अंग्रेजों के आधीन पराधीन भारत को स्वतन्त्र कराने में आर्य समाज का अमूल्य और अकथनीय योगदान रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले श्री पट्टाभिसीतारमैया ने कांग्रेस के इतिहास में लिखा है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वालों में 80 प्रतिशत आर्य समाजी ही आन्दोलनकारी थे। इसी से आर्य समाज द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु किये गये संघर्ष का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्य समाज को स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा एवं स्वसंस्कृति से कितना लगाव था और है । हो भी क्यों न क्योंकि आर्यसमाज का जन्म भी इसीलिए हुआ था।
स्वतन्त्रता महामन्त्र के दाता, युग प्रवर्तक तथा "स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है" को भारत भू पर घोषणा करने वाले तिलक को स्वतन्त्रता की प्रेरणा देने वाले युग पुरुष आचार्य प्रवर देव दयानन्द स्वदेश, स्वतन्त्रता, स्वराज्य एवं नागरी भाषा तथा वैदिक संस्कृति के प्रबल एवं सर्वप्रथम समर्थकों में अग्रगण्य हैं। कांग्रेस के जन्म से पूर्व ही ऋषि ने अपनी महान रचना "सत्यार्थ प्रकाश" में लिखा कि कोई कितना ही यत्न करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य माता-पिता के समान कृपा, न्याय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं।
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इलाहाबाद उच्च न्यायालय इस अभियोग का साक्षी हैं कि स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाली तथा आर्यो के सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की प्रार्थना करने वाली ऋषि की अमर अक्षय रचना "आर्याभिविनय" से तत्कालीन अंग्रेजों में भय व्याप्त हो गया। अत: कुटिल अंग्रेजों ने इस पुस्तक पर अभियोग चलाया, पर ऋषि दयानन्द अपने कण्टकाकीर्ण मार्ग से विचलित नहीं हुए। ऋषि ने पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा कों इंग्लैण्ड जाकर स्वतन्त्रता हेतु कार्य करने की प्रेरणा दी थी तथा पं. श्याम जी ने इंग्लैण्ड जाकर इण्डिया हाउस की स्थापना की और इसी के माध्यम से भारतीय विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता का बीजारोपण किया। फलस्वरूप सावरकर, ढींगरा जैसे एक नहीं अनेक क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने पराधीनता के प्रबल पाशों में जकड़ी हुई मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का आजन्म व्रत धारण कर अपने तुच्छ सुखों का परित्याग कर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया।
इधर भारत में ऋषि की महान रचनाओं का जिनमें स्वदेश, स्वराज्य, स्वभाषा, स्वाधीनता तथा स्वसंस्कृति की सर्वत्र चर्चा थी, सम्पूर्ण भारत में असर बढा। फलस्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों का जन्म हुआ। इन क्रान्तिकारियों के क्रिया-कलापों से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गयीं। अंग्रेज इनसे अत्यन्त भयभीत हो गए और उन्हें जमे हुए अंगद के पांव उखड़ते नजर आए।
उस समय स्वामी दयानन्द के अकाट्य तर्कों तथा उनकी जादू भरी वाणी से मुन्शीराम जो कि अपने को बड़ा तार्किक मानते थे की वाणी ही न जाने कहॉं खो गयी । ऋषि का उन पर ऐसा जादू चला कि पंडित मुन्शीराम पहले स्वयं पावन और फिर पतित पावन बन गए और फिर देखते-देखते महात्मा से स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। स्वामी दयानन्द सरस्वती से ही प्रेरणा प्राप्त कर मुन्शीराम जी ने गुरुकुल खोला और वहॉं पर प्राचीन आर्य शिक्षा प्रणाली पर आधारित शिक्षा देने लगे। इसी शिक्षा के साथ उन विद्यार्थियों में स्वतन्त्रता की भावना भी भरने लगे। स्वामी श्रद्धानन्द जी स्वयं स्वतन्त्रता हेतु कांग्रेस में सम्मिलित हो गए और इसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।
जलियॉंवाला बाग के निरीह निहत्थे, निरपराधियों के प्रमुख हत्यारे जनरल डायर के इस अमानवीयता पूर्ण नरसंहार रूपी दुष्कृत्य को देखकर कोई भी कांग्रेसी पंजाब में होने वाले अधिवेशन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर यमराज को आमन्त्रण देना नहीं चाहता था। कांग्रेस का मनोबल पूर्णत: गिर चुका था। ऐसे समय में निर्भीक श्रद्धानन्द ने ही सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार कर सबको आश्चर्य चकित ही नहीं कर दिया, अपितु अपने पौरुष का परिचय भी दिया था। यह बात अलग है कि मुस्लिमों को पूर्णत: सन्तुष्ट रखने का प्रयास करने वाली कांग्रेस पार्टी से उनका सम्बन्ध अधिक दिनों तक न बना रह सका, तथापि स्वामी जी ने जो अविस्मरणीय कार्य देश की स्वतन्त्रता हेतु किए वह स्वर्णाक्षरों में लेखनीय हैं। गुरुकुल से स्वतन्त्रता की घुट्टी पाने के उपरान्त शिक्षित दीक्षित स्नातकों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति में अपना अमूल्य एवं अकथनीय योगदान दिया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन में एक नहीं अनेकों उदाहरण ऐसे मिलने हैं कि जिनमें स्वामी जी ने अंग्रेजों के राज्य का सर्वथा विरोध किया है। निर्भीक दयानन्द परमपिता परमात्मा के सिवा अन्य किसी से भय नहीं खाते थे। तभी तो एक अंग्रेज अधिकारी के यह कहने पर कि "आप अंग्रेजों के अखण्ड राज्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें" स्वामी जी ने जिस निर्भीकता से प्रत्युत्तर दिया था, उसे सुनकर उस अधिकारी ने उन्हें विद्रोही फकीर की संज्ञा दी थी।
स्वामी जी ने भूमिगत रहकर अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों को जो कि सुप्रसिद्ध 1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात अंग्रेजों के दमनचक्र से पूर्णत: हताश निराश हो चुके थे, को प्रोत्साहित कर मातृभूमि को मुक्त कराने की प्रेरणा दी थी। तत्कालीन राजवाड़ों में जाकर राजाओं को भी इस पुण्य कार्य में सहयोग देने की प्रेरणा की। जहॉं-जहॉं स्वामी जी गए वहॉं-वहॉं सुप्त प्राय: पराधीन देशवासियों में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। परिणामस्वरूप चतुर्दिक् से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की प्रतिक्रिया तीव्र हो गई। इधर सुराजप्रिय कांग्रेस पार्टी का उदय हुआ। पश्चात इसकी विचारधारा में परिवर्तन हुआ और यह स्वराज्य के लिए संघर्ष करने लगी।
आज इतिहास इन सब तथ्यों को नहीं बताता। स्वतन्त्रता प्राप्ति में कांग्रेस का ही सर्वाधिक योगदान इतिहास में उद्धृत है और यही हमारे नौ-निहालों को पढाया भी जाता है कि यदि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू न होते तो शायद स्वतन्त्रता कभी न मिलती। हमारा अभिप्राय यहॉं यह लेशमात्र भी नहीं है कि कांग्रेस, गान्धी और नेहरू का स्वतन्त्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं है। इनका भी बहुत योगदान है, परन्तु आज आर्य समाज का उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नगण्य है। "जो जाति अपने इतिहास को भुला देती है, वह पूर्णत: नष्ट होती है" अत: अपने इतिहास को कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। यही उन ज्ञात-अज्ञात मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने वाले सेनानियों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेखक - ब्रह्मानन्द आजाद
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The Arya Samaj has played an invaluable and inexplicable contribution in making India independent under the British. Mr. Patababhisitaramaiya, who wrote the history of the Indian National Congress, has written in the history of the Congress that 80 percent of the Arya Samajis were the activists among the participants in the freedom movement. From this, it can be easily estimated that the Arya Samaj's struggle for independence, and how much the Arya Samaj was and is attached to indigenous, self-government, self-language and self-culture. Why not because Arya Samaj was also born for this reason.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...