ओ3म् कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
को नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च।।
ओ3म् अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च।। (ऋग्वेद 1.24.1-2)
शब्दार्थ- (अमृतानाम्) नित्य पदार्थों में (कतमस्य कस्य देवस्य) कौन-से तथा किस गुण वाले देव का (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम हम स्मरण करें। (कः नः) कौन हमें (मह्या अदितये पुनः दात्) महती, अखण्ड-सम्पत्ति-मुक्ति के लिए पुनः देता है (पितरं च मातरं च दृशेयम्) और फिर किसकी प्रेरणा से माता-पिता के दर्शन करता हूँ। (वयम्) हम (अमृतानाम्) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्नेः देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सः नः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुनः दात्) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ।
Ved Katha Pravachan _86 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
भावार्थ- मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप, ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए। वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्चात् माता-पिता के दर्शन करता है, उसे जन्म धारण कराता है। जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना यह एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए। यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए, तो वह मुक्ति क्या हुई? - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
त्रैतवाद
ओ3म् द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। (ऋग्वेद 1.164.20)
शब्दार्थ- (द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखों वाले पक्षी, पक्षी की भॉंति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक-दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्) एक ही वृक्ष=प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है।
भावार्थ- मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान् और चेतन हैं। दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है।
मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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Trivialism is beautifully rendered in the chant. Three substances in the world are eternal - divine, living soul and nature. All three are instructed in the mantra. Both the soul and the divine are knowledgeable and conscious. Both are located on the tree of the world. The individual is little known. Due to his superficiality, he considers the fruits of the world to be tasty and gets enamored in them. God is omniscient. He has no desire for enjoyment, not even need. He remains a witness to the individual soul.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...