संस्कारों का महत्व- व्यक्ति के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ है संस्कारों का। यदि किसी समाज के व्यक्ति अच्छे हैं तो वह समाज निश्चय ही अच्छा होगा। किन्तु अच्छे समाज के निर्माण के लिए समाज के प्रत्येक घटक का निर्माण आवश्यक है और यह कार्य संस्कारों के द्वारा जितने सुन्दर रूप में सम्पादित हो सकता है, दूसरे किसी उपाय से नहीं। मानव के समुचित विकास के लिए आर्य समाज की दृष्टि में सोलह संस्कार आवश्यक हैं। इन संस्कारों के करने से शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होती है। आज संसार में जो सन्ताप दिखाई दे रहे हैं, उनका एक कारण यह भी है कि व्यक्ति संस्कार-विहीन हो गया है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को चाक पर चढा कर उसे जैसा चाहता है, वैसा रूप दे देता है, उसी प्रकार संस्कारों की चाक पर चढाकर मनुष्य का यथोचित निर्माण किया जा सकता है। संस्कारों की अग्नि में तप कर व्यक्ति कुन्दन के समान भास्कर हो उठता हैं।
व्यक्ति परिवार का अंग है। आदर्श व्यक्तियों के योेग से आदर्श परिवार का निर्माण होता है। परिवार का निर्माण होता है। परिवार की सुख-शॉंति के लिए एक दूसरे के प्रति त्याग का भाव और सामंजस्य आवश्यक है। स्वार्थ पर टिका सम्बन्ध कभी स्थायी नहीं हो सकता। प्रत्येक परिवार की सुख-समृद्धि के लिए आर्य समाज की पंच-महायज्ञों में आस्था है । यज्ञों के द्वारा व्यक्ति, परिवार और समाज का कल्याण निश्चित है।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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Ved Katha Pravachan - 99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
पारिवारिक जीवन का आधार पति-पत्नी और सन्तान हैं। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चले, इसके लिए इनमें उचित सहयोग और कर्त्तव्य-निष्ठा आवश्यक है। सन्तान के निर्माण में माता-पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यदि माता-पिता आदर्श हैं तो सन्तान भी आदर्श बनेगी। इस सन्दर्भ में ऋषिवर दयानन्द सरस्वती का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है- "जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो, तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है। वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ी भाग्यवान! जिसके माता और पिता धार्मिक-विद्वान हैं। जितना माता से सन्तान को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नहीं।"(सत्यार्थ प्रकाश, द्वितीय समुल्लास)
सामाजिक चिन्तन- आर्य समाज की सामाजिक चिन्तन धारा भी है। इस विचार-धारा को स्वीकार कर लेने पर आदर्श समाज का निर्माण सहज सम्भव है। आर्य समाज वर्णाश्रम व्यवस्था का आधार गुण-कर्म-स्वभाव को मानता है। आर्य समाज सभी मनुष्यों को समान मानकर छुआछूत का विरोध करता है। वह शूद्रों और स्त्रियों को भी वेदाध्ययन का अधिकार देता है। इस सन्दर्भ में स्वामी दयानन्द का तर्क है कि "जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्र आदि के पढाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र इन्द्रिय क्यों रचता? (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)
आर्य समाज ने कभी इस विचार धारा का समर्थन नहीं किया- स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्। इसके विपरीत आर्य समाज ने "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:" का उद्घोष कर नारियों को समाज में उचित स्थान दिलाया, उनकी महत्व प्रतिष्ठा की। बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और बहु-विवाह का निषेध कर आर्य समाज ने विधवा विवाह का समर्थन किया। सती-प्रथा जो मानवता के नाम पर कलंक थी, का विरोध कर आर्य समाज ने समाज-सुधार का बहुत बड़ा कार्य किया। सामाजिक अभ्युत्थान की दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न हो वरन् सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझे। (देखिए : नियम 9) इसी प्रकार सामाजिक आचार-संहिता की दृष्टि से यह कथन भी उचित ही हे कि "सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
मानव-निर्माण में आर्य समाज की धार्मिक दृष्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। मानव का व्यावर्तक गुण धर्म ही है। धर्म के अन्तर्गत आर्य समाज ने नैतिकता के शाश्वत और सार्वभौम प्रतिमानों को स्वीकृति दी है। मनु की धर्म विषयक दृष्टि को स्वीकार कर आर्य समाज ने धर्म के निम्नांकित दस लक्षणों को मान्यता दी है-
घृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह:।
घीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
धर्म के इस स्वरूप को आत्मसात कर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को आदर्शात्मक परिणति दे सकता है। सत्य, न्याय और पुरुषार्थ की महत्व प्रतिष्ठा कर आर्य समाज ने मनुष्य मात्र को आत्म-निर्माण का सीधा-सच्चा रास्ता दिखाया है।
आर्य समाज की धार्मिक दृष्टि- धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों, बुराइयों, अनाचारों और मिथ्याडम्बर का आर्य समाज ने उसी प्रकार आपरेशन किया, जैसे कि कोई कुशल सर्जन किसी फोड़े का करता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन कर इस समाज ने एक ही ईश्वर की उपासना पर बल दिया। आर्य समाज की स्पष्ट दृष्टि में ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है। (नियम 2)
आर्य समाज का आर्थिक और राजनीतिक चिन्तन भी धर्म-नियन्त्रित है। धर्म अर्थ और काम का नियामक है। अत: "सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिएं।" (नियम 5) "सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए" (नियम 4) क्योंकि सत्य से बड़ी शक्ति इस संसार में दूसरी नहीं है। अन्तिम विजय हमेशा सत्य की होती है- सत्यमेव जयते। सत्य की स्थापना के ही लिए आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने वेद-विरुद्ध मत-मतान्तरों का "सत्यार्थ-प्रकाश" में खण्डन करते हुए वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया है। धर्म में क्षेत्र में व्याप्त पाखण्डों-श्राद्ध, तीर्थ, भूत-प्रेतादि विषयक धारणाओं के पारम्परिक रूप का निरसन कर ऋषिवर ने इनके वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन किया है। ऋषि के इन क्रान्तिकारी विचारों से मनुष्य मात्र का निश्चय ही कल्याण हुआ है। पर दु:खकातर स्वामी दयानन्द ने परोपकार को धर्म का मूल माना है। अहिंसा और जीवदया के वे पक्षपाती हैं। यहॉं तक कि स्वयं को विष देने वाले अपराधियों को भी उन्होंने बन्धन-मुक्ति दी है। उनका विचार था कि "मैं संसार के प्राणियों को कैद कराने के लिए नहीं आया। कैद से छुड़ाने के लिए आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता तो हम लोग अपनी सद्भावना क्यों छोड़े?" (महर्षि दयानन्द : जीवन और दर्शन, वैद्य नारायणदत्त सिद्धान्तालंकार) स्वामी जी के शिष्यों में अनेक मुसलमान भी थे। यह इस बात का साक्षी है कि आर्य समाज धर्म, जाति, सम्प्रदाय, कुल आदि की संकीर्ण भावनाओं से मुक्त एक व्यापक मानवतावादी आदर्श समाज का पक्षपाती है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवनादर्शों के अनुरूप आर्य समाज भी मानव निर्माण के रचनात्मक कार्य में अपनी पूरी शक्ति के साथ जुड़ा है। संसार के प्राणियों को दुर्गुणों, कुविचारों और संस्कारों से मुक्त कर आर्य समाज उनके अन्तस् में सद्गुण और सद्विचार भर रहा है। बौद्धिकता, तार्किकता और विवेक के आधार पर वह मनुष्य को अपने भीतर छिपी इन्सानियत को पहचानने की अद्भुत शक्ति दे रहा है। वर्ग, जाति, लिंग, देश, काल, सम्प्रदाय आदि की क्षुद्र दीवारों को गिरा कर वह एक ऐसे आदर्श समाज की रचना में लीन है, जो आर्य है, श्रेष्ठ है। आर्य समाज ने धरती के प्रत्येक मनुष्य को ऐसा रास्ता दिखाया है, जिस पर चल कर मनुष्य दु:ख और अशांति से छुटकारा पाकर प्रेम, शांति और आनन्द से हंसता हुआ अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर सकता है।
निश्चय ही पिछली लगभग डेढ शताब्दी में आर्य समाज ने मानव-निर्माण का अभूतपूर्व कार्य किया है। उसने मनुष्य को वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनने का मार्ग दिखाकर भौतिक और आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों में अद्भुत सामंजस्य स्थापित करने का वरेण्य प्रयास किया है। लेखक- डॉ. सुन्दरलाल कथूरिया
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