जनवरी सन् 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।
अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर
Ved Katha Pravachan -4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।
औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"
लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।
महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्ड, स्वतन्त्र, निर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।
कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थी, उसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान् बलिदानों और प्रयत्नों से सन् 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।
महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य है? स्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम था, इसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।
घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देश, जाति और राष्ट्र का हित किया है? मुझे नहीं जान पड़ता।"
महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहना, दूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाए, वह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता है, वह धर्मात्मा है।"
महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थे, अपितु वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।
महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार किया, अपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।
आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती
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When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...