ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के इक्कीसवें सूक्त के छठे मन्त्र में जहॉं अपने उल्लासमय जीवन के लिये अनेक प्रार्थनायें की गई हैं, वहीं "वाचः स्वाद्मानं धेहि' कहते हुए वाणी की मधुरता प्रदान करने की भी प्रार्थना परमात्मा से की गई है।
मनुष्य जीवन में वाणी का बड़ा महत्व है। वाणी को मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण कहा गया है। नीति-शतक के एक श्लोक का सारांश है कि मनुष्य को उसकी सुसंस्कृत वाणी ही अंलकृत करती है। अन्य आभूषण तो क्षीयमान हैं। किन्तु वाणी रूपी आभूषण ही वास्तव में मनुष्य का आभूषण है। रहीम ने भी कहा है- रहिमन कटुक वचन ते दुख उपजत चहुं ओर।
Ved Katha Pravachan _93 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
महाभारत युद्ध के अनेक कारणों में से एक कारण वाणी का दुरुपयोग भी है। दुर्योधन प्रकृत्या महत्वाकांक्षी और ईर्ष्यालु तो था ही, किन्तु बिना सोचे-समझे द्रोपदी, अर्जुन, कृष्ण, नकुल, सहदेव और भीम के वचन तथा उपहासपूर्ण व्यवहार ने उसकी ईर्ष्याग्नि में घृत का कार्य किया था। युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ के समय उसको भण्डारगृह का अधिपति बनाया गया था। विभिन्न देशों के राजा-महाराजाओं द्वारा दी जाने वाली भेंट और सम्पत्ति, धन-दौलत, आभूषण आदि एकत्रित हो गये थे कि दुर्योधन की आँखें चौंधिया गई और वह ईर्ष्या से दहकने लगा था तथा इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था।
उसकी ऐसी दशा देखकर मामा शकुनि ने धृतराष्ट्र से इसका वर्णन किया तो धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलाकर कहा, '"पुत्र ! तुम्हारे पास भी किसी वस्तु की कमी तो है नहीं। तम्हारे लिये भी पाण्डवों जैसा सभागार बनवाया जा सकता है। अतः तुम पाण्डवों की समृद्धि को देखकर अपना मन छोटा मत करो।'' यह सुनकर दुर्योधन अपनी व्यथा का बखान करते हुए बोला, "तात ! युधिष्ठिर के सभा-भवन को बहुमूल्य रत्नों से, जिनके ऊपर स्फटिक मणि भी लगी हुई थी, ऐसा रचा है कि उसका फर्श मुझे कमलों से सजी पानी से लबालब भरी वापी (बावड़ी) प्रतीत हुई। मैंने उसे पानी से भरी बावड़ी समझकर उधर से जाते हुए अपने कपड़े ऊपर को उठा लिये तो भीम खिलखिला कर हंस पड़ा। उसके हंसने का एक भाव यह भी था कि उसके पास अपार ऐश्वर्य है और मैं निरैश्वर्य हूं। उस समय मन में आया कि उसका वहीं पर गला घोंट दूँ। किन्तु तभी मेरी समझ में आ गया कि यदि मैंने ऐसा किया, तो मेरी भी वही गति होगी जो गति कृष्ण ने शिशुपाल की की थी। शत्रु द्वारा किया गया इस प्रकार का उपहास मुझे जलाये डाल रहा है। मैंने आगे चलकर फिर देखा कि वैसी ही कमलों से सजी एक अन्य बावड़ी है। मैंने पहले के समान उसे भी रत्नकमल जटिल पत्थर ही समझा और मैं आगे बढ़ा तो पानी में गिर पड़ा। यह देखकर कृष्ण और अर्जुन ठहाका मारकर हंसे, तो द्रोपदी भी अपनी सखियों के साथ खिलखिला पड़ी। इस उपहास से मुझे मर्मान्तक वेदना हुई। पाण्डवों के सेवकों ने मेरे लिये अन्य वस्त्रों की व्यवस्था कर दी। हे राजन ! और भी जो धोखा हुआ वह भी सुनिये। एक दीवार पर द्वार सा प्रतीत होता था। जब मैं उससे निकलने लगा तो मेरा मस्तक दीवार से टकराकर चौटिल हो गया। नकुल सहदेव ने यह देखकर मुझे अपनी बाहों में थामते हुए खेद व्यक्त किया और बोले राजन् ! द्वार यह है वह नहीं। उसी समय उच्च स्वर में हंसते हुए भीम ने कहा, धृतराष्ट्रपुत्र! द्वार यह है, वह नहीं। धृतराष्ट्रपुत्र कहकर प्रकारान्तर से उसने मुझे अन्धा कह दिया।''
इस सारे प्रकरण से स्पष्ट है कि पाण्डवों का गर्व मिश्रित यह उपहास और उसे धृतराष्ट्र-पुत्र कहकर पुकारना, जिससे दुर्योधन को अन्धा कहना ध्वनित होता है, साधारण बात नहीं अपितु व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुत बड़ी भूल थी। कटु और व्यंग्यात्मक वाणी तथा मधुर वाणी में यही अन्तर है। नम्र वाणी तो जादू का सा प्रभाव डालती है। इस प्रकार महाभारत युद्ध का एक कारण कटुवाणी भी थी, जिसने दुर्योधन को विचलित कर दिया और उसने युधिष्ठिर की उस सम्पत्ति को हड़पने के उपाय में पाण्डवों को वनवास तक दिला दिया।
इसके विपरीत महाभारत का ही वह प्रसंग भी है जब महाभारत युद्ध आरम्भ ही होने वाला था और समुद्र के समान विशाल सेनायें युद्धभूमि पर खड़ी थी, तब युधिष्ठिर अपने शस्त्रास्त्र अपने रथ पर रखकर हाथ जोड़ता हुआ शत्रु सेना की ओर बढ़ चला। उसे इस प्रकार जाता देखकर अर्जुन भी उसी प्रकार उसके पीछे-पीछे चलने लगा, तो कृष्ण सहित सभी पाण्डव भी चलने लगे। पर कहॉं और क्यों जा रहे हैं, यह किसी को ज्ञात नहीं था। उनकी यह दशा देखकर कृष्ण ने कहा, '"भैया युधिष्ठिर सर्वप्रथम भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य की अनुमति लेकर शत्रु से युद्ध करेंगे।''
उधर युधिष्ठिर को कौरव सेना की ओर जाता देखकर कौरवों के सैनिक यह अनुमान करने लगे कि हमारी सेना की विशालता को देखकर युधिष्ठिर युद्ध न करने का विचार व्यक्त करने आ रहा है। इस प्रकार चलते हुए युधिष्ठर ने शस्त्रास्त्र से सज्जित भीष्म के सम्मुख जाकर उनके चरण पकड़कर कहा, '"तात! आपसे आपके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति लेने के लिए हम लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं। कृपया आज्ञा और आशीर्वाद देकर हमें अनुग्रहित कीजिये।'' भीष्म, युधिष्ठिर के श्रद्धापूर्ण तथा स्नेहिल वनचों को सुनकर गद्गद् हो गये और बोले, '"पुत्र ! मैं प्रसन्न हुआ।
तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो।'' इसी प्रकार युधिष्ठिर द्रोण, कृप और शल्य के पास गये तो उन सब पर भी उसकी वाणी का वही प्रभाव हुआ जो भीष्म पर हुआ था और उन्होंने भी उसी प्रकार आशीर्वाद देकर उसके विजय की कामना की। उसके बाद युधिष्ठिर कौरव सेना की ओर उन्मुख होकर बोले, "जो योद्धा हमें न्याय के मार्ग पर समझकर हमारी सेना में आना चाहता हो हम उन्हें गले लगाने को उद्यत हैं।'' यह सुनकर दुर्योधन का सहोदर भाई "युयुत्सु' बोला, "यदि आप मुझे अपना सकें तो मैं आपकी ओर से कौरवों से लड़ने को उद्यत हूँ।'' युधिष्ठिर ने उसे गले लगाया और कहा कि प्रतीत होता है युद्धोपरान्त धृतराष्ट्र के नामलेवा तुम ही रहोगे।
यह बात दूसरी है कि यदि भीष्म आदि इस परिस्थिति के उपस्थित होने से पूर्व ही दुर्योधन को उसके कुमार्ग से हटाने का यत्न करते तो कदाचित महाभारत युद्ध न होता और 18 अक्षोहिणी सेना नष्ट न होती और महिलायें विधवा तथा उनके बाल-बच्चे अनाथ न होते एवं युद्धोपरान्त कुछ काल के पश्चात जो दुराचार और अनाचार देश में फैला वह भी न फैलता।
इसी प्रसंग में दुर्योधन की कुटिल मृदुभाषिता का भी एक उदाहरण यह है कि लोलुपता और चाटुकारिताप्रिय मद्रनरेश जो नकुल और सहदेव का सगा मामा था, दुर्योधन की नम्रता और सद्व्यवहार पर मुग्ध होकर उसकी ओर से युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया था। दुर्योधन के उस अभिनय को लोलुप शल्य समझ नहीं पाया था। पाण्डवों का सगा मामा विरोधी पक्ष में हो जाए, यह मीठी वाणी और सद्व्यवहार का ही तो चमत्कार था।
मृदु वाणी और कटु एवं व्यंग्यात्मक वाणी के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव से सम्बन्धित महाभारत युद्ध के ये प्रसंग मनुष्य की आँखें खोलते हुए इस लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं कि मृदु वाणी ही सफल एवं स्वच्छ जीवन का सार है। महाभारत के ही एक अन्य प्रसंग में महात्मा विदुर ने वाणी के विषय में एक सुन्दर उदाहरण देेते हुए कहा है कि बाणों से बीन्धा हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाड़ी से काटा गया वृक्ष अथवा वन पुनः हराभरा हो जाता है, किन्तु कटु वाणी द्वारा बीन्धा गया व्यक्ति का घाव कभी नहीं भरता।
कागा किससे क्या लेत है, कोयल किसको क्या देत।
मधुर वचन बोल के, जग अपनो करि लेत।।- आचार्य डॉ. संजयदेव
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Voice has great importance in human life. Vani has been called the greatest jewel of man. The summary of one verse of Niti-century summarizes that man is his cultured voice. Other ornaments are dilapidated. But speech ornament is really a human ornament. Rahim has also said - Rahiman katuk vaan te dukh upjat chahinder
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...