बहुधा एक प्रश्न उलझा हुआ प्रतीत होता है कि आर्य समाज और हिन्दू धर्म का क्या रिश्ता है। कुछ आर्यसमाजी अपने आपको हिन्दू धर्म से पृथक मानते हैं। उनको हिन्दू कहलाने में लज्जा अनुभव होती है। उनका कहना है कि हिन्दू एक ऐसा नमकीन समुद्र है कि कितना ही मीठा और स्वच्छ जल उसमें मिलायें, वह नमकीन बने बिना नहीं रह सकता। उनको यदि कहा जाये कि आर्य समाज का जन्म हिन्दू धर्म के अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करने के लिए ही हुआ था, तब उनका उत्तर होता है कि रुग्ण की शैया के समीप सोने वाला कभी इलाज नहीं कर सकता, अपितु स्वस्थ चिकित्सक इलाज किया करता है। चिकित्सक और रोगी का जो सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध आर्य समाज और हिन्दू धर्म का जानना चाहिए। इस मान्यता के निम्न हेतु दिए जाते हैं -
हिन्दू का अर्थ काला, चोर आदि है। यह नाम विदेशियों द्वारा भारतीयों को दिया गया। ऐसे नाम को हम आर्य लोग कैसे स्वीकार कर लें?
Ved Katha Pravachan _104 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
आर्यों का मुख्य धर्म ग्रन्थ वेद है और उनका एक उपास्य देव है। इसके विपरीत अनेकानेक ग्रन्थों और अनेक देवों को मानने वालों से हमारा ऐक्य भाव कैसा?
मूर्ति पूजा को अवैदिक और गिरावट की खाई मानने वाले आर्यों का मूर्तिपूजकों के साथ मेल कैसा?
जन्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था, मृतकों के श्राद्ध-तर्पण और फलित ज्योतिष के विश्वासी हिन्दुओं का अन्तर आर्यों को अपने आप पृथक कर देता है।
आर्य समाज का मिशन सार्वभौम है, मात्र हिन्दुओं तक नहीं।
आर्य समाज को पृथक घोषित करने में संस्था वालों का एक निहित स्वार्थ होता है। वह यहॉं के हिन्दुओं से पृथक् समुदाय भारत में अल्पसंख्यक बन जाता है और अल्पसंख्यको को सरकारी सरक्षण प्राप्त होता है।
तर्क में प्रवीण आर्यसमाजियों से बहस में जीत पाना कठिन है। किन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर महर्षि दयानन्द के विचारों पर ध्यान दिया जाये, तब सम्भव है, आर्य लोग अपने आपको हिन्दू मानने में संकोच नहीं करेंगे। ऐसा मानने और जानने से हिन्दुओं में एक नई शक्ति का संचार होगा। किन्तु स्थिति ऐसी बनती जा रही है कि एक ही क्षेत्र में आर्य समाज और हिन्दुओं के कार्यकर्ता एक जुट होकर काम करने के बजाय एक दूसरे को पीछे धकेलने में अधिक सक्रिय होते रहे हैं।
आर्य समाज के कुछ विचारक अपने आपको हिन्दुओं से पृथक पहचान में रखना अधिक श्रेष्ठ मानते हैं, तो वर्तमान हिन्दू नेताओं और संस्थाओं में भी कुछ ऐसी भावना आती जा रही है कि आर्यसमाजियों को अपने साथ न रखा जाये। यह भावना उनके कार्यक्रमों, सम्मेलनों और कार्यालयों में प्रत्यक्ष झलकती है। जब हम देखते हैं हिन्दू धर्म के नेताओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम को प्राथमिकता नहीं दी जाती, भले ही वे नेतागण आर्यसमाज के आयोजनों में आकर महर्षि के प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए उनको हिन्दू धर्म का सुधारक कह दें, किन्तु उनके अपने घर में स्थिति दूसरी है। उनको स्वामी जी का खण्डन कार्य कष्ट देता है। खण्डन के साथ-साथ हिन्दू धर्म के प्रति किये प्यार को वे भूल जाते हैं। आचार्य द्वारा दी गई ताड़ना को कष्टमय बताने वाला शिष्य योग्यता प्राप्त करके भी कृतज्ञता के माप से जितना दूर होता है, उतनी ही दूरी हिन्दू नेताओं ने महर्षि के साथ बना ली है। उन्नीसवीं शताब्दी में अछूतोद्धार, शुद्धि और नारी शिक्षा से घृणा करने वाला और ऐसे सुधारों के लिए महर्षि को गाली देने वाला हिन्दू इक्कीसवीं शताब्दी में इसे मानने तो लग गया है, किन्तु महर्षि द्वारा बताये गये तौर-तरीकों पर इसे आज भी एलर्जी है। जब तक यह एलर्जी बनी रहेगी, तब तक सुधार के नाम पर किये जाने वाले प्रयासों का ठोस परिणाम निकलना कठिन है।
राम जन्म भूमि के अधिकार के लिये लड़ने वाला हिन्दू राम की जन्म भूमि प्रमाणित करने में जो दिमाग लगाता रहा है वही दिमाग उसे भारत भूमि को अपनी सिद्ध करने में लगाने का अवकाश नहीं है। विदेशियों द्वारा दिये गये तथ्यों को बिना सोचे-समझे मानने वाला हिन्दू एक दिन इस देश का आक्रान्ता घोषित कर दिया जायेगा, सिर्फ इसलिए कि महर्षि द्वारा कही गई बातें खण्डन के चपत के कारण अग्राह्य मान ली गई हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दू और आर्यसमाजी नेतागण महर्षि के कामों को और उनकी मनोदशा को समझने का प्रयास करें। सत्यार्थ प्रकाश के 11 वें समुल्लास में तत्कालीन संन्यासी समुदायों की अकर्मण्यता और उदासीन वृत्ति का उल्लेख करते हुए ऋषि लिखते हैं-"देखो ! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढते जाते हैं। ईसाई-मुसलमान तक हो जाते हैं, तनिक भी तुमसे अपने घर की रक्षा और दूसरों को मिलाना नहीं बन सकता। बने तो जब तुम करना चाहो।"
ऋषि के इस छोटे से वाक्य में तीन बातों की और स्पष्ट संकेत है। पूरा हिन्दू समुदाय जिसकी चर्चा 11 वें समुल्लास में की गई, वह अपना घर है। इस समुदाय को अपना परिवार मानकर ऋषि इसमें दूसरों को मिलाना और ईसाई-मुसलमान बनने से बचाना आवश्यक समझते हैं। हिन्दुओं की घटती हुई जनसंख्या से आज देश का बुद्धिजीवी वर्ग चिन्तित है। काश! यह चिन्ता एक सौ वर्ष पूर्व लगी होती और देश का संन्यासी वर्ग इसे अपना कर्त्तव्य मान लेता तो देश के बंटवारे के दु:खद दिन देखने न पड़ते।
हिन्दू कहलाने में आपत्ति नहीं - स्वामी दयानन्द को हिन्दू परिवार के एक घटक के परिप्रेक्ष्य में उनके कार्यों पर दृष्टि डालने से समझना आसान होगा। परिवार का सदस्य यदि अपना कर्त्तव्य जानता और मानता हो तो उसे इन चार बातों का ध्यान रखना होता है- अपना गौरवपूर्ण नाम, अपना इतिहास, अपनी कमजोरियों को दूर करते रहना और बाहरी शत्रुओं से सजग रहना।
महर्षि का जीवन संघर्ष उपरोक्त चारों बातों के पालन से ओतप्रोत रहा। महर्षि ने बड़े आग्रहपूर्वक घोषणा की थी कि हमारा नाम आर्य है। हिन्दू नाम हमें विदेशियों की ओर से मिला है। किसी प्राचीन साहित्य में हिन्दू शब्द नहीं मिलता। "हिन्दू" के स्थान पर हमें अपने प्राचीन नाम "आर्य" का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी भाषा के स्थान पर उनको आर्य भाषा कहना अच्छा लगता था। वे "हिन्दुस्तान" के बदले इस देश का नाम फिर से "आर्यावर्त" प्रचलित करना चाहते थे। इस प्रकार का आग्रह अपने घर वालों से (हिन्दुओं) से बराबर करते रहे। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिन्दू नाम से उनको घृणा थी। दूसरे लोग उनको हिन्दू कहते थे तो उन्हें आपत्ति नहीं होती थी। इसका प्रत्यक्ष उदारहण मेरठ के जनाब मुहम्मद कासिम के पत्र हैं जो अगस्त सन् 1878 में उन्होंने स्वामी जी को "हिन्दू धर्म के नेता स्वामी दयानन्द सरस्वती जी" से सम्बोधित किये हैं। पत्रों के उत्तर में स्वामी जी ने इस्लाम मत के नेता जनाब मुहम्मद कासिम से सम्बोधन किया है और कहीं भी उन्होंने हिन्दू धर्म के नेता लिखने पर आपत्ति नहीं की। हिन्दू धर्म के नेता के आधार पर ही मेला चान्दपुर के शास्त्रार्थ में जहॉं मुसलमान और ईसाइयों की ओर से पांच-पांच मुसलमान ईसाई विद्वान् रखे गये, वहॉं हिन्दुओं की ओर स्वामी दयानन्द सरस्वती और मुन्शी इन्द्रमणि थे। एक मुसलमान ने एक पण्डित को लेने की जिद की तब स्वामी जी ने कहा था कि आप कौन होते हैं हमारे विद्वानों के चयन करने वाले। स्वामी जी ने सम्बन्धित पण्डित से भी यह कहा था हमारे आपस में फूट डाल कर ये लोग तमाशा देखना चाहते हैं। इस पर भी एक मौलवी साहब नहीं माने। कहने लगे- सब हिन्दुओं से पूछा जाये कि इस एक पण्डित को लिया जाये या नहीं। तब स्वामी जी ने कहा कि आपको सुन्नी जमात ने बैठाया है, शियाओं ने नहीं। पादरी साहब को रोमन कैथोलिक वालों ने नहीं बैठाया, इसी प्रकार हम आर्यों में भी कुछ सहमति वाले और कुछ असहमति वाले हैं, किन्तु आपको हमारे बीच गड़बड़ मचाने का कोई अधिकार नहीं है।
आर्य भाषा या हिन्दी - इस घटना से स्वामी जी के हिन्दू होने में और अपने को हिन्दुओं का प्रतिनिधि मानने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। सन्देह वहॉं भी नहीं रहता जहॉं मेला चान्दपुर में उन्होंने कहा था, "देखो ! जितने 1800 वा 1300 वर्षों के भीतर ईसाईयों और मुसलमानों के मतों में आपस के विरोध से फिरके हो गये हैं उनके सामने जो 1,96,08,52,97 वर्षों के भीतर आर्यों के मत में बिगाड़ हुआ तो वह बहुत ही कम है।" पूना के प्रवचन में भी उनका संस्कारित अभ्यास "हिन्दू" अपने आप से निकल गया, तब उन्होंने इसका विचार "हम हिन्दुओं को, नहीं मैं भूला, हम आर्यों को करना चाहिए। हिन्दू इस नाम का उच्चारण मैंने भूल से किया। हिन्दू अर्थात् काला यह नाम हमें मुसलमानों ने दिया है, उसको मैंने मूर्खता से स्वीकार किया। आर्य अर्थात् श्रेष्ठ यह हमारा नाम है।" उसी प्रवचन के अन्त में उनका निवेदन था "सज्जन जन! आज से "हिन्दू" इस नाम का त्याग करो और आर्य तथा आर्यावर्त इन नामों का अभिमान धरो। गुण भ्रष्ट हुए तो हुए, परन्तु नाम भ्रष्ट तो हमें न होना चाहिए। ऐसी मेरी आप सबों से प्रार्थना है।"
ऋषि की यह प्रार्थना आंशिक बनकर रह गई। आर्यावर्त हमने नहीं अपनाया। भारत, हिन्दुस्तान और इण्डिया नाम हमारे देश के प्रचलित हैं। हमको इन नामों से लगाव है। इनकी प्रतिष्ठा बनाये रखना हमारा कर्त्तव्य है। हम हिन्दी को आर्य भाषा नाम नहीं दे सके तो "हिन्दी" ही हमें प्रिय है। इसी प्रकार जन-जन के मानस पर आर्य जैसा श्रेष्ठ नामकरण यदि नहीं बैठ पाया, तब हिन्दू नाम को ही अपना गौरव मानना उचित है। बहुमत हिन्दू कहलाने में है तो बहुमत की भावना के साथ समझौता कर लेना बुद्धिमत्ता है। कभी-कभी निरर्थक शब्द प्रिय बन जाते हैं और सुन्दर अर्थ लिये हुए शब्दों को भुला दिया जाता है। पापा और डैडी जैसे निरर्थक शब्दों ने पिताजी शब्द को पीछे धकेल दिया है। कहने वाला और कहलाने वाला पापा डैडी में अपना गौरव समझता है। अत: आर्यसमाजी जनों को हिन्दी हिन्दुस्तान की तरह हिन्दू कहलाने में अपना गौरव समझना चाहिए। कभी दयानन्द जैसा युग-प्रवर्तक फिर आयेगा। समय आयेगा, डैडी पापा का स्थान पिताजी लेगा।
परिवार का श्रेष्ठ सदस्य - परिवार के अच्छे सदस्य को अपने अतीत पर गौरव होता है। अपना इतिहास विकृत न हो जावे, इस प्रकार का प्रयास घर के नेता का होता है, होना चाहिए। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों और प्रवचनों के द्वारा वर्तमान सृष्टि का आरम्भ तिब्बत से माना और तिब्बत से मानव आगे बढते-बढते भारत भू पर आकर बस गये। इस भू खण्ड पर मानव को वेदों का ज्ञान मिला और प्रकृति माता का प्यार मिला। रहने वालों ने अपनी भूमि का नाम आर्यावर्त रखा। यहीं से संस्कृति, सभ्यता का विकास हुआ। ऋषि की यह घोषणा अद्भुत है। विदेशियों ने आर्यों को बाहर से आया बताकर इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया है यह खिलवाड़ हिन्दू जाति को ले डूबेगा। आवश्यकता है समस्त हिन्दू जाति अपने मूलस्थान को जन्मस्थान माने, विजित स्थान नहीं। शास्त्रों की रचना, उपनिषदों के उपदेश, रामायण-महाभारत की ऐतिहासिक घटनायें आर्यों के गौरव हैं। महाभारत के पश्चात् का भारत यद्यपि कमजोर और पददलित होता गया, किन्तु ऋषि की देश-वन्दना सत्यार्थ प्रकाश में और पूना-प्रवचनों में स्मरण करने योग्य है। मुस्लिम काल में गुरु गोविन्दसिंह और शिवाजी का उल्लेख करते हुए जहॉं उनको आत्माभिमान हो गया वहॉं ब्रह्मसमाज और प्रार्थना समाज की संकीर्ण मान्यताओं से उनका असन्तोष भी झलकता है। सत्यार्थ प्रकाश में वे लिखते हैं- "अपने देश की प्रशंसा वा पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके स्थान पर पेट भर निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते, प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ। आर्यावर्ती लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं। इनकी उन्नति कभी नहीं हुई।" इस प्रकार की विचारधारा जाति में फैलाकर उसे घर-घर का भिक्षुक बना देने जैसा कार्य जिस किसी ने किया महर्षि ने उसे देश भक्त नहीं माना। देश भक्ति का पाठ पढाने वाले ऋषि को हिन्दू समुदाय अपना आदर्श न माने, तो यह एक बहुत बड़ी कृतघ्नता होगी। जो आर्य समाजी अपने को हिन्दू से पृथक कहलाना चाहते हैं वे अपने इतिहास की श़ृंखला कैसे जोड़ेंगे? महाभारत काल के पश्चात् वेद के विपरीत कार्य करने वाले आर्यों को हम अपना पूर्वज मानने से इन्कार कैसे कर सकते हैं?
"ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका" में वेदोत्पत्ति विषय पर लिखते हुए ऋषि कहते हैं- "जब जैन और मुसलमान आदि लोग इस देश के इतिहास और विद्या पुस्तकों का नाश करने लगे, तब आर्य लोगों ने सृष्टि के गणित का इतिहास कण्ठ कर लिया और जो पुस्तक ज्योतिष भाष्य के बच गये हैं उनमें और उनके अनुसार जो वार्षिक पंचांगपत्र बनते जाते हैं इसमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता। इस उत्तम व्यवहार को लोगों ने टका कमाने के लिए बिगाड़ रखा है, यह शोक की बात है और टके के लाभ ने भी जो इसके पुस्तक व्यवहार को बना रखा, नष्ट न होने दिया, यह बड़े हर्ष की बात है।"
वैदिक इतिहास को आज तक जोड़ने वाली कड़ी से आर्य समाज पृथक् नहीं हो सकता। पृथक् मान लेने से कोई इतिहास रह नहीं जाता। महर्षि ने इतिहास को बहुत महत्त्व दिया है। एक पारिवारिक कर्त्तव्य निभाया है। तीसरा कर्त्तव्य ऋषि ने जो निभाया उसी को लेकर आर्य समाज और सनातन धर्म नाम के दो पक्ष बन गये। यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जो मनुष्य जिस आदत में पड़ जाता है उसे वह छोड़ना नहीं चाहता, बल्कि वह अपनी आदत को लाभकारी सिद्ध करने की कोशिश करता है, भले ही वह आदत उसके नाश का कारण बन जावे। छोटे-छोटे परिवारों में सुधार की बातें करने वाला पूर्णत: सफल नहीं हो पाता। परिवार आपस में बंट जाया करते हैं। परम्परा की दुहाई, आदतों की शिथिलता और "जनरेशन गैप" आदि सब कारण सुधार प्रक्रिया में बाधा डालते हैं।
हिन्दू परिवार बहुत विशाल और पुरातन है। अनेकानेक सभ्यताओं का प्रभाव पड़ते-पड़ते आज यह धर्म परिभाषाहीन धर्म हो गया है। नाम से ही आर्य नहीं रहे,किन्तु काम से भी आर्यत्व से दूर हो गये। वेद और ईश्वर को न मानने वाला भी हिन्दू है। शिखा सूत्र का प्रसिद्ध चिन्ह भी अब हिन्दू के लिए आवश्यक नहीं रह गया। डाक्टर का बेटा बिना योग्यता प्राप्त किए डाक्टर नहीं कहला सकता,किन्तु हिन्दू पुरोहित का बेटा जन्मजात पुरोहित है। मांसाहार-शाकाहार के भेद से हिन्दू की पहचान नहीं है। इस स्थिति में हिन्दू धर्म को वास्तविक स्वरूप देने में सबसे अधिक संघर्ष यदि किसी ने किया है तो वह स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया है। वह यह मानकर चले हैं कि आर्यावर्त में प्रचलित सभी मत-मतान्तर,जो नाम मात्र से भी वेद को अपना मानते हैं,वे सभी आर्य हैं। -गजानन्द आर्य (आर्य जगत् दिल्ली,9 जुलाई 1989)
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...