लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
देशभक्त दयानन्द- जो इस देश को अपना नहीं समझता उससे इसकी उन्नति में प्रवृत्त होने की आशा कैसे की जा सकती है? इसमें सन्देह नहीं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी सबसे बड़ी देन है वह नारा जिसने इस आन्दोलन में जान फूँक दी थी। वह नारा था- "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" परन्तु लोकमान्य की मान्यता है कि आर्यलोग (अर्थात् इस देश की 80 प्रतिशत आबादी) इस देश के मूल निवासी नहीं हैं। वे विदेशी आक्रमणकारी हैं, जिन्होंने उत्तर ध्रूव से आकर अपनी सैनिक शक्ति के बल पर इस देश पर बलात् अधिकार किया और यहॉं के आदिवासियों को खदेड़कर बाहर किया तथा उनके घर-द्वार पर ही नहीं, उनकी स्त्रियों पर भी अधिकार कर बैठे । क्या इस प्रकार बलात् पराये घर पर अधिकार जमानेवाले लोगों का यह अधिकार है कि वह उस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताएँ? लोकमान्य ने अपने मत का उल्लेख ‘Arctic Home in the Vedas’ में किया था। जब "मानवेर आदि जन्मभूमि" के लेखक बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने पूना जाकर उनसे पूछा कि वेदों में यह कहॉं लिखा है, तो लोकमान्य ने उत्तर दिया-"आमि मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहब अनुवाद पाठ करिये छे" (मैंने मूल वेद नहीं पढे, मैंने तो साहब लोगों (अंग्रेजों) का किया हुआ अनुवाद पढा है)।
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Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
"फूट डालो और राज्य करो" (Divide and rule) के सिद्धान्त के अनुसार भारतीयों को भ्रमित करने के विचार से आर्य-द्रविड़ जातियों के सिद्धान्त की कल्पना लण्डन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के बन्द कमरे में 9 अप्रैल 1866 की सभा में की गई थी। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल (नई मालिका 5, पृ.420 की टिप्पणी) के अनुसार यह सभा राइट ऑनरेबल वाईकाउण्ट स्ट्रांगफील्ड (Viscount Strongfield) की अध्यक्षता में हुई थी। मिस्टर एडवर्ड टामस ने चौथे शीर्षक के अन्तर्गत चर्चा का आरम्भ करते हुए कहा कि "आक्सस नदी से आर्यन आक्रामकों की लहरें अरिमानिया प्रान्त और हिन्दूकुश के मार्ग से भारत में प्रविष्ट हुईं।" तद्नुसार भारत में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी स्तर तक की पुस्तकों में पढाया जाने लगा कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहॉं के मूल (आदि) निवासियों को परास्त कर इस देश पर बलात् अधिकार करके इसके स्वामी बन गये। इस प्रकार इस देश के मूल निवासी आर्य आक्राम के रूप में द्वितीय श्रेणी के नागरिक कहलाने लगे। हम अपने ही घर में पराये बन गये। इसी आधार पर आज यह मॉंग की जा रही है कि अन्य विदेशियों (मुसलमानों तथा अंग्रेजों की भॉंति) आर्यों (हिन्दुओं) को भी, इस देश को आदिवासियों को सौंपकर, जहॉं से आये थे वहॉं लौट जाना होगा। यदि दौ सौ वर्ष पूर्व आनेवाले अंग्रेज विदेशी थे तो तीन हजार वर्ष पूर्व आनेवाले आर्य विदेशी क्यों नहीं? इस सन्दर्भ में ‘Muslim India’ के 27 मार्च 1985 के अङ्क में प्रकाशित यह वक्तव्य द्रष्टव्य है-
“This land belongs to those who are its original inhabitants and hence its rightful owners. It is they who built Harappa and Mohenjodaro, the world’s most ancient civilisation. Most of India’s Muslims and Christians are converts from these sons of the soil. They are either Dalits or tribals. In all foreign invasions, it is these people who defended India. They (Aryans) don’t belong to India and hence don’t love India. They are foreigners, the enemy within. As Aryans they are India’s first foreigneres. If Muslims and Christians are foreigners and must get out of India, as India’s first foreigners, the Aryans are duty bound to get out first. Those who came first must leave first.”
इस प्रकार ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से यह कहा जा रहा है कि इस देश के मुसलमानों में अधिसंख्य यहॉं की छोटी जातियों- अनुसूचित जातियों, जनजातियों, गिरिजनों आदि में से हैं, क्योंकि यही लोग भारत के मूल निवासी हैं, इसलिए हिन्दू से मूसलमान व ईसाई बने लोग ही इस देश के मालिक हैं, अन्य सब विदेशी हैं। अंग्रेज चले गये, पर भारत पर सबसे पहले आक्रमण करके यहॉं बसे विदेशी आर्य नहीं गये। जो सबसे पहले आये थे उन्हीं को सबसे पहले जाना चाहिए था।
आर्यों के विदेशी होने की मान्यता का फलितार्थ विभिन्न रूपों में हमारे सामने आ रहा है। 4 सितम्बर 1977 को संसद् में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फैंक एन्थोनी ने मॉंग की-
“Sanskrit should be deleted from the 8th schedule of the constitution of India, because it is a foreign language brought to this country by foreign invaders, the Aryans”. - Indian Express, Sept. 9,1977.
अर्थात् विदेशी आर्यों द्वारा लाई गई संस्कृत के विदेशी भाषा होने के कारण उसे भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से निकाल देना चाहिए। सन् 1978 के आरम्भ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ा था। उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्ट के नाम पर रक्खा गया था। 23 फरवरी 1978 को द्रमुक (द्रविड़मुन्नेत्र कड़गम) के प्रतिनिधि लक्ष्मणन ने उस नाम पर आपत्ति करते हुए राज्यसभा में मॉंग की थी कि आर्यभट्ट नाम के विदेशी होने के कारण उसके स्थान पर भारतीय नाम रक्खा जाना चाहिए। कई वर्ष पहले तमिलनाडू के सलेम नामक शहर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आर्य होने के कारण उनकी मूर्ति के गले में जूतों का हार पहनाकर झाडुओं से मारते हुए जलूस निकाला गया। इन सबके मूल में आर्यों के विदेशी होने की मान्यता थी।
ऋषि क्रान्तदर्शी होता है। ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पाश्चात्यों की इस विनाशकारी कूटनीतिक चाल को समझा और इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने घोषणा की -
"किसी संस्कृतग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहॉं के जङ्गलियों से लड़कर, जय पाके, उन्हें निकालके इस देश के राजा हुए। पुन: विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सीधे इसी देश में आकर बसे थे। इससे पूर्व इस देश का कोई नाम भी नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे।" - सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास
अपने को आक्रामक मानकर इस देश पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताना और अंग्रेजों को निकालकर इस पर शासन करना न्याय नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार यही है कि यह देश हमारा है, इसलिए इस पर शासन करने का अधिकार हमारा है। इसी से देशप्रेम और देशभक्ति की भावना को बल मिलता है। इस प्रकार दयानन्दकृत "सत्यार्थप्रकाश" तथा "आर्याभिविनय" ही "यतेमहि स्वराज्ये" के आदि प्रेरक हैं। दयानन्द से अतिरिक्त इसमें अन्य कोई भागीदार नहीं है।
सन् 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस् कमिश्नर) मिस्टर ब्लण्ट ने आर्यसमाज की समीक्षा करते हुए लिखा था-
“The Arya Samajic doctrine has a patriotic has a patriotic side. The Arya doctrine and Arya education alike sing the glories of ancient India and by so doing arouse a feeling of national pride in its disciples, who are made to feel that their country’s history is not a tale of humiliation. Patriotism and politics are not synonymous, but the arousing of an interest in national affairs is a naural result of arosing national pride.” -Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap IV, P. 135
अर्थात् "आर्यसमाज के सिद्धान्तों में स्वदेशप्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धान्त और आर्यशिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं और ऐसा करके अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को जागरित करते हैं। इस शिक्षा के फलस्वरूप वे समझते हैं कि हमारे देश का इतिहास पराभव की कहानी नहीं है। देशभक्ति और राजनीति एकार्थवाची नहीं हैं, किन्तु राष्ट्रीय कार्यों में रुचि या प्रवृत्ति राष्ट्रीय भावना का स्वाभाविक परिणाम है।"
ब्लण्ट के अनुसार स्वदेश के प्रति जागरित इस गौरवगान का यह परिणाम हुआ कि लोगों में अपने खोये गौरव को फिर से पाने की लालसा को बल मिला। किसी भी मामले में विदेशियों के सामने सिर झुकाना दयानन्द को सह्य नहीं था। वह लिखते हैं, "जब अपने देश में सब सत्य विद्या, सत्य धर्म और परमयोग की सब बातें थीं और अब भी हैं, तब विचारिए कि थियोसोफिस्टों को स्वदेशवासियों के मत में मिलना चाहिए या आर्यावर्त्तियों को थियोसोफिस्ट बनना चाहिए?"
ब्राह्मसमाज के खण्डन के प्रकरण में यह बात और भी अधिक स्पष्टता से उभरकर आती है, "इन लोगों में स्वदेश भक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहा, उसके स्थान में भरपेट निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि ऋषियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान् ही नहीं हुआ, आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।...भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं, तब अपने माता-पिता, पितामह आदि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृतविद्या से रहित अपने को विद्वान् प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्यों का बुद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता हैं?"
कितना स्वदेशाभिमानी था दयानन्द ! सन् 1901 में जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस् कमिश्नर) मिस्टर वर्न थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा- “Dayananda feared Islam and Christianity because he considered that the adoption of any foreign creed would endanger the national feelings he wished to foster.”
अर्थात् "दयानन्द इस्लाम तथा ईसाइयत के प्रति इसलिए शङ्कित थे, क्योंकि वे समझते थे कि विदेशी मतों के अपनाने से देशवासियों की राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचेगी, जिन्हें वे पुष्ट करना चाहते थे।"
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According to Blunt, this result of this glorified awareness of home country has resulted in the desire of people to regain their lost glory. In any case, Dayanand was not tolerant to bowing before the foreigners. He writes, "When there was, and still is, all the truth, truth religion, and paramyoga in our country, then should the Theosophists should get the opinion of the indigenous people or should the Aryavartis become theosophists?"
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...