मानव इतिहास का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि इस भूमण्डल पर वैदिक युग की समाप्ति के पश्चात् प्रचलित हुए वेद विरुद्ध विभिन्न मतों-पन्थों ने सद्ज्ञान रूपी सूर्य को ढक दिया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों तक सम्पूर्ण मानव समुदाय अज्ञानान्धकार में भटकता रहा । उस अन्तराल में जो तथाकथिक गुरु-आचार्य, सन्त-महात्मा, सर्वज्ञ, ईश्वर, पुत्र तथा सन्देश वाहक आदि कहलाये वे संसार का अधिक हित नहीं कर सके। क्योंकि उनके द्वारा मनुष्यों को शाश्वत सत्य का बोध नहीं हो पाया। अर्थात् उनमें से किसी ने भी ईश्वरीयज्ञान "वेद" का प्रचार नहीं किया। वे महानुभाव तो केवल स्वकल्पित मतों को मनवाने में ही लगे रहे।
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-2
Ved Katha Pravachan -13 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
उनके अनुयायियों में से किसी ने कहा कि हमारे धर्मशास्त्र स्वयं ईश्वर ने मनुष्य का तन धारण करके अपने हाथ से लिखे हैं। किसी ने अपने मान्य आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों को सर्वज्ञों की कृति बताया। किसी ने गुरुओं की वाणी को स्वीकारने पर बल दिया। किसी ने प्रभु के पुत्र द्वारा प्रदत्त विचारों की महानता पर विश्वास दिलाने का यत्न किया तो किसी ने अपनी मान्य पुस्तक के माध्यम से ईश्वरीय सन्देश की पुष्टि की, इत्यादि.. जबकि आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक उपाधिधारी ऋषियों से लेकर महाभारतकालीन जैमिनि ऋषि तक की अवधि के सभी ऋषियों ने सत्य-शाश्वत वेद और वेद प्रतिपादित मान्यताओं को ही प्राणीमात्र के लिये कल्याणकारी माना था।
महर्षि जैमिनि के पश्चात् सर्वप्रथम आर्ष शैली में वेद का प्रचार-प्रसार करने वाले महर्षि दयानन्द ही थे। इतिहासविद् यह भली भॉंति जानते हैं कि महर्षि दयानन्द से पूर्व हुए मध्यकालीन विद्वान् सायण, महीधर, उबट आदि ने मद्यपान, मांसाहार, व्यभिचार, यज्ञ में पशुबलि जैसे पापों, भूत-प्रेत, जादू-टोनों जैसे अन्धविश्वासों और सृष्टिक्रम के विरुद्ध मान्यताओं को वेद सम्मत बताया। इसलिये उस काल में हुए लगभाग सभी मनीषी वेद के विरोधी बन गये। वर्तमान में भी उपर्युक्त विद्वानों की मान्यताओं पर आधारित पश्चिमी और पूर्वी लेखकों द्वारा किया गया वेदार्थ जिन विद्यालयों में पढाया जाता है उससे वहॉं के अधिकांश विद्यार्थियों के हृदय में वेद के प्रति जो चाहिये वह श्रद्धा नहीं हो पा रही है।
वेद प्रचारक महर्षि दयानन्द- महर्षि दयानन्द ने वेदमन्त्रों के अर्थ परम्परागत ऋषि शैली में करके वेद विषयक फैली भ्रान्तियों को मिटा दिया और वेद को ईश्वरीय ज्ञान तथा स्वत: प्रमाण बताते हुए दृढता पूर्वक कहा-"वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढना पढाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" (आर्यसमाज का तीसरा नियम) उन्होंने वेद के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा-"चारों वेदों (विद्या धर्मयुक्त ईश्वर प्रणीत संहिता मन्त्र भाग) को निर्भ्रान्त स्वत: प्रमाण मानता हूँ। वे स्वयं प्रमाण रूप हैं कि जिनके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप स्वरूप के स्वत: प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद है।".
इसी प्रकार से वे स्वरचित आर्योद्देश्य रत्नमाला के 15 वें "रत्न" में भी यही स्पष्ट करते हैं कि-"जो ईश्वरोक्त, सत्य विद्याओं से युक्त ऋक् संहितादि चार पुस्तक हैं, जिनसे मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता है, उसको वेद कहते हैं।" महर्षि दयानन्द ने आर्ष शैली में वेद का प्रचार किया, उससे वेद के विषय में अनर्गल प्रलाप करने वालों के मुँह बन्द हो गये। अनेक वेद निन्दक वेद के समर्थक बने और वेदों को गडरियों के गीत बताने वाले लज्जा की अनुभूति करने लगे।
आर्ष पद्धति को अपना कर किया विश्व में वेद प्रचार।
याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।
वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है, इस मान्यता की पुष्टि करते हुए महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में लिखते हैं-
(1) "जैसा ईश्वर पवित्र, सर्व विद्यावित्, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं।
(2) और जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो, वह ईश्वरोक्त।
(3) जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्ति रहित ज्ञान प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।
(4) जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है, वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे।
(5) और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो, वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।"
महर्षि दयानन्द ने ऋक, यजु, साम और अथर्व नामक चार सहिताओं को ही वेद माना है, पौराणिक विद्वानों की भॉंति ब्राह्मणग्रन्थादि को नहीं। उन्होंने स्वलिखित ग्रन्थ "ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका" के वेद संज्ञा विचार में स्पष्ट कर दिया-"ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हीं का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी है। वे ईश्वरोक्त नहीं हैं..।" अपने इस कथन की पुष्टि हेतु प्रमाण प्रस्तुत करते हुए वे आगे लिखते हैं- "ब्राह्मणग्रन्थों की वेदों में गणना नहीं हो सकती, क्योंकि इषे त्वोर्जे त्वा. इस प्रकार से उनमें मन्त्रों की प्रतीक धर-धर के वेदों का व्याख्यान किया है। और मन्त्र भाग संहिताओं में ब्राह्मणग्रन्थों की एक भी प्रतीक कहीं नहीं देखने में आती। इससे जो ईश्वरोक्त मूलमन्त्र अर्थात् चार संहिता है वे ही वेद है, ब्राह्मणग्रन्थ नहीं।"
यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने वेद के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्रन्थ को स्वत: प्रमाण नहीं माना। इस सम्बन्ध में उन्होंने यह लिख कर "स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश" में अपना मत व्यक्त किया है-"चारों वेदों के ब्राह्मण (ऐतरेय, शतपथ, साम और गौपथ), छ: अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष), छ: उपांग (मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद) और 1127 (ग्यारह सौ सत्ताइस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्राह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उनको परत: प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेद विरुद्ध कथन है उनका अप्रमाण करता हूँ।"
ज्ञान शाश्वत बता ईशका किया वेद मत का विस्तार |
याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।
महर्षि दयानन्द ने वेद के प्रचार का कार्य आरम्भ किया, उस समय तक पौराणिक विद्वान् वेदमन्त्रों का उपयोग केवल तथाकथित पूजा पाठ के लिये ही करते थे। अर्थात् उनकी मान्यतानुसार वेदमन्त्रों के उच्चारण का उद्देश्य मात्र स्वकल्पित देवी-देवताओंं को रिझाना था। वेद में ईश्वर की ओर से हम मनुष्यों के लिये कोई आदेश, निर्देश, उपदेश, सन्देश, सम्मति, सत्प्रेरणादि भी हैं, उनमें से अधिकांश महानुभावों को यह जानकारी नहीं थी। इसके अतिरिक्त वेद को वे जन्मजात ब्राह्मण समुदाय तक ही सीमित मानते थे। स्त्रियों और शूद्रों को तो उन्होंने वेद सुनने तक से वञ्चित कर दिया था। ऐसी दुरावस्था में महर्षि दयानन्द ने यजुर्वेद के 26 वें अध्याय का यह दूसरा मन्त्र-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च चारणाय।। उद्धृत करते हुए "सत्यार्थ प्रकाश" के तृतीय समुल्लास में लिखा -"परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मै (जनेभ्य:) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आ वदानि) उपदेश करता हूँ वैसे तुम भी किया करो।"...
(ब्रह्म राजन्याभ्याम्) हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय (अर्य्याय) वैश्य (शूद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है,... वे आगे लिखते हैं- .. "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिये प्रकाशित किये हैं। और जो स्त्रियों के पढने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है।"
आगे उन्होंने शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताया कि "भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषण रूप गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढके पूर्ण विदुषी हुई थी।" महर्षि दयानन्द की कृपा से ही अनेक विदुषी महिलाएं वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त कर पाई और शूद्र कुलोत्पन्न अनेकानेक बन्धु वेद के विद्वान् बनकर ईश्वरीय वाणी का प्रचार कर रहे हैं।
मनुज मात्र को वेद पठन का पुन: प्राप्त हुआ अधिकार।
याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।
ब्र्रह्मवेता महर्षि दयानन्द- महाभारत काल के पश्चात् प्रचलित हुए अवैदिक मत-पन्थों की ओर से ईश्वर के सम्बन्ध में जो कहा और लिखा गया उसे हम कल्पना पर आधारित मानते हैं। इसलिये कि उनके प्रवर्तक वेद के विद्वान् नहीं थे। उन्होंने अध्यात्त्म विषयक जो मत व्यक्त किये वे ऋषियों की (अवैदिक) मान्यता के अनुकूल नहीं हैं।
यद्यपि उनमें से अनेक महानुभावों ने ऋषियों द्वारा लिखे गये उपनिषदों, दर्शन शास्त्रों आदि को अपने मत की पुष्टि में सहायक बताया, किन्तु वे उन ग्रन्थकारों की भावनाओं को ठीक से समझ नहीं सके। यही कारण है कि तब से अब तक अध्यात्म के नाम पर जिन मान्यताओं का प्रचार-प्रसार हुआ और हो रहा है, उनमें समानता नहीं पाई जाती।
यह सर्वविदित है कि अपने आपको अध्यात्म से सम्बन्धित मानने वाले अनेक मत-पन्थ जो ईश्वर को मानते हैं, वे उसके स्वरूप, नाम, स्थान, कार्य आदि की दृष्टि से परस्पर भिन्न विचार रखते हैं। ये मतभेद प्रमाणित करते हैं कि वेद विरुद्ध मत पन्थों का ईश्वर काल्पनिक है, वास्तविक नहीं। अत: यह निश्चयपूर्वक लिखा जा रहा है कि लगभग पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात् मानव समुदाय को वेद में वर्णित ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ ज्ञान महर्षि दयानन्द ने ही कराया।
सदियों के पश्चात् ईश को पुन: जान पाया संसार ।
याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।
"सत्यार्थ प्रकाश" सप्तम समुल्लास का आरम्भ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव विद्या युक्त और जिसमें पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते वे नास्तिक मन्दमति सदा दु:ख सागर में डूबे ही रहते हैं।
महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया उस समय इस भूमण्डल पर अनेक ईश्वर माने जाते थे। अत: उन्होंने बलपूर्वक यह घोषणा की कि-"चारों वेादें में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक ही है ।"
आगे ईश्वर की सिद्धि के लिये प्रत्यक्षादि प्रमाणों का न्यायदर्शन के एक सूत्र से समर्थन करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि- "जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, प्राण और मन का, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दु:ख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको "प्रत्यक्ष" कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मा युक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों से प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव के इच्छा ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसे क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शङ्क ा और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, नि:शंकता और आन्दोत्साह उठता हैं। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्धान्त:करण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है।"
ईश्वर निराकार है, इस वैदिक मान्यता की पुष्टि करने के लिये महर्षि दयानन्द ने यह हेतु दिया कि- "जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता, जब व्यापक न होता तो सर्व ज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृषा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों का बनाने वाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्यक होना चाहिये। जो कोई यहॉं ऐसा कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था।"
"जब परमेश्वर के श्रोत्र, नेत्रादि, इन्द्रियॉं नहीं हैं, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता हैं?" इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्वेताश्वतर उपनिषद् के आधार पर यह दिया कि-"परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्ति रूप हाथ से सबका रचना ग्रहण करता, पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनता, अन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं, उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से "पुरुष" कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।"
सप्रमाण कर दिया सिद्ध आकृति रहित है सरजनहार।
याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।
ईश्वर अवतार की पौराणिक मान्यता के सम्बन्ध में महर्षि ने अपनी असहमति व्यक्त की और यह पूछे जाने पर कि-"जो ईश्वर अवतार न लेवे तो रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो?" बताया कि-"प्रथम तो जो जन्मा है, वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है, उसके सामने कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस-रावणादि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा है, जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। भला इस अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव युक्त परमात्मा को एक शुद्र जीव को मारने के लिए जन्म-मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है? और जो कोई कहे कि भक्तजनों के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं, क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर के पृथिवी, सूर्य, चन्द्रादि जगत् को बनाने, धारण और प्रलय करने रूप कर्मों से कंस रावणादि का वध और गोवर्धनादि पर्वतों का उठाना बड़े कर्म हैं? और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया वा मूठी में धर लिया, ऐसा कहना कभी सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि आकाश अनन्त और सबमें व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वैसे ही अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। जाना वा आना वहॉं हो सकता है, जहॉं न रहे। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से नहीं आया? और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला? ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना-जाना जन्म मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता।- कमलेश कुमार अग्निहोत्री
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Although many of them had said that the Upanishads, philosophies etc. written by the sages were helpful in confirming their views, but they could not understand the feelings of those authors properly. This is the reason that since then till now, there is no equality in the beliefs which have been propagated and practiced in the name of spirituality.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...