लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
खण्डन- ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत अज्ञानान्धकार में बुरी तरह डूबा हुआ था। सबसे बुरी बात तो यह थी कि धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा था। व्यभिचार तक को धर्म का प्रश्रय प्राप्त था। अतएव सभी सुधारक खण्डन में प्रवृत्त थे। वस्तुत: खण्डन और मण्डन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- एक ही क्रिया के दो भाग हैं- एक विनाशक है तो दूसरा विधायक। घास-फूँस काटकर फेंकना विनाशक है तो बीजारोपण करना विधायक है। किसान या माली खेत या बगीचे में उत्पन्न खरपतवार या हानिकारक घास-पात को उखाड़कर फेंकता है और उपयोगी पौधों को खाद-पानी देकर पुष्ट करता है। तब अपेक्षित अन्न प्राप्त होता है। इससे खण्डन और मण्डन एक-दूसरे के पूरक ठहरते हैं। समाज के हितैषी महापुरुष समाज में व्याप्त दोषों, अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करके उसके विकास में सहायक विचारों का प्रचार व प्रसार करते हैं। शरीर को हानि पहुँचा रहे अंग को काटकर फेंक देना और उसके स्थान पर स्वस्थ अंग का प्रत्यारोपण करना शरीरशास्त्र की दृष्टि से खण्डन-मण्डन ही तो हैं।
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
दुःख की निवृति एवं सुख-प्राप्ति के वैदिक उपाय
Ved Katha -16 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
निर्माण कार्य में बाधक चट्टानों, जङ्गलों, कुओं, तालाबों आदि को नष्ट करके धरती को समतल किये बिना उस पर निर्माण नहीं होता। इसी प्रकार समाज में व्याप्त दोषों को दूर किये बिना समाज-सुधार के कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। सदसत् प्रवृत्तियों का संघर्ष मानवमात्र में सदा से चला आता है। सद्गुणरूपी दैवी सेना तथा दुर्गुणरूपी आसुरी सेना दोनों आमने-सामने खड़ी रहती हैं। दोनों ने अपनी-अपनी व्यूह रचना व्यवस्थित कर रक्खी है। वेद में "भद्रमासुव" से पहले "दुरितानि परासुव" कहा है। जब तक "दुरित" दूर होकर जगह खाली नहीं करेंगे तब तक "भद्र" को स्थान कैसे मिलेगा ! गीता में भी "परित्राणाय साधूनाम्" के साथ ही "विनाशाय च दुष्कृताम्" भी कहा है। दुष्टों का दमन किये बिना सज्जनों की रक्षा नहीं हो सकती। राक्षसों का संहार किए बिना श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ का सम्पादन नहीं हो सकता था। इसलिए ऋषियों को क्षत्रिय कुमारों की आवश्यकता पड़ी- "शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्त्तते"। समाज में क्षत्रिय खण्डन का प्रतीक है तो ब्राह्मण मण्डन का। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
समस्त दु:खों या पापों का मूल अविद्या है। ज्ञान, विद्या तथा सत्य पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार अविद्या, अज्ञान और असत्य एकार्थवाची हैं। दवाई की जगह जहर की शीशी चाहे जानकर पी जाए, चाहे अनजाने, दोनों का परिणाम एक ही है- मृत्यु। सुकरात ने अपने मुकदमे के दौरान कहा था-"अज्ञान के बिना पाप हो ही नहीं सकता। जिसे तुम पाप कहते हो, वह अज्ञान ही है।" जिसके बिना कोई पाप हो ही नहीं सकता, वह (अज्ञान) स्वयं महा पाप है। कानून का अज्ञान अपराध करने का बहाना नहीं हो सकता (lgnorance of law is no excuse)। ईश्वरीय कानून को न जानना सबसे बड़ा अपराध है। इसलिए समाज का परिष्कार करनेवालों ने सदा अज्ञान-असत्य को मिटाकर सदा ज्ञान-सत्य का प्रचार-प्रसार करना ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया।
देर-सवेर सभी को खण्डन का आश्रय लेना पड़ता है। जब सामान्य ओषधोपचार से काम नहीं चलता तो आपरेशन के लिए सर्जन को चाकू चलाना पड़ता है। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द का निम्न वक्तव्य द्रष्टव्य है-
"संसार को समय-समय पर कठोर आलोचना की भी आवश्यकता होती है (हिन्दू धर्म, पृ.56)। प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं बन सकता (पत्रावली भाग 2, पृ.71)। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँ, परन्तु जब अन्तरस्थ सत्य से समझौता करने का अवसर आता है तब मैं रुक जाता हूँ (वही पृ. 70)। हमारे बहुतेरे कुसंस्कार हैं, हमारी देह पर बहुत-से काले धब्बे और हानिकारक घाव हैं- उन्हें चीर-फाड़ करके एक दम निकाल देना होगा। नही, समझौता नहीं, लीपा-पोती नहीं, गले-सड़े मुर्दों को फूलों से न ढको (विवेकानन्द चरित, पृ. 376)। यदि हम देखें कि परम्परा-प्राप्त आचार-विचार समाज के विकास व परिपुष्टि के मार्ग में बाधक हैं, यदि वे हमारे विशुद्धज्ञान की प्राप्ति में रोड़े सदृश हैं तो हम जितनी जल्दी उनका त्याग कर दें उतना अच्छा है (विवेकानन्द चरित, 168)। पुरातन पौराणिक घटनाओं को रूपक मानकर चिरस्थायी करने की चेष्टा करने और इस प्रकार उन्हें महत्त्व देने से कुसंस्कारों की उत्पत्ति होती है और यह सचमुच दुर्बलता है। असत्य के साथ कभी भी और किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। सत्य का उपदेश दो और किसी प्रकार से भी असत्य के पक्ष में युक्ति देने की चेष्टा मत करो (देववाणी पृ. 161)। उन पाखण्डी पुरोहितों को जो सदा उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, निकाल बाहर करो, क्योंकि उनका कभी सुधार नहीं होगा (पत्रावली भाग 1, पृ.65)। पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे एकदम चकराकर एटलांटिक सागर में जा गिरें (वही पृ.254)"।
यह सर्वसम्मत तथ्य है कि महाभारत से पहले संसार में वेद से अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं था। महाभारत के पश्चात् कुकुरमुत्तों की तरह फैले अवैदिक मतों का निराकरण आवश्यक था। इस दुरूह कार्य को करने का साहस दयानन्द- जैसा उद्भट विद्वान् तथा सत्यनिष्ठ, निष्पक्ष एवं निर्भीक महामानव ही कर सकता था। मत-मतान्तरों की आलोचना से दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म को तर्कसंगत, युक्तियुक्त एवं सहेतुक बनाया जाए। उसमें अन्धविश्वासों के लिए कोई स्थान न हो। बाबा वाक्यं प्रमाणम् के स्थान पर सत्यासत्य की स्वयं परीक्षा करके सत्य को ग्रहण किया जाए और असत्य का परित्याग किया जाए। भगवान् मनु का वचन है- "यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतर:" - जो मनुष्य तर्क के द्वारा अनुसन्धान करता है वही धर्म के तत्व को जानता है, अन्य नहीं। पूर्वकाल में ऋषियों के न रहने पर मनुष्य देवजनों (श्रेष्ठ विद्वानों) के पास गये और जिज्ञासा की- "को न ऋषिर्भविष्यति?" अब कौन हमारा ऋषि होगा (निरुक्त 13.12)। देवजनों ने उन्हें तर्क नाम का ऋषि दिया। मनु के आदेश के अनुसार सत्यासत्य की परीक्षा के लिए धर्म पर तर्क की कैंची चलाना आवश्यक है। तर्करूपी कैंची से जो कट जाए, समझो वह तीन कौड़ी का है- धर्म ही नहीं है। दयानन्द ने वही किया। सत्यासत्य के लिए तर्क द्वारा परख करके असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया।
अधिक समझदार लोगों को यह कहते सुना जाता है कि समालोचना तो ठीक है, पर खण्डन-मण्डन करना उचित नहीं है। वास्तव में लोग समालोचना से अंग्रेजी के Criticism का और खण्डन से Condemnation का ग्रहण करते हैं। ऐसा इसलिए है कि वे समालोचना शब्द के निहितार्थ को नहीं समझते। समालोचना शब्द "सम्+आ" उपसर्गपूर्व "लुच्" धातु से निष्पन्न होता है। इस प्रकार इसका अर्थ है किसी वस्तु को विधिपूर्वक हर प्रकार से अच्छी तरह देखना। विधिपूर्वक अच्छी तरह देखने में हम उस वस्तु के आकार-प्रकार, रूप-रंग, गुण-कर्म-स्वभाव एवं गुण-दोष के आधार पर उससे सम्भावित हानि-लाभ का विवेचन करते हैं। तभी हमें उस वस्तु का पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान होता है। दयानन्द के खण्डन की प्रक्रिया समालोचना से भिन्न नहीं है। दयानन्द ने सदा से चली आ रही परम्परा का ही अनुसरण किया है। उसमें किसी प्रकार का असामञ्जस्य अथवा अनौचित्य नहीं है।
भारत में दार्शनिक सम्प्रदायों में खण्डन-मण्डन सदा से चला आया है। समन्वयवाद के नाम पर यह कहना कि "अपनी-अपनी जगह सब ठीक है" आधुनिकता या भलमनसाहत की पहचान बन गया है, किन्तु इस "रामाय स्वस्ति:, रावणाय स्वस्ति:" की उपलब्धि तो शून्य है। वह आत्म-प्रवंचन या भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं। कुछ करने की भावनावाले खण्डन में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रह सकते। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का उद्घोष करनेवाले आदि शंकराचार्य सारा जीवन जैन, बौद्ध और चार्वाक आदि नास्तिक मतों का खण्डन करने में ही लगे रहे। सिद्धान्तभेद के कारण मण्डन मिश्र जैसे वैदिक मतावलम्बी को भी ललकारने में संकोच नहीं किया। समन्वयवाद का आदर्श माने जानेवाले क बीर ने तो सबको खरी-खोटी सुनाईं ही, कबीर की अपेक्षा कहीं अधिक सौम्य नानकदेव भी दूसरे मतों का खण्डन करने में पीछे नहीं रहे।
खण्डन में भी स्वामीजी कितने सन्तुलित रहे, इसका पता 11वें समुल्लास का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने पर चलता है। उन्होंने गुरु नानक तथा गुरु गोविन्द सिंह की आलोचना की है। गुरु नानक से सम्बन्धित आपत्तिजनक अंश इस प्रकार है-"विद्या कुछ भी नहीं थी.... वेदादिशास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा।", परन्तु जहॉं स्वामीजी ने यह लिखा, वहॉं ये स्तुतिपरक वाक्य भी लिखे हैं- "नानक जी का आशय अच्छा था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को (मुसलमान होने से) बचाया।"
इन शब्दों से स्पष्ट है कि स्वामीजी के मन में गुरु नानक के प्रति दुर्भावना न होकर प्रशंसा के भाव थे। उनका (गुरु नानक) का संस्कृत से और वेदशास्त्र से अनभिज्ञ होना तो निर्विवाद है, परन्तु इसके लिए भी उन्होंने गुरु नानक को नहीं, तत्कालीन परिस्थितियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने लिखा है- "उस समय पंजाब संस्कृतविद्या से रहित और मुसलमानों से पीड़ित था।" गुरु नानक सम्बन्धी गपोड़ों के लिए स्वामीजी लिखते हैं-"इसमें उनके चेलों का दोष है, नानकजी का नहीं।" गुरु नानक द्वारा प्रवर्तित भक्तिभावना के विषय में उन्होंने लिखा है- "नानकजी ने कुछ भक्तिविशेष ईश्वर की लिखी थी, उसे करते जाते तो अच्छा था।" इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में भी गुरु नानक के उसके परित्याग के लिए भी उनके अनुयायियों को दोष दिया है।
दशम गुरु गोविन्दसिंह के विषय में स्वामीजी ने लिखा है- "गुरु गोविन्दसिंह शूरवीर हुए। पंच ककार की रीति उन्होंने बुद्धिमत्ता से की। इन सब (अर्थात् सिख गुरुओं) ने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हटाया। जैसे इसको हटाया वैसे विषयासक्ति, दुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।" स्वामी दयानन्द वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। वे वेदों को सब विद्याओं का मूल मानते थे और उन्हीं के अपनाए जाने में वे मनुष्य मात्र का कल्याण मानते थे। इसलिए वेद विरोधी सभी मतों और उनके प्रवर्तकों की आलोचना की। इसमें उन्होंने कहीं भी पक्षपात नहीं किया। पंजाब में एक ऐसा समय था जब उच्चवर्ग के हिन्दू दलित व पिछड़ेवर्ग के लोगों को अछूत मानते थे। हिन्दुओं में ही नहीं, अपने को हिन्दुओं से अलग माननेवाले सिखों में भी मजहबी, गुलाबदासी, रैदासी, कबीरपन्थी आदि को भी अछूत समझा जाता था। उस समय ऐसे लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा। उच्चवर्ग (सवर्णों) की तुष्टि के लिए उनके शुद्धि संस्कार और दलितों के सन्तोष के लिए बड़े स्तर पर सहभोजों आदि की व्यवस्था की जाती थी। इन पंक्तियों के लेखक को अपने पिताश्री के साथ अनेक बार ऐसे शुद्धि-संस्कारों तथा समारोहों में सम्मिलित होने का अवसर मिला। इस प्रकार शुद्ध होकर समाज में प्रतिष्ठित होनेवाले लोग स्वाभाविक रूप से अपने को आर्यसमाजी मानकर महाशय जी, आर्य जी आदि नामों से पुकारें जाने में गौरवान्वित अनुभव करने लगे।
दयानन्द पर खण्डन का आरोप लगाते समय तत्कालीन विशेष परिस्थियों परविचार करना आवश्यक है। हमें भी पिछले पृष्ठों में आलोचना का आश्रय लेगा पडा। ‘All that glitters is not gold’ इसलिए खरे-खोटे की पहचान करने-कराने के लिए अपेक्षित कसौटियों पर कसना,घिसना आवश्यक था।
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When accusing Dayanand of rebuttal, it is necessary to consider the then special circumstances. We also had to take criticism in the previous pages. 'All that glitters is not gold', therefore, it was necessary to tighten and weave the required criteria in order to identify the mold.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...