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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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आर्यसमाज का मूल मन्तव्य

आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द का जन्म 1824 को टंकारा (गुजरात) में हुआ। आपके बालपन का नाम मूलशंकर था। 14 वें वर्ष बालक मूल अपने पिता के साथ शिवरात्रि की कथा सुनने के लिए गया। शिव की वीरता और व्रत की महिमा सुनकर मूल ने व्रत रखा, रात को मन्दिर में शिवपिण्डी पर चूहों को दौड़ते व भोग को खाते हुए देखकर पिताजी को जगाया और अनेक प्रश्न पूछे। उत्तर से जब मूल के मन को सन्तोष न हुआ तो मूल अनुमति लेकर घर लौट आया तथा सच्चे शिव के दर्शन का व्रत लिया। 

बहिन और चाचा की मृत्यु से वैराग्य की भावना उभरी और मूल ने मृत्यु-विजय की ठानी। जब घर में अपने विवाह की तैयारियां देखीं, तो इक्कीस वर्षीय शिक्षित युवक मूल एक दिन घर से निकल पड़ा। योग सिखाने वाले गुरु की खोज में लगातार 14 वर्ष जंगलों, पहाड़ों, मैदानों की खाक छानता रहा और जहॉं भी किसी योग सिखानेवाले का पता चला, वहीं मूल से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी और फिर दयानन्द संन्यासी बनकर पहुंचा। अन्त में मथुरा आकर ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द दण्डी से लगभग तीन वर्ष अध्ययन किया। जब स्वामी दयानन्द ने जीवन साधना की सिद्धि के लिए गुरु से विदा मांगी तो गुरु ने पूर्व प्रतिज्ञाओं को परोक्ष में करके आर्षज्ञान ज्योति जगाने की प्रेरणा दी। गुरु आज्ञानुसार कार्य करते हुए महर्षि ने अनुभव किया कि केवल कुछ बता देने से लक्ष्य सिद्ध न होगा। एतदर्थ जनता का संगठन बनाना आवश्यक है, तभी स्थायित्व आ सकता है। अत: 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज प्रचारात्मक धार्मिक संगठन है।

जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म।
Ved Katha Pravachan - 102 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

भारतीय जीवन में धर्म सबसे प्रमुख है। दूसरी सामाजिकआर्थिकराजनीतिक व्यवस्थायें भी धर्म पर निर्भर हैं। धार्मिक दृष्टि से हमारे यहॉं अनेक विचारसिद्धान्त तत्व हैं। जैसे कि ईश्वरजीवप्रकृतिभाग्यवर्ण-आश्रम व्यवस्थाकर्मफल आदि। इन सारे तत्त्वों में से सबसे अधिक प्रमुख बात कौनसी हैजिसके साथ दूसरे तत्त्व भी जुड़े हुए हैं?

यदि इस दृष्टि से हम भारतीय विचारधारा तथा जीवन पद्धति पर विचार करते हैं तो विचार करने पर ऐसा तत्त्व कर्मफल-व्यवस्था ही सिद्ध होता है। अन्य जितने भी विचार हैं वे सारे इसी विचार अर्थात्‌ कर्मफल-व्यवस्था के साथ ही जुड़े हुए मिलते हैं तथा इसी कर्मफल व्यवस्था की कड़ियॉं ही सिद्ध होते हैं।

इसीलिए ही हम भारतीय चाहे दो-चार भी कहीं इकट्ठे होते हैंतो जीवन व्यवहार से जुड़ी हर बात को भाग्य से जोड़कर ही मानते हैं। जैसे कि यदि किसी का वैवाहिक सम्बन्ध जुड़ता हैकिसी के यहॉं कोई नया शिशु जन्म लेता है या किसी की कहीं नौकरी लगती है अथवा कोई किसी प्रकार का नया कारोबार करता है। किसी प्रकार के सुख-दु:ख की बात होती है या हानि-लाभ की या सफलता-असफलता की चर्चा होती है तब प्राय: कहा जाता है:- "हानि-लाभजीवन-मरणयश-अपयश विधि हाथ।" और तो क्या यदि कोई रुग्ण होता हैतो हमारे यहॉं प्राय: तब भी यही कहा जाता हैयह सब भाग्य का चक्र है। यह तो होनी हैऐसा ही होना थायह तो विधि-विधान है। इसको कौन बदल सकता है। क्योंकि:- "सकल पदारथ हैं जग मांहि। कर्म (भाग्य) हीन नर पावत नांहि।"

अत: भारतीय विचारधारा को समझने के लिए हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से भाग्यविधिदैवहोनीलेख शब्दों पर जाता है और इन शब्दों को समझ लेने पर ही भारतीय भावना स्पष्ट होती है। भाग्य शब्द भाग से बनता है। भाग का अर्थ है=हिस्सा । अत: भाग्य का अर्थ हुआ हिस्से का अर्थात्‌ बांटने पर हिस्से में आनेवाला। हर हिस्सा किसी न किसी के आधार पर होता हैजैसे कि कुछ मिलकर किसी कार्य को करते हैं। उस कार्य के करने जो फललाभ प्राप्त होता है अर्थात्‌ जो कमाई होती हैउसके एक निश्चित व्यवस्थासमझौते के आधार पर भागहिस्से बंटते हैं। भाइयों में भी हिस्से बंटते हैं। वे एक पिता के पुत्र होने से अपना-अपना भागभाग्य प्राप्त करते हैं। अत: हिस्से कर्म और जन्म के आधार होते हैं। हॉंइस प्रकरण में भाग्य का अर्थ हैपिछले कर्मों का फल।

विधि शब्द विधाननियम के साथ इसके कर्त्ता के लिए भी प्रयुक्त होता है। देव शब्द से दैव बनता हैजिसका भाव हैदेव द्वारा किया गया या देव द्वारा प्राप्त होनेवाला। अत: इन शब्दों का प्रकरण के अनुसार अभिप्राय हुआ कि एक ऐसा देव है जिसके विधि-विधान के अनुरूप जो जैसा कर्म करता हैवह उन-उन कर्मों के आधार पर अपना-अपना भाग्य प्राप्त करता हैं।

ये शब्द कर्मफल व्यवस्था से सम्बद्ध हैं। अत: इन शब्दों का पूर्ण स्वारस्य समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को हृदयंगम करने हेतु इन शब्दों को स्पष्ट करना होगा। जैसे कि- कर्म किसको कहते हैंवह कितने प्रकार का हैं?  कर्म का कर्त्ता कौन है वह कर्म करने में कितना कहॉं स्वतन्त्र है कर्म करने के साधन क्या-क्या हैं किस कर्म का फल कैसा होता हैकर्म किन-किन पड़ावों से होकर फल के रूप में परिणत होता हैंकर्मों का फल कौन देता है कर्म स्वयं या ईश्वरकर्म का कर्त्ता कर्मफल प्राप्त करने में स्वतन्त्र है या परतन्त्रकर्मफल दाता क्या दयाक्षमा भी करता है अर्थात्‌ वह कितना दयालु और न्यायकारी हैकर्मफलदाता फल क्या किसी की सहायता से देता है कर्मफल व्वस्था क्या अटलअटूूट है या इसमें रिश्वतपहुंच आदि से अन्तर आ जाता हैयह व्यवस्था क्या आज की राजनीति की तरह मुख देखकर चलती है 

आर्यसमाज का मूल मन्तव्य वस्तुत: कर्मफल व्यवस्था ही है। इसका स्पष्ट और सुनिश्चित रूप ही आर्यसमाज को दूसरों से अलग करता है। जैसे कि कर्मफल से बचने के लिए आज अनेकों ने अनेक ढंग अर्थात्‌ इष्टदेव का दर्शन-पूजननामस्मरणतीर्थयात्रास्नान समझ लिये गये हैं। आज का धर्म इसी प्रकार के कर्मकाण्डों का रूप ही बनकर रह गया है। जबकि व्यवहार में मन्त्र-तन्त्र आदि के बर्तने पर भी पाप का परिणाम दु:ख दूर होता नहीं है। जैसे औषधि लेने पर रोग का कष्ट दूर हो जाता है।

वस्तुत: आर्यसमाज को पूरी तरह से समझने के लिए कर्मफल व्यवस्था को पूरी तरह से समझना जरूरी है। लेखक - प्रा. भद्रसेन 

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A feeling of disinterest emerged from the death of the sister and uncle, and the original decided death-victory. When he saw the preparations for his marriage at home, the twenty-one-year-old educated young man left the house one day. For 14 consecutive years in search of a teacher who taught yoga, he searched the forests, mountains, plains and wherever a teacher of yoga was found, from the original, pure Chaitanya came as a brahmachari and then Dayanand a sannyasi.

 

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