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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-1

    मानव इतिहास का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि इस भूमण्डल पर वैदिक युग की समाप्ति के पश्चात्‌ प्रचलित हुए वेद विरुद्ध विभिन्न मतों-पन्थों ने सद्‌ज्ञान रूपी सूर्य को ढक दिया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों तक सम्पूर्ण मानव समुदाय अज्ञानान्धकार में भटकता रहा । उस अन्तराल में जो तथाकथिक गुरु-आचार्य, सन्त-महात्मा, सर्वज्ञ, ईश्वर, पुत्र तथा सन्देश वाहक आदि कहलाये वे संसार का अधिक हित नहीं कर सके। क्योंकि उनके द्वारा मनुष्यों को शाश्वत सत्य का बोध नहीं हो पाया। अर्थात्‌ उनमें से किसी ने भी ईश्वरीयज्ञान "वेद" का प्रचार नहीं किया। वे महानुभाव तो केवल स्वकल्पित  मतों को मनवाने में ही लगे रहे।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-2
    Ved Katha Pravachan -13 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    उनके अनुयायियों में से किसी ने कहा कि हमारे धर्मशास्त्र स्वयं ईश्वर ने मनुष्य का तन धारण करके अपने हाथ से लिखे हैं। किसी ने अपने मान्य आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों को सर्वज्ञों की कृति बताया। किसी ने गुरुओं की वाणी को स्वीकारने पर बल दिया। किसी ने प्रभु के पुत्र द्वारा प्रदत्त विचारों की महानता पर विश्वास दिलाने का यत्न किया तो किसी ने अपनी मान्य पुस्तक के माध्यम से ईश्वरीय सन्देश की पुष्टि की, इत्यादि.. जबकि आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक उपाधिधारी ऋषियों से लेकर महाभारतकालीन जैमिनि ऋषि तक की अवधि के सभी ऋषियों ने सत्य-शाश्वत वेद और वेद प्रतिपादित मान्यताओं को ही प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी माना था।

    महर्षि जैमिनि के पश्चात्‌ सर्वप्रथम आर्ष शैली में वेद का प्रचार-प्रसार करने वाले महर्षि दयानन्द ही थे। इतिहासविद्‌ यह भली भॉंति जानते हैं कि महर्षि दयानन्द से पूर्व हुए मध्यकालीन विद्वान्‌ सायणमहीधरउबट आदि ने मद्यपानमांसाहारव्यभिचारयज्ञ में पशुबलि जैसे पापोंभूत-प्रेतजादू-टोनों जैसे अन्धविश्वासों और सृष्टिक्रम के विरुद्ध मान्यताओं को वेद सम्मत बताया। इसलिये उस काल में हुए लगभाग सभी मनीषी वेद के विरोधी बन गये। वर्तमान में भी उपर्युक्त  विद्वानों की मान्यताओं पर आधारित पश्चिमी और पूर्वी लेखकों द्वारा किया गया वेदार्थ जिन विद्यालयों में पढाया जाता है उससे वहॉं के अधिकांश विद्यार्थियों के हृदय में वेद के प्रति जो चाहिये वह श्रद्धा नहीं हो पा रही है।

    वेद प्रचारक महर्षि दयानन्द-  महर्षि दयानन्द ने वेदमन्त्रों के अर्थ परम्परागत ऋषि शैली में करके वेद विषयक फैली भ्रान्तियों को मिटा दिया और वेद को ईश्वरीय ज्ञान तथा स्वत: प्रमाण बताते हुए दृढता पूर्वक कहा-"वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढना पढाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" (आर्यसमाज का तीसरा नियम) उन्होंने वेद के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा-"चारों वेदों (विद्या धर्मयुक्त ईश्वर प्रणीत संहिता मन्त्र भाग) को निर्भ्रान्त स्वत: प्रमाण मानता हूँ।  वे स्वयं प्रमाण रूप हैं कि जिनके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप स्वरूप के स्वत: प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद है।".

    इसी प्रकार से वे स्वरचित आर्योद्‌देश्य रत्नमाला के 15 वें "रत्न" में भी यही स्पष्ट करते हैं कि-"जो ईश्वरोक्तसत्य विद्याओं से युक्त ऋक्‌ संहितादि चार पुस्तक हैंजिनसे मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता हैउसको वेद कहते हैं।" महर्षि दयानन्द ने आर्ष शैली में वेद का प्रचार कियाउससे वेद के विषय में अनर्गल प्रलाप करने वालों के मुँह बन्द हो गये। अनेक वेद निन्दक वेद के समर्थक बने और वेदों को गडरियों के गीत बताने वाले लज्जा की अनुभूति करने लगे।

    आर्ष पद्धति को अपना कर किया विश्व में वेद प्रचार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैइस मान्यता की पुष्टि करते हुए महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में लिखते हैं-

    (1)  "जैसा ईश्वर पवित्र, सर्व विद्यावित्‌, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं।

    (2)  और जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो, वह ईश्वरोक्त।

    (3)  जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्ति रहित ज्ञान प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।

    (4)  जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है, वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे।

    (5) और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो, वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।"

    महर्षि दयानन्द ने ऋक, यजु, साम और अथर्व नामक चार सहिताओं को ही वेद माना है, पौराणिक विद्वानों की भॉंति ब्राह्मणग्रन्थादि को नहीं। उन्होंने स्वलिखित ग्रन्थ "ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका" के वेद संज्ञा विचार में स्पष्ट कर दिया-"ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हीं का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी है। वे ईश्वरोक्त नहीं हैं..।" अपने इस कथन की पुष्टि हेतु प्रमाण प्रस्तुत करते हुए वे आगे लिखते हैं- "ब्राह्मणग्रन्थों की वेदों में गणना नहीं हो सकती, क्योंकि इषे त्वोर्जे त्वा. इस प्रकार से उनमें मन्त्रों की प्रतीक धर-धर के वेदों का व्याख्यान किया है। और मन्त्र भाग संहिताओं में ब्राह्मणग्रन्थों की एक भी प्रतीक कहीं नहीं देखने में आती। इससे जो ईश्वरोक्त मूलमन्त्र अर्थात्‌ चार संहिता है वे ही वेद है, ब्राह्मणग्रन्थ नहीं।"

    यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने वेद के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रन्थ को स्वत: प्रमाण नहीं माना।  इस सम्बन्ध में उन्होंने यह लिख कर "स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश" में अपना मत व्यक्त किया है-"चारों वेदों के ब्राह्मण (ऐतरेय, शतपथ, साम और गौपथ), छ: अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष), छ: उपांग (मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद) और 1127 (ग्यारह सौ सत्ताइस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्राह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उनको परत: प्रमाण अर्थात्‌  वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेद विरुद्ध कथन है उनका अप्रमाण करता हूँ।"

    ज्ञान शाश्वत बता ईशका किया वेद मत का विस्तार |
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    महर्षि दयानन्द ने वेद के प्रचार का कार्य आरम्भ कियाउस समय तक पौराणिक विद्वान्‌ वेदमन्त्रों का उपयोग केवल तथाकथित पूजा पाठ के लिये ही करते थे। अर्थात्‌ उनकी मान्यतानुसार वेदमन्त्रों के उच्चारण का उद्‌देश्य मात्र स्वकल्पित देवी-देवताओंं को रिझाना था। वेद में ईश्वर की ओर से हम मनुष्यों के लिये कोई आदेशनिर्देशउपदेशसन्देशसम्मतिसत्प्रेरणादि भी हैंउनमें से अधिकांश महानुभावों को यह जानकारी नहीं थी। इसके अतिरिक्त वेद को वे जन्मजात ब्राह्मण समुदाय तक ही सीमित मानते थे। स्त्रियों और शूद्रों को तो उन्होंने वेद सुनने तक से वञ्चित कर दिया था। ऐसी दुरावस्था में महर्षि दयानन्द ने यजुर्वेद के 26 वें अध्याय का यह दूसरा मन्त्र-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च चारणाय।।  उद्‌धृत करते हुए "सत्यार्थ प्रकाश" के तृतीय समुल्लास में लिखा -"परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मै (जनेभ्य:) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्‌) इस (कल्याणीम्‌) कल्याण अर्थात्‌ संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्‌) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आ वदानि) उपदेश करता हूँ वैसे तुम भी किया करो।"...

    (ब्रह्म राजन्याभ्याम्‌) हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्य्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है,... वे आगे लिखते हैं- .. "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक्‌ और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिये प्रकाशित किये हैं। और जो स्त्रियों के पढने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है।"

    आगे उन्होंने शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताया कि "भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषण रूप गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढके पूर्ण विदुषी हुई थी।" महर्षि दयानन्द की कृपा से ही अनेक विदुषी महिलाएं वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त कर पाई और शूद्र कुलोत्पन्न अनेकानेक बन्धु वेद के विद्वान्‌ बनकर ईश्वरीय वाणी का प्रचार कर रहे हैं। 

    मनुज मात्र को वेद पठन का पुन: प्राप्त हुआ अधिकार। 
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ब्र्रह्मवेता महर्षि दयानन्दमहाभारत काल के पश्चात्‌ प्रचलित हुए अवैदिक मत-पन्थों की ओर से ईश्वर के सम्बन्ध में जो कहा और लिखा गया उसे हम कल्पना पर आधारित मानते हैं। इसलिये कि उनके प्रवर्तक वेद के विद्वान्‌ नहीं थे। उन्होंने अध्यात्त्म विषयक जो मत व्यक्त किये वे ऋषियों की (अवैदिक) मान्यता के अनुकूल नहीं हैं।

    यद्यपि उनमें से अनेक महानुभावों ने ऋषियों द्वारा लिखे गये उपनिषदोंदर्शन शास्त्रों आदि को अपने मत की पुष्टि में सहायक बतायाकिन्तु वे उन ग्रन्थकारों की भावनाओं को ठीक से समझ नहीं सके। यही कारण है कि तब से अब तक अध्यात्म के नाम पर जिन मान्यताओं का प्रचार-प्रसार हुआ और हो रहा हैउनमें समानता नहीं पाई जाती।

    यह सर्वविदित है कि अपने आपको अध्यात्म से सम्बन्धित मानने वाले अनेक मत-पन्थ जो ईश्वर को मानते हैंवे उसके स्वरूपनामस्थानकार्य आदि की दृष्टि से परस्पर भिन्न विचार रखते हैं। ये मतभेद प्रमाणित करते हैं कि वेद विरुद्ध मत पन्थों का ईश्वर काल्पनिक हैवास्तविक नहीं। अत: यह निश्चयपूर्वक लिखा जा रहा है कि लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात्‌ मानव समुदाय को वेद में वर्णित ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान महर्षि दयानन्द ने ही कराया।

    सदियों के पश्चात्‌ ईश को पुन: जान पाया संसार ।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    "सत्यार्थ प्रकाश" सप्तम समुल्लास का आरम्भ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव विद्या युक्त और जिसमें पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापकसब देवों का देव परमेश्वर हैउसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते वे नास्तिक मन्दमति सदा दु:ख सागर में डूबे ही रहते हैं।

    महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया उस समय इस भूमण्डल पर अनेक ईश्वर माने जाते थे। अत: उन्होंने बलपूर्वक यह घोषणा की कि-"चारों वेादें में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक ही है ।"

    आगे ईश्वर की सिद्धि के लिये प्रत्यक्षादि प्रमाणों का न्यायदर्शन के एक सूत्र से समर्थन करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि- "जो श्रोत्रत्वचाचक्षुजिह्वाप्राण और मन काशब्दस्पर्शरूपरसगन्धसुखदु:खसत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता हैउसको "प्रत्यक्ष" कहते हैंपरन्तु वह निर्भ्रम हो। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्शरूपरस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मा युक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता हैवैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों से प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता हैउस समय जीव के इच्छा ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसे क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भयशङ्क ा और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभयनि:शंकता और आन्दोत्साह उठता हैं। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्धान्त:करण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह हैक्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है।"

    ईश्वर निराकार हैइस वैदिक मान्यता की पुष्टि करने के लिये महर्षि दयानन्द ने यह हेतु दिया कि- "जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकताजब व्यापक न होता तो सर्व ज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्णक्षुधातृषा और रोगदोषछेदनभेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाककानआँख आदि अवयवों का बनाने वाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हैउसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्यक होना चाहिये। जो कोई यहॉं ऐसा कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था।"

    "जब परमेश्वर के श्रोत्रनेत्रादिइन्द्रियॉं नहीं हैंफिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता हैं?" इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्वेताश्वतर उपनिषद्‌ के आधार पर यह दिया कि-"परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्ति रूप हाथ से सबका रचना ग्रहण करतापग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्‌चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत्‌ देखताश्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनताअन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत्‌ को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहींउसी को सनातनसबसे श्रेष्ठसबमें पूर्ण होने से "पुरुष" कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।"

    सप्रमाण कर दिया सिद्ध आकृति रहित है सरजनहार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अवतार की पौराणिक मान्यता के सम्बन्ध में महर्षि ने अपनी असहमति व्यक्त की और यह पूछे जाने पर कि-"जो ईश्वर अवतार न लेवे तो रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो?" बताया कि-"प्रथम तो जो जन्मा हैवह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत्‌ की उत्पत्तिस्थितिप्रलय करता हैउसके सामने कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस-रावणादि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा हैजब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। भला इस अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव युक्त परमात्मा को एक शुद्र जीव को मारने के लिए जन्म-मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती हैऔर जो कोई कहे कि भक्तजनों के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहींक्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर के पृथिवीसूर्यचन्द्रादि जगत्‌ को बनानेधारण और प्रलय करने रूप कर्मों से कंस रावणादि का वध और गोवर्धनादि पर्वतों का उठाना बड़े कर्म हैंऔर युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया वा मूठी में धर लियाऐसा कहना कभी सम्भव नहीं हो सकताक्योंकि आकाश अनन्त और सबमें व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जातावैसे ही अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। जाना वा आना वहॉं हो सकता हैजहॉं न रहे। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से नहीं आयाऔर बाहर नहीं था जो भीतर से निकलाऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना-जाना जन्म मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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    Although many of them had said that the Upanishads, philosophies etc. written by the sages were helpful in confirming their views, but they could not understand the feelings of those authors properly. This is the reason that since then till now, there is no equality in the beliefs which have been propagated and practiced in the name of spirituality.

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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-2

    ईश्वर के जन्म लेने और गर्भ में आने की पौराणिक साहित्य में पुष्टि-  जो पौराणिक विद्वान्‌ यह कहते हैं कि ईश्वर जन्म नहीं लेता, वह तो प्रकट होता है। उन्हें अपने मान्य ग्रन्थों को ध्यान से पढना चाहिये। उदाहरणार्थ- श्रीरामचरित मानस के बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने शिवजी के मुँह से कहलवाया "जो दिन तें हरि गर्भहिं आए" तथा स्वयं अपने आराध्य देव श्रीराम से बुलवाया- "जन्मे एक संग सब भाई।" इसी प्रकार श्रीमद्‌भगवद्‌गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक पॉंच में "बहुनि मे व्यतीतानि तव चार्जुन" आदि अकाट्‌य प्रमाणों से पौराणिक ईश्वर श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म लेने की पुष्टि होती है।

    बतलाया प्रभु सर्वव्यापक लेता नहीं कभी अवतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-1
    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता हैवा नहीं?" इस प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने यह लिखकर दिया-"नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाये कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे। और जो अपराध नहीं करतेवे भी अपराध करने से न डरकर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत्‌ देना ही ईश्वर का काम हैक्षमा करना नहीं।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को सगुण और निर्गुण  (दोनों गुणों से मुक्त) माना हैं। वे इस वेदोक्त मान्यता के समर्थन में लिखते हैं- "जैसे जड़ के रूपादि गुण हैं और चेतन के ज्ञानादि गुण जड़ में नहीं हैंवैसे चेतन में इच्छादि गुण हैं और रूपादि जड़ के गुण नहीं हैं। इसलिए जो गुण से सहित वह सगुण और जो गुणों से रहित वह "निर्गुण" कहाता है। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसमें केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैंसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान-बलादि गुणों से सहित होने से सगुण और रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक्‌ होने से "निर्गुण" कहाता है।"

    जब उनसे यह कहा गया कि- "संसार में निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहते हैं।" तो उन्होंने बताया- "यह कल्पना केवल अज्ञानी और अविद्वानों की है। जिनको विद्या नहीं होतीवे पशु के समान यथा-तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात ज्बरयुक्त मनुष्य अण्डबण्ड बकता हैवैसे ही अविद्वानों के कहे व लेख को व्यर्थ समझना चाहिये।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को न तो रागी माना और न विरक्त। इस सम्बन्ध में उनका मत यह है कि- "राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता हैसो परमेश्वर से कोई पृथक्‌ वा उत्तम नहीं हैइसलिये उसमें राग का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवेउसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकताइसलिये विरक्त भी नहीं।"

    ईश्वर में इच्छा है वा नहीं?" इस प्रश्न के उत्तर में वे लिखते हैं कि- "इच्छा भी अप्राप्त उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख-विशेष होवे उसकी होती हैतो ईश्वर में इच्छा (कैसे) हो सकेन उससे कोई अप्राप्त पदार्थन कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं हैइसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं किन्तु ईक्षण अर्थात्‌ सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता हैवह ईक्षण है।"

    जान स्वरूप सत्य ईश का भ्रम से मुक्त हुए नर नार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा-  इन्द्रियों का विषय न होने से मध्ययुग में हुए वेद विहीन व्यक्तियों के लिये  ईश्वर पहेली बन गया। अत: अवैदिक मतों के प्रवर्तकों ने अपने-स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न कल्पनाएँ की और अध्यात्म प्रेमियों को भटका दिया। अर्थात्‌ किसी ने अपनी कल्पना के आधार पर ईश्वर की सत्ता का निषेध किया तो किसी ने ईश्वर को एकदेशी और साकार बताया।

    जिन्होंने यह कहा कि संसार में ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है अथवा ईश्वर एक देशी और साकार हैउनमें से किसी ने भी ईश्वर साक्षात्कार वाला वेदोक्त मार्ग नहीं बताया तथा न ही महात्माभक्त आदि महानुभावों ने महर्षि पतंजलि वाले अष्टांग योग को आचरण से अपना कर ईश्वर विषयक अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने तो ईश्वर के सम्बन्ध में अपनी कल्पना से जो निर्णय लियावही माना और मनवाया।

    यह सर्व विदित है कि ऋषियों द्वारा लिखे गये सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। जबकि मध्यकालीन अनेक सन्त-महात्मा नामधारियों को संस्कृत भाषा का तनिक भी ज्ञान नहीं था। यही कारण है कि वे अपने मत की पुष्टि प्राचीन शास्त्रों से नहीं कर पाये और अपनी शैक्षणिक अयोग्यता पर पर्दा डालने के लिये वेद विरोधी बन गये। जो संस्कृत भाषा के विद्वान्‌ थे उन्हें ऋषियों की आर्ष परम्परा का बोध नहीं था। अत: वे वेद तथा वैदिक मान्यताओं को ठीक से जानने में असमर्थ रहे और अपने स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी की गई कल्पनाओं को उचित मान बैठे। उनकी ये "अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा" थी। भले ही उन महानुभावों की भावनाएँ अच्छी रहीं होंकिन्तु यथार्थ ज्ञान के अभाव में वे संसार का उपकार नहीं कर सके।

    उदाहरण- डॉक्टर से रोगी को यह कहते हुए सुन कर कि मैं गरीब हूँऔषधियों का मूल्य और आपकी फीस देना मेंरे लिये सम्भव नहीं हैकिसी परोपकार प्रिय व्यक्ति को दया आ जावे और वह निर्धनों को नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा देने की कामना से नगर में यह विज्ञापन करावे कि "मैं गरीबों का मुफ्त इलाज करूंगाकृपया मुझे सेवा का अवसर दीजियेगा।" जबकि उसे चिकित्सा सम्बन्धी कुछ भी जानकारी नहीं हैतो क्या उसके इस तथा कथित सेवा कार्य को उचित माना जायेगाहॉंयदि कोई दयालु किसी अभावग्रस्त रोगी का सुयोग्य चिकित्सक से अपने व्यय पर उपचार करवादे तो उसे उपकारी समझा जा सकता हैकिन्तु वह स्वयं ही इलाज करने लगे तो यह उसको "अनधिकार चेष्टा" ही कहलायेगी। मध्ययुग में अध्यात्म के नाम पर यही हुआ। जिसके परिणामस्वरूप मानव समुदाय भ्रमित हो गया।

    शिक्षित वर्ग यह जानता है कि अनधिकारी चिकित्सकों को अपराधी मान कर सरकार उन्हें दण्ड देती है। यदि अध्यात्म सम्बन्धी भी ऐसा कोई विधान होता तो ईश्वर के नाम पर परस्पर विरोधी मान्यताओं वाले ये मत-मतान्तर प्रचलित नहीं हो पाते। आश्चर्य है कि जिन्होंने वेदउपनिषद्‌दर्शनशास्त्र देखे तक नहीं उन्होंने आत्मा-परमात्मा से सम्बन्धित जानकारी देने का दुस्साहस कर लिया।

    अनधिकृत अध्यात्मज्ञान को दूषित सिद्ध किया ललकार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    ईश्वर सम्बन्धी मूल प्रश्न और यथोचित उत्तर-

    (1) ईश्वर की सत्ता है अथवा नहीं ?
    (2) यदि ईश्वर है तो वह कहॉं रहता है?
    (3) ईश्वर कैसा है?
    (4) ईश्वर के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है?

    maharshi swami dayanand saraswati

    महर्षि दयानन्द ने इन प्रश्नों का यथोचित उत्तर देकर अध्यात्मप्रेमियों पर महान्‌ उपकार किया है, इस सत्य को सभी निष्पक्ष बुद्धिमान्‌ मनीषी स्वीकारते हैं। आदि सृष्टि से महर्षि दयानन्द द्वारा रचित ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है, संसार में दिखाई दे रहे नियम और हो रहे कार्य आदि नियामक, कर्त्ता ईश्वर के अस्तित्व की साक्षी दे रहे हैं। इस प्रथम का उत्तर है। द्वितीय और तृतीय प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने हेतु आर्यसमाज का दूसरा नियम ध्यान से पढना चाहिये। लिखा है, वह-"ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र है।" चतुर्थ प्रश्न के उत्तर से जानकारी मिलती है  कि ईश्वर सृष्टि का निर्माण, पालन, संहार करता और हम जीवों को हमारे शुभाशुभ कर्मों का यथावत्‌ फल देता है। ईश्वर सम्बन्धी पॉंचवें प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने स्तुतिप्रार्थनोपासना के सातवें मन्त्र से दिया- "वह परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है" तथा "आर्य्याभिविनय" द्वितीय प्रकाश के प्रथम व्याख्यान में उन्होंने ईश्वर को सम्बोधित करते हुए लिखा- "हम आपको ही पिता, माता, बन्धु, राजा, स्वामी, सहायक, सुखद, सुहृद, परम गुरु आदि जानें।"

    उलझन सुलझादी ईश्वर सम्बन्धी करके कृपा अपार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    भगवान्‌ भक्तों के वश में नहीं होता-  मध्ययुग में हुए तथा कथित भगवद्‌ भक्तों के नाम से अवैदिक मतों द्वारा यह प्रचार किया गया कि भक्तभगवान को वश में कर लेते हैं अर्थात्‌ वे भगवान्‌ से अपने इच्छित कार्य करवा सकते हैं। वेद विरुद्ध इस मान्यता की पुष्टि हेतु "भक्तमाल" जैसी पुस्तकों में विभिन्न काल्पनिक कथाएँ लिखी गईजिन्हें पढ-सुन कर भोले नर-नारी भ्रमित हो गये।

    महर्षि दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट कर दिया कि "कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा- हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी बना कर खिलाइयेमकान में झाडू लगाइयेवस्त्र धो दीजिये और खेती बाडी कीजिए। इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते वे महामूर्ख हैं।"

    "भगवान्‌ भक्तों के वश मेंे हो जाता है"इस अन्धविश्वास ने मानव समुदाय का बहुत अहित किया है। भगवान्‌ से किसी के पॉंव दबवानेखेत कटवाने तथा छप्पर बॅंधवाने वाली कल्पित कथाओं के लेखकों को ईश्वर सम्बन्धी कुछ भी ज्ञान नहीं था।

    "भक्त भगवान्‌ से अपने मनमाने कार्य करवा लेते है"इस मान्यता के समर्थन में जो कहानियॉं सुनायी जाती हैं उनमें से उदाहरणार्थ यहॉं एक कहानी का उल्लेख किया जा रहा है। किसी युवक की मृत्यु का दु:ख उसकी माता के लिये असहाय हो गया। वह तथाकथित एक "भगत" के पास जाकर बोली कि आप भगवान्‌ से कहकर मेरे पुत्र को जीवित करवा दीजिएआपकी बड़ी कृपा होगी। भक्त ध्यानावस्थित हो गया और फिर नेत्र खोलकर उस माता से बोला- "मैंने भगवान्‌ से पूछा तो उन्होंने मुझे बतलाया आपके पुत्र की आयु समाप्त हो चुकी हैइसलिये अब यह जीवित नहीं हो पायेगा।" जब "भगत" ने दुखी माता से यह सुना कि यदि भगवान्‌ आपकी इच्छा पूर्ण नहीं करेंगे तो भक्त और भक्ति पर किसी को विश्वास नहीं होगा । उसने पुन: नेत्र बन्द किये और भगवान से कहकर उस मृत युवक को जीवित करवा दिया। मध्ययुग से होती आ रही ऐसी मूर्खतापूर्ण कथाओं ने ईश्वर के न्याय-नियमों पर प्रश्न चिन्ह लगाया। यह ऐतिहासिक सत्य है।

    भक्तों के वश हुए प्रभु का करके दिखलाया उद्धार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अपरिवर्तनीय और एकरस है- परमात्मा की सत्ता को स्वीकारने वाले वेद विरुद्ध मतों से सम्बन्धित अनेक महानुभाव यह मानते और कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों पर प्रसन्नदुष्टों पर कुपित और प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों से प्रभावित होता है। जबकि वैदिक मान्यतानुसार ईश्वर की अवस्था सदैव एक-सी रहती है। उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ करता। अर्थात्‌ पापियों को दण्ड और पुण्यात्माओं को सुख देते समय वह परिवर्तित नहीं होता। हम अपने कर्म-फल उसकी न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत भोगते रहते हैंउसके न्याय-नियम कभी नहीं बदलते।

    इसी प्रकार से चाहे कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुतिवह प्रभावित नहीं होता और सर्दी-गर्मीभूख-प्याससुख-दु:खहानि-लाभअनुकूलता आदि का प्रभाव जीवों की भॉंति ईश्वर पर नहीं होता। अर्थात्‌ हम देखते हैंजड़ से जड़जीव से जीवजड़ से जीव और जीव से जड़ पदार्थ प्रभावित होते हैं। जैसे अग्नि से जललकड़ीवस्त्रादिजल से अग्निमिट्‌टीवनस्पति आदिशेर से हिरनखरगोशमनुष्यादिमनुष्यों से अनेक प्राणीसर्दी-गर्मी-भूख-प्यास आदि से देहधारी आत्माएँ और प्राणी जगत्‌ से जलवायु वस्त्रादि प्रभावित होते हैं ईश्वर नहीं।

    कहा सभी को अटल एक रस अपरिवर्तित है करतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    कृतज्ञता- इस लेख माला में वैदिक मान्यताओं पर आधारित वेद तथा ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ बोध कराने वाले महर्षि दयानन्द के उपकारों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। ऋषियुग की समाप्ति के पश्चात्‌ आये आचार्ययुग और सन्तयुग ने अध्यात्म को बहुत उलझाया है। अर्थात्‌ श्री आचार्य बृहस्पतिश्री शंकराचार्यश्री रामानुजाचायर्यश्री माधवाचार्यश्री राधवाचार्यश्री बल्लभाचार्य आदि आचार्यों तथा कबीरदासतुलसीदाससूरदासरविदास आदि सन्तों ने वेद एवं ईश्वर विषयक परस्पर विरोधी विचार व्यक्त करके मानव समुदाय को विभिन्न भागों में विभक्त कर दिया।

    लगभग पॉंच हजार वर्षों की अवधि में इस भूमण्डल पर आचार्यगुरुसन्तमहन्त नामधारी तो अनेक हुए किन्तु किसी ने ऋषित्व प्राप्त नहीं किया। अर्थात्‌ आर्ष परम्परा के अनुकूल वेद का महत्व तथा ईश्वर का सत्यस्वरूप कोई भी नहीं जान पाया। इस दृष्टि से सम्पूर्ण मानव समुदाय महर्षि दयानन्द का सदैव ऋणि रहेगा। यदि महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव नहीं होता तो संसार सद्‌ज्ञान और सच्चे अध्यात्म को नहीं समझ पाता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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    When he was told that- "In the world, the formless are called Nirguna and the corporeal is called Saguna". So he told- "This imagination is only for the ignorant and ignorant. Those who do not have knowledge, they do it like a beast and waste it. Just as a timid human being bumps, so should the words and articles of the ignorant be considered meaningless. "

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  • महर्षि दयानन्द के देशभक्ति से परिपूर्ण विचार

    महर्षि दयानन्द अपने देश पर कितना अभिमान करते थे और उसको कितना ऊंचा स्थान देते थे, इसकी झलक उनके इन विचारों से मिलती है- "यह आर्यावर्त देश ऐसा है, जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम सुवर्ण भूमि है, क्योंकि यही सुवर्ण आदि रत्न को उत्पन्न करती है। भूगोल में जितने देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं। पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है, जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात्‌ धनाढ्‌य हो जाते हैं।'' (सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लास)

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    सम्पूर्ण विश्व के सुख व कल्याण की कामना, यजुर्वेद मन्त्र ३०.३
    Ved Katha Pravachan _29 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    इस देश के वासी होते हुए भी जो लोग अपनी भाषा और संस्कृति के स्थान पर विदेशी भाषा और संस्कृति को अपनाते हैं, उनकी महर्षि इन शब्दों में भर्त्सना करते हैं- "उन लोगों में स्वादेशाभिमान बहुत न्यून है। भला जब आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए हैं और इसी देश का अन्न-जल अब तक खाया-पीया है और अब भी खाते-पीते हैं, तब अपने माता-पिता व पितामह आदि को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाते हैं और इस देश की संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान प्रकाशित करना तथा इंग्लिश भाषा पढ़के पण्डिताभिमानी होकर झटित एक मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्य का स्थिर बुद्धिकारक काम क्यों कर हो सकता है।'' स्वदेश, स्वभाषा तथा स्वधर्म से प्रेम और अपने पूर्वजों के लिए गौरव एवं अभिमान महर्षि दयानन्द में कूट-कूटकर भरा था। 

    कितने दुःख, व्यथा और वेदना के साथ आप लिखते हैं कि - "विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने का कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषण आदि कुलक्षण, वेद विद्या का अप्रचार आदि हमारी अधोगति के कारण हैं। जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। आपस की फूट से कौरव-पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया, परन्तु अब तक भी वह रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा या आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर में डूबो मारेगा। उसी दुष्ट मार्ग से आर्य लोग अब तक भी दुःख बढ़ा रहे हैं। परमात्मा कृपा करेे कि यह राज रोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाये। जब तक एक मत, एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख परस्पर न माने, तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है। 

    स्वदेशी का महत्व- "देखो! अंग्रेज लोग अपने देश के बने हुए जूते को कार्यालय (ऑफिस) और कचहरी में जाने देते हैं तथा देशी जूते को नहीं। इतने से ही समझ लो कि वे अपने देश के बने जूतों की जितनी मान-प्रतिष्ठा करते हैं, उतनी अन्य देशस्थ मनुष्यों की भी नहीं करते। देखो! कुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में यूरोपियनों को आये हो गए। आज तक वे लोग मोटे कपड़े आदि पहिनते हैं, जैसा कि स्वदेश में पहिनते थे। उन्होंने अपने देश का चाल-चलन नहीं छोड़ा। और तुममें से बहुत लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया। इसी से तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। अनुकरण करना किसी बुद्धिमानी का काम नहीं।'' 

    भारतीयों को उनके गत गौरव का बोध कराते हुए महर्षि ने लिखा था कि हमारा देश प्राचीन समय में विदेशी शासकों के अधीन नहीं रहा था, अपितु हमारे देश के शासकों का ही सर्वत्र सार्वभौम राज्य था और अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात्‌ छोटे-छोटे राजा रहते थे। महर्षि ने इस विषयक विचार निम्न प्रकार से व्यक्त किए हैं- "स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डवों पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात्‌ परस्पर के विरोध से लड़कर नष्ट हो गये। क्योेंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान लोगों का राज्य बहुत दिन नहीं चलता।'' 

    स्मरण रहे कि महर्षि दयानन्द ने अंग्रेजों के विरोध में ये विचार उस समय व्यक्त किये थे, जब उनके शासन का सूर्य मध्याह्न तक पहुंचा हुआ था और उस समय के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को दानवी दमन से दबाकर सर्वत्र भय और आतंक की अवस्था उत्पन्न कर दी गई थी। इसीलिए महर्षि दयानन्द सरस्वती को देश में राष्ट्रीयता का भाव भरने वाला प्रथम महापुरुष माना जा सकता है। आचार्य डॉ. संजयदेव

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    Maharishi Dayanand was so proud of his country and gave him a very high status, this is reflected by his thoughts - "This Aryavarta country is like no other country in the geography like it. That is why this land is called Golden Land. Is, because this is the gold that generates the initial gem.

     

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  • महर्षि दयानन्द में शिव के दर्शन

    शिव का सीधा-सादा अर्थ है कल्याणकारी। पुराणों की शिव की कल्पना भी कल्याण की भावना से ही प्रेरित है। शिव सबका कल्याण व हित चाहने वाला देवता है। दूसरों का शुभचिन्तक व हित चाहने वाला व्यक्ति अधिकतर शुद्ध-पवित्र हृदय का तथा भोलापन लिए होता है। इसीलिए शिव को भोला बाबा भी कहा जाता है, जो थोड़ी सी उपासना करने से ही प्रसन्न होकर काफी वरदान देने वाला देवता है। शिव के बारे में अनेकों कहानियॉं व किस्से प्रचलित हैं। वह किसी को दुखी देखता है तो उसे सुखी बना देता है। इसीलिये दुखी को सुखी बना देने वाला देवता ही शिव माना गया है। कल्याण व उपकार सब गुणों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी बात को अपने शब्दों में कहा है- परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। इसीलिये शिव को सब देवी देवताओं से बड़ा देवों का देव महादेव भी कहते हैं। 

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    वेद मन्त्र व्याख्या - यजुर्वेद मन्त्र 25.15

    Ved Katha Pravachan _34 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    बिना स्वार्थ के देने वाले को देव या देवता कहते हैं। देवता दो प्रकार के होते हैं, चेतन और जड़। दूसरे शब्दों में जीवित देव और निर्जीव देव भी कहे जाते हैं। जीवित या चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, विद्वान, वृद्धजन व अतिथि आते हैं, जो हमें उपदेश, सद्‌ज्ञान, अनुभव व आशीर्वाद देकर हमारे जीवन को सुखी व शान्तिप्रद बनाने का प्रयत्न करते हैं। निर्जीव या जड़ देवों में सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, अन्न, फल व वनस्पति हैं, जिनसे हमारे शरीर को भोजन, गर्मी व शक्ति मिलती है। तभी हमारे शरीर को गति मिलती है और रक्षा होती है। यानी जड़ देवता हमें जीवित रखने में परम सहयोगी हैं। यहॉं प्रसंगवश यह बता देना उचित है कि जैसे हम अपने शरीर के सब अंगों को भोजन व रस पहुँचाने के लिए मुख से भोजन करते हैं, फिर उस भोजन का रस बनकर हमारी नस-नाड़ियों द्वारा शरीर के सभी अंगों को पहुँच जाता है, वैसे ही सभी जड़ देवताओं का मुख अग्नि है। इसीलिये हम यज्ञ द्वारा अग्नि में आहुति देते हैं। यज्ञ में डाली हुई सामग्री व घृत की सुगन्ध हजारों गुणी होकर हवा में फैलकर सब जड़ देवताओं सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि व वनस्पतियों को पहुँच जाती है तथा वह शुद्ध व पवित्र होकर प्राणी मात्र का कल्याण करती है और यज्ञ से ही वायुमण्डल हल्का हो जाने से वृष्टि भी होती है। वृष्टि से अन्न, फल व वनस्पतियॉं पैदा होती हैं, जिनको खाकर प्राणीमात्र जीवित रहता है। इसीलिये वेदों में "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्मः' कहकर यज्ञ की महिमा कही गई है। वेदों में यज्ञ को विश्व की नाभि यानि केन्द्र भी बताया गया है। 

    पुराणों में शिव को सात आभूषणों से विभूषित किया गया है, जो उनके गुणों को प्रदर्शित करते हैं। वे सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में भी पूर्णतः घटित होते हैं। शिव की भॉंति ही महर्षि दयानन्द का पूरा जीवन भी परोपकार के लिये बीता। उनको अपना कोई स्वार्थ नहीं था। उन्होंने अपने जीवन में जो ज्ञान, बल व तेज अर्जित किया, वह सब परहित में ही लगा दिया। महर्षि का एक-एक क्षण और एक-एक श्वास प्राणीमात्र की भलाई के लिये ही बीता। ऐसे महान्‌ व्यक्ति का प्रादुर्भाव संसार में युगों के बाद होता है। शिव ने तो देवताओं व राक्षसों के झगड़े को मिटाने के लिये तथा देवी-देवताओं की रक्षा के लिये विषपान किया था और उस विष को गले में ही रोककर पेट में नहीं जाने दिया, जिससे शिव का गला नीला हो गया। इसीलिये शिव का एक नाम नीलकण्ठ भी है। परन्तु महर्षि दयानन्द ने तो प्राणिमात्र के कल्याण के लिये एक बार नहीं, दो बार नहीं, अनेकों बार विषपान किया और उसको न्यौली क्रिया द्वारा बाहर निकालते रहे तथा विष का प्रभाव शिव की भॉंति ही शरीर पर नहीं होने दिया। इस प्रकार शिव ने जो कार्य बड़े रूप में एक बार किया, वही कार्य महर्षि दयानन्द अनेक बार छोटे रूप में करके शिव के तुल्य बनने के पूरे अधिकारी बने। शिव के सातों आभूषण महर्षि के जीवन में कैसे घटित होते हैं, इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- 

    गंगा को जटा में धारण करना- पौराणिक मान्यता के अनुसार भागीरथ की प्रार्थना पर गंगा के वेग को रोकने के लिये शिव ने पहले गंगा को अपनी जटा में धारण किया। फिर जटा से पृथ्वी पर प्रवाहित किया, जिससे पृथ्वीवासियों का कल्याण व हित हुआ। वैसे ही हजारों वर्षों से वेदों को न पढ़ने से वेद ज्ञान प्रायः लुत हो गया था। सिर्फ ग्रन्थों में ही बन्द था। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के चरणों में बैठकर सत्य ज्ञान को जाना और अपने परिश्रम से वेद ज्ञान रूपी गंगा को पुनः धरती पर प्रवाहित किया। यानी वेद ज्ञान का प्रकाश किया। यह कार्य शिव के कार्य के समान था। 

    मस्तिष्क में चन्द्रमा का होना- चन्द्रमा शीतलता यानी धैर्य का प्रतीक है। महर्षि दयानन्द महान्‌ धैर्यवान्‌ व्यक्ति थे। इसके अनेकों उदाहरण ऋषि के जीवन में आते हैं। परन्तु यहॉं दो घटनाएं लिखना ही पर्याप्त होगा। एक बार ऋषि कहीं व्याख्यान  दे रहे थे। उस समय एक विरोधी ने कुछ शरारती बच्चों को बुलाकर यह कहा कि तुम स्वामी जी पर ईंटें, पत्थर व धूल फेंको, मैं तुम्हें मिठाई दूँगा। बच्चों ने वही काम किया। ऋषि के भक्तों ने उन बच्चों को पकड़ लिया और ऋषि के पास लाये। ऋषि ने बच्चों से पूछा कि तुम ईंट, पत्थर क्यों फेंक रहे थे? तब बच्चों ने उस व्यक्ति का नाम लेते हुए कहा कि उसने हमें मिठाई का लोभ देकर यह काम करवाया। स्वामी जी ने अपने भक्तों से मिठाई मगंवाकर उन बच्चों को दी और उन्हें पुचकारते हुए जाने को कहा। बच्चे खुशी-खुशी अपने-अपने घर चले गये। यह थी महर्षि की सहनशीलता व धैर्य। 

    दूसरी घटना इससे भी कहीं ज्यादा हृदय को छूने वाली है जो मानव में नहीं, किसी महामानव में ही पाई जा सकती है। वह घटना  उस समय की है, जब ऋषि पुणे में कई दिनों से अपने धारावाहिक प्रवचन कर रहे थे। प्रवचनों से खिन्न होकर उनका अपमान करने के लिए एक आदमी का मुँह काला करके गधे पर उल्टा बिठाकर और उसके गले में जूतों की माला पहनाकर पीछे बीस-तीस विरोधी ढोल बजाते हुए जुलूस निकाल रहे थे और उस व्यक्ति की पीठ पर लिखा था "नकली दयानन्द''। ऋषि के भक्तों को यह बड़ा अशोभनीय लगा और वे ऋषि के पास गए तथा सारा वृत्तान्त कह सुनाया। ऋषि मुस्कुराते हुए बोले कि वे जुलूस ठीक ही तो निकाल रहे हैं, नकली दयानन्द की तो यही दुर्गति होनी ही चाहिये। असली दयानन्द तो यहॉं बैठा है। यह सुनकर ऋषि के भक्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह धैर्य की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है? शिव का धैर्य का गुण भी महर्षि में अत्यधिक था। इसलिए उनकी शिव से तुलना करना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

    गले में सर्पों की माला रखना- गले में सर्पों की माला रखने का भावार्थ यह है कि परोपकार के लिये जीवन को हर समय संकट में रखना और प्रसन्नचित्त रहना। इसका एक दूसरा भाव है, दुष्टों को भी आदर देकर गले से लगाना। यह दोनों ही गुण महर्षि के जीवन में बहुत अधिक देखने को मिलते हैं। शिव के गले में सर्पों का रहना तो एक उपमा मात्र है। परन्तु ऋषि के ऊपर तो कितनी ही बार दुष्टों ने मरे हुए सॉंप फेंके, ईंट, पत्थर मारे। लेकिन वाह रे देव ऋषि! तू कभी भी क्रोधित नहीं हुआ और शान्त चित्त से सभी सहन करते हुए वेदों का प्रचार और परोपकारी कार्य करता रहा। धरती पर अनेकों मत संस्थापक व सन्त, ऋषि, महात्मा आये, जिनको विरोधियों का विरोध सहना पड़ा। ऋषि का तो पूरा जीवन ही संकटों से घिरा था। उनके ऊपर कितनी ही बार विरोधियों ने घातक हमले किये, फिर भी उन्होंने विरोधियों से प्रेम का व्यवहार किया। यहॉं तक कि विष देने वाले पाचक जगन्नाथ को भी पॉंचसौ रुपयों की थैली देकर नेपाल भाग जाने को कहा। 

    हाथ में त्रिशूल- हाथ में त्रिशूल, दुष्टों  के संहार तथा वीरता का सूचक है। ऋषि में जितनी सहनशीलता थी, उससे कहीं ज्यादा दुष्टों व अन्यायियों के दम्भ को चूर करने की भी उनमें शक्ति थी। कर्णवास प्रवास के दौरान राव कर्णसिंह महर्षि के वेद प्रचार से रुष्ट होकर उन्हें गाली-गलौच करने लगा। स्वामी जी ने राव को समझाया कि विचारों का मतभेद बातचीत से प्रेमपूर्वक मिटाया जा सकता है। लेकिन राव तो ताकत के नशे में चूर था। गाली बकते हुए तलवार लेकर महर्षि पर लपका। उसे महर्षि के अतुल्य बल का अनुमान नहीं था। महर्षि ने झपटकर उसके हाथ से तलवार छीन ली तथा भूमि पर टेककर दो टुकड़े कर दिये और शान्त मुद्रा में कहा- "मैं संन्यासी हूँ। तुम्हारी किसी भी गलत हरकत से चिढ़कर, मैं तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं करूंगा। जाओ! ईश्वर तुम्हें सुमति प्रदान करें।'' 

    हाथ में डमरू- हाथ में डमरू धर्म प्रचार का सूचक है। ऋषि ने जो सबसे ज्यादा कार्य किया, वह वैदिक धर्म का प्रचार कार्य है। उस समय वेद सरलता से उपलब्ध नहीं थे। बहुत अधिक परिश्रम करके वेद की कुछ प्रतियॉं दक्षिण भारत से और कुछ जर्मनी से मंगवाकर चारों वेद उपलब्ध करवाये। उनके प्रचार के लिये विरोधियों से कितने ही शास्त्रार्थ किये। सारे भारत में घूम-घूमकर कितने ही व्याख्यान व भाषण दिये। अनेकों ग्रन्थ लिखे। वेदों के भाष्य भी किये और वेद प्रचार करने के लिये ही आर्यसमाज की स्थापना सन्‌ 1875 में मुम्बई में की, जिसका मुख्य उद्देश्य मानव मात्र की सेवा करते हुए वेद प्रचार करना ही है। डमरू का कार्य जितना महर्षि दयानन्द ने किया, उतना शायद ही किसी अन्य धार्मिक विद्वान्‌ ने किया हो। 

    शरीर पर राख रमाना- शिव शरीर पर राख रमाते थे। इसका तात्पर्य एक तो यह हो सकता है कि राख जैसी महत्वहीन वस्तु को भी महत्व देना यानि निम्न, कमजोर, अनाथ व असहाय व्यक्तियों को गले लगाना और उनको सहयोग व सम्मान देना। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि परहित के कार्यों में अपने तन, मन, धन को समर्पित करके त्याग द्वारा स्वयं को राख के समान बना देना। ये दोनों ही काम महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में बहुत अधिक मात्रा में किये। उन्होंने वेद प्रचार के बाद यदि कोई दूसरा काम अधिक-से अधिक किया था, तो वह था दुखित, असहाय, व अनाथ लोगों का जीवन सुखी बनाने हेतु जन-समाज को प्रेरित करना तथा समाज में अपमानित व निन्दित शूद्र वर्ग जिसे अछूत कहा जाता था, उसको हिन्दू समाज का अभिन्न अंग बताकर उसको सम्मान दिलाना और पढ़ने व धार्मिक स्थानों में प्रवेश का अधिकार दिलाना। 

    नारी जाति की भी उस समय दुर्दशा थी। उन्हें पढ़ाना तो दूर रहा, घर से बाहर निकालना भी दुष्कर्म समझा जाता था। उनका जीवन एक कैदी के समान था, बाहर की हवा भी नहीं लगने दी जाती थी। नारी घर का काम करने की केवल मशीन मात्र थी। ऐसे समय में महर्षि ने मनुस्मृति के श्लोक "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' के आधार पर उन्हें परिवार व समाज में सम्मान दिलवाया और गार्गी जैसी विदूषियों का उदाहरण देकर उन्हें लौकिक शिक्षा ही नहीं, वेद पढ़ने व पढ़ाने तक का अधिकार दिलाया। महर्षि ने विधवा-विवाह का समर्थन कर विधवाओें को सुखी जीवन प्राप्त कराया। 

    बाघाम्बर धारण- शिव वस्त्रों की जगह पहनने व बिछाने में बाघ की खाल (बाघ-छाल) का ही प्रयोग करते थे। इसका तात्पर्य यह है कि अपनी हिंसक प्रवृत्तियों का दमन करके अपने वश में करना। महर्षि दयानन्द इस विषय में सर्वोपरि और बेजोड़ थे। वे बाल ब्रह्मचारी तो थे ही साथ ही त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और प्रकाण्ड वेदज्ञ विद्वान भी थे। कोई ऐसा मानवीय गुण जैसे दया, उदारता, सहृदयता, निर्भयता, निष्पक्षता, ईमानदारी, विनम्रता, अहिंसा आदि नहीं, जो उनमें नहीं हो और अमानवीय दुर्गुण जैसे ईर्ष्या, द्वेष, राग, घृणा व अहंकार आदि तो उनसे कोसों दूर रहते थे। यदि यह कहा जाए कि हिंसक प्रवृत्तियों के दमन का कार्य महर्षि ने बाल ब्रह्मचारी होने के कारण शिव से भी बढ़कर किया, तो यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस प्रकार शिव के सातों आभूषणों के प्रतीक के रूप में सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में पूर्णरूपेण देखे जा सकते हैं। - खुशहालचन्द्र आर्य

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    Shiva simply means welfare. Shiva's imagination of the Puranas is also inspired by the feeling of well-being. Shiva is the deity who wants the welfare and well-being of all. The person who wishes the well-wishers and interests of others is mostly of pure and pure heart and innocence. That is why Shiva is also called Bhola Baba, who is a deity who is very happy with only a little worship.

     

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  • महाराणा प्रताप और वीर छत्रसाल

    यह सुखद संयोग है कि मातृभूमि और धर्म की रक्षा करने वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और रक्ष बांकुरे छत्रसाल का जन्म एक ही तिथि ज्येष्ठ शुक्ल 3 को हुआ था। यद्यपि उनके जीवनकाल में लगभग 200 वर्षों का अन्तर था। महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1540 में हुआ था। जब दिल्ली का बादशाह अकबर था जबकि छत्रसाल का जन्म संवत 1706 में हुआ जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था। इस वर्ष 22 मई को दोनों महापुरुषों की जयन्ति है। 

    महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया। 

    Ved Katha Pravachan _76 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    इसके परिणाम स्वरूप राणा प्रताप को निरन्तर युद्ध करते रहना पड़ा। वे जंगल-जंगल भटकते रहे और करीब 25 वर्षों तक अकबर की विशाल सेना हर बार मुकाबला करते रहे। 

    महाराणा प्रताप और अकबर के बीच दिनांक 18 जून 1576 में हुआ हल्दीघाटी का युद्ध विश्व में प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की सेना का नायक आमेर का राजा मानसिंह था जो अत्यन्त वीर और पराक्रमी था। देवयोग से वह प्रताप के वार से बच निकला। इस युद्ध में प्रताप ने अकबर की विशाल सेना को तहस नहस कर दिया। विजय किसी की नहीं हुई। इसके पश्चात्‌ प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनायी और अपने जीवनकाल में ही मेवाड़ का अधिकांश भूभाग दुश्मन से मुक्त करा लिया। 

    महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ प्रसंग उल्लेखनीय हैं। राणा प्रताप अपने अनुज शक्तिसिंह के साथ एक बार आखेट पर गए। शिकार किसने किया इस पर दोनों में विवाद हुआ और दोनों ने तलवार खींच ली। परिस्थिति विकट देखकर साथ गये राजपुरोहित ने कहा यदि लड़ाई बन्द नहीं हुई तो मैं आत्म हत्या कर लूंगा। चेतावनी का असर होता न देख विप्र ने कटार मारकर आत्महत्या कर ली। परिणाम में दोनों सान्त हुवे, युद्ध टल गया। यदि ऐसा न होता तो कल्पना कीजिए क्या स्थिति होती? इन राज पुरोहित का नाम नारायणदास पालीवाल था। उनके 4 पुत्र थे उनमें से 2 ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और खेत रहे थे। 

    जब राणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे। खाने का भी साधन नहीं था। भूखे राजकुमारों को देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने सुलह के लिये अकबर को पत्र लिखा। तब बीकानेर के राजा अनुज पृथ्वीराजसिंह बादशाह के दरबार में थे। उन्हें प्रताप पर गर्व था। प्रताप का पढ़ पढ़कर उनकी आत्मा सिहर उठी। उन्होंने एक जोशीला पत्र प्रताप को भेजा जिससे प्रताप का स्वाभिमान जाग उठा और उन्होंने युद्ध करना निश्चित किया। पृथ्वीराज के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-

    मैं आज सुनी है म्यानां में तलवार रेवेला सूनी
    म्हारो हिलडो कांपे है मूंछारी मोड़ मरोड़ गई
    पीथल ने राणा लिख भेजो आ बात कठा तक गिनूं सही

    राणा के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-

    थे राखो मूंछ एठयोरी, लोई री नदी बहा दूंगा
    मैं तुर्क कहूंला अकबर ने उजड्‌यो मेवाड़ बसा लूंगा।                                      

    म्हूं राजपूत रो जायो हूँ, रजपूति करंज चुकाऊँगा
    यो शीश गिरे पर पाग नहीं म्हूँ दिल्ली आण झुकाउंगा

    जब हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप दुश्मनों से चारों और घिर गए और बचने की कोई आश नहीं थी। यह स्थिति देखकर झाला सरदार मानसिंह तुरन्त उनके पास पहुँचे। उनका राजचिन्ह अपने सिर पर रखा और राणाजी को घेरे से बाहर निकलने की राह बनाई। दुश्मनों ने मानसिंह को राणा समझकर घेर लिया और वे वीरगति को प्राप्त हुए। यदि समय पर झाला सरदार ऐसा न करते तो हल्दीघाटी का इतिहास ही और होता। 

    जब प्रताप घायल होकर घायल घोड़े चेतक पर बैठकर युद्ध क्षेत्र से बाहर निकले उन्हें देख दुश्मन के दो सवारों ने उनका पीछा किया। परिस्थिति को गम्भीरता को देखकर राणा के अनुज शक्तिसिंह ने पीछा किया और दोनों सैनिकों को मार गिराया और प्रताप से क्षमा मांगी यदि ऐसा न होता। 

    इसी प्रकार भामाशा ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति राणा प्रताप को अर्पित कर राष्ट्र भक्ति का अद्वितीय कार्य किया। इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा। 

    महाराणा प्रताप योद्धा ही नहीं महान व्यक्तित्व के धनी भी थे। वे अपने शत्रु से भी धर्मपूर्वक व्यवहार करते थे। जब प्रताप का देहान्त हुआ शहंशाह अकबर हैरान हो गया उसकी आँखें छलक उठी। उसके मुँह से निकला ऐ प्रताप तू महान था। तूने हिन्दुस्थां की शान रखी। 

    वास्तव में महान योद्धा, स्वाधीनता का पक्षधर, कर्मठ देशभक्त प्रताप इस देश की अस्मिता और स्वतन्त्रता के लिए जिए और अमर हो गये। 

    महाराज छत्रसाल - बुन्देलखण्ड के राजा चम्पतराय ने जीवनभर अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये मुगलों से संघर्ष किया। वृद्धावस्था उनकी आकस्मिक मृत्यु के पश्चात, कर्त्तव्य का दायित्व उनके पुत्र छत्रसाल के कन्धों पर पड़ा। छत्रसाल की शिक्षा दीक्षा उनके माना के यहॉं हुई। 

    छत्रसाल ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दू राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया। परन्तु उसमें वे सफल नहीं हो सके। बुन्देलखण्ड के अनेक राजा मुगलों के साथ थे। ऐसी परिस्थिति में छत्रसाल ने विश्वस्त युवकों की एक सेना तैयार की और मुगलों से संघर्ष करते रहे। 

    कुछ वर्ष पश्चात छत्रसाल ने महाराष्ट्र जाकर शिवाजी महाराज से भेंट की। उन्होंसे राजनीति और रणनीति के गुर सीखे। छत्रसाल शिवाजी से बहुत प्रभावित थे। उनकी ही रणनीति से छत्रसाल ने बुन्देलखण्ड में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह उल्लेखनीय है कि छत्रपति शिवाजी की तरह महाराज छत्रसाल भी कभी युद्ध में नहीं हारे। छत्रसाल महान योद्धा और श्रेष्ठ कवि थे। साहित्यकारों का वे सम्मान करते थे। 

    बुन्देलखण्ड पर कब्जा करने के लिए बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में बहुत प्रयत्न हुए। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका पुत्र फर्रुखसियर बादशाह हुआ। उस समय छत्रसाल वृद्ध हो गये थे। ऐसे समय में बादशाह ने अपार सेना महमदखां बंगश के अधीन भेजकर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया। छत्रसाल ने उसे कई बार पीछे धकेला परन्तु उसकी सेना विशाल थी और उसे बराबर सहायता मिलती जा रही थी। 

    स्थिति संकटपूर्ण थी। तब छत्रसाल का शिवाजी को वह आश्वासन याद आया कि हिन्दूत्व की रक्षा के लिए जब आवश्यक हो महाराष्ट्र की सेना बुन्देलखण्ड सहायतार्थ आयेगी। इस समय मराठों का नेतृत्व बाजीराव के हाथ में था। छत्रसाल ने बाजीराव को सहायता के लिए मर्मस्पर्शी पत्र लिखा- उसने लिखा-

    जो गति गज की भई सो गति भई है आज।
    बाजी जात बुन्देल की राखो बाजी लाज। 

    पत्र पढ़कर बाजीराव सहायतार्थ पहुँच गए। बंगश पर घेरा डाल दिया गया। बाजीराव के आक्रमण से उसके कई सेना नायक मारे गये। अन्त में उसने प्राणों की भीख मांगी। तब युद्ध का व्यय देने और भविष्य में कभी बुन्देलखण्ड की तरफ नजर डालने की शपथ पर उसे प्राणदान दिया गया।

    इस संकट की घड़ी में सहायता करने वाले बाजीराव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र माना और बुन्देलखण्ड राज्य का एक तिहाई भाग दिया। छत्रसाल की एक मुस्लिम स्त्री से उत्पन्न कन्या को भी छत्रसाल ने बाजीराव को दी जो इतिहास में मस्तानी के नाम से प्रख्यता हुई।

    छत्रसाल के राज्य में प्रजा सुखी थी बुन्देलखण्ड में आज भी प्रार्थना में कहा जाता है "छत्रसाल महाबली करियो सबकी भली। वीर छत्रसाल की वीरता से महाकवि भूषण इतने प्रभावित हुए थे कि शिवाजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें कहना पड़ा- शिवा को सराहूँ कि सराहूँ छत्रसाल को। 

    महान योद्धा, धर्मरक्षक महाराणा प्रताप और वीर छत्रसाल को श्रद्धापूर्वक नमन। श्रीकृष्ण पुरोहित

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    Maharana Pratap was not only a warrior but a rich man of great personality. They also used to treat their enemies religiously. Emperor Akbar was shocked when Pratap died. Ai Pratap came out of his mouth, you were great. You respected the Hindusthan.

     

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  • माता को प्रथम गुरु क्यों कहा गया है

    मॉं को प्रथम गुरु कहा गया है। माता जहॉं जन्म देती है तथा शिशु को नौ महीने तक गर्भ में पालती है और साथ ही संस्कारित भी करती है। बालक नौ महीने तक गर्भ के अन्दर रहता है, तब जो शिक्षा चलती है वह संस्कारों की शिक्षा है। इसलिए माता प्रथम गुरु है। शिवाजी को उसकी मॉं जीजाबाई ने गर्भ में ही संस्कारों की शिक्षा दी थी। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं

    Ved Katha Pravachan _56 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    माता मन में ज्ञान के प्रकाश को डालती है। मन-बुद्धि के अन्दर ज्ञान भली प्रकार माता के द्वारा डाला जाता है। यह संस्कारों का पोषण है। माता पोषित एवं संस्कारित करती है और पिता पालन करता है तथा गुरु अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाला है। गुह्य ज्ञान का प्रकाशक जो है, उसका नाम है गुरु। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। बालक जब बड़ा हो जाता है तो संसार का ज्ञान कराती है मॉं। गुरु भी ज्ञान कराता है, लेकिन गर्भ के अन्दर जो ज्ञान होता है, वह आन्तरिक ज्ञान है, अन्तः शिक्षा है। यह अन्तः शिक्षा पूरे जीवन में काम करती है। बाह्य शिक्षा समय के साथ है, संस्कारों के साथ है। जो संंस्कार गर्भ में पड़ जाते हैं, वही जीवन भर चला करते हैं। इसलिए मॉं को श्रेष्ठ और प्रथम गुरु कहा गया है। 

    बल, बुद्धि और ज्ञान से सम्पन्न को वेद में शूरवीर कहा गया है। जो न स्वयं दीन होते हैं और न ही राष्ट्र को दीन बनने देते हैं, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली मॉं साधुवाद और प्रशंसा की पात्र है। क्योंकि ऐसे वीर पुत्र देवों को भी वश में कर लेते हैं। ऐसे पुत्रों को जन्म देने वाली मॉं और वह कुल जिसमें जन्म लिया है, दोनों ही कृतार्थ हो जाते हैं। - डॉ. विनोद शर्मा

    दुनिया में सबसे सुन्दर हाथ

    एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ अपने आरामदेय घर में बैठा था। वह अपनी मॉं से बोला- "मॉं! आपका चेहरा दुनिया में सबसे दयालु व सुन्दर है। दिल चाहता है कि मैं इसे हमेशा देखता रहूँ।'' 

    जैसे ही वह ये शब्द बोल रहा था, उसकी नजर अपनी मॉं के हाथों पर पड़ी। वे मुड़े हुए और बड़े कुरूप थे। वह बोल उठा- "मॉं! आपके हाथ दुनिया में सबसे कुरूप हाथ होंगे। मैं उनकी तरफ देख भी नहीं सकता।'' 

    इस पर पिता ने बेटे को अपनी गोद में बैठाया और कोमलता से बोला- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक समय की बात है कि एक नन्हा बच्चा अपने पालने में शान्तिपूर्वक सोया हुआ था कि पालने को आग लग गई।'' 

    लड़के ने पूछा- "बच्चे का क्या हुआ?'' "बच्चे की देखभाल के लिए जो आया रखी थी, वह डरकर भाग गई'', पिता ने बात जारी रखी, "लेकिन मॉं ने आग देख ली और बच्चे को बचाने दौड़ी। उसने देखा कि बच्चे के चारों ओर आग इतनी फैल चुकी थी कि बच्चे को घायल हुए बिना उठाना असम्भव था। उसने हाथों से ही आग बुझाई। उसके हाथ बुरी तरह जल गये। उन्हें ठीक होने में कई महीने लग गये। पर उन पर दाग फिर भी रह गये।'' 

    छोटा बच्चा चहक उठा- "कितनी बहादुर मॉं होगी!'' 

    पिता ने कहा- "जानते हो वह कौन थी? वह तुम्हारी मॉं थी। उसके कुरूप हाथों ने ही तुम्हें बचाया था।'' 

    यह सुन बच्चे की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वह अपनी मॉं की तरफ मुड़ा और बार-बार उसके हाथ चूमने लगा। वह रोते हुए बोला- "मॉं, यह दुनिया के सबसे सुन्दर हाथ हैं।'' - प्रस्तुतिः वरुण

    शिष्य की निष्ठा

    एक सन्त घने जंगल से होकर अपने गन्तव्य के लिये निकले। यह देखकर उनका शिष्य भी उनके पीछे चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। नदी को पार करने के लिए कोई पुल न था। सन्त को नदी के पार पहुंचना जरूरी था। यह देख शिष्य दौड़कर गुरु जी से आगे आया और नदी के तेज जल में उतर गया। गुरु खड़े हुए यह दृश्य देखते रहे। शिष्य नदी को पार करने लगा। उसके गले तक जल आने लगा। अन्ततः उसने नदी को पार कर ही लिया। उसने गुरु जी से कहा- गुरुवर! अब आप भी धीरे-धीरे नदी पार कर लें। गुरु ने भी उसके आग्रह पर तेज जल प्रवाह में चलकर नदी को पार कर लिया। 

    सन्त ने शिष्य से कहा कि तू दौड़कर मुझसे आगे आया और नदी में उतर गया। अगर तू डूब जाता तो क्या होता? शिष्य ने गुरु के चरण पकड़कर कहा- "हे गुरुवर, अगर मैं डूब जाता तो कोई फर्क न पड़ता, किन्तु अगर आप डूब जाते तो देश की अत्यधिक हानि होती। आपको मेरे जैसे अनेक शिष्य मिल जायेंगे। किन्तु जन-मानस को आप जैसा गुरु कहॉं से मिलता?'' प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Mother has been called the first Guru. The mother where she gives birth and raises the baby in the womb for nine months and also performs the rituals. The child stays inside the womb for nine months, then the education that goes on is the education of the sacraments. Therefore Mata is the first Guru. Shivaji was taught the rites by his mother Jijabai in the womb itself. Janmani Janmabhoomi Swargadpi Gariyasi. Janani and Janmabhoomi is also greater than heaven.

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  • माता-पिता की मर्जी बिना प्रेम विवाह के खिलाफ अर्जी खारिज

    मदुरै –8फरवरी,2015मद्रास हाई कोर्ट ने उस जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया,जिसमें अनुरोध किया गया था कि माता-पिता की मर्जी के बिना प्रेम विवाह कराने से अधिकारियों को रोका जाए। याचिका में कहा गया था कि शादी के मौके पर दंपती के मां-बाप की मौजूदगी सुनिश्चित की जाए ताकि हॉरर किलिंग के नाम पर होने वाली हत्याओं पर अंकुश लगाया जा सके।

    वेलेनटाइन डे से एक सप्ताह पहले दायर याचिका में तमिलनाडु सरकार को यह आदेश देने का अनुरोध किया गया था कि वह पंजीकरणपुलिस और मंदिर अधिकारियों को युवक-युवती के माता-पिता की उपस्थिति और सहमति के बिना शादी नहीं कराने का निर्देश दें। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और अन्य न्यायधीशों ने ऐसा निर्देश देने की संभावना से इनकार किया और कहा कि यह अदालत की ओर से कोई कानून बनाने जैसा कदम होगा। न्यायाधीशों ने कहा कि बालिग लड़के-लड़कियों को अपना साथी चुनने का पूरा अधिकार है। अदालत उसमें दखल नहीं दे सकती। यह जनहित याचिका के. के. रमेश ने दायर की थी।

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    Madras HC declines PIL against love marriages without parents' consent

    Madurai: Feb 08, 2015. Madras High Court on Saturday declined to entertain a PIL petition which sought to forbear officials from solemnising love marriages without the consent and presence of parents of the couples to check honour killings.

    The petition, filed about a week ahead of Valentine's Day on February 14, had sought a direction to the Tamil Nadu Government to issue a circular instructing the registration, police and temple officials not to perform marriages without insisting on the personal appearance and consent of the parents of the girl and the boy.

    Chief Justice Sanjay Kishan Kaul and Justice S Tamilvanan ruled out the possibility of issuing such a direction, saying it would amount to the court making a new law. The judges said a major boy or girl had every right to choose their partner and the court could not intervene.

    would amount to the court making a new law. The judges said a major boy or girl had every right to choose their partner and the court could not intervene.

    जो हमारे लिए उपयोगी होता है, उसकी हानि को हम अपनी हानि समझते हैं। उसकी रक्षा करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। जो हमारे लिए उपयोगी नहीं उसके बारे में हम कोई परवाह नहीं करते।
    We consider the loss of what is useful to us as our loss. Trying to protect him. We don't care about what is not useful to us.
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    कुछ उपयोगी बातें हैं, जिन्हें अपनाकर विद्यार्थी संस्कारी व आत्मविश्वासी बन सकते हैं -विद्यार्थियों को सुबह या शाम नियमित रूप से कुछ देर तक व्यायम या योग्याभ्यास जरूर करना चाहिए।
    There are some useful things, by adopting which students can become cultured and self-confident - Students must do exercise or yoga regularly for some time in the morning or evening.
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    मां-बाप को चाहिए कि वे अपने बच्चों पर थोड़ा सा ध्यान दें और उन्हें न केवल एक संस्कारी बच्चा बनाएं बल्कि एक संस्कारी विद्यार्थी भी बनाएं ताकि ताउम्र बच्चे अपना आत्मविश्वास बनाए रखें, जो जीवन के हर मोड़ पर उसे सफल बनायेगा।
    Parents should pay a little attention to their children and make them not only a cultured child but also a cultured student so that the child maintains self-confidence throughout his life, which will make him successful at every turn of life.

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  • मानव-निर्माण में आर्यसमाज का महत्व-1

    संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठतम है। उसकी महत्ता का वर्णन वैदिक ऋचाओं से लेकर अत्याधुनिक कविताओं तक में मिलता है। महाभारतकार के शब्दों में- न हि मानुषात्‌ श्रेष्ठतरं हि किंचित्‌। अर्थात्‌ इस सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने भी मानव को जगत्‌ का सुन्दरतम प्राणी माना है- सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर । मानव तुम सबसे सुन्दरतम।।

    भोग और कर्मयोनि-निश्चय ही चराचर जगत्‌ में मनुष्य की समता कोई दूसरा प्राणी नहीं कर सकता। वह विधाता की श्रेष्ठतम रचना है, सुन्दरतम विधान है । लेकिन क्यों? इसका कारण सम्भवत: यही प्रतीत होता है कि मानवेतर अन्य प्राणी भोग योनि में हैं, पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं । किन्तु मानव भोग और कर्म की उभय योनि में है। मानव योनि में पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल तो भोगा ही जाता है, भावी जीवन के लिए नऐ कर्म भी किए जाते हैं। कर्म की इसी विशेषता के कारण मनुष्य की श्रेष्ठता स्वत: प्रमाणित है। कर्म की यह विशेषता धर्म में निहित है, इसीलिए धर्माचरणविहीन मनुष्य को पशुवत्‌ ही माना गया है-

    आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
    धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेंण हीना पशुभि: समाना।।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गीता और वेद का मार्ग कल्याणकारी है।
    Ved Katha Pravachan - 100 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मनुष्य का शरीर पा जाने मात्र से ही किसी को मनुष्य नहीं कहा जा सकता। जो प्राणी मानव शरीरधारी होकर भी मानवता के विभेदक लक्षणों से युक्त नहीं है, उसे मनुष्य कहना मानवता का अपमान करना है। मानव को मानव बनाने का काम सर्वाधिक कठिन है। मनुष्य कठिन साधना और पवित्र जीवन से ही मनुष्य बन पाता है। यह आत्मज्ञान का विषय है, इसलिए प्रत्येक प्राणी को पहले यह जानना है कि वह कौन है, किसका है, उसका क्या नाम है और उसके जीवन का क्या लक्ष्य है? इस सन्दर्भ में यजुर्वेद का निम्नांकित मन्त्र प्रमाण है-

    कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनाति तृपाम।
    भूर्भुव: स्व: सुप्रजा: प्रजाभि: स्यां सुवीरो वीरै: सुपोष: पौषै:।। (यजुर्वेद 7.29)

    कहने की आवश्यकता नहीं कि मानव-शरीर की प्राप्ति अनेक जन्मों के पुण्यों का फल है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य-शरीर मिलता है, ऐसा अनेक विचारकों ने माना है। इस शरीर को पाकर भी जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता और इसे यों ही गंवा देता है, उससे बढकर मूर्ख और आत्म-घाती दूसरा कोई नहीं। संसार के प्रत्येक प्राणी का ध्येय मोक्ष-लाभ और ईश्वर प्राप्ति है। उसी की ज्योति से चर-अचर आलोकित हो रहे हैं। उसे पा लेने के उपरान्त प्राणी जन्म-मरण के बन्धनों से उसी प्रकार छूट जाता है, जैसे परिपक्व खरबूजा अपनी लता से स्वत: ही पृथक्‌ हो जाता है।यजुर्वेद के तृतीय अध्याय में इसी बात को स्पष्ट करते हुए उल्लेख है- उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। (मन्त्र 60)

    मनुष्य-शरीर पाकर भी यदि हम अपने लक्ष्य-बिन्दु तक न पहुंच सके तो किसी दूसरी योनि में यह काम सम्पन्न न होगा। किन्तु व्यक्ति के लिए सर्वप्रथम सम्यक्‌ ज्ञान द्वारा यह जानना आवश्यक है कि मनुष्य के कर्त्तव्य-कर्म क्या हैं, उसके जीवन का लक्ष्य क्या है? हमारे देश के तत्वज्ञ मुनियों ने मानव-जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं पर विचार कर उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करने हुए उसके जीवन का लक्ष्य "पुरुषार्थ-चतुष्टय" (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति निश्चित किया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मनुष्य मनुष्य बने, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान कर तदनुसार आचरण करे। मनुष्य को मनुष्य बनाने और अपने कर्त्तव्य-कर्मो की पहचान करा कर उस ओर उन्मुख करने में आर्यसमाज की भूमिका निश्चय ही महत्वपूर्ण है।

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    महर्षि दयानन्द की देनआर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती क्रान्तदर्शी मनीषी थे। आज से लगभग डेढ शताब्दी पूर्व उन्होनें  आर्यसमाज रूपी जिस मशाल को जलाया, उसके प्रकाश से असंख्य मनुष्यों के जीवन आलोकित हो चुके हैं। मनुष्य-मात्र को अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने में इस समाज का जो योगदान है वह अविस्मरणीय है। मानव उद्धारक, दया और आनन्द के मूर्तिमान रूप महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज के माध्यम से मानव-निर्माण का जो अभूतपूर्व कार्य किया वह मानवेतिहास में अत्यन्त दुर्लभ है। स्वामी जी ने इस समाज के नियमोपनियमों और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के द्वारा जिस वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात किया उसका सुफल धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहा है।

    वैदिक वाङ्‌मय का मन्थन कर उन्होंने जन-भाषा में जिस साहित्य की सृष्टि की, अज्ञानान्धकार के मूलोच्छेद में वह सूर्य के समान निश्चय ही समर्थ है। इस साहित्य का अध्ययन करने पर इसमें रंच-पात्र भी सन्देह नहीं रहता कि ऋषिवर स्वामी दयानन्द सरस्वती न केवल दूर-द्रष्टा वरन्‌ आधुनिकताबोध सम्पन्न विचारक भी थे। किसी बात को सप्रश्न दृष्टि से देखना और विवेक की तुला पर तोलना ऐसी बाते हैं, जो स्वामी जी को अत्याधुनिक चिन्तकों की पंक्ति में सहज ही बिठाती हैं। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। बीच में तोड़ने ही होंगे मठ और गढ सब। यह शिक्षा सर्वप्रथम मुक्ति बोध ने नहीं, स्वामी जी ने दी। उन्होंने यह शिक्षा कथन द्वारा मात्र अभिधात्मकरूप में न देकर अपने जीवन और व्यवहार द्वारा दी। सत्य का उद्‌घोष वे जीवन-पर्यन्त निर्भीक रूप से करते रहे। गढों-मठों को तोड़ने के साथ धर्म में व्याप्त आडम्बरों का उन्होंने सदैव पर्दाफाश किया और इसके लिए कभी जिन्दगी की भी परवाह नहीं की। इसका प्रधान कारण स्पष्टत: यही है कि मठ-गढ और धर्माडम्बर मानव-प्रगति में सर्वाधिक बाधक हैं। ये अज्ञानान्धकार फैला कर मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देते। कभी-कभी तो मनुष्य को दुर्दान्त दैत्य बना देेते हैं और इस प्रकार मानवता के नाम पर कलंक लगाते हैं। स्वामी दयानन्द का जीवन, उनका सद्‌-साहित्य और अन्याय-असत्य आदि की विरोधिनी उनकी ओजविनी मूर्ति आज भी धरोहर के रूप में आर्य समाज के पास है। स्वामी जी के बाद आर्य समाज उनके आदर्शों का मूर्तिमन्त रूप है और वह मानव निर्माण के सनातन उत्तरदायित्व का निर्वाह करता आ रहा है। आर्य समाज के नियमों और आदर्शों का पालन कर कोई भी व्यक्ति महान्‌ बन सकता है, यहॉं तक कि देव-कोटि में पहुंच सकता है। किन्तु उसके लिए कथनी और करनी में अन्तर की समाप्ति आवश्यक है, मनसा-वाचा-कर्मणा जीवन को तदनुसार ढालने की आवश्यकता है।

    मानव-निर्माण और सामाजिक अभ्युत्थान की दृष्टि से आर्य समाज की अपनी चिन्तन धारा है। यह समाज वर्ग, जाति, लिंग, देश या काल की संकीर्णताओं में बन्धा नहीं है। कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌ का आदर्श लेकर चलने वाले समाज को बन्धना भी नही चाहिए। मानव-मानव के बीच खड़े समस्त भेद-भावों को समाप्त कर यह समाज विश्व बन्धुत्व का एक अनोखा आदर्श उपस्थित करता है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सन्तान हैं, तब उनमें भेद-भाव कैसा, छुआछूत कैसी ? जन्म से सभी व्यक्ति शूद्र हैं। किन्तु वे कर्म से द्विज बनते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था का आधार जन्म नहीं, गुण और कर्म हैं। ऋषि के शब्दों में, जो शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के समान गुण-कर्म-स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाए। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाये। (सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थ समुल्लास) लेखक- डॉ. सुन्दरलाल कथूरिया 

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    Man is the best among all beings in the world. His significance is found in Vedic hymns to modern poems. In the words of the Mahabharata, neither man is superior or not. That is, there is nothing better than man in this world. Poet Sumitranandan Pant has also considered human being the most beautiful creature of the world - beautiful is the bird, the beautiful is beautiful. Man you are the most beautiful.

     

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  • मानव-निर्माण में आर्यसमाज का महत्व-2

    संस्कारों का महत्व-व्यक्ति के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ है संस्कारों का। यदि किसी समाज के व्यक्ति अच्छे हैं तो वह समाज निश्चय ही अच्छा होगा। किन्तु अच्छे समाज के निर्माण के लिए समाज के प्रत्येक घटक का निर्माण आवश्यक है और यह कार्य संस्कारों के द्वारा जितने सुन्दर रूप में सम्पादित हो सकता है, दूसरे किसी उपाय से नहीं। मानव के समुचित विकास के लिए आर्य समाज की दृष्टि में सोलह संस्कार आवश्यक हैं। इन संस्कारों के करने से शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होती है। आज संसार में जो सन्ताप दिखाई दे रहे हैं, उनका एक कारण यह भी है कि व्यक्ति संस्कार-विहीन हो गया है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को चाक पर चढा कर उसे जैसा चाहता है, वैसा रूप दे देता है, उसी प्रकार संस्कारों की चाक पर चढाकर मनुष्य का यथोचित निर्माण किया जा सकता है। संस्कारों की अग्नि में तप कर व्यक्ति कुन्दन के समान भास्कर हो उठता हैं।

    व्यक्ति परिवार का अंग है। आदर्श व्यक्तियों के योेग से आदर्श परिवार का निर्माण होता है। परिवार का निर्माण होता है। परिवार की सुख-शॉंति के लिए एक दूसरे के प्रति त्याग का भाव और सामंजस्य आवश्यक है। स्वार्थ पर टिका सम्बन्ध कभी स्थायी नहीं हो सकता। प्रत्येक परिवार की सुख-समृद्धि के लिए आर्य समाज की पंच-महायज्ञों में आस्था है । यज्ञों के द्वारा व्यक्ति, परिवार और समाज का कल्याण निश्चित है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    भारत की गुलामी का कारण
    Ved Katha Pravachan - 99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    पारिवारिक जीवन का आधार पति-पत्नी और सन्तान हैं। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चले, इसके लिए इनमें उचित सहयोग और कर्त्तव्य-निष्ठा आवश्यक है। सन्तान के निर्माण में माता-पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यदि माता-पिता आदर्श हैं तो सन्तान भी आदर्श बनेगी। इस सन्दर्भ में ऋषिवर दयानन्द सरस्वती का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है- "जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात्‌ एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो, तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है। वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ी भाग्यवान! जिसके माता और पिता धार्मिक-विद्वान हैं। जितना माता से सन्तान को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं।"(सत्यार्थ प्रकाश, द्वितीय समुल्लास)

    सामाजिक चिन्तन-आर्य समाज की सामाजिक चिन्तन धारा भी है। इस विचार-धारा को स्वीकार कर लेने पर आदर्श समाज का निर्माण सहज सम्भव है। आर्य समाज वर्णाश्रम व्यवस्था का आधार गुण-कर्म-स्वभाव को मानता है। आर्य समाज सभी मनुष्यों को समान मानकर छुआछूत का विरोध करता है। वह शूद्रों और स्त्रियों को भी वेदाध्ययन का अधिकार देता है। इस सन्दर्भ में स्वामी दयानन्द का तर्क है कि "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्र आदि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक्‌ और श्रोत्र इन्द्रिय क्यों रचता? (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)

    आर्य समाज ने कभी इस विचार धारा का समर्थन नहीं किया- स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌। इसके विपरीत आर्य समाज ने "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:" का उद्‌घोष कर नारियों को समाज में उचित स्थान दिलाया, उनकी महत्व प्रतिष्ठा की। बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और बहु-विवाह का निषेध कर आर्य समाज ने विधवा विवाह का समर्थन किया। सती-प्रथा जो मानवता के नाम पर कलंक थी, का विरोध कर आर्य समाज ने समाज-सुधार का बहुत बड़ा कार्य किया। सामाजिक अभ्युत्थान की दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न हो वरन्‌ सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझे। (देखिए : नियम 9) इसी प्रकार सामाजिक आचार-संहिता की दृष्टि से यह कथन भी उचित ही हे कि "सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

    मानव-निर्माण में आर्य समाज की धार्मिक दृष्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। मानव का व्यावर्तक गुण धर्म ही है। धर्म के अन्तर्गत आर्य समाज ने नैतिकता के शाश्वत और सार्वभौम प्रतिमानों को स्वीकृति दी है। मनु की धर्म विषयक दृष्टि को स्वीकार कर आर्य समाज ने धर्म के निम्नांकित दस लक्षणों को मान्यता दी है-

    घृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह:।
    घीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।

    धर्म के इस स्वरूप को आत्मसात कर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को आदर्शात्मक परिणति दे सकता है। सत्य, न्याय और पुरुषार्थ की महत्व प्रतिष्ठा कर आर्य समाज ने मनुष्य मात्र को आत्म-निर्माण का सीधा-सच्चा रास्ता दिखाया है।

    आर्य समाज की धार्मिक दृष्टि- धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों, बुराइयों, अनाचारों और मिथ्याडम्बर का आर्य समाज ने उसी प्रकार आपरेशन किया, जैसे कि कोई कुशल सर्जन किसी फोड़े का करता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप का उद्‌घाटन कर इस समाज ने एक ही ईश्वर की उपासना पर बल दिया। आर्य समाज की स्पष्ट दृष्टि में ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्‌, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है। (नियम 2)

    आर्य समाज का आर्थिक और राजनीतिक चिन्तन भी धर्म-नियन्त्रित है। धर्म अर्थ और काम का नियामक है। अत: "सब काम धर्मानुसार, अर्थात्‌ सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिएं।" (नियम 5) "सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए" (नियम 4) क्योंकि सत्य से बड़ी शक्ति इस संसार में दूसरी नहीं है। अन्तिम विजय हमेशा सत्य की होती है- सत्यमेव जयते। सत्य की स्थापना के ही  लिए आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने वेद-विरुद्ध मत-मतान्तरों का "सत्यार्थ-प्रकाश" में खण्डन करते हुए वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया है। धर्म में क्षेत्र में व्याप्त पाखण्डों-श्राद्ध, तीर्थ, भूत-प्रेतादि विषयक धारणाओं के पारम्परिक रूप का निरसन कर ऋषिवर ने इनके वास्तविक स्वरूप का उद्‌घाटन किया है। ऋषि के इन क्रान्तिकारी विचारों से मनुष्य मात्र का निश्चय ही कल्याण हुआ है। पर दु:खकातर स्वामी दयानन्द ने परोपकार को धर्म का मूल माना है। अहिंसा और जीवदया के वे पक्षपाती हैं। यहॉं तक कि स्वयं को विष देने वाले अपराधियों को भी उन्होंने बन्धन-मुक्ति दी है। उनका विचार था कि "मैं संसार के प्राणियों को कैद कराने के लिए नहीं आया। कैद से छुड़ाने के लिए आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता तो हम लोग अपनी सद्‌भावना क्यों छोड़े?" (महर्षि दयानन्द : जीवन और दर्शन, वैद्य नारायणदत्त सिद्धान्तालंकार) स्वामी जी के शिष्यों में अनेक मुसलमान भी थे। यह इस बात का साक्षी है कि आर्य समाज धर्म, जाति, सम्प्रदाय, कुल आदि की संकीर्ण भावनाओं से मुक्त एक व्यापक मानवतावादी आदर्श समाज का पक्षपाती है।

    महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवनादर्शों के अनुरूप आर्य समाज भी मानव निर्माण के रचनात्मक कार्य में अपनी पूरी शक्ति के साथ जुड़ा है। संसार के प्राणियों को दुर्गुणोंकुविचारों और संस्कारों से मुक्त कर आर्य समाज उनके अन्तस्‌ में सद्‌गुण  और सद्‌विचार भर रहा है। बौद्धिकता, तार्किकता और विवेक के आधार पर वह मनुष्य को अपने भीतर छिपी इन्सानियत को पहचानने की अद्‌भुत शक्ति दे रहा है। वर्ग, जाति, लिंग, देश, काल, सम्प्रदाय आदि की क्षुद्र दीवारों को गिरा कर वह एक ऐसे आदर्श समाज की रचना में लीन है, जो आर्य है, श्रेष्ठ है। आर्य समाज ने धरती के प्रत्येक मनुष्य को ऐसा रास्ता दिखाया है, जिस पर चल कर मनुष्य दु:ख और अशांति से छुटकारा पाकर प्रेम, शांति और आनन्द से हंसता हुआ अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर सकता है।

    निश्चय ही पिछली लगभग डेढ शताब्दी में आर्य समाज ने मानव-निर्माण का अभूतपूर्व कार्य किया है। उसने मनुष्य को वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनने का मार्ग दिखाकर भौतिक और आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों में अद्‌भुत सामंजस्य स्थापित करने का वरेण्य प्रयास किया है। लेखक-डॉ.सुन्दरलालकथूरिया

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    The person is part of the family. The ideal family is formed by the involvement of ideal people. Family is formed. A sense of harmony and harmony towards each other is essential for the happiness and happiness of the family. Relations based on selfishness can never be permanent. The Arya Samaj has faith in the Five Mahayagas for the happiness and prosperity of every family. The welfare of the individual, family and society is ensured through Yajna.

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  • मांस निषेध

    ओ3म्‌ यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्‌क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः।
    यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च।। (ऋ. 10.87.16)

    शब्दार्थ- (यः यातुधानाः) जो राक्षस, दुष्ट (पौरुषेयेण) पुरुष सम्बन्धी मांस से (सम्‌ अङ्‌क्ते) अपने शरीर को पुष्ट करते हैं (यः) जो क्रूर लोग (अश्व्येन) घोड़े के मांस से और (पशुना) पशु के मांस से अपना उदर भरते हैं (अपि) और भी (यः) जो (अघ्न्यायाः) अहिंसनीय गौ के (क्षीरम्‌) दूध को (भरति) हरण करते हैं (अग्ने) हे तेजस्वी राजन्‌! (तेषां) उन सब राक्षसों के (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने तेज से (वृश्च) काट डाल। 

    Ved Katha Pravachan _87 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में राजा के लिए आदेश है कि जो मनुष्यों का मांस खाते हैं, जो घोड़ों का मांस खाते हैं, जो अन्य पशुओं का मांस खाते हैं और जो बछड़ों को न पिलाकर गौ का सारा दूध स्वयं पी लेते हैं, हे राजन्‌! तू अपने तीव्र शस्त्रों से ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के सिरों को काट डाल। इस मन्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध है।

    "अघ्न्याया क्षीरं भरति' का यही अर्थ सम्यक्‌ है कि जो बछड़े को न पिलाकर सारा दूध स्वयं ले लेते हैं। इस मन्त्र से गोदुग्ध पीने वालों को मार दे ऐसा भाव लेना ठीक नहीं है। क्योंकि वेद में अन्यत्र कहा गया है "पयः पशूनाम्‌' (अथर्व. 19.31.5) हे मनुष्य! तुझे पशुओं का केवल दूध ही लेना है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    मद्य निषेध

    ओ3म्‌ हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्‌।
    ऊधर्न नग्ना जरन्ते ।। (ऋग्वेद 8.2.12)

    शब्दार्थ - (न) जिस प्रकार (दुर्मदासः) दुष्टमद से युक्त लोग (युध्यन्ते) परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार (हृत्सु) दिल खोलकर (सुरायाम्‌ पीतासः) सुरा, शराब पीने वाले लोग भी लड़ते और झगड़ते हैं तथा (नग्नाः) नङ्गों की भॉंति (ऊधः) रातभर (जरन्ते) बड़बड़ाया करते हैं।

    भावार्थ - मन्त्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में शराब पीने का निषेध किया गया है । मन्त्र में शराब की दो हानियॉं बताई गई हैं- 

    1. शराब पीने वाले परस्पर खूब लड़ते हैं ।
    2. शराब पीने वाले रातभर बड़बड़ाया करते हैं।

    मन्त्र में शराबी की उपमा दुर्मद से दी गई है। जो शराब पीते हैं वे दुष्टबुद्धि होते हैं। मद्यपान से बुद्धि का नाश होता है और "बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति' (गीता 2.63) बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य समाप्त हो जाता है। "शराब' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - शर+आब। इसका अर्थ होता है शरारत का पानी। शराब पीकर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता । वह शरारत करने लगता है, व्यर्थ बड़बड़ाने लगता है। 

    मद्य पेय पदार्थ नहीं है। शराब पीने की निन्दा करते हुए किसी कवि ने भी सुन्दर कहा है-

    गिलासों में जो डूबे फिर न उबरे जिन्दगानी में।
    हजारों बह गए इन बोतलों के बन्द पानी में।। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Charity - In the mantra, there is a command for the king that those who eat the flesh of humans, who eat the flesh of horses, who eat the flesh of other animals, and who drink all the milk of the cow themselves without feeding the calves, O king! You cut off the heads of such evil persons with your sharp arms. According to this mantra, eating meat of any kind is strictly prohibited.

     

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  • मुक्ति से पुनरावृत्ति

    ओ3म्‌ कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    को नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।।

    ओ3म्‌ अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    स नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।। (ऋग्वेद 1.24.1-2)

    शब्दार्थ- (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (कतमस्य कस्य देवस्य) कौन-से तथा किस गुण वाले देव का (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम हम स्मरण करें। (कः नः) कौन हमें (मह्या अदितये पुनः दात्‌) महती, अखण्ड-सम्पत्ति-मुक्ति के लिए पुनः देता है (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) और फिर किसकी प्रेरणा से माता-पिता के दर्शन करता हूँ। (वयम्‌) हम (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्नेः देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सः नः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुनः दात्‌) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ। 

    Ved Katha Pravachan _86 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भावार्थ- मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप, ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए। वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्चात्‌ माता-पिता के दर्शन करता है, उसे जन्म धारण कराता है। जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना यह एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए। यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए, तो वह मुक्ति क्या हुई? - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    त्रैतवाद

    ओ3म्‌  द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
    तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। (ऋग्वेद 1.164.20)

    शब्दार्थ- (द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखों वाले पक्षी, पक्षी की भॉंति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक-दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्‌) एक ही वृक्ष=प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्‌) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है। 

    भावार्थ- मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान्‌ और चेतन हैं। दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है। 

    मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Trivialism is beautifully rendered in the chant. Three substances in the world are eternal - divine, living soul and nature. All three are instructed in the mantra. Both the soul and the divine are knowledgeable and conscious. Both are located on the tree of the world. The individual is little known. Due to his superficiality, he considers the fruits of the world to be tasty and gets enamored in them. God is omniscient. He has no desire for enjoyment, not even need. He remains a witness to the individual soul.

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  • मूल्यों का पतन : कारण व निवारण

    विश्व का आध्यात्मिक गुरु, प्राचीनतम संस्कृति, ईश्वरीय वाणी के रूप में प्राचीनतम ग्रंथ वेद, सबके आदर्श अनुकरणीय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र, आपत धर्म के पालन, गीता जैसे गूढ़ ज्ञान के प्रदाता योगीराज कृष्ण आधुनिक समय में वेदों को पुनः स्थापित करने वाले महान समाज सुधारक स्वामी दयानन्द पर्यन्त कितने उदाहरण हैं जिनकी शिक्षायें किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकती है। इस प्रकार वर्तमान काल में कितने टी.वी. चैनल आस्था, संस्कार, जागरण आदि जो निरंतर विभिन्न धर्म गुरुओं के प्रवचनों की वर्षा कर रहे हैं। कोई भी कथावाचक किसी भी शहर या कस्बे में जा पहुचें तो आज भी कितनी भीड़ स्वतः स्फूर्त जुट जाती है प्रवचन सुनकर स्वयं को धन्य करने के लिए। शायद हमारा देश एक ऐसा देश है जिसके नागरिक अपना अधिकांश कीमती समय भगवान की पूजा-अर्चना, उपासना, तीर्थ-यात्राओं या दर्शनों में लगाते हैं।

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    वेद कथा - 3 | Explanation of Vedas & Dharma | मजहब ही सिखाता है आपस में बैर | क्रांतिकारी प्रवचन

    इस सबके बावजूद कितनी बड़ी विसंगति है कि आज हमारे देश में अनाचार, दुराचार, सामाजिक कुरीतियां, पाखंड भी उतनी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा हैं आखिर क्या कारण है कि इतनी विविध तेजी से बढती दिखाई दे रही धार्मिक आस्थाओं के बीच उससे भी ज्यादा तेजी से समाज की गहरी अंधी खाइयों की तरह लुढ़क रहा है। क्यों समाज में निरंतर टूटना, पाखंड, कुरीतियां, भ्रांतियां, धार्मिक विद्वेषभाव, विघटन अलगाववाद, जातिगत संघर्ष, आसहिष्णुता, प्रांतीयता, सिर उठाती नई नवेली अलगाव पैदा करती भावनायें, आतंकवाद, चरमराती कानून वयवस्था, भक्षक बने कानून के रक्षक हर मुददे पर टूटन ही टूटन तिस पर देश के राजनेताओं में शक्ति का अभाव बस साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर शोषण करके अपना पोषण करते राजनेता आदि। आखिर क्या कारण हैं आज समाज में इस सक्रमण काल की आखिर कौन सी स्थितियां इसके लिए उत्तरदायी हैं । जिस प्रकार रोग के निदान लिए कारन कारण जान लेना आवश्यक होता है इसी प्रकार जानना इसके निवारण लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
    १. हमारी सनातन पुरातन वैदिक संस्कृति हमारे लिए हमारे लिए गौरव विषय है पर वर्तमान काल में हम इस संस्कृति का कितना अनुसरण कर रहे हैं यह विचारणीय विषय है । हमारी वंश परम्परा महान है पर आज हम क्या हैं कहां हैं इस पर विचार करना आवश्यक हैं।

    २. हमारी वैदिक संस्कृति श्रेष्ठतम है इस पर किसी को कोई संशय नहीं पर हम स्वयं अपनी इस पुरातन संस्कृति से परिचित नहीं हैं तो अनुकरण कर पायेंगे । बिना रास्ता जाने दिशा भटक कर हम किधर जा रहे हैं यह विचारणीय है। आज हमारी हालत भेड़ों के झुंड में जन्मकाल रहकर पहचान भूल चुके सिंह शावक की सी है हमें स्वयं को पहचानना होगा ।

    ३. हमारी महानतम मान्यताओं में समय साथ कुछ वर्ग विशेषतया वर्ण विशेष अपनी स्वार्थ सिद्धि वशीभूत लोगों की अन्धश्रद्धा लाभ उठाकर अंधविश्वासों, कुरीतियों, पाखंडों को जोड़ दिया है । जिस प्रकार मैदानी भाग में प्रवेश के बाद पवित्र गंगा में हर शहर को गंदा नाला उसे प्रदूषित कर देता है इसी लिए गंगा सफाई की आवश्यकता पड़ती है ठीक उसी प्रकार अब हमें अपने विवेक की छलनी से छान कर कुरीतियों दूर करना होगा। तुलसी, कबीर, स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। 

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    ४. समाज में बुरी तरह से कोढ़ की भांति फ़ैल चुकी युवा वर्ग में नशे की पृवत्ति, दहेज़ प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ का दिखावा, युवावर्ग में बढ़ती अनैतिकता, फैशन के नाम पर नंगापन, नारी आजादी के नाम पर टूटती मर्यादायें आदि कुरीतियां आपत उपचार मांगती हैं अन्यथा समाज के भविष्य की तस्वीर भयावह दिखाई देती है । 

    ५. हम कभी आध्यात्मिक गुरु थे विश्व हमारा अनुकरण करता था पर शायद लंबी गुलामी के बाद हमें पिछलग्गू बनकर रहने की आदत हो गई है । आज भी तथाकथित विकास के नाम पर हम पश्चात्य अंधानुकरण कर रहे हैं। इस पाश्चात्य अंधानुकरण में भी हम उनकी अच्छी आदतें राष्ट्रवाद, मेहनत, नए अन्वेषण, वैज्ञानिक प्रगति आदि नहीं सीख रहे अपितु जींस, पिज्जा, बर्गार, कोक, नंगेपन की भौंडी नकल अवश्य कर रहे हैं। यह पाश्चात्य अंधानुकरण हमें हमारी संस्कृति से काट रहा है। टी.वी. चैनलों आदि मीडिया के माध्यम से इसका तीव्र प्रहार हमारे दिलोदिमाग पर हो है । बड़े से बड़ा वट वृक्ष भी जब अपनी जड़ों से कट जाता है तो अंततः सुखकर ठूंठ बनकर गिर पड़ता है ।

    ६. हमारी विकास की परिभाषा के मायने बदल चुके हैं हम बड़ी तीव्र गति से सेंसेक्स के बढ़त सूचकांक की भांति भौतिकतावाद, बाजारवाद और भोगवाद का शिकार होकर विनाश की ओर सम्मोहित होकर हम अपने संभावित विनाश को नहीं देख पा रहे है । बाजारवाद के इस युग में हमारे समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है हर चीज हर सामग्री यहां तक कि हमारा दीन ईमान सब विनिमय की वस्तु हो चूका है हम बिकने को तैयार बैठे हैं बस खरीददार चाहिए। विनाश की तरफ तेजी से दौड़ते तथाकथित विकासशील समाज को रुक कर सोचने और दिशा परिवर्तन पर विचार करना होगा । 

    ७. भौतिक सुख संसाधनों सम्पदा की अंधी दौड़ में नैतिक मूल्यों का लोप आज के समाज की त्रासदी है । नैतिक मूल्यों की स्थापना और समाज को क्षणिक भौतिक सुख और आनन्द की स्थिति में अन्तर महसूस करना होगा। 

    ८. आजादी के बाद भी हम गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाए । भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए गुलामी की प्रतीक मैकाले के दत्तक पुत्र, क्लर्क तैयार करने वाली शिक्षा प्रणाली को हमने अपनाया जिसमें चरित्र निर्माण, मानव रचना, अपनी संस्कृति से परिचय या नैतिक मूल्यों को कोई स्थान नहीं दिया गया। मैकाले की यह शिक्षा पद्धति शायद सामाजिक अधोगति का बहुत बड़ा कारण है जो आज भी अच्छे क्लर्क, इंजिनियर, डॉक्टर, मैनेजर आदि तो बना रही है पर अच्छे इंसान बनाने की की व्यवस्था नहीं है। 'ब्रेन-ड्रेन' या फिर आउट सोर्सिंग' के शिकार आज की युवा शक्ति धन लोलुपता या भौतिकतावाद में विदेशी आकाओं की सेवा में लगी है। 

    ९. धर्म जाति भाषा क्षेत्र जैसे अपनी सुविधा के मुददो पर समूचे समाज को वोट बैंकों में तोड़कर आपस में लड़वाते रहने वाली राजनैतिक लोकतांत्रिक प्रणाली भी सामाजिक पतन के लिए उत्तरदायी है। सामाजिक तनाव पैदा करके साम-दाम दंड-भेद से सत्ता मद में चूर होकर शोषण कर स्वयं के पोषण की प्रवृति ने राजनीति को व्यापर बना दिया है जिसके कोई नियम नहीं है। कानून बनाने वाली विधायिका और पालन करवाने वाली नौकरशाही स्वयं को कानून से उपर समझती है कर शोषण को जन्मसिद्ध अधिकार मानती है। इस व्यवस्था की खामियों को दूरकर इसकी भावना को समझना होगा।

    १०. धार्मिक उन्माद वर्ण या जातिगत संघर्ष पैदाकर समाज को वोट बैंकों में तोड़ने की राजनैतिक दलों की साजिशों के साथ वर्ग संघर्ष के नाम पर अलगाववाद, नक्सलवाद, उग्रवाद को भड़काना भी सत्ता प्राप्ति का साधन बन चूका है । सत्ता प्राप्ति का रास्ता धनबल और बाहुबल से ही तय किया जा सकता है । राजनीति के अपराधीकरण से चला यह अनैतिक सफर अब अपराधियों के राजनीतिकरण तक पहुंच चूका है । यह स्थिति अत्यंत खतरनाक है । नेता अपराधी और अधिकारी का नापाक गठजोड़ सत्ता का शक्ति केंद्र बन चूका है । 

    ११. समाज में धर्मपरायणता के स्थान पर धर्मभीरुता बढ़ रह है। हर व्यक्ति मन ही मन अपने दुष्कर्मों के फल लेकर कभी ना कभी परेशान हो जाता है तो यह गुरुडमवाद फैलाकर स्वयं को ईश्वरीय अवतार घोषित कर रहे तथाकथित कथावाचक दान दक्षिणा लेकर पापों से मुक्ति का सरल उपाय बताकर अभयदान देते हैं। इससे अपराधी अपराध भावना से मुक्त हो फिर से दुष्कर्म करने की तरफ प्रवृत हो जाता है। यही धर्मभीरु लोगों की ही इन अवतारों की सभाओं में शोभा बढाती है

    १२. प्रेम शब्द अपना व्यापक यौगिक अर्थ खो चूका है आजकल प्रेम का अर्थ मात्र विपरीत लिंगों में वासना के लिए रह गया है जबकि भक्त का भगवान के प्रति, पिता का पुत्र वा पुत्री के प्रति, माता का बेटे के लिए, भाई-बहन का प्यार सब प्रेम की व्यापक परिभाषा में आते हैं। 

    १३. हम परिवारों में बच्चों को संस्कार देने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। बच्चों को जो कहा जाए उसे सुनते नहीं है अपितु जो वह देखते हैं उसे सीख जाते हैं। हम अपनी जीवन चरित्र अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बनने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए हैं। अपितु आने वाली पीढ़ी इस विनाश मार्ग पर हमसे ज्यादा तेज से चल रही है। परिवार विघटित हो रहे हैं बच्चे बड़ों की इज्जत करना भूल चुके हैं शायद बड़े ही इसके लिए अधिक उत्तरदायी हैं।

    यह कुछ स्थितियां हैं जो कि समाज की अधोगति का कारण है शायद इन्हीं कारणों के विवेचन में इनका निवारण भी छिपा है। अतः आज समय की मांग है कि हम विनाश के इस मार्ग को छोड़ दें अन्यथा आने वाली पीढ़ियां जब हमसे हमारे पतन का कारण पूछेंगी तो हमारे पास कोई उत्तर नहीं होगा। - नरेंद्र आहूजा ''विवेक''

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  • मैकाले तो मुस्कुराएगा ही

    सन्‌ 1835 की फरवरी से अभी 2010 तक पूरे पौने दो सौ वर्ष का समय बीत चुका है। उस समय ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए लार्ड मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत का हर गांव हर शहर देख लिया, भारत में न कोई अशिक्षित है, न असभ्य। भारत सपेरों और पशु चराने वालों का देश नहीं है। उनकी सभ्यता और संस्कृति बहुत गहरी है। अगर भारत पर राज करना है तो हमें भारत की इस सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना होगा, जो कि भारतीयों की रीढ़ है और इसके लिए जरूरी है उनकी शिक्षा पद्धति को बदल देना।'' और धीरे-धीरे भारत की रीढ़ को कमजोर करने का काम मैकाले करता गया। फिर भी, 1947 से पहले हमारी रीढ़ बहुत मजबूत थी। हमने कहा कि, देशवासियो खून दो, देश को आजादी मिलेगी।

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    हमने यह भी कहा कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमने यह गीत भी गाया कि "नहीं रखनी सरकार अंग्रेजी सरकार नहीं रखनी।'' जिन लोगों ने विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण किया भी थी, उनकी संख्या बहुत कम थी। वे अंग्रेजों द्वारा बांटे गए पदों को सजाकर अकड़ते रहे, पर राष्ट्रभक्तों ने देश के इन गद्दारों को "टोडी बच्चा हाय-हाय' कहकर भगा दिया। "इंकलाब जिन्दाबाद' और "अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के नारों की तरह ही टोडी बच्चों को भगाने वाला नारा लोकप्रिय हो गया, पर मैकालेवाद बढ़ता गया। शिक्षा के नाम पर भारतीय संस्कृति विरोधी विष देश की नई पीढ़ी के खून में धीरे-धीरे घुलता रहा और कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने का काम कुछ उन नेताओं ने कर दिया। जिन्होंने स्वतन्त्र भारत की कमान संभाली, उन्होंने पूरे देश को यह विश्वास दिलवाया कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व जीवनशैली ही "उन्नत का एकमात्र मार्ग है।' 

    मैकाले ने भारत से अपने परिजनों को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने यह विश्वास प्रकट किया कि अगर उसकी शिक्षा नीति केवल पचास वर्ष भी भारत में चल गई, तो भारत अगले पॉंच सौ वर्ष के लिए गुलाम रहेगा। मुझे लगता है कि मैकाले ने अपनी शक्ति का आकलन गलत नहीं किया था। पौने दो सौ वर्ष बाद भी मैंने महसूस किया कि मैकाले मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कुराए भी क्यों न! 3 नवम्बर 2009 को चंडीगढ़ मे दो दीक्षांत समारोह मैंने देखे। इनकी अध्यक्षता के लिए भारत के प्रधानमन्त्री उपस्थित थे, पर मञ्च और सभागार मेें भारत था ही नहीं, बस इंडिया था। मैकाले और डायर की ही भाषा और उन्हीं के ओढ़ाए हुए गाउन और सर पर अंग्रेजों जैसे ही बड़े-बड़े टोप सजाए प्रधानमन्त्री, भारत के स्वास्थ्य मन्त्री और राज्यपाल बैठे थे। सभी प्रसन्न थे और उसी भाषा में भाषण हो रहे थे, जिस भाषा में मैकाले ने भारत की रीढ़ को तोड़ने का संकल्प लिया था। और आश्चर्य यह भी कि उस मंच पर समापन के समय राष्ट्रगान भी न हो सका। मंच पर राष्ट्रगान न होने के कई कारण सुनने को मिले, राष्ट्रगान सुनने को नहीं मिला। मैकाले की छाया में चले इस कार्यक्रम में काले बादलों में सुनहरी रेखा की तरह सरस्वती वन्दना का स्वर दो क्षणों के लिए सुनने को मिला। और यही सब कुछ पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में भी हुआ। आखिर इससे नई पीढ़ी को क्या दीक्षा मिली होगी? इससे पिछले वर्ष भी पंजाब विश्वविद्यालय के ऐसे ही समारोह में मुझे उपस्थित रहने का अवसर मिला था। तब भारत के उपराष्ट्रपति मन्च पर थे। वातावरण बिल्कुल वैसा ही था, जिसका चित्रण मैं ऊपर कर चुकी हूँ। मुझे गर्व है कि मंच पर बैठने का जिन्हें सौभाग्य मिला, उनमें से केवल मुझे ही परमात्मा ने यह बल दिया कि मैं काला लबादा ओढ़े बिना बैठी। मंचासीन और पंडाल में बैठे नई और पुरानी पीढ़ी के विद्वज्जन को यह सब बुरा लगा ही नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि हमारी शिक्षा-दीक्षा ने नई पीढ़ी को यह साहस ही नहीं दिया कि वह इन दीक्षादायकों से यह पूछ तो सके कि क्यों वे खुद काला ओढ़ते हैं और हमें भी ओढ़ाते हैं? काला रंग तो मृत्यु, शोक और विरोध का प्रतीक है, अज्ञान का दूसरा नाम है। महाकवि सूरदास ने भी कहा है- सूरदास कारी कामरि पे, चढ़त न दूजो रंग ।

    हमारी शिक्षा पद्धति ने किसी विद्यार्थी में इतना साहस भी नहीं भरा कि वह हाथ उठाकर उच्च स्वर में कह सके कि आज तो विद्या प्राप्ति का पर्व है, मैं काला क्यों पहनूं। विद्या की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना हैं, काले कपड़ों का कोई औचित्य तो बताइए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह कह सकते हैं- अन्धकार में दौड़ लग रही, मतवाला यह सब समाज है । 

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    चिकित्सा कालेजों और विश्वविद्यालयों में हमने शरीर चिकित्सा के डाक्टर तो बना दिए, विभिन्न विषयों में एम.ए., पीएचडी की डिग्रियां भी दे दीं, पर यह नहीं बताया कि भारत की रीढ़ तोड़ने का जो संकल्प मैकाले ने लिया था, उसका इलाज भी हमें ही करना है। सच तो यह है कि देश की शिक्षण संस्थाओं को एक "एंटी मैकालेवाद औषधि' या सर्जरी का पाठ पढ़ाना ही होगा, जो भारत की सन्तानों को स्वदेशी का गौरव अनुभव करना सिखा सके। दुनिया को दुनिया की भाषा में जवाब देना हमें आता है, हम देते भी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, ऊधमसिंह, मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे भारत पुत्रों ने बड़ी कुशलता से दुनिया को भारतीय उत्तर दिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने इन फिरंगियों को खूब पाठ पढ़ाया। पर जिस देश को अपनी भाषा में मॉं कहने में ही शर्म आ रही हो उसे क्या कहेंगे? हमारे कुछ नेता मुम्बई को बम्बई कहने पर भड़क उठते हैं। कोलकाता को कलकत्ता शहर कह दो तो लाल-पीले हो जाते हैं, पर जब तीन चौथाई से ज्यादा देश अपनी मॉं को "मम्मी' अथवा "मॉम' बना बैठा है, तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता, जब भारत माता को हम इण्डिया कहते हैं तो उनके खून की रवानी रुक जाती है? भाषा के नाम पर तनाव भड़काने वालों के बच्चे भी अधिकतर उस भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते, जिस भाषा के समर्थन में भाषण देकर वे लोगों को लड़वाते हैं। गाड़ी-बसें जलवा देना जिनके बाएं हाथ का काम है। 

    मैकाले मुस्कुराये क्यों न, जब हम ज्योति की पूजा करने वाले देश के लोग अपने बच्चों के जन्मदिन पर दीप जलाने के बजाय बुझाते हैं। दीप बुझाने के बाद खुशी में तालियां बजाते हैं। हजारों तरह की मिठाइयां बनाने वाले देश के लोग केक के मोहताज हो गए हैं। ऐसे में लगता है कि मैकाले कामयाब हो गया, हमारी रीढ़ी टूटी तो नहीं, पर बहुत कमजोर हो गई है। हम सूर्य के उपासक हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ नए दिन का स्वागत करने वाले भारत के बहुत से लोग आधी रात के अंधेरे में अंग्रेजी ढंग से अंग्रजों के नववर्ष का स्वागत करते हैं और यही लोग अपने को "वी.आई.पी.' मानते हैं, धन सम्पन्न हैं और भारत को "इण्डिया' कहने वालें हैं। बेचारा गरीब आदमी कहीं-कहीं इनकी नकल कर लेता है। किसी महानगर का नाम बदलने और डण्डे के बल पर उसका प्रयोग करवाने वाले, नारी को देवी मानने वाले देश के ये मैकालेवादी तब दुखी नहीं होते, जब उन्हीं के कुछ महानगरों में नारी के लगभग नग्न शरीर को नचाया जाता है, उसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं।

    भारतीय अस्मिता की किसी को परवाह ही नहीं है। इसी का प्रभाव हमारे दूरदर्शन और अन्य टीवी चैनलों में भी देखने को मिलता है। भारतीय दूरदर्शन का भी कमाल है। रात नौ बजे के समाचार अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। जब आधा हिन्दुस्थान रात्रि का भोजन ले चुका होता है, तब नौ बजे समाचार शुरू करते ही वाचक "गुड़ इवनिंग' कहता है, पर सवा नौ जब समाचार खत्म होते हैं तो इन्हें शायद मजबूरी में "गुड नाइट' कहना पड़ता है। आखिर किस कारण 15 मिनट बाद ही "ईवनिंग' "नाईट' हो जाती है, यह दूरदर्शन वाले भी नहीं बता सकते। जो देश अपने दूरदर्शन पर वन्देमातरम्‌ का गीत हर रोज नहीं गा-दिखा सकता, जिस देश के करोड़ों विद्यार्थियों को वह गीत याद नहीं जिस गीत के बल पर बंग-भंग आन्दोलन लड़ा गया और असंख्य देशभक्तों ने फांसी के फन्दे को हंसते-हसंते गले में डाल लिया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उस देश की हालत पर मैकाले तो मुस्कुराएगा ही।

    मैं न निराश हूँ, न हताश। यह सन्तोष का विषय है कि आज भी भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए, स्वदेशी को अपनाने के लिए अनेक साधक साधना कर रहे हैं। अब मैकाले नहीं, भारत मॉं मुस्कुराएगी। अगर कहीं कमी है, तो इस देश के राजनेताओं में है। जब भारत का प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ भी मैकाले की भाषा में लेता है, उस समय देश को दर्द होता है। जब इनके दीक्षान्त भाषण नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को जबरन पिलाए जाते हैं तब नई पीढ़ी को निराशा होती है। मुझे इन दीक्षान्त समारोहों में मैकाले के मुस्कुराने का एक कारण मिला, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जब भारत मुस्कुराएगा तो मैकाले मुरझा जाएगा। भारत की मुस्कान के लिए हम सबको काम करना है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, स्वदेश और स्वदेशी के भाव को प्रखर करना होगा और फिर वही गीत गाना होगा- 

    जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है,
    इसे वास्ते ये तन है, मन है और प्राण है।

    और याद भारतेन्दु को भी करना होगा, जिन्होंने कहा था-

    अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश,
    जो कुछ है अपनो भलो, यही राष्ट्र सन्देश। - लक्ष्मीकान्ता चावला

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    Our education system did not even inspire any student so much that he could raise his hand and say in a loud voice that today is the festival of learning, why should I wear black. Saraswati, the goddess of learning, is auspicious, tell me some reason for black clothes. In the words of Mahakavi Jaishankar Prasad, it can say- Running in darkness, it is all society. 

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  • युवा-मञ्च

    राष्ट्र निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका

    हमारा देश अभी भी अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन एवं सामाजिक अन्याय से पीड़ित है। विश्व शान्ति एवं सांस्कृतिक सद्‌भाव का प्रेरक देश आज आतंकवाद एवं उग्रवाद के विस्फोटों से ग्रस्त है। जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा हमारे देश के लिए खतरा बनी हुई है। समूचा राष्ट्र भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। पूरा समाज आज नेतृत्व-विहीन है। राजनीति भ्रष्टाचार एवं अपराध का पर्याय बन गयी है। लोकतन्त्र की व्यवस्था उपहास मात्र बनती जा रही है। राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक अंधेरी गली में खो गया है। राष्ट्रव्यापी असंतोष, अव्यवस्था आज देश की बुरी स्थिति को प्रकट कर रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझने की सामर्थ्य किसमें है? उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने का साहस कौन कर सकता है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में हम युवा शक्ति का आह्वान करते हैं। सभी इस बारे में एकमत हैं कि युवाओं में प्रचण्ड ऊर्जा है, भले ही आज वह दिशाहीन होकर बिखर रही है। हमें इस युवाशक्ति को उचित दिशा की ओर प्रेरित करना चाहिए, जिससे हमारे राष्ट्र का निर्माण सफलतापूर्वक हो सके और हमारा भारत प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सके।

    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अपनी मनोभावनाओें को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है। संसार एक लम्बा-चौड़ा बिल्लौरी कॉंच का चमकदार दर्पण हैइसमें अपना चेहरा हुबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा हैउसके लिए सृष्टि में वैसे ही तत्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरसता रहता है। आशावादी व्यक्ति कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले कार्यों में जहॉं सफलता प्राप्त कर लेता हैवहीं निराशावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति साधारण-सी समस्या और कठिनाइयों को भी पार नहीं कर पाता है।

    सदैव राष्ट्रीय गौरव की सुरक्षा के लिए युवाओं ने ही अपने कदम बढाये हैं। संकट चाहे सीमाओं पर हो अथवा सामाजिक एवं राजनैतिकइसके निवारण के लिए अपने देश के युवक-युवतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आवश्यकता यही है कि अपने हृदय में समाज की कसक उत्पन्न करें और अपनी बिखरी शक्तियों को एकत्रित करके समाज की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में लगायें। देश की प्रगति ही अपनी प्रगति और उन्नति है। इस श्रेष्ठ विचार के आधार पर ही युवाशक्ति राष्ट्रशक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धिउन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है।

    किसी देश का विकास भीड के सहारे नहींबल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। आज बड़े दुःख की बात है कि अधिक धन एवं सुख-सुविधा के लोभ में देश की युवा प्रतिभाएँ विदेशों में अपना रैन-बसेरा बनाने के लिए आतुर हैं। किसी भी देश के नवनिर्माण में ज्ञान एवं युवाशक्ति का योगदान सदा ही रहा है। परन्तु किसी भी काल में यह इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा होगाजितना कि आज के इस वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के युग में है। इन क्षणों में प्रत्येक युवा को जो महान्‌ पाठ सीखना हैवह है परिश्रमत्याग और प्रत्येक व्यक्ति को सबके हित में कार्य करने का पाठ।

    सबके जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता समान रूप में नहीं आतीकिसी के जीवन में कम और किसी के जीवन में ज्यादा। परन्तु इन परिस्थितियों का सर्वथा अपवाद कोई नहीं हो सकता यह एक सच्चाई हैजिसे हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसीलिए इन परिस्थितियों से घबराना कायरता है। हमें इन प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाये रखता हैवह बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए हमें शरीर को आरंभ से ही प्रतिकूलताओं को सहन करने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।     

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की भॉंति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र होता हैउसके जीवन का प्रधान स्तर हैजिसके साथ अन्य सब स्वर मिलकर समरसता उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करेउससे विमुख हो जाने का प्रयत्न करे और यदि वह अपने इस कार्य में सफल हो जायतो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतः अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र धर्म नैतिकता-सदाचार को ही बनाना होगा। युवाओं में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। संसार को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से भरने से पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। पहले यही धर्म-प्रचार आवश्यक है। धर्म-प्रचार करने के बाद उसके साथ ही साथ लौकिक विद्या और अन्यान्य आवश्यक विद्याएँ अपने आप ही आ जायेंगी। मनुष्य केवल मनुष्य भर ही होना चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता हैजिससे हम मनुष्य बन सकें। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन हृदयवान्‌ उत्साही युवकों के भीतर से ही सैकड़ों वीर उठेंगेजो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे। आज युवकों के सामने यही महान्‌ कर्त्तव्य है। अतएव एक बार फिर हमारे देश के युवकों के "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' का अनुसरण करना चाहिए। - गौरीशंकर शर्मा(नवोत्थान लेखासेवा हिन्दुस्थान समाचार)

     

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    Man imposes his feelings on those in front of him and considers them as he himself is. The world is a luminous mirror of a long, wide bellow conch, in which its face is seen accurately. For a person who is like him, similar elements come out in the creation. Satyuga souls live in every age and they always have the golden age. Where an optimistic person achieves success in difficult and seemingly impossible tasks, a person with pessimistic attitude is not able to overcome even the simple problems and difficulties.

     

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  • योगी द्वारा राजा को आशीर्वाद

    सतपुड़ा पर्वतमाला में एक घना जंगल था। इस जंगल में कुछ ऋषि-मुनि रहते थे और जप-तप करते थे। इनमें एक बहुत वृद्ध योगी भी थे। लोगों की मान्यता यह थी कि वे बोलते नहीं हैं लेकिन जब बोलते हैं, तब उनके वचन बहुत कठोर होते हैं। पर उनके अर्थ बहुत उपयोगी होते हैं। उनके दर्शन मात्र से ही मनुष्य का कल्याण होता है। योगी महाराज कभी किसी से कुछ लेते नहीं थे।

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    देवताओं के पूजन की सही विधि

    Ved Katha Pravachan _68 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक राजा ने योगी महाराज की कीर्ति सुनी। उन्हें लगा कि इन योगी महाराज के दर्शन करने चाहिए। एक दिन राजा उनके दर्शन के लिए निकले। महारानी को भी साथ ले लिया था। मन्त्री और सेनापति तो संग में थे ही। सूर्योदय होते-होते ये सभी योगी के निवास स्थान पर पहुंच गए। वहॉं पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे योगी की एक छोटी-सी कुटिया थी। कुटिया में कोई सामान नहीं था। योगी के गले में रुद्राक्ष की एक माला थी और कपड़ों के नाम पर केवल दो धोतियां। वे एक धोती धोते और दूसरी पहनते थे। राजा अपनी सेना के साथ पहुंचेउस समय योगी ध्यानमग्न थे।

    राजा और उनके साथी कुटिया के सामने चुपचाप बैठ गए ताकि उनका ध्यान भंग न हो। थोड़ी देर के बाद योगी ने आँखें खोलीं। उन्होेंने सबको देखा। राजा ने योगी को साष्टांग प्रणाम किया। योगी बोले, "गधा हो जा और कुत्ता बन जा।सुनकर सभी स्तब्ध रह गए। राजा को आज तक किसी ने ऐसा नहीं कहा था। इस तरह के वचन बोलने वाले की जीभ काट ली जाती थी। पर राजा शान्त रहे। उन्होंने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा, "महाराज!मुझसे कोई गलती हुई होतो क्षमा मांगता हूँ। पर ऐसा शाप मुझे क्यों दे रहे हैंआप कहें तो मैं प्रायश्चित करूं?'' 

    "राजन्‌यह शाप नहीं आशीर्वाद है। गधा सदा काम करता रहता है। उसकी आवश्यकताएँ कम से कम होती हैं। जो मिल जाएवही खाकर सन्तुष्ट रहता है। कुत्ता हमेशा सावधान रहता है। वह सोते हुए भी जागता रहता है। अपने मालिक के प्रति वह वफादार होता है। हे राजन्‌प्रजा की भलाई के लिए निरन्तर काम करो। अनावश्यक आवश्यकताएं मत बढ़ाओ। जो मिल जाएउसी में निर्वाह करो। तुम एक राजा हो। तुम पर प्रजा की जिम्मेदारी है। इसलिए सदा सावधान रहो। नींद में भी जागते रहना सीखो। ईश्वर सभी का मालिक है। उसकी भक्ति करो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ।'' इतना कहकर योगी मौन हो गए। वे आंखें बन्दकर पुनः ध्यान में लीन हो गए। राजारानीमन्त्रीसेनापति सभी योगी को प्रणाम कर राजधानी लौट आए। - प्रस्तुतिः कु. भावना

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    There was a dense forest in the Satpura ranges. Some sages and sages lived in this forest and used to do chanting and meditation. There was also a very old yogi among them. The belief of the people was that they do not speak but when they speak, their words are very harsh. But their meanings are very useful. Man's welfare is only due to his philosophy. Yogi Maharaj never used to take anything from anyone.

     

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  • राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का आन्दोलन

    जनवरी सन्‌ 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।

    अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।

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    धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर
    Ved Katha Pravachan -4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।

    औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"

    लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।

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    महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक हैउससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्डस्वतन्त्रनिर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।

    कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती  को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थीउसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान्‌ बलिदानों और प्रयत्नों से सन्‌ 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।

    महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य हैस्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम थाइसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।

    घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देशजाति और राष्ट्र का हित किया हैमुझे नहीं जान पड़ता।"

    महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहनादूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाएवह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता हैवह धर्मात्मा है।"

    महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थेअपितु  वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।

    महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार कियाअपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

    आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती

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    When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.

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  • रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    नीम्बू से रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    1. एक चम्मच नीम्बू का रस, एक चम्मच पिसी हुई अजवायन आधा कप गर्म पानी में डालकर सुबह-शाम पीना चाहिए।
    2. एक गिलास पानी में नीम्बू निचोड़कर चौथाई चम्मच सोड़ा मिलाकर नित्य पीयें।
    3. आधा गिलास गरम पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर जरा सी पीसी हुई काली मिर्च की फंकी सुबह-शाम लें।

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    4. एक चम्मच सौंठ तथा साबुत अजवायन 50 ग्राम नीम्बू के रस में भिगोकर छाया में सुखायें। भोजन के बाद इसकी एक चम्मच चबायें।
    5. नीम्बू काटकर इसकी फांकों में नमक तथा काली मिर्च भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। उपरोक्त सभी उपायों से वायु विकार में लाभ होता है।
    6. एक गिलास गर्म पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर 4 बार नित्य कुल्ले करने या नित्य नीम्बू-पानी में स्वाद के लिये चीनी या नमक डालकर प्रातः भूखे पेट पीने व रात को सोते समय एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से दो-तीन महीने तक प्रयोग से छालों में लाभ होता है।
    7. नीम्बू के पेड़ से हरी पत्तियॉं तोड़कर चबाकर रस चूसने, तेज गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर घूंट-घूंट पानी पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    8. नीम्बू, सौंठ, काली मिर्च, अदरक सब थोड़ी मात्रा में लेकर चटनी बनाकर चाटने, नीम्बू में नमक भरकर 4 बार चूसने, काला नमक तथा शहद और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    9. खट्टी डकार आने की स्थिति में गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
    10. 50 ग्राम पुदीने की चटनी पतले कपड़े में डालकर, निचोड़कर रस निकालकर आधा नीम्बू निचोड़ें।
    11. 2 चम्मच शहद और 2 चम्मच पानी मिलाकर पीने से पेट का दर्द जल्द बन्द हो जाता है।
    12. आधा कप पानी, 10 पिसी हुई काली मिर्च, एक चम्मच अदरक का रस, आधे नीम्बू का रस सब मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है। स्वाद के लिये चीनी या शहद मिला सकते हैं।
    13. एक नीम्बू, काला नमक, काली मिर्च, चौथाई चम्मच सौंठ, आधा गिलास पानी में मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है।
    14. अजवायन तथा सेंधा नमक को नीम्बू के रस में भिगोकर सुखा लें। पेट दर्द होने पर एक चम्मच चबाकर पानी पीएं। इस प्रकार जब तक दर्द रहे, हरेक घण्टे में सेवन करें और पेट पर सेक करें।

    शुद्ध शहद की पहचान कैसे करें

    1. शहद में अपनी साफ उंगली लगाकर नेत्रों में लगावें। यदि नेत्रों को लगता है, आंसू निकलते हैं तो शहद शुद्ध है।
    2. कुत्ते के आगे शहद में रोटी भिगोकर दें। यदि कुत्ता दूर से ही रोटी सूंघकर हट जाये तो शहद असली है।
    3. शहद में रूई की बत्ती भिगोकर जलावें। यदि घी की तरह जलने लगे तो शहद असली है।
    4. शहद को कागज पर रखें। कागज न गले तो शहद शुद्ध है।
    5. पान की दुकान से तरल चूना लेकर हथेली पर रखें। थोड़ी सी शहद की बून्द लेकर हल्के चूना में मिलावें हथेली जलने लगेगी ।
    6. कपड़े पर शहद की बून्द डाल दें तथा कपड़े को हल्का सा झाड़ दें। बून्द कपड़े से अलग गिर जायेगी, निशान नहीं बनेगा । इसके विपरीत परिणाम मिले तो भूलकर भी ऐसा शहद न खरीदें।एकता ओझा

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    सौंफ से पाचन-शक्ति बढ़ती है

    बहुत से लोग भोजन के बाद कभी-कभी सौंफ खाना पसन्द करते हैं। जो लोग कभी भी सौंफ नहीं खाते, वे भी होटल में भोजन करने के बाद पेमेण्ट काउण्टर पर रखी सौंफ को मुंह में डाल लिया करते हैं। रसोईघर में भी सौंफ का बहुत बोलबाला होता है। कुछ विशिष्ट सब्जियों को स्वादिष्ट और खुशबूदार बनाना सौंफ का महत्वपूर्ण गुण है। वैसे ज्यादातर लोग सौंफ को भोजन करने के बाद खाते हैं। स्वागत-सत्कार में भी सौंफ-सुपारी का प्रचलन है। सौंफ के कुछ प्रमुख गुण ये हैं -

    1. इसके खाने से पाचनशक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
    2. सौंफ और धनिया को समान मात्रा में पीसकर डेढ़ गुना शुद्ध घी में मिला लें। इसमें स्वाद हेतु शक्कर भी मिला लें। इस मिश्रण का कुछ दिनों तक सुबह-शाम सेवन करें। इसके सेवन से शरीर के किसी भी भाग में होने वाली खुजली जड़ से मिट जाती है।
    3. कच्ची एवं भुनी हुई सौंफ खाने से दस्तों में तुरन्त फायदा होता है।
    4. नीम्बू के रस में पिसी हुई सौंफ का प्रयोग करने से भूख भी खुलकर लगती है एवं कब्ज की शिकायत भी मिटती है।
    5. निःसन्तान महिलाओं को नियमित रूप से दो- तीन माह तक सौंफ के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें सौंफ के एक चम्मच चूर्ण के साथ गाय का शुद्ध घी एक चम्मच मिलाकर सुबह-शाम लेना अत्यन्त गुणकारी है। इसके प्रयोग से पेट के विकार समाप्त होते हैं तथा गर्भ स्थापन की स्थिति बनती है।
    6. वायुगोला का दर्द पेट में होने पर सौंफ को चिलम में भरकर पीने से कुछ ही मिनटों में दर्द उड़न-छू हो जाता है । इसे तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीते हैं।
    7. जो महिलायें गर्भावस्था में नारियल और सौंफ का प्रयोग करती हैं, उनकी सन्तान गौर वर्ण होती है।
    8. पाचन सम्बन्धित जो भी चूर्ण तैयार होते हैं। लगभग सभी चूर्णों में सौंफ जरूर डाली जाती है डॉ. ऋषिमोहन श्रीवास्तव

    पुदीना के प्रयोग

    1. गर्मी के कारण उत्पन्न फुंसियों पर पुदीने का रस बहुत राहत देता है।
    2. ताजा हरा पुदीना पीसकर चेहरे पर बीस मिनट तक लगा लें। फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें। इससे आपको गर्मी से राहत मिल जाएगी और आप तरोताजा महसूस करेंगे।
    3. पुदीने के पत्तों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर तीन बार चाटने से अतिसार (दस्त) से राहत मिलती है।
    4. गर्मी के समय प्रतिदिन भोजन के साथ पुदीने की चटनी अवश्य खाएं।
    5. गन्ने के रस में पुदीने का थोड़ा सा रस भी मिलाकर लिया जा सकता है।

     

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    Grind equal quantity of fennel and coriander and mix it in one and a half times pure ghee. Add sugar to taste as well. Drink this mixture twice a day for a few days. Due to its use, itching in any part of the body disappears from the root.

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  • विचार शक्ति का महत्व

    विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।  इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान्‌ शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख निवारण के उपाय

    Ved Katha Pravachan _67 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य हैपरन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत्‌ की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलितमहान्‌ अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैंजो केवल सत्संगउपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैंतो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैंतो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता हैवह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

    इन विचारों का उद्‌गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता हैपुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता हैफिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक "राजयोगमें एक स्थान पर लिखा है, "मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता हैकोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात्‌ घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

    मनुष्य बूढ़ा क्यों होता हैविशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता हैवैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक"Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्‌ढ़े का चित्र है। बाल सफेदगले में झुर्रियॉंमाथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में हैजिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

    उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्चित हैपरन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्चात्‌ जब वह फ्रांस लौटातब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थीजैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, "मैंने निश्चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सकातो उसने दूसरा निश्चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।'' इस निश्चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

    इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारोें के द्वारा हम सदैव अपने विचारोें के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत्‌ में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानेंउसकी इच्छा करें अथवा न करेंपरन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता  है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है'Like attracts live'' अर्थात्‌ जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी कोजुआरी जुआरी कोचोर चोर कोगायक गायक कोसत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैंजहॉं से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्वास और नाड़ी सदैव चलती रहती हैपरन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देतेठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता हैपरन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं। 

    विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगे और विचार जितने ही प्रबल होंगेकर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देनाऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता हैउसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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  • वीर सावरकरः जीत और हार का एक मूल्यांकन

    स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुस्तानी इतिहास के वे नायक हैं, जो स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में सबसे पहले आए और सबसे बाद में गए। यह लड़ाई जिन-जिन रास्तों से आगे बढ़ी, सावरकर जी उन सबमें आगे थे। हिन्दू के ठण्डे खून को गर्म करने के लिये उन्होंने हथियारों का सहारा लिया, जर्जरित समाज को आधुनिक बनाने के लिये उसे वैज्ञानिक दिशा दी, रूढियों से मुक्त करने के लिये अछूतोद्धार का अभियान चलाया, साहित्य एवं पत्रकारिता को आधार बनाकर जन जागृति की लहर पैदा की और इन सबसे बढ़कर हिन्दुओं को हिन्दुत्व के दर्शन कराके उन्हें जीने की शिक्षा दी और यह कहना सिखलाया कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।' 

    Ved Katha Pravachan _75 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    जो इन्सान सिपाही हो, समाज सुधारक हो, दार्शनिक हो, साहित्यकार हो, पत्रकार हो, राष्ट्रभक्त हो और भरपूर रूप से हिन्दू हो, इतने सारे गुण धराने वाले व्यक्ति का मूल्यांकन कठिन ही नहीं असम्भव लगता है। वे जीवन में जीते या हारे, इसका नतीजा निकाल पाना बड़ा कठिन है। जिस इन्सान ने जीवनभर दिया ही दिया हो, उसका नाप तोल भौतिक आधार पर भला कैसे हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को इतिहास विजयी ही नहीं "दिग्विजयी' की संज्ञा देता है। 

    हार और जीत की कसौटी यदि किसी व्यक्ति की सफलता और असफलताओं पर आंकी जाए, तो संभवतः फिर इतिहास की धारा को मोड़ना होगा, घड़ी की सुइयों को उल्टा घुमाना होगा। द्वितीय महायुद्ध में इंग्लैण्ड को विजय दिलाने वाले चर्चिल आम चुनाव में हार गए और उनका दल सरकार नहीं बना सका, तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि चर्चिल असफल रहे। सिकन्दर युद्ध के मैदान में अवश्य जीता, मगर इतिहास असली जीत तो पोरस की ही बतलाता है। सिकन्दर की आँख में आँख डालकर वीरता और राष्ट्रभक्ति से पोरस ने अपने देश की रक्षा की, उस हार पर आज भी इतिहास हजारों जीतों को न्यौछावर करता है।

    दस हाथ धरती के नीचे चली गई वे ईंटें धन्य हैं, जो नींव की ईंट बनती हैं। क्योंकि कलश और मीनार उसी पर तो खुली हवा में सांस लेते हैं। क्या उन अदृश्य ईंटों को हम व्यर्थ और बेकार की संज्ञा देंगे? स्वातन्त्र्य वीर सावरकर हिन्दुस्तान के स्वतन्त्रता संग्राम की वह नींव की ईंट है, जिस पर 1920 के पश्चात्‌ का भवन खड़ा हो सका, जिसके कन्धों पर चढ़कर कोई राष्ट्रपिता बना है और कोई लोकनायक कहलाया। यह ईंट धंस जाए तो सारा स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास ही धंस जाए, धूल धूसरित हो जाए। 

    सावरकर की चिरन्तन प्रासंगिता - भारतीय इतिहास में जितने प्रासंगिक सावरकर रहे और भविष्य में रहेंगे, संभवतः ऐसा नायक ढूंढ पाना कठिन है। यदि हथियारों के दम-खम पर क्षत्रिय बनकर सावरकर ने अंग्रेजों को नहीं ललकारा होता, तो फिर इतिहास भगतसिंह को पैदा नहीं करता और आगे चलकर इस देश में "आजाद हिन्द फौज' की स्थापना नहीं होती। खून देकर आजादी लेने की जिसने आकांक्षा की उन सबके प्रणेता सावरकर रहे।

    लार्ड एटली के अनुसार ब्रिटिशों को भारत छोड़ने की मजबूरी इसलिये है कि अब हिन्दुस्तान की फौज उनकी अपनी नहीं रही। बिना फौज के सात समन्दर पार से भारत पर राज करना आसान नहीं है और न ही हमारे पास इतनी विशाल सेना है कि उसे भारत की धरती पर भेजकर अपना साम्राज्य कायम रख सकें। अंग्रेजों को इस स्थिति में किसने पहुँचाया और भारतीय सिपाहियों के मन में आजादी की ललक किसने पैदा की? अपनी भूमि की खातिर परायों से विद्रोह करने की प्रेरणा किसने दी? इन सबके पीछे सावरकर छुपे हुए हैं। उनकी अदृश्य प्रतिभा, आग उगलने वाली लेखनी और अंगारे बरसाने वाले भाषणों ने उस वर्ग को पैदा किया, जो मैदान में उतरकर हार-जीत का फैसला कर लेना चाहते थे।

    भविष्य में देश की सुरक्षा के प्रति कितनी चाहत कि जब काले पानी की सजा भोगने के लिये अण्डमान पर पहुंचते हैं, तो उसे देखकर गदगद हो उठते हैं और कहते हैं कि भारतीय नौसेना के लिये यह टापू अभेद्य किला बनेगा जो पूर्व से आने वाले दुश्मन के लिये चुनौती होगा। सैनिक द्रष्टा के रूप में सावरकर के विचार कितने यथार्थवादी थे, इसका पता आज लगता है कि जब हमारी नौसेना ने पूर्व की रक्षा के लिए अण्डमान टापू को आधार बनाया है। जो इन्सान भविष्य के हिन्दुस्तान की जीत की अण्डमान में आधारशिला रख रहा हो, भला वह योद्धा दुनिया का कोई भी युद्ध कैसे हार सकता है? 

    हारा हुआ इन्सान इतिहास की धारा नहीं मोड़ सकता। सावरकर तो इतिहास के निर्माता थे। आज तक अंग्रेज जिस हिन्दुस्तान आन्दोलन को "गदर' और विद्रोह कहकर राष्ट्रभक्तों का अपमान करते रहे, उन्हें समाज और इतिहास का खलनायक बतलाते रहे, सावरकर ने उस संघर्ष का नाम 'स्वतन्त्रता युद्ध' दिया और इस लड़ाई में अपना तन-मन-धन फूंक देने वालों को वीर, बहादुर, राष्ट्रभक्त और हीरों की संज्ञा से विभूषित किया। इस परिवर्तन से हिन्दुस्तानी जनता ने अपने स्वाभिमान को पहचाना। 

    सावरकर ने यह समस्त काम केवल कथनी के आधार पर नहीं किया, बल्कि उसे क्रियान्वित करने के लिये स्वयं सबसे पहले आगे आए। लड़ाई का मैदान अपने देश की भूमि को नहीं बनाया, अपितु उन अंग्रेजों के देश में जाकर अपनी स्वतन्त्रता की मशाल जलाई। ब्रिटिश साम्राज्य की आँख में आँख डालकर उन्हीं की धरती पर ललकारा। "इण्डिया हाउस' की गतिविधियों ने "बंकिघम' पैलेस की दीवारें हिला दी, टेम्ज नदी के पानी में तूफान उठ खड़ा हुआ। मदन ढींगरा की गोलियों से जब कर्जन वायली ढल पड़ा, तब उन्होंंने मौन भाषा में कहा कि यह अंग्रेज नहीं ढला है, बल्कि उसके साम्राज्य के ढलने की शुरूआत हो गई है। 

    सावरकर का यह जोश कभी बूढ़ा नहीं हुआ। मरते दम तक वे वीर सिपाही की तरह लड़ने को तत्पर रहे अण्डमान से छूटकर भारत आने पर अपने सम्मान में आयोजित किये गये स्वागत के अवसर पर मुम्बई में जो कुछ उन्होंने कहा और 1957 में दिल्ली में आयोजित स्वतन्त्रता संग्राम शताब्दी के अवसर पर व्यक्त की गई भावना इसके जीवित सबूत हैं। 

    एकमेव रास्ता 'हिन्दुत्व' - अपने ग्रन्थ "हिन्दुत्व' के लेखक के रूप में सावरकर जितने प्रासंगिक और व्यावहारिक उस समय थे, उतने ही आज भी हैं। 

    पाश्चात्य आधार लेकर आजादी के बाद से हमारा देश आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। मगर न तो उसकी पंचवर्षीय योजना का लाभ जनता को मिल सका है और न ही विश्व में उसने वह स्थान प्राप्त कर लिया है जिसके जगद्‌गुरु होने का सपना महर्षि अरविन्द ने देखा था। इन सभी बातों से ऊबकर आज के बुद्धिजीवी और राजनैतिक इस नतीजे पर पहुंचे कि हिन्दुस्तान को सोेने की चिड़िया बनाने और विश्व में अध्यात्म का बोलबाला करवाने के लिये केवल हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता है। इसलिये हम देख रहे हैं कि इन दिनों देश में "हिन्दू लहर', "हिन्दू आदर्श' और "हिन्दू वोट बैंक' की चर्चा है। 

    धर्मनिरपेक्षता (पन्थनिरपेक्षता कहें) जो कि हिन्दू के जीवन का अटूट तत्व रहा है, उसे जबरदस्ती राजनीति से जोड़कर जीवन जीने का सर्वोपरि लक्ष्य बना दिया गया। परिणामस्वरूप बहुमत के साथ जुड़ा हुआ हिन्दू आदर्श धुंधला पड़ गया और हमारी सोच का दायरा मानवी मूल्यों से निकलकर शुद्ध रूप से राजनैतिक बन गया। अल्पसंख्यकता के आधार पर की जाने वाली राजनीति ने कुछ दिनों के लिये कुछ लोगों को सत्ता का परवाना तो अवश्य दे दिया, मगर हिन्दू संस्कृति के शक्तिशाली प्रवाह से उसे हमेशा के लिये अलग-थलग कर दिया। 

    जब तक देश "हिन्दुत्व' में सांस लेता रहा, वह साधन सम्पन्न बना रहा। इस पथ से ज्यों ही उसके कदम डगमगाए, वह विदेशी साम्राज्य के पंजों में चला गया। सात सौ साल तक यह भटकाव जारी रहा। मगर फिर सन्तों ने हिन्दू आदर्श को भक्ति की वाणी दी। फलस्वरूप महाराष्ट्र में सन्तों की लम्बी श़ृंखला के पश्चात्‌ हिन्दवी साम्राज्य स्थापित करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने जन्म लिया। पंजाब में गुरुओं की सतत श़ृंखला के उपरान्त खालसा साम्राज्य की नींव पड़ी। बाद में हिन्दुत्व को मन्त्र बनाकर भारत में एक के बाद एक ऐसे मनीषी और समाज सुधारक जन्म लेते गए, जिन्होंने अपने प्रयासों से इस देश को न केवल रूढ़ियों से और खोखली परम्पराओं से मुक्त कराया, बल्कि उसे शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भी जागरूक बनाया, जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर जन्मी और अन्ततः यह देश आजाद हुआ। आज जब उसे फिर से बनाने और नवनिर्माण करने की आवश्यकता है तो वह भी उसी हिन्दू दर्शन के आधार पर ही सम्भव है। 

    वर्षों पूर्व जब सावरकर ने इन विचारों का प्रचार-प्रसार किया था, तब उस द्रष्टा को साम्प्रदायिक और संकुचित होने की संज्ञा दी गई थी। मगर वातावरण में आज गूंज रही हिन्दुत्व की आवाजें इस बात का सबूत हैं कि देश की नाड़ी और धड़कन पर सही हाथ एकमात्र सावरकर का था। देश के असंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई में कुछ मोर्चे जीते हैं, मगर सम्पूर्ण युद्ध तो एकमात्र सावरकर ने जीता है। इसलिए सावरकर अजेय हैं, अमिट हैं, और अमर हैं।  -मुजफ्फर हुसैन

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    This enthusiasm of Savarkar never got old. Till death, he was ready to fight like a brave soldier, what he said in Mumbai on the occasion of the reception organized in his honor after coming out of Andaman and coming to India and the sentiment expressed on the occasion of freedom struggle centenary organized in Delhi in 1957 There is living proof of this.

     

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  • वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

    वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

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    ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

    इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

    इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

    वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

    वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशितHistory and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

    आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय मेंHistory and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

    वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

    विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

    ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

    वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

    अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

    अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

    इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

    ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

    दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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    दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

    वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

    आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

    धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

     

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