारकर्त्ता भी हैं। जब जगत्‌ में किसी स्थान पर संहार की आवश्यकता आ जाती है तो प्रभु अपने मन्यु को प्रकट करते हैं। मानो अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं, अपने तीसरे रूप को प्रकाशित करते हैं। उस कल्याणकारी शिव के मन्यु का तेज जब देदीप्यमान होने लगता है, तो नाश होने योग्य सब संसार पतङ्गे की भॉंति आ-आकर उसमें भस्म होने लगता है। मन्यु का पात्र कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता, सब बहे चले आते हैं। देखो, समय-समय पर बड़े-बड़े संग्राम, दुष्काल या महामारी आदि रूपों में प्रभु का वह महाबलवाला मन्यु जगत्‌ में प्रकट होता रहता है। 

    सब मनुष्य अपने विनाश की ओर खिंचे चले जा रहे होते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता। जैसे सब नदियॉं समुद्र की ओर बही चली जा रही हैं व उसमें जाकर समाप्त हो जाएँगी, लीन हो जाएंगी, उसी प्रकार प्रभु का मन्यु काल-समुद्र बनकर उन सब प्राणियों को अपनी ओर खींचता जा रहा है, जिनका कि समय आ गया है। मनुष्यों के किये हुए पाप उन्हें विनाश की ओर वेग से खींचे ले जा रहे हैं। जिन्होंने इस संसार को जरा भी तह के अन्दर घुसकर देखा है, वे देखते हैं कि किस-किस विचित्र ढंग से मनुष्य अपने मृत्युस्थल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। धन्य होते हैं अर्जुन जैसे दिव्यदृष्टिपात पुरुष जिन्हें कि काल का यह आकर्षण दिखाई दे जाता है और जो देखते हैं- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। हम लोग तो मौत के मुँह में घुसे जा रहे होते हैं, पर कुछ पता नहीं होता। हममें से अपनी शक्तियों का बड़ा गर्व करने वाले बड़े-बड़े प्रख्यात लोग जिस समय संसार को जितने अभिमान के साथ अपना पराक्रम दिखा रहे होते हैं, उसी समय वे उतने ही वेग से मृत्यु की ओर दौड़े जा रहे होते हैं, पर उन्हें कुछ पता नहीं होता है। जब उनका सब ठाठ एक क्षण में गिर पड़ता है, सामने मौत खड़ी दिखती है, तब जाकर प्रभु का रूद्ररूप उन्हें दीख पड़ता है। प्यारो! तब तुम अभी से क्यों नहीं देखते कि उसके मन्यु के सामने जब संसार झुका पड़ा है। पापी होकर कोई भी मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा नहीं रह सकता, जिससे तुम अभी से उसके मन्यु का पात्र न बनने की समझ पा सको। 

    शब्दार्थ - अस्य = इस परमेश्वर की मन्यवे = मन्यु, "क्रोध', दीप्ति के सामने विश्वा विशः = सब प्रजाएँ कृष्टयः = सब मनुष्य सं नमन्त = ऐसे झुक जाते हैं समुद्राय इव सिन्धवः = जैसे कि नदियॉं समुद्र में समा जाने के लिए उधर स्वयं बही जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    हे नाथ !

    ओ3म्‌ नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
    इन्द्राभिमातिषाह्ये।।ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3।।

    ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः।। देवता इन्द्र ।। छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु "अभिमाति' है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि ""यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ'', "यह मैंने किया'' तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ ! 

    शब्दार्थ - शतक्रतो = हे अनन्तकर्म ! हे अनन्त प्रज्ञ ! विश्वाभिः गीर्भिः = मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि = तेरे नामों को ईमहे = लेता रहता हूँ। इन्द्र = हे परमेश्वर ! अभिमातिषाह्ये = शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    Ved Katha Pravachan _88 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


     

    Vinay- Indra Parmeshwar, where our father is our producer and foster, he is also Rudra for our welfare, also a savior. When there is a need to kill at some place in the world, God reveals his mind. As if we open our third eye, we publish our third form. When the glory of that welfare Shiva's manu becomes resplendent, then all the world that is perishable begins to devour in it like the husband. No person can avoid Manu, all of them come away. See, from time to time, in the form of big battles, droughts or epidemics etc., that great power of Lord Manu continues to appear in the world.

     

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  • महर्षि दयानन्द की धर्म सम्बन्धी देन

    धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2

    Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता हैठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगेनिज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?

    जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत्‌ पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयीसामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीनक्षत्रियवैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुईउन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।

    वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात्‌ धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्‌धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैंमूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एकनिराकारनिर्विकारसर्वज्ञसर्वव्यापक हैउसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ हैकर्म करने में स्वतन्त्र हैपरन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी हैजीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता। 

    यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह  तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान्‌ भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री

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    When the conduct of religion or the relationship with the soul was severed, another great evil was born. On the basis of birth, people became the contractors of religion. Just by being born in a Brahmin's house, even a person with a black letter buffalo started to worship Guruvata in the society and a scholar and a pious person born in a Shudra's house also became a victim of disrespect and abuse. Due to this, the entire social system was torn apart, social values ​​were destroyed. 

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