लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
राष्ट्रभाषा-प्रसारक दयानन्द- स्वामी दयानन्द ने स्वरचित "ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका" में "वेदानां नित्यत्वविषय:" के अन्तर्गत लिखा, "जो जिस देशभाषा को पढता है उसको उसी का संस्कार होता है।" भाषा के हर शब्द की एक पृष्ठभूमि होती है। वह तत्तद् देश की संस्कृति और परम्पराओं से बनता है। भाषा के बदल जाने पर उस संस्कृति विशेष में उथल-पुथल होने की पूरी सम्भावना रहती है। संस्कृति समाज की आत्मा होती है। उसके नष्ट हो जाने पर वह समाज या राष्ट्र जीवित नहीं रहता। जब हम "यूनानो मिस्त्र रोमॉं सब मिट गये जहॉं से" कहते हैं तो उनका यह मिटना इन्हीं अर्थों में होता है। इस देश की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए इस देश की भाषा को जीवित रखना और उसका विकास करना स्वामीजी आवश्यक समझते थे। उनके अपने शब्दों में "मैंने आर्यावर्त में भाषा का ऐक्य सम्पादन करने के लिए अपने सकल ग्रन्थ आर्यभाषा में लिखे हैं।" स्वामीजी अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के पढने के विरोधी नहीं थे। किन्तु वे इस बात को जानते थे कि अंग्रेजी विदेशी शासकों की भाषा है और उन्हें इस बात का दु:ख था कि वह यहॉं के लोगों की मातृभाषा बनती जा रही है। इसीलिए उन्होंने अन्य देशीय भाषाओं से पहले देवनागरी अक्षरों के अभ्यास पर बल दिया।
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Ved Katha -17 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
एक सज्जन ने जब स्वामीजी से उनके ग्रन्थों के उर्दू में अनुवाद की अनुमति चाही तो उन्होंने लिखा, "जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी वे इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्त्तव्य समझेंगे। अनुवाद तो विदेशियों के लिए होता है।" मैडम ब्लेवैटस्की को उन्होंने लिखा था कि "मेरा विचार आपको अनुवाद करने से रोकने का नहीं है, क्योंकि बिना अंग्रेजी अनुवाद के यूरोपीय जातियॉं सत्य के प्रकाश को नहीं पा सकेंगी, किन्तु भारत की जनता मेरे भाष्य के अंग्रेजी में प्रकाशित होने पर संस्कृत और हिन्दी के अभ्यास को त्याग देगी। मेरा वेदभाष्य समझने के लिए संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन, जो मेरा लक्ष्य है, नष्ट हो जाएगा।" स्वामीजी का किसी भी भाषा से विरोध या द्वेष नहीं था। किन्तु उनका यह कहना था कि जो इस देश में उत्पन्न होकर इस देश की भाषा नहीं सीख सकता उससे और क्या आशा की जा सकती है? इसलिए उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का जानना प्रत्येक आर्य के लिए अनिवार्य कर दिया।
स्वामीजी उर्दू को म्लेच्छ भाषा नहीं कहते थे। लेकिन पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी के अनुसार उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी "प्रेमघन" की उपस्थिति में एक दिन उर्दू को "वारविलासिनी" और हिन्दी को "कुलकामिनी" कहा था। इसका एक कारण यह भी था कि उस समय उनके परम हितैषी और प्रशंसक सर सैयद अहमदखॉं भी हिन्दी को "गॅंवारू भाषा" कहकर उसका उपहास करते थे। आज वही गॅंवारू भाषा राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित है।
रामधारीसिंह "दिनकर" के अनुसार यह कहना अप्रासङ्गिक न होगा कि हिन्दी-साहित्य के इतिहास में रीतिकाल के ठीक बादवाले काल में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी वह थी स्वामी दयानन्द का पवित्रतावादी दृष्टिकोण। इस काल के कवियों को श़ृंगार की कविता लिखते समय ऐसा प्रतीत होता था जैसे स्वामी दयानन्द पास खड़े सब-कुछ देख रहे हैं। इस भय से छायावादी कवि भी प्रत्यक्ष नारी के स्थान पर "जुही की कली" या "विहगिनी" का आश्रय लेकर अपने भावों का विवेचन करने लगे। प्रेमचन्द के आरम्भिक साहित्य पर स्वामी दयानन्द और उनके द्वारा संस्थापित आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट है। जयशंकर "प्रसाद" और मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य में यत्र-तत्र जो इस देश के अतीत का गौरवगान किया है उसके मूल में भी दयानन्द द्वारा "सत्यार्थप्रकाश" में वर्णित प्राचीन आर्यावर्त की गौरव-गाथा का विस्तार है और "दिनकर" के अनुसार साकेत के राम तो दयानन्द के "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" नारा लगाते प्रतीत होते हैं।
हिन्दी को देश की एकता के लिए आवश्यक समझ लेने पर स्वामीजी जीवन के अन्तिम क्षण तक उसके प्रचार-प्रसार के लिए सर्वात्मना समर्पित रहे। उन्हेांने श्यामजीकृष्ण वर्मा को वेदभाष्य के पार्सलों पर देवनागरी में पते लिखने की प्रेरणा की। महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित समाजसुधारक श्री गोपाल हरिकृष्ण देशमुख को आर्यभाषा के प्रचार में पुरुषार्थ करने को प्रेरित किया। उन्हीं की प्रेरणा से कर्नल अल्काट ने हिन्दी पढना आरम्भ किया।
स्वामीजी ने तत्कालीन राजाओं को प्रेरित किया कि वे अपने राज्यों का काम हिन्दी में चलाएँ। तदनुसार उदयपुर के महाराणा ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने जोधपुर नरेश को पत्र लिखा कि राजकुमारों को पहले हिन्दी (देवनागरी), फिर संस्कृत और तत्पश्चात् (यदि समय हो) अंग्रेजी पढाएँ। 12 अगस्त सन् 1883 को राज्य के प्रधानमन्त्री के अधिकार से कर्नल प्रतापसिंह ने एक दिन उर्दू में लिखी 50-60 अर्जियॉं फाड़कर फेंक दीं। उसी दिन से राज्य का सारा काम हिन्दी में होने लगा।
भारतीय संविधान की धारा 343 के अनुसार-
“The official language of the Union of India shall be Hindi in Devanagri Script.”
अर्थात् संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी गई हिन्दी होगी। पुन: धारा 351 के अनुसार-
“It (Hindi) shall draw for its vocabulary, primarily on Sanskrit and secondarily on other languages.”
अर्थात् वह (हिन्दी) अपने शब्दभण्डार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करेगी। संस्कृत को यह वरीयता या प्रतिष्ठा क्यों दी गई, इसका कारण इसी धारा (351) के आरम्भिक वाक्य में इन शब्दों में बताया गया है-
“It shll be the duty of the Union to promote the spread of the Hindi language, to develp it so that it may serve as a medium of expresson for all the elements of the composite culure of India.”
अर्थात् संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी का प्रसार बढाए और उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि हिन्दी को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया क्योंकि देश में प्रचलित भाषाओं में 60 से 90 प्रतिशत तक तत्सम या तद्भव शब्द संस्कृत के हैं।
भारतीय संविधान में उक्त धाराओं का समावेश 14 सितम्बर 1949 को हुआ, परन्तु इसके लिए आन्दोलन का सूत्रपात स्वामी दयानन्द ने सन् 1882 में हण्टर कमीशन के पास हिन्दी के पक्ष में भेजे गये ज्ञापनों से किया था। अंग्रेजी सरकार ने 1882 में डाक्टर हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया था। इसका उद्देश्य राजकार्य को जो उस समय प्रधानता उर्दू-फारसी और अंग्रेजी में चल रहा था, आर्यभाषा हिन्दी मेंं प्रवृत्त करना था। स्वामी दयानन्द इस अवसर को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इसके लिए विशेष पुरुषार्थ किया। हिन्दी के प्रसङ्ग में यह बात समझ लेनी चाहिए कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास में स्वामीजी किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात से ग्रस्त होने के कारण प्रवृत्त नहीं हुए थे। इसके विपरीत वे राष्ट्रभाषा की आवश्यकता अनुभव करते हुए हिन्दी तक जा पहुँचे थे। सन् 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से भेंट के बाद उन्होंने समझ लिया था कि संस्कृत के देववाणी होते हुए भी उसमें जनवाणी होने की सामर्थ्य नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि "किसी भी देश पर मध्यप्रदेश का शासन होता है, सीमान्त प्रदेशों का नहीं। भारत के मध्य प्रदेशों की भाषा हिन्दी है, वही इस देश की राष्ट्रभाषा होगी।" स्वामी दयानन्द ने अपनी दिव्य दृष्टि से इसी बात को डेढ सौ वर्ष पूर्व देख लिया था।
जब भारत सरकार ने देश के काम-काज की भाषा के निर्धारण हेतु हण्टर कमीशन गठित किया तो स्वामीजी ने देश भर की आर्यसमाजों को आदेश दिया कि वे उक्त कमीशन के पास भारी संख्या में हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन भेजें। आर्यसमाज फर्रुखाबाद के स्तम्भ बाबू दूर्गादास को भेजे गये अपने पत्र में उन्होंने लिखा, "यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूके, वह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ तो आशा है, मुख्य सुधार की नींव पड़ जाएगी।" स्वामीजी के प्रयासों से देश के कोने-कोने से हिन्दी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने हेतु स्मरण-पत्र भेजे गये। कानपुर से भेजे मैमोरियल से ज्ञात होता है कि लगभग दो लाख मनुष्यों के हस्ताक्षरों से युक्त दो सौ ज्ञापन हण्टर कमीशन के पास भेजे गये थे। दयानन्द वह दिन देखना चाहते थे जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का प्रचार होगा।
पं. जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा या राज्यभाषा बने। उन्होंने डटकर विरोध किया पर उनकी एक न चली। जब हिन्दी का राजभाषा होना निश्चित-सा हो गया तो उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कहा कि हिन्दी राजभाषा हो जाए, परन्तु 15 वर्षों तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी चलती रहे। लोगों ने नेहरू का मन रखने के लिए "इतनी-सी" बात मान ली। हमारी तुष्टिकरण की नीति से देश के बड़े-बड़े काम बिगड़ते आये हैं। इसी के फलस्वरूप पाकिस्तान बना । राम तो 14 वर्षों के बाद वन से लौट आये थे पर 66 वर्ष बीत गये, हिन्दी अपने आसन पर न लौटनी थी, न लौटी और न अब कभी लौटने की आशा है। 15 वर्ष बीतने से दो वर्ष पूर्व ही 1963 में नेहरू ने संसद से एक प्रस्ताव पास कराके अंग्रेजी को अमरता का वरदान दे दिया। उस प्रस्ताव के अनुसार यदि एक भी प्रदेश हिन्दी का विरोधी होगा और अंग्रेजी को बनाये रखना चाहेगा तो हिन्दी की सौत के रूप में अंगे्रजी प्रतिष्ठित रहेगी। उस समय ऐसा एक प्रदेश नागालैण्ड था अब "वीटो" करनेवाले कुछ और प्रदेश भी हो गये हैं। इस प्रकार हिन्दी के समूचे देश की एकमात्र राजभाषा बनने पर सदा के लिए रोक लग गई है।
किन्तु राज्यों को अपने-अपने यहॉं हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग की छूट बनी रही। तब राजीव गॉंधी ने स्वत: या नूरजहॉं के संकेत पर सदा के लिए हिन्दी को और उसी के साथ धीरे-धीरे सभी क्षेत्रीय भाषाओं को निकालकर अंग्रेजी के निष्कण्टक राज्य का मार्ग प्रशस्त करने का संकल्प किया। "एके साधे सब सधे" का गुरुमन्त्र जपने पर पता चला कि यदि अकेली संस्कृत को मार दिया जाए तो इस देश की सभी भाषाएँ अपनी मौत आप मर जाएँगी, क्योंकि इनका आत्मा संस्कृत में हैं।
साधारणतया भी इन भाषाओं में 60 से 90 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं और पारिभाषिक शब्द तो शत-प्रतिशत संस्कृत से ही मिलेंगे। पारिभाषिक शब्द सर्वत्र प्राचीन भाषाओं से ही मिलते हैं। अंग्रेजी बड़ी सम्पन्न भाषा मानी जाती है, किन्तु इसमें लगभग 75 प्रतिशत पारिभाषिक शब्द ग्रीक या लेटिन मूल के और 15 प्रतिशत जर्मन और फ्रेंच मूल के हैं। संस्कृत के बिना हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ शून्य हो जाएँगी- इसे स्पष्ट करने के लिए तो एक पूरा व्याख्यान अपेक्षित होगा। जब ये सब भाषाएँ दिवालिया हो जाएँगी तो विवश होकर अंग्रेजी को छाती से लगाना होगा और इसी के साथ इस देश की सभ्यता, संस्कृति, परम्परा एक साथ बिदा हो जाएँगे।
राजीव सरकार द्वारा निर्धारित नई शिक्षानीति के अन्तर्गत स्कूलों के पाठ्यक्रम में से संस्कृत को लगभग पूरी तरह निकाल दिया गया है।
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But the states remained free to use Hindi or regional language at their respective places. At that time, Rajiv Gandhi pledged to pave the way for the perfect state of English by removing Hindi and all regional languages gradually, at the behest of either auto or Nurjahan. On chanting the Gurmantra of "AK Sadhe Sab Sadhe", it was found that if Sanskrit alone is killed, then all the languages of this country will die on their own, because their souls are in Sanskrit.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...