लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
ईसाइयत का आक्रमण- सन् 1857 तक भारत पर अंग्रेजों का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से होता था। कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चेयरमैन मिस्टर मैंगलस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में अपने भाषण में कहा था-
“Providence has entrusted the extensive empire of Hindustan to England in order that the banner of Christ should wave triumphant from one end to the other. Every one must exert all his strength that there should be no dilatoriness on any account in continuing in the country the grand work of making all Indians Christians.”
विधाता ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलैंड के हाथों में इसलिए सौंपा है कि ईसा मसीह का झण्डा इस देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फहरा सके। प्रत्येक ईसाई का कर्त्तव्य है कि समस्त भारतीयों को अविलम्ब ईसाई बनाने के महान् कार्य में पूरी शक्ति के साथ जुट जाए।
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परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य
Ved Katha Pravachan _22 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
भारतीय स्वाधीनता के प्रथम युद्ध की समाप्ति के दो वर्ष बाद इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लार्ड पामर्स्टन ने घोषणा की-
“It is not only our duty but in our own interest to promote the diffusion of christianty as far as possible throughout the length and breadth of India.” - Christianity and Government of India. by Mayhew, P. 194.
अर्थात् यह हमारा कर्त्तव्य ही नहीं, अपितु हमारे हित में भी है कि भारतभर में ईसाइयत का अधिक-से-अधिक प्रसार हो।
पंजाब के गवर्नर लार्ड री ने सन् 1876 में ईसाई मिशनरियों के शिष्टमण्डल को प्रिंस ऑफ वेल्स के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था- “They are doing in India more than all those civilians, soldiers, judges and governers your highness has met.” जितना काम आपके सिपाही, जज, गवर्नर और दूसरे अफसर कर रहे हैं, उससे कहीं अधिक ये (मिशनरी) कर रहे हैं।
विदेशी शासक और ईसाइयत का चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है। हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंग्रेजों के कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया है। आक्रमणकारी के रूप में जाने से पहले ईसाई मिशनरी भेजे जाते रहे। ईसाई मिशनरी द्वारा मैदान तैयार हो जाने के बाद सेनाएँ भेजी जाती रहीं। सैनिक शक्ति के बल पर शासन जम जाने पर सरकार की ओर से देश के ईसाईकरण में पूरी सहायता दी जाती थी। महात्मा गॉंधी जैसे समन्वयवादी तथा सर्वथा असाम्प्रदायिक व्यक्ति को भी स्वीकार करना पड़ा कि ईसाईयों द्वारा किये जा रहे सेवा-कार्यों का वास्तविक उद्देश्य असहाय लोगों की विवशता का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई बनाना है। आज भी केरल, नागालैंड, मिजोरम, असम आदि में जहॉं-जहॉं ईसाईयों का जोर है, वहॉं-वहॉं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का जोर है।
मुसलमान इस देश में आततायी आक्रमणकारियों के रूप में आये और लगभग सात सौ वर्ष तक यहॉं राज्य किया। यह ठीक है कि भारत के मुसलमानों में प्राय: सभी इस देश के रहने वाले हैं, किन्तु उन्होंने स्वयं कभी भी इस देश पर शासन नहीं किया। यहॉं शासन करनेवाले - गुलाम, गौर, तुगलक, खिलजी, लोधी, मुगल-सभी विदेशी थे, तथापि उनके विदेशी होने के कारण इस देश के मुसलमानों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इतिहास इस बात का साक्षी है। सच तो यह है कि कट्टर देशभक्त भी कलमा पढते ही देशविद्रोही बन जाता है। बड़े-से-बड़े राष्ट्रवादी (?) मुसलमान के हृदय में भी जो आदर विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गजनवी, मुहम्मद गोरी या बाबर के लिए है वह इस देश की धरती से उत्पन्न राम, कृष्ण, प्रताप और शिवाजी के लिए नहीं है।
भारत की अस्मिता पर प्रहार- लार्ड मैकाले ने अपने मित्र मिस्टर राउस को लिखा था-
"अब हमें केवल नाममात्र का नहीं, सचमुच नवाब बनना है और वह भी परदा रखकर नहीं, खुल्लमखुल्ला बनना है।"(मिल्स कृत "भारतीय इतिहास" खण्ड 4, पृ.332)।
इसी योजना के अन्तर्गत 1899 में आर्थर ए. मैक्डानल ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा। ईसाई मत के प्रचार से भारत के उद्धार की बाद कहने से पहले यह सिद्ध करना आवश्यक था कि भारत के लोग सदा से बर्बर और असभ्य रहे हैं। कारण? यदि उन्हें पहले से सभ्य मान लिया जाए तो वे उन्हें सभ्य बनाने का दावा कैसे कर सकते थे? मैक्डानल रचित पुस्तक में जो कुछ लिखा गया उसके निर्देशनार्थ कतिपय वाक्य यहॉं उद्धृत किये जाते हैं-
"इतिहासपूर्व काल में जिन आर्यों ने भारत को जीता था वे स्वयं पुराने समय में दूसरों से पराजित होते चले आये थे। (पृ.408)। भारत में इतिहास का अस्तित्व ही नहीं है। उन्होंने कभी इतिहास लिखा ही नहीं था, क्योंकि उन्होंने कभी कोई ऐतिहासिक कार्य किया ही नहीं था (पृ.10-11)। ईरान को भारत कीमती-कीमती भेंट दिया करता था।"
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब दूसरे दशक में पढने के लिए इंगलैंड में रहे तो वहॉं से उन्होंने अपने सहपाठी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान् पण्डित क्षत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय को बहुत-से पत्र लिखे थे। उनमें से उनके कैम्ब्रिज से 12 फरवरी 1921 को लिखे एक पत्र का कुछ अंश यहॉं उद्धृत कर रहे हैं-
"साधारण अंग्रेज युवक (एवम् वयस्क भी) भारत के सम्बन्ध में न अधिक जानता है और न जानना चाहता है। वह जानता है कि अंग्रेज जाति एक महान् जाति है एवम् भारतवासियों को सभ्य बनाने के लिए अपनी हानि सहकर भी अंग्रेज भारत गये हैं। इस धारणा के लिए जिम्मेदार हैं हमारे एंग्लो-इंडियन अफसर एवं पादरी लोग। क्रिश्चियन पादरी हैं हमारी संस्कृति के महाशत्रु। यह बात मैंने इस देश में आकर समझी। वे पैसा इकट्ठा करने के उद्देश्य से पब्लिक को यह समझाने का प्रयास करते है कि भारतवासी एक असभ्य जाति हैं और भील एवम् कोल जातियों के फोटो मॅंगवाकर इस देश के लोगों को दिखाते हैं। -नवभारत टाइम्स, बम्बई, 22 जनवरी 1994
इस प्रकार भारत सदा से एक पराभूत होनेवाला देश रहा है। यह सार-संक्षेप है उस इतिहास का जिसे मिथ्या होते हुए भी हमने अपनी मानसिक दासता के कारण स्वीकार किया हुआ है।
हीनभावना से ग्रस्त कोई व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र ऊपर उठने की सोच भी नहीं सकता। इसलिए दयानन्द ने सबसे पहले मैक्डानल की बातों का प्रत्याख्यान करते हुए लिखा-"यह आर्यावर्त ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। इसीजिए इस भूमि का नाम "स्वर्ण भूमि" है, क्योंकि यही स्वर्ण आदि रत्नों को उत्पन्न करती है। पारस मणि पत्थर सुना जाता है, यह बात तो झूठ है, परन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है जिसको लोहेरूपी दरिद्र विदेशी छूते ही स्वर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेके पॉंच सहस्त्र वर्षों से पूर्व समयपर्यन्त आर्यों का सार्वभौमिक चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे"। -सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11
वैदिक धर्म में सार्वजनिक हित की भावना से प्रेरित मातृभूमि के प्रति अत्यन्त आदर का भाव होना स्वाभाविक है। (अथर्ववेद का भूमिसूक्त 12-1) इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अपने विषय का यह अनूठा गीत है। संसार के किसी भी साहित्य में वैसा सुन्दर गीत शायद ही मिले। उसकी एक झलक विष्णुपुराण के इस श्लोक में मिलती है-
गायन्ति देवा: किल गीतकानि, धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते, भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।।
यह अपने मुंह मियॉं मिट्ठु बनने-जैसी बात नहीं है। ऋषि दयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढने के बाद मैक्समूलर ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service= I.C.S.) में नियुक्त युवकों को इंगलैंड से भेजे जाते समय भारत का परिचय देते हुए कहा था- "आप अपने अध्ययन के लिए जो भी भाषा अपनाएँ-भाषा, धर्म, दर्शन, विज्ञान, कानून, परम्पराएँ- हर विषय का अध्ययन करने के लिए भारत ही सर्वाधिक उपयुक्त क्षेत्र है। आपको अच्छा लगे या न लगे, परन्तु वास्तविकता यही है कि मानवता के इतिहास की बहुमूल्य एवं निर्देशक सामग्री भारतभूमि में संचित है, केवल भारतभूमि में। (हम भारत से क्या सीखें)
“We have all come from the East - what we value most has come to us from the East and by going to the East everybody ought to feel that he is going to this ‘old home’ full of memories, if only we can red them.” -Ibid
अर्थात् यह निश्चित है कि हम सब पूर्व से आये हैं। इतना ही नहीं, जो कुछ भी हमारे जीवन में मूल्यवान् और महत्तवपूर्ण है, वह सब हमें पूर्व से ही मिला है। ऐसी स्थिति में जब भी हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यही सोचना चाहिए कि हम अपनी पुरानी स्मृतियों को संजोए हुए अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।
फ्रांस के महान् सन्त तथा विचारक क्रूजे (Cruiser) ने लिखा है-
“If there is country which can rightly claim the honour of being the cradle of human race or at least the scane of primitive civilisation, the successive development carried in all parts of the ancient world, and even beyond, the blessings of knowledge which is the second life of man, that country assuredly is India.” -J. Beatie : Civilisation and Progress.
अर्थात् यदि कोई देश वास्तव में मनुष्यजाति का पालक होने और उस आदि सभ्यता का जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार किया, स्त्रोत होने का दावा कर सकता है तो निश्चय ही वह देश भारत है ।
जैकालियट संस्कृत के विद्वान् थे। उन्होंने फ्रैंच भाषा में ‘La Bible dans la Inde’ (बाइबल इन इण्डिया) नामक एक विश्वविख्यात ग्रन्थ की रचना की थी। पं. भगवद्दत्तजी के अनुसार इस ग्रन्थ का प्रकाशन सन् 1869 में हुआ था। "भारत में बाइबल" नाम से हिन्दी में इसका अनुवाद पं. सन्तराम बी.ए. ने किया था। जैकालिस्ट के अनुसार मिश्र, जूडिया, यूनान, रोम आदि सब देश अपने जातिभेद, अपनी मान्यताओं और धार्मिक विचारों में भारत के ब्राह्मणों का ही अनुकरण करते थे और उसके ब्राह्मणों तथा याज्ञिकों को आज भी वैसे ही मानते हैं जैसे कभी पहले वैदिक समाज की भाषा, धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र को मानते थे।
अमेरिकन विदुषी श्रीमती व्हीलर विल्लौक्स (Wheeler Willox) ने इस विषय में लिखा है-
“It (India) is the land of the Great Vedas - the most remarkable works, containing not only religious ideas for a perfect life but also facts which science has since proved true. Electricity, Redium, Electrons, Airships - all seem to have been known to the seers who found the Vedas.”
अर्थात् यह (भारत) उन महान् वेदों की भूमि है, जो अद्भुत ग्रन्थ हैं, जिनमें न केवल पूर्ण जीवन के लिए उपयोगी धार्मिक सिद्धान्त बताये गये हैं, अपितु उन तथ्यों का भी प्रतिपादन किया गया है जिन्हें विज्ञान ने सत्य प्रमाणित किया है। बिजली, रेडियम, इलेक्ट्रॉन, विमान आदि सभी कुछ वेदों के द्रष्टा ऋषियों को ज्ञात प्रतीत होता है।
इस देश का निर्माण वही कर सकता था जिसे इसकी मिट्टी से प्यार हो, जो इस देश को अपना मानता हो, अर्थात् अपने को इस देश पर बाहर से आकर बलात् अधिकार करनेवाला विदेशी आक्रमणकारी न मानकर इस देश का मूल निवासी मानता हो। इसकी सभ्यता तथा संस्कृति में जिसकी आस्था हो,इसके इतिहास पर जिसे गर्व हो, इसके महापुरूषों के प्रति श्रद्धा हो और जो वैदिक मान्यताओं के आधार पर इसका निर्माण करने के लिए कटिबद्ध हो। गत सहस्त्रों वर्षों में इस प्रकार का अलौकिक व्यक्तित्व दयानन्द के रूप में अवतरित हुआ। वह न हुआ होता तो हिन्दुस्तान, इण्डिया-जैसा नामधारी देश तो होता, किन्तु आर्यावर्त्त अथवा भारत कहीं देखने में न आता। इसलिए आधुनिक भारत का निर्माता दयानन्द के सिवाय कौन हो सकता है?
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That is, this (India) is the land of the great Vedas, which are wonderful texts, which not only contain the religious principles useful for the whole life, but also the facts which have been proved by science to be true. Electricity, radium, electrons, planes etc. all seem to be known to the seers of the Vedas.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...