मानव जीवन बहुमूल्य है। बहु आयामी है। समग्रता से युक्त जीवन, अनेक जीवनों को ज्योतित कर देता है। त्याग, तप और शुद्धाचरण व्यापक प्रभाव छोड़ता है। देह के विसर्जन होने पर भी अदृश्य देही के गुण शताब्दियों तक नहीं भूलते। क्या अल्पज्ञ जीव जीवन में समग्रता को संजोकर साधना के मार्ग पर तत्परता के साथ जब चलता है तो उसे ही लोकोत्तर कार्य करने के कारण पूर्ण पुरुष कहते हैं। उसी के बतलाए ज्ञान के प्रकाश में जीवन को जीने की कला तो सीखते ही हैं, उसको ज्योति स्तम्भ मान कर अपना पथ प्रदर्शक हृदय से स्वीकारते ही नहीं अपितु उसके एक-एक शब्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐसी विभूतियॉं आध्यात्मिक दृष्टि से भी सभी की पूज्यार्ह हो जाती हैं। शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) हजारों वर्षों से अपने नाम को सार्थक करती हुई धूमधाम से मनाई जाती है, परन्तु जो दीपावली सम्वत् 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार को मनाई गई उसकी प्रभा महर्षि दयानन्द सरस्वती की उच्च आत्मा ने नश्वर देह का परित्याग करते हुए गहरे नास्तिक को आस्तिक बनाने का चमत्कार से कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है क्या?
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
सुख-शान्ति का रास्ता एवं सुखी जीवन के वैदिक सूत्र
Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
कितनी दीवालियॉं आई और चली गई, परन्तु एक दीपमाला ऐसी भी आई कि एक ज्योति तो देह छोड़ कर जगज्जननी की अमृतमयी क्रोड़ में आनन्द प्राप्ति हेतु समर्पण कर रही है और दूसरी ओर महर्षि दयानन्द के देह त्याग से आकर्षक मुख मण्डल की आभा-प्रभा-प्रसन्नता को देखकर एक सुपठित गुरुदत्त नास्तिकता के गहरे गर्त्त से निकल आस्तिकता की आनन्दमयी लहरों की उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो रहा है। ऐसे अवसर के लिये जो सांसारिक मुहावरा बना "जादू वही जो सिर चढ कर बोले" चरितार्थ हो गया। यह विश्व के इतिहास में आश्चर्य चकित करने वाली घटना है। किसी की मृत्यु भी किसी को जीवन दे सकती है। यदि मृत्यु मार्ग दिखा सकती है किसी को तो उसके जीवन में क्या शक्ति रही होगी यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे महापुरुषों का लोकोत्तर जीवन में आना और जाना लोक कल्याण के लिये होता है। चमत्कार में महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोई विश्वास नहीं। सांसारिक दृष्टि से महत्ता प्रकट करणार्थ इससे सरल और चिरपरिचित शब्द भी नहीं जो अभिधा में ये अर्थ प्रकट करे।
मूलशंकर ने एक सामान्य ग्राम टंकारा में जन्म पाया। माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र मूलशंकर रहा। चौदह वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना और माता-पिता की आज्ञा मान कर शिवरात्रि में व्रत रख कर मन्दिर में जागरण करना मूलशंकर की मातृ-पितृ भक्ति परायणता का परिचायक है। चौदह वर्ष की बालावस्था में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना जिसके चालीस अध्याय और एक हजार नौ सौ पिछत्तर मन्त्र हैं। ये उस युग के घरों की शिक्षा का खुला विवरण है। आज हमारे घरों में गृहशिक्षा न के बराबर है। गायत्री मन्त्र भी शायद हमारे बच्चों को नहीं आता। यह विडम्बना कहॉं तक झेलते रहेंगे हम? स्वामी दयानन्द जी महाराज से किसी नवयुवक ने पूछा कि आप बड़े विद्वान्, तार्किक, संस्कृतज्ञ, त्यागी-तपस्वी एवं वेदों के मर्म को जानने वाले हैं परन्तु आपको अपने जैसा आदमी क्यों नहीं मिला? स्वामी जी महाराज का सत्यता से परिपूर्ण सरल यह उत्तर था कि "मैंने जीवन में अपना घर छोड़ कर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण किया। अत: मुझे जीवन में मेरे जैसा आदमी नहीं मिला।" यह स्वाभाविक उत्तर स्वामी जी के किसी भाव को इंगित करता है। स्वामी जी के आज के अनुयायियों को सोचना चाहिए। पितृ यज्ञ का पंचमहायज्ञ विधि में नैतिक जीवन के लिये विधान है। हमारे घरों में केवल पितृयज्ञ का पालन कैसा हो रहा है? यह विचारणीय है। स्वामी जी के समस्त साहित्य में जो व्यावहारिक शिक्षाएं हैं वे सर्वोपयोगी सर्वग्राह्य है। आज भौतिकवाद की अन्धी आन्धी ने सबको आँख होते हुए भी अन्धा बना दियाहै। आर्यों के लिये भौतिकवाद की खुली चुनौती है और आर्य समाज मूक दर्शक बना हुआ है। किंकर्त्तव्यविमूढ नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।
आर्य समाज की स्थापना करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जो स्फूर्ति और जो उर्वरा भूमि आर्य समाज के माध्यम से वेद के रूप में शाश्वत मूल्यों को प्रदान की, जिसमें विश्व के मनीषियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ चरित्र के निर्माण हेतु आर्यावर्त्त देश में आकर शिक्षा ग्रहण का सन्देश उच्च स्वर से प्रदान किया, क्या उत्तरदायित्व लेने वाले लोगों ने इसे गम्भीरता से निभाया? ऐसे अकर्मण्य दिशाहीन वेदविहीन लोगों ने ऋषि की महिमा और उद्देश्य को समझा ही नहीं। अन्धेरे में लाठी चलाने का कोई लाभ नहीं। जगाने वाले गहरी नींद में सो गये। इनको कौन जगाये?
वेद निर्भ्रान्त नित्य, शाश्वत, अपौरुषेय और परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद केवल चार हैं। मूल संहिताएं ही वेद हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इनके नाम हैं। इन वेदों के लिये स्वामी दयानन्द ने कहा "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आर्य समाज की स्थापना को एक सौ अड़तीस वर्ष हो गए हैं। आर्य समाज के प्रारम्भिक पचास वर्ष को छोड़कर उपरोक्त नियमानुसार कितनी सत्यविद्याओं का प्रकाश आर्य समाज ने किया? शास्त्रार्थ युग में भी सामाजिक क्षेत्र में वेद का नाम लोगों को परिचित कराने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। जिस दृढता के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यान्वेषक बन कर वेद को प्रमाण मान और जनता के बीच में वेद प्रमाण पुस्तक से दिखा कर वेद के लुप्त ज्ञान को जनता से सहज स्वीकार कराया। यह दयानन्द की प्रकट विधि आर्य समाज में दीर्घ जीवी नहीं हो सकी। स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेदों के विषय में सत्य घोषणा से प्रभावित हुए अन्य लाखों लोगों ने दयानन्द की विचारधारा को स्वीकारा। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हुए लिखा-
"वेदों के जानने वाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं।"
"कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के बिना सम्पूर्ण सांगोपांग वेद विद्याओं को प्राप्त होने के योग्य नहीं होता।"
"जो मनुष्य पुरुषार्थी, विचारशील, वेद विद्या के जानने वाले हैं वे ही संसार के आभूषण होते हैं।"
तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये।
कितने शहीद हो गये कितनों ने सर कटा दिये।।
अपने लहू से लेखराम तेरी कहानी लिख गये।
तूने ही लाला लाजपत शेरे बब्बर बना दिये।।
ये पंक्तियॉं किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखती। ये स्वामी जी का बोलबाला था।
आज आर्य समाज के पुस्तकालयों में वेद गर्दोगुब्बार के नीचे दबे पड़े हैं। क्योंकि वेद स्वाध्याय का समय नहीं और वेद आर्यों के लिए उपयोगी नहीं। क्योंकि सारी सत्य विद्याओं का भण्डार आर्य समाजी बन गया। पूछो तो वेद का क ख नहीं बता सकते। ये तो पण्डित जी बतायेंगे। पण्डित जी को अपनी रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं। क्योंकि आर्य समाज इन अधूरे पण्डितों को रखकर इनकी विवशता का पूरा लाभ उठा कर पण्डितों को गुलाम बना कर वेद प्रचार करना चाहता है। तो पूरी गलफांसी का शिकार है आर्य समाज। जो थोड़े बहुत गुरुकुलों, विद्यालयों या उपदेशक विद्यालयों में सीख कर इस क्षेत्र में आते हैं वे अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण सड़क पर रहते हैं। लगभग विद्वानों की स्थिति आर्य समाज में भिखारियों जैसी है। आर्य समाज वेद के कार्य में गम्भीर नहीं।
चरित्र के धनी स्वामी दयानन्द ने चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बाह्य शक्ति के साथ अन्तर्तम के साहचर्य से दिव्य पावन प्रकाश के पावन आलोक में मानव का नवोत्थान है। गायत्री मन्त्र का उपदेश शिक्षा के प्रारम्भ में नैतिक शिक्षा का विश्वोपयोगी सूत्र है। बुद्धि की पवित्रता की कामना प्रभु से करे। स्मृति-श्रुति में जिस आचार का उपदेश दिया गया, उसका आचरण करके आत्मवित बनने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य से राजा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की व्यावहारिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे स्वामी दयानन्द। यही उनकी सफलता का रहस्य था। आर्ष शिक्षा प्रणाली के प्रबल व्यावहारिक समर्थक थे स्वामी जी। शिखा सूत्र भी हमारी शिक्षा के प्रमुख सूत्र थे। इनके नियमों को पालन करते हुए आत्मवित के साथ जीवन के मूल्यों को आचरण में रचा-पचा कर उच्च शिखर पर आरूढ होता था मनुष्य। आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:। जिस मनुष्य का आचार ठीक नहीं उसको तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की सफलता का रहस्य आचार पर ही सर्वथा निर्भर करता था। पांच यम नियम स्वामी जी ने जीवन में रचा-पचा कर ही सभी प्रकार के पाखण्डों से लड़ाई लड़ी। आजकल आचार सदाचार की परिभाषा ही बदल गई है। "लुच्चा सबसे ऊंचा" तो आचार क्या करेगा।-आचार्य हरिदत्त शास्त्री (आर्यजगत् दिल्ली, 26 अक्टूबर 1997)
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The secret of success of Maharishi Swami Dayanand Saraswati depended solely on ethics. The five Yama Niyam Swamis fought and fought all kinds of hypocrisies in life. Nowadays the definition of ethics has changed. What will the ethics do if "the scoundrel is the highest"? - Acharya Haridutt Shastri (Aryajagat Delhi, 26 October 1997)
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...