ओ3म् समस्य विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः।
समुद्रायेव सिन्धवः।। (ऋग्वेद 8.6.4 साम. पू. 2.1.5.3. अथर्व. 20.107.1)
ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।।
विनय - इन्द्र परमेश्वर जहॉं हमारे पिता हैं, उत्पादक और पालक हैं, वहॉं वे हमारे कल्याण के लिये रुद्र भी हैं, संहारकर्त्ता भी हैं। जब जगत् में किसी स्थान पर संहार की आवश्यकता आ जाती है तो प्रभु अपने मन्यु को प्रकट करते हैं। मानो अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं, अपने तीसरे रूप को प्रकाशित करते हैं। उस कल्याणकारी शिव के मन्यु का तेज जब देदीप्यमान होने लगता है, तो नाश होने योग्य सब संसार पतङ्गे की भॉंति आ-आकर उसमें भस्म होने लगता है। मन्यु का पात्र कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता, सब बहे चले आते हैं। देखो, समय-समय पर बड़े-बड़े संग्राम, दुष्काल या महामारी आदि रूपों में प्रभु का वह महाबलवाला मन्यु जगत् में प्रकट होता रहता है।
सब मनुष्य अपने विनाश की ओर खिंचे चले जा रहे होते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता। जैसे सब नदियॉं समुद्र की ओर बही चली जा रही हैं व उसमें जाकर समाप्त हो जाएँगी, लीन हो जाएंगी, उसी प्रकार प्रभु का मन्यु काल-समुद्र बनकर उन सब प्राणियों को अपनी ओर खींचता जा रहा है, जिनका कि समय आ गया है। मनुष्यों के किये हुए पाप उन्हें विनाश की ओर वेग से खींचे ले जा रहे हैं। जिन्होंने इस संसार को जरा भी तह के अन्दर घुसकर देखा है, वे देखते हैं कि किस-किस विचित्र ढंग से मनुष्य अपने मृत्युस्थल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। धन्य होते हैं अर्जुन जैसे दिव्यदृष्टिपात पुरुष जिन्हें कि काल का यह आकर्षण दिखाई दे जाता है और जो देखते हैं- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। हम लोग तो मौत के मुँह में घुसे जा रहे होते हैं, पर कुछ पता नहीं होता। हममें से अपनी शक्तियों का बड़ा गर्व करने वाले बड़े-बड़े प्रख्यात लोग जिस समय संसार को जितने अभिमान के साथ अपना पराक्रम दिखा रहे होते हैं, उसी समय वे उतने ही वेग से मृत्यु की ओर दौड़े जा रहे होते हैं, पर उन्हें कुछ पता नहीं होता है। जब उनका सब ठाठ एक क्षण में गिर पड़ता है, सामने मौत खड़ी दिखती है, तब जाकर प्रभु का रूद्ररूप उन्हें दीख पड़ता है। प्यारो! तब तुम अभी से क्यों नहीं देखते कि उसके मन्यु के सामने जब संसार झुका पड़ा है। पापी होकर कोई भी मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा नहीं रह सकता, जिससे तुम अभी से उसके मन्यु का पात्र न बनने की समझ पा सको।
शब्दार्थ - अस्य = इस परमेश्वर की मन्यवे = मन्यु, "क्रोध', दीप्ति के सामने विश्वा विशः = सब प्रजाएँ कृष्टयः = सब मनुष्य सं नमन्त = ऐसे झुक जाते हैं समुद्राय इव सिन्धवः = जैसे कि नदियॉं समुद्र में समा जाने के लिए उधर स्वयं बही जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
हे नाथ !
ओ3म् नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
इन्द्राभिमातिषाह्ये।। ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3।।
ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः।। देवता इन्द्र ।। छन्दः गायत्री।।
विनय - हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु "अभिमाति' है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि ""यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ'', "यह मैंने किया'' तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ !
शब्दार्थ - शतक्रतो = हे अनन्तकर्म ! हे अनन्त प्रज्ञ ! विश्वाभिः गीर्भिः = मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि = तेरे नामों को ईमहे = लेता रहता हूँ। इन्द्र = हे परमेश्वर ! अभिमातिषाह्ये = शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
Ved Katha Pravachan _88 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Vinay- Indra Parmeshwar, where our father is our producer and foster, he is also Rudra for our welfare, also a savior. When there is a need to kill at some place in the world, God reveals his mind. As if we open our third eye, we publish our third form. When the glory of that welfare Shiva's manu becomes resplendent, then all the world that is perishable begins to devour in it like the husband. No person can avoid Manu, all of them come away. See, from time to time, in the form of big battles, droughts or epidemics etc., that great power of Lord Manu continues to appear in the world.
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