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  • साम्प्रदायिकता की समस्या और ऋषि दयानन्द

    साम्प्रदायिकता भारतीय समाज की चिर-परिचित समस्याओं में से प्रमुख विचारणीय समस्या रही है। वर्तमान युग में तो इस समस्या का राजनीतिकरण हो जाने के कारण यह अत्यधिक जटिल एवं चिन्तनीय हो गई है। साम्प्रदायिक विद्वेष, दंगे, उग्रवाद, आतंकवाद और अल्पसंख्यकवाद तथा बहुसंख्यकवाद की राजनीति ये समस्या के जाने-पहचाने चेहरे हैं, जो समय-समय पर राष्ट्रीय परिदृश्य में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। कभी आक्रामक रूप में तो कभी सामान्य रूप में ये सामाजिक शान्ति, प्रगति और स्थायित्व के राष्ट्रीय तन्त्र को प्रभावित करते हैं।

    इस समस्या के समाधान हेतु समय-समय पर विभिन्न विचारकों ने समाधान भी प्रस्तुत किये हैं, जिनमें महात्मा गांधी का "आदर्शवादी समाधान" विशेष प्रसिद्ध है, जिसे "सर्वपन्थ समभाव" के रूप में जाना जाता है। स्वामी विवेकानन्द और सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रभृति दार्शनिकों का भी यही मन्तव्य है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी पन्थ ईश्वर की ओर ले जाने वाले कल्याण-मार्ग हैं। इसलिए मानव-मात्र को सभी पन्थों के प्रति समान आदर भाव प्रदर्शित करना चाहिए। यह समाधान सभी पन्थों में निहित सत्य, परोपकार, पवित्रता, सेवा, करुणा जैसे उदात्त मूल्यों पर बल देता है। परन्तु इस "समभाव" से इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता है कि विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय परस्पर टकराते क्यों हैं? और इस टकराव में वे क्यों एक दूसरे का अस्तित्व मिटाने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। साम्प्रदायिक टकराव से कैसे बचा जा सकता है, जिसकी सामाजिक समरसता, शान्ति और स्थायित्व के लिए आज नितान्त आवश्यकता है।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-3

    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि दयानन्द ने इस जटिल समस्या के ऊपर आदर्श और यथार्थ- दोनों दृष्टियों से विचार किया हैजो प्रस्तुत निबन्ध का प्रतिपाद्य विषय भी है। आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए उन्होंने विभिन्न मत-पन्थों में निहित शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों को न केवल स्वीकार किया हैवरन्‌ उनके आधार पर समाज के पुन: संगठन पर बल भी दिया है। उनके शब्दों में, "आजकल बहुत विद्वान्‌ प्रत्येक मतों में हैंवे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात्‌ जो-जो बातें सबके अनुकूल हैंउनका ग्रहण करना और जो-जो बातें एक दूसरे के विरुद्ध हैंउनका त्याग कर प्रीति से बर्तें तो जगत्‌ का पूर्ण हित होेवे" (सत्यार्थ प्रकाश-भूमिका)

    ऋषि का यह सुविचारित मत है कि उन शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों का मूल स्रोत "वेद" हैजो ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण निर्भ्रान्त है। अतएव मानव-मात्र के लिए वेदों में प्रतिपादित धर्म-आचार अनुपालनीय एवं रक्षणीय है। दयानन्द इस देश के सांस्कृतिक इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पॉंच हजार वर्ष से पूर्व वेद मत से भिन्न संसार में दूसरा कोई मत न था। क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। उसके उपरान्त संसार में सर्वत्र अज्ञानान्धकार व्याप्त हो गया। मनुष्य की बुद्धि भ्रमित होने से जिसके मन में जैसा आया मत चलायाजिनकी संख्या आज सहस्त्र से कम नहींपरन्तु अध्ययन-मनन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- पुराणीजैनीकिरानी और कुरानी। (सत्यार्थ प्रकाश-एकादश समुल्लासअनुभूमिका)

    ऋषि दयानन्द ने इन चार वर्गों पर विचार करते हुए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है और उन कारणों की पहचान करने का प्रयास किया हैजिनके कारण एक सम्प्रदाय दूसरे से टकराता है। वे कारण हैंविभिन्न सम्प्रदायों की मिथ्या वेद-विरुद्ध मान्यताएं एवं अन्धविश्वास यथा मूर्तिपूजाअवतारवादपैगम्बरवादचमत्कारपाप-क्षमाश्राद्ध-तर्पणतीर्थ-महात्म्यगुरुडमवादनाम-स्मरणग्रहवाद आदि-आदि। साम्प्रदायिक संघर्ष की जड़ें इन भिन्न मान्यताओं में हैं। इसीलिए स्वामी दयानन्द अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्द्ध की रचना करके विभिन्न सम्प्रदायों की असंगतता को सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैंजो संक्षेप में इस प्रकार है-

    ऋषि दयानन्द ने पुराणी वर्ग के अन्तर्गत वाममार्गियों से लेकर ब्रह्मसमाजियों तथा प्रार्थना समाजियों तक का उल्लेख किया है। पुराणी वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सम्प्रदायों की प्रमुख मान्यताएं हैं- अवतारवादगुरुडमवादभाग्यवादमूर्तिपूजाश्राद्ध-तर्पणव्रततीर्थाटनगंगा-स्नानपाप-क्षमा और नाम-स्मरण आदि। ये वेदों को प्रमाण रूप में तो स्वीकार करते हैंकिन्तु तन्त्र-साहित्यपुराणउपपुराण आदि इनके मुख्य ग्रन्थ हैं। अत: इन्हें ही विशेष मान्यता प्रदान करते हैं। पुजारीमहन्तसाधुतान्त्रिकओझा और पण्डित आदि इन पौराणिक सम्प्रदायों के धर्म-गुरु तथा व्यवस्थापक माने जाते हैं। मूर्तिपूजा इनकी आय का नियमित स्रोत होता है तथा श्राद्ध-तर्पणव्रत-अनुष्ठान आदि आय के अन्य आवश्यक साधन माने जाते हैं।

    जैनी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने वेद-विरोधी चार्वाकजैनोंबौद्धों का समावेश किया है। उन्होंने इनकी समीक्षा "सत्यार्थप्रकाश" के द्वाद्वश समुल्लास में विशेष रूप से की है। दयानन्द के मतानुसार इन वेद विरोधी मतों का जन्म वैदिक धर्म में विकृति आने के कारण उसकी प्रतिक्रियास्वरूप हुआ। इन्होंने वैदिक साहित्य तथा परम्परा के समानान्तर अपने स्वतन्त्र साहित्य तथा परम्परा की रचना की। ऋषि दयानन्द के अनुसार यही कारण है कि पौराणिकों की भॉंति इन सम्प्रदायों में साधु-साध्वी आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं। दयानन्द के मतानुसार मूर्तिपूजा जैनियों से प्रचलित हुई और बौद्धों तथा पौराणिकों में उत्कर्ष पर पहुँच गयी।

    किरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने यहूदी तथा ईसाई मजहबों का उल्लेख किया है जिनमें से दयानन्द युगीन भारतवर्ष में ईसाई धर्म अंग्रेज शासकों के धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित था। जबूरतौरेत तथा इंजील इनकी धार्मिक पुस्तकें हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कार आदि इनकी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं।पादरीपोप आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। अनुयाइयों द्वारा दान इनकी आय का प्रमुख स्रोत होता है।

    इनके अलावा कुरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने शियासुन्नी आदि सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। इस वर्ग में मुसलमान आते हैंजिनमें भारतवर्ष के सभी मुस्लिम सम्प्रदायों का समावेश हो जाता है। कुरान-मजीदहदीस आदि इनकी धार्मिक पुस्तकें मानी जाती हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कारवाद आदि इनकी भी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं। इमाममुल्लामौलवीहाफिज आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। इस वर्ग की आय का प्रमुख साधन मुसलमानों से समय-समय पर प्राप्त आय समझी जाती है।

    दयानन्द इन सभी मत-पन्थों/सम्प्रदायों का गहराई से अध्ययन-मनन करने के उपरान्त सहजत: इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विभिन्न सम्प्रदायों का आधार सम्प्रदायजनित अन्धविश्वास तथा भ्रान्त धारणाएं हैंजन-साधारण में व्याप्त अज्ञानता में ही जिनकी जड़े हैं। इसलिए साम्प्रदायिक गुरुओं और प्रवक्ताओं के सभी दावों तथा आश्वासनों को जन-साधारण समुचित परीक्षा किये बिना ही स्वीकार करने लगते हैं और इसी कारण साम्प्रदायिक आग्रहों में फॅंसी साधारण जनता अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं और आस्थाओं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगती हैजो कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों के प्रति असहिष्णुता या कट्‌टरता तथा ईर्ष्या-द्वेष के रूप में सामने आती है। दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच टकराव तथा ईर्ष्या-द्वेष के लिए धर्म-गुरुओं को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनके शब्दों में, "विद्वानों के विरोध ने सबको विरोध-जाल में फॅंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फॅंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी एक मत हो जायें" (सत्यार्थ प्रकाश-अनुभूमिकाएकादश समुल्लास)। इसलिए वे साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के लिए विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों से मानवीय-मूल्यों तथा समस्याओं के आधार पर एकता स्थापित करने की अपील भी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच तनाव तथा संघर्ष को साम्प्रदायिक गुरुओं का निहित स्वार्थ मानते हैं। उनके अनुसार अलग-अलग "साम्प्रदायिक प्रभु" भोली-भाली अनपढ जनता का आर्थिकधार्मिक तथा सामाजिक शोषण करने के लिए नित नये-नये हथकण्डे खोजते हैंइनसे उन्हें धन तथा कामोपभोग की नित्य प्रति प्रचुर सामग्री प्राप्त होती रहती है। यही कारण है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता के मनोवैज्ञानिक आधार पर चोट करने के लिए जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वासों तथा अन्धश्रद्धा पर चोट करते हैंजिनमें अवतारवादगुरुडवादपैगम्बरवादभाग्यवादपाप-क्षमाकालवाद आदि प्रमुख हैंवहॉं इसी के साथ साम्प्रदायिकता के आर्थिक स्रोतों को बन्द करने के लिए उसके सामाजिक तथा धार्मिक आधार को छिन्न-भिन्न करने का प्रयत्न करते हैंजिनके अन्तर्गत मूर्तिपूजाव्रततीर्थकुपात्रों को दान आदि का खण्डन विशेष रुप से उल्लेखनीय है।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अन्धविश्वास तथा रूढियों काजिन्हें वे प्राय: पाखण्ड के नाम से सम्बोधित करते दृष्टिगोचर होते हैंका खण्डन करने के लिए शास्त्रार्थ प्रणाली को आधार बनाते हैंजिनमें वे सभी अवैदिक मत-पन्थों तथा उनकी आधारभूत मान्यताओं की अवैज्ञानिकता तथा तर्कहीनता का प्रतिपादन प्रतिपक्षी की उपस्थिति में करते हैं। प्राय: जन-साधारण के सम्मुख इस प्रकार के तर्कीय आयोजनों का परिणाम यह होता है कि जन-साधारण असंगततर्क-विरुद्ध अन्धविश्वासों का परित्याग करने लगते हैं और दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वैदिक मान्यताओं की सुगमता को स्वीकार करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। दयानन्द द्वारा प्रवर्तित पाखण्ड-खण्डन के आन्दोलन की प्रासंगिकता को इसी आधार पर भलीभॉंति समझा जा सकता है।

    दयानन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता हैफिर चाहे वह कथित वैदिक नाम पर हो अथवा अ-वैदिकवह भारतीय हो अथवा अभारतीय। जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वास तथा पूजा-पाठी वर्ग का निहित स्वार्थउसके ये दो प्रमुख संघटक तत्व होते हैं। इसीलिए दयानन्द इन दोनों ही तत्वों के खण्डन के लिए प्राणपण से संकल्पवान्‌ जान पड़ते हैंजो उनके मण्डनात्मक या विधायी पक्ष को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

    दयानन्द के साम्प्रदायिकता-विरोधी दृष्टिाकोण को समुचित रूप में समझने के लिए धर्म तथा साम्प्रदायिकता में भी अन्तर करना आवश्यक प्रतीत होता है। दयानन्द के मतानुसार धर्म का अभिप्राय सत्यन्यायपरोपकारपवित्रता आदि उन शाश्वत मानवीय-मूल्यों से हैजिनका व्यक्ति और समाज की उन्नति तथा मुक्ति के लिए पालन करना आवश्यक है। उनके शब्दों में, "जो पक्षपात-रहित न्यायाचरणसत्य भाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेद से अविरुद्ध है उसको धर्म...... मानता हूँ।" किन्तु साम्प्रदायिकता का आधार संकुचितनिहित स्वार्थ तथा अज्ञानता से है। दयानन्द के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों के अन्तर्गत सत्यन्यायपवित्रतापरोपकारअहिंसा और शान्ति आदि मानवीय मूल्यों को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया जाता हैअन्यथा समाज में अस्तित्व बनाये रखना असम्भव हो जायेगातथापि अपने निहित स्वार्थों को प्रमुखता और वरीयता प्रदान करने के कारण ही विभिन्न सम्प्रदायों में परस्पर इतने विभेदझूठ तथा ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो गये हैं कि उन्हें धार्मिक तो क्या सहजत: सामाजिक संगठन स्वीकार करने में भी कठिनाई का अनुभव होने लगता है। इसलिए दयानन्द जहॉं एक ओर समाज में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अज्ञानताभ्रान्त धारणाओंअन्धविश्वासों तथा पाखण्डों का खण्डन करते हैंवहीं दूसरी ओर वैदिक धर्मत्रैतवादवैदिक कर्मफलवादपुरुषार्थ चतुष्टयसंस्कार आदि का मण्डन भी करते दृष्टिगोचर होते हैं जो उनकी दृष्टि में सबसे प्राचीन सत्य मानवतावादी धर्म है।

    अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता की समस्या दूर करने के लिए विभिन्न धार्मिक मत-पन्थ में निहित शाश्वत महत्व के तत्वों, मूल्यों की एकता पर बल देते हैं। उनके रक्षण, पल्लवन के लिए वैदिक धर्म के संस्थापन का लक्ष्य सामने रखते हैं, जो न केवल विश्व का प्राचीनतम धर्म है, वरन्‌ सभी शाश्वत मूल्यों का सार्वभौम स्रोत भी है। इसी के साथ-साथ विभिन्न साम्प्रदायिक, अन्धविश्वासों एवं भ्रान्त मान्यताओं से मानव-मात्र को मुक्ति दिलाने हेतु उनकी अतार्किकता, अवैदिकता एवं असत्यता का भी सफलतापूर्वक प्रतिपादन करते हैं, जिसकी वर्तमान भूमण्डलीयकरण के दौर में महती आवश्यकता है। -डॉ. सोहनपाल सिंह आर्य

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    In Dayanand's view, communalism is communalism, be it in the alleged Vedic name or non-Vedic, be it Indian or non-Indian. Ignorance prevailing among the people, false belief and vested interest of the class of worship are its two major constituents. That is why Dayanand appears determined to rebut both these elements, which seems necessary to give a tangible or legislative aspect.


    हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए के उद्‌घोषक

    महर्षि दयानन्द ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने "हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए" का नारा लगाया था। स्वामी दयानन्द ने वेदों तथा उपनिषदों द्वारा भारत के प्राचीन गौरव को सिद्ध करके बता दिया और संसार को दिखा दिया कि भारतवर्ष दर्शन-शास्त्र तथा आध्यात्मिक विद्या की खान (भण्डार) है। भारत में रहने वाले लोग मानते है कि भारत की प्राचीन महिमा तथा गौरव पागलों का प्रलाप नहीं, परन्तु सत्य है। आर्यसमाज के लिये मेरे हृदय में शुभ इच्छाएं हैं और उस महान्‌ पुरुष ऋषि दयानन्द के लिये जिसका आज आर्य आदर करते हैं, मेरे हृदय में सच्ची पूजा की भावना है।-भारत-भक्त नेत्री एनी बीसेन्ट

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  • सार्थक लक्ष्य

    युवा-प्रेरणा

    हे मानव !
    जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहॉं,
    फिर जा सकता वह सत्त्व कहॉं?
    तुम स्वत्व सुधा-रस पान करो,
    उठ के अमरत्व विधान करो।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त इन पंक्तियों के माध्यम से मनुष्य को जागृत करते हुए कह रहे हैं कि समस्त प्राणी जगत्‌ में सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन दिशाहीन न हो, लक्ष्य से विचलित न हो। जीवन में सफलता पाने के लिये एक सार्थक लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में जीवन बिना पतवार की नाव के समान होता है। लक्ष्य अपनी इच्छा और प्रतिभा के अनुरूप होना चाहिए। इसे पाने के लिए आपका तन-मन जुट जाए। इसके लिये कठोर से कठोर श्रम भी थकाए नहीं। बेचैन न करे। लक्ष्य को पाने पाने के लिये जो हर कठिनाई हंसते-खेलते झेल लेता है, उदासीनता, निराशा उसके पास नहीं फटकती। ऐसे पुरुषार्थी अपना लक्ष्य पा लेते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सब जगह शान्ति ही शान्ति (वेद का दिव्य सन्देश)
    Ved Katha Pravachan _62 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को लांघने वाला व्यक्ति भूत और भविष्यकाल के बारे में चिन्ता नहीं करता। क्योंकि वर्तमान से ही भविष्य को खरीदा जा सकता है, वह उसे कल पर टालता नहीं है। जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना चाहिये। कठिनाइयॉं और संघर्ष हमें निराश करने नहीं आते, बल्कि हममें साहस और शक्ति का संचार करने आते हैं। इसलिये उनसे निराश होकर जीवन की खुशी खोना नहीं है। जीवन जीने की कला हम जान लें तथा सकारात्मक सोच रखें, तो जीवन एक मुस्कुराहट भरा गीत बन जाएगा।

    नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति हर स्थिति में अपने को हारा हुआ मानता है। अच्छी से अच्छी परिस्थिति में भी पहले उसकी नजर, उसकी दृष्टि नकारात्मक पहलू पर ही पड़ती है। वह सकारात्मक पहलू पर ध्यान जाने से पूर्व ही निस्तेज हो जाता है। मनोवैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। वस्तुतः सभी के अन्दर कोई न कोई शक्ति छिपी है। बस उसे जागृत करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये आवश्यकता है प्रेरणा की। प्रेरणा से प्रतिभा का उदय होता है और प्रतिभा परिश्रम के लिये व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करती है।

    कई बार हम सफल इसलिये नहीं होते, क्योंकि हम अवसर को गम्भीरता से नहीं लेते। जैसे ही हम अवसर पर ध्यान देना शुरू करते हैं, जीवन मेें परिवर्तन घटित होने लगते हैं। तब हम अमूल्य समय को गंवाते नहीं हैं, नष्ट नहीं होने देते। क्योंकि हम यह समझ जाते हैं कि यदि वह समय गंवा दिया, तो पुनः लौटकर नहीं आएगा। फलस्वरूप लक्ष्य पा लेते हैं।

    सार्थक लक्ष्य पाने के लिये जीवन में अनुशासन का भी बहुत महत्व है। एक बार आचार्य सुमेध अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के किनारे टहल रहे थे। शिष्य वरतन्तु ने पूछा "आचार्य! विद्याध्ययन अथवा किसी लक्ष्य की प्राप्ति का आधार बौद्धिक प्रखरता है तो फिर कठोर अनुशासन की क्या आवश्यकता है?''

    आचार्य ने मुस्कुराकर पूछा- "अच्छा बताओ, यह गंगा नदी कहॉं से आ रही है और कहॉं तक जाएगी।'

    वरतन्तु ने कहा- "गंगा गोमुख से चलकर गंगासागर में मिल जाती है।''

    आचार्य ने पूछा- "यदि इसके दोनों किनारे न हों तो?''

    शिष्य ने कहा- "तब तो इसका जल दोनों तरफ बिखर जाएगा, बह जाएगा तथा कहीं बाढ़ और कहीं सूखा पड़ जाएगा और यह अपने लक्ष्य गंगासागर तक तो पहुंच ही नहीं पाएगी, बीच में ही खत्म हो जाएगी।'' आचार्य ने कहा- "हॉं, इसी तरह अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी या लक्ष्यार्थी की जीवन-ऊर्जा बंट जाएगी, बिखर जाएगी, क्योंकि एक लक्ष्य नहीं होगा, अनेक सोच होंगे। लक्ष्य प्राप्ति में रुकावट आने पर शरीर और मन निस्तेज हो जाएंगे। फलस्वरूप जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव हो जाएगी। अनुशासन, विद्याध्ययन या किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने व उसे आत्मसात्‌ करने का सूत्र है।

    सफलता पाने के बाद उसके सुख और यश को स्थायी रखने के लिये आवश्यक है विनय और अहंकारशून्यता। ज्ञानी जन कहते हैं कि ज्ञान, धन, पद, यश, प्रभुता आदि पाकर मनुष्य में अहंकार पैदा हो जाता है। महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु अत्यन्त वेद ज्ञानी ऋषि थे। वे जब गुरुकुल से वेदाध्ययन करके लौटे, तब उन्हें अपने पाण्डित्य पर इतना अभिमान हो गया था कि घर आकर उन्होंने अपने पिता महर्षि आरुणि को प्रणाम भी नहीं किया। अपने पुत्र का अभिमान देखकर पिता अत्यन्त दुखी हुए। उन्होंने अपने पुत्र से कहा- "वत्स! तुमने ऐसी कौन सी ज्ञान की पुस्तक पढ़ ली है, जो बड़ों का सम्मान करना भी नहीं सिखाती? यह ठीक है कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो, वेद-ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। किन्तु क्या तुम यह भी नहीं जानते कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है? वत्स! जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती, वह न तो फलीभूत होती है और न ही विकसित होती है।''

    पिता की इस मर्मयुक्त वाणी को सुनकर श्वेतकेतु को अपनी भूल ज्ञात हुई। उन्हें स्मरण हो आया जब उनके गुरु जी ने भी एक दिन कहा था- "वत्स श्वेतकेतु! जिस प्रकार फल आने पर वृक्ष की डालियॉं झुक जाती हैंउसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात्‌ हमें भी अधिक विनम्र और शालीन हो जाना चाहिये। "विद्या ददाति विनयम्‌के इस सिद्धान्त से प्रकाश पाकर ही तुम जीवन मेें सफल हो सकते हो।'' अपनी अहंकारजनित भूल से लज्जित श्वेतकेतु पिता के चरणों में सर झुकाकर क्षमा मांगने लगे। महर्षि ने उन्हें गले लगा लिया और बोले- "अभिमान तो पुत्र की विद्वत्ता पर मुझे होना चाहियेवत्स!''

    अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्‌।।

    विद्या विनय सिखाती है। बड़ों का सम्मान करने वाले तथा सदा सत्य का आचरण करने वाले विनयी और शीलवान व्यक्ति के आयु, विद्या, यश और बल- पराक्रम बढ़ते हैं। वह स्वयं शक्तिशाली बनकर समाज और देश को भी उन्नत करता है, क्योंकि वह जानता है कि- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तथा स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्‌।।

    इस संसार में अनेकों प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपनी जीवन लीलाओं को समाप्त कर इस संसार से विदा हो जाते हैं। परन्तु जीवन वही जीवन है जो अपने कुल, वंश, समाज और राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियॉं कितने सुन्दर शब्दों में स्वाभिमान को जागृत करती हैं-

    निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
    हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।

    सब जाये अभी पर मान रहे,
    मरणोत्तर गुंजित गान रहे।।

    कुछ होन तजो निज साधन को,
    नर होन निराश करो मन को।।

    तात्पर्य यह है कि अन्तःप्रेरणा से प्राप्त सार्थक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अवसर की गम्भीरता को समझना अर्थात्‌ वर्तमान क्षण का सदुपयोग करनासकारात्मक सोचअनुशासन और लक्ष्य के प्रति सचेत रहते हुए आशावान रहना जितना आवश्यक हैउतना ही उस सफलता की आत्मतुष्टि को चिरस्थायी रखने के लिये आवश्यक हैं आत्मविश्वासनिरभिमानिता और सज्जनता।- रोचना भारती

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    Discipline is also very important in life to achieve meaningful goals. Once Acharya Sumedha was walking along the banks of the river Ganges with his disciples. The disciple Varatantu asked, "Acharya! Intellectual intelligence is the basis of learning or the attainment of a goal, so what is the need for rigorous discipline?"

     

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  • सूर्य और चन्द्रमा की राह पर चलो

    ओ3म्‌ स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
    पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।।
    (ऋग्वेद 5.51.15) 

    अर्थ - (सूर्याचन्द्रमसाविव) सूर्य और चन्द्रमा की तरह (स्वस्ति) कल्याण के (पन्थाम्‌) मार्ग पर (अनुचरेम) चलते रहें (पुनः) और (ददता) दान करने वाले (अघ्नता) अहिंसा-स्वभाव वाले (जानता) ज्ञानी पुरुषों की (संगमेमहि) संगति करते रहें। 

    हम सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याण के मार्ग पर चलते रहें। सूर्य और चन्द्रमा कल्याण के मार्ग पर चलते हैं। हमें भी उन्हीं की तरह कल्याण की राह पर चलना चाहिये। सूर्य और चन्द्र का मार्ग कल्याण का मार्ग किस कारण बन जाता है? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि सूर्य-चन्द्र की गति नियमित है। इतनी नियमित कि वर्षों पहले सूर्य और चन्द्र-ग्रहणों का पता लग जाता है। सूर्य-चन्द्रादि पिण्ड यदि नियमित गति से न चलें, तो परस्पर टकराकर ब्रह्माण्ड नष्ट-भ्रष्ट हो जाये। इनकी नियमित गति के ही कारण वर्ष में छः ऋतुएं बनती हैं। सरदी, गरमी और वर्षायें आती हैं। और दूसरे यह कि सूर्य-चन्द्र अपनी नियमित गति से समय-समय पर जो ऋतुएँ बनाते हैं, उनका फल लोक-कल्याण होता है। हर एक ऋतु से खास-खास प्रकार के लाभ संसार को मिलते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश और गरमी, उनका आकर्षण और विकर्षण सब संसार के कल्याण के लिये ही होते हैं। 

    Ved Katha Pravachan _96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    हमें भी सूर्य-चन्द्र की तरह "स्वस्ति' के, कल्याण के मार्ग पर चलना चाहिए। हमारा जीवन नियमित हो, हममें समय पर सब कार्य करने की क्षमता हो और हमारी सब शक्तियॉं संसार का कल्याण करने वाली हों। 

    सूर्य प्रकाश पुञ्ज है। उसमें असीम प्रकाश है। इस असीम प्रकाश के कारण ही सूर्य के जीवन में स्वस्ति है। सूर्य की भॉंति हमें भी अपने भीतर असीम प्रकाश भरना चाहिए। हमें महाज्ञानी बनना चाहिये। हमें तृण से लेकर ईश्वर-पर्यन्त सब पदार्थों के सम्बन्ध में भांति-भांति के विद्या-विज्ञान सीखने चाहियें। सूर्य में असीम गरमी है। इस गरमी के कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमें भी सूर्य की भांति अपने जीवन में गरमी भरनी चाहिए। हमारे जीवन में उत्साह, बल, स्फूर्ति, तेजस्विता और आगे बढ़ने की भावनाओं की गरमी रहनी चाहिए। चन्द्रमा में शीतलता, सौम्यता, शान्ति और आह्लादकता का असीम गुण है। इसके कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमारे जीवन में भी यह गुण असीम मात्रा में होना चाहिए। हमारे जीवन में सूर्य की उष्णता और चन्द्रमा की शीतलता का समन्वय होना चाहिए। और हमें अपने प्रकाश-गुण से, ज्ञान-गुण से, अपनी समझ से भली-भांति विचार करके निश्चय करना चाहिए कि हमें जीवन में कब गरमी का परिचय देना है और कब शीतलता का। अपने प्रकाश, उष्णता और शीतलता के ये तीनों गुण हमें संसार के कल्याण में ही लगाने चाहियें। 

    पर हमारे अन्दर वह शक्ति ही कैसे आए, जिसका हमें सूर्य-चन्द्र की तरह संसार के कल्याण में व्यय करना है। इसका उत्तर मन्त्र के उत्तरार्द्ध में दिया गया है। हमें अपने अन्दर योग्यता हासिल करने के लिये ऐसे पुरुषों का संग करना चाहिए जो दानी हों, अपनी शक्तियों को संसार के उपकार में लगाते हों, जो अहिंसाशील हों, संसार के प्राणियों के दुःख-दर्द मिटाने की भावना से जो कर्म करते हों, जो ज्ञानी होकर तरह-तरह की विद्याओं के तत्व का उपदेश कर सकते हों। ऐसे लोगों की संगति में रहने से हमें शक्ति प्राप्त होती है, जिसका हम सूर्य-चन्द्र की तरह लोक-कल्याण में व्यय कर सकेेंगे। 

    मनुष्य! सत्पुरुषों की संगति में बैठना सीख, उनसे शक्ति प्राप्त कर और फिर उस शक्ति को सूर्य-चन्द्र की तरह से लोक-कल्याण में लगा दे। इसी से तेरा जीवन स्वयं भी स्वस्ति (सु अस्ति) अर्थात्‌ उत्तम सत्ता वाला हो सकेगा। कल्याण का यही मार्ग है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    Humans! Learn to sit in the company of Satpurus, get power from them and then put that power in the public welfare like Surya-Chandra. With this, your life itself will also be healthy (su asti), that is, with good power. This is the path to welfare. - Acharya Priyavrat Vedavachaspati

     

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - १

    संसार में कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जो साधना के पथ पर चलकर अपने जीवन को सार्थक करते हैं। कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जो पीड़ितों की सेवा करने में अपने जीवन को धन्य मानते हैं। कुछ महापुरुषों में नेतृत्व के गुण बचपन होते हैं, कुछ महापुरुष राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने आपको आहूत कर जाते हैं, परन्तु कुछ ही महापुरुष ऐसे होते हैं, जो साधना के पथ पर चलते हुए, पीड़ितों की सेवा करते हुए, बचपन से ही नेतृत्व के गुणों से ओतप्रोत होते हुए, राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने आपको आहूत करने में गौरवान्वित अनुभव करते हैं, उनमें से एक महापुरुष का नाम था श्री सुभाषचन्द्र बोस। संभवतः 'नेताजी' केवल और केवल इस महापुरुष के नाम के साथ ही जुड़ा है, अन्य किसी के साथ नहीं। 

    Motivational Speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Greatness of India & Vedas | गौरवशाली महान भारत - 3

    जन्मस्थान एवं माता-पिता - उड़ीसा का कटक शहर और उसका ग्राम कोडेलिया वह सौभाग्यशाली ग्राम है जिस ग्राम में एक ऐसे रत्न का जन्म हुआ जिसे लोग प्यार से सुभाष-दा कहते हैं। वह माँ श्रीमती प्रभावती एवं पिता श्री जानकीनाथ बोस सौभाग्यशाली हैं, जिनके घर में २३ जनवरी १८९७ जन्म लिया।

    अंग्रेजी स्वार्थी एवं विश्वास-घाती हैं - एक सात-आठ वर्ष का बच्चा गम्भीर मुख की आकृति बनाकर बैठा है। बच्चे इस आयु में चंचल होते हैं, परन्तु यह बच्चा अपने मुख की गम्भीर आकृति बनाकर बैठा है। उसकी बालसखी कमला उस बच्चे को दूसरे खेलने वाले बच्चों के साथ खेलने के लिए कहती है परन्तु वह बच्चा उन बच्चों के साथ खेलने मना करता है। परन्तु बाल सखी के बार-बार आग्रह कर पर वह बच्चा कहता है- ''मुझे इन अहंकारी बच्चों के साथ खेलना अच्छा नहीं लगता। यह अंग्रेजों के बच्चे आतातायियों की संतानें हैं।'' वह अंग्रेज बच्चे इस बच्चे से उनके साथ न खेलने का करण पूछते हैं तो वह उत्तर देता है- ''अंग्रेज स्वार्थी और विश्वासघाती हैं। मैं तुम जैसे स्वार्थी और विश्वासघाती पिताओं के पुत्रों के साथ खेलना अच्छा नहीं समझता। वह बच्चा कहता है कि इन अंग्रेजों के साथ खेलने की बात तो छोड़ों मैं इनके साथ बात करना भी पसंद नहीं करता।'' तब बाल सखी कहती है कि मैं अंग्रेजों के साथ खेलना पसंद नहीं करती क्योंकि यह हम भारतियों को हिन दृष्टि से देखते हैं। तब वह बच्चा उस बालसखी कमला से कहता है- ''मैं तुम्हें अपनी फौज में भर्ती करूँगा।'' बाल सखी ने पूछा - ''तुम फौज किसलिए बनाओगे?'' उस बच्चे ने उत्तर दिया-''अंग्रेजों को इस देश से खदेड़ने के लिए, फौज आवश्यक है, मैं इसलिए अपनी एक फौज बनाऊँगा।'' इतने देर में उस बच्चे की माँ वहाँ आ गई। वह बाल सखी कमला उस बच्चे की माँ से बोली- ''मौसी जी ! देखो, यह आपका पुत्र फौज बनाने की बात कर रहा है। बड़ी-बड़ी बातें करने लगा है।'' माता श्रीमती प्रभावती ने पूछा -''सुभाष ! यह बड़ी-बड़ी बातें तुम्हें कौन सिखा रहा है?'' उस बच्चे ने कहा माँ ! यह सब आपका आशीर्वाद है। माँ उसकी बात सुनकर मुस्कुरा देती है।'' यह बच्चा और कोई नहीं, स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस ही था जिसने बचपन से ही अन्यायी, अंग्रेजों को भारत की धरती से खदेड़ने के लिए फौज बनाने की तैयारी कर रहा है। तभी तो कहा है- ''होनहार बिरवान के होत चिकने पात।'' महापुरुषों के गुण पालने में ही दिखने लग जाते हैं। इन दोनों वाक्यों को इस राष्ट्र के महान सपूत सुभाष जी ने सिद्ध कर दिखाया। 

    अंग्रेज चाहे शिक्षक ही क्यों न हो, थप्पड़मार दिया - अंग्रेजी प्रोफेसर ओटंग कक्षा में पढ़ रहे थे। उन्होंने किसी भारतीय छात्र से एक प्रश्न उत्तर पूछा। छात्र तुरन्त उत्तर न दे सका। तब अंग्रेज प्रोफेसर ने उस भारतीय छात्र से कहा- ''यू ब्लैक डाग, क्या खाक पढता है? (तुम काले कुत्ते, क्या खाक पढ़ते हो?)।'' वह भारतीय विद्यार्थी सहम गया। सुभाष विद्युत गति से एकदम बोला - कन्ट्रोल यूअर टन्ग, सर। (श्रीमान जी, कृपया अपनी वाणी पर नियंत्रण रखिये)। प्रोफेसर चीखा- यू सिट डाउन (तुम बैठ जाओ)। सुभाष ने तेज स्वर में कहा - अपने इस भारतीय छात्र को ब्लैक डाग (काला कुत्ता) क्यों कहा? प्रोफेसर आगबबूला हो उठा और बोला - 'टुम बीच में क्यों बोलता है? डैम ब्लाडी।..... ?' बस अंग्रेज प्रोफेसर ओटंग का इतना ही कहना था कि सुभाष ने आव देखा न ताव। सुभाष तड़प उठे और भारतियों का इतना अपमान उसे सहन नहीं हुआ और झपटकर प्रोफेसर के गाल पर भरपूर थप्पड़ जड़ दिया। कक्षा में गहरा सन्नाटा छ गया। वह प्रोफेसर तो गाल सहलाता रहा। अंग्रेज को पीटा भी तथा विद्यालय में हड़ताल करा दी। इस प्रसिद्ध यूरेपियन स्कूल घटित होने वाली यह प्रथम दुस्साहसिक घटना थी जिसने समस्त गोरी चमड़ी वालों में भय का वातावरण बना दिया। विद्यालय के अधिकारीयों ने सुभाष को विद्यालय से निकल दिया। पिता श्री जानकीनाथ बोस को जब घटनाक्रम का पता चला तब उन्होनें सुभाष से कहा- यह तुमने क्या किया है? तुमने अपने भविष्य का नाश कर दिया है। सुभाष ने उत्तर दिया- पिताजी, ओटंग ने सभी भारतीयों का अपमान किया है। हम भारतीयों को मुर्ख, नालायक, काला कुत्ता और बदमाश कहा है। भारतीयों का अपमान सहन नहीं कर सकता। जहाँ तक मेरे भविष्य की बात है मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपके नाम को उज्ज्वल करूँगा। पिता की इच्छानुसार आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करके भी सरकारी नौकरी स्वीकार न करके देश के लिए अपने जीवन को आहूत कर दिया। - कन्हैयालाल आर्य

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    Birthplace and parents - Cutelia city of Orissa and its village Kodelia is the fortunate village in which a gem was born which people affectionately call Subhash-da. He is the mother Mrs. Prabhavati and father Mr. Jankinath Bosh, who was born in his house on January 23, 1897.

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - २

    भिखारिन की सहायता करना - एक दिन सुभाष की माता प्रभावती ने सुभाष के कमरे में प्रवेश किया। क्या देखती है कि कुछ चींटियां सुभाष की पुस्तकों की अलमारी में प्रवेश कर रही हैं। माता जी ने अलमारी खोली, दो रोटियां एक कागज में लिपटी हैं, उन रोटियों को खाने के लिए चींटियां आ रही हैं। इतनी देर में सुभाष ने अपने कमरे में प्रवेश किया। माँ ने पूछा- यह रोटियाँ किसलिए रख रखी हैं? सुभाष ने कहा- माँ, इन रोटियों को अब बाहर फेंक दो। माँ इन ने पूछा- सुभाष, क्या बात है? इन रोटियों को देखकर दुःखी क्यों हो रहा है? सुभाष ने उत्तर दिया- माँ, अपने खाने से बचाकर दो रोटियाँ मैं प्रतिदिन एक भिखारिन को देता था। आज वह मिली नहीं थी, इसलिए मैंने यह रोटियाँ इसी आशा में अलमारी में रख दी थी कि थोड़ी देर के पश्चात यह रोटीया दे आऊंगा। परन्तु अभी-अभी मैं इस भिखारिन को देखने गया था तो पता चला कि बेचारी का स्वर्गवास हो गया है। 

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    Different Types Names of one God | एक ही ईश्वर के अनेक नाम और वेद


    अपनी बात समाप्त कर सुभाष इस प्रकार दुःखी हो गये मानों न होकर कोई आत्मीय की मृत्यु हो गई हो। सुभाष ने सहज भाव से कहा- माँ, हमें निर्धनों की सहायता करनी चाहिए। यह उन की एहसान नहीं है, हमारा कर्तव्य है। माँ ने सुभाष को गले से लगते हुए कहा- सुभाष, इतनी संवेदनायें कहाँ से लाते हो? यह पुरे संसार का दुःख कहाँ समेटे रहते हो? यह कहकर माँ-पुत्र दोनों गले लग गये। माँ इस लिए हैरान थी कि इतना छोटा-सा बच्चा और इतनी बड़ी-बड़ी बातें और सुभाष इसलिए रो रहा है कि मेरे भारत में कितनी निर्धनता है, मैं इसे कब समाप्त करूँगा ? ऐसी ही घटना महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन में भी आती है।

    एक दिन ऋषि दयानन्द सांयकाल के समय ध्यान में बैठे थे। बाहर जल में बहाने के लिए एक माँ अपने पुत्र के शव को तैयार खड़ी थी। ऋषि दयानन्द जी ने देखा कि उस बच्चे के शव से कफन को इसलिए अलग रही थी कि वह अपने तन को ढक सके। ऐसी निर्धनता देखरक ऋषि दयानन्द का ह्रदय तड़प उठा और कहा- है प्रभु! इस देश की एक माँ अपने पुत्र के शव को कफन तक भी उपलब्ध नहीं करा सकती। इस देश की निर्धनता का मूल कारण यह आततायी अंग्रेज ही हैं। जाजपुर में हैजे का प्रकोप- समाचार-पत्र में एक समाचार छापा-जाजपुर में हैजे का भीषण प्रकोप। नीचे हैजे के होने वाली क्षति का वर्णन पढ़कर सुभाष की आँखे फटी की फटी-सी रह गई। सुभाष पर उस दुःखद समाचार की गहरी प्रतिक्रिया हुई। बस इन पीड़ित रोगियों की सेवा करने का संकल्प कर लिया। वह भी नहीं जानते थे कि उसे पिता ह्रदय तथा विचारों से महान होते हुए भी अपने जीवन स्तर के सम्बन्ध में अत्यन्त सजग हैं। वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनका बेटा इन रोगियों के बीच जाकर उनकी सहायता करे। प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने कर्म होते हैं, भावनाएँ और संवेदनाएँ भी अलग-अलग होती हैं। अपनी भावनाओं और संवेदनाओं, स्वभाव को प्रमुखता देते हुए भूख-प्यास की चिंता किए बिना जाजपुर के हैजा पीड़ितों की सेवा में जुट गया। उसकी सादगी, विनम्रता, निष्ठा, लगन और सेवा तत्परता को देखकर किसी को अनुमान भी न हो सका कि वह कटक के सम्मानित सरकारी वकील रायबहादुर श्री जानकीनाथ का पुत्र होगा। जब लोगों को ज्ञात हुआ तो वे विस्मित रह गये।

    सुभाष लौटा, पिता को प्रणाम किया। पिता से अत्यन्त विनम्र भाव से कहा- पिताजी, क्षमा कीजिये। मैं आपका आदेश लिए बिना जाजपुर अपनी भावनाओं की वशीभूत होकर सेवाकार्य के लिए चला गया। पिता ने कहा- क्षमा का तो प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु जो तुमने किया है वह सर्वथा मेरी प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। क्या एक तुम्हारी ही सेवा की आवश्यकता थी ? यदि तुम्हारा यही रंग-ढंग रहा तो तुम अपना भविष्य अंधकारमय बना लोगे। इतनी देर में समाचार मिला कि सुभाष ने मेट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की है। सुभाष ने हँसते हुए कहा-अच्छा हुआ कि किसी अंगेजी कालेज में पढ़ने के स्थान पर किसी भारतीय कॉलेज में पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा। - कन्हैयालाल आर्य 

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    Subhash returned, bowed to father. Said to father very politely - Father, forgive me. I took Jajpur without taking your orders and went for service after subjugating my feelings. The father said - the question of forgiveness does not arise, but what you have done is completely against my reputation. Was only a service required? If you remain this same color, then you will make your future bleak. The news got so long that Subhash passed the matriculation examination in the second class. Subhash smilingly said that it is good that instead of studying in an English college, you will get an opportunity to study in an Indian college. - Kanhaiyalal Arya 

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - ३

    कलकत्ता के रास्तों का अंग्रेजी नाम बदलकर भारतीय रखे- २० जुलाई १९२१ को सुभाष बाबू की मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई। उन्होंने उनकी मुलाकात कलकत्ता के मेयर दास बसु से कराई। दास बाबू सुभाष के विचारों से इतने प्रभावित हो गये कि उन्होंने सुभाष को कार्यकारी अधिकारी के रूप में नियुक्त कर लिया। सुभाष बाबू तो अंग्रेजों से चिढ़ें हुए थे उन्होंने जितने भी कलकत्ता में अंग्रेजों के नाम से रास्ते थे, लगभग उन सबके भारतीय नाम रख दिये और अंग्रेजी नाम हटा दिये।

    चितरंजन दास जी को अपना राजनैतिक गुरु बनाना - बंगाल के वरिष्ठ नेता देशबंधु श्री चितरंजनदास जी ने अपनी लाखों रुपयों की वकालत को ठोकर मार दी। उनके इस त्याग से प्रभावित होकर, उनमें श्रद्धाभाव रखते हुए उन्हें अपना राजनैतिक गुरु मानना स्वीकार कर लिया। त्यागी गुरु का शिष्य भी त्यागी होना चाहिए। यह बात सुभाष ने सिद्ध कर दी।

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    Explanation of Vedas & Dharma | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है - 2

    आई.सी.एस की नौकरी छोड़ दी- एक धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद सांसारिक धन-वैभव, पदवी की ओर झुकाव नहीं था। मित्रगण उसे सन्यासी कहते थे। अंग्रेज सरकार की दमनकारी एवं अन्यायपूर्ण नीति के विरोध में आई.सी.एस की परीक्षा उत्तीर्ण करके भी सरकारी नौकरी छोड़ दी। स्वयं ब्रिटिश सर्कार के भारत मंत्री के समझाने के बावजूद भी कलेक्टर और कमिश्नर बनने की बजाय मातृभूमि का सेवक बनना स्वीकार किया।

    बंगाल की भयंकर बाढ़ - बंगाल की भयंकर बाढ़ में फंसे लोगों की भरपूर सहायता की। सामाजिक कार्य निरंतर चलते रहे। इसके लिए युवक दल की स्थापना की ताकि कृषक समाज की सहायता की जा सके।

    यतीन्द्रनाथ की शवयात्रा में भारतियों में जोश भरा- क्रांतिकारी यतीन्द्रनाथ ने जैल में ६३ दिनों की भूख हड़ताल इसलिए की कि वहाँ क्रांतिकारियों के साथ बहुत ही दुर्व्यवहार किया जाता था। वहीं उनका निधन हो गया। उनकी शवयात्रा सरकार के विरोध के बावजूद निकली। अंग्रेजों के विरुद्ध जितना जोशीला भाषण दे सकते थे, दिया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया।

    ब्लैक हाल स्मारक को हटाना - अंग्रेजों ने भारतीयों को अपमानित करने के लिए एक ब्लैक हाल स्मारक बनवाया। सुभाष इसे देश व भारतीयों का अपमान समझते थे। उन्होंने अंग्रजों के विरुद्ध समझौता विरोधी कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। चाहे अंग्रेज सरकार ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया परन्तु सुभाष के प्रभाव से भयभीत होकर ब्लैक हाल स्मारक को हटा दिया गया।

    गाँधी जी से मतभेद- रविंद्रनाथ टैगोर, प्रबुल्लचंद्र राय, मेघनाथ साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष की कार्यशैली से सहमत थे परन्तु गाँधी जी उनकी कार्यशैली को पसंद नहीं करते थे। चाहे गाँधी जी के सहयोग से १९३१ में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने। गाँधी जी उन्हें अपनी शैली के अनुसार चलाना चाहते थे परन्तु वन का यह सिंह पिंजरे कैसे बंद रह सकता था? उन्होनें कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी क्योंकि गांधी जी की नीति अंग्रजों को सहयोग करके स्वराज्य पाने की थी जबकि सुभाष यह जानते थे कि वे अंग्रेज स्वार्थी, विश्वासघाती एवं अन्यायी लोग हैं, यह शान्ति से हमें आजादी नहीं देंगे। इसके लिए सशस्त्र क्रांति करनी होगी। गान्धी जी से मतभेद हो गये और उनसे अलग हो गये।

    पंडित मोतीलाल नेहरू एवं जवाहरलाल नेहरू से संबन्ध - सुभाष जी की कार्यनिष्ठा, नायकत्व, देशप्रेम, लगन व उच्च चरित्र की प्रशंसा करते हुए प. मोतीलाल नेहरू ने गद्गद् कंठ से कहा था - सुभाषचंद्र बोस मुझे अपने लड़के की तरह प्यारे हैं। परन्तु इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस सुभाष को जवाहरलाल नेहरू का पिता अपने लड़के के समान मानता है वहां पं. मोतीलाल नेहरू का पुत्र जवाहरलाल नेहरू सुभाषचंद्र बोस के जीवन से सम्बंधित फाइलों को गुम करा देता है।

    सफलता के लिए ईश्वर का सहारा - दक्षिण पूर्व एशिया के भारतियों ने सिंगापूर में एक ऐतिहासिक सम्मेलन किया। उस सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सुभाष ने कहा था- भारत की स्वाधीनता आन्दोलन का नेता चुनकर आपने जो सम्मान प्रदान किया है उसके लिए मैं आपका अपनी अंतरात्मा से धन्यवाद करता हूँ कि परमात्मा मुझे अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने की शक्ति प्रदान करे, जिससे मैं अपने देशवासियों को पूर्ण संतुष्ट कर सकूँ।

    सैनिकों के लिए आदेश - सिंगापूर में आजाद हिंद फौज के सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा- भारत की स्वाधीनता सेना के सिपाहियों! आज मैं अपार गौरव तथा अदभुत आनंद का अनुभव कर रहा हूँ कि भारत की भावी सेना का निर्माण भी करेगी। सैनिक होने के नाते आपको सदा तीन आदर्श अपने सामने रखने चाहिएं- १. विश्वाशपात्रता, २. कर्त्तव्य, ३. बलिदान। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं सदैव आपके साथ रहूँगा। इस समय मैं आपको भूख, प्यास और संघर्ष के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। यह कोई नहीं जनता कि देश को स्वतन्त्र कराने के लिए हम में से कौन जीवित बचेगा? परन्तु इतना निश्चित है कि हमारा संघर्ष रंग लायेगा। हमारा देश स्वतंत्र होगा परन्तु इसके लिए हमें सर्वात्मना समर्पित होना होगा।

    स्वतंत्रता का सेवक - सिंगापूर में जापान के जनरल तोजो उपस्थित थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा- मुझे विश्वास है कि सुभाषचन्द्र बोस स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति होंगे। जापान को भारत पर किसी राष्ट्रपति को लादने का अधिकार तो नहीं है, परन्तु हम इस महामानव को इस योग्य समझते हैं। सुभाषचंद्र बोस ने जनरल तोजो की इस बात का खण्डन करते हुए कहा था- स्वतंत्रता का सेवक मात्र हूँ। - कन्हैयालाल आर्य

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    Removal of Black Hall Memorial - British built a Black Hall Memorial to humiliate Indians. Subhash considered it an insult to the country and Indians. He organized an anti-compromise conference against the British. Although the British government arrested him again, but the fear of Subhash's influence, the Black Hall memorial was removed.

     

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  • स्वतंत्रता के महान योद्धा नेताजी सुभाषचंद्र बोस - ४

    तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा - जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज की स्थापना की। हिटलर से मिले। जर्मनी में 'भारतीय स्वतंत्रता संगठन' तथा 'आजाद हिंद रेडियो' की स्थापना की। जर्मनी से जापान पंहूचकर युवाओं का आह्वान करते हुए यह नारा दिया- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा' 'जय हिन्द' का नारा भी सुभाष की देंन थी।

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    सबको आकर्षित करने की कला - सुभाष जी केवल मेधावी छात्र रहे हों, अथवा उसमें केवल देशभक्ति ही रही हो, ऐसी बात नहीं थी वरन वह अनेक गुणों का साकार प्रतीक था। उसका चरित्र उस हीरे की भांति था जो किसी भी अग्निपरीक्षा में धूमिल नहीं पड़ता था। उसके आचरण में ऐसी गम्भीरता और संतुलन था जिससे कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। उसकी आकृति में ऐसा ओज तथा दृढ़ता थी कि लोगों को पल भर में आकर्षित कर लेती थी। 

    आजाद हिंद फौज का गीत -

    कदम-कदम बढ़ाये जो, ख़ुशी के गीत गाये जा।
    ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाये जा। 

    चलो दिल्ली पुकार के, कौमी निशां सम्भाल के।
    लालकिले पै गाड़ के, फहराये जा फहराये जा।

    यह वह गीत था जिसे सैनिक झूमते-झूमते गाते हुए राष्ट्र की वेदी पर बलिदान हो जाते थे। किन्तु आह! भारतीयों का दुर्भाग्य! देश का दुर्भाग्य! २३ अगस्त १९४५ को टोकियो रेडियो के निम्न समाचार ने भारतीयों पर वज्रपात कर दिया और पूरा विश्व स्तब्ध रह गया। 

    आजाद हिंद की अस्थायी सरकार के सर्वोच्च अधिकारी श्री सुभाषचंद्र बोस कर्नल हबीर्बुरहमान के साथ बैंकांक से टोकियो आ रहे थे......फारमोसा के निकट ताईहोक नामक स्थान पर उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसमे आग लग जाने के कारण नेताजी मृत्यु को प्राप्त हुए।

    इस समाचार को सुनकर सम्पूर्ण भारतीय एवं प्रवासी भारतीय शोकमग्न हो गये। अंग्रेज भी चकित रह गये। उनको इस समाचार पर पूर्ण विश्वास नहीं हो रहा था।वे यह समझ रहे थे कि यह समाचार केवल हम अंग्रेजों को भ्रमित करने के लिए दिया गया है। उनकी मृत्यु एक रहस्य बनकर रह गई। यदि वह सचमुच भारत की आजादी के बाद आ गये होते तो इस देश का इतिहास कुछ और ही होता। यदि वे देश राष्ट्रपति और सरदार पटेल देश के प्रधानमन्त्री बनते तो आज भारत विश्व का सिरमौर राष्ट्र होता परन्तु सभी आशायें धूमिल हो गई। सुभाष जी का कुछ पता न चला। उनकी मृत्यु पर परदा ही रह गया। आजादी के महान योद्धा के जीवन का अंतिम भाग रहस्यमय ही बन गया।

    अब इतना समय बीत गया है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की कहीं जीवित रहना असम्भव है फिर भी कभी भारत का इतिहास निष्पक्ष ढंग से लिखा गया तो श्री सुभाषचन्द्र बोस जी का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। स्वाधीनता के पुजारी, भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले त्याग और बलिदान की इस मूर्ति को शत-शत नमन। - कन्हैयालाल आर्य

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    Now so much time has passed that it is impossible for Netaji Subhash Chandra Bose to survive, yet if the history of India was written objectively, then the name of Shri Subhash Chandra Bose would be written in golden letters. Salute this statue of sacrifice and sacrifice for the freedom of Bharat Mata, the priest of freedom - Kanhaiyalal Arya

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  • स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज का योगदान

    सामान्य लोगों में यह भ्रान्त धारणा व्याप्त है कि अंग्रेजों से भारत को स्वाधीनता दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी ही है। कांग्रेस की स्थापना सन्‌ 1885 ई. में मि. एलन आक्टेवियन ह्यूम ने की थी। कांग्रेस में शामिल लोग प्रतिवर्ष इकट्ठे होकर अंग्रेजी शासन को वरदान मानकर इसको टिकाये रखने हेतु इसकी प्रशस्ति के प्रस्ताव पारित करते हुए केवल सरकारी नौकरी की मांग करते थे। प्रारम्भ में यह सामान्य भारतीयों की पार्टी भी नहीं थी। अंग्रेजी वेशभूषा में केवल अंग्रेजी बोलते हुए अंग्रेजों की शैली में सरकार को प्रतिनिधि मंडल भेजना इसका प्रमुख कार्य था। बंग भंग आन्दोलन के पश्चात्‌ 1906 ई. में लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस के मंच से "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का प्रसिद्ध नारा दिया। 1929 ई. में कांग्रेस ने 1 वर्ष में औपनिवेशिक शासन देने की मांग की और नहीं मिलने पर अन्तत: 1930 ई. में पूर्ण स्वाधीनता की मांग की गई। इसके विपरीत कांग्रेस के भी जन्म से 10 वर्ष पूर्व स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने धार्मिक समुदाय होते हुए भी क्रियात्मक रूप से भारत में स्वाधीनता आन्दोलन की नींव डाली। इसीलिए बिहार के भूतपूर्व राज्यपाल और भूतपूर्व लोकसभाध्यक्ष ने कहा था कि यदि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं तो स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं। उनके इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या

    Ved Katha Pravachan - 96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    महर्षि दयानन्द के जीवन काल में देश अंग्रेजी की दासता में जकड़ा हुआ था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए समय-समय पर भारतीयों ने सशस्त्र संघर्ष किये, जिनमें 1857 ई. का स्वाधीनता संघर्ष सबसे बड़ा था। इसे अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक दबा दिया था। 1857 ई. के स्वाधीनता आन्दोलन में स्वामी दयानन्द ने भाग लिया था या नही, इस पर पर्याप्त मतभेद है। पर यह निर्विवाद है कि 33 वर्षीय इस युवा साधु दयानन्द ने इसे अपनी आंखों से देखा था और इसका उनके भावी जीवन पर गहरा प्रभाव भी पड़ा था। 1857 ई. के स्वाधीनता संघर्ष की असफलता ने भारतीयों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया था। परिव्राजक के रूप में गंगा के तट पर भ्रमण करते हुए युवा दयानन्द ने एक महिला को अपने बच्चे के शव को नदी में चुपचाप छिपाकर बहाते हुए देखा। कफन को धोकर पुन: साड़ी के रूप में उसे पहनकर वह महिला विगलित नयनों में अश्रुकणों को संजोकर आगे बढी। पराधीनता से उत्पन्न निर्धनता का यह नग्नस्वरूप देखकर दयानन्द विचलित हो उठे। दयानन्द का मृत्युपर्यन्त का जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्होंने इस दृश्य को कभी नहीं भुलाया। उन्होंने 1875 ई. में आर्यसमाज की स्थापना की। स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज के बारे में श्री पट्‌टाभि सीतारम्मैया ने कांगे्रस के इतिहास में लिखा है:-"स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज अतीव उग्र राष्ट्रीय आन्दोलन था। यह महान्‌ आन्दोलन स्वामी जी की प्रेरणा से प्रादुर्भाव हुआ था और अपने देशभक्तिपूर्ण उत्साह में इसका स्वरूप आक्रमणात्मक था।"

    स्वामी दयानन्द पहले भारतीय थे जिन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में प्रथम बार स्वदेशी और स्वराज्य शब्द का प्रयोग करते हुए लिखा था:- "कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायी नहीं है।" कतिपय वेदमन्त्रों का अर्थ करते हुए महर्षि ने यह प्रार्थना भी की थी-"हे महाराजाधिराज परब्रह्म..... अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कदापि न हो तथा हम लोग कभी पराधीन न हों।" एक दूसरे वेदमन्त्र का अर्थ करते हुए उन्होंने कहा है:- "मनुष्यों को चाहिए कि पुरूषार्थ करने से पराधीनता छुड़ा के स्वाधीनता निरन्तर स्वीकार करें।" महर्षि ने इन विचारों का प्रतिपादन तब किया था जब कांग्रेस पैदा भी नहीं हुई थी।

    यूरोप में जो कार्य बेकन, दस्कार्ते, स्पिनोजा और वाल्तेयर ने किया वही कार्य भारत में महर्षि दयानन्द ने किया। महर्षि दयानन्द ने देश को जगाने का कार्य अद्‌भुुत रूप से किया। उनका कहना था कि भारतीयों को अंग्रेजों का अनुसरण करते हुए स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। सत्यार्थप्रकाश में अंग्रेजों के स्वदेश-प्रेम की उन्होंने मार्मिक शब्दों में प्रशंसा की है।

    लाहौर में आर्यसमाज ने सर्वप्रथम स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोली थी। 1879 ई. में एक प्रस्ताव पारित कर इसके सभी सदस्य स्वदेशी वस्तु का उपयोग करते थे। 1875 ई. में स्थापित पंजाब नेशनल बैंक के संस्थापकों में बहुसंख्यक आर्यसमाज के सदस्य थे। 1902 ई. में पंजाब नेशनल बैंक का पूर्ण स्वामित्व आर्यसमाजी सदस्यों के हाथों में चला गया था। स्वामी दयानन्द ने स्वदेशी का जिस रूप में प्रतिपादन किया था उसमें केवल स्वदेश में निर्मित वस्तुओं का प्रयोग ही अभिप्रेत नहीं था, अपितु स्वदेशी संस्कृति भी उसके अन्तर्गत थी।

    अत: आर्यसमाज के एक वर्ग ने जहॉं गुरुकुल आन्दोलन के अन्तर्गत लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक्‌-पृथक्‌ गुरुकुल खोले, वहॉं दूसरे वर्ग ने डी.ए.वी. आन्दोलन के रूप में यत्र-तत्र-सर्वत्र शिक्षण संस्थाओं का जाल बिछा दिया। स्त्रीशिक्षा के लिए भी सर्वत्र बालिका विद्यालय खोले गये।

    महात्मा गांधी की नेतृत्व में कांग्रेस शनै:-शनै: अहिंसात्मक रीति से देश को आजाद करानेवालों की संस्था के रूप में परिणत होती चली गई। यद्यपि आर्यसमाज संस्थागत रूप में प्रचलित सक्रिय राजनीति के पक्ष में नहीं है। फिर भी राजनीति में रुचि रखनेवाले आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गये। कांग्रेस में ऐसे लोगों का बहुमत था। स्वामी श्रद्धानन्द, आर्य संन्यासी भवानीदयाल और पंजाब केसरी लाला लाजपतराय प्रभृति लोग आर्यसमाज के आन्दोलन से जुड़े हुए थे।

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    भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में क्रान्तिकारियों के योगदान को विस्मृत करना घोर कृतघ्नता होगी। श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा क्रान्तिकारी आन्दोलन के जनक थे। ये स्वामी दयानन्द के प्रिय शिष्य थे। यूरोप में इन्होंने होमरूल सोसायटी की स्थापना की थी। उक्त सोसायटी द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयों को जो अंग्रेजों की नौकरी नहीं करने का वचन देते थे, उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर और लाला हरदयाल ने उक्त छात्रवृत्ति प्राप्त कर क्रान्तिकारी आन्दोलन को नई दिशा प्रदान की। भाई परमानन्द और श्री बालमुकुन्द जी लाला हरदयाल के साथी थे। शहीद भगतसिंह स्वयं व उनके पिता सरदार किशनसिंह और उनके चाचा अजीतसिंह सभी आर्यसमाज से प्रभावित थे। मदनलाल ढींगरा, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजा महेन्द्रप्रताप, पं. गेन्दालाल दीक्षित, मास्टर अमीरचन्द प्रभृति क्रान्तिकारी आर्यसमाज से जुड़े हुए थे। आजाद हिन्द फौज के जिन तीन सैनिक अधिकारियों पर मुकदमा चलाया था उनमें श्री सहगल जी आर्यसमाजी परिवार के थे। आर्यसमाज ने आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा चलाने का भी विरोध किया था। लेखक-दयाराम पोद्दार

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    There is a misconception among the common people that it is the Congress party that has given India independence from the British. The Congress was founded in 1885 AD by Mr. Alan Octavian Hume. The people involved in the Congress gathered every year as a boon and passed a resolution praising it for keeping it as a boon and only demanded a government job. Its main function was to send a government delegation in English costumes in the style of British speaking English only.

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  • स्वतन्त्रता प्राप्ति में आर्य समाज का योगदान

    अंग्रेजों के आधीन पराधीन भारत को स्वतन्त्र कराने में आर्य समाज का अमूल्य और अकथनीय योगदान रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले श्री पट्‌टाभिसीतारमैया ने कांग्रेस के इतिहास में लिखा है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वालों में 80 प्रतिशत आर्य समाजी ही आन्दोलनकारी थे। इसी से आर्य समाज द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु किये गये संघर्ष का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्य समाज को स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा एवं स्वसंस्कृति से कितना लगाव था और है । हो भी क्यों न क्योंकि आर्यसमाज का जन्म भी इसीलिए हुआ था।

    स्वतन्त्रता महामन्त्र के दाता, युग प्रवर्तक तथा "स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है" को भारत भू पर घोषणा करने वाले तिलक को स्वतन्त्रता की प्रेरणा देने वाले युग पुरुष आचार्य प्रवर देव दयानन्द स्वदेश, स्वतन्त्रता, स्वराज्य एवं नागरी भाषा तथा वैदिक संस्कृति के प्रबल एवं सर्वप्रथम समर्थकों में अग्रगण्य हैं। कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही ऋषि ने अपनी महान रचना "सत्यार्थ प्रकाश" में लिखा कि कोई कितना ही यत्न करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य माता-पिता के समान कृपा, न्याय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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    Ved Katha Pravachan - 95 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय इस अभियोग का साक्षी हैं कि स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाली तथा आर्यो के सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की प्रार्थना करने वाली ऋषि की अमर अक्षय रचना "आर्याभिविनय" से तत्कालीन अंग्रेजों में भय व्याप्त हो गया। अत: कुटिल अंग्रेजों ने इस पुस्तक पर अभियोग चलाया, पर ऋषि दयानन्द अपने कण्टकाकीर्ण मार्ग से विचलित नहीं हुए। ऋषि ने पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा कों इंग्लैण्ड जाकर स्वतन्त्रता हेतु कार्य करने की प्रेरणा दी थी तथा पं. श्याम जी ने इंग्लैण्ड जाकर इण्डिया हाउस की स्थापना की और इसी के माध्यम से भारतीय विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता का बीजारोपण किया। फलस्वरूप सावरकर, ढींगरा जैसे एक नहीं अनेक क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने पराधीनता के प्रबल पाशों में जकड़ी हुई मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का आजन्म व्रत धारण कर अपने तुच्छ सुखों का परित्याग कर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया।

    इधर भारत में ऋषि की महान रचनाओं का जिनमें स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा, स्वाधीनता तथा स्वसंस्कृति की सर्वत्र चर्चा थी, सम्पूर्ण भारत में असर बढा। फलस्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ। इन क्रान्तिकारियों के क्रिया-कलापों से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गयीं। अंग्रेज इनसे अत्यन्त भयभीत हो गए और उन्हें जमे हुए अंगद के पांव उखड़ते नजर आए।

    उस समय स्वामी दयानन्द के अकाट्‌य तर्कों तथा उनकी जादू भरी वाणी से मुन्शीराम जो कि अपने को बड़ा तार्किक मानते थे की वाणी ही न जाने कहॉं खो गयी । ऋषि का उन पर ऐसा जादू चला कि पंडित मुन्शीराम पहले स्वयं पावन और फिर पतित पावन बन गए और फिर देखते-देखते महात्मा से स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। स्वामी दयानन्द सरस्वती से ही प्रेरणा प्राप्त कर मुन्शीराम जी ने गुरुकुल खोला और वहॉं पर प्राचीन आर्य शिक्षा प्रणाली पर आधारित शिक्षा देने लगे। इसी शिक्षा के साथ उन विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता की भावना भी भरने लगे। स्वामी श्रद्धानन्द जी स्वयं स्वतन्त्रता हेतु कांग्रेस में सम्मिलित हो गए और इसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।

    जलियॉंवाला बाग के निरीह निहत्थे, निरपराधियों के प्रमुख हत्यारे जनरल डायर के इस अमानवीयता पूर्ण नरसंहार रूपी दुष्कृत्य को देखकर कोई भी कांग्रेसी पंजाब में होने वाले अधिवेशन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर यमराज को आमन्त्रण देना नहीं चाहता था। कांग्रेस का मनोबल पूर्णत: गिर चुका था। ऐसे समय में निर्भीक श्रद्धानन्द ने ही सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार कर सबको आश्चर्य चकित ही नहीं कर दिया, अपितु अपने पौरुष का परिचय भी दिया था। यह बात अलग है कि मुस्लिमों को पूर्णत: सन्तुष्ट रखने का प्रयास करने वाली कांग्रेस पार्टी से उनका सम्बन्ध अधिक दिनों तक न बना रह सका, तथापि स्वामी जी ने जो अविस्मरणीय कार्य देश की स्वतन्त्रता हेतु किए वह स्वर्णाक्षरों में लेखनीय हैं। गुरुकुल से स्वतन्त्रता की घुट्‌टी पाने के उपरान्त शिक्षित दीक्षित स्नातकों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति में अपना अमूल्य एवं अकथनीय योगदान दिया।

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    स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन में एक नहीं अनेकों उदाहरण ऐसे मिलने हैं कि जिनमें स्वामी जी ने अंग्रेजों के राज्य का सर्वथा विरोध किया है। निर्भीक दयानन्द परमपिता परमात्मा के सिवा अन्य किसी से भय नहीं खाते थे। तभी तो एक अंग्रेज अधिकारी के यह कहने पर कि "आप अंग्रेजों के अखण्ड राज्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें" स्वामी जी ने जिस निर्भीकता से प्रत्युत्तर दिया था, उसे सुनकर उस अधिकारी ने उन्हें विद्रोही फकीर की संज्ञा दी थी।

    स्वामी जी ने भूमिगत रहकर अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों को जो कि सुप्रसिद्ध 1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात अंग्रेजों के दमनचक्र से पूर्णत: हताश निराश हो चुके थे, को प्रोत्साहित कर मातृभूमि को मुक्त कराने की प्रेरणा दी थी। तत्कालीन राजवाड़ों में जाकर राजाओं को भी इस पुण्य कार्य में सहयोग देने की प्रेरणा की। जहॉं-जहॉं स्वामी जी गए वहॉं-वहॉं सुप्त प्राय: पराधीन देशवासियों में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। परिणामस्वरूप चतुर्दिक्‌ से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की प्रतिक्रिया तीव्र हो गई। इधर सुराजप्रिय कांग्रेस पार्टी का उदय हुआ। पश्चात इसकी विचारधारा में परिवर्तन हुआ और यह स्वराज्य के लिए संघर्ष करने लगी।

    आज इतिहास इन सब तथ्यों को नहीं बताता। स्वतन्त्रता प्राप्ति में कांग्रेस का ही सर्वाधिक योगदान इतिहास में उद्‌धृत है और यही हमारे नौ-निहालों को पढाया भी जाता है कि यदि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू न होते तो शायद स्वतन्त्रता कभी न मिलती। हमारा अभिप्राय यहॉं यह लेशमात्र भी नहीं है कि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू का स्वतन्त्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं है। इनका भी बहुत योगदान है, परन्तु आज आर्य समाज का उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नगण्य है। "जो जाति अपने इतिहास को भुला देती है,वह पूर्णत: नष्ट होती है" अत: अपने इतिहास को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। यही उन ज्ञात-अज्ञात मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने वाले सेनानियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेखक - ब्रह्मानन्द आजाद 
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    The Arya Samaj has played an invaluable and inexplicable contribution in making India independent under the British. Mr. Patababhisitaramaiya, who wrote the history of the Indian National Congress, has written in the history of the Congress that 80 percent of the Arya Samajis were the activists among the participants in the freedom movement. From this, it can be easily estimated that the Arya Samaj's struggle for independence, and how much the Arya Samaj was and is attached to indigenous, self-government, self-language and self-culture. Why not because Arya Samaj was also born for this reason.

     

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  • स्वयं समझो कि क्या करना है

    प्रेरक-प्रसंग

    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन कर रहे थे, तब उन्हें अपने कार्यालय में एक निजी सहायक की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए उन्होंने आवेदन पत्र मंगाये। उनमें से दस बारह लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। 

    कमरे के दरवाजे और नेताजी की मेज़ के बीच में एक मोटी पुस्तक फर्श पर खुली पड़ी थी। साक्षात्कार के लिए उम्मीदवार एक-एक करके आते गये। सभी ने उस पुस्तक को पड़े देखा। वे उससे बचकर मेज़ की ओर बढ़ गये। नेताजी से उनके प्रश्नोत्तर हुए और वे वापस लौट गये। लौटते समय भी उन्होंने उस पुस्तक को देखा, परन्तु कुछ किया नहीं। 

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    समस्त दुःखों के निवारण की प्रार्थना

    Ved Katha Pravachan _73 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक प्रौढ़ उम्मीदवार ने कमरे में प्रवेश करते ही उस पुस्तक को फर्श पर पड़े देखा, तो उसने नेताजी से पूछा- "'यह पुस्तक फर्श पर पड़ी है। क्या मैं इसे उठाकर आपकी मेज़ पर रख दूँ।'' 

    नेताजी ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और उसने पुस्तक को उठाकर नेता जी की मेज़ पर संवार कर ठीक ढंग से रख दिया। नेता जी ने उससे बिना कोई प्रश्नोत्तर किये उसे वापस लौटा दिया। 

    वह कुछ निराश सा होकर बाहर निकला। परन्तु कुछ ही मिनट बाद उम्मीदवारों को सूचित किया गया कि उसी व्यक्ति को नियुक्ति के लिए चुना गया है। 

    बाद में नेताजी ने बताया कि मुझे ऐसे सहायक की आवश्यकता थी, जो काम में मेरी सहायता करे। इतने लोगों में वही एक मुझे ऐसा लगा, जो खुद यह समझ सकता था कि उसे क्या करना चाहिए।

    गान्धी जी की निर्भीकता

    बिहार के चम्पारण जिले में गोरे मालिकों के हाथों खेतिहार मजदूरों को तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही थीं। गान्धी जी ने वहॉं जाकर उनकी दुःखद स्थिति की जांच की। किसी ने गान्धी जी से कहा कि इस इलाके का गोरा मालिक बड़ा खराब आदमी है। उसने आपको खत्म करवाने के लिए कई हत्यारों को तैनात कर रखा है। 

    यह सुनकर गान्धी जी उसी रात को अकेले ही गोरे की कोठी पर पहुंच गए। गोरे ने पूछा- "मिस्टर गान्धी! आप और यहॉं, इतनी रात गए?'' गान्धी जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- "मैंने सुना है कि आपने मुझे मारने के लिए कुछ लोगों को किराए पर रख छोड़ा है। आप इतनी परेशानी क्यों उठाएं? इसलिए में खुद ही अकेले आपके पास चला आया, ताकि आप अपनी इच्छा पूरी कर सकें।"

    बेचारा गोरा गान्धी जी की निर्भीकता देखकर दंग रह गया और माफी मांगने लगा।

    कृतज्ञता

    किसी के उपकार को मानना कृतज्ञता है। यह एक दिव्य गुण है। जबकि किसी के उपकार को न मानना कृतघ्नता है। यह पाप है। हमारे इतिहास में अनेक ऐसे प्रेरक उदाहरण हैं, जो हमें इस ओर सचेष्ट करते हैं कि हमें जीवन में कृतज्ञता जैसे पुण्य को अवश्य अर्जित करना चाहिए। 

    भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र उन उच्चकोटि के प्रसिद्ध साहित्यकारों में थे, जिनकी विशेषताओं के कारण उनके समय को भारतेन्दु युग की संज्ञा दी जाती है। वे असीम उदार थे। अपनी उदारता के कारण वे धनाभाव से ग्रस्त रहते थे। एक समय इनके पास ऐसा भी आया कि जब इनके पास इतने भी पैसे न थे कि बाहर से आए पत्रों का उत्तर भी भेज सकें। पत्रों के उत्तर तो लिखते थे, किन्तु डाक में तो तभी भेजे जाएं, जब उन पर यथोचित डाक टिकट लगेहुए हों। किन्तु इसके लिए पैसे कहॉं थे? परिणाम यह हुआ कि पत्र के उत्तरों का ढेर जमा हो गया। उनके एक मित्र ने जब यह देखा तो द्रवित हुआ और पांच रुपये के डाक टिकट लाकर दिए। तब वे पत्र डाक में डाले गए। 

    समय बदलता रहता है। भारतेन्दु जी का आर्थिक अभाव टल गया। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी। अब जब भी वह मित्र मिलते, तभी भारतेन्दु जी बलपूर्वक उनकी जेब में पॉंच रुपये डाल देते और कहते ""आपको याद नहीं, आपके पॉंच रुपए मुझ पर ऋण हैं।'' मित्र इनके इस व्यवहार से तंग आ गया और एक दिन उनसे कहा- '"मुझे अब आपसे मिलना बन्द करना पड़ेगा।'' 

    भारतेन्दु जी की आँखों में आँसू भर आए  और वे रुन्धे कण्ठ से बोले- ""भाई! तुमने ऐसे समय में मुझे पॉंच रुपए दिए थे कि मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। मैं तुम्हें यदि पॉंच रुपये प्रतिदिन देता रहूँ, तो भी तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता।'' 

    बात साधारण सी है। किन्तु कृतज्ञता के भाव को गम्भीरता से प्रकट करती है। प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Time varies. Bhartendu Ji's economic absence was averted. Their economic condition improved. Now whenever that friend met, Bharatendu ji would forcefully put five rupees in his pocket and say "" You don't remember, your five rupees are a loan to me. "The friend got fed up with this behavior and told him one day- "I have to stop meeting you now."

     

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  • स्वस्थ जीवन के लिए उपयोगी बातें

    आदत बनाएँ- सुबह बिस्तर से उठने के बाद पालथी मारकर बैठें और 1-3 गिलास गुनगुना या ठण्डा पानी पिएं। दो-दो घण्टे के अन्तराल पर दिन में कम से कम 8 से 10 गिलास पानी पिएं।

    महत्वपूर्ण कारक- लम्बी सांस लें और कमर सदैव सीधी रखें। दिन में दो बार मल त्याग की आदत डालें। दिन में दो बार ठण्डे या गुनगुने पानी से स्नान करें। दिन में दो बार सुबह और शाम प्रार्थना एवं ध्यान करेंं।

    विश्राम- भोजन करने के बाद मूत्र त्याग करें और 5 से 15 मिनट तक वज्रासन की मुद्रा में बैठें।सख्त या मध्यम स्तर के बिस्तर पर सोएं और पतला तकिया लगाएं। सोते समय अपनी चिन्ताओं को भूल जाएं और अपने शरीर को ढीला छोड़ दें। पीठ के बल या दाहिनी और करवट लेकर सोने की आदत डालें। भोजन और सोने के बीच दो घण्टे का अन्तर रखें।

    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    व्यायाम- प्रतिदिन सुबह आधा घण्टे तक तेज सैर या जॉगिंग करें अथवा आसन-प्राणायाम/सूर्य नमस्कार करें अथवा बागवानी करें या कोई खेल खेलें अथवा तैराकी करें।

    भोजन- भोजन अच्छी तरह चबाकर धीरे-धीरे और शान्तिपूर्वक करें। अपनी भूख के मुताबिक भोजन करेंलेकिन अपना तीन-चौथाई पेट ही भरें। दिन में 7 घण्टे के अन्तर से केवल दो बार ही भोजन करें। सुबह नाश्ते में अंकुरित अन्न अथवा रात भर भिगोए हुए मेवे प्रयोग में लें।

    भोजन का एक भाग अनाज एवं एक भाग सब्जियों का रखें। पके हुए एवं कच्चे भोजन को साथ न मिलाएं। असंतृप्त वसायुक्त शुद्ध तेलों का ही प्रयोग करें और वह भी अल्प मात्रा में।

    कच्चे भोजन में अंकुरित अन्नताजी और पत्तेदार सब्जियॉंमौसम के फलसलादरसचटनीनींबूशहद का उपयोग करें। पके हुए भोजन में चोकर समेत आटाबिना पॉलिश किया चावल और दलिए का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन और सूप को प्राथमिकता दें। भोजन करने के बाद 15-20 मिनट तक टहलें।

    कम करें- नमकमिठाइयॉंमसालेमिर्चआइस्क्रीमपकाया हुआ भोजनआलू और गिरीदार चीजें कम मात्रा में लें।

    ऊँची एडी के जूतेकठिन व्यायाम और टी.वी. एवं फिल्मों से बचें। धूम्रपानमदिरानशीली दवाएँसॉफ्टडिंरक्सतम्बाकूजर्दाचायकॉफी एवं बुरे व्यसनों से बचें।

    अभ्यास करें- दिन में एक बार नमक मिले गुनगुने पानी से गरारे कीजिए। अपनी आँखों को स्वस्थ व इनकी चमक बनाए रखने के लिए प्रतिदिन सुबह व शाम इन्हें त्रिफला के पानी से धो लीजिए।

    सप्ताह में एक बार वमनधौति (कुंजल/वमन) कीजिए। कब्ज होने पर एनिमा लीजिए। सप्ताह में एक बार मालिश और धूप स्नान लीजिए। प्रतिदिन तालू की हल्की मालिश कीजिए। प्रतिदिन दो बार माथे व आँखों पर पानी छींटिए और मुँह में पानी भरकर रखते हुए थूक दीजिए। प्रतिदिन थोड़ी देर तक हॅंसिए और गाना गाइए।

    सावधानी बरतें- काटने से पहले सब्जियों व फलों को अच्छी तरह धोइए। क्योंकि इन पर कीटनाशक और अन्य दूषित तत्व लगे होते हैं। जहॉं तक संभव हो सकेफलों व सब्जियों को छिलके समेत खाइए। टी.वी. देखते समय समुचित दूरी पर बैठिए। -रामचन्द्र वैष्णव

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    स्वस्थ जीवन चाहने वालों के लिए आवश्यक सन्देश

    1. प्रातः सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व उठें। अच्छी तरह दॉंत और जीभ साफ करके एक या दो गिलास ताजा पानी पीयें और कुछ देर बाद शौच इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत्त हों। आँखों पर शीतल जल छिटकें।

    2. किसी खुले और स्वच्छ स्थान पर जाकर व्यायाम करें। व्यायाम में टहलनादौड़नाभिन्न-भिन्न प्रकार की कसरत और योगाभ्यास इत्यादि सम्मिलित हैं।

    3. स्नान करने से पूर्व तेल की मालिश करलें तो अत्यधिक लाभ होगा।

    4. नित्य ठण्डे जल से खूब मल-मलकर स्नान करें।

    5. स्नान के पश्चात्‌ कुछ समय स्वाध्याय करें। जीवनोपयोगी उत्तम पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं का पठन-पाठन करें।

    6. भोजन के साथ पानी पीएं। भोजन के आधा घण्टा पूर्व एक या दो घण्टे पश्चात्‌ पानी पीएं।

    7. भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व अच्छी तरह हाथ-पैर धोएँ।

    8. भोजन नियत समय पर करें। बार-बार न खाएं। दो भोजनों के मध्य कम से कम पॉंच घण्टे का अन्तर होना चाहिए। प्रातः भोजन के पश्चात्‌ एक गिलास छाछ (मट्ठा) पीना स्वास्थ्यवर्द्धक है।

    9. भोजन बिना किसी तनाव के प्रसन्नता के साथ करें और अच्छा चबाकर करें।

    10. भोजन सादा और प्रामाणिक रूप से बनाया हुआ होजिसमें पोषक तत्व नष्ट न हुए हों।भोजन हल्का और पौष्टिक करें। यह सन्तुलित होना चाहिए। भोजन बढ़ती हुई अवस्था में कम मात्रा में करना चाहिये।

    11. भोजन के साथ फल और हरी तरकारियॉं प्रचुर मात्रा में खानी चाहिये।

    12. भोजन के साथ दहीअदरकनीम्बूटमाटर का सेवन किसी न किसी रूप से जुड़ा हुआ रखें।

    13.नित्य प्रतिदिन दाल या सब्जी में हींग का प्रयोग अवश्य करें।

    14.फलों का सलाद भोजन के साथ लें।

    15. भोजन के साथ नमक की मात्रा और गरम मसालों की मात्रा अधिक नहीं होना चाहिए।

    16. आंवलानीम्बूहरड़ का नित्य प्रतिदिन सेवन किसी न किसी रूप में अवश्य करें।

    17. भोजन के पश्चात्‌ अवश्य कुछ देर विश्राम करें और कोई भारी परिश्रम का कार्य न करें।

    18. अपने कार्य को नियत समय पर समाप्त करने का प्रयत्न करेंजिससे दूसरे कामों में गड़बड़ी न हो।

    19. दिन भर में इतना काम अवश्य करेंजिससे शाम को कुछ थकावट अनुभव होने लगे। इससे बड़ी मजेदार और मीठी नीन्द आयेगी। परिश्रम करने के पश्चात्‌ थककर सोनायोग-निद्रा के समान है।

    20. शाम का भोजन कुछ हल्का रखें और सोने से कम से कम तीन घण्टे पूर्व भोजन कर लिया करें। भोजन सूर्यास्त के पूर्व ही करना चाहिये।

    21. शाम को भोजन के बाद कुछ देर खुली हवा में अवश्य टहलें।

    22. वस्त्र अधिक कसे हुए न पहनें।

    23. इच्छा शक्ति के साथ अपना कार्य करें।

    24. विचारों को शुद्ध रखें। दिन में काफी हॅंसें और सदा प्रसन्न चित्त रहने का प्रयत्न करें।

    25. रात को सोने से पहले एक गिलास गर्म दूध पीएं और नौ से दस बजे तक सो जायें।

    26. रात को सोते समय हाथपैरमुँह धोना न भूलें।

    27. संयमहीन स्त्री-पुरुषों का जीवन अशान्त तथा गया-बीता समझें। डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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    Food- chew food properly and slowly and calmly. Eat according to your hunger, but only fill three-fourths of your stomach. Eat only twice at a time of 7 hours. Use sprouted grains in breakfast in the morning or dry fruits soaked overnight.

     

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  • स्वाधीनता आन्दोलन और आर्य समाज

    आर्य समाज के प्रवर्तक, युगनिर्माता, वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक, भारतीय संस्कृति के संवाहक, महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम राष्ट्र निर्माताओं में सदैव आदरपूर्वक लिया जाएगा। महर्षि दयानन्द ने आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जागृति का शंखनाद तो फूंका ही था, उन्होंने देशवासियों को स्वराज्य के महत्त्व से भी अवगत कराया था। उस समय की राजनैतिक दासता की स्थिति से उनका हृदय विह्वल था। उन्होंने अपने महान ग्रंथ "सत्यार्थप्रकाश" के आठवें समुल्लास में लिखा है- "अब अभाग्योदय से और आर्यो के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाकान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय औय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

  • स्वामी दयानन्द एवं साम्यवाद

    ऋषि राज तेज तेरा चहुं ओर छा रहा है।
    तेरे बताए पथ पर संसार चल रहा है।।

    उपरोक्त पंक्तियों से ऋषि दयानन्द द्वारा मण्डित वैदिक सनातन धर्म की व्यापकता एवं लोगों के उसके अनुगमन पर प्रकाश पड़ता है। लेकिन अभी भी आशातीत रूप में सफलता हासिल नहीं हो सकी है। स्वामी जी का वैदिक धर्म के प्रति अटूट विश्वास, निष्ठा एवं धर्मानुचरण अनुकरणीय था। वैदिक धर्म के अनुशीलन एवं अनुकरण से ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। स्वामी जी ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं वेद की शिक्षाओं तथा आर्य संस्कृति पर पड़ रहे विजातियों के प्रभावों को बहुत ही नजदीक से समझा, परखा एवं आत्मसात्‌ किया था। यही कारण है कि उनकी शिक्षाएं आए दिन की अग्नि परीक्षाओं में कुन्दन-सी दमकती रही। उनके कटु सत्य से ढोल ढकोसला वाले लोग विचलित हो उठे। यद्यपि उनकी शिक्षाएं मानव मात्र के लिए थी, किसी सम्प्रदाय या धर्म विशेष के लिए नहीं थी।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -1

    Ved Katha Pravachan -5 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जहॉं स्वामी जी की सत्य ज्ञान गंगा में बहुत लोगों ने अवगाहन किया और अपनी जीवन धारा को ही बदल डालावहीं कुछ ऐसे नासमझ लोग भी थे जिन लोगों ने न स्वामी जी को समझा और न वेद की शिक्षा को। फलस्वरूप लोग वेद से अलग हो गये। सदज्ञान से वंचित रह गए। जो चीज उनके ज्ञान की स्रोत थी उसी चीज से विरक्ति हो गई। जो उनके लिए अमृत लाया था वही उनको कुपथमार्गी दिखने लगा। कवि ने कहा-

    पिलाया जहर का प्याला इन्हीं नादान लोगों ने।
    जिनके लिए अमृत का प्याला ले के आये थे।

    इसका दुष्परिणाम यह निकला कि जिसे लोगों ने ज्ञान समझ रखा था वह अज्ञान साबित हुआ। जिस नींव पर अपने ज्ञान का महल खड़ा किया था वह महल ही धाराशायी हो गया। भौतिक जगत की चमक दमक मन को चैन एवं शान्ति प्रदान नहीं कर सकी। आज न चैन धनवान को हैन बलवान को है और न रूपवान को। धन वाले अलग दुखी हैंनिर्धन अलग। वेद विहित मार्ग पर नहीं चलने से चैन किसी को नहीं है और न था। अगर कहीं सुख दिखाई भी दिया तो वह क्षणिक था।  

    हर युग और समय की अपनी समस्याएं होती हैं। राम के सामने समस्या थी रावण पर विजय और कृष्ण के सामने पाण्डवों को राज्य प्राप्त करानेकी। स्वामी जी के सामने कुछ और ही समस्या थी। स्वामी जी के सामने तो एक रावण या एक कौरव कुल नहींहजारों रावण एवं हजारों कौरव कुल थे। उनकी समस्या थी वेदों का प्रचारछुआछूत का अन्तढोंग पाखण्ड का खण्डन एवं स्वराज्य प्राप्ति। लोगों में व्याप्त अनास्था को आस्था में बदलना कोई सरल काम नहीं था। यह समुद्र मन्थन से भी कठिन काम था। जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व होम किया वही उन्हें दुश्मन समझते थे।

    प्राच्य संस्कृति के धर्मअर्थकाम एवं मोक्ष के महत्व और गहनता से अनभिज्ञ कुछ पाश्चात्य विचारकों ने अर्थ को ही जीवन के सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थ प्राप्ति ही माना जाने लगा। आर्थिक समानता के नाम पर नये ढंग से शोषण का सूत्रपात हुआ। साम्यवाद की शिक्षा कहती है कि पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण होता है। लेकिन उनकी व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का शोषण होता है। इस चीज को नजर अन्दाज कर दिया गया। साम्यवादी समानता मात्र आर्थिक समानता तक ही सीमित लगती है।साथ ही मानवीय जीवन के अन्य आदर्श अछूते लगते हैं।

    वैदिक समानता का सिद्धान्त अपने आप में निराला है। सभी मानवों के लिए वेदों के ज्ञान ग्रहण की समानता उत्कृष्टतम व्यवस्था का प्रतीक है। साथ ही धनोपार्जन के लिये संयमित प्रयास की आवश्यकतासाधन की पवित्रता एवं साध्य की उत्कृष्टता सम्बन्धी वैदिक सन्देश व्यवस्था वह व्यवस्था है जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक के मानवीय व्यवहार को व्यवस्थित करने का प्रावधान है। आचार शुद्धि के बाद ही आर्थिक समानता का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव है।

    स्वामी जी के आदर्शों एवं पवित्र निर्देशों के अनुरूप अगर चला जाये तो निस्सन्देह वसुधैव कुटुम्बकम्‌ हो सकता है। लेकिन आज भौतिकवादी चकाचौंध में भूलकर मानव ने अपना स्वरूप ही खो दिया है। आये दिन हो रहे युद्धआतंक और विश्व में हुए व्यवस्था परिवर्तन नि:सन्देह आधुनिक युग में मानव सुख प्राप्ति के लिए हो रहे प्रयास की असफलता की कहानी है। काश !  आज का मानव पुन: एक बार ऋषि के त्याग एवं तपस्या के महत्व को समझ पाता। जिन मूल्यों के लिए उन्होंने अपना बलिदान कियाउन मूल्यों को मानव अपने जीवन का आदर्श बना पाता तो महर्षि का परिश्रम बहुत अंश में आर्थक होता।

    सुख चैन चाहते हो तो वेद को देखो।
    आनन्द चाहते हो तो दयानन्द को देखो।।-रामचन्द्र सिंह क्रान्तिकारी

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  • स्वामी विरजानन्द दण्डी -2

    आदर्श शिष्य द्वारा गुरु सेवा- गुरु-शिष्य सम्बन्ध का यहॉं उल्लेख करना आवश्यक है। दण्डी ऋषि सुष्टु स्वभाव के होते हुए भी वृद्धवस्था के कारण कुछ तीक्ष्ण और क्रोधी वृत्ति के थे। इसके विपरीत दयानन्द अत्यन्त विनम्र, अध्ययनशीन, आज्ञाकारी और गुरु चरणों में अविचल श्रद्धा रखने वाले थे। दण्डी जी शीघ्र ही यह भांप गये थे कि दयानन्द उनके अन्य शिष्यों की तुलना में विशिष्ट और कुछ असाधारण गुणों का पुंज है। दण्डी जी बारहों महीने यमुना नदी के मध्यवर्ती जलधारा से स्नान और उसी का पान करने के अभ्यासी थे। दण्डी जी की सेवा का यह व्रत दयानन्द ने स्वयं ही अपनी इच्छा से सहर्ष स्वीकार किया। लगभग 3 वर्ष तक के अपने शिक्षाकाल में दयानन्द प्रतिदिन भोर बेला में बिना सर्दी-गर्मी, बरसात, आन्धी की परवाह किए यमुना जल के लगभग 15 घड़ों से गुरु जी को स्नान कराते और उनके लिए पेय जल लाते।

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    सविता का सच्चा स्वरूप।

    Ved Katha Pravachan _71 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    गुरु जी का प्रकोप शिष्य द्वारा सेवा पूर्ववत्‌- दण्डी जी के निवास स्थान को दयानन्द प्रतिदिन झाडू देकर साफ करते थे। एक दिन कूड़ा उठाकर उन्होंने कमरे के एक कोने में रख दिया और उसे बाहर उठाकर ले जाने के लिए कुछ चीज खोजने लगे। इतने में गुरु जी टहलते हुए उधर आ निकले। उनका पांव कूड़े पर पड़ गया। अत्यन्त क्रोधावेश में आ गये और स्वामी दयानन्द पर लाठी का प्रहार कर दिया और कठोर वचन भी कहे। स्वामी जी ने गुरु के इस दण्ड को सहर्ष अंगीकार किया। यद्यपि इस मामले में वे दोषी नहीं थे। जिस समय गुरु जी शान्त हुए तो स्वामी दयानन्द ने उनके चरणों और शरीर को श्रद्धा से सहलाना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि "गुरुवर ! मैं तो युवा हूँ पर आप वृद्ध हैं। आपका दण्ड तो मेरे लिए अमृतवत्‌ है। मेरा शरीर कठोर है, पर आपके वृद्ध, जर्जरित अस्थिमात्र शरीर में पीड़ा हो गई होगी, इसलिए मैं मालिश से उसे दूर करता हूँ।" गुरु अपने शिष्य की इस सेवा भावना से गदगद्‌ हो गये। इसी का यह परिणाम था कि गुरु-शिष्य का कई घण्टों तक प्राय: एकान्त में वार्तालाप होता था। निश्चिय ही गुरु जी को यह दृढ विश्वास हो गया था कि दयानन्द शिष्य सामान्य व्यक्ति नहीं है, किन्तु भारत का एक अनोखा रत्न है।

    गुरु से विदाई : गुरु दक्षिणा- लगभग 3 वर्ष तक दण्डी जी के चरणों में अन्तेवासी के रूप में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अब शिष्य दयानन्द की विदाई का समय आ गया। स्वामी दयानन्द की प्रबल इच्छा थी कि गुरु जी से प्राप्त शिक्षा को कार्यान्वित करने के लिये देशाटन करूं। पर खाली हाथ गुरु जी से विदा होना भारतीय परम्परा के विरुद्ध था। दयानन्द अत्यन्त विनम्रभाव से कुछ लौंग लेकर गुरुचरणों में उपस्थित हुए और बोले, "भगवन्‌! आपने विद्यादान कर मुझ पर जो उपकार किये हैं, उनसे मैं आजन्म उऋण नहीं हो सकता। पर अपनी हार्दिक श्रद्धा के प्रतीक ये कुछ लौंग आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं।" दण्डी जी ने स्मितहास्य के साथ कहा, "वत्स! मैं पार्थिव वस्तु की यह दक्षिणा नहीं चाहता। मैं अन्य वस्तु तुम से मांगता हूं और वह तुम्हारे पास है। तुम्हें कहीं से लानी नहीं पड़ेगी।" दयानन्द ने निवेदन किया, "गुरुदेव! मैं पूर्ण रूप से आपके चरणों में समर्पित हूँ। आज जो आदेश करेंगे, मैं उसे आजीवन निभाऊगां।" गुरु ने कहा, "मैं तुमसे यही दक्षिणा मांगता हूँ कि तुम आजीवन आर्ष ग्रन्थों का प्रचार और अनार्ष ग्रन्थों का खण्डन करते हुए वैदिक धर्म की स्थापना हेतु अपना प्राण तक अगर न्यौछावर करना पड़े तो तुम संकोच नहीं करोगे।" ऋषि दयानन्द ने गुरुदेव के श्रीचरणों को स्पर्श करते हुए कहा, "आपका शिष्य आपके इस आदेश का प्राणपन से पालन करेगा।" गुरुदेव ने अपने स्नेहमय कर कमलों से दयानन्द के सिर पर हाथ फेरते हुए हार्दिक आर्शीवाद दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य का भौतिक सम्बन्ध तो समाप्त हुआ, पर आत्मिक सम्बन्ध आजीवन अटूट रहा।

    ऋषि दयानन्द ने अपने समस्त ग्रन्थों में अपने आपको "विरजानन्द दण्डी शिष्य" इन शब्दों से गौरवान्वित करते हुए अपने आचार्य वर की पुण्यस्मृति को दैदीप्यमान रखा।

    दण्डी जी का स्वर्गवास- दण्डी विरजानन्द का स्वर्गवास लगभग 82 वर्ष की आयु में सम्वत्‌ 1925 आश्विन वदी त्रयोदशी सोमवार (तद्‌नुसार 14 सितम्बर 1868) को हुआ। ऋषिवर दयानन्द ने इस दु:खद समाचार को सुन कर कहा "आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।"

    इस वीतराग संन्यासी की पुण्य स्मृति में आर्यसमाज की ओर से करतारपुर में "श्री विरजानन्द स्मारक भवन" स्थापित किया गया है। 14 सितम्बर 1970 को भारत सरकार द्वारा दण्डी जी की पुण्य स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया। जब देश में दण्डी विरजानन्द जी जैसे गुरु और स्वामी दयानन्द जैसे शिष्य होंगे तभी देश का कल्याण होगा। - दीनानाथ सिद्धान्तालंकार

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    In honor of this saintly ascetic, "Sri Virjanand Smarak Bhawan" has been established in Kartarpur on behalf of Aryasamaj. On September 14, 1970, the postal stamp was issued by the Government of India in honor of Dandi Ji. When there will be a guru like Dandi Virjanandji and a disciple like Swami Dayanand in the country, then the country will be well-being. - Dinanath Siddhantalankar

     

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  • हिन्दू और आर्य तथा स्वामी दयानन्द

    बहुधा एक प्रश्न उलझा हुआ प्रतीत होता है कि आर्य समाज और हिन्दू धर्म का क्या रिश्ता है। कुछ आर्यसमाजी अपने आपको हिन्दू धर्म से पृथक मानते हैं। उनको हिन्दू कहलाने में लज्जा अनुभव होती है। उनका कहना है कि हिन्दू एक ऐसा नमकीन समुद्र है कि कितना ही मीठा और स्वच्छ जल उसमें मिलायें, वह नमकीन बने बिना नहीं रह सकता। उनको यदि कहा जाये कि आर्य समाज का जन्म हिन्दू धर्म के अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करने के लिए ही हुआ था, तब उनका उत्तर होता है कि रुग्ण की शैया के समीप सोने वाला कभी इलाज नहीं कर सकता, अपितु स्वस्थ चिकित्सक इलाज किया करता है। चिकित्सक और रोगी का जो सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध आर्य समाज और हिन्दू धर्म का जानना चाहिए। इस मान्यता के निम्न हेतु दिए जाते हैं -

    हिन्दू का अर्थ काला, चोर आदि है। यह नाम विदेशियों द्वारा भारतीयों को दिया गया। ऐसे नाम को हम आर्य लोग कैसे स्वीकार कर लें?

    Ved Katha Pravachan _104 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    आर्यों का मुख्य धर्म ग्रन्थ वेद है और उनका एक उपास्य देव है। इसके विपरीत अनेकानेक ग्रन्थों और अनेक देवों को मानने वालों से हमारा ऐक्य भाव कैसा?

    मूर्ति पूजा को अवैदिक और गिरावट की खाई मानने वाले आर्यों का मूर्तिपूजकों के साथ मेल कैसा?

    जन्म के आधार पर वर्ण व्यवस्थामृतकों के श्राद्ध-तर्पण और फलित ज्योतिष के विश्वासी हिन्दुओं का अन्तर आर्यों को अपने आप पृथक कर देता है।

    आर्य समाज का मिशन सार्वभौम हैमात्र हिन्दुओं तक नहीं।

    आर्य समाज को पृथक घोषित करने में संस्था वालों का एक निहित स्वार्थ होता है। वह यहॉं के हिन्दुओं से पृथक्‌ समुदाय भारत में अल्पसंख्यक बन जाता है और अल्पसंख्यको को सरकारी सरक्षण प्राप्त होता है।

    तर्क में प्रवीण आर्यसमाजियों से बहस में जीत पाना कठिन है। किन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर महर्षि दयानन्द के विचारों पर ध्यान दिया जायेतब सम्भव हैआर्य लोग अपने आपको हिन्दू मानने में संकोच नहीं करेंगे। ऐसा मानने और जानने से हिन्दुओं में एक नई शक्ति का संचार होगा। किन्तु स्थिति ऐसी बनती जा रही है कि एक ही क्षेत्र में आर्य समाज और हिन्दुओं के कार्यकर्ता एक जुट होकर काम करने के बजाय एक दूसरे को पीछे धकेलने में अधिक सक्रिय होते रहे हैं।

    आर्य समाज के कुछ विचारक अपने आपको हिन्दुओं से पृथक पहचान में रखना अधिक श्रेष्ठ मानते हैंतो वर्तमान हिन्दू नेताओं और संस्थाओं में भी कुछ ऐसी भावना आती जा रही है कि आर्यसमाजियों को अपने साथ न रखा जाये। यह भावना उनके कार्यक्रमोंसम्मेलनों और कार्यालयों में प्रत्यक्ष झलकती है। जब हम देखते हैं हिन्दू धर्म के नेताओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम को प्राथमिकता नहीं दी जातीभले ही वे नेतागण आर्यसमाज के आयोजनों में आकर महर्षि के प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए उनको हिन्दू धर्म का सुधारक कह देंकिन्तु उनके अपने घर में स्थिति दूसरी है। उनको स्वामी जी का खण्डन कार्य कष्ट देता है। खण्डन के साथ-साथ हिन्दू धर्म के प्रति किये प्यार को वे भूल जाते हैं। आचार्य द्वारा दी गई ताड़ना को कष्टमय बताने वाला शिष्य योग्यता प्राप्त करके भी कृतज्ञता के माप से जितना दूर होता हैउतनी ही दूरी हिन्दू नेताओं ने महर्षि के साथ बना ली है। उन्नीसवीं शताब्दी में अछूतोद्धारशुद्धि और नारी शिक्षा से घृणा करने वाला और ऐसे सुधारों के लिए महर्षि को गाली देने वाला हिन्दू इक्कीसवीं शताब्दी में इसे मानने तो लग गया हैकिन्तु महर्षि द्वारा बताये गये तौर-तरीकों पर इसे आज भी एलर्जी है। जब तक यह एलर्जी बनी रहेगीतब तक सुधार के नाम पर किये जाने वाले प्रयासों का ठोस परिणाम निकलना कठिन है।

    राम जन्म भूमि के अधिकार के लिये लड़ने वाला हिन्दू राम की जन्म भूमि प्रमाणित करने में जो दिमाग लगाता रहा है वही दिमाग उसे भारत भूमि को अपनी सिद्ध करने में लगाने का अवकाश नहीं है। विदेशियों द्वारा दिये गये तथ्यों को बिना सोचे-समझे मानने वाला हिन्दू एक दिन इस देश का आक्रान्ता घोषित कर दिया जायेगासिर्फ इसलिए कि महर्षि द्वारा कही गई बातें खण्डन के चपत के कारण अग्राह्य मान ली गई हैं।

    आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दू और आर्यसमाजी नेतागण महर्षि के कामों को और उनकी मनोदशा को समझने का प्रयास करें। सत्यार्थ प्रकाश के 11 वें समुल्लास में तत्कालीन संन्यासी समुदायों की अकर्मण्यता और उदासीन वृत्ति का उल्लेख करते हुए ऋषि लिखते हैं-"देखो ! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढते जाते हैं। ईसाई-मुसलमान तक हो जाते हैंतनिक भी तुमसे अपने घर की रक्षा और दूसरों को मिलाना नहीं बन सकता। बने तो जब तुम करना चाहो।"

    ऋषि के इस छोटे से वाक्य में तीन बातों की और स्पष्ट संकेत है। पूरा हिन्दू समुदाय जिसकी चर्चा 11 वें समुल्लास में की गईवह अपना घर है। इस समुदाय को अपना परिवार मानकर ऋषि इसमें दूसरों को मिलाना और ईसाई-मुसलमान बनने से बचाना आवश्यक समझते हैं। हिन्दुओं की घटती हुई जनसंख्या से आज देश का बुद्धिजीवी वर्ग चिन्तित है। काश! यह चिन्ता एक सौ वर्ष पूर्व लगी होती और देश का संन्यासी वर्ग इसे अपना कर्त्तव्य मान लेता तो देश के बंटवारे के दु:खद दिन देखने न पड़ते।

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    हिन्दू कहलाने में आपत्ति नहीं - स्वामी दयानन्द को हिन्दू परिवार के एक घटक के परिप्रेक्ष्य में उनके कार्यों पर दृष्टि डालने से समझना आसान होगा। परिवार का सदस्य यदि अपना कर्त्तव्य जानता और मानता हो तो उसे इन चार बातों का ध्यान रखना होता है- अपना गौरवपूर्ण नामअपना इतिहासअपनी कमजोरियों को दूर करते रहना और बाहरी शत्रुओं से सजग रहना।

    महर्षि का जीवन संघर्ष उपरोक्त चारों बातों के पालन से ओतप्रोत रहा। महर्षि ने बड़े आग्रहपूर्वक घोषणा की थी कि हमारा नाम आर्य है। हिन्दू नाम हमें विदेशियों की ओर से मिला है। किसी प्राचीन साहित्य में हिन्दू शब्द नहीं मिलता। "हिन्दू" के स्थान पर हमें अपने प्राचीन नाम "आर्य" का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी भाषा के स्थान पर उनको आर्य भाषा कहना अच्छा लगता था। वे "हिन्दुस्तान" के बदले इस देश का नाम फिर से "आर्यावर्त" प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार का आग्रह अपने घर वालों से (हिन्दुओं) से बराबर करते रहे। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिन्दू नाम से उनको घृणा थी। दूसरे लोग उनको हिन्दू कहते थे तो उन्हें आपत्ति नहीं होती थी। इसका प्रत्यक्ष उदारहण मेरठ के जनाब मुहम्मद कासिम के पत्र हैं जो अगस्त सन्‌ 1878 में उन्होंने स्वामी जी को "हिन्दू धर्म के नेता स्वामी दयानन्द सरस्वती जी" से सम्बोधित किये हैं। पत्रों के उत्तर में स्वामी जी ने इस्लाम मत के नेता जनाब मुहम्मद कासिम से सम्बोधन किया है और कहीं भी उन्होंने हिन्दू धर्म के नेता लिखने पर आपत्ति नहीं की। हिन्दू धर्म के नेता के आधार पर ही मेला चान्दपुर के शास्त्रार्थ में जहॉं मुसलमान और ईसाइयों की ओर से पांच-पांच मुसलमान ईसाई विद्वान्‌ रखे गयेवहॉं हिन्दुओं की ओर स्वामी दयानन्द सरस्वती और मुन्शी इन्द्रमणि थे। एक मुसलमान ने एक पण्डित को लेने की जिद की तब स्वामी जी ने कहा था कि आप कौन होते हैं हमारे विद्वानों के चयन करने वाले। स्वामी जी ने सम्बन्धित पण्डित से भी यह कहा था हमारे आपस में फूट डाल कर ये लोग तमाशा देखना चाहते हैं। इस पर भी एक मौलवी साहब नहीं माने। कहने लगे- सब हिन्दुओं से पूछा जाये कि इस एक पण्डित को लिया जाये या नहीं। तब स्वामी जी ने कहा कि आपको सुन्नी जमात ने बैठाया हैशियाओं ने नहीं। पादरी साहब को रोमन कैथोलिक वालों ने नहीं बैठायाइसी प्रकार हम आर्यों में भी कुछ सहमति वाले और कुछ असहमति वाले हैंकिन्तु आपको हमारे बीच गड़बड़ मचाने का कोई अधिकार नहीं है।

    आर्य भाषा या हिन्दी - इस घटना से स्वामी जी के हिन्दू होने में और अपने को हिन्दुओं का प्रतिनिधि मानने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। सन्देह वहॉं भी नहीं रहता जहॉं मेला चान्दपुर में उन्होंने कहा था, "देखो ! जितने 1800 वा 1300 वर्षों के भीतर ईसाईयों और मुसलमानों के मतों में आपस के विरोध से फिरके हो गये हैं उनके सामने जो 1,96,08,52,97 वर्षों के भीतर आर्यों के मत में बिगाड़ हुआ तो वह बहुत ही कम है।" पूना के प्रवचन में भी उनका संस्कारित अभ्यास "हिन्दू" अपने आप से निकल गयातब उन्होंने इसका विचार "हम हिन्दुओं कोनहीं मैं भूलाहम आर्यों को करना चाहिए। हिन्दू इस नाम का उच्चारण मैंने भूल से किया। हिन्दू अर्थात्‌ काला यह नाम हमें मुसलमानों ने दिया हैउसको मैंने मूर्खता से स्वीकार किया। आर्य अर्थात्‌ श्रेष्ठ यह हमारा नाम है।" उसी प्रवचन के अन्त में उनका निवेदन था "सज्जन जन! आज से "हिन्दू" इस नाम का त्याग करो और आर्य तथा आर्यावर्त इन नामों का अभिमान धरो। गुण भ्रष्ट हुए तो हुएपरन्तु नाम भ्रष्ट तो हमें न होना चाहिए। ऐसी मेरी आप सबों से प्रार्थना है।"

    ऋषि की यह प्रार्थना आंशिक बनकर रह गई। आर्यावर्त हमने नहीं अपनाया। भारतहिन्दुस्तान और इण्डिया नाम हमारे देश के प्रचलित हैं। हमको इन नामों से लगाव है। इनकी प्रतिष्ठा बनाये रखना हमारा कर्त्तव्य है। हम हिन्दी को आर्य भाषा नाम नहीं दे सके तो "हिन्दी" ही हमें प्रिय है। इसी प्रकार जन-जन के मानस पर आर्य जैसा श्रेष्ठ नामकरण यदि नहीं बैठ पायातब हिन्दू नाम को ही अपना गौरव मानना उचित है। बहुमत हिन्दू कहलाने में है तो बहुमत की भावना के साथ समझौता कर लेना बुद्धिमत्ता है। कभी-कभी निरर्थक शब्द प्रिय बन जाते हैं और सुन्दर अर्थ लिये हुए शब्दों को भुला दिया जाता है। पापा और डैडी जैसे निरर्थक शब्दों ने पिताजी शब्द को पीछे धकेल दिया है। कहने वाला और कहलाने वाला पापा डैडी में अपना गौरव समझता है। अत: आर्यसमाजी जनों को हिन्दी हिन्दुस्तान की तरह हिन्दू कहलाने में अपना गौरव समझना चाहिए। कभी दयानन्द जैसा युग-प्रवर्तक फिर आयेगा। समय आयेगाडैडी पापा का स्थान पिताजी लेगा।

    परिवार का श्रेष्ठ सदस्य - परिवार के अच्छे सदस्य को अपने अतीत पर गौरव होता है। अपना इतिहास विकृत न हो जावेइस प्रकार का प्रयास घर के नेता का होता हैहोना चाहिए। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों और प्रवचनों के द्वारा वर्तमान सृष्टि का आरम्भ तिब्बत से माना और तिब्बत से मानव आगे बढते-बढते भारत भू पर आकर बस गये। इस भू खण्ड पर मानव को वेदों का ज्ञान मिला और प्रकृति माता का प्यार मिला। रहने वालों ने अपनी भूमि का नाम आर्यावर्त रखा। यहीं से संस्कृतिसभ्यता का विकास हुआ। ऋषि की यह घोषणा अद्‌भुत है। विदेशियों ने आर्यों को बाहर से आया बताकर इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया है यह खिलवाड़ हिन्दू जाति को ले डूबेगा। आवश्यकता है समस्त हिन्दू जाति अपने मूलस्थान को जन्मस्थान मानेविजित स्थान नहीं। शास्त्रों की रचनाउपनिषदों के उपदेशरामायण-महाभारत की ऐतिहासिक घटनायें आर्यों के गौरव हैं। महाभारत के पश्चात्‌ का भारत यद्यपि कमजोर और पददलित होता गयाकिन्तु ऋषि की देश-वन्दना सत्यार्थ प्रकाश में और पूना-प्रवचनों में स्मरण करने योग्य है। मुस्लिम काल में गुरु गोविन्दसिंह और शिवाजी का उल्लेख करते हुए जहॉं उनको आत्माभिमान हो गया वहॉं ब्रह्मसमाज और प्रार्थना समाज की संकीर्ण मान्यताओं से उनका असन्तोष भी झलकता है। सत्यार्थ प्रकाश में वे लिखते हैं- "अपने देश की प्रशंसा वा पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रहीउसके स्थान पर पेट भर निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेतेप्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान्‌ नहीं हुआ। आर्यावर्ती लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं। इनकी उन्नति कभी नहीं हुई।" इस प्रकार की विचारधारा जाति में फैलाकर उसे घर-घर का भिक्षुक बना देने जैसा कार्य जिस किसी ने किया महर्षि ने उसे देश भक्त नहीं माना। देश भक्ति का पाठ पढाने वाले ऋषि को हिन्दू समुदाय अपना आदर्श न मानेतो यह एक बहुत बड़ी कृतघ्नता होगी। जो आर्य समाजी अपने को हिन्दू से पृथक कहलाना चाहते हैं वे अपने इतिहास की श़ृंखला कैसे जोड़ेंगेमहाभारत काल के पश्चात्‌ वेद के विपरीत कार्य करने वाले आर्यों को हम अपना पूर्वज मानने से इन्कार कैसे कर सकते हैं?

    "ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका" में वेदोत्पत्ति विषय पर लिखते हुए ऋषि कहते हैं- "जब जैन और मुसलमान आदि लोग इस देश के इतिहास और विद्या पुस्तकों का नाश करने लगेतब आर्य लोगों ने सृष्टि के गणित का इतिहास कण्ठ कर लिया और जो पुस्तक ज्योतिष भाष्य के बच गये हैं उनमें और उनके अनुसार जो वार्षिक पंचांगपत्र बनते जाते हैं इसमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती हैइसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता। इस उत्तम व्यवहार को लोगों ने टका कमाने के लिए बिगाड़ रखा हैयह शोक की बात है और टके के लाभ ने भी जो इसके पुस्तक व्यवहार को बना रखानष्ट न होने दियायह बड़े हर्ष की बात है।"

    वैदिक इतिहास को आज तक जोड़ने वाली कड़ी से आर्य समाज पृथक्‌ नहीं हो सकता। पृथक्‌ मान लेने से कोई इतिहास रह नहीं जाता। महर्षि ने इतिहास को बहुत महत्त्व दिया है। एक पारिवारिक कर्त्तव्य निभाया है। तीसरा कर्त्तव्य ऋषि ने जो निभाया उसी को लेकर आर्य समाज और सनातन धर्म नाम के दो पक्ष बन गये। यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जो मनुष्य जिस आदत में पड़ जाता है उसे वह छोड़ना नहीं चाहताबल्कि वह अपनी आदत को लाभकारी सिद्ध करने की कोशिश करता हैभले ही वह आदत उसके नाश का कारण बन जावे। छोटे-छोटे परिवारों में सुधार की बातें करने वाला पूर्णत: सफल नहीं हो पाता। परिवार आपस में बंट जाया करते हैं। परम्परा की दुहाईआदतों की शिथिलता और "जनरेशन गैप" आदि सब कारण सुधार प्रक्रिया में बाधा डालते हैं।

    हिन्दू परिवार बहुत विशाल और पुरातन है। अनेकानेक सभ्यताओं का प्रभाव पड़ते-पड़ते आज यह धर्म परिभाषाहीन धर्म हो गया है। नाम से ही आर्य नहीं रहे,किन्तु काम से भी आर्यत्व से दूर हो गये। वेद और ईश्वर को न मानने वाला भी हिन्दू है। शिखा सूत्र का प्रसिद्ध चिन्ह भी अब हिन्दू के लिए आवश्यक नहीं रह गया। डाक्टर का बेटा बिना योग्यता प्राप्त किए डाक्टर नहीं कहला सकता,किन्तु हिन्दू पुरोहित का बेटा जन्मजात पुरोहित है। मांसाहार-शाकाहार के भेद से हिन्दू की पहचान नहीं है। इस स्थिति में हिन्दू धर्म को वास्तविक स्वरूप देने में सबसे अधिक संघर्ष यदि किसी ने किया है तो वह स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया है। वह यह मानकर चले हैं कि आर्यावर्त में प्रचलित सभी मत-मतान्तर,जो नाम मात्र से भी वेद को अपना मानते हैं,वे सभी आर्य हैं। -गजानन्द आर्य (आर्य जगत्‌ दिल्ली,9 जुलाई 1989) 

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    There is no objection to being called Hindu - Swami Dayanand will be easy to understand by looking at his actions in the perspective of a component of the Hindu family. If a family member knows and accepts his duty, he has to take care of these four things - his proud name, his history, to keep away his weaknesses and to be aware of external enemies.

     

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  • होलिकोत्सव-नवसस्येष्टि पर्व होली

    त्यौहारों-पर्वों का जितना अत्यधिक प्रचलन ऋषि-मुनियों-राम-कृष्ण की जन्मभूमि इस हमारे भारतवर्ष में है, सम्भवतः किसी भी देश में इतना न हो। निस्सन्देह पर्वों का व्यक्ति और समाज के जीवन में एक विशेष महत्व है। ये अपने-अपने समय पर प्रतिवर्ष आते हैं और अपनी छाप लगाकर चले जाते हैं। इनका अनुष्ठान व्यक्ति और समाज के जीवन में एक महान प्रेरणा उत्पन्न करता है, जिससे मृतप्रायः व्यक्ति व समाज में जीवन का संचार प्रतीत होने लगता है और इस भौतिकता प्रधान युग में भी कुछ ही देर के लिए सही, मानव कुछ न कुछ आस्तिकता की भावना को अनुभव करने लगता है।

    होली का परम पावन पर्व प्रतिवर्ष वसन्त पञ्चमी के ठीक चालीस दिन पश्चात्‌ फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को बड़े उल्लास से मनाया जाता है। इस पर्व का वैदिक नाम नवान्नेष्टि है, अर्थात्‌ नवीन अन्न प्राप्त होने पर यज्ञ करना।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    समाज में विषमता का कारण
    Ved Katha Pravachan _53 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    प्राचीनकाल में आर्य लोगों ने सम्भवतः यह नियम बना लिया होगा कि कोई भी आदमी बिना यज्ञ किये नये अन्न का भोग न करे। हमारे धर्म ग्रन्थों और गृह्यसूत्रों में आया है कि नया अन्न उत्पन्न होने पर "नवसस्येष्टि' नामक यज्ञ करे और जब तक कि उस अन्न से पहले होम न कर ले उसे न खायें। इसको इस प्रकार से और भी स्पष्ट कर दिया है हमारे ऋषियों ने- पर्वण्याग्रयणे कुर्वीत। वसन्ते यवानां शरदि व्रीहीणाम्‌। अग्रपाकस्य पयसि स्थालीपाकं श्रपयित्वा तस्य जुहोति। अर्थात्‌ पर्व में नवीन अन्न से होम करे, वसन्त ऋतु में यवों से और शरद ऋतु में चावलों से इत्यादि।

    वास्तव में अन्न परमात्मा को ही महती कृपा से उत्पन्न होता है। यदि उसकी कृपा न हो तो असीम पुरुषार्थ करने पर भी अन्न प्राप्त होना सम्भव नहीं है और हम प्रायः देखते भी हैं कि बनी-बनाई तैयार फसल, जिसे देखकर किसान फूला नहीं समा रहा है, प्रकति के जरा से आघात से बात की बात में चौपट होती देखी जाती है। आर्यपुरुष अपनी इस असमर्थता को भली-भॉंति समझते थे। अतः वे परमात्मा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते नहीं अघाते थे।

    वैदिक नवसस्येष्टि का प्रचलित नाम "होली' पड़ने का कारण तो स्पष्ट ही है। इस अवसर पर (फाल्गुन पूर्णिमा) अन्न (चना, गेहूँ, यव आदि) अर्ध परिपक्व अवस्था में होता है और उसकी बालों, टहनियों को जब आग में भुनते हैं, तो उसकी संज्ञा लोक में "होला' होती है, जैसा कि हमारे साहित्य में लिखा मिलता है- तृणाग्निभ्रष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः। होला इति हिन्दी भाषा। (शब्दकल्पद्रुमकोश)

    अर्थात्‌ जो अर्धपका अन्न आग में भूना जाता है, उसे संस्कृत में होलक कहते हैं और यही शब्द हिन्दी भाषा में "होला' कहलाने लगा।

    इस पर्व होली का पौराणिक रूप भी बड़ा शिक्षाप्रद है। हमारे त्यौहारों के साथ कुछ महापुरुषों से सम्बन्धित घटनाएँ भी कालान्तर में जुड़ गई हैं। इसी प्रकार इस पर्व से सम्बन्धित एक आख्यायिका श्रीमद्‌भागवत में कुछ इस प्रकार आती है-

    हिरण्यकशिपु एक बड़ा अन्यायी तथा ईश्वर की सत्ता को न मानने वाला राजा था। प्रह्लाद नाम का उस अत्याचारी राजा का पुत्र बड़ा ही आस्तिक और ईश्वरभक्त था। क्योेंकि ईश्वरभक्त प्रह्लाद अपने अन्यायी नास्तिक पिता की बात नहीं मानता और उसकी सत्ता से भी इन्कार करता है। अतः हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र की गतिविधियों को पसन्द नहीं करता और उसे रोकने के लिए वह उसे तरह-तरह के कष्ट देता है। परन्तु वह ईश्वरभक्त प्रह्लाद इन कष्टों की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं करता। अन्त में नृसिंह नाम का एक अवतार होता है, जो हिरण्यकश्यपु का संहार कर देता है। यह एक अलंकारपूर्ण अत्यन्त शिक्षाप्रद आख्यायिका है। इसका अभिप्राय यही है कि माया जाल में फंसे रहने वाले व्यक्ति का नाम "हिरण्यकश्यपु' है अर्थात्‌ जो सदैव सोना-चांदी, धन-दौलत को ही देखे, उसमें ही ग्रसित रहे।

    हिरण्यमेव पश्यतीति हिरण्यकश्यपु, ऐसा निरुक्त के अनुसार आदि और अन्त के अक्षरों का विपर्य्यय होकर "पश्यक' को "कश्यप' बन जाता है। ऐसे मदान्ध लोगों का अन्त में बुरी तरह से नाश होता है। दूसरी ओर परमात्मा की भक्ति में सदा लीन रहने के कारण जिसको आनन्द लाभ होता है, उसे प्रह्लाद कहते हैं। प्रह्लाद स्वयं सताया जाने पर भी सबकी मङ्गल कामना ही करता है। उसका यही कहना था कि ""किसी का कुछ भी हरण नहीं करना चाहिए। जो लोग माया में ही रत रहते हैं और परमात्मा की सत्ता से इन्कार करते हैं, उनका कभी भी आदर नहीं करना चाहिए। अपने चित्त को निर्मल बनाकर परमात्मा की शरण में जाना चाहिए और इस प्रकार आचरण करते हुए भवसागर से पार तर जाना चाहिए।''

    आज सारा देश हिरण्यकश्यपु बना हुआ है। प्रह्लाद के समान तो कोई दिखाई ही नहीं देता। सबको रुपया-पैसा, धन-दौलत, वैभव, सत्ता चाहिए, चाहे आये किसी भी न्याय-अन्याय साधनों से। इस लालच, कञ्चन व कामिनी के मतवालों ने अपने हितों के लिए देश-राष्ट्र के हितों की बलि दे डाली। समाचार पत्रों की रिपोर्टों और संसद में विपक्षियों द्वारा उठाये गये अनेक मुद्दों से पता चलता है कि तथाकथित राजनेता, उनके इष्टमित्र और बड़े-बड़े व्यापारी लोग भ्रष्टाचार के मामलों में करोड़ों रुपये हजम कर गये और उस अरबों रुपये की राशि को विदेशी बैंकों में जमा कराकर देश को निर्धन ही नहीं किया, अपितु इसकी अर्थव्यवस्था को भी महान हानि पहुंचाई है। इस प्रकार के लोग यह नहीं समझते कि इस क्षणभंगुर जीवन में इतने अराष्ट्रीय काम करके देश को क्यों हानि पहुंचाई जाये। इस जीवन का कोई भरोसा नहीं कि कब यह कच्चे घड़े की तरह समाप्त हो जाये। किसी सन्त ने ठीक ही तो कहा है-

    नर तन है कच्चा घड़ा, लिये फिरे है साथ।
    धाका लागा फुटिया, कछु न आवे हाथ।।

    परन्तु आज का मानव हिरण्यकश्यपु की तरह  इन विषय भोगों में फंसकर जीवन के विनाश के परिणामों से इतना लापरवाह हो गया है कि उसने धार्मिकता को तो जीवन में से ऐसा तुच्छ समझकर बाहर फेंक दिया है, जैसे कोई गृहिणी दूध में पड़ी मक्खी को निकालकर फेंक देती है।

    अतः इस होली पर्व से सम्बन्धित हिरण्यकश्यपु-प्रह्लाद की पौराणिक कथा से यह शिक्षा आज के मानव को लेनी चाहिए कि हिरण्यकश्यपु की तरह उसका नाश अवश्यम्भावी है। अतः उसको अराष्ट्रीय देशद्रोही कामों से परहेज करना चाहिए। यह तो आध्यात्मिक शिक्षा है। परन्तु इस त्यौहार से एक बड़ी सामाजिक शिक्षा भी मिलती है। वैदिक तथा पौराणिक महत्व के अतिरिक्त इस होली के पर्व की एक सामाजिक विशेषता भी विचारणीय है। स्मृतियों में होली से अगले दिन चैत्र मास की प्रतिपदा को महाअस्पर्श चाण्डाल तक के स्पर्श को भी वैधानिक माना है।

    विश्वबन्धुत्व का इससे अच्छा भाव और क्या होगा! आज देश पर अस्पृश्यता के महान कलंक का टीका लगा है। वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द को अस्पृश्यता की विद्यमानता का घृणित अन्याय सर्वथा असह्य था। अछूतों के अधिकारों का जितनी उग्रता से महर्षि ने समर्थन किया, उतनी उग्रता से अन्य किसी ने नहीं किया। महर्षि ने इस कार्य में अपने जीवन की बलि तक दे दी। उनके पश्चात्‌ उनके अनुयायी महान्‌ नेता अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द और पण्डित लेखराम जैसे महारथियों ने अपने जीवन की बलि दे दी। आगे चलकर स्वतन्त्र भारत की सरकार ने इन कार्यों को अपना लिया और विधान में उनको सवर्णों के समान अधिकार दे तो दिये हैं, तो भी कुछ प्रदेशों में आज भी सवर्ण वर्ग के लोग उन तथाकथित हरिजनों और अछूतों पर अत्याचार करते जरा भी लज्जित नहीं होते। अतः इस सामाजिक बुराई और कुरीति को दूर करने का व्रत इस होली के पवित्र पर्व पर लेना चाहिए। सब भेदभावों को मिटाकर आपस में गले मिलने का भाव और किसी पर्व में नहीं देखा जाता। अतः सामाजिक दृष्टि से भी यह एक महत्वपूर्ण पर्व है। 

    अतः इस पर्व के अवसर पर बड़े-बड़े यज्ञ करके "नवसस्येष्टि' को सार्थक करना चाहिए। भगवान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके नव अन्न का सेवन करना चाहिए। यज्ञ करने से पौष्टिक व कीटाणुशून्य अन्न प्राप्त करके शरीर को हृष्ट-पुष्ट करके देश को सशक्त बनाना चाहिएऔर भौतिकता को छोड़कर आध्यात्मिकता की ओर जाने का प्रयत्न करके देश में फैले भ्रष्टाचार को दूर करने में योग दान करना चाहिए। साथ ही हरिजनों, अछूतों की समस्याओं का हल करके उनको अपनी जाति का एक अभिन्न अंग मानकर उनसे सद्‌व्यवहार करके यह अस्पृश्यता का कलंक मिटाने का व्रत लेना चाहिए। यही कुछ महत्वपूर्ण देश-राष्ट्र हितकारी शिक्षाएं हमें इस पर्व को मनाते हुए जीवन में धारण करनी चाहिएं। आज राष्ट्रीय जीवन में इनका अपनाना कहीं अधिक आवश्यक है।

    होली आयी होली आयी

    आपस का हम प्रेम बढ़ाएं, भेदभाव सब दूर भगाएं,
    जाति-पाति के काले बादल , इस धरती से दूर हटाएं,
    यही सन्देश है यह लायी। होली आयी, होली आयी।।
    सुखी-समृद्ध हो जन-जीवन, ऐश्वर्यों से पूरित भू-कण,
    नई सफलता, समरसता से, आह्लादित हो मानव-अभिमन,
    जाग्रत, जग में, ज्योति जगायी। होली आयी, होली आयी।।
    फैले धरती पर अपनापन, विस्तृत हो शुचि प्यार अप्रमन,
    दूर हटे इन महाशक्तियों का, सब आपस का कडुवापन,
    जगा रही युग की तरुणायी। होली आयी, होली आयी।।
    इसके स्वागत में बसन्त नव, हर्षित कोकिल करती कलरव,
    नव आशा-अभिलाषाओं के निकल रहे डालों पर पल्लव,
    प्रकृति वधू नव, नई सजायी। होली आयी, होली आयी।।
    -राधेश्याम विद्यावाचस्पति

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    Mythologists have considered Brahma, Vishnu, Mahesh or Shiva as the three gods. Their stories have been written a lot in the Puranas. On the basis of this, Father told Shivdarshan by telling his child Mool Shankar the great significance of night awakening by fasting of Shivaratri, so that the soul can be benefited and attain salvation.

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