आदर्श शिष्य द्वारा गुरु सेवा- गुरु-शिष्य सम्बन्ध का यहॉं उल्लेख करना आवश्यक है। दण्डी ऋषि सुष्टु स्वभाव के होते हुए भी वृद्धवस्था के कारण कुछ तीक्ष्ण और क्रोधी वृत्ति के थे। इसके विपरीत दयानन्द अत्यन्त विनम्र, अध्ययनशीन, आज्ञाकारी और गुरु चरणों में अविचल श्रद्धा रखने वाले थे। दण्डी जी शीघ्र ही यह भांप गये थे कि दयानन्द उनके अन्य शिष्यों की तुलना में विशिष्ट और कुछ असाधारण गुणों का पुंज है। दण्डी जी बारहों महीने यमुना नदी के मध्यवर्ती जलधारा से स्नान और उसी का पान करने के अभ्यासी थे। दण्डी जी की सेवा का यह व्रत दयानन्द ने स्वयं ही अपनी इच्छा से सहर्ष स्वीकार किया। लगभग 3 वर्ष तक के अपने शिक्षाकाल में दयानन्द प्रतिदिन भोर बेला में बिना सर्दी-गर्मी, बरसात, आन्धी की परवाह किए यमुना जल के लगभग 15 घड़ों से गुरु जी को स्नान कराते और उनके लिए पेय जल लाते।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
सविता का सच्चा स्वरूप।
Ved Katha Pravachan _71 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
गुरु जी का प्रकोप शिष्य द्वारा सेवा पूर्ववत्- दण्डी जी के निवास स्थान को दयानन्द प्रतिदिन झाडू देकर साफ करते थे। एक दिन कूड़ा उठाकर उन्होंने कमरे के एक कोने में रख दिया और उसे बाहर उठाकर ले जाने के लिए कुछ चीज खोजने लगे। इतने में गुरु जी टहलते हुए उधर आ निकले। उनका पांव कूड़े पर पड़ गया। अत्यन्त क्रोधावेश में आ गये और स्वामी दयानन्द पर लाठी का प्रहार कर दिया और कठोर वचन भी कहे। स्वामी जी ने गुरु के इस दण्ड को सहर्ष अंगीकार किया। यद्यपि इस मामले में वे दोषी नहीं थे। जिस समय गुरु जी शान्त हुए तो स्वामी दयानन्द ने उनके चरणों और शरीर को श्रद्धा से सहलाना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि "गुरुवर ! मैं तो युवा हूँ पर आप वृद्ध हैं। आपका दण्ड तो मेरे लिए अमृतवत् है। मेरा शरीर कठोर है, पर आपके वृद्ध, जर्जरित अस्थिमात्र शरीर में पीड़ा हो गई होगी, इसलिए मैं मालिश से उसे दूर करता हूँ।" गुरु अपने शिष्य की इस सेवा भावना से गदगद् हो गये। इसी का यह परिणाम था कि गुरु-शिष्य का कई घण्टों तक प्राय: एकान्त में वार्तालाप होता था। निश्चिय ही गुरु जी को यह दृढ विश्वास हो गया था कि दयानन्द शिष्य सामान्य व्यक्ति नहीं है, किन्तु भारत का एक अनोखा रत्न है।
गुरु से विदाई : गुरु दक्षिणा- लगभग 3 वर्ष तक दण्डी जी के चरणों में अन्तेवासी के रूप में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अब शिष्य दयानन्द की विदाई का समय आ गया। स्वामी दयानन्द की प्रबल इच्छा थी कि गुरु जी से प्राप्त शिक्षा को कार्यान्वित करने के लिये देशाटन करूं। पर खाली हाथ गुरु जी से विदा होना भारतीय परम्परा के विरुद्ध था। दयानन्द अत्यन्त विनम्रभाव से कुछ लौंग लेकर गुरुचरणों में उपस्थित हुए और बोले, "भगवन्! आपने विद्यादान कर मुझ पर जो उपकार किये हैं, उनसे मैं आजन्म उऋण नहीं हो सकता। पर अपनी हार्दिक श्रद्धा के प्रतीक ये कुछ लौंग आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं।" दण्डी जी ने स्मितहास्य के साथ कहा, "वत्स! मैं पार्थिव वस्तु की यह दक्षिणा नहीं चाहता। मैं अन्य वस्तु तुम से मांगता हूं और वह तुम्हारे पास है। तुम्हें कहीं से लानी नहीं पड़ेगी।" दयानन्द ने निवेदन किया, "गुरुदेव! मैं पूर्ण रूप से आपके चरणों में समर्पित हूँ। आज जो आदेश करेंगे, मैं उसे आजीवन निभाऊगां।" गुरु ने कहा, "मैं तुमसे यही दक्षिणा मांगता हूँ कि तुम आजीवन आर्ष ग्रन्थों का प्रचार और अनार्ष ग्रन्थों का खण्डन करते हुए वैदिक धर्म की स्थापना हेतु अपना प्राण तक अगर न्यौछावर करना पड़े तो तुम संकोच नहीं करोगे।" ऋषि दयानन्द ने गुरुदेव के श्रीचरणों को स्पर्श करते हुए कहा, "आपका शिष्य आपके इस आदेश का प्राणपन से पालन करेगा।" गुरुदेव ने अपने स्नेहमय कर कमलों से दयानन्द के सिर पर हाथ फेरते हुए हार्दिक आर्शीवाद दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य का भौतिक सम्बन्ध तो समाप्त हुआ, पर आत्मिक सम्बन्ध आजीवन अटूट रहा।
ऋषि दयानन्द ने अपने समस्त ग्रन्थों में अपने आपको "विरजानन्द दण्डी शिष्य" इन शब्दों से गौरवान्वित करते हुए अपने आचार्य वर की पुण्यस्मृति को दैदीप्यमान रखा।
दण्डी जी का स्वर्गवास- दण्डी विरजानन्द का स्वर्गवास लगभग 82 वर्ष की आयु में सम्वत् 1925 आश्विन वदी त्रयोदशी सोमवार (तद्नुसार 14 सितम्बर 1868) को हुआ। ऋषिवर दयानन्द ने इस दु:खद समाचार को सुन कर कहा "आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।"
इस वीतराग संन्यासी की पुण्य स्मृति में आर्यसमाज की ओर से करतारपुर में "श्री विरजानन्द स्मारक भवन" स्थापित किया गया है। 14 सितम्बर 1970 को भारत सरकार द्वारा दण्डी जी की पुण्य स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया। जब देश में दण्डी विरजानन्द जी जैसे गुरु और स्वामी दयानन्द जैसे शिष्य होंगे तभी देश का कल्याण होगा। - दीनानाथ सिद्धान्तालंकार
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In honor of this saintly ascetic, "Sri Virjanand Smarak Bhawan" has been established in Kartarpur on behalf of Aryasamaj. On September 14, 1970, the postal stamp was issued by the Government of India in honor of Dandi Ji. When there will be a guru like Dandi Virjanandji and a disciple like Swami Dayanand in the country, then the country will be well-being. - Dinanath Siddhantalankar
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...