धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2
Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता है, ठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगे, निज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?
जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत् पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी, सामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीन, क्षत्रिय, वैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुई, उन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।
वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात् धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैं, मूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एक, निराकार, निर्विकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक है, उसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ है, कर्म करने में स्वतन्त्र है, परन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी है, जीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता।
यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान् भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री
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When the conduct of religion or the relationship with the soul was severed, another great evil was born. On the basis of birth, people became the contractors of religion. Just by being born in a Brahmin's house, even a person with a black letter buffalo started to worship Guruvata in the society and a scholar and a pious person born in a Shudra's house also became a victim of disrespect and abuse. Due to this, the entire social system was torn apart, social values were destroyed.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...