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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • आर्य समाज का परिचय-2

    लेखक- आचार्य डॉ.संजय देव

    महर्षि स्वामी दयानन्द ने बचाव तो किया ही, साथ ही मुसलमानों और ईसाइयों के मत पन्थों पर प्रहार भी किया। यह हिन्दुत्व का शुद्ध रूप था और महर्षि दयानन्द की वाणी में, लेखों में, पुस्तकों में, शास्त्रार्थ और व्याख्यानों में सुधार की भावना तो थी ही, उन्होंने जागृत हिन्दुत्व का समरनाद घोषित कर दिया।

  • आर्य समाज की स्थापना का महत्व

    सन्‌ 1875 (संवत्‌ 1932 विक्रमी) में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को आर्य समाज की स्थापना हुई थी। इतिहासकार इस घटना को उतना महत्व नहीं देते, जितना महत्व दिया जाना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश इतिहासकार घटनाओं को पाश्चात्य विद्वानों के दृष्टिकोण से देखने के आदी हो गए हैं। इसलिए वे हिन्दी प्रधान और राष्ट्रीयता प्रधान आन्दोलनों की प्राय: उपेक्षा कर देते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों। गौरवशाली महान भारत -1
    Ved Katha 1 part 1 (Greatness of India & Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    सन्‌ 1857 की राज्य क्रान्ति के विफल कर दिये जाने के बाद देश में दो प्रकार की प्रतिक्रियायें हुई। शासकों ने तो उसके बाद अपना सारा जोर इस बात पर लगाया कि किसी तरह भारतवासियों को बौद्धिक और मानसिक दृष्टि से इतना गुलाम बना दिया जाये कि वे अंग्रेजों के राज को अपने लिए वरदान समझने लगें। दूसरी और राष्ट्र भक्त मनीषियों में राष्ट्र को समाज सुधार और राजनैतिक चैतन्य की दृष्टि से आगे बढाने के लिये अनेक छोटे-बड़े आन्दोलन किए। इन आन्दोलनों में ब्राह्म समाजप्रार्थना समाज और देव समाज मुख्य हैं। ये तीनों देश के बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित सुधारवादी आन्दोलन थेपरन्तु इनका क्षेत्र बहुत सीमित था। ब्राह्म समाज देश के पूर्वी भाग तकप्रार्थना समाज देश के पश्चिमी भाग तक और देव समाज उत्तर भारत के बहुत थोड़े से भाग तक सीमित होकर रह गया। ये आन्दोलन न केवल स्थान की दृष्टि से सीमित थेपरन्तु अपनी विचारधारा और बुद्धिजीवियों के विशेष वर्गों से सम्बन्द्ध होने के कारण जन साधारण को प्रभावित करने में असमर्थ थे। ये आन्दोलन सामाजिक कुरीतियों के निवारण के लिये तो किसी हद तक सजग थेपरन्तु उनकी सजगता भी पश्चिमी विचारों से प्रभावित थी। इसीलिये वे भारतीय अस्मिता के सशक्त वाहन नहीं बन सके।

    उक्त तीनों आन्दोलन आर्य समाज की स्थापना से पूर्व विद्यमान थे। एक सीमा तक यह स्वीकार किया जा सकता है कि आर्य समाज में समाज शब्द इन्हीं पूर्व आन्दोलनों की प्रेरणा का परिणाम है। उन्हीं वर्षों में ऋषि दयानन्द भी भारत की तात्कालिक दुर्दशा से मर्माहत होकर तीव्र मानसिक वेदना से गुजर रहे थे। उनके मन में कैसा अन्तर्द्वन्द्व रहा होगाइसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। जो व्यक्ति भरी जवानी की अवस्था में अहर्निश ज्ञान की खोज में देश के विभिन्न भू-भागों का परिभ्रमण करता रहता है और उसके इस परिभ्रमण से न सघन वन छूटते हैं न हिमाच्छादित पर्वत छूटते हैं और न ही सन्तप्त बीहड़ मरुस्थल छूटते हैंउस अवधूत संन्यासी की मानसिक बैचेनी की कल्पना तो करिये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस अवधूत संन्यासी से भेंटने के पश्चात अपने हृदय का उद्‌गार इस रूप में प्रकट किया था-"इस अद्‌भुत व्यक्ति से भेटने पर लगा जैसे कि इसके हृदय में दिन-रात राष्ट्रप्रेम की ज्वाला धधकती रहती है।" यह उद्‌गार ऋषि की अन्तर्वेंदना की एक झॉंकी देने के लिये पर्याप्त है। सचमुच ही उस युग में इस अवधूत संन्यासी को छोड़कर कोई और ऐसा विद्वानमनीषी और समाज सुधारक दृष्टिगोचर नहीं होता जो सचमुच ही दिन रात राष्ट्र की दुर्दशा और परवशता से विक्षुब्ध हो और उसको स्वतन्त्र तथा उसके अतीत गौरव के अनुकूल उसे सर्वशिरोमणि देखने को लालायित हो।

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    किसी लक्ष्य के लिये लालायित होना अलग बात है किन्तु उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कोई रचनात्मक उपाय खोज पाना सहज नहीं। उस दुष्कर कार्य को सहज बनाने के लिये जो दृढ आधार चाहिये- शारीरिक भीबौद्धिक भी और मानसिक भी- वह उस युग के अन्य किसी नेता में दिखाई नहीं देता। ऋषि दयानन्द ने न केवल सकल देश का परिभ्रमण कियाअपितु जहॉं कहीं पता लगा कि अमुक विद्वानज्ञानी और योगी विद्यमान हैवहॉं उसकी सेवा में उपस्थित होकर विभिन्न शास्त्रों को अवगाहन किया और योग के विविध अंगों का अभ्यास भी किया। उस अद्‌भुत संन्यासी को इस प्रकार घूमते-घूमते देश की दुर्दशा का जो साक्षात्कार हुआउससे वह रचनात्मक उपाय की खोज के लिए और अधिक व्यग्र हो उठा।

    ऊपर जिन आन्दोलनों की हमने चर्चा की है उन आन्दोलनों की वैचारिक दुर्बलताओं का भी ऋषि ने पर्यालोचन किया। अन्त में अपने समस्त अभियान के परिणाम-स्वरूप उसने आर्य समाज की स्थापना करके उसके माध्यम से अपना लक्ष्य प्राप्त करने का स्वरूप देखा। हमने अन्य आन्दोलनों में भारतीय अस्मिता के मूल तत्व के अभाव की बात कही है। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना के द्वारा जैसे भारत की उस अस्मिता का मूल मन्त्र खोज लिया।

    संक्षेप में हम कह सकते हैं कि न केवल स्वराज्यप्रत्युत स्वदेशस्वधर्मस्वभाषास्वसंस्कृति और स्वसाहित्य की पहचान ही आर्य समाज की पहचान है। भारत जिस किसी माध्यम से अपने "स्व" को और अपने विशिष्ट व्यक्तित्व को व्यक्त कर सकेवही उसकी अस्मिता है। उस अस्मिता का मूल वह वैदिक विचारधारा है जो सृष्टि के आदि से किसी न किसी रूप में निरन्तर प्रवहमान है। ऋषि दयानन्द ने उस प्रवाह के उत्स के रूप में वेद को पहचाना और आर्य समाज रूपी भवन की दृढ आधार शिला उसी अक्षय ज्ञान विधि की शिला पर स्थापित की।

    सन्‌ 1857 से लेकर सन्‌ 1885 तक का जो रिक्त स्थान है उसको सही रूप में यदि किसी ने भरने का प्रयत्न किया तो वे ऋषि दयानन्द थे। वह माध्यम ही आर्य समाज है। आर्य समाज का यह आन्दोलन किसी वर्ग-विशेषकिसी सम्प्रदाय विशेष और किसी स्थान विशेष से सम्बद्ध नहीं था। बल्कि यह सर्वथा असाम्प्रदायिक विशुद्ध राष्ट्रीय अखिल भारतीय मंच था जिसमें भारत के "स्व" की सही रूप में अभिव्यक्ति हुई था। आर्य समाज की स्थापना के दस वर्ष बाद सन्‌ 1885 में अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना हुईपरन्तु इस कांग्रेस को अखिल भारतीय मंच बनने के लिए भी कम से कम 50 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। सन्‌ 1875 से लेकर सन्‌ 1920 तक भी अगर राष्ट्र की सामाजिकधार्मिकराजनैतिक और शैक्षणिक चेतना का कोई एक मात्र सशक्त आधार था तो वह केवल आर्यसमाज ही थाकांग्रेस नहीं। सन्‌ 1920 के पश्चात्‌ कांग्रेस ने बेशक अखिल भारतीय मंच का रूप धारण किया पर उसमें भी सबसे अधिक योगदान आर्य समाज का ही है। जो आर्य समाज पहले "स्वराज्य" के लिए प्रतिबद्ध थावही अब "सु-राज्य" के लिए प्रसिबद्ध है। वह लक्ष्य अभी तक अप्राप्त है। एक तरह से कहा जा सकता है कि स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात्‌ कांग्रेस तो लक्ष्य भ्रष्ट हो गईइसलिये निरुपयोगी भी हो गई। परन्तु आर्यसमाज की चुनौतियां ज्यों की त्यों कायम हैं- जैसे परतन्त्र भारत मेंवैसे ही स्वतन्त्र भारत में भी।

    हमारे बार-बार भारतीय अस्मिता की बात पर जोर देने से पाठक यह न समझें कि यह किसी संकुचित राष्ट्रवाद का प्रचार है। बल्कि भारतीय अस्मिता ही मानवीय अस्मिता की असली सन्देश वाहिका है। इसलिये "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌" को चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले इकाई के रूप में हमें भारत को ही परीक्षण-स्थली बनाना पड़ेगा। इस महान कार्य की पूर्ति की आशा सिवाय आर्य समाज के किसी अन्य संस्थात्मक आन्दोलन से नहीं की जा सकती।

    इस सन्दर्भ को समझे बिना आर्य समाज की स्थापना के महत्व का मूल्यांकन भी नहीं किया जा सकता। पं. क्षितिश वेदालंकार

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    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
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    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा
    नरेन्द्र तिवारी मार्ग
    बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास
    दशहरा मैदान के सामने
    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
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    To a extent it can be accepted that the term Samaj in Arya Samaj is the result of the inspiration of these earlier movements. In the same years, Rishi Dayanand was also undergoing intense mental anguish, marred by the immediate plight of India. What kind of inner feeling must have been in his mind, it can only be imagined.

     

     

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  • आर्य समाज के गौरव की रक्षा करें

    धर्मशास्त्र का उपदेश देते हुए महर्षि मनु महाराज ने कहा है कि आर्यों के बीच छल-कपट से घुसे हुए अनार्यों को, जिनके असली वर्ण का कोई पता न हो, लेकिन जिनका जन्म निश्चित रूप से किसी नीच कुल में हुआ हो, उनको उनके कर्मों को देख कर पहचानना चाहिए। धोखे से बचने के लिए यह आवश्यक है। अनार्य लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी गुप्त योजना (Hidden Agenda) को लेकर आर्यों की तरह रूप धारण करते हुए (शिखा बन्धन, यज्ञोपवीत धारण आदि द्वारा) आर्यों की तरह यज्ञयागादि करते हुए समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। स्वभाव से सरल और मुग्ध आर्य स्त्री-पुरुष इन अनार्यों को नहीं पहचान सकते। अत: आत्मीयता के साथ उनको आश्रय देने की भूल कर सकते हैं। इसलिए आर्यों को अनार्यों से हमेशा सावधान रहना चाहिए-
    वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम्‌।
    आर्यरूपमिवानार्यं कर्मभि: स्वैर्विभावयेत्‌। (मनुस्मृति 10.57)

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    वेद सन्देश - पहले ज्ञान फिर कर्म
    Ved Katha Pravachan - 104 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    आर्यों ने अनार्यों से धोखा खाया - वर्तमान समय में यह बात स्वामी दयानन्द के अनुयायीवेदमार्गीआर्य समाज के निष्ठावान्‌ और श्रद्धालु हर स्त्री पुरुष के लिए बिल्कुल प्रासंगिक हैक्योंकि इन आर्यों ने कई बार अनार्यों से धोखा खाया है। आज भी धोखा खा रहे हैं। अनार्य लोग आर्य समाज की सम्पत्ति को हड़पनेआर्य समाज से राजनीतिक लाभ उठानेझूठी प्रतिष्ठा प्राप्त करनेनेता बननेसंस्कारों का धन्धा चलानेआर्य समाज के संगठन को तोड़ने इत्यादि कई प्रकार के दुरुद्देश्यों को लेकर आर्य समाजों के अन्दर घुस आते हैं या अपने आपको आर्य बता कर अन्य प्रकार से लोगों को ठगते हैं। इन अनार्यों ने अब तक आर्य समाज की प्रतिष्ठा कोउसके संगठन को काफी क्षति पहुंचायी है। आर्यों के अपने आलस्य के कारण या असावधानी के कारण आजकल हर पुराने और बड़े समाजों में तथा अन्य आर्य संस्थाओं में काफी बड़ी संख्या में अनार्य लोग घुसे हुए हैं। इनको पहचानना सचमुच कठिन काम हैलेकिन असम्भव नहीं। क्योंकि सन्दर्भ आने पर ये अपने असली स्वभाव को अवश्य प्रकट करते हैं। वर्णाश्रम धर्मसदाचार के नियम इत्यादि के विरुद्ध  आचरण करनानिष्ठुरताक्रूरतानिकम्मापन इत्यादि अनार्य व नीच लोगों की पहचान है-
    अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता।
    पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोेके कलुषयोनिजम्‌।।(मनुस्मृति 10.58)

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    मर्यादाओं का पालन -  सब वर्णों के गृहस्थों के लिए पंच महायज्ञों का अनुष्ठान करना अत्यावश्यक है। आश्रम धर्म की मर्यादाओं का पालन करना भी आर्यों का कर्त्तव्य है। लेकिन इन यज्ञों का और इन आश्रम धर्म मर्यादाओं का कितने लोग पालन करते हैंसाधारण सदस्यों की बात छोड़ें। हमारे उपदेशकपुरोहितप्रधानमन्त्रीट्रस्टी प्रभृति लोग आर्य समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। मानव समाज में इनकी अलग पहचान है। लेकिन ये लोग इन बातों का कितना ख्याल करते हैंक्या इन बातों की उपेक्षा करना ठीक हैएक आर्य के लिए किसी के साथ भी अशिष्ट व्यवहार करनाअसभ्य बर्ताव करनानिष्ठुरता या क्रूरता के साथ पेश आनाअपने व्यक्तिगत-पारिवारिक सामाजिक या नागरिक दायित्वों को भूल कर मात्र नाम के लिए प्रधान बनकर निकम्मा कुर्सी से चिपके रहना आदि बातें शोभा नहीं देतीं। क्योंकि ये अनार्यों के लक्षण हैं।

    सदाचार - सदाचार का ही एक दूसरा नाम शिष्टाचार  है। सत्पुरुषसज्जन या शिष्ट पुरुष आर्यों को ही कहते हैं। महर्षि दयानन्द ने हमें सत्यार्थ प्रकाश के अलावा व्यवहारभानु नामक एक ग्रन्थ भी दिया है और महाभारत के उद्योग पर्व तथा शान्ति पर्व को भी पढने को कहा है। क्योंकि इनको पढने से हमें सद्‌व्यवहार और असद्‌व्यवहारों का अच्छा विवेक प्राप्त हो जाता है। अत: महाभारत में भीष्माचार्य ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए शिष्ट और अशिष्टों  के जो लक्षण बताये हैंवे हमें विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

    शुचिव्रत -  भीष्माचार्य कहते हैं कि शिष्ट पुरुष शुचिव्रत होते हैं। शुचिव्रत तीन प्रकार के होते हैं। यथा- मनवचन और कर्म की पवित्रता। हमारे लिए इस विषय में महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराजस्वामी श्रद्धानन्द महाराज तथा उनके पदचिह्न पर चलने वाले कुछ अन्य महात्मा लोग भी आदर्श प्राय (Role Models) हैं)। शिष्ट पुरुषों को पुनर्जन्म या परलोक का भय नहीं रहता। क्योंकि ये लोग सदा वेदोक्त मार्ग पर चलते हैं और सदा शुभ कर्मों में लगे रहते हैं। इन कर्मों का फल अवश्य शुभ ही होगाऐसा विश्वास इनके मन में रहता है। फिर डर किस बात कापापी और अपराधी स्त्री पुरुष हमेशा भयभीत रहते हैं। इनके पास जनबलधनबलअधिकार बल इत्यादि होते हुए भी आत्मबल की कमी रहती है। शिष्ट व आर्य स्त्री पुरुषों के पास कुछ भी न होने पर भी ये आत्मबल के धनी होते हैं। इनको धनदौलतयशअधिकारसत्ता इत्यादि किन्हीं भी सांसारिक वस्तुओं की ओर आसक्ति नहीं होती। ये अपने प्रियजन और अप्रियजन दोनों तरह के लोगों के साथ न्यायपूर्वक समान बर्ताव करते हैं। किसी के साथ पक्षपात नहीं करते। किसी के साथ भी अन्याय नहीं करते। किसी भी परिस्थिति में ये शिष्टाचार को नहीं भूलते। अत: गुटबाजी आर्योचित व्यवहार नहीं होता।

    पापी को दण्ड भी धर्मानुसार - रामायण में सीता जी हनुमान से कहती हैं कि सत्पुरुष कभी भी पापियों को दण्ड देने के लिए पाप या अन्याय के मार्ग को नहीं अपनाते। शिष्ट पुरुष हमेशा सदाचार को अपना अमूल्य आभूषण समझते हैं। न पर: पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्‌। समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चरित्रभूषणा:। (रामायण 6.116.42)। शिष्ट पुरुषों के विद्यादि धन परोपकार के लिए ही होते हैं। इनके अन्दर अहंकार नहीं होता। ये कभी भी धर्म मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते। ये लोग धन या यश कमाने के लिए धार्मिक कार्य नहीं करते। ये धार्मिक कार्यों को अपना कर्त्तव्य समझ कर ही निष्काम बुद्धि से करते रहते हैं। धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करना शिष्ट व आर्यों का लक्षण नहीं। यह तो पाखण्डियों का लक्षण है। शिष्ट पुरुषों के व्यवहार में कोई गुप्त बात नहीं होती। कालाबाजारी और दो नम्बर के धन्धे करने वाले तथा लालच देकर अपना काम करवाने वाले निश्चित रूप से शिष्ट पुरुष नहीं हैं। लेकिन ऐसे शिष्ट पुरुष दुनियां में बहुत कम होंगे। अधिकांश लोग केवल धर्म की चर्चा करते हैंआचरण नहीं करते। इसलिए ऐसे शिष्ट पुरुषों के पास जाते रहना चाहिएउनका आदर सत्कार करते रहना चाहिए। उनके साथ धर्मचर्चा करते रहना चाहिए- शिष्टांस्तु परिपृच्छेथा यान्‌ वक्ष्यामि शुचिव्रतान्‌। येष्वावृत्तिभयं नास्ति परलोकभयं न च। नामिषेषु प्रसङ्गोऽस्ति न प्रियेष्वाप्रियेषु च। शिष्टाचार: प्रियो येषु दमो येषु प्रतिष्ठित:। दातारो न संग्रहीतारो... ते सेव्या: साधुभिर्नित्यं... ये निर्ममा निरहंकृता:... सुव्रता: स्थिरमर्यादास्तानुपास्व च पृच्छ च... न धनार्थं यशोऽर्थं वा ध्वजिनश्चैव न गुह्यं कञ्चिदास्थिता:... धर्मप्रियांस्तान्‌ सुमहानुभावान्‌ दान्तोऽप्रमत्तश्च समर्चयेथा। दैवात्‌ सर्वे गुणवन्तो भवन्ति शुभाशुभे वाक्‌प्रलापास्तथाऽन्ये।। (महाभारत शान्ति पर्वअध्याय 158)

    इनसे भिन्न अनार्य -  इसका दूसरा अर्थ यही हुआ कि जिन लोगों के आचार-विचार ठीक नहींजो लोग मृत्यु के भय के कारण न्याय्य मार्ग से हटते हैंधन दौलतअधिकार आदि के लोभ में फंसे रहते हैंजिनके व्यवहार में पक्षपातातादि दोष होते हैंजो छोटी-मोटी बातों पर भी शिष्टाचार को भूल जाते हैंजिनके विद्यादि गुण केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही होते हैंजिनके अन्दर दुरभिमानअहंकार आदि दोष मौजूद हैंजो लोग धर्म मर्यादाओं का पालन नहीं करतेशिष्ट पुरुषों के पास न जातेन उनका आदर करते और जो लोग धन के लोभ से या नाम माने की इच्छा से धार्मिक कार्यों में लगे रहते हैंये लोग निश्चित रूप से शिष्ट पुरुष व आर्य नहीं हो सकते। शिष्ट पुरुषों की इस कसौटी से यदि आज हम लोग आत्म निरीक्षण करेंतो हमें क्या जवाब मिलेगाक्या हम कटु वास्तविकता का सामना करने की हिम्मत रखते हैंआर्य और अनार्यों का भेद बताने वाली रेखा लुप्तप्राय है।

    अधर्मी का विश्वास मित्र भी नहीं करते - महर्षि स्वामी दयानन्द महाराज ने व्यवहारभानु की भूमिका में लिखा है- "जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता हैतब उसका विश्वास और मान मित्र भी नहीं करते। इसलिए मैं मनुष्यों को उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीति से युक्त इस व्यवहार भानु ग्रन्थ को बनाकर प्रकट करता हूँ कि जिसको देख दिखाकर पढ पढाकर मनुष्य अपने और अपने मित्र तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।" तदनुसार स्वामी जी महाराज ने संक्षेप में और अति सरल भाषा में पण्डितों के लक्षणमूर्खों के लक्षणसभा आदि में कैसे वर्तेंराजा-प्रजा और मित्रादि के साथ कैसे वर्तेंन्याय-अन्याय का लक्षणमनुष्यपन के लक्षण इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला है। यद्यपि इन विचारों का सम्बन्ध समस्त मानव समाज से है और इनके नैतिक मूल्य सार्वकालिक हैंतथापि इन विचारों को पूर्ण प्रामाणिकता और श्रद्धा के साथ आचरण में लाना और प्रचार करना आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य कास्वामी दयानन्द के हर अनुयायी का मुख्य कर्तव्य है।

    इस दृष्टि से आर्य समाज के हर उपदेशकहर पण्डित (पुरोहित)प्रधान और मन्त्रीट्रस्टी आदि पदाधिकारी इन सबका व्यवहार अन्य लोगों के लिए आदर्श प्राय (Living role model) होना ही चाहिए। नैतिक दृष्टि से इनका जीवन अन्य लोगों की अपेक्षा उच्च स्तर का होना ही चाहिए। इन नैतिक नियमों में कभी भी समझौता नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रकार का समझौता करने से बड़े-बड़े दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

    विचारों का मूल  आर्य समाज की गौरव गरिमाइसकी प्रतिष्ठा का आधार उसके प्रचारक और कार्यकर्ताओं के आचरण हैंउनका शिष्टाचार है। लेकिन जब से अनार्य लोग आर्य समाजों के अन्दर घुसपैठ करके सरल स्वभाव के श्रद्धालु आर्यों को धोखा देकर पदाधिकारी और नेता बनने लगेतब से आर्य समाज  तथा आर्य संस्थाएं विवादों में फंस गई हैं। जब कोई विवाद उत्पन्न हो जाता हैतब दोनों पक्षों में लोग होते हैं और आजकल बहुमत मूर्खों का होता है। ये लोग अपनी बुद्धि से न सोच कर गलत प्रचारों के प्रवाह में बह जाते हैं। सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्‌ भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेय बुद्धि:। Wisemen discern and discriminate, examine and accept what is good. A food is carried away by the conviction of others. अत: सच्चाई सामने नहीं आती।

    आर्य समाज में से अनार्यों की पहचान -  जैसा कि मनु महाराज ने कहा है आर्य रूप धारण किये हुए अनार्यों की पहचान और उनको ठिकाने लगाना यद्यपि कोई सरल कार्य नहींतथापि यह कोई असम्भव कार्य भी नहीं है। लेकिन इस कार्य को कोई वीर पुरुष ही कर सकते हैं। सामान्य स्थिति में कौन क्या हैयह समझाना मुश्किल ही है और इस बात की ओर कोई ध्यान भी नहीं देता। लेकिन जब कोई गड़बड़ अध्याय प्रारम्भ हो जाता हैतब इस विषय पर विचार करना ही पड़ता है। परिस्थिति आने परअनार्यों का अनाड़ीपननिष्ठुरताक्रूरता और निकम्मापन सामने आ ही जाता है। सभाओं के चुनाव उसका एक अच्छा उदाहरण है। अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए बोगस मतदाताओं को लाया जाता है। 

    आर्य समाज राजनेताओं के पीछे क्यों गया? आर्य समाजों के उत्सव और सम्मेलनों में ऐसे मन्त्रियों को और राजनेताओं को बुलाकर विशेष सम्मान क्यों दिया जाता हैजिनके आचरण में आर्यत्व का लेश मात्र भी नहींइस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है। आर्य समाजों में ऐसे लोग नेता बनकर आ गये हैंजिनके अन्दर राजनीतिक महत्वाकांक्षा या अपने निजी व्यापार और उद्योग की उन्नति की गुप्त योजना है। ऐसे लोगों में न कोई प्रमाणिकता होती हैन कोई निष्ठा। ये चढते सूरज को नमस्कार करने वाले होते हैं। इस कारण ये लोग राजनैतिक पार्टियों में कभी उस पक्ष के नेताओं के पासकभी इस पक्ष के नेताओं के पास चक्कर काटने में लगे रहते हैं। सिद्धान्त नाम की कोई चीज ही न रही। जिन आर्य समाजों में और सभाओं  के अन्दर गड़बड़ अध्याय चल रहा हैउनके खलनायक ऐसे नेता ही हैं। इनकी योजना आर्य समाज को मजबूत बनाना नहींअपितु अपने हाथअपने समर्थकों की संख्या मजबूत बनाना है। इस योजना के अनुसार ये अशिष्ट और मूर्खों को भी अपने साथ ले लेते हैं और चापलूस पण्डितों को भी पालते हैं। इसके साथ-साथ ये एक दूसरा कार्य भी करते हैं। ये लोग धर्म-अधर्मन्याय-अन्याय का विचार न करते हुए अपनी आलोचना करने वालों को अपना विरोध करने वालों को आर्य समाज सेसभा और अन्य आर्य संस्थाओं से बाहर करने का नीच कार्य करके निष्ठुरता और क्रूरता का परिचय देते हैं। कभी-कभी ये मुसलमान मुल्लाओं की तरह फतवा भी जारी करते हैं। कभी-कभी ये बाइबिल के आदेशों के अनुसार अपना विरोध करने वालों को आजीवन बाहर रखने का भी प्रयास करते हैं। कुरान और बाइबिल को मानने वाले ही ऐसा व्यवहार  कर सकते हैंवेद को मानने वाले ऐसा नहीं कर सकते।ज्येष्ठ वर्मन

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    It is also the duty of the Aryans to follow the limits of Ashram religion. But how many people follow these yagyas and these ashram dharmya dignities? Skip the talk of ordinary members. Our preacher, priest, head, minister, trustee, Prabhriti people represent Arya Samaj. They have a different identity in human society.

     

     

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  • आर्य समाज विवाहों पर लगी शर्तें हटीं

    परिवारजनों की अनुपस्थिति में भी अब विवाह हो सकेंगे

    ग्वालियर । आर्य समाज में होने वाले विवाहों पर लगाई गई शर्तें ग्वालियर स्थित मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की युगल पीठ द्वारा हटा दी गई हैं। अब माता-पिता अथवा परिवारजनों की उपस्थिति के बिना भी आर्य समाज में विवाह हो सकेंगे। बुधवार दिनांक 30 अक्टूबर 2013 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर स्थित युगल पीठ ने आर्य समाज की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि विधियॉं बनाने का काम न्यायालय का नहीं है।

  • आर्यसमाज का मूल मन्तव्य

    आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द का जन्म 1824 को टंकारा (गुजरात) में हुआ। आपके बालपन का नाम मूलशंकर था। 14 वें वर्ष बालक मूल अपने पिता के साथ शिवरात्रि की कथा सुनने के लिए गया। शिव की वीरता और व्रत की महिमा सुनकर मूल ने व्रत रखा, रात को मन्दिर में शिवपिण्डी पर चूहों को दौड़ते व भोग को खाते हुए देखकर पिताजी को जगाया और अनेक प्रश्न पूछे। उत्तर से जब मूल के मन को सन्तोष न हुआ तो मूल अनुमति लेकर घर लौट आया तथा सच्चे शिव के दर्शन का व्रत लिया। 

    बहिन और चाचा की मृत्यु से वैराग्य की भावना उभरी और मूल ने मृत्यु-विजय की ठानी। जब घर में अपने विवाह की तैयारियां देखीं, तो इक्कीस वर्षीय शिक्षित युवक मूल एक दिन घर से निकल पड़ा। योग सिखाने वाले गुरु की खोज में लगातार 14 वर्ष जंगलों, पहाड़ों, मैदानों की खाक छानता रहा और जहॉं भी किसी योग सिखानेवाले का पता चला, वहीं मूल से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी और फिर दयानन्द संन्यासी बनकर पहुंचा। अन्त में मथुरा आकर ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द दण्डी से लगभग तीन वर्ष अध्ययन किया। जब स्वामी दयानन्द ने जीवन साधना की सिद्धि के लिए गुरु से विदा मांगी तो गुरु ने पूर्व प्रतिज्ञाओं को परोक्ष में करके आर्षज्ञान ज्योति जगाने की प्रेरणा दी।गुरु आज्ञानुसार कार्य करते हुए महर्षि ने अनुभव किया कि केवल कुछ बता देने से लक्ष्य सिद्ध न होगा। एतदर्थ जनता का संगठन बनाना आवश्यक है, तभी स्थायित्व आ सकता है। अत: 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज प्रचारात्मक धार्मिक संगठन है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म।
    Ved Katha Pravachan - 102 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भारतीय जीवन में धर्म सबसे प्रमुख है। दूसरी सामाजिकआर्थिकराजनीतिक व्यवस्थायें भी धर्म पर निर्भर हैं। धार्मिक दृष्टि से हमारे यहॉं अनेक विचारसिद्धान्त तत्व हैं। जैसे कि ईश्वरजीवप्रकृतिभाग्यवर्ण-आश्रम व्यवस्थाकर्मफल आदि। इन सारे तत्त्वों में से सबसे अधिक प्रमुख बात कौनसी हैजिसके साथ दूसरे तत्त्व भी जुड़े हुए हैं?

    यदि इस दृष्टि से हम भारतीय विचारधारा तथा जीवन पद्धति पर विचार करते हैं तो विचार करने पर ऐसा तत्त्व कर्मफल-व्यवस्था ही सिद्ध होता है। अन्य जितने भी विचार हैं वे सारे इसी विचार अर्थात्‌ कर्मफल-व्यवस्था के साथ ही जुड़े हुए मिलते हैं तथा इसी कर्मफल व्यवस्था की कड़ियॉं ही सिद्ध होते हैं।

    इसीलिए ही हम भारतीय चाहे दो-चार भी कहीं इकट्ठे होते हैंतो जीवन व्यवहार से जुड़ी हर बात को भाग्य से जोड़कर ही मानते हैं। जैसे कि यदि किसी का वैवाहिक सम्बन्ध जुड़ता हैकिसी के यहॉं कोई नया शिशु जन्म लेता है या किसी की कहीं नौकरी लगती है अथवा कोई किसी प्रकार का नया कारोबार करता है। किसी प्रकार के सुख-दु:ख की बात होती है या हानि-लाभ की या सफलता-असफलता की चर्चा होती है तब प्राय: कहा जाता है:- "हानि-लाभजीवन-मरणयश-अपयश विधि हाथ।" और तो क्या यदि कोई रुग्ण होता हैतो हमारे यहॉं प्राय: तब भी यही कहा जाता हैयह सब भाग्य का चक्र है। यह तो होनी हैऐसा ही होना थायह तो विधि-विधान है। इसको कौन बदल सकता है। क्योंकि:- "सकल पदारथ हैं जग मांहि। कर्म (भाग्य) हीन नर पावत नांहि।"

    अत: भारतीय विचारधारा को समझने के लिए हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से भाग्यविधिदैवहोनीलेख शब्दों पर जाता है और इन शब्दों को समझ लेने पर ही भारतीय भावना स्पष्ट होती है। भाग्य शब्द भाग से बनता है। भाग का अर्थ है=हिस्सा । अत: भाग्य का अर्थ हुआ हिस्से का अर्थात्‌ बांटने पर हिस्से में आनेवाला। हर हिस्सा किसी न किसी के आधार पर होता हैजैसे कि कुछ मिलकर किसी कार्य को करते हैं। उस कार्य के करने जो फललाभ प्राप्त होता है अर्थात्‌ जो कमाई होती हैउसके एक निश्चित व्यवस्थासमझौते के आधार पर भागहिस्से बंटते हैं। भाइयों में भी हिस्से बंटते हैं। वे एक पिता के पुत्र होने से अपना-अपना भागभाग्य प्राप्त करते हैं। अत: हिस्से कर्म और जन्म के आधार होते हैं। हॉंइस प्रकरण में भाग्य का अर्थ हैपिछले कर्मों का फल।

    विधि शब्द विधाननियम के साथ इसके कर्त्ता के लिए भी प्रयुक्त होता है। देव शब्द से दैव बनता हैजिसका भाव हैदेव द्वारा किया गया या देव द्वारा प्राप्त होनेवाला। अत: इन शब्दों का प्रकरण के अनुसार अभिप्राय हुआ कि एक ऐसा देव है जिसके विधि-विधान के अनुरूप जो जैसा कर्म करता हैवह उन-उन कर्मों के आधार पर अपना-अपना भाग्य प्राप्त करता हैं।

    ये शब्द कर्मफल व्यवस्था से सम्बद्ध हैं। अत: इन शब्दों का पूर्ण स्वारस्य समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को हृदयंगम करने हेतु इन शब्दों को स्पष्ट करना होगा। जैसे कि- कर्म किसको कहते हैंवह कितने प्रकार का हैं?  कर्म का कर्त्ता कौन है वह कर्म करने में कितना कहॉं स्वतन्त्र है कर्म करने के साधन क्या-क्या हैं किस कर्म का फल कैसा होता हैकर्म किन-किन पड़ावों से होकर फल के रूप में परिणत होता हैंकर्मों का फल कौन देता है कर्म स्वयं या ईश्वरकर्म का कर्त्ता कर्मफल प्राप्त करने में स्वतन्त्र है या परतन्त्रकर्मफल दाता क्या दयाक्षमा भी करता है अर्थात्‌ वह कितना दयालु और न्यायकारी हैकर्मफलदाता फल क्या किसी की सहायता से देता है कर्मफल व्वस्था क्या अटलअटूूट है या इसमें रिश्वतपहुंच आदि से अन्तर आ जाता हैयह व्यवस्था क्या आज की राजनीति की तरह मुख देखकर चलती है 

    आर्यसमाज का मूल मन्तव्य वस्तुत: कर्मफल व्यवस्था ही है। इसका स्पष्ट और सुनिश्चित रूप ही आर्यसमाज को दूसरों से अलग करता है। जैसे कि कर्मफल से बचने के लिए आज अनेकों ने अनेक ढंग अर्थात्‌ इष्टदेव का दर्शन-पूजननामस्मरणतीर्थयात्रास्नान समझ लिये गये हैं। आज का धर्म इसी प्रकार के कर्मकाण्डों का रूप ही बनकर रह गया है। जबकि व्यवहार में मन्त्र-तन्त्र आदि के बर्तने पर भी पाप का परिणाम दु:ख दूर होता नहीं है। जैसे औषधि लेने पर रोग का कष्ट दूर हो जाता है।

    वस्तुत: आर्यसमाज को पूरी तरह से समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को पूरी तरह से समझना जरूरी है। लेखक - प्रा. भद्रसेन 

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    A feeling of disinterest emerged from the death of the sister and uncle, and the original decided death-victory. When he saw the preparations for his marriage at home, the twenty-one-year-old educated young man left the house one day. For 14 consecutive years in search of a teacher who taught yoga, he searched the forests, mountains, plains and wherever a teacher of yoga was found, from the original, pure Chaitanya came as a brahmachari and then Dayanand a sannyasi.

     

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  • आर्यसमाज का मौलिक आधार

    लेखक - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

    सर्वश्रेष्ठ अध्येताओं के अनुसार हिमालय के आस-पास ही मनुष्य का अवतरण हुआ है। वहीं से उसकी संस्कृति का और मानव जाति की यात्रा का प्रारम्भ होता है। वेद के दिव्य वाक्य मानव जाति के जीवन के आधार बने। कुछ काल प्रेम और आनन्द से रहने के बाद यहीं से मनुष्य समस्त संसार में बिखर गये।

  • आहार आरोग्य सूत्र

    बिना कड़ी भूख लगे भोजन न करें। भोजन उतना ही करें कि पेट को बोझ महसूस न हो। कहावत भी है- आधा भोजन, दोगुना पानी, तिगुना श्रम, चौगुनी मुस्कान।

    भोजन करते समय चित्त में प्रसन्नता हो। इस समय बातें बिल्कुल न करें। चिन्ता, क्रोध, ईष्या, द्वेष, घृणा, भय आदि मानसिक उद्वेग के समय भोजन न करें, तो अच्छा है। क्योंकि उस समय किया गया भोजन ठीक से नहीं पचेगा और रोग पैदा करेगा। भोजन को भगवान का प्रसाद मानकर प्रत्येक ग्रास को अमृत-तुल्य और स्वास्थ्यवर्द्धक मानकर ग्रहण करें।

    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अनाज को चक्की में अधिक महीन पीसने से तथा तलने-भुनने से उसके स्वाभाविक गुणआवश्यक खनिज लवणविटामिन्स नष्ट हो जाते हैं। अतः स्मरण रहे कि मोटे आटे (चोकर युक्त) की रोटी ही खाएं। भोजन को भाप में पकाकरकम मसालों का प्रयोग करें। घीतेलपचने में भारी होते हैं। अतः दूधदहीअंकुरित अनाज आदि से इसकी पूर्ति कर लेनी चाहिए। अंकुरित अनाज चनामूँगमूँगफलीगेहूँ तथा नारियल आदि में पर्याप्त पोषक तत्व हैं। अंकुरित अन्न में पोषक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। नित्य प्रातः पचास ग्राम अंकुरित अन्न खूब चबा-चबाकर सेवन करना चाहिए।

    सप्ताह में एक दिन पेट को छुट्टी देने के लिए उपवास की आदत डालनी चाहिए। जब सभी कर्मचारियों को नई स्फूर्ति अर्जित करने के लिए साप्ताहिक अवकाश मिलता हैतो पेट को छुट्टी क्यों न मिलेवास्तविक उपवास वह है जिसमें जल की कुछ मात्रा बढ़ाकर उसमें नीम्बू डालकर पिया जाता है। यह न बन पड़े तो दूधछाछफलों का रस लेकर काम चलाना चाहिए। पूरे दिन जिन्हें भूखे रहना कठिन होवे एक समय शाम को तो उपवास कर ही लें। उपवास से पाचन शक्ति बढ़ती है तथा शरीर-शोधन में बड़ा सहयोग मिलता है।

    खाद्य पदार्थों को सीलनसड़ने वाले स्थानों एवं बदबू वाले पात्रों में नहीं रखना चाहिए। चूहेघुनकीड़े आदि उन्हें जहरीला न बना सकेंइसलिए सभी खाद्य पदार्थ ढककर रखने चाहिएं। समय-समय पर धूप में सुखाते रहना चाहिए। पकाने एवं खाने के उपकरण साफ-सुथरे रखने चाहिएंजिससे उनमें विषाक्तता उत्पन्न न हो।

    सभी प्रकार के नशे हानिकारक हैं। उनमें से किसी का भी व्यसन नहीं करना चाहिए। क्षणिक उत्तेजना के लिए शारीरिकमानसिक स्वास्थ्य चौपट करनेअकाल मृत्यु तथा सर्वत्र निन्दित होने एवं परिवार को अस्त-व्यस्त करने वाली इस बुराई से हर किसी को बचना चाहिए। जिन्हें यह लत लगी होउन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।

    सड़े-गले शाक-सब्जीफलमिठाई आदि को खाते रहना बुरी बात है। स्वादनाम या मूल्य के आधार पर नहींबल्कि खाद्य पदार्थों के सुपाच्य और ताजे होने को मुख्यता दी जानी चाहिए। सड़े अंगूरों की तुलना में ताजे टमाटर हजार गुने अच्छे हैं। आवश्यक नहीं कि कीमती मेवाफल या टानिकों पर धन पानी की तरह बहाया जाए और पहलवान बनने का सपना देखा जाए। जिनके पास उतना धन नहीं हैवे अंकुरित अन्न से भी बादाम जैसा पोषण पा सकते हैं। गाजर में उच्चकोटि का विटामिन "एहै। गाजर का रस नित्य पीने से रक्त की शुद्धि होती है। गाजर का रस स्वयं ही एक टॉनिक है। आँवलानीम्बूकेलाअमरूदसेबसन्तरामौसम्मी जैसे मौसमी फलकीमती टॉनिकों से बढ़कर हैं।

    चबा-चबाकर खाने सेकम खाकर भी अधिक तृप्ति मिलती है। मोटापा नियन्त्रित करने के लिए चबा-चबाकर धीरे-धीरे भोजन करना चाहिए। चबाने से खून में सेरीटोनिन नामक हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती हैजिससे अनिंद्रातनावमानसिक अवसादसिरदर्द आदि रोग दूर हो जाते हैं।

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    भोजन को ठीक तरह चबाने से आँतों की क्रिया और पचन ठीक होता है। फलस्वरूप डायबिटीज (शुगर)संधिवातगठिया इत्यादि रोग स्वतः ही ठीक होते हैं। हाइपर-एसिडिटी (अति अम्लता) तथा भूख न लगने की शिकायत दूर हो जाती है।

    भोजन के साथ पानी पीने की आदत ठीक नहीं है। भोजन करने के एक घण्टे पूर्व पानी न पीएं तथा भोजन करने के डेढ़ घण्टे बाद पानी खूब मात्रा में पानी पिएं। भोजन को ठीक तरह चबाने पर लार (सलाइवा) के अच्छी तरह मिल जाने से पानी की आवश्यकता नहीं रह जाती है। यदि आवश्यकता नहीं रह जाती है। यदि आवश्यक हो तो 50-100 ग्राम जल पिया जा सकता है।

    सुबह उठकर दो गिलास पानी पीना आँतों की शुद्धि के लिए हितकारक है। दोनों भोजन (सुबह-शाम) के बीच के समय में पर्याप्त पानी पीते रहें। नित्य 2.5 से 3.5 लीटर पानी पीना चाहिए। एक साथ अधिक मात्रा में पानी न पीकर हर घण्टे,आधे घण्टे बाद घूंट-घूंट पानी पीना बेहतर है।

    शीतल पेयफाष्ट-फूटब्रेडबिस्किटपूड़ी,  केककचौरीरंग-बिरंगी मिठाइयॉंटॉफीआइस्क्रीमचाय आदि स्वास्थ्य के लिए अहितकर हैं। मैदा-खाद्य आँतों से चिपककर कब्ज पैदा करती है तथा डिब्बानन्द खाद्य पदार्थ में उनके संरक्षण के लिए कीटनाशक (जहरीले रसायन) मिलाए जाते हैं जो आँतेंगठियायकृतफेफड़े आदि के रोग पैदा करते हैं।

    स्वस्थ रहने के लिए हमारे खून का मिश्रण 80 प्रतिशत क्षारीय एवं 20 प्रतिशत अम्लीय होना चाहिए। अतः क्षारीय खाद्य पदार्थ अधिक सेवन करना चाहिए। क्षारीय खाद्य पदार्थ व अम्लीय खाद्य की संक्षिप्त सूची इस प्रकार है-

    हानिकारक अम्लीय खाद्य- चीनीकृत्रिम नमकमैदापॉलिश हुआ चावल व दालबेसनअचारब्रेडबिस्किटकेकडिब्बाबन्द खाद्य पदार्थमॉंसमिठाइयॉंतेलघी आदि।

    स्वास्थ्य क्षारीय खाद्य- गुड़शहदताजा दूधदहीताजे सभी फल (जो स्वतः पककर मीठे होेते हैं)सभी हरी सब्जियॉंउबला या भुना आलूचोकर युक्त आटाछिलका सहित दालअंकुरित अन्नमक्खनकच्चा नारियलकिशमिशमुनक्काछुआराअंजीर आदि।

    उपरोक्त खाद्य पचकर खून को अम्लीय या क्षारीय बनाने वाले हैं। नीम्बू अम्लीय हैपरन्तु पचकर क्षारीय हो जाता है। अतः नीम्बूसन्तरामौसम्मीअनन्नास आदि क्षारीय की श्रेणी में रखे गए हैं। नीम्बू को भोजन के साथ नहींप्रातः पानी के साथ पीना अधिक लाभप्रद है। भोजन में कार्बोहाईड्रेट होता है। नीम्बू डालने से खटास के कारण अन्न के पाचन में कठिनाई आती हैक्योंकि कार्बोहाइड्रेट (गेहूँचावलआलू) आदि का पाचन क्षारीय माध्यम से होता है। भोजन के दो घण्टे बाद या दो घण्टे पहले नीम्बू को पानी के साथ पी सकते है। नीम्बू कई रोगों से बचाता है। विटामिन "सीकी पूर्ति करता है। रक्त को साफ रखता है। जीवनशक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।

    भोजन के साथ ताजी चटनीटमाटरपालकपोदीनाआँवलानारियल आदि भी ले सकते हैं। परन्तु अचारों से परहेज रखना ही हितकर है

    खाद्य सम्बन्धी इन मामूली सी बातों का ध्यान रखकरइस दुर्लभ मानव शरीर को स्वस्थ रखने का दायित्व हम सबका है। कहा भी कहा है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌ अर्थात्‌ शरीर को स्वस्थ रखना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है। - डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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    All forms of intoxication are harmful. Neither of them should be addicted. Everybody should avoid this evil, to destroy physical, mental health, premature death and blasphemy and disturb the family. Those who are addicted should try to get rid of them.

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  • ऋषि दयानन्द का शिक्षादर्शन

    ऋषि दयानन्द ने मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाली सभी समस्याओं पर विचार किया है और वेद तथा वेदानुकूल अन्य शास्त्रों के आधार पर उन समस्याओं के इस युग के लिए सर्वथा नवीन और अनूठे समाधान अपने "सत्यार्थ प्रकाश" आदि ग्रन्थों में उपस्थित किये हैं। विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द ने जो विचार और समाधान दिये हैं यदि उनके अनुसार मानव का जीवन बीतने लगे तो धरती स्वर्गधाम बन सकती है और मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक सब प्रकार के कष्ट-क्लेश दूर होकर यह उन्नति और सुख समृद्धि की चरम सीमा पर पहुंच सकता है।

    शिक्षा समस्या मानव की एक बहुत बड़ी समस्या है। मनुष्य का सब-कुछ उसकी इस समस्या पर निर्भर करता है। मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन किस प्रकार का होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा देते हैं। ऋषि दयानन्द ने शिक्षा के सम्बन्ध में भी सर्वथा नये और निराले विचार दिये हैं। शिक्षा के सम्बन्ध में विचार करते हुए सबसे बड़ा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि बालकों की शिक्षा संस्थाएँ किस प्रकार के वातावरण में हों, शिष्य और शिक्षकों के सम्बन्ध किस प्रकार के हों, बालकों को किस प्रकार पढाया जाए, बालकों का रहन-सहन तथा दिनचर्या किस प्रकार की हो और राष्ट्र के प्रत्येक बालक को बिना किसी भेदभाव के ऊंची से ऊंची शिक्षा मिल सके इसके लिए क्या व्यवस्था  की जाये। ऋषि ने शिक्षा विषयक सभी समस्याओं पर अपने ग्रन्थों में विस्तार से विचार किया है। ऋषि के इस सम्बन्ध में जो विचार हैं उनका अति संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा हैं।

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    वैदिक विद्वानों की तपस्या के कारण वेद में प्रक्षेप नहीं हैं
    Ved Katha -15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शिक्षा संस्थाएँ नगरों से दूर प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त स्थानों में बनाई जानी चाहिएँ। जहॉं स्वाभाविक प्राकृतिक सौन्दर्य न हो वहॉं सुन्दर लता, वृक्षादि लगाकर शिक्षणालय के स्थान को हरा-भरा और शोभाशाली बना लेना चाहिए। जिसमें बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य भी ठीक रहे और मानसिक भी। बच्चों को नगर का धुआँ, धूल-धमक्कड़ और दुर्गन्ध से भरी हवा में सांस न लेना पड़े और वे नगर निवासी गृहस्थों के शान-शौकत तथा श़ृंगार से भरे जीवन से भी पृथक रहें और इस प्रकार गृहस्थों के विलासमय जीवन को देखकर कच्ची उमर में ही उनके मन में विलास-प्रियता के निकम्मे विचार न उठने लगें। बालक शिक्षा समाप्ति से पूर्व नगरों में अपने घरों में नहीं जा सकेंगे। ये चौबीस घण्टे अपने गुरुओं के साथ शिक्षा संस्थाओं के आश्रमों में ही रह सकेंगे।

    गुरु और शिष्य एकान्त में रहेंगे। शिष्यों के चौबीस घण्टों के जीवन पर गुरुओं की दृष्टि रहेगी। गुरु शिष्यों के साथ रहकर उनके जीवन का निर्माण करेंगे। गुरु लोग शिष्यों को उनके हाल पर छोड़कर नगरों में रहने के लिए नहीं जा सकेंगे। गुरुओं का अपने शिष्यों के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होगा जितना मॉं का अपने गर्भ में प़ल रहे बच्चे के साथ होता है। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितना प्यार और हितकामना होती है उतना ही प्यार और हितकामना गुरु में शिष्य के प्रति होनी चाहिए। मॉं को अपने गर्भ में स्थित बच्चे के प्रति जितनी एकात्मकता होती है उतनी ही एकात्मकता गुरु की शिष्य के प्रति होनी चाहिए। जिस प्रकार मॉं के गर्भ में स्थित बच्चे पर मॉं के अतिरिक्त बाहर का किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसी प्रकार गुरुओं के अतिरिक्त शिष्यों पर बाहर के लोगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। गुरु लोग बाहर के जिन लोगों को व्याख्यान आदि के लिए बुलाना आवश्यक समझें उन्हीं का प्रभाव उनपर पड़ना चाहिए। जिस प्रकार मॉं को अपने गर्भ में बच्चे को सब प्रकार से श्रेष्ठ और बढिया बनाने की ही चिन्ता रहती है उसी प्रकार गुरुजनों को अपने छात्रों को सब प्रकार से श्रेष्ठ और उत्तम बनाने की चिन्ता रहती है।

    जब गुरुओं की शिष्यों के साथ इतनी गहरी घनिष्ठता होगी और वे शिष्यों की मॉं की तरह हित-कामना करेंगे तो शिष्य सदैव उनकी आज्ञाओं का पालन करेंगे और छात्रों में आज की सी अनुशासनहीनता की समस्या उत्पन्न नहीं होगी।

    बालकों को क्या पढना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी ऋषि ने बड़े विस्तार से विचार किया है। सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में किस प्रकार के ग्रन्थ पढने चाहिएँ और किस प्रकार के नहीं, इस विषय विस्तृत प्रकाश डाला है। ऋषि की उस पाठविधि का ध्यान से विश्लेषण करने पर एक बात तो यह स्पष्ट रूप से सामने आती है कि ऋषि की सम्मति में पाठविधि में भौतिकविद्याविज्ञान (फिजिकल साईंस) और आध्यात्मिक (स्प्रिचूवल साईंस) दोनों का ही समावेश होना चाहिए। ऋषि ने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है उनमें रसायन, भौतिक, गणित, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्ध-विद्या, शिल्पकला, आयुर्वेदादि भौतिकविद्या विज्ञानों का भी वर्णन है। उस पाठविधि में संगीत के अध्ययन की व्यवस्था भी है। संस्कृत भाषा और उसके उच्च अध्ययन की व्यवस्था तो है ही, ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि प्रारम्भ से ही बल्कि पाठशाला में जाने से पहले ही घर में ही बालकों को विदेशी भाषाओं का सिखाना आरम्भ कर देना चाहिए। इससे यह संकेत मिलता है कि विदेशी भाषा मे जो ज्ञान विज्ञान है उस के पठन-पाठन के पक्षपाती ऋषि दयानन्द भी थे। ऋषि दयानन्द की पाठविधियों में तर्क और दर्शनशास्त्र को पढाने की व्यवस्था है। चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ और उपनिषदों के पठन-पाठन की व्यवस्था भी वहॉं है। वेदों में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याओं की व्यवस्था है। दर्शनों में, उपनिषदों में आध्यात्मिक विद्याओं का वर्णन है। इस प्रकार ऋषि की सम्मति में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विद्याएँ साथ-साथ पढाई जानी चाहिएँ। तभी मानव का सन्तुलित विकास हो सकेगा। किसी एक प्रकार की ही विद्या को पढने-पढाने से व्यक्ति एकांगी हो जाएगा। इसके कारण व्यक्ति और समाज दोनों को हानि होगी। आज के संसार में जो कलह, लड़ाई-झगड़े, युद्ध, अशान्ति दिखाई देती है, वह शिक्षा में आध्यात्मिक विद्याओं को स्थान न देने का ही परिणाम है। ऋषि दयानन्द ने जो विस्तृत पाठविधि दी है वह सब विद्याओं के ज्ञाता, उच्चकोटि के महाविद्वान्‌ व्यक्ति के तैयार करने की दृष्टि से दी है। "सत्यार्थप्रकाश" के तृतीय समुल्लास के अन्त में उन्होंने एक न्यूनतम पाठविधि की ओर भी संकेत किया है। उन्होंने लिखा है कि जैसे पुरुषों को व्याकरण, निरुक्त, धर्म और अपने व्यवहार (आजीविकोपार्जन) की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिए, वैसे ही स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प विद्याएँ तो अवश्य सीखनी चाहिए। सुविधानुसार पाठविधि में अधिक से अधिक विषयों को पढाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

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    ऋषि दयानन्द छात्रों में वासनाओं को भड़काने वाले काव्य, नाटक, उपन्यास आदि पढाने के घोर विरोधी थे। वे छात्रों के जीवन में ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्रता पर अधिक बल देते हैं। ग्रीस के प्राचीन महान्‌ दार्शनिक प्लेटो ने भी इस प्रकार के कामोत्तेजक साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार आधुनिक विद्वान एल्डस हक्सले ने भी इस प्रकार के साहित्य को पढाने का घोर विरोध किया है। इसी प्रकार ऋषिदयानन्द ने श्राद्ध, मूर्त्तिपूजा, अवतारवाद, भूत और प्रेतादि तथा अन्धविश्वास की शिक्षा देने वाले साहित्य का भी तीव्र विरोध किया है।

    बालकों को अन्य विषयों की शिक्षा के साथ-साथ योग की शिक्षा भी प्रारम्भ से ही देनी चाहिए। योगदर्शन आदि योग-विषयक साहित्य भी पढाया जाना चाहिए और योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि इन आठ अंगों का क्रियात्मक अभ्यास भी कराना चाहिए। आसनों और प्राणायाम  के अभ्यास से उनमें मानसिक और आत्मिक पवित्रता उत्पन्न होगी, जिसके कारण वे सब प्रकार की बुराइयों और दोषों से बचे रहेंगेतथा योग के निरन्तर अभ्यास से वे परमात्मा के दर्शन के अधिकारी भी एक दिन हो जाएंगे। 

    योग के यम  नियमों में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पॉंच नियम कहलाते हैं। इन नियमों के पालन से छात्र (1) शरीर और वस्त्र की दृष्टि से स्वच्छ रहना सीखेंगे। (2) सफलता और असफलता में एकरस रहना सीखेंगे। (3) साज-सिंगार तथा बनाव-ठनाव से दूर रहकर सादगी और कष्ट सहने की तपस्या का जीवन बिताना सीखेंगे। (4) उनमें उत्तम और ज्ञानवर्द्धक ग्रन्थों के अध्ययन की क्षमता जाग्रत होगी। (5) वे ईश्वर के उपासक बनेंगे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पॉंच यम कहलाते हैं। उन पॉंच यमों के पालन से छात्र (1) अपने स्वार्थ के लिए किसी प्राणी को किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं देंगे, प्रत्युत दूसरे के कष्टों को दूर करने का भाव अपने अन्दर जाग्रत करेंगे। (2) सत्य का पालन करना और असत्य से दूर रहना सीखेंगे। (3) किसी भी प्रकार की चोरी की वृत्ति से पृथक्‌ रहना सीखेंगे। (4) मन और इन्द्रियों को वश में रखकर अपनी जननेन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी बनेंगे। (5) वे लोभ और लालच से परे रहने वाले और आवश्यकता से अधिक धन अपने पास न रखने की वृत्ति वाले बनेंगे। ये दशों बातें जिन छात्रों के जीवन में ढल जाएँगी उनके जीवन में आगे चलकर किसी प्रकार के पाप या बुरे कार्य नहीं होंगे और आज के समाज में जो घोर चरित्रभ्रष्टता पाई जाती है वह चरित्रभ्रष्टता इस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा में पले युवकों से बने समाज में कभी दिखाई नहीं देगी। ऋषि दयानन्द ने अपनी शिक्षा-पद्धति में इन यम-नियमों का पालन एक आवश्यक अंग रखा है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    When the gurus will have such deep intimacy with the disciples and they wish the disciples like their mother, the disciples will always obey their commands and the problem of indiscipline will not arise in the students today.

     

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  • ऋषि दयानन्द की सफलता

    ऋषि दयानन्द की सफलता असन्दिग्ध है। कड़े समालोचक भी उससे इन्कार नहीं कर सकते। कोई उस सफलता से प्रसन्न है और कोई नाराज। परन्तु इन्कारी कोई भी नहीं हो सकता। निश्चित सफलता के कारणों पर जब विचार करने लगें तब मतभेद आरम्भ होता है। महात्मा गान्धी से पूछिये तो वह ऋषि की सफलता का एक मात्र कारण ब्रह्मचर्य को बतलायेंगे। एक कट्टर मुसलमान से प्रश्न कीजिये तो वह कहेगा कि एक ईश्वर में दृढ विश्वास ही स्वामी जी की विजय का कारण हुआ। एक आर्य समाजी से पूछिये तो वह वेद पर विश्वास को ही कारण बतलाएगा और एक मनोवैज्ञानिक से सवाल कीजिए तो वह उत्तर देगा कि ऋषि दयानन्द की अद्‌भुत सफलता का प्रधान कारण उनकी प्रतिभा थी। एक इतिहास लेखक सभी प्रकार के विचारकों की सम्मति पर विचार करता है और गुण तथा दोषों को तोलकर देखता है। उसे कोई भी प्रश्न इतना गहन नहीं दिखाई देता कि उसका उत्तर न दे सके और न इतना सरल ही दिखाई देता है कि उसका एक शब्द में चुभता हुआ जवाब दिया जा सके। वह सफलता के सभी कारणों को जोड़ता है और परिणाम निकालता है।

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    शुभ गुणों के लिये दुर्गणोँ का त्याग आवश्यक, यजुर्वेद 30.3

    Ved Katha Pravachan _36 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि दयानन्द जी की सफलता में तीन तरह के गुण कारण थे- 1. शारीरिक 2. मानसिक 3. आध्यात्मिक। शारीरिक गुणों हृष्ट-पुष्ट उन्नत शरीर, तेजस्वी चेहरा और सिंह सदृश आँखें। बतलाने की आवश्यकता नहीं कि ऋषि की सफलता में उनके शारीरिक गुणों का एक बड़ा हिस्सा था।

    मानसिक कारणों में से प्रतिभा और स्मृति प्रधान थे। प्रतिभा के कारण बड़े से बड़े वाद में सैकड़ों प्रतिपक्षियों के बीच भी उनकी वाणी अटूट अस्त्रों का प्रयोग करती थी। स्मृति की सहायता के बिना काशी के धुरन्धर पण्डितों को कौन चुप करा सकता था? किताब की विद्या शास्त्रार्थ में काम नहीं देती। वहॉं तो याद ही सबसे बड़ा हथियार है। प्रतिभा और स्मृति ये दोनों स्वामी जी की वशवर्ती होकर काम देती थीं।

    आध्यात्मिक गुणों में से योग, ब्रह्मचर्य और तप ये मुख्य थे। इन तीनों को संक्षेप से कहें तो एक ईश्वर विश्वास और संयम इन दो के अन्तर्गत  जाते हैं। ये दोनों भी एक दूसरे पर आश्रित हैं। ईश्वर विश्वास के बिना पूरा संयम नहीं हो सकता। कर्मशील उग्र आत्मिक भाव ही संयम, योग और तप का आधार है।

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    शरीर की पुष्टि, प्रतिभा और आत्मिकता यह तीन गुण थे, जिनसे ऋषि दयानन्द को अपूर्व सफलता प्राप्त हुई। किसी एक अकेले गुण को तलाश करने में दिमाग न लड़ाकर यदि हम ऋषि के चरित्र पर व्यापक नजर दौड़ायें तो हम इस परिणाम पर पहुँचेगे कि सर्वाङ्गीण उत्कृष्टता ही उनके गौरव का मूल हेतु थी। यही महापुरुष के महत्त्व की निशानी है। जिसमें केवल गुणों का एकदेशी विकास है, वह पूरे महत्व तक नहीं पहुंच सकता। सर्वदेशी विकास ही महत्व का हेतु है। जो केवल शारीरिक या केवल मानसिक गुणों पर भरोसा रखता है वह पूरी सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। 

    अपनी सर्वाङ्गीणता के लिए ऋषि का जीवन आदर्श रूप है। उसकी व्यापक ज्योति से सदियों तक प्रजा अपने-अपने दिये जलाया करेगी। (श्री इन्द्र विद्यावाचास्पति कृत दिव्य दयानन्द से साभार) - प्रो. धर्मेन्द्र धींग्रा

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    Pratibha and Smriti Pradhan were among the mental causes. His voice used unbreakable weapons even among the hundreds of contestants in the biggest debate due to talent. Without the help of memory, who could have silenced the pandits of Kashi? The learning of the book does not work in scripture. There, memory is the greatest weapon. Both Pratibha and Smriti used to work under Swami ji.

     

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  • ऋषि बोध पर्व को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

    वैदिक काल के इतिहास से प्रकट है कि हिमाचल प्रदेश कभी देवलोक या देवभूमि के रूप में था। वहॉं देवराज्य था। देवजाति में भी यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि अनेक वर्ग थे। देवराज्य के सभापति का नाम विष्णु, प्रशासक का नाम इन्द्र, कोषाध्यक्ष का कुबेर और सेनापति का नाम रुद्र या शिव था।

    रुद्र और शिव समानार्थक हैं। रुद्र का अर्थ है- पापियों को रुलाने वाला और शिव का अर्थ है कल्याण करने वाला। जिस राज्य का सेनापति अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग होकर दृष्टों को रुलाता हैं, उसी राष्ट्र का कल्याण होता है।

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    धन वैभव को दौलत क्यों कहते हैं
    Ved Katha Pravachan _50 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    शिवरात्रि का सम्बन्ध शिवजी के जीवन की एक विशेष घटना से है। युवा सेनापति शिव का विवाह सौन्दर्य और सद्‌गुणों की प्रतिमूर्ति पार्वती देवी के साथ सम्पन्न हुआ था। सुहाग रात्रि के दिन अनायास ही सूचना मिलती है कि असुरों ने देवराज्य पर आक्रमण कर दिया। देव सेनापति शिव के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित था। वे ठगे से रह गये। पर वे योगी थे। कुछ क्षणों को वे समाधिस्थ हुए। उन्होंने अपना तृतीय नेत्र=विवेक नेत्र (ज्ञान नेत्र) खोला और कामदेव की वाण वर्षा को निरस्त करके उसे भस्मसात्‌ कर दिया। रात्रि का अन्धकार गहन था। पर उस निबीड़ अँधियारी रात्रि में शिवजी का आत्मा जागरूक थावह निरन्तर जागरूक रहा और अन्तत: वासना पर विवेक की विजय हुई। देव सेनापति ने घोषणा की- "जब तक असुर सेना पर हम विजय नहीं प्राप्त कर लेंगे तब तक हमारी अखण्ड ब्रह्मचर्य साधना चलेगी।" देवसेना एक प्रकार के जादू से सम्मोहित हो उत्साह से भर उठी। शिव का डमरू बज उठापग थिरक उठेप्रलयङ्कर ताण्डव नृत्य का दृश्य उपस्थित हो उठा।

    पार्वती श़ृंङ्गार-सज्जित बैठी रही और जब उसे वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उसने भी "पति लोकं गमेयम्‌" इस आदर्श को चरितार्थ करते हुए शिवजी के इस रात्रि जागरण के व्रत में दीक्षा ले ली। यों संयम और साधना द्वारा देवत्व प्राप्ति के लक्ष्य को सार्थकता प्रदान की और भारतीय देवियों में अमर पद प्राप्त किया। तभी से यह रात्रि "महाशिरात्रि" बन गई।

    वाम मार्ग काल में तो सभी कुछ उलट गया। शिव का डमरु-वादनताण्डवनृत्यरात्रि जागरणत्रिनेत्रभाल में चन्द्र स्थिति आदि सभी अलङ्कारिक प्रयोगों का सौष्ठव नष्ट कर दिया गया। शिवलिङ्ग पूजा का महाभ्रष्ट क्रम चल पड़ा। कामारि शिव के नाम पर घोर घिनौनी कथायें घड़ ली गईभाङ्ग-धतूरा आदि को शिवजी की प्रिय वस्तु बना दिया गया। मानव पतन की यह पराकाष्ठा थी। ईश अनुकम्पा से इसी शिवरात्रि को फिर एक बालक ने अज्ञान की अँधियारी रात्रि में जागरण की साधना की और अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना का व्रत लेकर बालक मूलशङ्कर ने भोगवाद और असंयम से संतप्त विश्र्व पर दया और आनन्द की वर्षा कर "दयानन्द" संज्ञा को सार्थक किया।

    यों शिवरात्रि और बोध रात्रि का एक ही सन्देश है- हम जागते रहें। जागने का अर्थ प्रकृति नियम विरुद्धस्वास्थ्य नियम विरूद्ध रात्रि भर जागने का नाटक करना नहीं है। वरन्‌ जागने का अर्थ है अपने विवेक को जागरूक रखनाजिससे हम मानव-जीवन के उद्‌देश्य के प्रति जागरूक रहें। हममे प्रतिक्षण यह जागरूकता रहे कि जीवन का उद्‌‌‌देश्य प्रकृति के सदुपयोग द्वारा सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश प्रभु कि प्राप्ति है। हमें बोध रहे कि भौतिक सुख साधन तो हैं पर साध्य परमात्मा है। हमें बोध रहे कि हम त्यागपूर्वक भोगेंसंयमशील बनें। इसका अर्थ है कानों से वही सुनें जो सुनना चाहिएआंखों से वही देखें जो देखना चाहियेहाथों से वही करें जो करणीय है आदि। हमें बोध रहे कि प्रभु की प्रजा की सेवा ही सच्ची ईश्वर आराधना है। हमें बोध रहे कि स्वयं अपने प्रतिपरिवारसमाजराष्ट्रविश्र्व मानव और प्राणिमात्र के प्रति कर्त्तव्य पालन ही प्रभु का प्यार पाने का साधन है। तो आयें हम शिव रात्रि को बोध रात्रि बनायेंबोध रात्रि को शिव रात्रि बनायें और आत्म-कल्याण के साथ ही अन्यों के कल्याण का साधन बनें। अब तक जो कुछ भी हुआ सो हुआपर अब आगे हम बोध पर्व पर इस विवेचन के प्रकाश में आत्म-जागरण और परिवार के वैदिकीकरण का व्रत लें। यही शिवरात्रि व्रत का रहस्य है। यही बोधपर्व का सन्देश है। -महात्मा प्रेमभिक्षु (तपोभूमिफरवरी 1997)

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    The history of Vedic period reveals that Himachal Pradesh was once in the form of Devaloka or Devbhoomi. He was the kingdom of Dev. In Devajati also there were many classes like Yaksha, Kinnar, Gandharva etc. The name of the Chairman of Devrajya was Vishnu, the administrator's name Indra, the treasurer's Kubera and the commander's name was Rudra or Shiva.

     

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  • कर्म-फल

    ओ3म्‌ न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति।
    अनूनं निहितं पात्रं न एतत्‌ पक्तारं पक्वः पुनराविशाति।।
    (अथर्व.13.3.38)

    शब्दार्थ - (अत्र) इसमें, कर्मफल के विषय में (किल्विषम्‌ न) कोई त्रुटि, कमी नहीं होती और (न) न ही (आधारः अस्ति) किसी की सिफारिश चलती है (न यत्‌) यह बात भी नहीं है कि (मित्रैः) मित्रों के साथ (सम्‌ अममानः एति) सङ्गति करता हुआ जा सकता है (नः एतत्‌ पात्रम्‌) हमारा यह कर्मरूपी पात्र (अनूनम्‌ निहितम्‌) पूर्ण है, बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रक्खा है (पक्तारम्‌) पकाने वाले को, कर्म-कर्त्ता को (पक्वः) पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल (पुनः) फिर (आविशाति) आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है। 

    Ved Katha Pravachan _94 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में कर्मफल का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है। कर्म का सिद्धान्त इस एक ही मन्त्र में पूर्णरूप से समझा दिया गया है- 

    1. कर्मफल में कोई कमी नहीं हो सकती। मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ेगा। 

    2. कर्मफल के विषय में किसी की सिफारिश नहीं चलती। किसी पीर, पैगम्बर पर ईमान लाकर मनुष्य कर्मफल से बच नहीं सकता। 

    3. मित्रों का पल्ला पकड़कर भी कर्मफल से बचा नहीं जा सकता। 

    4. किसी भी कारण से हमारे कर्मफल-पात्र में कोई कमी या बेशी नहीं हो सकती। यह भरा हुआ और सुरक्षित रक्खा रहता है। 

    5. कर्मकर्त्ता जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त हो जाता है। यदि संसार से त्राण पाने की इच्छा है, तो शुभकर्म करो। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    पापी के पास ही लौटा आता है पाप

    ओ3म्‌ असद भूम्याः समभवत्‌ तद्‌ द्यामेति महद्‌ व्यचः।
    तद्‌ वै ततो विधूपायत्‌ प्रत्यक्‌ कर्तारमृच्छतु।। (अथर्ववेद 4.16.6)

    शब्दार्थ - (असत्‌) असद्‌ व्यवहार, पाप, अधर्म (भूम्याः) भूमि से (समभवत्‌) उत्पन्न होता है और (तत्‌)  वह (महत्‌ व्यचः) बरे रूप में, अत्यन्त विकसित होकर (द्याम्‌ एति) द्युलोक तक पहुंच जाता है फिर (ततः) वहॉं से (तत्‌ वै) वह पाप निश्चयपूर्वक (विधूपायत्‌) सन्ताप कर्म करने वाले को (ऋच्छतु) आ पड़ता है।

    भावार्थ - मन्त्र में पापकर्म-कर्ता का सुन्दर चित्र खींचा गया है -

    1. मनुष्य पाप करता है और समझता है कि किसी को पता नहीं चला। परन्तु यह बात नहीं है। पाप जहॉं से उत्पन्न होता है वहीं तक सीमित नहीं रहता, अपितु शीघ्र ही सर्वत्र फैल जाता है। 

    2. फैलकर पाप वहीं नहीं रह जाता, अपितु पापी को कष्ट देता हुआ उसके ऊपर वज्र-प्रहार करता हुआ वह पापी के पास ही लौट आता है। 

    3. पाप का फल पाप होता है और पुण्य का फल पुण्य। उन्नति के अभिलाषी मनुष्यों को चाहिए कि अपनी जीवनभूमि से पाप, अधर्म, अन्याय और असद्‌-व्यवहार के बीजों को निकालकर पुण्य के अंकुर उपजाने का प्रयत्न करें। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    पुनर्जन्म

    ओ3म्‌ पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्‌ पुनः प्राणः पुनरात्मा 
    म आगन्‌ पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रम्म आगन्‌।
    वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्‌।।(यजुर्वेद 4.15) 

    शब्दार्थ- (मे) मुझे (मनः पुनः) मन फिर से (आगन्‌) प्राप्त हुआ है (प्राणः पुनः) प्राण भी फिर से प्राप्त हुए हैं (चक्षुः पुनः) नेत्र भी नूतन ही मिले हैं (श्रोत्रम्‌ मे पुनः आगन्‌) कान भी मुझे फिर से प्राप्त हुए हैं (आत्मा मे पुनः आगन्‌) आत्मा भी मुझे फिर से प्राप्त हुआ है। अतः (मे पुनः आयुः आगन्‌) मुझे पुनः जीवन, पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है। (वैश्वानरः) विश्वनायक, सर्वजनहितकारी (अदब्धः) अविनाशी (तनूपाः) जीवनरक्षक (अग्निः) परमतेजस्वी, सर्वोन्नति-साधक परमात्मा (दुरितात्‌ अवद्यात्‌) बुराई और निन्दा से, दुराचार और पाप से (नः पातु) हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ - जो लोग यह कहते हैं कि वेद में पुनर्जन्म का उल्लेख नहीं है, वे इस मन्त्र को ध्यानपूर्वक पढ़ें। इस मन्त्र में पुनर्जन्म का स्पष्ट उल्लेख है। देह के साथ आत्मा के संयोग को पुनर्जन्म कहते हैं। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में कथन है कि मुझे नूतन मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और आत्मा मिला है। अतः मेरा पुनर्जन्म हुआ है। यह स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म का वर्णन है। 

    मन्त्र के उत्तरार्द्ध में प्रभु से एक सुन्दर प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो! हमें दुराचार और पाप से बचा। दुराचार और पाप से बचकर जब हम शुभ-कर्म करेंगे, तो नीच योनियों में न जाकर हमारा जन्म श्रेष्ठ योनियों में होगा अथवा हम मुक्ति को प्राप्त करेंगे। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    In the latter part of the mantra, a beautiful prayer has been made to the Lord that, O Lord! Saved us from mistreatment and sin. When we do auspicious work by avoiding misconduct and sin, then we will not be born in lowly yonies or we will be born in the best yonies or we will achieve salvation. - Swami Jagadishwaranand Saraswati

     

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  • कल्पना नहीं है अखण्ड भारत

    आचार्यश्री धर्मेन्द्र महाराज जी से वृजेन्द्रसिंह झाला की बातचीत

    शीर्ष हिन्दू नेता और विख्यात धर्मगुरु पंचखण्ड पीठाधीश्वर आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी महाराज का मानना है कि अखण्ड भारत कोरी कल्पना नहीं है, बस इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति से प्रयास करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि जब जर्मनी एक हो सकता है, तो अखण्ड भारत भी एक हकीकत बन सकता है ।

    अपने इन्दौर प्रवास के समय दिनांक 28 सितम्बर 2009 (विजयादशमी) को दिव्ययुग कार्यालय में पधारे आचार्यश्री ने विभिन्न मुद्‌दों पर खुलकर बातचीत की। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य की बात यह है कि भाजपा के शीर्ष पुरुष भी मानते हैं कि अखण्ड भारत एक ख्वाव है, एक खयाल है, एक कल्पना है। लेकिन यह बिल्कुल गलत बात है। पश्चिम जर्मनी और पूर्व जर्मनी दो भागों में विभक्त थे और उस समय जर्मनी की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा नहीं थी। जर्मनी के लिए उस समय 60 लाख यहूदी समस्या बन गए थे, जिस प्रकार हमारे लिए मुसलमान, ईसाई और घुसपैठिए बने हुए हैं। हालॉंकि उस समय यहूदियों के साथ जो हुआ वह उचित नहीं था ।

    Ved Katha Pravachan -9 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    आचार्यश्री ने कहा कि भारत में जो पाकिस्तान परस्त हैं, अरब परस्त हैं, उनको धकेला जाना पूर्ण सम्भव है। हममें आत्मसंकल्प होना चाहिए, स्वाभिमान होना चाहिए, दृढ़ निश्चय होना चाहिए। जब भारत की विजय वाहिनियॉं सफाई अभियान शुरू करेंगी तो जितने भी भारत विरोधी हैं, देश के शत्रु हैं, हम उन्हें हिन्दुकुश की सीमा के बाहर धकेल देंगे। उसके बाद संसार के मानवतावादी आएँ और उन्हें पाले-पोसें। अरब में बहुत जमीन है। दस-बीस करोड़ लोग और भी वहॉं बस सकते हैं। वहॉं वे खजूर खाएँ, धूल फॉंकें, ऊँट की कूबड़ पर बैठें, काम करें तथा अपने होलीलैंड को और पवित्र बनाएँ।

    हिन्दुत्व को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री धर्मेन्द्र जी महाराज ने कहा कि विश्व वात्सल्यी करुणा हिन्दुत्व की मूल प्रकृति है, उसका स्वभाव है और अग्नि के समान तेजस्विता और दुर्दमनीयता, अजेयता और संसार को अभय देने की क्षमता ही उसका कर्म है। इससे सम्पन्न होना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। और इसके लिए आत्मनिर्भर होना, सशक्त होना, ऊर्जासम्पन्न होना तथा अपने राष्ट्र को सार्वभौम प्रभुता सम्पन्न बनाना एवं उसको अखण्ड बनाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। जिस प्रकार भगवान तिलक कहते थे कि स्वतन्त्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, उसी तरह मैं कहता हूँ कि अपनी मातृभूमि हिन्दुस्थान में अखण्ड हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करना हिन्दुओं का जन्मसिद्ध अधिकार है।

    जिन्ना मामले में जसवन्तसिंह के भाजपा से निष्कासन पर आचार्यश्री ने कहा कि जसवन्त सिंह का अपराध बड़ा था। आडवाणी जी ने भी जिन्ना की मजार पर माथा टेककर बहुत बड़ी भूल की थी। जिन्ना साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा प्रेत था, जिसका अपराध कभी खत्म नहीं हो सकता। आचार्यश्री ने कहा कि आडवाणी जी अब अप्रासंगिक हो गए हैं। उन्हें अब राजनीति से रिटायर होकर फिल्मों पर किताबें लिखना चाहिए। उनका प्रिय विषय भी यही है। वे राजनीति पर न ही लिखें, तो उचित होगा।

    भाजपा के भविष्य पर चर्चा करते उन्होंने कहा कि परींडे से उतरी हाण्डी (मटका) फिर नहीं चढ़ती। देश को चितकबरी नीति और चितकबरे झण्डे नहीं चाहिएं। सर्वकल्याणकारी और हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन की जरूरत है। यह दायित्व संघ, सन्त और समाज तीनों का है।

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    राम मन्दिर के मुद्‌दे पर आचार्यश्री ने कहा कि कोई भी पार्टी अयोध्या में राम मन्दिर बनाने को लेकर ईमानदार नहीं है। मुसलमानों की खुशामद करने में कोई भी पीछे नहीं है। उन्होंने कहा कि देश की चुनाव प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होने चाहिएं तथा देशद्रोहियों को मताधिकार से वंचित किया जाना चाहिए ।

    आतंकवाद, महॅंगाई, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं के लिए केन्द्र की संप्रग सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए आचार्यश्री ने कहा कि इस्लाम, ईसाइयत, कम्युनिज्म, धर्मनिरपेक्षता और अंग्रेजियत भारत के पॉंच बड़े शत्रु हैं। राष्ट्रवादी सरकार ही इन समस्याओं से निजात दिला सकती है। मिलावटखोरी, गलत निर्माण आदि को देशद्रोह बताते हुए उन्होंने कहा कि देशद्रोहियों को सार्वजनिक रूप से फॉंसी पर लटका देना चाहिए। इससे समूचा देश सुधर जाएगा।

    भारत में बढ़ती चीनी घुसपैठ पर पूर्व प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू को आड़े हाथों लेते हुए आचार्यश्री ने उन्हें इस बीमारी की जड़ बताया। उन्होंने कहा कि इस मामले में केन्द्र सरकार सीमा सुरक्षा की ओर ध्यान देने की बजाय आत्मविश्वासहीनता का परिचय दे रही है। हालॉंकि उन्होंने कहा कि हमारी सेना संसार की सर्वश्रेष्ठ सेना है, जो चीन को करारा जवाब दे सकती है। उन्होंने कहा कि भारत को पाकिस्तान से राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेने चाहिएं, क्योंकि वह आतंकवादियों को संरक्षण दे रहा है।

    समलैंगिकता को विकृति बताते हुए आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी ने कहा कि इसे सार्वजनिक रूप से बढ़ावा देना गलत है। इस अप्राकृतिक कृत्य के समर्थन में विजय जुलूस निकालना और इसे मानवाधिकार से जोड़ना बेशर्मी है। समलैंगिक विवाह का कड़े शब्दों में विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि यह एक प्राचीन सामाजिक विकृति है, इसे सभ्यता का जामा नहीं पहनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह ऐसा कृत्य है, जिसे पशु भी नहीं करते। सरकार को कानून बनाकर इस पर रोक लगानी चाहिए।

    इस मुद्‌दे पर स्वामी रामदेव जी से सहमति जताते हुए आचार्यश्री ने कहा कि इस विकृति से पीड़ित लोगों का पुनर्वास होना चाहिए। हालॉंकि उन्होंने इस बात से असहमति जताई कि प्राणायाम और योग से समलैंगिकता जैसी विकृति को दूर किया जा सकता है। उन्होंने अपनी बात के पक्ष में उदाहरण देते हुए कहा कि यदि ऐसा सम्भव होता तो फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्‌टी (जो नियमित योग-प्राणायाम भी करती है) सार्वजनिक रूप से चुम्बन देकर उन्मुक्त यौनाचार को बढ़ावा नहीं देतीं।

    आदि शंकराचार्य के वचन 'ब्रह्म सत्यं जगत्‌ मिथ्या' पर स्वामी रामदेव की टिप्पणी पर आचार्यश्री ने कहा कि किसी भी विषय पर टिप्पणी करने से पहले उसके परिणामों के बारे में सोचना चाहिए। व्यक्ति को अति आत्मविश्वासी नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि संसार क्षणभंगुर ही तो है। उन्होंने कहा कि हमें रामदेव जी इस टिप्पणी पर आपत्ति है कि ''इस दर्शन से व्यक्ति निठल्ला होगा और इससे अकर्मण्यता को बढ़ावा मिलेगा, इससे लोग भाग्यवादी हो गए हैं।'' यह बिल्कुल भी सही नहीं है। उन्होंने कहा कि राजस्थान और गुजरात जैसे धर्मनिष्ठ राज्यों से ही शीर्ष पुरुषार्थी लोग निकले हैं। बिड़ला, बॉंगड़, डालमिया, धीरुभाई अम्बानी आदि शीर्ष व्यवसायी पुरुषों का सम्बन्ध इन्हीं राज्यों से है। इन्हीं दिग्गजों ने जीरो से हीरो बनने की सफल यात्रा की है। इस्पात किंग लक्ष्मीनिवास मित्तल का सम्बन्ध भी राजस्थान के शेखावाटी से है। बॅंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए सभी लोग आज सम्पन्न होने के साथ धर्मनिष्ठ भी हैं। ये लोग कभी भाग्यवादी नहीं हुए। दूसरी ओर नास्तिक कम्युनिष्टों के पुरुषार्थी होने के उदाहरण कहीं नहीं मिलते।

    उर्दू के विरोध सम्बन्धी प्रश्न पर आचार्यश्री ने कहा कि हमारा विरोध भाषा से नहीं बल्कि उसकी लिपि से है, जो कि अवैज्ञानिक तरीके से दाहिने से बाएँ तरफ कीड़े-मकोड़ों की तरह लिखी जाती है। उन्होंने कहा कि हम उस भाषा का विरोध कैसे कर सकते हैं, जिसका जन्म ही भारत में हुआ हो। फारसी भाषा भी संस्कृत की बेटी ही है। उर्दू को देवनागरी में ही लिखा जाना चाहिए।

    अन्त में आचार्यश्री ने अपनी बातचीत कुछ इस अंदाज में समाप्त की- 

    हद-ए-गमे हस्ती से गुजर क्यों नहीं जाते,
    जीना नहीं आता तो मर क्यों नहीं जाते,

    मंजिल को पाना है तो तूफॉं भी मिलेंगे, 
    डरते हो तो कश्ती से उतर क्यों नहीं जाते ।

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    Holding the UPA government at the center responsible for the problems of terrorism, inflation, corruption, etc., Acharyashree said that Islam, Christianity, Communism, Secularism and Britishness are the five biggest enemies of India. Only a nationalist government can get rid of these problems. Describing adulteration, wrong construction etc. as treason, he said that the traitors should be hanged in public. This will improve the entire country.

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  • क्या आप बहू को अपनी बेटी बना सकती हैं

    बहू तुम अपनी तैयारी कर लो। रवि के कपडे भी रख लेना। सुबह की गाड़ी से तुम दोनों चले जाओ। बुखार से कराहती मेरी सास ने मुझसे कहा तो सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। थोड़ी देर खामोशी छाई रही, फिर मेरे ससुर ने ही मेरी सास से कुछ सोच-विचार के बाद कहा, तुम्हें इतना तेज बुखार है। डॉक्टर ने हिलने-डुलने तक को मना किया है, टाइफाइड का संदेह है। बहू को भेज दोगी तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? मेरी चिंता न करो बहू के मायके से फोन आया है। समधिन की तबियत ज्यादा ही खराब होगी, तभी फोन किया है। बेचारी के पास तीनों में से एक बेटी नहीं है बेटा तो है नहीं जो बहू का सुख देखती। बहू को ऐसे वक्त पर नहीं भेजेंगे तो फिर कब भेजेंगे? रवि के चले जाने से उन्हें बहुत सहारा मिलेगा।

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    मैं सास के सिरहाने बैठी उनका सिर दबा रही थी। मैंने भर्राए हुए स्वर में कहा, मां जी आप भी तो बीमार हैं। आप ज्याद बीमार हो गई तो मुझे दुःख होगा कि मैं आपको ऐसी हालत में छोड़कर क्यों गई। मां की चिंता तो मुझे है परन्तु यहां से जाकर आपकी चिंता में भी तो दुःखी रहूंगी। मेरी चिंता बिल्कुल मत करना बेटी। मुझे टाइफाइड वगैरह कुछ नहीं है। थोड़ी सर्दी लगी है तो बुखार आ गया। एक दो दिन में उतर जाएगा और हां, बच्चों को साथ न ले जाना वरना तुम उन्हीं में उलझी रहगी। अपनी मां की देखभाल क्या कर पाओगी? मेरी ह्रदय गदगद हो उठा। कोई भी अवसर आए, मेरी सास हमेशा ही अपनी सहृदयता का परिचय देती हैं।

    सास के इस आग्रह ने तो मुझे जन्मभर के लिए अपने मोहपाश में बांध लिया। मेरी पड़ोसन ने जब खोद-खोदकर इसका राज जानना चाहा तो मेरी सास ने नम आंखों से बताया कि निःसंदेह जिस दिन से बहू हमारे घर में आई हमें बेटी की कभी कमी महसूस नहीं हुई। बहू को मैंने मां का प्यार दिया तो उसने भी मुझे अपनी मां के समान ही आदर व स्नेह दिया परन्तु यदि मैं उससे यह अपेक्षा करूं कि वह अपनी मां की उपेक्षा करके मुझे उसका दर्जा दे तो यह मेरी भारी भूल होगी। मैं जानती हूं कि वह अंश तो अपने माता-पिता का ही है। अतः मुझे पहले उसके माता-पिता को बराबरी का दर्जा देना होगा, तभी बहू भी मुझे उनके बराबर सम्मान देगी। अन्यथा मैं कभी उसकी मां नहीं बन पाउंगी। बस उसकी सास ही रह जाऊंगी और आप तो जानती ही हैं कि सास-बहू के संबंध की क्या छीछालेदर की जाती है।

    मेरी एक सहेली के बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की। लड़की के परिवार में जरा भी समानता नहीं थी। केवल लड़की गुणवती और सुन्दर थी। ये लगो सात लोगों की बारात लेकर गए और लड़की ब्याह लाए परन्तु लोग तो जानबूझकर दूसरों की स्थिति का जायजा लेते हैं। बहू के आने पर अनेक प्रश्नों की बौछार हो गई। क्या-क्या लाई है बहू? सोना कितने तोला हैं ? आपके लिए तो बहू के मायके वालों ने बहुत ही कीमती साड़ी दी होगी.... देखें तो कैसी है? पता नहीं लोग अपनी आदतें क्यों नहीं छोड़ते? दूसरों को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि कोई जवाब देते नहीं बनता। वे झल्लाते हुए बता रही थी, सबको यह कहूं कि कुछ नहीं मिला तो बहू कैसा महसूस करेगी? ये लोग इतना भी नहीं समझते कि मैं बेटे को ब्याहने गई थी, न की अपने लिए कीमती साड़ी लेने। मैंने तो कभी बहू के मायके वालों से यह अपेक्षा नहीं की कि वे मेरे घर के अन्य सदस्यों के लिए कुछ दें।

    हमें तो केवल ऐसी लड़की चाहिए थी जो घर में आते ही हिल-मिल जाए, बड़ों को आदर दे व बराबर वालों को स्नेह। लोगों की टिका-टिप्पणी से बहू को सुरक्षित रखने के लिए वह कभी बहू द्वारा लाए गए वस्त्रों को भी नुमाइश नहीं लगातीं। जितने लोग देखते हैं उतनी ही बातें बनाते हैं। कुछ लोगों को तो यह एक आंख नहीं सुहाता कि किसी घर में सास-बहू शांति से रहें। अतः ऐसी स्थिति से बचना ही उचित है।

    इसके विपरीत बहू के आने से पहले ही लोग उससे क्या-क्या अपेक्षाएं लगाए रखते हैं। जो सामान इस मंहगाई के युग में वे स्वयं खरीदने में असमर्थ हैं, उसी की आशा वे बहू के मायके वालों से लगाए रखते हैं। ननदों देवरों के लिए भी बढ़िया से बढ़िया वस्त्रों की आशा की जाती है। यहां तक कि अन्य रिश्तेदारों के लिए भी जोड़ों की मांग की जाती है। इतना बोझ पड़ने पर बहू के मायके वाले यदि कुछ सस्ता कपड़ा खरीद लेते हैं तो सबके चेहरे बिगड़ जाते हैं। बहू के सामने ही आलोचना शुरू हो जाती है। क्या इसका स्पष्ट तौर पर यह अर्थ नहीं होता कि अपेक्षा कपड़ों को अधिक महत्व दिया जा रहा है, फिर बहू का मन जीतने की आशा ही ससुराल वाले कैसे कर सकते हैं? बदलते समय के साथ हमें अपने सिद्धांत और मान्यताएं बदलनी पड़ेगी। बहू को बहू बनाना तो सभी जानते हैं परन्तु बहू को बेटी बनाना और सास को मां बनाने वालों के पास ही गृह शांति और परस्पर प्रेम की कुंजी होती है।

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  • क्या है देव पूजा और आध्यात्मिक यज्ञ

    सभी तपस्वियों ने यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ माना है। यज्ञ मानव के लिए ऐसा मार्ग है जो मोक्ष तक पहुँचा देता है। जब हम यह कर्म करने के लिए तत्पर होते हैं तो उसके साथ हमारी मन की भावना होती है। मन का विचार होता है जो संकल्प मानव में उत्पन्न होता है। उसके साथ मानव की आत्मिक प्रतिभा रहती है। वह विचार बाह्य जगत में संसार की क्रियाओं में परणित होते हैं। या जो क्रिया है हमारा कर्मकाण्ड है। वही परमात्मा की एक आभा है जिसको हमें प्रायः विचारना है।
    यज्ञ देवपूजा कहलाती है। देव पूजा का अर्थ है देवों को हवि प्रदान करना। उससे हमारा अंतरात्मा प्रसन्न होता है। हमारा मानव जीवन देवताओं से सम्बन्धित है अर्थात देवताओं से हम प्रेरणा व सहायता प्राप्त करते हैं। देवता जितने प्रसन्न होते हैं जितने तृप्त रहते हैं। उतने ही हम भी ह्रदय से नम्र बनकर देवताओं की पूजा में संलग्न हो सकते हैं। हम देव पूजा करें। देवता में उस मार्ग पर ले जाते हैं जिस मार्ग पर जाने से हमारी आन्तरिक ध्वनि पवित्र बनती है। 

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 2 | Explanation of Vedas & Dharma | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है - 2

    हमारे देवता कौन है इसे भी जानना आवश्यक है जो बुद्धिमान, ब्रम्हावेता, दयावान आत्मायें चैतन्य देवता सूर्य, चन्द्र, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि जड़ देवता हैं। जड़ देवता हमें नाना वस्तुएं प्रदान करते रहते हैं। जब इन वस्तुओं पर आप चिन्तन करते हैं तो प्रतीत होता है कि वास्तव में परमात्मा की आभा में युक्त हैं। इस हमारे शरीर में भी देवता कार्य कर रहे हैं। अग्नि से ऊर्जा, तेज से सुगन्ध अंतरिक्ष से अवकाश प्राप्त होता है। जल से जीवन सूर्य से प्रकाश, चन्द्रमा से शीतलता। वह पंचमहाभूतों से शरीर बनता है। यही इस सृष्टि के मूल कारण हैं। इन्हीं से बाह्य जगत का निर्माण हुआ है। यज्ञ से हम इन पांच महाभूतों को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं। इसीलिए सर्वत्र जगत को भी यज्ञमयी माना गया है। और इस यह को ही वास्तविक में देव पूजा कहते हैं। जिससे हमें इन देवताओं को तृप्त करना है। संसार में अनेक प्रकार के यज्ञ होते हैं जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रक्रियायें होती हैं। इसीलिए हम संसार में याज्ञिक कर्म करने वाले बनें। देव पूजा से हम आध्यात्मिक मार्ग भी प्राप्त कर सकते हैं।

    जैसे हम भौतिक यज्ञ करने का निश्चय करते हैं तो उससे पूर्व यज्ञमान विराजमान होता है, ब्रम्हा, उद्गाता, अध्वर्यु होता सभी होते हैं। तभी यज्ञ का एक स्वरुप बनता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक यज्ञ करने का संकल्प लेते हैं। अपने अन्दर आध्यात्मिकता की अग्नि को जागरुक करना चाहते हैं तो समय होता, उद्गाता, उछगाता भी हमारे समीप होने चाहिए यज्ञमान तो यह आत्मा को जाता है। ह्रदय रूप यज्ञशाला में विचारों की आहुति दी जाती है। होता, अध्वर्यु उद्गाता हमारे कौन-कौन हैं? तो हमें प्रतीत होता है कि हम जितने शुभ कार्य इन इन्द्रियों को होता हैं वही यज्ञ कहलाता है। उसी यज्ञ को हमें कारण है। इस लिए हम देवपूजा के साथ-साथ अपने जीवन को यज्ञ में परणित करते हुए मानों एक सुन्दर यज्ञ के पथिक बन अपने जीवन को आभा युक्त बनायें। यज्ञ यज्ञमान के द्वारा होता है। यज्ञ का दूसरा अर्थ यह भी यही कि संसार में जितना शुभ और महान कर्म है उस सब को यज्ञ को संज्ञा दी जाती है। संसार में सब प्राणी यज्ञ के लिए आये।

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    पुरातन काल में प्रत्येक मनुष्य का जीवन यज्ञ बनकर रहता था। यज्ञ का अर्थ है कि हम संसार की उन कामनाओं में परणित नहीं हो जिनसे हमारा आत्मबल नष्ट हो। जब हम कुवृत्तियों को धारण कर लेते हैं तो हमारी यज्ञ करने की प्रथा समाप्त हो जाती है जिससे आज अनेक रुढियों, आवरणों में समाज कटिबद्ध हो गया है। वैदिक ऋषि जो बहुत ऊँची उड़ान है और कहता है कि जिस गृह में माता के नेत्रों से अश्रुपात होता है वह गृह नरक बन जलाते हैं। यह विचार धार हमें हज़रत मुहम्मद, ईसा मसीहा, बुद्ध, महावीर से प्राप्त नहीं होती यह हमें वैदिकता से प्राप्त होती है। आर्ष ग्रन्थों से प्राप्त होती है। यज्ञ का अर्थ है धारण करना, पालन कारना, सदुपयोग करना। आज मानव यज्ञों की परम्पराओं को समाप्त कर अपने में अभिमानी बनाकर कह रहा है कि ईश्वर कोई वस्तु नहीं यह सब पाखण्ड है ऐसा क्यों कहता हैं यज्ञ पाखण्ड है ऐसा क्यों कहता है क्योंकि वह स्वार्थी और एक दूसरे का शत्रु बन चूका है। आत्म बल उसमे है नहीं। सुरा सुन्दरी और धन कमाने में लगा रहता है। उसका आहार व्यवहार विचार दूषित हो चूका है। जहाँ वैदिक कालीन राष्ट्र अहिंसा परमों धर्म और यज्ञ को राष्ट्र को पाखण्ड और पशुओं का पालन उनके भक्षण करने के लिए करता है। मछली पालन, मुर्गी पालन, सुअर पालन, भेड़, बकरी पालन इसीलिए किया जाता है जिसको मार कर खाया जा सके। भोजन की सात्विकता और स्वच्छता पर कोई बिरला ही चल रहा है।

    आओ हम संकल्प करें अपना जीवन पवित्र वेद ध्वनि को अपनाते हुए यज्ञ और शुभ कार्यों को करते चले। जिससे समाज कुरीतियों को नष्ट करने वाला बन शुद्धता को धारण कर पवित्र बन सके। तथा हमरा स्वयं का जीवन पवित्रता में परणित हो महानता की वेदी पर जा संसार में मानवता के प्रसार में सहायक हो। जो यज्ञ जैसे कर्म नहीं करते वे भी महानता चाहते हैं। करुणा चाहते हैं परन्तु यह सभी तुम्हारे अन्दर होनी चाहिए। आत्मा की पिपासा ज्ञान और यज्ञ से शान्त होती है। यज्ञ से ही हमारा उत्थान होता है। इस भौतिक पंचमहायज्ञ के साथ सब हम आध्यात्मिक यज्ञ, ज्ञान और प्रकाश में रमण करते हुए बोलते हैं तब हम परमात्मा के समीप चले जाते हैं। यदि आज मानव कर्म और मानवता को जाना जायें तो यह कुप्रथाएं समाप्त हो जायेंगी। - सुमन कुमार वैदिक

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    All ascetics consider Yagya to be the best. Yagya is such a path for man that leads to salvation. When we are ready to do this action then we have a feeling of mind with it. There is a thought in the mind that the resolution arises in humans. With him is the spiritual talent of man. Those thoughts are found in the actions of the world in the outer world. Or the action that is our ritual. He has an aura of God that we often have to think about.

     

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  • खोजिए रामराज्य के आधार-सूत्र

    महात्मा गांधी जी का स्वप्न था, आजादी के बाद भारत में रामराज्य की स्थापना। बासठ वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो चुका है स्वतन्त्रता प्राप्ति को। परन्तु रामराज्य तो दूर की बात है, वर्तमान में तो उसके विपरीत विभिन्न क्षेत्रों में चरित्रहीनता का नग्न-नृत्य ही दिखाई दे रहा है। देशभक्ति और राष्ट्रीय चरित्र का कहीं दूर तक पता ही नहीं है। नेताओं से पूछने पर उत्तर मिला कि वे अपनी पार्टी के प्रति वफादार हैं। पार्टी ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करती है। खैर जाने दीजिए। वर्तमान के सन्दर्भ में तो डॉ. राधाकृष्णन के शब्द पूर्णतः सही स्थिति प्रस्तुत करते हैं। उनका कथन था, "वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि या तो मानव इतिहास का अन्त आ गया है अथवा यह नई करवट लेने को है। जब तक प्रकाश शेष है, परिवर्तन लाने के लिए जुट जाएं, अन्यथा.....।'' अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, वर्तमान तो हम सबके सामने है। 

    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भ्रष्टाचार, मिलावट, रिश्वतखोरी तो है ही, परन्तु इससे भी अधिक चिन्ता का विषय है राष्ट्र और राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा के प्रति उदासीनता। प्राथमिकता के आधार पर इस दिशा में चिन्तन करने वाले देशभक्तों की प्रमुख चिन्ता है- "परिवर्तन लाना'। परिवर्तन आवश्यक है। अन्यथा देश की स्वतन्त्रता के अस्त होने के साथ इतिहास सहित आर्यजाति का लोप हो जाना सम्भव है। 

    परिवर्तन की प्रक्रिया के आधारबिन्दु अर्थात्‌ वैचारिक पृष्ठभूमि क्या हो सकती है, इस पर वेद तत्वान्वेषक एवं भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वानों से चर्चा की गई। एक विद्वान ने अथर्ववेद का उदाहरण देते हुए बतलाया कि पृथ्वी सात गुणों को धारण करती है। मानव धरती-माता का पुत्र है। इसलिए उसमें भी इन्हीं सात गुणों का होना अनिवार्य है। अथर्ववेद के अन्तर्गत "भूमिसूक्त' है। इसमें उल्लेखित है- माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या। अर्थात्‌ माता भूमि है और मैं उस माता का पुत्र हूँ। ये सात गुण इस प्रकार हैं- सत्य (मन, वचन एवं कर्म में), सरलता (अभिवादन, विनम्रता, वृद्धसेवा आदि), तेजस्विता (पराक्रम, शौर्य, साहस आदि) दृढ़ संकल्प (निश्चयात्मक बुद्धि) तितिक्षा, ज्ञान  (विज्ञान सहित ज्ञान, तत्वदर्शिता, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे का ज्ञान), यज्ञ (राष्ट्र तथा लोकोपकार हेतु सर्वस्व का त्याग करने की उत्कट अभिलाषा)। भारतीय चिन्तन के अनुसार देशभक्त में इन गुणों का होना आवश्यक है। धरती माता की अपने पुत्रों से ये ही उत्कट अभिलाषा है। इन्हें धारण करने वाला व्यक्ति सही अर्थों में आर्य है। यही आर्यत्व, मानवता, पुरुषत्व, हिन्दुत्व है। ऐसे गुणसम्पन्न व्यक्ति से किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का होना सम्भव नहीं है। ऐसे ही चरित्रसम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा राष्ट्र-हित में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। इस आधार पर रामराज्य पर विचार करते हैं। राजा देशरथ के चारों पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न इन्हीं गुणों से विभूषित थे। इन्हीं चारों के संयुक्त प्रयास का परिणाम था रामराज्य-कहेऊ मुनि यह हृदय विचारी, वेदतत्व नृप तव सुत चारी'। (रामचरित मानस)। अथर्ववेद का "पृथिवी सूक्त' इसी दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। यदि परिवर्तन लाने की उत्कट अभिलाषा हो तो इस ज्ञान की ओर लौटना होगा। ऊपरवर्णित गुण जब व्यवहार में लाए जाएंगें, तभी राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण सम्भव है। आज हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और उसका अस्तित्व उस चौराहे पर पहुँच गया है, जहॉं विनाश उसे खोज रहा है। जब तक प्रकाश शेष है अर्थात्‌ अवसर मिल रहा है, परिवर्तन लाने के लिए आपसी भेदभाव भुलाकर सुदृढ़ एकता के साथ प्रयास में जुट जाएं, अन्यथा हमारे पूर्वज और राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करने वाले ऋषिगण हमें क्षमा नहीं करेंगे। इन गुणों के आधार पर कर्मसाधना अपेक्षित है और तभी, हॉं! तभी भारत के प्रांगण में सच्ची स्वतन्त्रता का सूर्योदय हो सकेगा। यही साधना हमें ऋषिऋण से उऋण कर सकेगी। यही साधना हमें रामराज्य के स्वर्णिम युग में प्रविष्ट करेगी। 

    यह तो हमने सोचा है। आप भी सोचिए और अपने चिन्तन से हमें अवगत कराइए। हम सबने आपस में मिलकर राष्ट्र की झकोले खाती हुई डगमगाती नाव को बचाना है। - आचार्य डॉ.संजयदेव

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    What could be the basis of the process of change, that is, the ideological background, was discussed with the Vedic commentators and the learned scholars of Indian culture. A scholar cites the Atharvaveda as saying that the earth bears seven qualities. Man is the son of Mother Earth. Therefore, it is mandatory to have these seven qualities also. Under the Atharvaveda is "Bhumisukta". It mentions - Mother land sons and earth

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  • गले में खराश का घरेलू इलाज

    कभी-कभी मौसम में परिवर्तन के कारण या बेमौसम कुछ खाने में आ जाने से गले में दर्द, खराश या जुकाम की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसे में यदि आप गायन के पेशे से जुड़े हों तो और मुश्किल। स्वर स्पष्ट हों और आवाज साफ हो इसके लिए आजमाएँ कुछ खास घरेलू उपचार।

    1. यदि किसी कारण से गले में दर्द हो तो नीम के कुछ पत्ते एक गिलास पानी के साथ पीस लें, छान लें। हल्का गर्म करें और थोड़ा शहद डालकर गरारे करें। जल्दी आराम होगा।

    2. एक छोटा चम्मच नीम्बू का रस और एक बड़ा चम्मच शहद मिला लें। थोड़ी-थोड़ी मात्रा दिन में दो-तीन बार लें। इससे भी आराम मिलेगा।

    Ved Katha Pravachan _20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    3. यदि आवाज फट रही होतो एक छोटा चम्मच प्याज के रस को एक छोटा चम्मच शहद के साथ मिलाकर लें।

    4. दो छोटे चम्मच सौंफ को जौ के पानी में उबालें और दिन में दो-तीन बार पिएं।

    5. दो छोटे चम्मच कुटी हुई दालचीनी और एक छोटा चम्मच कुटी हुई छोटी इलायची के ऊपर एक गिलास उबलता हुआ पानी डालें। हल्का गर्म होने पर छानकर गरारे करें।

    6. यदि आवाज में भारीपन होतो एक बड़ा चम्मच शहद के साथ छोटी इलायची के बीज मिलाएँ और प्रतिदिन खाएँ तो जल्द ही आराम होता है।

    7. एक कप पानी में आठ-दस बादाम रातभर भिगोकर रखें। बाहरी छिलका उतार लें और आठ-दस साबुत कालीमिर्च के साथ एक कप पानी में पीस लें। छान लें और स्वादानुसार मिश्री डालकर दिन में एक बार पिएँतो आराम मिलता है।

    8. यदि टॉन्सिल बढ़ गए हों और गला दर्द कर रहा होतो चाय में अदरक और तुलसी के पत्ते डालकर उबाल लें और दिन में दो-तीन बार गरारे करें।

    9. पानी अधिक से अधिक पिएँ। अक्सर देखा गया है कि पानी की कमी से गले की परेशानी बढ़ जाती है।

    10. दो बड़े चम्मच मैथीदाना 6 कप पानी में डाल लें। मन्दी आँच पर बीस मिनट तक उबाल लें। गरारे करने के लिए उतना ठण्डा कर लेंजिससे आपका गला न जले और इस घोल से दिन में दो-तीन बार गरारे कर लें।

    11. आधा छोटा चम्मच शहद और आधा छोटा चम्मच नीम्बू का रस हर एक-दो घण्टे में लेते रहें।

    12. दो-तीन कुटी हुई लौंग और दो कली लहसुन को एक कप शहद में डालें और एक-दो दिनों तक रखें। दिन में तीन बार खाएँ।

    13. गले में दर्द के लिए मुलेठी का पेष्ट गले के चारों तरफ लगाएँ। इससे आराम मिलेगा।

    14. एक कप दूध हल्का गर्म करें और उसमें एक-दो चुटकी हल्दी पावडर मिलाएँ। रात को सोते समय पिएँ।

    15. यदि गले में कोई तकलीफ न होतो फिर भी मुलेठी को मुँह में डालकर चूसते रहने से आवाज मधुर व सुरीली होती है।

    उपरोक्त नुस्खे अपनाकर आप गले की तकलीफों से छुटकारा पा सकते हैं और अपनी सुरीली आवाज का जादू बिखेर सकते हैं। हॉं, यदि किसी चीज से आपको एलर्जी हो या अन्य कोई तकलीफ हो, तो चिकित्सक के परामर्श के बाद ही उसे आजमाएँ। डॉ. किरण रमण

    घरेलू कामकाज की बातें

    1. तांबे में सरसों का तेल लगाकर रख देने से जंग नहीं लगता।

    2. प्लास्टिक की बाल्टी या किसी बर्तन में मिट्टी का तेल लगाकर थोड़ी देर धूप में रख देने से उसके थोड़ी देर बाद साबुन से धो देने पर बर्तन नया सा लगने लगता है। 

    3. दरवाजों के कब्जों या हैण्डिलों में सरसों का तेल लगा देने से जंग नहीं लगता।

     

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    Soak eight to ten almonds in a cup of water overnight. Remove the outer skin and grind it in a cup of water along with eight-ten whole black peppers. Sieve and add sugar candy as per taste and drink once a day, it gives relief.

     

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  • घरेलू इलाज

    श्वास रोग अस्थमा के लिए

    बढ़ते प्रदूषण और घटती रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते आजकल अस्थमा की बीमारी से कई लोग जूझ रहे हैं। महंगी दवाइयॉं और इलाज के बावजूद कई बार लोगों को इस बीमारी में लाभ नहीं मिलता। इन्हेलर होें, गोलियॉं हों या इंजेक्शन, कई बार मौसम की चपेट और मरीज की कमजोरी के आगे यह सब फालतू सिद्ध तो होता ही है, साथ ही मिलते हैं हॉस्पिटल के बिल और डॉक्टर के पास जाने की चक्करबाजी। इसीलिए प्रस्तुत हैं अस्थमा के लिए कुछ फायदेमन्द और आसान से घरेलू इलाज-

    Ved Katha Pravachan _19 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    1. एक चम्मच शहद में आधा चम्मच दालचीनी पावडर मिलाकर सेवन करने से अस्थमा में लाभमिलता है।
    2. जिन लोगों में इस बीमारी का शरुआती दौर है,उन्हें 8-10 लहसुन की कलियों को आधे कप दूध में उबालकर रात को पीने से काफी फायदा होता है।
    3. गरम पानी में एक चम्मच शहद मिलाकर सोने से पहले एक-एक घूंट पीएं। इससे लाभ होगा।
    4. एक कप पानी में रातभर एक चम्मच मेथीदाना भिगो दें। उसमें एक चम्मच अदरक का रस और एक चम्मच शहद मिलाकर सुबह-शाम सेवन करें।

    गठिया का घरेलू इलाज

    बढ़ती उम्र के साथ जोड़ों के दर्द की समस्या भी आम हो जाती है। डॉक्टरी इलाज के साथ-साथ इसके दर्द के लिए घर पर भी आप कुछ सामान्य इलाज कर सकते हैं।

    नागौरी असगन्ध की जड़ - नागौरी असगन्ध की जड़ और खाण्ड दोनों समान मात्रा में लेकर कूट-पीसकर कपड़े से छानकर बारीक चूर्ण बना लें और किसी कांच के बरतन में रख लें। रोज सुबह और शाम 6 ग्राम चूर्ण गरम दूध के साथ लें। आवश्यकतानुसार तीन सप्ताह से छः सप्ताह तक लें। इस योग से गठिया का वह रोगी भी ठीक हो जाता हैजिसने बिस्तर पकड़ लिया हो। इससे कमर दर्दहाथ-पांवजंघाओं का दर्द और दुर्बलता मिटती है। यह एक अच्छा टॉनिक है।

    बथुआ के पत्ते से इलाज- प्रतिदिन बथुआ के ताजा पत्तों का रस पीने से गठिया दूर होता है। इस रस में नमकचीनी आदि न मिलाएं। रोज सुबह या फिर शाम के चार बजे खाली पेट इसके रस का सेवन करें। इसका रस लेने के दो घण्टे पहले या बाद में कुछ न लें। इस रस का सेवन कम से कम दो माह तक करें।

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    Root of Nagauri Fragrance- Take equal amount of root and khand of Nagauri Fragrance, after grinding, make a fine powder by filtering it with a cloth and keep it in a glass vessel. Take 6 grams of powder with hot milk every morning and evening. Take from three weeks to six weeks as needed. This yoga also cures the arthritis patient who has held the bed. This erases backache, extremities, thigh pain and weakness. It is a good tonic.

     

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  • घरेलू नुस्खे

    दांत दर्द-दांत में चाहे थोड़ा सा भी दर्द हो, इसके उपचार में देर नहीं लगानी चाहिए। अन्यथा अन्य दॉंतों को रोग लग जाने का भय होता है। दॉंत में दर्द प्रायः रोटी के टुकड़ों आदि के सड़ जाने या कीटाणुओं से होता है। दॉंतों के उपचार में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात स्वच्छता है। दिन में दो बार दॉंतों को कीटाणुनाशक मंजन आदि से साफ करना चाहिए। गरम पानी में नमक या अन्य कीटाणुनाशक औषधि मिलाकर कुल्ले करने चाहिएं। कैल्शियम की भी ऐसे रोगी को अधिक आवश्यकता होती है। पीड़ा के स्थान पर इन औषधियों में से किसी एक का प्रयोग किया जा सकता है- लौंग का तेल, क्लोरोफाम, पीपरमेन्ट का तेल या क्लोडियन। यदि दॉंत में कीड़ा लगा हो, तो उस स्थान को साफ करवाकर भरवा देना चाहिए। अन्यथा सारे दॉंत को हानि पहुँचने का भय है।

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    उँगलियों में खुजली- यदि हाथ या पांव की उंगलियों में खुजली होती होतो रात को सोते समय हल्के गरम पानी में थोड़ा सा नमक मिलाकर न केवल उँगलियों को धोना ही चाहिएअपितु कुछ समय तक उन्हें पानी में डूबी रहने देना चाहिए। इसके पश्चात्‌ उँगलियों को अच्छी तरह पोंछकर किसी गरम वस्त्र से लपेट दें।

    प्राकृतिक औषधि जल

    पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शरीर को जिन्दा रखने के लिए हवा के बाद दूसरा स्थान पानी का है। पंचतत्वों से निर्मित मानव शरीर में जल का सबसे अधिक महत्व है। हमारे शरीर में लगभग दो तिहाई मात्रा सिर्फ पानी की है। जब किन्ही कारणों से शरीर में पानी का अंश कम हो जाता है तब शुष्कताथकानबेचैनी तथा अन्य कठिनाइयॉं उत्पन्न होने लगती हैं। ठण्डे पानी से स्नान करने से शरीर निरोग रहता है।

    दो चम्मच जीरा एक गिलास में उबाल लें। ठण्डा होने पर छानकर इससे चेहरा तथा गर्दन धोयें। लगातार एक मास तक यह प्रयोग करने से त्वचा मुलायम होती है और रंग साफ होता है।

    प्रतिदिन सुबह-शाम आँखों पर ठण्डे पानी के छींटे मारें। इससे आँखों को ताजगी मिलती हैनेत्र-ज्योति बढ़ती है और आँखें चमकदार होती हैं।

    साबुन के घोल वाले गुनगुने पानी में पैर भिगोने से नाखून मुलायम हो जाते हैं। फिर उन्हें आसानी से आकार दिया जा सकता है।

    125 ग्राम पानी उबालकर ठण्डा करें। फिर इसमें 15 ग्राम नीम्बू का रस और 15 ग्राम शहद मिलाकर शरबत बना लें। सुबह खाली पेट यह शरबत पीने से मोटापा दूर होता हैअनावश्यक चर्बी घटकर शरीर सुडौल बनता है। दो माह के नियमित सेवन से ही फर्क दिखाई पड़ने लगेगा।

    आँखों के नीचे काले धब्बे या झुर्रियॉं पड़ जाने पर ताजे ठण्डे पानी में नीम्बू का रस व नमक मिलाकर दिन में दो-तीन बार पीयें। लाभ होगा।

    नहाने के बाद एक मग गुनगुने पानी में कुछ बून्दें नारियल के तेल की डालकर पूरे बदन पर इसी पानी को छिड़क लें और फिर तौलिये से थपथपाकर सुखा लें। प्रतिदिन ऐसा करने से सम्पूर्ण शरीर की त्वचा चिकनी व कोमल बनेगी।

    हाथ-मुंह धोते समय मुहॅं में दो घूंट पानी रखकर आँखों में पानी के छींटे दें। रोज ऐसा करने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है।

    त्वचा की कांति और चेहरे की चमक के लिए प्रातःकाल खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।

    स्तनों की पुष्टता के लिए एक बर्तन में गर्म तथा दूसरे बर्तन में ठण्डा पानी लेकर उनमें एक-एक तौलिया भिगो लें। स्तनों को वस्त्रविहीन करके पहले गर्म पानी में भीगे तौलिये को लेकर स्तनों पर फैला दें। कुछ देर बाद जब तौलिया ठण्डा हो जायेतब हटाकर ठण्डे पानी से भीगे तौलिये को फैलायें। ऐसा कई बार बदल-बदलकर करें। इससे स्तनों का रक्त संचार बढ़ेगा और स्तन पुष्ट और सुडौल बनेंगे।

    बालों को लम्बा करने के लिए पचास ग्राम कलौंजी को पानी में पीसकर एक लीटर पानी में मिला लें। इस पानी से प्रतिदिन सिर धोयें। इससे बाल एक माह में ही लम्बे हो जाते हैं।

    60 ग्राम इमली लेकर 250 ग्राम पानी में फूलने दें। फिर उसको मसलकर चटनी के समान बनाकर सारे शरीर में मलकर पन्द्रह मिनट बाद स्नान करें। उससे त्वचा का सांवलापन दूर होगा।

    बाल धोने के बाद अन्त में एक मग ठण्डे पानी में एक नीम्बू का रस निचोड़कर बाल धो लें। इससे बाल रेशन जैसे मुलायमचमकदार और स्वस्थ होते हैं।

    दोमुंहे बाल और बाल झड़ने की समस्या आजकल आम हो गई है। इसके लिए तीन बड़े चम्मच समुद्री नमक एक लीटर पानी में उबालकर ठण्डा करके बोतल में रख लें। जिस दिन बालों में शैम्पू करना होउस दिन इस पानी को बालों की जड़ों में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें। ऐसा करने से बाल स्वस्थ व मजबूत होते हैं। आनन्द कुमार

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    दूध से निखारें सौन्दर्य

    पौष्टिकता में संसार के किसी भी आहार की तुलना दूध से नहीं हो सकती है। प्रोटीन के अतिरिक्त दूध अन्य पौष्टिक तत्वों जैसे कैल्शियमफास्फोरसविटामिन का भी उत्तम साधन है। दूध को एक सम्पूर्ण आहार भी माना जाता है। दूध मनुष्यों के लिए पूर्ण भोजन ही नहीं हैरोगों की औषधि भी है। दूध तो अमृत आहार है। वास्तव में दूध ऐसा आहार है जो कमजोर काया को नवीन जीवनी शक्ति प्रदान कर सकता है। रात को सोते समय दूध में थोड़ी मात्रा में शहद मिलाकर सेवन करना गुणकारी बताया गया है। इसे भोजन के तुरन्त बाद न लेंवरन्‌ भोजन करके 2-3 घण्टे बाद सेवन करना चाहिए। दूध में मिठास होती हैजिसे हम "लैक्टोजके नाम से जाना जाता है।

    दूध केवल पीने-पिलाने एवं व्यंजन बनाने के काम नहीं आताबल्कि सौन्दर्य निखारने में भी यह काफी सहायक होता है। सौन्दर्य विशेषज्ञों ने दूध तथा दही में तमाम सौन्दर्य बढ़ाने वाले गुणों की चर्चा की है। वास्तव में दूध शारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने एवं रूप को निखारने के लिए सबसे सरल व सस्ता साधन है। चेहरे की सफाई के लिए दूध का प्रयोग अच्छा रहता है। दूध सबसे बेहतरीन क्लीजिंग एजेण्ट है। यहॉं दूध के कुछ सौन्दर्यवर्धक गुणों के बारे में जानकारी दी जा रही है-

    1. त्वचा को कान्तिमय और आकर्षक बनाने के लिए थोड़ा सा कच्चा दूध लीजिए। उसमें शहद मिला लीजिए। डबल रोटी के टुकड़े को इस मिश्रण में भिगोकर त्वचा पर मलिए। यह बहुत लाभप्रद है।

    2. गर्दन और हाथ-पैरों को सुन्दर व स्वच्छ रखने के लिए गाय के कच्चे दूध में ऊन का फाहा डुबोकर उससे गर्दन व हाथ-पैरों पर पुचारा दीजिए। बाद में रगड़कर धो लीजिए। ये उपाय बड़े ही कारगर पाये गए हैं।

    3. चेहरे का रूखापन समाप्त करने के लिए संतरे के सूखे हुए छिलके को कच्चे दूध में भिगो देंफिर उसे पीस लें। इस लेप को चेहरे पर उबटन की भांति प्रयोग करें।

    4. नहाने से पूर्व एक भाग बेसन को दो भाग दूध में मिलाकर यह लेप शरीर में साबुन के स्थान पर लगाया जायेतो शरीर की चिकनाहट और मुलायमित बनी रहती है।

    5. थोड़े से कच्चे या गुनगुने दूध में रूई या ऊनी कपड़े के एक टुकड़े को चेहरे और हाथों पर तथा शरीर के अन्य भागों पर धीरे-धीरे मलें। 8-10 मिनट बाद पानी से धो डालें। इससे त्वचा मुलायम और चिकनी हो जाएगी। साथ ही चेहरे की झुर्रियॉं आदि भी समाप्त हो जाएगी।

    6. रात को सोने से पहले मुलहठी का चूर्ण 5 ग्रामआधा चम्मच शुद्ध घी तथा डेढ़ चम्मच शहद मिलाकर चाटेंऊपर से दूध पी लें। हर आयु के व्यक्ति का शरीर इस उपाय से पुष्टसुड़ौल व शक्तिशाली बनता है।

    7. प्रातःकाल उठकर सबसे पहले चेहरे को कच्चे दूध से साफ करें। फिर चन्दन का पेष्ट (चन्दन पाउडर न लेकर यदि चन्दन की लकड़ी को घिसकर उसका इस्तेमाल करेंतो ज्यादा बेहतर होगा) बनाकर चेहरे पर 10 या 15 मिनट तक लगा रहने दें। सूखने पर धो लें। ऐसा नियमित करने से चेहरा चमक उठेगा।

    8. चने की दाल को रात भर दूध में भिगोकर सुबह पीस लें। उसमें थोड़ी सी हल्दी मिलाकर चेहरे पर लगाएं। सूखने पर ताजे पानी से चेहरा साफ कर लें। चेहरे में निखार आएगा।

    9. त्वचा की रंगत साफ करने के लिए दूधनीम्बू और सन्तरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगाएं। 20 मिनट बाद चेहरा ताजा पानी से साफ कर लें।

    10. दूध व नमक मिलाकर चेहरे पर लगाएं। इसके उपयोग से त्वचा कोमल बनी रहती है।

    11. सरसों को दूध में भिगोकर पीसकर चेहरे पर लगाएं। ये झाइयों को दूध करती है।

    12. एक चम्मच चिरौंजी को 4 चम्मच कच्चे दूध में 12 घण्टे तक भिगोकर उसके बाद पीसकर उसका पेष्ट तैयार कर लीजिए। इस पेस्ट को चेहरे पर आधे घण्टे तक लगा रहने देंउसके बाद ठण्डे से धो देना चाहिए। ऐसा करने से शुष्क त्वचा मुलायम एवं कोमल हो जाती है। 

    13. जायफल को गाय के दूध में पीसकर पेष्ट तैयार कीजिए। इसपेष्टकोप्रतिदिन रात में लगाने से मुहांसेझुर्रियॉं एवं कालापन दूर हो जाता है।

    14. भुने मटर को नारंगी के छिलके के साथ कच्चे दूध में पीसकर चेहरे पर मलने से चेहरे का रंग निखरता है।

    15. शहददूध की क्रीम तथाबेसन मिलाकर उबटन तैयार करें। इसे चेहरे पर लगाने से खुश्की एवं झुर्रियॉं दूर होती हैं।

    16. गर्म दूध की मलाई का लेपकरने से कटे-फटे होंठ लाल गुलाब की पंखुड़ियों की भांति खिल उठते हैं।

    17. शुष्क त्वचा के लिए एक चम्मच ताजी मलाई2-3 बून्दें नीम्बू के रस कीचुटकी भर हल्दी पाऊडर लें। इन सबको मिला लें। इस पेस्ट को चेहरे पर लगा लें। 20 मिनट बाद चेहरा हल्के हाथों से रगड़कर गुनगुने पानी से साफ करें।

    18. यदि त्वचा तैलीय हैतो क्रीम से निकले दूध में 8-10 बून्दें पानी के रस की मिला लें। फिर त्वचा की सफाई करके पानी को धो लें। चेहरा पोंछते समय थपथपा कर सुखाएंरगड़कर न पोछें।

    19. आपको चेहरा मौसम अथवा अन्य किसी कारणवश पीला पड़ जायेतो दूध में कुछ बून्दें नीम्बू की डालें। साथ में एक छोटा चम्मच शहद भी मिला दें। इस लेप को रूई की सहायता से चेहरे पर लगाएं। 30 मिनिट बाद सामान्य पानी से साफ कर लें। इससे त्वचा में कोमलता और कान्ति आएगी।

    20. आँखों के चारों ओर झुर्रियां न पड़ेंइसके लिए आँखों के चारों ओर दूध रोज लगाएँ।

    21. होठों पर स्वाभाविक रंग लाने के लिए केसर और बादाम को दूध में घिसकर रात के समय लगाएं।

    22. बाल ज्यादा खुश्क होंतो धोने के बाद कच्चा दूध दस मिनट तक बालों में लगाए रखें। फिर गुनगुने पानी से धो लें। रूखे व शुष्क बालों के लिए यह अच्छा कंडीशनर है।

    23. प्याज के बीजों को दूध में पीसकर लेप करने से मुख पर सुन्दरता आती है और सिर के बाल नहीं झड़ते। - डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम

     

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    Life cannot be imagined without water. To keep the body alive, water is the second place after wind. Water is of the highest importance in the human body made from the five elements. About two-thirds of our body is water only. When the water content in the body decreases due to any reason, then dryness, fatigue, restlessness and other difficulties begin. Taking a bath with cold water keeps the body healthy. 

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  • जागते रहने वाले को वेद चाहते हैं

    ओ3म्‌ यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
    यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः।। ऋग्वेद 5.44.14।।

    अर्थ - (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र (तम्‌) उसको (कामयन्ते) चाहते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (उ) और (तम्‌) उसी के पास (सामानि) समावेद के मन्त्र (यन्ति) जाते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (यः) जो (जागार) जागता रहता है (तम्‌) उसी को (अयम्‌) यह (सोमः) शान्ति और आनन्द का धाम भगवान्‌ (आह) कहता है कि (अहम्‌) मैं (तव) तेरी (सख्ये) मित्रता में (न्योकाः) नियत रूप से रहने वाला (अस्मि) होता हूँ।

    Ved Katha Pravachan _97 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मन्त्र में आये 'ऋचः' और 'सामानि' पदों का सामान्य अर्थ ऋग्वेद के मन्त्र और सामवेद के मन्त्र होता है। इन पदों से सूचित होने वाले 'ऋग्वेद' और 'सामवेद' यहॉं शेष दोनों वेदों यजुर्वेद और अथर्ववेद के भी उपलक्षण हैं। अर्थात्‌ ऋग्वेद और सामवेद के निर्देश से चारों वेदों का ही निर्देश समझ लेना चाहिए। वस्तुतः चारों वेदों के मन्त्रों की रचना तीन प्रकार की है। जो मन्त्र छन्दोवद्ध हैं और छन्दों में होने वाली पादव्यवस्था से युक्त हैं उन्हें 'ऋच्‌' या 'ऋचा' कहा जाता है- यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था सा ऋक्‌। (जैमिनीयसूत्र 2.1.35) ऋग्वेद में ऐसे मन्त्रों का बाहुल्य है इसलिए उसे ऋग्वेद कहा जाता है। जब ऋचाओं को ही गीति के रूप में गाया जाता है तो उन्हें 'साम' कहा जाता है- गीतिषु सामाख्या (जैमिनीयसूत्र 2.1.36)। सामवेद में जितने मन्त्र हैं वे भक्तिरस में भरकर गीतिरूप में गाये जाते हैं, इसलिए उसका नाम सामवेद है। जो मन्त्र छन्दोबद्ध नहीं हैं और गीतिरूप में गाये नहीं जा सकते अर्थात्‌ जो मन्त्र पद्य नहीं हैं गद्य हैं, उन्हें 'यजुः' कहते हैं- शेषे यजुः शब्दः (जैमिनीयसूत्र 2.1.37)। यजुर्वेद में ऐसे 'यजुः' मन्त्र अधिक हैं इसलिए उसका नाम यजुर्वेद है। अथर्ववेद में तीनों प्रकार के मन्त्र हैं। क्योंकि चारों वेदों के मन्त्रों की रचना ही तीन प्रकार की है, इसलिए चारों वेदों को त्रयी या तीन वेद कह दिया जाता है। यों वेद चार ही हैं। केवल तीन प्रकार की रचना के कारण उन्हें तीन वेद भी कह दिया जाता है। इन तीन प्रकार की रचनाओं में भी प्राधान्य ऋग्‌ मन्त्रों और साम मन्त्रों का ही है, चारों वेदों की अधिकांश रचना इन्हीं में है। इसलिए इस मन्त्र के 'ऋचः' और "सामानि' ये पद यों भी चारों वेदों का निर्देश करने वाले हो जाते हैं।

    मन्त्र कहता है कि ऋग्वेद उसी की कामना करता है और सामवेद उसी के पास जाता है, जो जागता रहता है। ऋग्वेद और सामवेद से उपलक्षित होने वाले चारों वेदों का अध्ययन कौन कर सकता है ? उनका अध्ययन करके उन्हें भली-भॉंति कौन समझ सकता है ? और उन्हें भली-भॉंति समझकर उनके अनुसार आचरण करके क्रियात्मक जीवन में उनसे लाभ कौन उठा सकता है ? वह जो कि जागता रहता है।

    जो जागता रहता है, जो मुस्तैद और चौकन्ना रहता है, जो सावधान और सतर्क रहता है, जो सोता नहीं रहता, जो आलसी और प्रमादी नहीं बनता, वेद उसी की कामना करते हैं, उसे ही चाहते हैं, उसी के पास जाते हैं। जो व्यक्ति आलस्य और प्रमाद को परे फैंककर, सतर्क और सावधान होकर वेद को पढ़ने और उसका मर्म समझने के लिये भरपूर परिश्रम करता है, वेद उसी के पास जाता है। वेद का गूढ़ रहस्य उसी की समझ में आता है। वेद के गूढ़ रहस्य को समझकर और फिर उसके अनुसार आचरण करके उसके क्रियात्मक जीवन में सब प्रकार के लाभ वही जागरूक वृत्ति वाला व्यक्ति ही उठा सकता है। वेद तो सब प्रकार के वरदानों की, सब प्रकार के मंगलों की खान है। पर वेद से मिलने वाले इन मंगलों को प्राप्त वह कर सकता है, जो जागता रहता है। सोते रहने वाले को वेद के ये मंगल प्राप्त नहीं होते।

    और जो व्यक्ति जागरूक होकर वेद का अध्ययन करता है, उसके मर्म को समझ लेता है और फिर तद्‌नुसार आचरण करके अपने आपको पूर्ण पवित्र और ज्ञानवान्‌ बना लेता है, उसी जागते रहने वाले को भगवान्‌ के भी दर्शन होते हैं। वेद के ऐसे जागरूक विद्यार्थी के आगे भगवान्‌ अपने पट खोल देते हैं और कहने लगते हैं- "हे जागकर वेद का स्वाध्याय करने वाले स्वाध्यायी! मैं सदा तेरी मित्रता में रहूंगा, मेरा निवास सदा नियत रूप से तेरे हृदय में रहेगा।'' भगवान सोम हैं। उनमें चन्द्रमा की-सी शान्तिदायकता और आह्लादकता है। वे शान्ति और आनन्द के धाम हैं। जब वेद के स्वाध्याय से हमें परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा, जब वेदानुकूल शुभ आचरण से हमारे हृदय निर्मल हो जायेंगे और जब उसके परिणामस्वरूप हमारे हृदयों में प्रभु की ज्योति झलकने लगेगी, तब उस शान्ति और आनन्द के धाम के हमारे हृदयों में निवास से हम भी अवर्णनीय शान्ति और आनन्द के समुद्र में गोते लगाने लगेंगे। तब शान्ति और आनन्द के धाम, रस के समुद्र, भगवान्‌ के इस दर्शन, इस साक्षात्कार से हमें जीवन का चरम लक्ष्य, एकमात्र लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा। वेद भी जागते रहने वाले को ही चाहते और प्राप्त होते हैं।

    हे मेरे आत्मा! तू भी जाग और वेद को प्राप्त कर। हे मेरे आत्मा! तू भी जाग तथा 'सोम' के, शान्ति और आनन्द के निधि वेदपति भगवान्‌ को प्राप्त कर। आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    The mantra says that the Rigveda wishes for the same and Samveda goes to him, who remains awake. Who can study the four Vedas arising from the Rigveda and the Samveda? Who can understand them well by studying them? And considering them well and behaving according to them, who can benefit from them in a functional life? The one who keeps awake.

     

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  • जीवन के पंचशील और उनसे आगे-2

    वेद-सन्देश

    5. आस्तिक भावना-

    3म उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदान्वन्तर्वरुणो भुवानि।
    किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृलीकं सुमना अभिख्यम्‌।। ऋग्वेद7.86.2।।

    हॉं! मैं अपनी (तनु) देह से संवाद करता हूँ। पूछता हूँ कि ऐ मेरी देह! तु मुझे यह बतला कि कब मैं वरने योग्य, वरने वाले परमात्मा में अपने को विराजमान हुआ देखूं? देह से संवाद इसलिये है कि जो जन्म से मरण पर्यन्त साथ देती है। पर ऐ मेरी देह! एक दिन तू भी मेरा साथ छोड़ देगी। तू तो मेरे रहने की कुटिया है। टूटने-फूटने वाली है। तो अपने टूटने-फूटने के पहले मेरे वरुण के अन्दर मुझे बिठाती जा। वह मेरी किस भेंट को स्वागत से स्वीकार कर सके? मैं कब उस सुखस्वरूपानन्द रूप परमात्मा को अच्छे मन वाला होकर देख सकूं। देह से संवाद क्या करना। इससे तो संघर्ष करना, लड़ना-झगड़ना है। ऐ मेरी देह! क्या तू सदा संसार के भोग विलासों में जहॉं-तहॉं फैलाने के लिये है? नहीं-नहीं, तू इस काम के लिये नहीं है। परन्तु तू उस प्रभु परमात्मा के सत्संग में ले जाने, उसकी शरण में पहुंचाने के लिये है। जिस मनुष्य में उस प्रभु परमात्मा के लिये आस्तिक भाव नहीं है, अपनी आत्मा का झुकाव नहीं है, ऐसा मनुष्य संसार में दस-बीस वर्ष रोटियॉं खाकर चला गया, ऐसा रूखा-सूखा जीवन तो प्राणी मात्र का है। मानव जीवन की सफलता तो इसी में है कि वह पूर्ण आस्तिक बने। और परमात्मा की उपासना करे।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गाय का घी विष नाशक है

    Ved Katha Pravachan _69 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मानव जीवन के भी दो विभाग हो जाते हैं। 1. साधारण जीवन और 2. दिव्य जीवन। नक्षत्र-तारा जीवन जो लाखों मनुष्यों में किसी विरले का होता है। उसके अन्दर दिव्यता निहित होती हैजो थोड़े से संस्पर्श या संघर्ष से जाग उठती है। जैसे दयानन्द का जीवन। शिवरात्रि की रात्रि में दयानन्द के सामने छोटी सी घटना आती है। शिवलिङ्ग पर छोटा सा चूहा चढ़ जाता है और खाने-पीने के पदार्थ को खा-पी लेता है तथा ऊपर से मूत्र-पुरीष की भी कुचेष्टा कर जाता है। यह छोटी सी घटना दयानन्द के सामने होती है। दयानन्द सोचते हैं कि कथा में तो सुना था कि शिव संसार का रक्षक है। यह तो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर पाता। यह शिव नहीं है। उस रात्रि में दयानन्द जागासचमुच जागा। स्वयं जागा और मानव समाज को भी जगाया।

    जागता वही दीपक है जिसमें जागने की शक्ति हैघृत के रूप में या तेल के रूप में। जिस दीपक में घृत नहींतेल नहीं उसका क्या जागना और जगाना। जगायाकिञ्चित्‌ टिमटिमाया और बुझ गया। ऐसी क्षणिक टिमटिमाहट तो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर हो जाती है। जब कोई मनुष्य मर जाता हैउसे श्मशान ले जाते हैंकाष्ठ चिता पर रख देते हैंदाहकर्म आरम्भ हो जाता हैअग्नि की ज्वाला जलने लगती हैउस समय प्रत्येक मनुष्य के अन्दर वैराग्य की टिमटिमाहट हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता हैक्या है इस जीवन का ठिकानादो दिन का जीवन क्यों पाप कमानापरन्तु यह टिमटिमाहट मात्र हैजो घर जाते ही बुझ जाती है।

    एक वह मानव है जो अपने प्रासाद (महल) से गाड़ी में बैठकर चलता है। चलते हुए वह देखता है कि कुछ लोग कुछ उठाये जा रहे हैं। वह सारथि से पूछता है कि ये लोग क्या उठाये लिये जा रहे हैंवह उत्तर देता है कि ये लोग शव अर्थात्‌ मुर्दे को लिए जा रहे हैं। फिर पूछता है कि शव या मुर्दा किसे कहते हैंसारथि उत्तर देता है कि यह मनुष्य मर गया हैयह चल नहीं सकताहाथों से पकड़ नहीं सकताबोल नहीं सकता और समझ नहीं सकता। फिर पूछता है कि इस मुर्दे का क्या बनेगासारथि कहता है कि भस्म बना दी जायेगी। वह फिर पूछता है कि यह स्थिति मनुष्य मात्र की है क्यासारथि कहता है कि जो जन्मा है उसकी अन्तगति यही होती है। फिर वह पूछता है कि क्या मेरे लिए भीसारथि उत्तर देता है कि हॉं आपकी भी अन्तगति यही होगी। फिर वह सारथि से कहता है कि गाड़ी लोटाओमुझे सैर नहीं करनी है। अपने महल पर पहुंचकर उसे सदा के लिए त्यागने की इच्छा पैदा हुई। वे मानव महात्मा बुद्ध थे। उनकी इस वैराग्य की ज्योति पर एक कालिमा की रेखाधुएं की रेखा आ गई। उनका नवजात पुत्र उत्पन्न हुआ थाजिसका आगे राहुल नाम प्रसिद्ध हुआ था। सोचाउसका मुख तो देखता चलूं। पुत्र के मुखदर्शन का सुख गृहस्थों को होता हैयह सब जानते हैं। किन्तु वैराग्य की ज्योति फिर तीव्र हो उठी। उसने धुएं की रेखा को खा लिया। बुद्ध के अन्दर विचार आया कि इस थोड़ी सी बात के लिए अपने लक्ष्य से पीछे हटता हैलौटता है तो फिर न जाने जीवन में कितनी बार लौटना पड़ेगा। इसी प्रकार दयानन्द के जीवन में भी मृत्यु को देखकर वैराग्य की ज्योति जाग गई थी। प्यारी बहन का देहान्त उनके सामने हुआप्यारे चाचा का देहान्त उनके सामने हुआ।

    अन्त समय को देख दयानन्द घर से बन को जाता।
    निश्चय अपना किया जगत्‌ में किससे किसका नाता?

    इस प्रकार दयानन्द के वैराग्य की ज्योति पर कोई धुएं की रेखा नहीं आयी। चलते समय उनके अन्दर यह विचार नहीं आया कि मैं फिर से घर चलूंजैसे ही वैराग्य की ज्योति को धारण करके ग्राम को छोड़ान फिर पीछे मुंह मोड़ा।

    दिव्य जीवन बनाने के लिए वेद का उपदेश है कि मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.3) दिव्य जीवन बनाने के लिए तू मनु हो जाअपने मूल में चला जा अर्थात्‌ मननशील हो जा। यह इस प्रकार से दिव्य जीवन बनाने का सन्देश हैजो साधारण लाखों मनुष्यों में किसी का नक्षत्र-तारा जीवन होता है। वेद और भी आगे बढ़ने का सन्देश देता है। लाखों दिव्य जीवनों या नक्षत्र-तारा जीवनों में कोई विरला सोम जीवन होता हैचांद जीवन होता है। वेद में कहा है-

    सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
    तयोर्यत्संत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्‌।। (ऋग्वेद-7.104.12, अथर्ववेद 8.4.12)

    समझदार मनुष्य के लिए यह भली-भॉंति समझने योग्य है कि सत्य-असत्य वचन परस्पर स्पर्धा करते हैंएक दूसरे के विरुद्ध चलते हैं। इन दोनों में सत्य वह है जो अत्यन्त ऋजु हैसरल से सरल है। उसकी सोम रक्षा करता है और असत्‌ का हनन करता हैखण्डन करता है। विद्वान के सामने सत्य-असत्य विरोधी प्रतीत होते हैं। जो यह कहते और मानते हैं कि यह धर्म भी सत्य हैवह धर्म भी सत्य हैवे विद्वान नहीं हैं। विद्वानों में भी जो सत्य का रक्षण अर्थात्‌ मण्डन करता है और असत्य का खण्डन करता हैवह उनसे भी ऊंचा है। सोम नाम से कहलाने वाला चन्द्र जीवन है।

    ऐसे विद्वान्‌ भारत और विदेशों में थेजिनके सम्मुख सत्य और असत्य अलग-अलग प्रतीत होते थे। परन्तु वे सत्य को सत्य कहने के लिए और असत्य को असत्य कहने के लिए उद्यत नहीं थे। उनकी वाणी पर पक्ष काभय का और लोभ का ताला लगा हुआ था। किन्तु दयानन्द की वाणी पर पक्षभय और लोभ का ताला नहीं लगा था। उसे किसी पक्ष ने फंसाया नहींकिसी डर ने डराया नहीं और किसी लोभ ने लुभाया नहीं। लाहौर में ब्रह्मसमाजियों ने अपने यहॉं ठहराया। व्याख्यान हुआ वेद के महत्व पर। उन्होंने उनको वहॉं से हटा दिया और कहा कि तुमने हमारे धर्म की प्रशंसा नहीं कीअपितु वेद की प्रशंसा की। फिर डॉ. रहीम खॉं ने उन्हें अपनी कोठी पर ठहराया। भाषण दिया इस्लाम की आलोचना पर। लोगों ने कहा कि आप यह क्या करते हैंइन्होंने आपको स्थान देकर आपका उपकार किया और आप इन्हीं की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि ठीक हैइन्होंने मेरे ऊपर उपकार किया। मैं भी प्रत्युपकार करता हूँ। जो मनुष्य अन्धेरे में जा रहा हो उसे हाथ पकड़कर लाना भी मेरा काम है। ईसाई लोग चर्च में बुलाते हैं व्याख्यान देने को। वहॉं वे व्याख्यान देते हैं बाईबिल की आलोचना पर। ऐसा निराला वक्ता जिसे किसी पक्ष ने नहीं फंसायान उनको किसी डर ने डराया। अनेक बार विष के प्याले पिये और प्रहार सहे।

    हमने देखा कि आजकल के जो बड़े-बड़े नेता हैंगुरुकुलादि संस्थाओं में जाते हैं तो सन्ध्या-हवन की आलोचनावेद की आलोचना कर जाते हैं। किन्तु हमने न देखा न सुना कि किसी नेता ने मस्जिद में जाकर नमाज की आलोचना या कुरान की आलोचना कीहो। उन्हें गला कटने का भय और अपने पक्ष में न होने का सन्देह रहा।

    दयानन्द को किसी लोभ ने नहीं लुभाया। महाराणा उदयपुर ने कहा कि आप क्यों संसार के साथ अपना मस्तिष्क थकाते-दुखाते फिरते हैंयह लाखों रुपयों का मन्दिर आपका हैइसको सम्भालोबैठो। ऋषि ने उत्तर दिया कि यह मन्दिर तो क्याजितना आपका राज्य हैचाहूं तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ। परन्तु मैं अपने ऊपर उसको राजा मानता हूँ जो विश्वराट्‌ परमात्मा है। उसकी आज्ञा का पालन न करके और सत्य का प्रचार न करके किस कोने में जाऊंगा। इसलिए मुझे मन्दिर नहीं चाहिए। वेद और भी मुझे आगे बढ़ने को कहता है। लाखों चांद जीवनों में कोई बिरला जीवन सूर्य का जीवन होता है। वेद में कहा है कि ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत (अथर्व 11.5.19) ब्रह्मचर्य रूप तप से देव लोग मृत्यु को परास्त करते हैं। यह तो हुआ ब्रह्मचर्य का फल। किन्तु के देवाःदेव कौन हैंउत्तर- ये ब्रह्मचर्येण मृत्युमपाघ्नन्ति। जो ब्रह्मचर्य-तप से मृत्यु को परास्त करते हैं वे देव हैं। वेद में सूर्य को ब्रह्मचारी कहा है- ब्रह्मचारीषणं चरति रोदसी उभे तपसा पिपर्ति। (अथर्व. 11.5.1)

    सूर्य ब्रह्मचारी होता हुआ आकाश में विचरता है। द्युलोकपृथ्वीलोक को अपने प्रकाश रूप तप से पूरित करता है। दयानन्द भी आदित्य ब्रह्मचारी थे। उन्होंने घर पर रहते हुए बहन और चाचा की मृत्यु को देखा। घर-परिवार के जन सब रो रहे थे। परन्तु वह नहीं रो रहा था। सब लोग कह रहे थे कि कितना निष्ठुर कठोर बालक हैजरा भी आँखों मेें आंसू नहीं हैं। परन्तु कौन जानता था कि यह बालक अन्दर ही अन्दर रो रहा है और मृत्यु की औषध को खोज रहा है। वेद ने बतायाइसका औषध है "ब्रह्मचर्य'। ऋषि ने इस औषध को वेद से प्राप्त कर गटागट पान कर लिया। उनके जीवन में ब्रह्मचर्य आपूर-भरपूर हो गयाजैसे किसी नदी लहर में जब जल आपूर-भरपूर हो जाता है तो उछल-उछलकर किनारों से बाहर भी बिखरता है। विरोधियों ने एक वेश्या को बहकाकर उनके पास भेजा कि वह उनको पतित करेवेश्या ने कहा कि आप जैसा अपने अन्दर पुत्र चाहती हूँ। ऋषि ने उत्तर दिया- आज से मैं तेरा पुत्र और तू मेरी माता। ऋषि के इतना कहने पर वेश्या के अन्दर ब्रह्मचर्य की धारा दौड़ गईउसकी काया पलट गई। गिड़गिड़ाकर कहने लगी- मैंने अनेक साधु देखेपर तेरे जेसा नहीं। तूने तो मेरा जीवन सुधार दिया। उसने आयु भर वेश्या कर्म छोड़ दिया। ऋषि को ब्रह्मचर्य ने मृत्युञ्जय बना दिया। दिवाली की अमावस्या उनका मृत्युञ्जय दिवस है। उस दिन ऋषि कहते हैं कि एक मास पीछे आज सुख का दिन है।

    संसार से उनके प्रस्थान का दिन है। विष के कारण अंग-अंग में छाले-फफोड़े पड़े हुए थे। आँखों की पुतलियों में छाले-फफोड़े पड़े थे। डाक्टर लोग चकित थे कि इतने अपार दुःख में भी यह साधु हाय-हाय नहीं करता और न ही घबराता है। अजमेर से बाहर के दर्शक और भक्त आये हुए थे। उनमें पं. गुरुदत्त जी वैज्ञानिक विद्वान्‌ थे। उन्होंने ऋषि दयानन्द के सम्मुख ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न रखे थे। ऋषि ने उनका उत्तर दिया था। गुरुदत्त ने कहा था कि मेरे सारे प्रश्न हल हो गयेपरन्तु मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं हुआ। ऋषि ने कहा कि मेरा काम तुम्हारे प्रश्न उत्तर देना था। विश्वास तो अन्दर की वस्तु है। अन्दर से ही उपजेगा। पं. गुरुदत्त ऋषि के जीवन काल में ही नास्तिक रहे। प्राणान्त के समय ऋषि ने उन्हें कहा कि तुम ऐसे स्थान पर पर खड़े हो जाओजहॉं तुम मुझे देखते रहो और मैं तुम्हें न देख सकूं। इस प्रकार सब दर्शकों और भक्तों को अन्दर बुलाया और कहा- वैदिक धर्म का कार्य निरन्तर करते रहना। यह बात पं. गुरुदत्त भी सुन रहे थे। आश्चर्य कर रहे थे कि यह बात तो ऐसी है जैसे परदेश जाने वाला पीछे रहने वालों को सन्देश दे जाया करता है। फिर ऋषि मुण्डन कराते हैं। पं. भीमसेन जो उनके लेखक हैंको बुलाते हैं और कहते हैं 200 रुपए और दुशाला तुम्हारे लिये भेंट है। पीछे आनन्द में रहना। फिर आत्मानन्द शिष्य को बुलाते हैं और कहते हैं- बोलोतुम्हें क्या दिया जायेआत्मानन्द कहते हैं- महाराज! आप स्वस्थ हो जायेंमेरी यही इच्छा है। ऋषि ने कहा "यह शरीर क्षणभङ्गुर हैइसका क्या स्वस्थ होना। अब अन्त है।'' ये बातें सुन-सुनकर पं. गुरुदत्त आश्चर्य में पड़ रहे थे। फिर ऋषि ने सबकी ओर दृष्टि डालकर आँखें बन्द कर लीं। समाहित हो गये। ध्यानमग्न हो गये। कुछ देर पश्चात्‌ ऋषि ने संस्कृत में प्रार्थना कीफिर हिन्दी में की। अन्त में बोले- ईश्वर! तूने अच्छी लीला की। क्या तेरी यही इच्छा हैसचमुच तेरी यही इच्छा हैतेरी इच्छा पूर्ण हो। ऐसा कहकर श्वांस को लम्बा करके छोड़ दिया और छोड़ दिया सदा के लिये।

    हंस हंस हंस उड़ा एक उड़ान में।
    परब्रह्म में केवल में व्योम समान में।। 

    पं. गुरुदत्त जी इस दृश्य को देखकर मन में सोचने लगे- क्या यह मृत्यु का अभिनय हैऐसा मरण कभी देखने को नहीं मिला। उनके अन्दर यह भावना आई कि ऋषि दयानन्द जा रहे हैंयह कहते हुए जा रहे हैं- क्यों गुरुदत्त! अब भी ईश्वर है या नहींगुरुदत्त का हृदय भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे- ऋषि! ऋषि!! प्यारे ऋषि!!! हॉंमैं समझ गया। हैवह ईश्वर है। वह अमर ज्योति जिसके जीवन वह जो ईष्टदेव होता हैउसका अन्त समय में भी उपदेश देता हुआ चला जाता है।स्वामी ब्रह्ममुनि

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    Awakening is the same lamp that has the power to wake up, in the form of melted butter or oil. What to awaken and awaken in a lamp that has no butter, no oil. Woke up, little flicker and extinguished. Such momentary flicker occurs in every human being. When a person dies, they take him to the crematorium, place the wood on the pyre, the cremation starts, the flame of fire starts burning, at that time there is a flicker of quietness in every human being. Every human feels, what is the whereabouts of this life, why should a two-day life be sinful? But it is just flicker, which is extinguished as soon as we go home.

     

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