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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • प्रेरक प्रसंग

    हिन्दवी साम्राज्य का सेनापति

    स्वातन्त्र्यवीर सावरकर तात्या टोपे को छत्रपति शिवाजी के समान महान्‌ सेनापति मानते हैं। सावरकर जी लिखते हैं- "श्री तात्या टोपे मानो पराभूत शिवाजी थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रयत्न को यश नहीं मिला, इतना ही दोनों में अन्तर था। किन्तु सेनापतित्व से दोनों समान थे।''

    युद्ध क्षेत्र में होने वाली उनकी गतिविधियॉं इतनी वेगवान थीं कि बड़े-बड़े सेनापति दॉंतों तले उंगली दबाते थे। ब्रिगेडियर राबर्ट्‌स ने तात्या टोपे पर जब आक्रमण किया तो वे दहाड़कर बोले, "हिन्दवी साम्राज्य का मैं सेनापति हूँ।''

    तात्या की बहादुरी देख अंग्रेज हैरान हो गए।18 अप्रैल1859 को तात्या टोपे को फॉंसी की सजा दी गई।

    Ved Katha Pravachan _82 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    धीरज

    भगवान बुद्ध भ्रमण कर रहे थे। लम्बा सफर तय करने के उपरान्त उन्हें मार्ग में प्यास लगी। उन्होंने आनन्द से समीपस्थ झरने से पानी लाने के लिए कहा। जबकि उन्होंने देखा कि कुछ समय पूर्व ही वहॉं से बैलगाड़ियॉं गुजरी थीं तथा बैलों ने सारा जल गन्दा कर दिया था। उसके बावजूद भी बुद्धदेव ने आनन्द से वहीं से जल लाने को कहा।

    आनन्द जल लेने चले गएकिन्तु कुछ ही देर बाद वे आए और बुद्धदेव से बोले- "यहॉं का जल गन्दा है। मार्ग में हमें जो नदी मिली थीमैं वहॉं का जल लाता हूँ।'' किन्तु बुद्धदेव बोले- "झरने से ही जल ले आओ।'' आनन्द जब झरने के पास गए तो उन्होंने देखा कि जल अभी भी साफ नहीं हुआ है। वे वापस आ गए और बुद्धदेव से उन्होंने फिर जल के गन्दे होने की बात बताई। बुद्धदेव ने उन्हें पुनः झरने का ही जल लाने भेजा। किन्तु गन्दा जल देख आनन्द की इच्छा न हुई कि उसे अपने स्वामी को पिलाया जाए। वे लौट आए और बुद्धदेव ने पुनः उन्हें वापस भेजा। ऐसा तीन बार हुआ। चौथी बार जब आनन्द वहॉं गए तो देखा कि मिट्टी और सड़े-गले पत्ते नीचे बैठ चुके हैं तथा पानी आईने की भॉंति चमक रहा है। इस बार वे जल लेकर लौटे।

    तब बुद्धदेव बोले- "आनन्द! जीवनरूपी जल को भी कुविचारूपी बैल प्रतिदिन गन्दा करते रहते हैं और तब हम जीवन से पलायन करते हैं। किन्तु हमें भागना नहीं चाहिएबल्कि मनरूपी झरने के शान्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसके लिए धीरज की आवश्यकता है। तभी सब कुछ स्वच्छ दिखाई देगाठीक इस झरने की तरह।''

    अब जाकर आनन्द की समझ में आया कि बुद्धदेव क्यों बार-बार उसे झरने का ही जल लाने के लिए कह रहे थे। धीरज रखने से ही गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

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    Lord Buddha was traveling. After traveling a long way, he got thirsty on the way. He asked Anand to bring water from the nearby waterfall. While he saw that some time ago bullock carts had passed from there and the bulls had messed up all the water. Even then, Buddhadev asked Anand to bring water from there.

     

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  • बोलना सिखाया जिन्होंने अब उनसे ही बोलते नहीं

    घर-परिवार

    शीर्षक में इंगित समस्या आज की ही नहीं, पुरातन काल से चली आ रही है, भले पहले अतिन्यून हो, अब अत्यधिक है। महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूर्ण प्रभावित होकर छलेसर के रईस ठाकुर मुकुन्दसिंह ने उनको आग्रहपूर्वक अपने गॉंव में आमन्त्रित किया। हाथी-घोड़ा-पालकी-सैनिक व विशाल जन-समूह के साथ उनका स्वागत किया। उनके प्रवास के लिये नवीन भवन बनवाया। विशेष यज्ञ रचाया। पण्डित व प्रजाजन की वहॉं भीड़ लगी रही। इतने कोलाहल में भी ठाकुर मुकुन्दसिंह के पुत्र कुँअर चन्दनसिंह का मौन महर्षि को बहुत अखर रहा था। कारण कुछ भी हो, पिता-पुत्र की बोलचाल बन्द थी। ग्राम में कुम्भ जैसा मेला और उसका शोर, फिर भी पिता-पुत्र में मनोमालिन्य बना रहे, महर्षि इस पीड़ा को सहन नहीं कर सके। इन दोनों के सम्मुख वे बोले और ऐसा बोले कि पिता ने निज पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला दी तथा उसे अपनी गोदी में बैठा लिया और मन का मैल सदा-सदा के लिये धुल गया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप-1

    Ved Katha Pravachan _65 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev 


    परमपिता परमात्मा अपने प्रतिनिधि पुत्र सन्तरूप में भेजकर समाज में श्रेष्ठ वार्तालाप का वातावरण बनाते रहते हैं। जब यही तथाकथित सन्त स्वार्थी हो जाते हैंतो समाज में संवाद समाप्त होकर विवाद-परिवाद की वायु बहकर सन्ताप उत्पन्न कर देती है।

    विवाह संस्कार के कारण श्रीमती सहित एक उस नगर में जाने का अवसर मिलाजहॉं हम कभी 49 वर्ष पहले गये थे। श्रीमती जी अपनी दूर की दादी से मिलना चाहती थी और मुझे अपने समवयस्क मित्र से मिलने का आकर्षण था। मित्र मिले। वे उतने ही प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मिलेजितने राजासाहब सम्बोधन से जाने जाने वाले उनके पिता थे। जितनी अधिक उनकी भूमि-भवन-धन की सम्पदा थीउतनी ही उनकी सुकीर्ति मान्यता भी थी। उन्होंने सर्वत्र मुझको भ्रमण कराया और ले जाकर खड़ा कर दिया अपने एक पुत्र के प्रभूत प्रतिष्ठान पर और लगे उससे मेरा परिचय कराने। वह अच्छा खासा समझदार पुत्र न उनसे बोला और न मुझसे नमस्ते तक की। मित्र तो खड़े के खड़े ही रह गये। किन्तु मुझसे वहॉं नहीं रुका गया और मैं उनका हाथ पकड़कर आगे बढ़ा लाया। मार्ग में उन्होंने बताया कि इस पुत्र को मुझसे यह आपत्ति है कि पिता की इतनी उच्च मान-प्रतिष्ठा होेते हुए भी मेरे लिए कुछ नहीं किया।

    यह तो रही मेरी भेंट मित्र सेअब श्रीमती जी की दूर की दादी की कहानी सुनिये। मिलने पहुँची तो उनको घर से बाहर एक टूटी-टाटी खाट पर पड़ा पाया। देखकर उठी। इनको अपने हृदय से चिपटा लिया। दादी के स्वावलम्बी पुत्र का बाल-बच्चों वाला परिवार! किन्तु दादी से कोई बोलता नहीं।

    यह जो हमने दूर के नगर में जाकर देखावह हमारे नगर में आस-पास भी घटता दिखाई देता रहता है। हम दो ऐसे बच्चों को जानते हैं। एक दूसरे ही वर्ष में चलने और बोलने लगा तथा दूसरे बच्चे ने इन दोनों कार्यों में कई-कई वर्ष लगा दिए। जब यह चलता-बोलता नहीं थातो माता-पिता-परिजन सब व्याकुल रहते थे। उपचार-उपाय खोजते व चिन्तित रहते दिन कटते थे। जिन माता-पिता-अभिभावकों ने उन्हें बोलने में समर्थ बना दियाबड़े होकर वही बच्चे अन्य सबसे तो बोलते हैं पर अपनों से ही नहीं बोलते हैंतो उनका हृदय टूट जाता है। इसका दूरगामी दुष्प्रभाव ऐसी सन्तानों पर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता है। माता-पिता ही क्या उस परमेश प्रभु के साथ भी ऐसे लोगों का यही व्यवहार होता हैजो माता-पिता दोनों के रूप में जन्म देकर पालन-पोषण करता है। प्रभुदेव सविता अग्नि के समक्ष शान्त शीतल जलाञ्जलि पूर्वक व्यक्ति मांग करता है- वाचस्पतिर्वाचं ना स्वदतु (यजुर्वेद 30.1) अर्थात्‌ हे वाणी के स्वामी परमेश्वर! आप हमारी वाणी को मधुर बना दीजिये।

    जीभ तो मानव-पशु सबके पास है। पशुओं की जीभ तो सदा समान रहती है, किन्तु मनुष्यों की जीभ अपने स्वाद बदलती रहती है। कभी कड़वी कभी मीठी। कड़वी हुई तो मानो कटार हो गयी। दिल के आर-पार हो गई। अतः इसका कोमल व मधुर रहना ही ठीक है। प्रभु से यही मांग है। इसी क्रम में अभिभावकों की उत्कट कामना द्रष्टव्य है-
    ओ3म्‌ उप नः सूनवो गिरः श़ृण्वन्त्वमृतस्य ये।
    सुमृडीका भवन्तु नः।। सामवेद 1595।।

    अर्थात्‌ हमारे पुत्रगण अविनश्वर परमेश्वर की वाणी सुनें और हम लोगों को सुखी करें। परमेश प्रभु की वाणी वेद का कितना मधुर सन्देश है-

    3म्‌ उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि।
    धनज्जयो रणे रणे।। सामवेद 1382।।

     

    मन्त्र-भावार्थ देखिये-

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    प्रभु हमको शक्ति विमल देते,
    हम जिससे शत्रु मसल देते।

    प्रभु ने जीवन धाम दिया है,
    प्रभु ही इसको चमकाते हैं।।

    जीवन्त प्राणधारी आओ,
    प्रभु से सम्मति ले आओ।

    बैठो प्रभु से करो वार्ता,
    सन्मार्ग वही दिखलाते हैं।।

    जिसने निज को उत्कृष्ट किया,
    हर कष्ट सहन कर पुष्ट किया।

    वे नर जीवन संग्रामों में,
    प्रभु की सहाय पा जाते हैं।।

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    "सामश़्रद्धाके देवातिथि द्वारा रचित सामगीत में यही सन्देश निहित है कि जिस प्रभु से हम हर संग्राम में विजय व वैभव प्राप्त करने की कामना करते हैं और वह हमें सुलभ भी हो जाता है। इस ऋद्धि-सिद्धि-उपलब्धि के बाद अधिकांश व्यक्ति इसी में रम जाते हैं। इसकी ही बात करते रहते हैं। प्रभु से बात करने का उनके पास समय ही नहीं बचता है। मन्त्र का मृदुल आदेश है कि इसे मांगने व मिल जाने के बाद भी प्रभु से बात करते रहो। स्तुति करके धन्यवाद देते व आशीर्वाद लेते रहो।

    परमेश प्रभु की ही भॉंति हमारे पितरजन भी हमें सब कुछ देते हैं। तन देते हैंसुसंस्कृत मन देते हैंयथासम्भव धन देते हैंविद्या और गुण देते हैं। फिर भी हम सर्वसमृद्ध होकर जरा सी बात पर उनसे बोलना ही बन्द कर देते हैं। वे तो वयोवृद्ध हैं। अपने समस्त उत्तराधिकार देकर हमें समृद्ध करके चिर-विदा लेकर चले ही जाने वाले हैं। फिर हम उनसे बात न करें तो इसे हमारा अधर्माचरण ही कहा जायेगा। यहॉं पर हिन्दी के प्रसिद्ध रसिक कवि बिहारी जी का एक दोहा उद्‌धृत किया जा रहा हैजो इस प्रकार से दो अर्थ प्रस्तुत करता है कि एक ओर तो वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण का तथा दूसरी ओर अपने वंश व पिता का स्मरण भी कर लेते हैं। लीजिए पढ़िये-

    प्रगट भए द्विजराज-कुलसुबस बसे ब्रज आइ।
    मेरे हरो कलेस सबकेसव केसवराइ।।

    दोहे में प्रयुक्त "द्विजराजशब्द द्वि-अर्थक है। एक चन्द्रमा व दूसरा ब्राह्मण। दोहे का एक अर्थ बनता है कि केशव कृष्ण चन्द्रकुल में जन्म लेकर ब्रज भूमि में बस रहे हैंवे मेरे सभी कष्टों को दूर करें। दूसरे अर्थ में वे अपने पिताश्री का आराध्यतुल्य स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं भी ब्राह्मण कुल भूषण ब्रजवासी हूँमेरे जन्मदाता केशवराय मेरे कष्टों को दूर करें।

    कभी-कभी ऐसा कुयोग भी आ जाता हैजब सन्तान से पितर वृद्धजन अपनी ओर से बोलना बन्द कर देते हैंवह भी जरा से भ्रम के कारण। एक माता के तीन-चार पुत्री एवं एक पुत्र था। किशोरावस्था में पुत्र नहीं रहा। उनका बड़ा दामाद उनका मातृवत सम्मान करने वाला है। एक बार अपना भोजन साथ लेकर वह दामाद के घर गयी। सदैव की भॉंति दामाद ने स्वागत-अभिवादन किया और उनसे भोजन करने के लिये जोरदार आग्रह करने लगा। माता मना करती रही। दामाद के मुख से निकले शब्द- "आपके कोई है नहींइसलिए मैं आपसे खाने के लिए कह रहा हूँकोई होता तो भला मैं क्यों कहता''- उस माता के हृदय में ऐसे चुभ गये कि कई महीनों से उस माता ने अपने दामाद से बोलचाल बन्द रक्खी। दामाद को स्थिति का आभास हुआ। अनेक प्रकार से उसने माता से बोलना चाहाकिन्तु माता का मुँह बन्द का बन्द ही रहा। माता ने यह स्थिति मुझे बताकर कुछ परामर्श चाहातो मैंने सन्त तुलसीदास के शब्दों को- क्षमा बड़न को चाहियेछोटन को उत्पातदोहरा दिया। तभी माताजी ने कहा कि अब तो वे मुझे अपने बच्चों के साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते हैं। ठीक ही हैसुखद अन्तराल में दुःखद बात विस्मृत होना असम्भव नहीं है। धर्म के दस लक्षणों में "क्षमाविलक्षण है। और सभी एक पक्षीय हैंपर क्षमा द्विपक्षीय है। क्षमा मांगने वाला धर्म का पालन करता है और क्षमा करने वाला सद्धर्म का परिपालन करता है। बड़े लोग किसी भी कारण से बोलना बन्द करने के स्थान पर अपनी सकारात्मक सोच विकसित करके प्रकरण की नकारात्मकता को तिरोहित करके अपने छोटों को सन्मार्ग दिखाने का सत्प्रयास कर सकते हैं।

    उपरोक्त प्रकरण में घोर निराशा को घनघोर आशा में इन्हीं माताजी के शब्दों ने बदल दिया। वे बोली कि कुछ दिनों के लिए बाहर क्या चली गयीपड़ोसी बच्चों ने छत पर कूद-फॉंदकर सीमेण्ट उखाड़ दिया। जरा सी वर्षा में छतें टपकने लगती हैं। प्रयोग में न आने से हस्तचालित नल ने पानी देना बन्द कर दिया और शौचालय का पानी निकलता नहीं। एक अकेले के लिये हजारों रूपये व्यय करके ठीक करायेंफिर चलें जायें बाहर तीर्थयात्रा पर। लौटकर आयें तो वही "ढाक के तीन पात'। मैंने उनसे कहा कि यह सब अव्यवस्थायें इसीलिए हुई हैं कि आप दामाद का आमन्त्रण स्वीकार कर कुछ दिन बाहर तीर्थाटन कर आयें। जब लौटकर आएंगीतो तीन दिन में ही यह सब बिगड़े काम बन जाएंगे और सम्बन्ध स्नेहपूर्ण सामान्य हो जायेंगे। शायद प्रभु भी यही चाहते हैं। माता जी जो सुस्त-मुस्त आयीं थींमस्त-चुस्त मुस्काती चली गयीं।

    3म्‌ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
    धियो विश्वा वि राजति।।ऋग्वेद 1.3.12।।

    इस मन्त्र अनुसार ज्ञान देवी सरस्वती की उपासना से ज्ञान के महासागर का आभास मिलता है। जो माता सरस्वती के ज्ञानध्वज के नीचे आ जाते हैंवे अपनी सब बुद्धियों को विशेषतया दीप्त करके जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाना चाहते हैंउस-उस वस्तु के तत्वबोध को प्राप्त कर लेते हैं। गहराई में उतरने वालों को सबकुछ मिल जाता है और किनारे बैठे रहने वाले इधर-उधर ताकते रह जाते हैं। कहा भी है-

    सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
    खर्चे से घटती नहीं बिन खर्चे घटि जात।।

    शून्य से शिखर पर पहुँचने वाले व्यक्तियों की सन्तानें उनकी प्रतिष्ठा को तो देखती हैंउनकी त्याग-तपस्या-श्रम व पुरुषार्थ को नहीं देख पाती हैं। सन्तानों की अभिलाषा रहती है कि वे भी प्रतिष्ठा पायेंपरन्तु अपने बल पर नहीं पूर्वजों की प्रतिष्ठा के बल पर। उदाहरणस्वरूप एक कथानक प्रस्तुत है। पर्वतीय क्षेत्र से एक किशोर प्रयाग आया। श्रम-साधना एवं सद्‌भावना से प्रयाग विश्वविद्यालय में उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। अनी मेधा के श्रेयस्वरूप उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बना और सेवानिवृत्त हो गया। इस लम्बे अन्तराल में उसके शिष्यों की श़ृंखलायें बढ़ती गयींऔर परिवार की पीढ़ियॉं भी बढ़ती गयीं। महानगर में शिक्षा-सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में वयोवृद्ध प्राध्यापक की अकूत मान्यता होने लगी। इस मध्य हुआ यह कि उनके पौत्र की उपस्थिति कम होने के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। पौत्र व घर वालों ने जोर लगाकर देख लियापर उसको परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिली। थककर घर वालों ने प्रतिष्ठित पितामह से अनुशंसा करने को कहा। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी। घर वालों ने उनसे बोलना बन्द कर दिया। अन्ततः प्राध्यापक पितामह पौत्र को लेकर विश्वविद्यालय के तत्सम्बन्धी विभाग में जा पहुँचे। तेजस्वी विभागाध्यक्ष अपने उच्चासन से उठे और वयोवृद्ध प्राध्यापक के चरणस्पर्श करके अपने आसन पर बैठाया। स्वागत करते हुए वे बोल पड़ेप्रोफेसर सर! आज मैं जो कुछ हूँआपके कारण हूँ। उस समय उपस्थिति कम होने पर आप मुझे परीक्षा में बैठने से रोकते नहींतो मैं विशद तैयारी नहीं करताशीर्ष स्थान न पाता और आज विभागाध्यक्ष न होता। वर्तमान विभागाध्यक्ष ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने कोई अनुशंसा नहीं की। इधर से निकल रहा थासोचा मिलता चलूँ। अच्छा! अब चलता हूँ। पौत्र ने घर आकर सारी बात बतायी। घर वालों को समझाकर सन्तुष्ट कर दिया। आगे की तैयारी के लिये स्वयं को पुष्ट कर लिया। वयोवृद्ध प्राध्यापक से सबके प्रणाम चल निकले और पौत्र का सुनिश्चय उत्कृष्ट हो गया। उसका भी भविष्य समुज्ज्वल हो गया। देवनारायण भारद्वाज

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    According to this mantra, worship of the knowledge goddess Saraswati gives an impression of the ocean of knowledge. Those who fall under the enlightenment of Mother Saraswati, by lighting all their intellects, they attain the essence of the object of which they want to go in depth. Those who get into the depth get everything and those who sit on the sidelines are kept looking around.

     

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  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.2

    कुछ लोगों का कहना है कि हम मूर्त्तियों को ईश्वर नहीं मानते, हम उन्हें केवल मानसिक विकास का साधन मानते हैं। इस पर राजा राममोहन राय का कहना था-

    “Hindus of the present age have not the least idea that it is the attributes of the Supreme Being as figuratively represented by Shapes corresponding to the nature of those attributes, they offer adoration and worship under the denomination of gods and godesses.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.1

    राजा राममोहन राय-

    भारत के इतिहास एवं संस्कृति का परिचय देनेवाली पुस्तकें राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि उस युग में राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उस समय प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों पर प्रहार करके समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप सन्‌ 1828 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बना।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.3

    स्वयं मैकाले ने लिखा था-

    “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern a class of persons Indian in blood and clour, but English in taste, in opinions, words and intellect”.

    अर्थात्‌ हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग पैदा करने का यत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित करोडों भारतीयों के बीच दुभाषियों का काम कर सके। यह वर्ग हाड़-मांस और रङ्ग से भले ही भारतीय लगे, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से अंग्रेज बन जाए।

  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.1

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती 

    देशभक्त दयानन्द- जो इस देश को अपना नहीं समझता उससे इसकी उन्नति में प्रवृत्त होने की आशा कैसे की जा सकती है? इसमें सन्देह नहीं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी सबसे बड़ी देन है वह नारा जिसने इस आन्दोलन में जान फूँक दी थी। वह नारा था- "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" परन्तु लोकमान्य की मान्यता है कि आर्यलोग (अर्थात्‌ इस देश की 80 प्रतिशत आबादी) इस देश के मूल निवासी नहीं हैं। वे विदेशी आक्रमणकारी हैं, जिन्होंने उत्तर ध्रूव से आकर अपनी सैनिक शक्ति के बल पर इस देश पर बलात्‌ अधिकार किया और यहॉं के आदिवासियों को खदेड़कर बाहर किया तथा उनके घर-द्वार पर ही नहीं, उनकी स्त्रियों पर भी अधिकार कर बैठे । क्या इस प्रकार बलात्‌ पराये घर पर अधिकार जमानेवाले लोगों का यह अधिकार है कि वह उस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताएँ? लोकमान्य ने अपने मत का उल्लेख ‘Arctic Home in the Vedas’ में किया था। जब "मानवेर आदि जन्मभूमि" के लेखक बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने पूना जाकर उनसे पूछा कि वेदों में यह कहॉं लिखा है, तो लोकमान्य ने उत्तर दिया-"आमि  मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहब अनुवाद पाठ करिये छे" (मैंने मूल वेद नहीं पढे, मैंने तो साहब लोगों (अंग्रेजों) का किया हुआ अनुवाद पढा है)।

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    विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन
    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "फूट डालो और राज्य करो" (Divide and rule) के सिद्धान्त के अनुसार भारतीयों को भ्रमित करने के विचार से आर्य-द्रविड़ जातियों के सिद्धान्त की कल्पना लण्डन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के बन्द कमरे में 9 अप्रैल 1866 की सभा में की गई थी। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल (नई मालिका 5, पृ.420 की टिप्पणी) के अनुसार यह सभा राइट ऑनरेबल वाईकाउण्ट स्ट्रांगफील्ड (Viscount Strongfield) की अध्यक्षता में हुई थी। मिस्टर एडवर्ड टामस ने चौथे शीर्षक के अन्तर्गत चर्चा का आरम्भ करते हुए कहा कि "आक्सस नदी से आर्यन आक्रामकों की लहरें अरिमानिया प्रान्त और हिन्दूकुश के मार्ग से भारत में प्रविष्ट हुईं।" तद्‌नुसार भारत में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी स्तर तक की पुस्तकों में पढाया जाने लगा कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहॉं के मूल (आदि) निवासियों को परास्त कर इस देश पर बलात्‌ अधिकार करके इसके स्वामी बन गये। इस प्रकार इस देश के मूल निवासी आर्य आक्राम के रूप में द्वितीय श्रेणी के नागरिक कहलाने लगे। हम अपने ही घर में पराये बन गये। इसी आधार पर आज यह मॉंग की जा रही है कि अन्य विदेशियों (मुसलमानों तथा अंग्रेजों की भॉंति) आर्यों (हिन्दुओं) को भी, इस देश को आदिवासियों को सौंपकर, जहॉं से आये थे वहॉं लौट जाना होगा। यदि दौ सौ वर्ष पूर्व आनेवाले अंग्रेज विदेशी थे तो तीन हजार वर्ष पूर्व आनेवाले आर्य विदेशी क्यों नहीं? इस सन्दर्भ में ‘Muslim India’ के 27 मार्च 1985 के अङ्क में प्रकाशित यह वक्तव्य द्रष्टव्य है- 

    “This land belongs to those who are its original inhabitants and hence its rightful owners. It is they who built Harappa and Mohenjodaro, the world’s most ancient civilisation. Most of India’s Muslims and Christians are converts from these sons of the soil. They are either Dalits or tribals. In all foreign invasions, it is these people who defended India. They (Aryans) don’t belong to India and hence don’t love India. They are foreigners, the enemy within. As Aryans they are India’s first foreigneres. If Muslims and Christians are foreigners and must get out of India, as India’s first foreigners, the Aryans are duty bound to get out first. Those who came first must leave first.” 

    इस प्रकार ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से यह कहा जा रहा है कि इस देश के मुसलमानों में अधिसंख्य यहॉं की छोटी जातियों- अनुसूचित जातियों, जनजातियों, गिरिजनों आदि में से हैं, क्योंकि यही लोग भारत के मूल निवासी हैं, इसलिए हिन्दू से मूसलमान व ईसाई बने लोग ही इस देश के मालिक हैं, अन्य सब विदेशी हैं। अंग्रेज चले गये, पर भारत पर सबसे पहले आक्रमण करके यहॉं बसे विदेशी आर्य नहीं गये। जो सबसे पहले आये थे उन्हीं को सबसे पहले जाना चाहिए था। 

    आर्यों के विदेशी होने की मान्यता का फलितार्थ विभिन्न रूपों में हमारे सामने आ रहा है। 4 सितम्बर 1977 को संसद्‌ में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फैंक एन्थोनी ने मॉंग की- 

    “Sanskrit should be deleted from the 8th schedule of the constitution of India, because it is a foreign language brought to this country by foreign invaders, the Aryans”. - Indian Express, Sept. 9,1977. 

    अर्थात्‌ विदेशी आर्यों द्वारा लाई गई संस्कृत के विदेशी भाषा होने के कारण उसे भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से निकाल देना चाहिए। सन्‌ 1978 के आरम्भ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ा था। उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्‌ट के नाम पर रक्खा गया था। 23 फरवरी 1978 को द्रमुक (द्रविड़मुन्नेत्र कड़गम) के प्रतिनिधि लक्ष्मणन ने उस नाम पर आपत्ति करते हुए राज्यसभा में मॉंग की थी कि आर्यभट्‌ट नाम के विदेशी होने के कारण उसके स्थान पर भारतीय नाम रक्खा जाना चाहिए। कई वर्ष पहले तमिलनाडू के सलेम नामक शहर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आर्य होने के कारण उनकी मूर्ति के गले में जूतों का हार पहनाकर झाडुओं से मारते हुए जलूस निकाला गया। इन सबके मूल में आर्यों के विदेशी होने की मान्यता थी। 

    ऋषि क्रान्तदर्शी होता है। ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पाश्चात्यों की इस विनाशकारी कूटनीतिक चाल को समझा और इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने घोषणा की - 

    "किसी संस्कृतग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहॉं के जङ्गलियों से लड़कर, जय पाके, उन्हें निकालके इस देश के राजा हुए। पुन: विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात्‌ तिब्बत से सीधे इसी देश में आकर बसे थे। इससे पूर्व इस देश का कोई नाम भी नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे।" - सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास

    अपने को आक्रामक मानकर इस देश पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताना और अंग्रेजों को निकालकर इस पर शासन करना न्याय नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार यही है कि यह देश हमारा है, इसलिए इस पर शासन करने का अधिकार हमारा है। इसी से देशप्रेम और देशभक्ति की भावना को बल मिलता है। इस प्रकार दयानन्दकृत "सत्यार्थप्रकाश" तथा "आर्याभिविनय" ही "यतेमहि स्वराज्ये" के आदि प्रेरक हैं। दयानन्द से अतिरिक्त इसमें अन्य कोई भागीदार नहीं है। 

    सन्‌ 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर ब्लण्ट ने आर्यसमाज की समीक्षा करते हुए लिखा था- 

    “The Arya Samajic doctrine has a patriotic has a patriotic side. The Arya doctrine and Arya education alike sing the glories of ancient India and by so doing arouse a feeling of national pride in its disciples, who are made to feel that their country’s history is not a tale of humiliation. Patriotism and politics are not synonymous, but the arousing of an interest in national affairs is a naural result of arosing national pride.” -Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap IV, P. 135

    अर्थात्‌ "आर्यसमाज के सिद्धान्तों में स्वदेशप्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धान्त और आर्यशिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं और ऐसा करके अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को जागरित करते हैं। इस शिक्षा के फलस्वरूप वे समझते हैं कि हमारे देश का इतिहास पराभव की कहानी नहीं है। देशभक्ति और राजनीति एकार्थवाची नहीं हैं, किन्तु राष्ट्रीय कार्यों में रुचि या प्रवृत्ति राष्ट्रीय भावना का स्वाभाविक परिणाम है।" 

    ब्लण्ट के अनुसार स्वदेश के प्रति जागरित इस गौरवगान का यह परिणाम हुआ कि लोगों में अपने खोये गौरव को फिर से पाने की लालसा को बल मिला। किसी भी मामले में विदेशियों के सामने सिर झुकाना दयानन्द को सह्य नहीं था। वह लिखते हैं, "जब अपने देश में सब सत्य विद्या, सत्य धर्म और परमयोग की सब बातें थीं और अब भी हैं, तब विचारिए कि थियोसोफिस्टों को स्वदेशवासियों के मत में मिलना चाहिए या आर्यावर्त्तियों को थियोसोफिस्ट बनना चाहिए?"

    ब्राह्मसमाज के खण्डन के प्रकरण में यह बात और भी अधिक स्पष्टता से उभरकर आती है, "इन लोगों में स्वदेश भक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहा, उसके स्थान में भरपेट निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि ऋषियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ, आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।...भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं, तब अपने माता-पिता, पितामह आदि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृतविद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्यों का बुद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता हैं?"

    कितना स्वदेशाभिमानी था दयानन्द ! सन्‌ 1901 में जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर वर्न थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा- “Dayananda feared Islam and Christianity because he considered that the adoption of any foreign creed would endanger the national feelings he wished to foster.”

    अर्थात्‌ "दयानन्द इस्लाम तथा ईसाइयत के प्रति इसलिए शङ्कित थे, क्योंकि वे समझते थे कि विदेशी मतों के अपनाने से देशवासियों की राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचेगी, जिन्हें वे पुष्ट करना चाहते थे।"

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    According to Blunt, this result of this glorified awareness of home country has resulted in the desire of people to regain their lost glory. In any case, Dayanand was not tolerant to bowing before the foreigners. He writes, "When there was, and still is, all the truth, truth religion, and paramyoga in our country, then should the Theosophists should get the opinion of the indigenous people or should the Aryavartis become theosophists?"

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    इसमें सन्देह नहीं कि हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंगरेजों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम किया है। जब तक किसी देश के लोगों में स्वाभिमान की भावना रहती है तब तक विदेशी शासन के स्थायित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहता है। इसी भावना को नष्ट करने के लिए ईसाइयत ने हिन्दुस्तानियों को असभ्य और जंगली बताकर उनमें हीनता की भावना को उभारने का यत्न किया।

    इस्लाम के इतिहास से सभी भली-भॉंति परिचित हैं। यह ठीक है कि भारत में रहने वाले प्राय: सभी मुसलमान मूलत: इसी देश के वासी हैं,किन्तु आठ सौ वर्ष से इस धरती के अन्न-जल से पोषण पाकर भी वे इस देश के नहीं बन सके। भारत के मुसलमानों ने कभी इस देश पर शासन नहीं किया। शासन करनेवाले मुगल,पठान,खिलजीलोधी,गोरी,आदि सभी आक्रमणकारी विदेशी मुसलमान थे,परन्तु जितना गर्व उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों और इस देश के लोगों पर अत्याचार करनेवालों पर है उतना इस देश में पैदा हुए राम,कृष्ण और ऋषि-मुनियों पर अथवा इस देश के लिए मर मिटनेवाले राणा प्रताप,शिवाजी आदि पर नहीं है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म की कसौटी - सबका कल्याण
    Ved Katha Pravachan _20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मिस्टर ब्लण्ट ने ही एक बात और लिखी है-‘Dayananda was not merely a religious reformer, he was a great patriot. It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.’

    अर्थात्‌ दयानन्द मात्र धार्मिक सुधारक नहीं था। वह एक महान्‌ देशभक्त था। यह कहना ठीक होगा कि उसके लिए धार्मिक सुधारराष्ट्रीय सुधार का एक उपाय था। ब्लण्ट ने बड़े पते की बात कही है। इसमें सन्देह नहीं कि दयानन्द ने पाखण्डों और परस्पर विरोधी मतों का खण्डन इसलिए किया कि इनके रहते दयानन्द के अपने शब्दों में "परस्पर एकतामेल-मिलाप या सद्‌भाव न रहकर ईर्ष्याद्वेषविरोध और लड़ाई-झगड़ा ही होगा।" यदि ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्यावर्त्त की दुर्दशा क्यों होती?

    दयानन्द ने सबसे अधिक खण्डन मूर्तिपूजा का किया है। इस प्रकरण में उन्होंने मूर्त्तिपूजा से होनेवाली सोलह हानियों का उल्लेख किया हैजिनमें से अधिकतर का सम्बन्ध उसके कारण देश को होनेवाली हानियों से है। वे लिखते हैं, "नाना प्रकार की विरुद्ध स्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चलकर आपस में फूट बढाके देश का नाश करते हैं। जो मूर्ति के भरोसे शत्रु की पराजय और अपना विजय मानके बैठे रहते हैं उनका पराजय होकर राज्यस्वातन्त्र्य और सुख उनके शत्रुओं के अधीन हो जाता हैक्यों पत्थर पूजकर सत्यानाश को प्राप्त हुएदेखोजितनी मूर्तियॉं पूजी हैं उनके स्थान में शूरवीरों की पूजा करते तो कितनी रक्षा होती?"

    राष्ट्रोत्थान के लिए एकता आवश्यक है। दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" में अनेकत्र इस बात पर बल दिया है। उनका कहना है, "जब तक एक मतएक हानि-लाभएक सुख-दु:ख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है।" जब भूगोल में एक मत थाउसी में सबकी निष्ठा थी और एक-दूसरे का सुख-दु:खहानि-लाभ आपस में समान समझते थे तभी तक सुख थापरन्तु दयानन्द के अनुसार "भिन्न-भिन्न भाषापृथक्‌-पृथक्‌ शिक्षाअलग-अलग व्यवहार के विरोध का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।" एकता-सम्मेलन समझौते का आधार बन सकते हैंएकता का नहीं। समझौतों से सामयिक समस्या का समाधान भले ही हो जाएउसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। ऐसे उपायों से रोग दब सकता हैकिन्तु नष्ट नहीं हो सकता। इतना ही नहींकालान्तर में वह और भी उग्र रूप धारण कर सकता है।

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    एक दिन श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्‌या ने स्वामी दयानन्द से पूछाभगवन्‌ ! भारत का पूर्ण हित कब होगायहॉं जातीय उन्नति कब होगीस्वामीजी ने उत्तर दिया, "एक धर्मएक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण कित और जातीय उन्नति होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्रस्थान ऐक्य है। जहॉं भाषाभाव और भावना में एकता आ जाए वहॉं सागर में नदियों की भॉंति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूँ कि देश के राजा-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्मभाषा और भावों में एकता करें। फिर भारत में आप ही सुधार हो जाएगा।"

    महात्मा गॉंधी ने स्वदेशी के लिए आन्दोलन किया था। उनका वह आन्दोलन स्वदेशी वस्त्रों या खादी तक सीमित था। वर्तमान में एक बार फिर इस प्रकार के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है जिसका लक्ष्य भारत में विदेशी या अर्धविदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार करना बताया जाता है।

    दयानन्द ने अपने समय में देश की आर्थिक समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया। विचार ही नही  किया अपितु निश्चित योजना भी बनाई और तदर्थ विदेशों से पत्र-व्यवहार भी किया। दैवगति से उन्हें अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिला। स्वामीजी इस बात को बड़ी पीड़ा के साथ अनुभव करते थे कि विदेशी माल की खपत से कितनी हानि हो रही है। उन्होंने "सत्यार्थप्रकाश" में लिखा, "जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करें दो दारिद्र्‌य और दु:ख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।" देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के उद्‌देश्य से विदेशी वस्तुओं और रहन-सहन का बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा करते हुए उन्होंने बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा, "इतने से ही समझ लेओ कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते। देखोकुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियनों को हो गये और आज तक ये लोग वैसे ही मोटे कपड़े आदि पहनते हैंजैसेकि स्वदेश में पहनते थेपरन्तु उन्होंने अपने देश का चलन नहीं छोड़ा। तुममें से बहुत-से लोगों ने उनकी नकल कर ली। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। इससे तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। वे अपने देशवालों को व्यापार में सहायता देते हैंइत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है।

    "अन्य देशस्थ मनुष्यों का भी उतना मान नहीं करते जितना अपने देश के जूते का" लिखनेवाले के मन में कितनी पीड़ा रही होगीअपने देश की दीन-हीन दशा देखकर कितनी तीव्र घृणा रही होगी उसके हृदय में विदेशी शासन और विदेशी वस्तुओं के प्रयोग के प्रति! छावली निवासी ठाकुर ऊधोसिंह को विदेशी वेशभूषा में देखकर उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था, "क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इस नये वेश से विभूषित होकर अपने पिताजी से अधिक सुसंस्कृत हो गये हो।?" -श्रीमद्दयानन्द प्रकाश

    स्वामीजी से प्रेरणा पाकर बड़ी संख्या में आर्यसमाजी स्वदेशी वस्त्रों का प्रेरणा करने लगे थे। लाहौर की आर्य समाज के सभासदों द्वारा अंग्रेजी वस्त्रों का प्रयोग न करने और स्वदेशी वस्त्रों का ही प्रयोग करने के निर्णय का समाचार "स्टेट्‌समैन" के 14 अगस्त 1879 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था-

    ‘The present condition of India is one of rapidly increasing improverishment. In this condition of the country, there is no public question of such high importance and absorbing interest as the question of the rivival of our trades and industries. The action of the members of Lahore Arya Samaj, founded by the learned Pandit Dayanand Saraswati should, therefore, be hailed with satisfaction by those who have the interest and welfare of this country at heart. They resolved at a meeting held at the premises of the Arya Samaj building to abstain from the use of English clothes. Hence foreward they will stick to the clothes manufactured solely in India. If they can fulfil their promises, and others follow their example, a great object will be gained. This is the only way be which the influence of Manchaster can be counteracted in the Indian market.’

    अर्थात्‌ "भारत की वर्तमान अवस्था तेजी से बढती हुई दरिद्रता की है। देश की इस अवस्था में अपने धन्धों और उद्योगों की पुन: बहाली का प्रश्न जितना महत्त्वपूर्ण और रोचक है उतना अन्य कोई सामाजिक प्रश्न नहीं है। अत: विद्वान्‌ मनीषी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित लाहौर आर्यसमाज के सदस्यों के कदम का सन्तोष के साथ अभिनन्दन उन सब लोगों को करना चाहिए जिनके हृदय में देश का हित है। आर्यसमाज भवन के परिसर में हुई एक बैठक में उन्होंने अंगे्रजी कपड़ों के उपयोग से विरत होने का निश्चय किया है। आगे से वे केवल भारत में बने कपड़ों का हठ रखेंगे। यदि वे अपने वचनों को क्रियान्वित कर सके और अन्य लोग उनके उदाहरण का अनुकरण कर पाये तो एक महान्‌ लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय बाजार में मैंचेस्टर के प्रभाव का जवाब देने का यह एक उपाय हैं।"

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    Of course, Christians have worked together to strengthen the shackles of our slavery by mixing the shoulders of the British. As long as there is a sense of self-respect among the people of a country, then the stability of foreign rule remains in question. To destroy this sentiment, Christianity tried to instill a sense of inferiority in them by calling Hindustani rude and wild. 

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-14

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    खण्डन- ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत अज्ञानान्धकार में बुरी तरह डूबा हुआ था। सबसे बुरी बात तो यह थी कि धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा था। व्यभिचार तक को धर्म का प्रश्रय प्राप्त था। अतएव सभी सुधारक खण्डन में प्रवृत्त थे। वस्तुत: खण्डन और मण्डन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- एक ही क्रिया के दो भाग हैं- एक विनाशक है तो दूसरा विधायक। घास-फूँस काटकर फेंकना विनाशक है तो बीजारोपण करना विधायक है। किसान या माली खेत या बगीचे में उत्पन्न खरपतवार या हानिकारक घास-पात को उखाड़कर फेंकता है और उपयोगी पौधों को खाद-पानी देकर पुष्ट करता है। तब अपेक्षित अन्न प्राप्त होता है। इससे खण्डन और मण्डन एक-दूसरे के पूरक ठहरते हैं। समाज के हितैषी महापुरुष समाज में व्याप्त दोषों,अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करके उसके विकास में सहायक विचारों का प्रचार व प्रसार करते हैं। शरीर को हानि पहुँचा रहे अंग को काटकर फेंक देना और उसके स्थान पर स्वस्थ अंग का प्रत्यारोपण करना शरीरशास्त्र की दृष्टि से खण्डन-मण्डन ही तो हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख की निवृति एवं सुख-प्राप्ति के वैदिक उपाय
    Ved Katha -16 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    निर्माण कार्य में बाधक चट्टानोंजङ्गलोंकुओंतालाबों आदि को नष्ट करके धरती को समतल किये बिना उस पर निर्माण नहीं होता। इसी प्रकार समाज में व्याप्त दोषों को दूर किये बिना समाज-सुधार के कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। सदसत्‌ प्रवृत्तियों का संघर्ष मानवमात्र में सदा से चला आता है। सद्‌गुणरूपी दैवी सेना तथा दुर्गुणरूपी आसुरी सेना दोनों आमने-सामने खड़ी रहती हैं। दोनों ने अपनी-अपनी व्यूह रचना व्यवस्थित कर रक्खी है। वेद में "भद्रमासुव" से पहले "दुरितानि परासुव" कहा है। जब तक "दुरित" दूर होकर जगह खाली नहीं करेंगे तब तक "भद्र" को स्थान कैसे मिलेगा ! गीता में भी "परित्राणाय साधूनाम्‌" के साथ ही "विनाशाय च दुष्कृताम्‌" भी कहा है। दुष्टों का दमन किये बिना सज्जनों की रक्षा नहीं हो सकती। राक्षसों का संहार किए बिना श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ का सम्पादन नहीं हो सकता था। इसलिए ऋषियों को क्षत्रिय कुमारों की आवश्यकता पड़ी- "शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्त्तते"। समाज में क्षत्रिय खण्डन का प्रतीक है तो ब्राह्मण मण्डन का। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

    समस्त दु:खों या पापों का मूल अविद्या है। ज्ञानविद्या तथा सत्य पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार अविद्याअज्ञान और असत्य एकार्थवाची हैं। दवाई की जगह जहर की शीशी चाहे जानकर पी जाएचाहे अनजानेदोनों का परिणाम एक ही है- मृत्यु। सुकरात ने अपने मुकदमे के दौरान कहा था-"अज्ञान के बिना पाप हो ही नहीं सकता। जिसे तुम पाप कहते होवह अज्ञान ही है।" जिसके बिना कोई  पाप हो ही नहीं सकतावह (अज्ञान) स्वयं महा पाप है। कानून का अज्ञान अपराध करने का बहाना नहीं हो सकता (lgnorance of law is no excuse)। ईश्वरीय कानून को न जानना सबसे बड़ा अपराध है। इसलिए समाज का परिष्कार करनेवालों ने सदा अज्ञान-असत्य को मिटाकर सदा ज्ञान-सत्य का प्रचार-प्रसार करना ही अपने जीवन का उद्‌देश्य बनाया।

    देर-सवेर सभी को खण्डन का आश्रय लेना पड़ता है। जब सामान्य ओषधोपचार से काम नहीं चलता तो आपरेशन के लिए सर्जन को चाकू चलाना पड़ता है। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द का निम्न वक्तव्य द्रष्टव्य है-

    "संसार को समय-समय पर कठोर आलोचना की भी आवश्यकता होती है (हिन्दू धर्मपृ.56)। प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं बन सकता (पत्रावली भाग 2पृ.71)। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँपरन्तु जब अन्तरस्थ सत्य से समझौता करने का अवसर आता है तब मैं रुक जाता हूँ (वही पृ. 70)। हमारे  बहुतेरे कुसंस्कार हैंहमारी देह पर बहुत-से काले धब्बे और हानिकारक घाव हैं- उन्हें चीर-फाड़ करके एक दम निकाल देना होगा। नहीसमझौता नहींलीपा-पोती नहींगले-सड़े मुर्दों को फूलों से न ढको (विवेकानन्द चरितपृ. 376)। यदि हम देखें कि परम्परा-प्राप्त आचार-विचार समाज के विकास व परिपुष्टि के मार्ग में बाधक हैंयदि वे हमारे विशुद्धज्ञान की प्राप्ति में रोड़े सदृश हैं तो हम जितनी जल्दी उनका त्याग कर दें उतना अच्छा है (विवेकानन्द चरित168)। पुरातन पौराणिक घटनाओं को रूपक मानकर चिरस्थायी करने की चेष्टा करने और इस प्रकार उन्हें महत्त्व देने से कुसंस्कारों की उत्पत्ति होती है और यह सचमुच दुर्बलता है। असत्य के साथ कभी भी और किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। सत्य का उपदेश दो और किसी प्रकार से भी असत्य के पक्ष में युक्ति देने की चेष्टा मत करो (देववाणी पृ. 161)। उन पाखण्डी पुरोहितों को जो सदा उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैंनिकाल बाहर करोक्योंकि उनका कभी सुधार नहीं होगा (पत्रावली भाग 1पृ.65)। पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे एकदम चकराकर एटलांटिक सागर में जा गिरें (वही पृ.254)"।

    यह सर्वसम्मत तथ्य है कि महाभारत से पहले संसार में वेद से अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं था। महाभारत के पश्चात्‌ कुकुरमुत्तों की तरह फैले अवैदिक मतों का निराकरण आवश्यक था। इस दुरूह कार्य को करने का साहस दयानन्द- जैसा उद्भट विद्वान्‌ तथा सत्यनिष्ठनिष्पक्ष एवं निर्भीक महामानव ही कर सकता था। मत-मतान्तरों की आलोचना से दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म को तर्कसंगतयुक्तियुक्त एवं सहेतुक बनाया जाए। उसमें अन्धविश्वासों के लिए कोई स्थान न हो। बाबा वाक्यं प्रमाणम्‌ के स्थान पर सत्यासत्य की स्वयं परीक्षा करके सत्य को ग्रहण किया जाए और असत्य का परित्याग किया जाए। भगवान्‌ मनु का वचन है- "यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतर:" - जो मनुष्य तर्क के द्वारा अनुसन्धान करता है वही धर्म के तत्व को जानता हैअन्य नहीं। पूर्वकाल में ऋषियों के न रहने पर मनुष्य देवजनों (श्रेष्ठ विद्वानों) के पास गये और जिज्ञासा की- "को न ऋषिर्भविष्यति?" अब कौन हमारा ऋषि होगा (निरुक्त 13.12)। देवजनों ने उन्हें तर्क नाम का ऋषि दिया। मनु के आदेश के अनुसार सत्यासत्य की परीक्षा के लिए धर्म पर तर्क की कैंची चलाना आवश्यक है। तर्करूपी कैंची से जो कट जाएसमझो वह तीन कौड़ी का है- धर्म ही नहीं है। दयानन्द ने वही किया। सत्यासत्य के लिए तर्क द्वारा परख करके असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया।

    अधिक समझदार लोगों को यह कहते सुना जाता है कि समालोचना तो ठीक हैपर खण्डन-मण्डन करना उचित नहीं है। वास्तव में लोग समालोचना से अंग्रेजी के Criticism का और खण्डन से Condemnation का ग्रहण करते हैं। ऐसा इसलिए है कि वे समालोचना शब्द के निहितार्थ को नहीं समझते। समालोचना शब्द "सम्‌+आ" उपसर्गपूर्व "लुच्‌" धातु से निष्पन्न होता है। इस प्रकार इसका अर्थ है किसी वस्तु को विधिपूर्वक हर प्रकार से अच्छी तरह देखना। विधिपूर्वक अच्छी तरह देखने में हम उस वस्तु के आकार-प्रकाररूप-रंगगुण-कर्म-स्वभाव एवं गुण-दोष के आधार पर उससे सम्भावित हानि-लाभ का विवेचन करते हैं। तभी हमें उस वस्तु का पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान होता है। दयानन्द के खण्डन की प्रक्रिया समालोचना से भिन्न नहीं है। दयानन्द ने सदा से चली आ रही परम्परा का ही अनुसरण किया है। उसमें किसी प्रकार का असामञ्जस्य अथवा अनौचित्य नहीं है।

    भारत में दार्शनिक सम्प्रदायों में खण्डन-मण्डन सदा से चला आया है। समन्वयवाद के नाम पर यह कहना कि "अपनी-अपनी जगह सब ठीक है" आधुनिकता या भलमनसाहत की पहचान बन गया हैकिन्तु इस "रामाय स्वस्ति:रावणाय स्वस्ति:" की उपलब्धि तो शून्य है। वह आत्म-प्रवंचन या भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं। कुछ करने की भावनावाले खण्डन में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रह सकते। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का उद्‌घोष करनेवाले आदि शंकराचार्य सारा जीवन जैनबौद्ध और चार्वाक आदि नास्तिक मतों का खण्डन करने में ही लगे रहे। सिद्धान्तभेद के कारण मण्डन मिश्र जैसे वैदिक मतावलम्बी को भी ललकारने में संकोच नहीं किया। समन्वयवाद का आदर्श माने जानेवाले क बीर ने तो सबको खरी-खोटी सुनाईं हीकबीर की अपेक्षा कहीं अधिक सौम्य नानकदेव भी दूसरे मतों का खण्डन करने में पीछे नहीं रहे।

    खण्डन में भी स्वामीजी कितने सन्तुलित रहेइसका पता 11वें समुल्लास का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने पर चलता है। उन्होंने गुरु नानक तथा गुरु गोविन्द सिंह की आलोचना की है। गुरु नानक से सम्बन्धित आपत्तिजनक अंश इस प्रकार है-"विद्या कुछ भी नहीं थी.... वेदादिशास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा।"परन्तु जहॉं स्वामीजी ने यह लिखावहॉं ये स्तुतिपरक वाक्य भी लिखे हैं- "नानक जी का आशय अच्छा था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को (मुसलमान होने से) बचाया।"

    इन शब्दों से स्पष्ट है कि स्वामीजी के मन में गुरु नानक के प्रति दुर्भावना न होकर प्रशंसा के भाव थे। उनका (गुरु नानक) का संस्कृत से और वेदशास्त्र से अनभिज्ञ होना तो निर्विवाद हैपरन्तु इसके लिए भी उन्होंने गुरु नानक को नहींतत्कालीन परिस्थितियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने लिखा है- "उस समय पंजाब संस्कृतविद्या से रहित और मुसलमानों से पीड़ित था।" गुरु नानक सम्बन्धी गपोड़ों के लिए स्वामीजी लिखते हैं-"इसमें उनके चेलों का दोष हैनानकजी का नहीं।" गुरु नानक द्वारा प्रवर्तित भक्तिभावना के विषय में उन्होंने लिखा है- "नानकजी ने कुछ भक्तिविशेष ईश्वर की लिखी थीउसे करते जाते तो अच्छा था।" इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में भी गुरु नानक के उसके परित्याग के लिए भी उनके अनुयायियों को दोष दिया है।

    दशम गुरु गोविन्दसिंह के विषय में स्वामीजी ने लिखा है- "गुरु गोविन्दसिंह शूरवीर हुए। पंच ककार की रीति उन्होंने बुद्धिमत्ता से की। इन सब (अर्थात्‌ सिख गुरुओं) ने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हटाया। जैसे इसको हटाया वैसे विषयासक्तिदुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।" स्वामी दयानन्द वेदों के प्रकाण्ड विद्वान्‌ थे। वे वेदों को सब विद्याओं का मूल मानते थे और उन्हीं के अपनाए जाने में वे मनुष्य मात्र का कल्याण मानते थे। इसलिए वेद विरोधी सभी मतों और उनके प्रवर्तकों की आलोचना की। इसमें उन्होंने कहीं भी पक्षपात नहीं किया। पंजाब में एक ऐसा समय था जब उच्चवर्ग के हिन्दू दलित व पिछड़ेवर्ग के लोगों को अछूत मानते थे। हिन्दुओं में ही नहींअपने को हिन्दुओं से अलग माननेवाले सिखों में भी मजहबीगुलाबदासीरैदासीकबीरपन्थी आदि को भी अछूत समझा जाता था। उस समय ऐसे लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा। उच्चवर्ग (सवर्णों) की तुष्टि के लिए उनके शुद्धि संस्कार और दलितों के सन्तोष के लिए बड़े स्तर पर सहभोजों आदि की व्यवस्था की जाती थी। इन पंक्तियों के लेखक को अपने पिताश्री के साथ अनेक बार ऐसे शुद्धि-संस्कारों तथा समारोहों में सम्मिलित होने का अवसर मिला। इस प्रकार शुद्ध होकर समाज में प्रतिष्ठित होनेवाले लोग स्वाभाविक रूप से अपने को आर्यसमाजी मानकर महाशय जीआर्य जी आदि नामों से पुकारें जाने में गौरवान्वित अनुभव करने लगे। 

    दयानन्द पर खण्डन का आरोप लगाते समय तत्कालीन विशेष परिस्थियों परविचार करना आवश्यक है। हमें भी पिछले पृष्ठों में आलोचना का आश्रय लेगा पडा। ‘All that glitters is not gold’ इसलिए खरे-खोटे की पहचान करने-कराने के लिए अपेक्षित कसौटियों पर कसना,घिसना आवश्यक था।

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    When accusing Dayanand of rebuttal, it is necessary to consider the then special circumstances. We also had to take criticism in the previous pages. 'All that glitters is not gold', therefore, it was necessary to tighten and weave the required criteria in order to identify the mold.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-4

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    वस्तुत: विवेकानन्द का मूर्त्तिपूजा के प्रति आग्रह उनके अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों के कारण था। इसीलिए एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- "यदि मूर्त्तिपूजा में नाना प्रकार के कुत्सित विचार भी प्रविष्ट हो जाएँ तो भी मैं उसकी निन्दा नहीं करूँगा।" - (विवेकानन्द-चरित, पृष्ठ 146)

    मूर्त्तिपूजा की बात करते समय स्वामी विवेकान्नद विवेक को ताक पर रख देते थे,यह निम्नलिखित घटना से स्पष्ट हो जाता है-

    “When Miss noble came to India in January 1898 to work for the education of India, he gave her the name of Sister Nivedita. At first he taught her to worship Shiva and then made the whole ceremony eliminate in an offering at the feet of Buddha.” - Vivekanand A Biography by Swami Nikhilanand, P. 260

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    सुखी जीवन के रहस्य
    Ved Katha Pravachan _27 (Vedic Secrets of Happy Life & Happiness) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शिक्षासम्बन्धी कार्य के लिए आने वाली विदेशी महिला को पहले शिवजी की पूजा सिखाना और उसकी विधि पूरी हो जाने पर शिव-पूजा के विरोधी महात्मा बुद्ध के चरणों पर चढानाइन दो परस्पर विरोधी कृत्यों का विधान कहॉं मिलता है और किस प्रकार इनकी संगति बिठाई जा सकती है?

    श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की आराध्य देवी की निर्दोष प्राणियों की हत्या से पूजा होना और उनका खून पीकर उसका तृप्त होना सर्वविदित है। उसके भक्तों में दया-ममता की कल्पना कैसे की जा सकती हैउक्त-जीवनी में उसके विषय में लिखा है- “One day in the Kali temple of Calcutta a western lady shuddered at the sight of blood of goats, sacrificed before the mighty, and exclaimed- ‘Why is there so much blood before the Godess?’ Quickly the Swami (Vivekanand) replied- ‘Why not a little blood to complete the picture?” -Ibid. 261

    स्वामी विवेकानन्द की फ्रैंच भाषा में प्रकाशित जीवनी के लेखक रोम्यॉं रोलॉं के अनुसार रामकृष्ण एक मुसलमान से प्रभावित होकर अपना धर्मपरिवर्तन करने और गोमांस खाने के लिए तैयार हो गये थे। इस प्रसंग में मैक्समूलन ने लिखा है-“For long days the (Ramkrishna) subjected himself to various kinds of discipline to realise the Mohammadon idea of all powerful Allah. He let his beard grow, he fed himself on Muslim diet, he ocmpletely repeated the Koran.” - A Real Mahatman, P. 35. 

    स्वामी विवेकानन्द के इस्लाम के गीत गाने का कारण अपने गुरु के प्रति अन्धभक्ति का अतिरेक था। रामकृष्ण मिशन ने अपने हिन्दु न होने के पक्ष में जो तर्क और प्रमाण कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रस्तुत किये थेउनका एक अंश अहमदाबाद से प्रकाशित होनेवाले Times of Indiaके 23 जनवरी 1886 के अंक से यहॉं उद्‌धृत किया जा रहा है-“During his practice of Islam he repeated the name of Allah and said Namaz thrice daily. During this while he dressed and ate like a Muslim. Another biographical work ‘Ramkrishna Panth’ by Akshoy Sen, provides some more details. A Muslim cook was brought who instructed the brahman cook how to wear a lungi and cook like the Muslim way. We are also told that at this time Ramkrishna felt a great urge to take beef. However, this urge could not be satisfied openly. But one day as he sat on the bank of the Ganges, a carcase of a cow was floating by. He entered the body of a dog astrally and tasted the flesh of the cow. His Muslim Sadhana was now complete.

    All this is highly comic but it holds an important position in the mission. The lawyears of mission did not forget to argue in the court that Ramkrishna was on the verge of eating beef. This was meant to prove that he was an indifferent Hindu and not far from being a devout Muslim.” The mission won the case.

    उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रामकृष्ण में इस्लाम और गोमांसभक्षण के प्रति ललक थी। इसी प्रयोजन से वे अल्लाह का नाम जपते थे और दिन में तीन बार नमाज पढते थे। मुसलमानों-जैसी वेशभूषा भी उन्होंने अपना ली थी। एक मुस्लिम रसोइया उनके ब्राह्मण रसोइये को मुस्लिम खाना बनाना सिखाता था। उस समय रामकृष्ण को गोमांस खाने की इच्छा हुई। इस इच्छा को खुलकर पूरा करना सम्भव नहीं था। कालान्तर में तो उनके परम शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने खुलकर मांस खाया हीदूसरों को भी वैसा ही करने की प्रेरणा दी। इतना ही नहींवैदिक कालीन ब्राह्मणों पर गोमांस भक्षक होने का आरोप लगाया।

    एक दिन जब रामकृष्ण गंगातट पर बैठे थे तो उन्होंने एक गाय के शव को गंगा में बहते देखा। उसे देखते ही उनके मुँह से लार टपकने लगी। तभी उन्होंने पास ही एक मरे हुए कुत्ते को देखा। झट से उस कुत्ते के शरीर में प्रवेश करके उन्होंने गोमांस का रसास्वादन किया । इस प्रकार उनकी मुस्लिम साधना पूर्ण हुई।

    स्वामी विवेकानन्द एक स्थान पर लिखते हैं-“Too much faith in personality has a tendency to produce weakness and idolatory.” - II, 84-85

    व्यक्तिविशेष में श्रद्धा का अतिरेक बौद्धिक निर्बलता तथा मूर्त्तिपूजा को जन्म देता हैपरन्तु जब रामकृष्ण की बात आती है तो उनकी (विवेकानन्द की) श्रद्धा का अतिरेक सब अतिरेकों की सीमा को लॉंघ जाता है और तब वे कहते हैं-“Through thousands of years the lives of the great prophets of yore came down to us, and yet, none stands so high in brilliance as the life of Ramkrishna Paramhansa.” - II,312

    हजारों वर्षों में प्राचीनकाल के अनेक सिद्ध पुरुषों के जीवन हमारे सामने आयेपरन्तु उनमें से एक भी रामकृष्ण की ऊँचाई को न छू सका।

    इतना ही नहींपत्रावली भाग 1पृष्ठ 138 पर संस्कृत के एक श्लोक को उद्धृत कर विवेकानन्द जी अपने आराध्यदेव रामकृष्ण को ब्रह्माविष्णु और शिव तीनों से बढाकर साक्षात्‌ नारायण का अवतार कहते हैं। गुरु के प्रति श्रद्धा के इस अतिरेक ने उन्हें उनकी अपनी ही मान्यता के विपरीत मूर्त्तिपूजक और इतना निर्बल बना दिया कि वे विवेकशून्य हो गये और मन्दिरों में स्थापित मूत्तियों के स्थान पर वे रामकृष्ण की पादुकाओं को पुष्प अर्पित कर उनकी प्रतिमा पर क्षीरभोग चढाने लगे। -विवेकानन्दजी के सङ्ग मेंपृ. 139

    "भगवान्‌ रामकृष्ण परमहंस ईश्वर के अवतार थेइसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ ही थायह हम निश्चितरूप से नहीं कह सकते और बुद्ध व चैतन्य-जैसे अवतार पुराने हैंपर श्री रामकृष्ण सबकी अपेक्षा आधुनिक और पूर्ण है" (पत्रावली 256)। इस प्रकार रामकृष्ण और बुद्ध की ऐतिहासिकता को नकारते हुए उन्हें रामकृष्ण से हीन सिद्ध करने के लिए वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि "उनकी (रामकृष्ण की) पवित्रताप्रेम और ऐश्वर्य का कणमात्र प्रकाश ही रामकृष्णबुद्ध आदि में था।" - पत्रावली भाग 1187

    स्वामी विवेकानन्द इतना भी नहीं सोच सके कि अन्य सभी महापुरुष रामकृष्ण के पूर्ववर्ती थे। पूर्ववर्तियों में पश्चाद्वर्ती का प्रकाश आएगा या पश्चाद्वर्ती में पूर्ववर्ती का।

    श्री रामकृष्ण के सम्बन्ध में विवेकानन्द जी के अधिकांश कथन सर्वथा हास्यास्पद तथा अविश्वसनीय हैं। अन्यान्य महापुरूषों की तुलना करने में तो वे औचित्य की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं और उन्हें चमत्कारी पुरुष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरणार्थ- "उन-(रामकृष्ण)- पर जिनका विश्वास नहीं है और उनमें जिनकी भक्ति नहीं हैउनका कुछ नहीं होगा।" -पत्रावली भाग 1पृ.188

    रामकृष्ण को महिमामण्डित करने के लिए विवेकानन्द इतिहास को यदृच्छया बदलने और अपने को उपहास का पात्र बनाने में भी संकोच नहीं करते। उनके अनुसार "सत्ययुग का आरम्भ रामकृष्ण के अवतार की जन्मतिथि से हुआ।" - पत्रावली भाग 1पृ. 188

    विवेकानन्द को इतना भी ज्ञान नहीं कि सत्ययुग का आरम्भ और अन्त हुए लाखों वर्ष बीत चुकेजबकि कलयुग का आरम्भ हुए लगभग पॉंच हजार और रामकृष्ण को पैदा हुए केवल 60 वर्ष बीते थे।

    जैसाकि हम स्वयं विवेकानन्द के ग्रन्थों के सम्पादक के शब्दों में स्पष्ट करेंगेउनके लेखों तथा व्यक्तव्यों में परस्पर विरोधी वचनों की भरमार है। इस कारण उनकी कथनी और करनी में सामंजस्य का अभाव है। स्वामी जी लिखते हैं-

    “The dead never return, the past night does not reappear. Neither does man inhabit the same body ever again.” - II, 185

    अर्थात्‌ मरनेवाला वापस नहीं आता। मरने के बाद मनुष्य उसी शरीर में फिर नही आताकिन्तु रामकृष्ण को लोकोत्तर अवतारी पुरूष अथवा ईश्वर का अवतार सिद्ध करने के लिए विवेकानन्द रामकृष्ण के शव को भस्म करने के बाद भी उनका अपने उसी शरीर में दर्शन देना स्वीकार करते हैं-“Within a week of the Master’s passing away Narendra was one night strolling in the garden with a brother disciple, when he saw a luminous figure. There was no making. It was Shri Ramkrishna himself. Narendra remained silent, regaridng the phenomenon as an illusion. But his brother disciple exclaimed in wonder. ‘See, Naren! See?’ There was no room for further doubt. Narendra was convinced that he was Ramkrishna who appeared in a luminous body. As he called the other brother discipes to behold, the Master, disappeared. - Bio. 69

    श्री रामकृष्ण की मृत्यु के एक सप्ताह के बाद एक दिन वे अपने एक गुरुभाई के साथ बाग में घूम रहे थे कि उन्हें अपने सामने एक द्युतिमान शरीर दिखाई दिया। इसमें भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं थी। निश्चय ही वे स्वयं रामकृष्ण थेपरन्तु हो सकता हैयह उनके मन का भ्रम ही होइसलिए वे मौन रहे। इतने में उनका गुरुभाई आश्चर्यचकित हो चिल्लाया-"देखो ! नरेन्द्र देखो।" अब सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं था। नरेन्द्र को विश्वास हो गया कि द्युतिमान शरीर में प्रकट होनेवाले रामकृष्ण ही थे।

    जब स्वयं विवेकानन्द के अपने कथनानुसार आत्मा पुन: उसी शरीर में नहीं आती तो रामकृष्ण कैसे आ गयेशरीर के भस्म होने के बाद उसके परमाणु अथवा अन्य कोई परमाणु स्वत: रामकृष्ण का शरीर धारण कर सकते हैं तो सृष्टिरचयिता चेतन ब्रह्म की आवश्यकता क्या रहीऐसी ऊटपटाङ्ग बात विवेकानन्द-जैसे मस्तिष्क में ही आ सकती हैअन्यथा कोई अबोध बालक भी इसे स्वीकार नहीं करेगा।

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    One day when Ramakrishna was sitting on the Ganges, he saw the body of a cow flowing into the Ganges. Seeing him, saliva started dripping from his mouth. Then he saw a dead dog nearby. He quickly tasted the beef by entering the body of the dog. Thus his Muslim practice was completed.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-5

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    स्वामी विवेकानन्द– स्वामी विवेकानन्द का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें समन्वयवादी प्रवृत्ति का महापुरुष माना जाता है, परन्तु उनके ग्रन्थों से उनका वैसा स्वरूप उभरकर सामने नहीं आता। उनके भाषणों तथा लेखों में परस्पर विरोधी विचारों की भरमार है। पदे-पदे वदतोव्याघात के उदाहरण के उदाहरण मिलते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर ‘Teaching of Swami Vivekanand’ के सम्पादक ने अपनी भूमिका में लिखा है-

    “Vivekanand was the last person to worry about formal consistency. He almost always spoke extempore, fired by the circumstances of the moment, addressing himself to the condition of a particular group of hearers, reacting to the intent of a certain question. That was his nature and he was supremly indifferent if his words of today seemed to contradict those of yesterday.”

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धार्मिक शंका समाधान - प्रश्नों के उत्तर
    Ved Katha Pravachan _26 (Vedic Remedies for Wealth) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    स्वामी विवेकानन्द के विचार- यहॉं हम विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्वामी जी के विचारों को उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे उद्धरणों का स्रोत अद्वैत आश्रम कलकत्ता से प्रकाशित निम्नलिखित दो प्रामाणिक ग्रन्थ हैं-

    1. Vivekanand- A Biography by Swami Nikhilanand Saraswati.

    2. Teachinngs of Swami Vivekanand.

    सुविधा के लिए हमने बार-बार पुस्तक का नाम न लिखकर उपर्युक्त क्रम के अनुसार I और II लिखकर पृष्ठ सं लिख दी है।

    खान-पान1. “To the accusation from some Hindus that the Swami was eating forbidden food, he retorted- ‘If the people of India want me to keep strictly to Hindu diet, please tell them to send me a cook and money enough to keep him.”  -I, 129

    जब कुछ लोगों ने स्वामी विवेकानन्द के गोमांस खाने पर आपत्ति की तो उन्होंने कहा कि यदि भारत के लोग चाहते हैं कि मैं हिन्दूधर्म में निषिद्ध भोजन न करूँ तो उनसे कह दो कि मुझे एक रसोइया भेज दें और उसके वेतन की भी व्यवस्था कर दें ।

    किसी शाकाहारी महापुरुष ने कभी ऐसी बेहूदा मॉंग नहीं की होगी।

    2. “Orthodox Brahmans regarded with abhorrance the habit of animal food. The Swami told them about the habit of beef eating by Brahmans in Vedic times.” - I, 260

    ब्राह्मण मांसाहार से घृणा करते थे। स्वामी जी ने बताया कि वैदिक काल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे। एक समय ऐसा भी था कि इसी भारत में मांस न खानेवाला ब्राह्मण नहीं माना जाता था। तुम वेद पढोतुम देखोगे कि जब कोई संन्यासी या राजा किसी के घर जाता था तब किस तरह और कैसे बकरों और बैलों के सिर धड़ से जुदा होते थे। - स्वामी विवेकानन्द से वार्तालाप - अनुवादस्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द

    बिना वेद पढे और बिना प्रमाण प्रस्तुत किये इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप से स्वामी विवेकानन्द अपने गोमांस खाने और अपने गुरु द्वारा एतदर्थ प्रयत्न करने के कार्य को शास्त्रसम्मत सिद्ध करना चाहते थे।

    3. “He advocated animal food for the Hindus, if they were to cope at all with the rest of the world and find a place among the great nations.” - I,96

    उनका कहना था कि यदि हिन्दू समस्त संसार का मुकाबला करना चाहते हैं और बड़े-बड़े राष्ट्रों में अपना स्थान  चाहते हैं तो उनके लिए मांसभक्षण अनिवार्य है।

    4. “So long as vegetable food is not made suitable for human system there is no alternative to meat eating. What we now want is an immense awaking of Rajasik Shakti. So, I say, eat large quantities of flesh and meat.” - II, 70

    जब तक शाकाहार मानव शरीर के लिए उपयुक्त नहीं बन जाता तब तक मांसाहार ही उसका विकल्प है। अब हमें राजस शक्ति की आवश्यकता हैइसलिए मैं कहता हूँखूब मांस खाओ।

    यदि स्वामी विवेकानन्द को शरीर-शास्त्र का तनिक-सा भी ज्ञान होता तो कभी ऐसी मूर्खतापूर्ण बात न कहते। प्रकृति ने मनुष्य को जिस प्रकार के दॉंत और आँत दी हैंउनके अनुकूल शाकाहार ही हैमांसाहार कदापि नहीं। जहॉं तक शक्ति का सम्बन्ध है वह शाकाहारी Horse- Power के नाम से प्रसिद्ध हैमांसाहारी Lion-Powerके नाम से नहीं।

    5. एक भक्त ने स्वामी जी से पूछा-"मांस तथा मछली खाना क्या उचित और आवश्यक है?" स्वामीजी ने उत्तर दिया- "खूब खाओ भाईइससे जो पाप होगावह मेरा होगा.... वैदिक तथा मनु के धर्म में मछली और मांस खाने का विधान है।.... घास-पात खाकर पेट-रोग से पीड़ित बाबाजी के दल से देश भर गया है..... अत: अब देश के लोगों को मछलीमांस खिलाकर उद्यमशील बनाना होगा।" - विवेकानन्द के सङ्ग में267-70

    मांसाहार के सम्बन्ध में इस प्रकार के कुत्सित विचार उसी व्यक्ति के हो सकते हैं जिसने न वेद पढे हैं और न मनुस्मृति आदिन जिसे भारतीय संस्कृति का ज्ञान है और न शरीर-विज्ञान या चिकित्सा-शास्त्र की जानकारी।

    इस्लाम व ईसाइयत-1. “The vast majority of perverts to Islam and Christianity are perverts by the sword or descendents of those.” - Ibid. II. 13.

    मुसलमान और ईसाइयों में बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनका धर्म-परिवर्तन तलवार के जोर से किया गया था या जो ऐसों की सन्तति हैं।

    2. “The Mohammdon religion allows Mahammdons to kill all those who are  not of their religion. It is clearly stated in Koran- ‘Kill the Infidles if they do not accept Islam. They must be put to fire and sword.” - II, 180

    इस्लाम उन लोगों को कत्ल करने की आज्ञा देता है जो उनके धर्म के मानने वाले नहीं हैं। कुरान में स्पष्ट लिखा है- काफिरों को मार डालो अगर वे इस्लाम को स्वीकार न करेंया तो उन्हें तलवार के घाट उतार देना चाहिए या आग में झोंक देना चाहिए।

    3. “The Mohammdons came upon the people of India always killing and slaughtering. Slaughtering and killing, they over-ran them.” - II, 151.

    वस्तुत: इस्लाम के खलीफा एक हाथ में कुरान और दूसरे में तलवार लेकर यही करते थे- "या इस्लाम स्वीकार करो या मौत को गले लगाओ।"

    इतना सब होने पर भी स्वामीजी कहते  हैं-

    1. “It is the followers of Islam and Islam alone who look upon and behave towards all mankind as their own soul.” - I, 254.

    केवल इस्लाम के अनुयायी ही ऐसे लोग हैं जो मनुष्य मात्र को अपनी आत्मा के समान मानते और वैसा ही व्यवहार करते हैं।

    2. “Without the help of Islam the theories of Vedant, however fine and wonderful they may be, are entirely valueless.” - I, 255.

    वेदान्त के सिद्धान्त कितने ही अच्छे और विलक्षण क्यों न होंइस्लाम की सहायता के बिना किसी काम के नहीं।

    3. “The spirit of democracy and equality in Islam appealed to Narendra’s (Vivekanand’s) mind and he wanted to create a new India with Vedantic brain and Islamic body.”    

    -I, 79.

    इस्लाम की लोकतन्त्र और समानता की भावना से विवेकानन्द बड़े प्रभावित थे और वे एक नया भारत बनाना चाहते थेजिसका शरीर इस्लाम का हो और मस्तिष्क वेदान्त का।

    4. एक ओर वे इस्लाम के थोथे भ्रातृभाव और उसकी तथाकथित सार्वभौमता की आलोचना करते हुए कहते हैं-"मुसलमान सार्वजनिक भ्रातृभाव का शोर मचाते हैंकिन्तु  वास्तविक भ्रातृभाव से कितनी दूर हैं। जो मुसलमान नहीं हैं वे उनके भ्रातृसंघ में शामिल नहीं हो सकते। उनके गले काटे जाने की ही अधिक सम्भावना है।" - धर्मरहस्यपृष्ठ 43

    दूसरी ओर स्वामीजी कहते हैं-

    “For our own motherland a junction of two great religious systems - Hinduism and Islam, is the only hope.” - I, 255. II, 218.

    हमारी अपनी मातृभूमि के लिए संसार के दो महान्‌ धर्मों हिन्दूधर्म व इस्लाम का मेल ही एकमात्र आशा है।

    “I see in my mind’s eye the future perfect India rising out of this chaos and strife, glorious and invincible, with a Vedantic brain and Islami body.” - II, 415-16.

    एक ओर "वसुधैव कुटुम्बकम्‌" का उद्‌घोष करने वाला भारत और मनुष्य को ही नहींप्राणिमात्र को ब्रह्म का रूप माननेवाला वेदान्त और दूसरी ओर मतभेद के कारण दूसरों की गर्दन काटने का आदेश देनेवाला (स्वयं स्वामी विवेकानन्द के पूर्वोद्‌धृत शब्दों में) इस्लाम इन दोनों में 36 का सम्बन्ध होने से मेल होना असम्भव है। संसार के सभी देशों में (विशेषत: भारत में) इसलाम के कारण जो खून की नदियॉं बही हैं और आज भी बह रही हैंइसका थोड़ा-सा भी ज्ञान यदि स्वामी विवेकानन्द को होता तो कभी ऐसी व्यर्थ की बातें न कहते।

    फिर एक जगह वे कह देते हैं- I want to lead mankind to the place where there is neither is neither Veda, nor the Bible, nor the Koran.” (I, 255.)अर्थात्‌ मैं संसार के लोगों को वहॉं ले-जाना चाहता हूँ जहॉं न वेद होन बाइबल और न कुरान।

    ऐसे स्थान का अता-पता उन्होंने नहीं दिया। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द के विचारों में सामंजस्य नहीं है। इसलिए उनके सम्पादक ने पहले ही कह दिया- “Vivekanand was the last person to worry about formal consistency.... That was his nature- and he was supremely indifferent if his words of today seemed to contradict those of yesterday.”

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    On the one hand, he criticizes the slight fraternity of Islam and its so-called universality - "Muslims make a noise of public fraternity, but how far away from genuine fraternity is. Those who are not Muslims cannot join their fraternity. Their throats It is more likely to be cut. " - Religion, page 43

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-7

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    मैक्समूलरमैक्समूलर ही वह व्यक्ति था जिसने क्रीतदास के रूप में लार्ड मैकाले से प्रेरणा पाकर घोषणापूर्वक भारतीय साहित्य को जानबूझकर विकृतरूप में प्रस्तुत किया। उसी विषवृक्ष के फलों का यह परिणाम है कि आज का शिक्षित समाज अपने साहित्य,सभ्यता,संस्कृति और इतिहास को हेय दृष्टि से देखता है। स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में इसी मैक्समूलर से बढकर देशभक्त हमारे देश में नहीं हुआ। उनके जीवनीकार ने लिखा है-

    The Swami was deeply affected to see Maxmuller’s love for India. He wrote enthusiastically- “I wish I had a hundred part of that love for my motherland. Endowed with an extra-ordinary and at the same time, an intensely active mind, he has lived and moved in the world of Indian thought for fifty years or more.”-I,192

    मैक्समूलर के वैदुष्य का बखान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने यहॉं तक कह डाला कि "कभी-कभी मुझे ऐसा अनुमान होता है कि स्वयं सायणाचार्य ने ही अपने भाष्य का पुनरुद्धार करने के लिए मैक्समूलर के रूप में जन्म लिया है।"- विवेकानन्द के संग में,पृ.91

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
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    स्वामी विवेकानन्द के मैक्समूलर की प्रशंसा में युक्ति और तर्क की सीमा को लांघ जाने का कारण यह था कि उसने स्वामीजी के गुरु रामकृष्ण परमहंस की जीवनी और उपदेशों पर एक बड़ा सुन्दर ग्रन्थ लिखा था- ‘Ramkrishna : His life and sayings’

    Maxmuller invited Vivekanand to lunch with him in Oxford on May 28,1896. The Swami asked Maxmuller- “When are you coming to India? All men there would welcome one who has done so much to place the thoughts of their ancestore in a true light. -I, 193.

    मैक्समूलर ने स्वामी विवेकानन्द को 28 मई 1896 को आक्सफोड में भोजन पर आमन्त्रित किया। वहॉं स्वामीजी ने मैक्समूलर से पूछा- "आप भारत कब आ रहे हैंवहॉं के लोग उस व्यक्ति का स्वागत करेंगे जिसने उनके पूर्वजों के विचारों को उनके सही रूप में प्रस्तुत करने में इतना परिश्रम किया हैं?"

    यदि स्वामी विवेकानन्द ने मैक्समूलर के जीवनवृत्त को और उसके ग्रन्थों को पढा होता तो कभी इस प्रकार की बात कहने का दुस्साहस न करते। मैक्समूलर ने जो किया उसका उद्‌देश्य हिन्दुओं को ईसाई बनाकर भारत की दासता की जंजीरों को सुदृढ करना था। इस बात की पुष्टि में यहॉं मैक्समूलर के दो पत्रों का उल्लेख किया जा रहा है। वेदों के अनुसन्धान के कार्य में लगने के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए मैक्समूलर ने सन्‌ 1866 में अपनी पत्नी को भेजे पत्र में लिखा था-

    “This edition of mine and the translation of the Vedas will, hereafter, tell to a great extent on the fate of India. It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.” -Life and Letters of Frederick Maxmuller, Vol. I, chap. XV, P.34

    मेरा यह संस्करण और वेदों का अनुवाद कालान्तर में भारत के भाग्य को दूर तक प्रभावित करेगा। यह उनके धर्म का मूल है। मेरा यह निश्चित मत है कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा हैगत तीन हजार वर्षों में इससे उत्पन्न होने वाली सब चीजों को जड़ समेत उखाड़ फेंकने का एकमात्र उपाय है।

    और 16 दिसम्बर 1868 को भारत सचिव ड्यूक आफ आर्गाइल के नाम भेजे पत्र में मैक्समूलर ने लिखा था-

    “The ancient religion of India is doomed. Now, if Christianity does not take its place, whose fault will it be?” - Ibid, chap. 16, P. 378

    भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है। अब यदि उसका स्थान ईसाइयत नहीं लेती तो उसके लिए कौन दोषी होगा?

    मैक्समूलर की स्तुति करके स्वामी विवेकानन्द ने जाने-अनजाने परोक्षरुप से अपने को इस पापकर्म में भागीदार बनाया।

    शायद मैक्समूलर से प्रभावित होकर ही स्वामी विवेकानन्द ने लिखा होगा-

    1. “By the Vedas I do not mean any particular books, containing the words of a prophet or deriving sanction from supernatural authority, but the accumulated treasure of spiritual laws, discovered by various Indian seers in different times.- Bio. 122

    अर्थात्‌ वेदों से मेरा अभिप्राय किसी पुस्तक विशेष से नहीं है। वेद का अर्थ है भिन्न-भिन्न कालों में अनेक व्यक्तियों द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक तत्त्वों का संचित कोश।

    2. मैं वेद का उतना ही अंश मानता हूँ जितना युक्तिसंगत हैऽ वेद के अनेक अंश तो स्पष्टत: परस्पर विरोधी (बचकाना व मूर्खतापूर्ण- मैक्समूलर) हैं। -विवेकानन्द की कथाएँपृ.125

    3. वेदों में बहुत-से ऐसे मन्त्र हैं जो प्राणिमात्र को पीड़ा पहुँचाने के लिए अनेक प्रकार के अशुद्ध कर्मों का विधान करते हैं। - स्वामी विवेकानन्द से वार्तालाप पृ.47

    4. कुछ मन्त्रों में हो हास्यास्पद कथाएँ भी वर्णित हैं। - भारत में विवेकानन्द पृ. 95

    5. वे (आर्य) यज्ञवेदी बनाते हैं और पशुबलि देकर उनके पके मांस का नैवेद्य इन्द्र को अर्पण करते है। - हिन्दूधर्म पृ. 31

    6. वेद के संहिताभाग में अनन्त स्वर्ग का वर्णन हैजिस प्रकार ईसाइयों के धर्मग्रन्थों में है। -व्यावहारिक जीवन में वेदान्त पृ. 39

    श्रीरामकृष्ण ईश्वरावतार- 1. “Bhagwan Shri Ramkrishna incarnated himself in India.”- भगवान्‌ श्रीरामकृष्ण ने भारत में अवतार लिया।

    2. “Krishna was the greatest incarnation of God.”

    3. On April 4, 1896 he wrote to India that R.K. was God. If people worship him as God, no harm.

    4. “If I has written about R.K. I would have proved qouting form scriptures and even the holy books of Christians that R.K. was the greatest of all the prophets of the world.” -I, 193

    5. “Of Buddha he said that he was the greatest man that ever lived.” -I, 269

    6. “The Omnipresent God of the unvierse cannot be seen, until he is reflected by prophets, the incarnations, the embodiment of God.” - I, 146

    7. “On August 2,1896 Swami Vivekanand entered the cave of Amarnath. He had a vision of Shiva himself. The details of the experience he never told to anyone, except that he had been granted the grace of Amarnath not to die untill he himself willed it. For days he spoke of nothing but Shiva. He said- ‘The Image was the lord himself.”-I, 272

    क्या स्वामी विवेकानन्द अपनी इच्छा से मरे थे?

    चंगेज खॉं“One day he spoke of Chenghis Khan and declared that he was not a vulgar oppressor. He compared him to Nepoleon and Alaxander, saying that they all wanted to unify the world and it was the same soul that had incarnated itself three times in the hope of bringing about human unity through political conquest. In the same way one soul might have come again and again as Krishna, Buddha and Christ to bring about unity of mankind through religion.”-I, 266-67

    अर्थात्‌ एक दिन स्वामीजी ने चंगेज खॉं के विषय में कहा था कि वह कोई आतंकवादी या अत्याचारी नहीं था। उसकी तुलना नेपोलियन और सिकन्दर से करते हुए उन्होंने कहा कि वे सब संसार को एक करना चाहते थे। एक ही आत्मा ने राजनैतिक विजय के द्वारा मनुष्यमात्र को एकता के सूत्र में बॉंधने की आशा में तीर बार अवतार धारण किया। इसी प्रकार एक ही आत्मा धर्म के द्वारा संसार में एकता स्थापित करने के लिए बार-बार कृष्णबुद्ध और ईसा के रूप में आया होगा।

    इस पर किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहींसिवा इसके कि बहुरूपिया बनकर भी सर्वशक्तिमान्‌ परमेश्वर संसार में एकता स्थापित नहीं कर सकाउस संसार में जो स्वामी विवेकानन्द के मत में स्वयं उसी का रूप था।

    स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म समभाव का प्रतीक माना जाता हैकिन्तु उनके ग्रन्थों को पढने से पता चलता है कि खण्डन करने में वे अपनी मिसाल आप ही थे। पौराणिकों की आलोचना के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है-

    1."और भला चाहते हो तो घण्टा-सण्टा गंगा में बहाकर साक्षात्‌ भगवान्‌ के नर-देहधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा करो। करोड़ो रुपये खर्च कर बनाये गये काशी और वृन्दावन के श्रीठाकुर के दरवाजे खुलते और बन्द होते रहते हैं। अब ठाकुरजी कपड़े बदलते हैं और अब ठाकुरजी भोग पाते हैं और अब ठाकुरजी निपूतों के बाप-दादा के श्राद्ध में पिण्डा निगलते हैंऔर इधर जीते-जागते ठाकुर अन्न के बिना मर रहे हैं।" -पत्रावलीभाग 2पृ.199

    मूर्त्तिपूजकों के आडम्बरों से क्षुब्ध होकर उन्होंने यह सब एक पत्र में लिख डाला। अन्यथा "पर अपदेश कुशल" श्रीरामकृष्ण तथा उनके अन्धभक्त विवेकानन्द जीवनभर निरीह प्राणियों के रक्त मांस पर जीनेवाली काली की उपासना करते रहे और अब उनके शिष्य अपने आश्रमों में काली के साथ-साथ श्री रामकृष्ण को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी षोडशोपचार पूजा-अर्चना में सर्वात्मना प्रवृत्त हैं। इस प्रकार की पूजा में रहते मूर्त्तिपूजा की उनकी दार्शनिक व्याख्या को सुनकर ईसाइयों ने स्वामी के शिकागो भाषण की आलोचना कुछ इन शब्दों में की होगी- "सूक्ष्म तर्क व युक्ति के द्वारा मूर्तिपूजा की दार्शनिक व्याख्या करके वे पाश्चात्य जगत्‌ की आँखों में धूल झोंकने के लिए उद्यत हुए हैंक्योंकि जड़ के उपासक हिन्दू उक्त प्रकार की व्याख्या स्वप्र में भी नहीं सोच सकते।" - विवेकानन्द-चरित पृ. 193

    2. "जैन और बौद्ध आदि के फेर में पड़कर हम लोग तामसिक लोगों का अनुसरण कर रहे हैं। बुद्ध ने हमारा सर्वनाश किया और ईसा ने ग्रीस और रोम का सर्वनाश किया।" - प्राच्य और पाश्चात्यपृ.13-15

    "जहॉं कहीं भी बुद्ध पहुँचेवहीं उन्होंने हिन्दुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली सभी वस्तुओं को मिट्‌टी में मिलाने का यत्न किया।" - हिन्दूधर्मपृ.38

    ईसाई- (1) "सार्वजनिक भ्रातृभाव की बातें करते हैंकिन्तु जो ईसाई नहीं हैंउनके लिए नरक का द्वार खुला बताते हैं। इसलिए ईसाईयों का यह विश्वास कि कोई भी व्यक्ति तब तक अच्छा या भला नहीं हो सकता जब तक वह ईसाई न बन जाएउनकी सार्वजनिक उदारता का पर्दाफाश कर देता हैं।" - धर्मरहस्य पृ. 34

    2. एक दिन ईसाइयों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा कि तुम लोग हमारे देश के लागों को प्रशिक्षण देते होकपड़ा देते होपैसे देते होपर किस लिएइसलिए कि यहॉं आकर तुम हमारे पूर्वजों कोहमारे धर्म को कोसो और गालियॉं दो। तुम एक मन्दिर से गुजरते होयह कहते हुए-"ऐ मूर्त्तिपूजकों ! तुम सब नरक में जाओगेपरन्तु हिन्दू भोला हैइसलिए हॅंस देता हैयह कहते हुए कि मूर्खों को बकने दोपरन्तु तुम्हारे मिशनरियों को ध्यान रखना चाहिए कि यदि सारा भारत उठ खड़ा हुआ और हिन्द महासागर के तल में जमी सारी कीचड़ पाश्चात्य देशों के ऊपर फेंकने लगा तो जितना तुम हमारे साथ कर रहे होउसकी तुलना में वह कुछ भी नहीं होगा।" -ा127-29

    नीचे के दो उदाहरण स्वामीजी के मौलिक एवं अलौकिक चिन्तन के उदाहरण हैं-

    1. "बाल-विवाह से जाति अधिक पवित्र बनती है। बाल-विवाह ने हिन्दूजाति को सतीत्व धर्म से विभूषित किया है। बाल-विवाह की भावना को ग्रहण करने से ही यथार्थ सभ्यता का संचार हो सकता है।" - भारत में विवेकानन्दपृ. 430

    2. "पिछले सौ वर्षों में समाज-सुधार के लिए जो आन्दोलन हुएउनसे देश का कोई हित नहीं हुआ। केवल निन्दा और विद्वेषपूर्ण साहित्य की रचना से क्या लाभ?"- वहीपृ. 126-27

    स्वामी विवेकानन्द दूसरों की निन्दा करने में किसी से पीछे नहीं हैंकिन्तु वे इसका सर्वाधिकार अपने पास सुरक्षित रखना चाहते हैं। उनके विचार न तर्कप्रतिष्ठित हैं और न उनमें परस्पर कोई संगति या सामंजस्य है। न उनमें कहीं हिन्दुत्व के प्रति निष्ठा हैन भारतीयता के प्रति आग्रह। जैसे उनके गुरु आत्मकेन्द्रित थे वैसे विवेकानन्द गुरु-केन्द्रित थे। उनके द्वारा संस्थापित रामकृष्ण मिशन सन्‌ 1986 में कलकत्ता हाईकोर्ट में यह निर्णय कराने में सफल हो गया कि उन्हें हिन्दू न माना जाए। उनका तर्क है कि "हिन्दू वह होता है जो वेदों को मानता है। हमारे लिए वेदबाइबल व कुरान सब एक-समान हैंइसलिए हम हिन्दू नहीं हैं।"

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    Christians- (1) "Speak of public fraternity, but for those who are not Christians, the gates of hell are open. Hence the belief of Christians that no man can be good or good unless he is a Christian. It exposes their public generosity. " - Religious page 34

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-9

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    ईसाइयत का आक्रमण- सन्‌ 1857 तक भारत पर अंग्रेजों का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से होता था। कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चेयरमैन मिस्टर मैंगलस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में अपने भाषण में कहा था-

    “Providence has entrusted the extensive empire of Hindustan to England in order that the banner of Christ should wave triumphant from one end to the other. Every one must exert all his strength that there should be no dilatoriness on any account in continuing in the country the grand work of making all Indians Christians.”

    विधाता ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलैंड के हाथों में इसलिए सौंपा है कि ईसा मसीह का झण्डा इस देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फहरा सके। प्रत्येक ईसाई का कर्त्तव्य है कि समस्त भारतीयों को अविलम्ब ईसाई बनाने के महान्‌ कार्य में पूरी शक्ति के साथ जुट जाए।

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    परमात्मा के दर्शन एवं उसके कार्य
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    भारतीय स्वाधीनता के प्रथम युद्ध की समाप्ति के दो वर्ष बाद इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लार्ड पामर्स्टन ने घोषणा की-

    “It is not only our duty but in our own interest to promote the diffusion of christianty as far as possible throughout the length and breadth of India.” - Christianity and Government of India. by Mayhew, P. 194.

    अर्थात्‌ यह हमारा कर्त्तव्य ही नहींअपितु हमारे हित में भी है कि भारतभर में ईसाइयत का अधिक-से-अधिक प्रसार हो।

    पंजाब के गवर्नर लार्ड री ने सन्‌ 1876 में ईसाई मिशनरियों के शिष्टमण्डल को प्रिंस ऑफ वेल्स के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था- “They are doing in India more than all those civilians, soldiers, judges and governers your highness has met.” जितना काम आपके सिपाहीजजगवर्नर और दूसरे अफसर कर रहे हैंउससे कहीं अधिक ये (मिशनरी) कर रहे हैं।

    विदेशी शासक और ईसाइयत का चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है। हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंग्रेजों के कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया है। आक्रमणकारी के रूप में जाने से पहले ईसाई मिशनरी भेजे जाते रहे। ईसाई मिशनरी द्वारा मैदान तैयार हो जाने के बाद सेनाएँ भेजी जाती रहीं। सैनिक शक्ति के बल पर शासन जम जाने पर सरकार की ओर से देश के ईसाईकरण में पूरी सहायता दी जाती थी। महात्मा गॉंधी जैसे समन्वयवादी तथा सर्वथा असाम्प्रदायिक व्यक्ति को भी स्वीकार करना पड़ा कि ईसाईयों द्वारा किये जा रहे सेवा-कार्यों का वास्तविक उद्‌देश्य असहाय लोगों की विवशता का लाभ उठाकर उन्हें ईसाई बनाना है। आज भी केरलनागालैंडमिजोरमअसम आदि में जहॉं-जहॉं ईसाईयों का जोर हैवहॉं-वहॉं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का जोर है।

    मुसलमान इस देश में आततायी आक्रमणकारियों के रूप में आये और लगभग सात सौ वर्ष तक यहॉं राज्य किया। यह ठीक है कि भारत के मुसलमानों में प्राय: सभी इस देश के रहने वाले हैंकिन्तु उन्होंने स्वयं कभी भी इस देश पर शासन नहीं किया। यहॉं शासन करनेवाले - गुलामगौरतुगलकखिलजीलोधीमुगल-सभी विदेशी थेतथापि उनके विदेशी होने के कारण इस देश के मुसलमानों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इतिहास इस बात का साक्षी है। सच तो यह है कि कट्‌टर देशभक्त भी कलमा पढते ही देशविद्रोही बन जाता है। बड़े-से-बड़े राष्ट्रवादी (?) मुसलमान के हृदय में भी जो आदर विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गजनवीमुहम्मद गोरी या बाबर के लिए है वह इस देश की धरती से उत्पन्न रामकृष्णप्रताप और शिवाजी के लिए नहीं है।

    भारत की अस्मिता पर प्रहारलार्ड मैकाले ने अपने मित्र मिस्टर राउस को लिखा था-

    "अब हमें केवल नाममात्र का नहींसचमुच नवाब बनना है और वह भी परदा रखकर नहींखुल्लमखुल्ला बनना है।"(मिल्स कृत "भारतीय इतिहास" खण्ड 4पृ.332)।

    इसी योजना के अन्तर्गत 1899 में आर्थर ए. मैक्डानल ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा। ईसाई मत के प्रचार से भारत के  उद्धार की बाद कहने से पहले यह सिद्ध करना आवश्यक था कि भारत के लोग सदा से बर्बर और असभ्य रहे हैं। कारणयदि उन्हें पहले से सभ्य मान लिया जाए तो वे उन्हें सभ्य बनाने का दावा कैसे कर सकते थेमैक्डानल रचित पुस्तक में जो कुछ लिखा गया उसके निर्देशनार्थ कतिपय वाक्य यहॉं उद्‌धृत किये जाते हैं-

    "इतिहासपूर्व काल में जिन आर्यों ने भारत को जीता था वे स्वयं पुराने समय में दूसरों से पराजित होते चले आये थे। (पृ.408)। भारत में इतिहास का अस्तित्व ही नहीं है। उन्होंने कभी इतिहास लिखा ही नहीं थाक्योंकि उन्होंने कभी कोई ऐतिहासिक कार्य किया ही नहीं था (पृ.10-11)। ईरान को भारत कीमती-कीमती भेंट दिया करता था।"

    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब दूसरे दशक में पढने के लिए इंगलैंड में रहे तो वहॉं से उन्होंने अपने सहपाठी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान्‌ पण्डित क्षत्रेशचन्द्र चट्‌टोपाध्याय को बहुत-से पत्र लिखे थे। उनमें से उनके कैम्ब्रिज से 12 फरवरी 1921 को लिखे एक पत्र का कुछ अंश यहॉं उद्‌धृत कर रहे हैं-

    "साधारण अंग्रेज युवक (एवम्‌ वयस्क भी) भारत के सम्बन्ध में न अधिक जानता है और न जानना चाहता है। वह जानता है कि अंग्रेज जाति एक महान्‌ जाति है एवम्‌ भारतवासियों को सभ्य बनाने के लिए अपनी हानि सहकर भी अंग्रेज भारत गये हैं। इस धारणा के लिए जिम्मेदार हैं हमारे एंग्लो-इंडियन अफसर एवं पादरी लोग। क्रिश्चियन पादरी हैं हमारी संस्कृति के महाशत्रु। यह बात मैंने इस देश में आकर समझी। वे पैसा इकट्‌ठा करने के उद्‌देश्य से पब्लिक को यह समझाने का प्रयास करते है कि भारतवासी एक असभ्य जाति हैं और भील एवम्‌ कोल जातियों के फोटो मॅंगवाकर इस देश के लोगों को दिखाते हैं।   -नवभारत टाइम्सबम्बई22 जनवरी 1994

    इस प्रकार भारत सदा से एक पराभूत होनेवाला देश रहा है। यह सार-संक्षेप है उस इतिहास का जिसे मिथ्या होते हुए भी हमने अपनी मानसिक दासता के कारण स्वीकार किया हुआ है।

    हीनभावना से ग्रस्त कोई व्यक्तिसमाज अथवा राष्ट्र ऊपर उठने की सोच भी नहीं सकता। इसलिए दयानन्द ने सबसे पहले मैक्डानल की बातों का प्रत्याख्यान करते हुए लिखा-"यह आर्यावर्त ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। इसीजिए इस भूमि का नाम "स्वर्ण भूमि" हैक्योंकि यही स्वर्ण आदि रत्नों को उत्पन्न करती है। पारस मणि पत्थर सुना जाता हैयह बात तो झूठ हैपरन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है जिसको लोहेरूपी दरिद्र विदेशी छूते ही स्वर्ण अर्थात्‌ धनाढ्‌य हो जाते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेके पॉंच सहस्त्र वर्षों से पूर्व समयपर्यन्त आर्यों का सार्वभौमिक चक्रवर्ती अर्थात्‌ भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात्‌ छोटे-छोटे राजा रहते थे"। -सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11

    वैदिक धर्म में सार्वजनिक हित की भावना से प्रेरित मातृभूमि के प्रति अत्यन्त आदर का भाव होना स्वाभाविक है। (अथर्ववेद का भूमिसूक्त 12-1) इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अपने विषय का यह अनूठा गीत है। संसार के किसी भी साहित्य में वैसा सुन्दर गीत शायद ही मिले। उसकी एक झलक विष्णुपुराण के इस श्लोक में मिलती है-

    गायन्ति देवा: किल गीतकानिधन्यास्तु ये भारतभूमिभागे।
    स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूतेभवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्‌।।

    यह अपने मुंह मियॉं मिट्‌ठु बनने-जैसी बात नहीं है। ऋषि दयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढने के बाद मैक्समूलर ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service= I.C.S.) में नियुक्त युवकों को इंगलैंड से भेजे जाते समय भारत का परिचय देते हुए कहा था- "आप अपने अध्ययन के लिए जो भी भाषा अपनाएँ-भाषाधर्मदर्शनविज्ञानकानूनपरम्पराएँ- हर विषय का अध्ययन करने के लिए भारत ही सर्वाधिक उपयुक्त क्षेत्र है। आपको अच्छा लगे या न लगेपरन्तु वास्तविकता यही है कि मानवता के इतिहास की बहुमूल्य एवं निर्देशक सामग्री भारतभूमि में संचित हैकेवल भारतभूमि में। (हम भारत से क्या सीखें)

    “We have all come from the East - what we value most has come to us from the East and by going to the East everybody ought to feel that he is going to this ‘old home’ full of memories, if only we can red them.” -Ibid

    अर्थात्‌ यह निश्चित है कि हम सब पूर्व से आये हैं। इतना ही नहींजो कुछ भी हमारे जीवन में मूल्यवान्‌ और महत्तवपूर्ण हैवह सब हमें पूर्व से ही मिला है। ऐसी स्थिति में जब भी हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यही सोचना चाहिए कि हम अपनी पुरानी स्मृतियों को संजोए हुए अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।

    फ्रांस के महान्‌ सन्त तथा विचारक क्रूजे (Cruiser) ने लिखा है-

    “If there is country which can rightly claim the honour of being the cradle of human race or at least the scane of primitive civilisation, the successive development carried in all parts of the ancient world, and even beyond, the blessings of knowledge which is the second life of man, that country assuredly is India.” -J. Beatie : Civilisation and Progress.

    अर्थात्‌ यदि कोई देश वास्तव में मनुष्यजाति का पालक होने और उस आदि सभ्यता का जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार कियास्त्रोत होने का दावा कर सकता है तो निश्चय ही वह देश भारत है ।

    जैकालियट संस्कृत के विद्वान्‌ थे। उन्होंने फ्रैंच भाषा में ‘La Bible dans la Inde’ (बाइबल इन इण्डिया) नामक एक विश्वविख्यात ग्रन्थ की रचना की थी। पं. भगवद्दत्तजी के अनुसार इस ग्रन्थ का प्रकाशन सन्‌ 1869 में हुआ था। "भारत में बाइबल" नाम से हिन्दी में इसका अनुवाद पं. सन्तराम बी.ए. ने किया था। जैकालिस्ट के अनुसार मिश्रजूडियायूनानरोम आदि सब देश अपने जातिभेदअपनी मान्यताओं और धार्मिक विचारों में भारत के ब्राह्मणों का ही अनुकरण करते थे और उसके ब्राह्मणों तथा याज्ञिकों को आज भी वैसे ही मानते हैं जैसे कभी पहले वैदिक समाज की भाषाधर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र को मानते थे।

    अमेरिकन विदुषी श्रीमती व्हीलर विल्लौक्स (Wheeler Willox) ने इस विषय में लिखा है-

    “It (India) is the land of the Great Vedas - the most remarkable works, containing not only religious ideas for a perfect life but also facts which science has since proved true. Electricity, Redium, Electrons, Airships - all seem to have been known to the seers who found the Vedas.”

    अर्थात्‌ यह (भारत) उन महान्‌ वेदों की भूमि हैजो अद्‌भुत ग्रन्थ हैंजिनमें न केवल पूर्ण जीवन के लिए उपयोगी धार्मिक सिद्धान्त बताये गये हैंअपितु उन तथ्यों का भी प्रतिपादन किया गया है जिन्हें विज्ञान ने सत्य प्रमाणित किया है। बिजलीरेडियमइलेक्ट्रॉनविमान आदि सभी कुछ वेदों के द्रष्टा ऋषियों को ज्ञात प्रतीत होता है।

    इस देश का निर्माण वही कर सकता था जिसे इसकी मिट्‌टी से प्यार होजो इस देश को अपना मानता होअर्थात्‌ अपने को इस देश पर बाहर से आकर बलात्‌ अधिकार करनेवाला विदेशी आक्रमणकारी न मानकर इस देश का मूल निवासी मानता हो। इसकी सभ्यता तथा संस्कृति में जिसकी आस्था हो,इसके इतिहास पर जिसे गर्व होइसके महापुरूषों के प्रति श्रद्धा हो और जो वैदिक मान्यताओं के आधार पर इसका निर्माण करने के लिए कटिबद्ध हो। गत सहस्त्रों वर्षों में इस प्रकार का अलौकिक व्यक्तित्व दयानन्द के रूप में अवतरित हुआ। वह न हुआ होता तो हिन्दुस्तानइण्डिया-जैसा नामधारी देश तो होताकिन्तु आर्यावर्त्त अथवा भारत कहीं देखने में न आता। इसलिए आधुनिक भारत का निर्माता दयानन्द के सिवाय कौन हो सकता है?

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    That is, this (India) is the land of the great Vedas, which are wonderful texts, which not only contain the religious principles useful for the whole life, but also the facts which have been proved by science to be true. Electricity, radium, electrons, planes etc. all seem to be known to the seers of the Vedas.

     

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  • भाव परिवर्तन

    यदि आज आपने एक बार हॉं कहने का साहस बटोर लिया है, तो विश्वास कीजिये कि भविष्य पर आपका अधिकार हो चुका। फिर इस पृथ्वीमण्डल पर कोई शक्ति ऐसी नहीं है, जो आपको आपके इस अधिकार से अधिक समय तक वंचित रख सके। क्योंकि आप और आपके विचार अनन्त काल के लिये अमर हैं और भविष्य आपका अनुचर बन चुका है।

    जो पुरुष धैर्यवान्‌ है और जिसने एक बार प्रतिज्ञा कर ली है, उसके लिये पृथ्वीमण्डल घर के आंगने के समान है, समुद्र बरसाती गड्‌ढे के समान है और पाताल लोक भूमि के तुल्य तथा सुमेरु पर्वत बाम्बी के बराबर है।

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    चारों वेदों के अलग अलग नाम क्यों

    Ved Katha Pravachan _58 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    क्या मनुष्य का जीवन इसलिये है कि वह सदा अपने भाग्य का रोना रोता रहे? उठो और देखो, पूरब में सूर्य अपनी पूर्ण प्रतिमा और सर्वकलाओं से उदय हो रहा है। सोचो, और बताओ! मनुष्य का मार्ग आज तक कौन रोक पाया है? क्या उच्च पर्वत श्रेणियॉं? क्या विशाल नदियॉं और अगाध तथा अनन्त समुद्र? नहीं!

    आप कहेंगे कि मृत्यु हमारे मार्ग का रोड़ा है। परन्तु ऐसा नहीं है। आप पुनः कहेंगे कि दरिद्रता, दासता, कलियुग रोग और ईर्ष्या हमारे मार्ग को अवरुद्ध करेंगे। परन्तु विश्वास करिये वे आपकी आज्ञानुसार बदलेंगे और सहायक होंगे, यदि आपने एक बार ही अपना सुमार्ग निश्चयपूर्वक सदा के लिये चुन लिया है और दूसरी इच्छाओं को स्थान न देने की प्रतिज्ञा कर ली है। आपको अपना उद्देश्य दृढ़ निश्चय की भूमि पर जमाना होगा और जब एक बार उसको भले प्रकार जमा लिया गया, तो बड़े से बड़े मोहक प्रलोभनों से वह आपकी रक्षा करेगा। जब ऐसा हो जाएगा तब संसार की प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु आपके स्पर्श मात्र से आपके उद्देश्य से एकता प्राप्त करने के लिये बाध्य हो जाएगी । क्योंकि आपका उद्देश्य स्वयं सम्पूर्ण जीवन के प्रवाह के अनुकूल निर्माण किया गया है।

    इस प्रकार आप संघर्षमय जीवन को कलामय बनाने में, झाड़-झंकाड़पूर्ण वन को स्वर्ग-कानन बनाने में सफल मनोरथ होंगे।

    जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन जैसी। -आचार्य डॉ.संजय देव

    जीवनोपयोगी चिन्तन

    1. किसी भी व्यक्ति पर कीचड़ उछालना बड़ा सरल काम है किन्तु अपने गिरेबान में झॉंककर देखना निश्चय ही टेढ़ी खीर है।
    2. किसी भी व्यक्ति की शिक्षा उसके संस्कारों के आधार पर प्रमाणित होती है, उपाधियों के आधार पर नहीं। सदाचारी एवं विचार-प्रधान नागरिक ही किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी होती है।
    3. भाग्यवादी एवं आलसी में मानसिक अपंगता होती है।
    4. आत्मनिर्भरता ही जीवन है।
    5. किसी भी व्यक्ति का चिन्तन उसकी सच्चरित्रता (या चरित्रहीनता) का परिचय देता है।
    6. जो मॉं-बाप संस्कारविहीन सन्तानें समाज और देश पर थोपते हैं, वे निश्चय ही बहुत बड़ा अपराध करते हैं।
    7. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक स्तर एवं जीवन-स्तर का निर्माण उसके मानसिक स्तर के आधार पर होता है।
    8. अर्जित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "भूषण' होता है जबकि आरोपित योग्यता सम्पन्न व्यक्ति "दूषण'।
    9. व्यक्ति की जिजीविषा का आधार इसकी कर्मशीलता होती है।
    10.हर दम्पत्ति को अपनी गृहस्थी मिल-जुलकर चलानी चाहिए। आर्थिक दृष्टि से भी तथा गृहविज्ञान की दृष्टि से भी। आज के ज्ञान-विज्ञान प्रधान युग में दम्पत्ती को अकादमिक उपलब्धियॉं अर्जित करने के लिए सम्पूर्ण मन से सचेष्ट रहना चाहिए।
    11."गीता' जीने की कला का मार्गदर्शक ग्रन्थ है। - डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

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    Is the life of a man so that he always weeps for his fortune? Rise and see, in the east, the sun is rising with its full image and all the arts. Think and tell! Who has stopped the path of man till date? What high mountain ranges? What vast rivers and deep and everlasting seas? No!

     

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  • मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

    आचार्य डॉ. संजयदेव के प्रवचनों से संकलित 

    आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌। जैसा व्यवहार हम अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करें। जैसा व्यवहार हम अपने साथ नहीं चाहते, उससे विपरीत व्यवहार दूसरों के साथ भी न करें । यदि मैं चाहता हूँ कि कोई मेरी मॉं-बहिन- बेटी को बुरी दृष्टि से न देखे, तो मैं भी किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से न देखूं । क्योंकि जैसे कोई मेरी मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता है तो मुझे दुःख होता है, मुझे कष्ट होता है। ऐसे ही यदि मैं किसी की मॉं-बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से देखता हूँ तो उसके भी पिता, भाई या पुत्र को कष्ट होता है । धर्म की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि हम सबके साथ अपनी आत्मा के साथ जैसा व्यवहार चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु पश्यति स पश्यति।  जो अपनी आत्मा के अनुकूल सबके साथ व्यवहार करता है, वही वास्तव में देखने वाला होता है। और जो ऐसा व्यवहार करता है, वही अपने जीवन में आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति कर सकता है । त्रासदी यह है कि दुनिया के लोग दुःख से तो बचना चाहते हैं, परन्तु दुःखों के कारण पाप को छोड़ना नहीं चाहते । 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है

    Ved Katha Pravachan _57 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    दुनिया के लोग सुख प्राप्त करना तो चाहते हैं परन्तु सुख देने वाले 
    धर्म का आचरण करना नहीं चाहते। सुख के कारण धर्म को अपने जीवन में ढालोगे, धर्म का अपने जीवन में आचरण करोगे, तभी सुख प्राप्त होगा। नहीं तो सुख प्राप्त नहीं होगा। और यह भी निश्चित रूप से जान लीजिए कि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है। जैसा कि महर्षि कणाद कहते हैं वैशषिक दर्शन में- यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। जिससे इस लोक में और परलोक में उन्नति हो वो धर्म होता है । इस लोक में जैसे धर्म से उन्नति होती है, धर्म से ही परलोक में भी अभ्युदय होता है। मरने के बाद जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, वही हमारे साथ जाएंगे। और हमारा कल्याण, हमारा उत्थान, हमारा उद्धार हमारे अच्छे कर्मों से ही होगा, जिसे शास्त्रों में धर्म कहा गया है। वेद से लेकर महर्षि वेदव्यास पर्यन्त, शंकराचार्य और दयानन्द पर्यन्त जितने भी ग्रन्थ और महापुरुष तथा ऋषि हुए हैं, उन सबका यह मानना है कि मरने के बाद धर्म ही एक साथी होता है। महर्षि मनु कहते हैं-

    एक एव सुहृद धर्मो निधनेऽप्युनुयाति यः।
    शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति।।

    एक ही जो धर्म है वही अपना सगा होता है, वही अपना परम मित्र होता है, जो मरने के बाद भी साथ जाता है। अन्य सब कुछ तो यहीं रह जाता है। जब यक्ष युधिष्ठिर से पूछते हैं महाभारत में, प्रश्न करते हैं कि मरने के बाद कौन मित्र होता है, मरने के बाद भी कौन साथ जाता है ? युधिष्ठिर कहते हैं मरने के बाद धर्म साथ जाता है। मरने के बाद धर्म ही सहयोगी होता है। जो हमारे अच्छे-बुरे कर्म हैं, जो हमारे द्वारा किया हुआ धर्म और अधर्म है, वो मरने के बाद साथ जाएगा और उन धर्म-अधर्म मेें से धर्म हमारा सहयोगी होगा। धर्म हमारा परम मित्र होगा। वही हमारा साथ देगा । कहते हैं -

    धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने।
    देहश्चितायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छतिजीव एक।।

    धनानि भूमौ। जो आपने धन-धान्य कमाया है, वैभव-सम्पत्ति एकत्रित की है, वो सब या तो बैंकों में रखा रह जाएगा या भूमि में आपने गा़ड़ा है अथवा दबाया है वहॉं रखा रह जाएगा । आपके साथ नहीं जाएगा। पशवश्च गोष्ठे। और जो आपके पास गा़डियॉं-घोड़े, कारें या अन्य अच्छे-अच्छे वाहन हैं या पशु आदि हैं, वो सब जो आपकी जगह है गाड़ियों को रखने की या पशुशाला है वहीं रह जाएंगे। वो भी साथ नहीं जाएंगे। और नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने। यहॉं तक कि आपकी जो पत्नी है वह भी घर के दरवाजे तक साथ जाएगी। पत्नी भी घर के दरवाजे से आगे जाने वाली नहीं है। जिसको आपने प्राणों से प्यारी कहा है या जिसने आपको प्राणों से प्यारा कहा है, जिसने आपको प्राणप्रिय कहा है, वह भी मरने के बाद घर के दरवाजे तक ही साथ जाएगी। आगे नहीं जाएगी। और जनाः श्मशाने। जिनके लिए हम जान छिड़कते थे, जिनके लिए हम रात को दो बजे भी आने के लिए तैयार होते थे, वो लोग भी श्मशान तक ही साथ देंगे। आगे साथ नहीं देंगे। यावत्‌ जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। इस सिद्धान्त को लेकर के हम आगे बढ़े हैं कि जब तक जियें सुख से जियें, ऋण लेकर भी घी पीयें। इसको मानकर के हमने अपने शरीर को मोटा-तगड़ा बनाया है। ये शरीर भी हमारे साथ नहीं जाएगा। इसलिए कहते हैं देहश्चितायाम्‌। ये शरीर भी जलने तक, अग्नि तक साथ रहेगा। साथ में ये भी नहीं जायेगा। धर्मानुगो गच्छति जीव एक। केवल धर्म ही एक वो तत्व है जो जीव के साथ जाता है, मनुष्य के साथ जाता है। इसलिए कहते हैं-

    कमा ले धर्म-धन प्यारे साथ तेरे जो जाएगा।
    धन-वैभव और माल खजाना धरा यहीं रह जाएगा।।

    जो भी कुछ आपने कमाया है वह सब यहीं रखा हुआ रह जाएगा। यदि आपने अपने सब कर्त्तव्यों का निर्वहन धर्म के साथ किया है, धर्म के साथ अपने सब कर्त्तव्यों को पाला है तो वह धर्म निश्चित रूप से आपके अन्त समय में साथी होगा। आचार्य चाणक्य जिनका मैंने उदाहरण दिया था वो भी यही कहते हैं-

    विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
    व्याधिस्तस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।

    यदि हम प्रदेश में है जहॉं हमारा कोई परिचय नहीं है, तो विद्या हमारी मित्र होती है। यदि हम विद्वान हैं, ज्ञानवान हैं तो विद्या हमारा साथ देती है। भार्या मित्रं गृहेषु च। घर में पत्नी मित्र होती है। व्याधिस्तस्योषधं मित्रम्‌। यदि हम बीमार हो जाते हैं तो उस अवस्था में औषधि हमारी मित्र होती है और क्या कहते हैं! मनु महाराज द्वारा और अन्य ग्रन्थों में जो कहा गया है, उनके स्वर मेें स्वर मिलाकर चाणक्य भी यही कहते हैं। दुनिया के सबसे बड़े अर्थशास्त्री, जिन्होंने धन-वैभव कमाने का अच्छा रास्ता दुनिया को बताया था, जिनका अर्थ-प्रबन्धन पर सबसे प्राचीन ग्रन्थ है अर्थशास्त्र। वो भी यही कहते हैं धर्मो मित्रं मृतस्य च। मरने के बाद तो धर्म ही मित्र होता है। इसलिए हमारे जितने भी शास्त्र हैं, धर्मग्रन्थ हैं, वो सब यही उपदेश देते हैं कि क्योंकि मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है, इसलिए प्रयत्न से धर्म का संचय करो। 

    धर्म के मार्ग पर चलने के लिए और धर्म के लक्षणों में ईश्वर को मानना अनिवार्य शर्त नहीं है। ये बात ध्यान में रख लेना । ईश्वर को मानना धर्म के लिये अनिवार्य शर्त नहीं है। परन्तु ईश्वर को मानने से धर्म का जो मार्ग है वो सुगम हो जाता है। यह अवश्य है। यदि हम ईश्वर पर विश्वास करेंगे, यदि हममे आस्तिक भावना होगी, तो धर्म पर चलने में हमारा रास्ता सुगम हो जाएगा। धर्म पर चलने में हमें सहयोग मिलेगा। जो व्यक्ति ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है, कोई भी कार्य करने से पहले जिसको ये मालूम है कि परमात्मा सर्वव्यापक है और मैं जो भी कार्य कर रहा हूँ वो सब देख रहा है। 

    क्योंकि जो व्यक्ति यह मान लेता है कि ईश्वर सब जगह है, जहॉं भी हम पाप कर्म करते हैं वो हमें सब जगह साक्षी भाव से देख रहा है, तो हम पाप कर्म से बच जाते हैं और अच्छे मार्ग की ओर चल पड़ते हैं। ईशोनिषद्‌ यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। उसमें यही कहा गया है कि परम पिता परमात्मा को सब जगह व्यापक मानते हुए अपने कर्मों का निर्वहन करो, अपने कर्त्तव्यों को करो, तो जीवन में कभी भी दुःख नहीं उठाना पड़ेगा। ईशावास्यम्‌ इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्‌। इस संसार में जो कुछ भी है वो सब ईश्वर से ढका हुआ है। सब स्थानों में ईश्वर है। इसलिए यदि ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करोगे तो तुम कभी भी सन्देह भाव में नहीं पड़ोगे। 

    अगला मन्त्र यह कहता है कि ईश्वर को साक्षी मान करके-

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
    एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

    वेदोक्त धर्मयुक्त कर्मों को करते हुए सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो।  कैसे कर्म करो? धर्मयुक्त करो। वेदोक्त कर्म करो। उन कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने का प्रयास करो। धर्मयुक्त कर्म करोगे, तो जैसे मैं अपने साथ व्यवहार करता हूँ वैसा ही दूसरों के साथ करूँ, तो दूसरे लोग भी मेरे साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, मुझे अच्छा लगेगा,मुझे सुख मिलेगा। और मुझे सुख मिलेगा तो मेरी आयु भी सौ वर्ष हो जाएगी। क्योेंकि सब दृष्टियों से चाहे प्राकृतिक पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे अन्य जल-वायु आदि पदार्थों में सन्तुलन करने की दृष्टि हो, चाहे प्राणियों के प्रति, मनुष्यों के प्रति मित्र की भावना की दृष्टि हो, सब दृष्टियों से हम धर्म का पालन करेंगे, तो उस धर्म का पालन करने से हमें सुख मिलता है।  दुनिया के जितने भी आज तक वेद से लेकर धर्मग्रन्थ हुए हैं वो सब धर्मयुक्त कर्म करने का उपदेश देते हैं। 

    मैंने बताया था कि धर्म का मतलब सम्प्रदाय, मजहब या पन्थ नहीं है। सम्प्रदाय, मजहब और पन्थ तो अनेकोें हो सकते हैं। परन्तु धर्म एक ही होता है।  और वो ईश्वर प्रणीत होता है। धर्म, सम्प्रदाय और पन्थ तो व्यक्ति स्थापित करते हैं। और धर्म को स्वयं ईश्वर स्थापित करते हैं। हमारे अन्तःकरण में धर्म के पालन की प्रेरणा देते हैं। हम जब कोई गलत काम करते हैं तो हमारे हृदय में जो आवाज आती है, भय, शंका और लज्जा उत्पन्न होती है, वह परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। और जब हम कोई अच्छा कार्य करते हैं तो आनन्द और उत्साह की वृद्धि होती है। वह भी परमपिता परमात्मा की ओर से होती है। 

    धर्म में और सम्प्रदाय में मूलभूत अन्तर है। आज ये जो कहा जा रहा है कि संसार में धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं, होते रहेंगे या होंगे, यह मिथ्या है। वर्तमान में लोगों को धर्म की परिभाषा समझ में ही नहीं आ रही है । धर्म क्या होता है यह जानते ही नहीं। और एक और बात का जोरों से प्रचार होता है। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। एक तरफ तो यह कहते हैं कि धर्म के नाम से झगड़े होते हैं और एक तरफ उससे विपरीत बात कहते हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। 

    जबकि तथ्य यह है कि मजहब ही सिखाता आपस में बैर करना। दुनियॉं में जितनी भी लड़ाईयां हुई हैं या हो रही हैं या होंगी आगे भी, वो सब अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं। अपनी बात को मनवाने के लिए होती हैं। और अपनी बात को मनवाने की जहॉं बाध्यता होती है, अपनी बात को मनवाने का जहॉं आग्रह होता है, अपनी विचारधारा की कट्‌टरता को जहॉं फैलाने की बात होती है, वही सम्प्रदाय होता है, वही मजहब होता है, वही पन्थ होता है। उसे ही मत कहा जाता है। यही कारण था कि हमारे देश भारतवर्ष में विदेशी लोग अपने एक हाथ में अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को लेकर के और एक हाथ में तलवार लेकर के यहॉं आए थे। उस तलवार के बल पर और अपने उस सम्प्रदाय की पुस्तक के बल पर सारे देश को अत्याचार से युक्त कर दिया था।  सारे देश पर अन्याय ढाया था। वो धर्म के नाम पर नहीं हुआ, सम्प्रदाय के नाम पर हुआ। 

    धर्म तो यह सिखाता है, धर्म तो यह कहता है कि हे प्रभो! धर्म का अनुयायी, वेद का अनुयायी, सनातनधर्मी प्रातः उठते ही मैंने बताया था, कामना करता हैकि- हे प्रभो! सर्वे भवन्तु सुखिनः। सब सुखी रहें। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। सब अच्छा देखें, सर्वे सन्तु निरामयाः। सब निरोग हों। मा कश्चिद्‌ दुःखभाग्‌ भवेत्‌। किसी को कोई दुःख नहीं हो। सनातनधर्मी तो यह मानता है कि चाहे वेद को मानने वाला हो या न हो, आस्तिक हो या नास्तिक हो, राम को मानने वाला हो या रहीम को मानने वाला हो, कृष्ण को मानने वाला हो या अल्लाह को मानने वाला हो, हे प्रभो! सबका कल्याण करना। सनातन धर्म के जितने भी ग्रन्थ हैं, वो सब इसी धर्म पर चलने का उपदेश देते हैं। जब अत्याचार और अन्याय उत्पन्न होता है, जब अत्याचार और अन्याय का इस धरती पर प्रार्दुभाव होता है, तो इसी धर्म की रक्षा के लिए हमारे महापुरुष अवतरित होते हैं। गीता का आरम्भ तो धर्म से ही हुआ है। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः, मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय। धर्मक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में पाण्डवों ने और कौरवों ने इकट्‌ठे होकर क्या किया, हे संजय! मुझे बताओ। धर्म से प्रारम्भ हुआ। क्योेंकि अन्याय और अत्याचार किया जा रहा था। कर्त्तव्यों का ठीक-ठीक पालन नहीं हो रहा था। दूसरे के भाग को, दूसरे के हिस्से को हड़पा जा रहा था। द्वेषाग्नि सुलग रही थी। भगवान कृष्ण ऐसी स्थिति में ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होकर अवतरित हुए थे। और क्या कहते हैं गीता में- 

    परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
    धर्मसंस्थापनार्थायसम्भवामि युगे युगे।।

     

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    There is a fundamental difference between religion and community. Today it is being said that in the name of religion in the world, there are fights and fights taking place in the name of religion, whether it will happen or will happen, it is false. Presently people do not understand the definition of religion. They do not know what religion is. And another thing is propagated loudly. Religion does not teach hating each other. On the one hand it is said that there are quarrels in the name of religion and on the one side it says the opposite thing that religion does not teach hating one another.

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  • मन की दिव्यशक्ति

    ओ3म्‌ वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः।
    प्रजावन्तः सचेमहि।। ऋग्वेद 10.57.6

    ऋषिः बन्धुः सुबन्धु आदयः।। देवता विश्वेदेवाः।। छन्दः-गायत्री।। 

    विनय - हे सोम! तुम्हारा दिया हुआ तुम्हारी महाशक्ति का अंशभूत मन हमारे शरीरों में विद्यमान है। इस मन का, इस तुम्हारी अमूल्य देन का हमें गर्व है। इस मन के कारण ही हम मनुष्य हैं। इस मनशक्ति के कारण ही हम पशुओं से ऊँचे हुए हैं। तो क्या अपने शरीरों में मन जैसी प्रबल शक्ति को धारण किये हुए भी हम लोग तुम्हारे व्रत में न रह सकेंगे? बेशक तुम्हारे व्रत का पालन करना बड़ा कठिन है। तुमने जगत्‌ में जो उन्नति के नियम बनाये हैं, ठीक उनके अनुसार चलना बड़ा दुःसाध्य है। पर जहॉं तुमने ये कठिन नियम बनाये हैं, वहॉं तुमने ही हममें मन की अतुल शक्ति भी दी है। अतः हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अपनी मनःशक्ति के प्रयोग द्वारा सदा तुम्हारे व्रत में ही रहेंगे, कभी इसको भंग न करेंगे। कठिन से कठिन प्रलोभन व विपत्ति के समय में भी मनःशक्ति द्वारा हम व्रत में स्थिर रहेंगे। 

    Ved Katha Pravachan _89 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    पर यह सब व्रतपालन किसलिए है? यह तुम्हारी सेवा के लिए है। यह तुम्हारा दिया मन इसी काम के लिए है। हम चाहते हैं कि केवल यह हमारा मन ही नहीं, किन्तु हमारे मन की प्रजा भी तुम्हारी सेवा में ही काम आवे। मन में जो एक रचनाशक्ति है, उस द्वारा प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कुछ रचना कर जावे, कुछ निर्माण कर जावे। यह रचना ही मन की प्रजा है। यदि हम, हे सोम! सर्वथा तुम्हारे व्रत में होंगे तो हमारी यह रचना (प्रजा) भी निःसन्देह तुम्हारी सेवा के लिए ही होगी, इसी में व्यय होगी। इस प्रकार हम और हमारी प्रजा सदा तुम्हारी सेवा में रहें, तुम्हारी सेवा में ही अपना जीवन बिता देवें। अब यही संकल्प है, यही इच्छा है, यही प्रार्थना है। 

    शब्दार्थ - सोम=हे सोमदेव! तनूषु=अपने शरीरों में मनः=मन को, मनःशक्ति को बिभ्रतः=धारण किये हुए वयम्‌=हम लोग तव व्रते=तुम्हारे व्रत में हैं, तुम्हारे व्रत का पालन करते हैं और प्रजावन्तः=प्रजा-सहित हम लोग सचेमहि=तुम्हारी सेवा करते रहें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    आत्म जीवन निर्माण

    ओ3म्‌ अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ।
    अहं सूर्य इवाजनि।। (ऋग्वेद 8.6.10, साम. पू. 2.2.6.8, अथर्व. 20.11.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।। 

    विनय - मैं सूर्य के सदृश हो गया हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि मैं मनुष्यों में सूर्य बन गया हूँ। मुझ सूर्य से सत्यज्ञान की किरणें सब ओर निकल रही हैं। जैसे इस हमारे सूर्य से प्राणिमात्र को ताप, प्रकाश और प्राण मिल रहा है, सबका पालन हो रहा है, इसी प्रकार मैं भी ऐसा हो गया हूँ कि जो कोई भी मनुष्य मेरे सम्पर्क में आता है उसे मुझसे ज्ञान, भक्ति और शक्ति मिलती है। मैं कुछ नहीं करता हूँ, पर मुझे अनुभव होता है कि मुझसे स्वभावतः जीवन की किरणें चारों ओर निकल रही हैं तथा चारों ओर के मनुष्यों को उच्च, पवित्र और चेतन बना रही हैं। इसमें मेरा कुछ नहीं है। मैंने तो प्रभु के आदित्य (सूर्य) रूप की ठीक प्रकार से उपासना की है। अतः उनका ही सूर्यरूप मुझ द्वारा प्रकट होने लगा है। मैंने बुद्धि द्वारा सूर्य की उपासना की है। मनुष्य का बुद्धिस्थान (सिर) ही मनुष्य में द्युलोक (सूर्य का लोक) है। मैंने अपनी बुद्धि द्वारा सत्य का ही सब ओर से ग्रहण किया है और ग्रहण करके इसे धारण किया है। धारण करने वाली बुद्धि का नाम ही "मेधा' है। इस प्रकार मैंने मेधा को प्राप्त किया है। द्युलोक के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर द्युलोक को अपने में ग्रहण किया है। इसीलिए मैं सूर्य के समान हो गया हूँ। द्युलोक में स्थित प्रभु का रूप ऋतरूप है, सत्यरूप है। मैंने अपनी सब बुद्धियॉं, सब ज्ञान, उन सत्यस्वरूप पिता से ही ग्रहण किये हैं। मैंने इसका आग्रह किया है कि मैं सत्य को ही, केवल सत्य को ही अपनी बुद्धि में स्थान दूँगा। इस तरह मैंने प्रभु के द्युरूप की सतत उपासना की है, ऋत की मेधा का परिग्रह किया है। इस सत्यबुद्धि के धारण करने के साथ-साथ मुझमें भक्ति और शक्ति भी आ गई है। मेरा मन और शरीर भी तेजस्वी हो गया है। पालक पिता के सब गुण मुझमें प्रकट हो गये हैं। मैं सूर्य हो गया हूँ। हे मुझे सूर्यसमान करने वाले मेरे कारुणिक पिताः! तुझ ऋत की मेधा को सब प्रकार से पकड़े हुए मैं तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ। 

    शब्दार्थ - अहम्‌ इत्‌=मैंने तो हि=निश्चय से पितुः=पालक पिता ऋतस्य=सत्यस्वरूप परमेश्वर की मेधाम्‌=धारणावती बुद्धि को परिजग्रभ=सब ओर से ग्रहण कर लिया है, अतः अहम्‌=मैं सूर्यः इव=सूर्य के समान अजनि=हो गया हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay- I have become like the sun. I feel that I have become the sun in humans. The rays of Satyagyan are emanating from me all over the sun. Just like this our sun is getting heat, light and life, all are being followed, similarly I have also become such that any person who comes in contact with me gets knowledge, devotion and strength from me. I do not do anything, but I feel that the rays of life are naturally coming out from me and making the people around them higher, pure and conscious. I have nothing in it. I have worshiped Lord Aditya (Sun) form properly.

     

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  • मन्यु का पात्र

    ओ3म्‌ समस्य विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः।
    समुद्रायेव सिन्धवः।। (ऋग्वेद 8.6.4 साम. पू. 2.1.5.3. अथर्व. 20.107.1)

    ऋषिः काण्वो वत्सः।।देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय - इन्द्र परमेश्वर जहॉं हमारे पिता हैं, उत्पादक और पालक हैं, वहॉं वे हमारे कल्याण के लिये रुद्र भी हैं, संहारकर्त्ता भी हैं। जब जगत्‌ में किसी स्थान पर संहार की आवश्यकता आ जाती है तो प्रभु अपने मन्यु को प्रकट करते हैं। मानो अपना तीसरा नेत्र खोल देते हैं, अपने तीसरे रूप को प्रकाशित करते हैं। उस कल्याणकारी शिव के मन्यु का तेज जब देदीप्यमान होने लगता है, तो नाश होने योग्य सब संसार पतङ्गे की भॉंति आ-आकर उसमें भस्म होने लगता है। मन्यु का पात्र कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता, सब बहे चले आते हैं। देखो, समय-समय पर बड़े-बड़े संग्राम, दुष्काल या महामारी आदि रूपों में प्रभु का वह महाबलवाला मन्यु जगत्‌ में प्रकट होता रहता है। 

    सब मनुष्य अपने विनाश की ओर खिंचे चले जा रहे होते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता। जैसे सब नदियॉं समुद्र की ओर बही चली जा रही हैं व उसमें जाकर समाप्त हो जाएँगी, लीन हो जाएंगी, उसी प्रकार प्रभु का मन्यु काल-समुद्र बनकर उन सब प्राणियों को अपनी ओर खींचता जा रहा है, जिनका कि समय आ गया है। मनुष्यों के किये हुए पाप उन्हें विनाश की ओर वेग से खींचे ले जा रहे हैं। जिन्होंने इस संसार को जरा भी तह के अन्दर घुसकर देखा है, वे देखते हैं कि किस-किस विचित्र ढंग से मनुष्य अपने मृत्युस्थल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। धन्य होते हैं अर्जुन जैसे दिव्यदृष्टिपात पुरुष जिन्हें कि काल का यह आकर्षण दिखाई दे जाता है और जो देखते हैं- यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। हम लोग तो मौत के मुँह में घुसे जा रहे होते हैं, पर कुछ पता नहीं होता। हममें से अपनी शक्तियों का बड़ा गर्व करने वाले बड़े-बड़े प्रख्यात लोग जिस समय संसार को जितने अभिमान के साथ अपना पराक्रम दिखा रहे होते हैं, उसी समय वे उतने ही वेग से मृत्यु की ओर दौड़े जा रहे होते हैं, पर उन्हें कुछ पता नहीं होता है। जब उनका सब ठाठ एक क्षण में गिर पड़ता है, सामने मौत खड़ी दिखती है, तब जाकर प्रभु का रूद्ररूप उन्हें दीख पड़ता है। प्यारो! तब तुम अभी से क्यों नहीं देखते कि उसके मन्यु के सामने जब संसार झुका पड़ा है। पापी होकर कोई भी मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा नहीं रह सकता, जिससे तुम अभी से उसके मन्यु का पात्र न बनने की समझ पा सको। 

    शब्दार्थ - अस्य = इस परमेश्वर की मन्यवे = मन्यु, "क्रोध', दीप्ति के सामने विश्वा विशः = सब प्रजाएँ कृष्टयः = सब मनुष्य सं नमन्त = ऐसे झुक जाते हैं समुद्राय इव सिन्धवः = जैसे कि नदियॉं समुद्र में समा जाने के लिए उधर स्वयं बही जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    हे नाथ !

    ओ3म्‌ नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
    इन्द्राभिमातिषाह्ये।।ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3।।

    ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः।। देवता इन्द्र ।। छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु "अभिमाति' है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि ""यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ'', "यह मैंने किया'' तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ ! 

    शब्दार्थ - शतक्रतो = हे अनन्तकर्म ! हे अनन्त प्रज्ञ ! विश्वाभिः गीर्भिः = मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि = तेरे नामों को ईमहे = लेता रहता हूँ। इन्द्र = हे परमेश्वर ! अभिमातिषाह्ये = शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

    Ved Katha Pravachan _88 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


     

    Vinay- Indra Parmeshwar, where our father is our producer and foster, he is also Rudra for our welfare, also a savior. When there is a need to kill at some place in the world, God reveals his mind. As if we open our third eye, we publish our third form. When the glory of that welfare Shiva's manu becomes resplendent, then all the world that is perishable begins to devour in it like the husband. No person can avoid Manu, all of them come away. See, from time to time, in the form of big battles, droughts or epidemics etc., that great power of Lord Manu continues to appear in the world.

     

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  • महर्षि दयानन्द की धर्म सम्बन्धी देन

    धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान अभिशाप बन जाता है। यदि अशिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो अन्ध विश्वासी बन जाता है और यदि शिक्षित व्यक्ति बिना जाने धर्म को ग्रहण करता है तो वह सर्वथा अविश्वासी नास्तिक बन जाता है। ऋषि दयानन्द के आगमन से पहले धर्म की यही दशा थी। एक ओर धर्म के नाम पर आडम्बर एवं पाखण्ड पनप रहे थे तो दूसरी ओर नास्तिकता फैल रही थी। धर्म के अनुयायियों में विशेष दोष यह आ गया था कि उन्होंने धर्म को आत्मा से सर्वथा दूर कर दिया था। सीधे रूप में यह कहा जा सकता है कि धर्म पालन के लिये आचरण आवश्यक नहीं रह गया था और उसे एक व्यापारिक वस्तु बना दिया गया था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई भी राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -2

    Ved Katha Pravachan -6 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जैसे व्यापार में पैसे से कोई चीज खरीदी जा सकती है या एजेन्टों के द्वारा सारा कारोबार चलता हैठीक इसी प्रकार पैसे से धर्म उपार्जन किया जा सकता है या स्वयं कुछ न करके अन्यों के द्वारा किया जा सकता है। धनिक लोग मद्य मांस तथा वेश्यागमन आदि पाप करते हुए भी दक्षिणा से खरीदे ब्राह्मणों के द्वारा यज्ञ तथा जप आदि कराते थे और उन धनक्रीत धर्माध्यक्षों के द्वारा धर्म के संरक्षक भी घोषित किये जाते थे। इस प्रकार टकों से धर्म संग्रह की सम्भावना बढ जाने पर क्यों कोई झंझट में पड़े तप या साधना के। धर्म के धन का दास बन जाने की एक प्रतिक्रिया हुई कि पापों के क्षमा हो जाने की व्यवस्था चल पड़ी। इतना दान-पुण्य करो और पाप से छुटकारा पा जाओ। इससे कर्म फल व्यवस्था का आधार ही नष्ट हो गया और धर्म की तो जड़ ही कट गई। समाज में कदाचार तथा कुप्रवृत्तियों का बोल-बाला हो गया। चोर डाकू आदि भी देवताओं से वरदान पाने लगेनिज कार्य की सिद्धि के लिये उनकी उपासना आराधना करने लगे। प्रत्येक जघन्य कर्म देव स्तुति से आरम्भ होने लगा। धर्म के नाम पर वाममार्ग की प्रतिष्ठा हो गयी। धर्म के सम्बन्ध में आचरण का जो अंश बचा था वह भी इतना उलझा दिया गया कि किसी भी मनुष्य के लिये उसका पालन सम्भव न रहा। उदाहरण के लिये साल भर में एक नैष्ठिक हिन्दू को 2000 व्रत उपवास करने होते थे। प्रतिदिन 6-7 का औसत पड़ता है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे धर्म का अनुष्ठान करते हुए संसार का या अपना कोई अन्य कार्य भी कर सकता है?

    जब धर्म का आचरण अथवा आत्मा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया तो एक और भारी बुराई पैदा हो गई। जन्म के आधार पर लोग धर्म के ठेकेदार बन गये। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से काला अक्षर भैंस बराबर व्यक्ति भी समाज में गुरुवत्‌ पूजा जाने लगा और शूद्र के घर में जन्मा विद्वान तथा पवित्राचरणशील व्यक्ति भी अनादर एवं दुर्व्यवहार का भाजन हो गया। इससे सारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयीसामाजिक मूल्य नष्ट हो गये। धर्माधिकारियों ने अपनी गद्दियों को सुरक्षित रखने के लिये ऐसे षडयन्त्र रचे कि अधिकांश जनता को अज्ञानान्धकार के गर्त में फेंक दिया गया। एक ने स्त्री जाति को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया तो दूसरे ने शूद्रों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिये। अवस्था यहॉं तक पहुँची कि कुछ लोगों से धन मिल गया तो उन्हें उच्च कुलीनक्षत्रियवैश्य आदि घोषित कर दिया गया और जिनसे धन की प्राप्ति न हुईउन्हें नीच कुलीन शूद्र पतित आदि की क्षेणियों में धकेल दियागया।

    वैदिक संस्कृति तथा समाज का नारा था- धर्मादर्थश्च कामश्च। अर्थात्‌ धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि श्रेयसी होती है। अब इसके विपरीत होगा- अर्थाद्‌धर्मश्च कामश्च। धन से ही धर्म तथा काम की सिद्धि सुगम है। क्रान्तदर्शी ऋषि के सात्विक हृदय पर इस वाम मार्ग ने कड़ा आघात किया। उन्हें लगा कि सब अनर्थों का मूल धर्म सम्बन्धी अज्ञानता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोग भूल चुके हैंमूल धर्म से समाज का सूत्र विच्छिन्न हो गया है। ईश्वर और धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन हुए बिना अविद्याग्रस्त मानव का कल्याण असम्भव है। इसी लगन और धुन में वे घर परिवार छोड़कर सच्चे ईश्वर की प्राति में जुट गए। निरन्तर 18 वर्ष की दीर्घ तपस्या तथा कठोर साधना के फलस्वरूप उन्होंने अपने अभीष्ट को पा लिया और फिर मानव कल्याण के लिए प्रचार में लग गये। अकाट्य तर्कों तथा युक्ति प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया कि ईश्वर एकनिराकारनिर्विकारसर्वज्ञसर्वव्यापक हैउसी की उपासना करनी चाहिये। जीव अल्पज्ञ हैकर्म करने में स्वतन्त्र हैपरन्तु फल भोग में पराधीन है। फल की व्यवस्था ईश्वराधीन है। ईश्वर भी न्यायकारी हैजीव के कर्मों के अनुसार ही सुख दु:ख रूपी फल देता है। बिना कर्म किए फल नहीं मिल सकता और जो कर्म किया है उसके फल से किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं हो सकता। किसी दूसरे के किये हुए कर्म का किसी को कोई फल नहीं मिल सकता। 

    यद्यपि सन्त सुधारक इस देश में 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक अनेक हुए,जिन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार तथा संशोधन के लिए सराहनीय प्रयत्न किये। परन्तु यह  तथ्य है कि वे समाज एवं जाति की धारा को न मोड़ सके। इसका कारण यही रहा कि वे जाति की ज्ञान चक्षुओं को न खोल सके। ऋषि दयानन्द की अपनी दो विशेषतायें थीं- अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा अगाध विद्वत्ता। इन दोनों शक्तियों के बल पर उन्होंने सोये समाज को झिंझोड कर जगाया। संसार के सारे देशी-विदेशी मत-मतान्तरों का तर्क की कसौटी पर विश्लेषण किया। कोई भी धर्म पुस्तक या धर्म प्रवर्तक न बचा,जिसके ऊपर ऋषि की लेखनी न चली हो। ऐसा निर्भीक आचार्य सम्भवत: भूतल पर दूसरा नहीं उतरा जिसने इस प्रकार निर्मम शल्यक्रिया की हो। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा तथा विवेक का ऐसा सामंजस्य कहॉं देखने को मिलेगा,जैसा ऋषि दयानन्द में मिलता है। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा उपकार उन्होंने यह किया कि धर्म तथा दर्शन की गूढतम गुत्थियों को जनता की सरल भाषा में ऐसा निबद्ध किया कि उनके महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढकर ही मनुष्य धर्म एवं ईश्वर के सम्बन्ध में सब कुछ जान सकता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से ही साधारण कृषक या दुकानदार धर्म के ऐसे व्याख्याता बन गये कि दूसरे मतों के अच्छे-अच्छे विद्वान्‌ भी उनके मुकाबले में न ठहर सकते थे। सार यह कि ऋषि दयानन्द ने धर्म और ईश्वर के नाम पर चलने वाले आडम्बर-पाखण्डों को छिन्न-भिन्न किया,अनर्थों का निराकरण किया। साथ ही इन दोनों का बुद्धिसम्मत तथा तर्कानुगत स्वरूप इस प्रकार जन भाषा में प्रस्तुत किया कि बुद्धिवादी लोग धर्म का आदर करने लगे और धर्म कुछ विशेष साधन सम्पन्न अथवा सुविधा प्राप्त लोगों की वस्तु न रहकर सर्व साधारण की धरोहर बन गया। उसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से जुड़ गया और आचार के आधार पर वह पुन: प्रतिष्ठित हो गया। अन्ध विश्वास और नास्तिकता दोनों पर एक साथ प्रहार हुआ। यह धर्म के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की देन है। आर्य समाज की स्थापना इसी देन के सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक प्रचार के लिए हुई है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करने तथा सत्य के ग्रहण करने और असत्य के परित्याग में प्रत्येक को सदैव समुद्यत रहना चाहिये। -रघुवीर सिंह शास्त्री

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    When the conduct of religion or the relationship with the soul was severed, another great evil was born. On the basis of birth, people became the contractors of religion. Just by being born in a Brahmin's house, even a person with a black letter buffalo started to worship Guruvata in the society and a scholar and a pious person born in a Shudra's house also became a victim of disrespect and abuse. Due to this, the entire social system was torn apart, social values ​​were destroyed. 

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  • महर्षि दयानन्द के उपकार-2

    ईश्वर के जन्म लेने और गर्भ में आने की पौराणिक साहित्य में पुष्टि-  जो पौराणिक विद्वान्‌ यह कहते हैं कि ईश्वर जन्म नहीं लेता, वह तो प्रकट होता है। उन्हें अपने मान्य ग्रन्थों को ध्यान से पढना चाहिये। उदाहरणार्थ- श्रीरामचरित मानस के बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने शिवजी के मुँह से कहलवाया "जो दिन तें हरि गर्भहिं आए" तथा स्वयं अपने आराध्य देव श्रीराम से बुलवाया- "जन्मे एक संग सब भाई।" इसी प्रकार श्रीमद्‌भगवद्‌गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक पॉंच में "बहुनि मे व्यतीतानि तव चार्जुन" आदि अकाट्‌य प्रमाणों से पौराणिक ईश्वर श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म लेने की पुष्टि होती है।

    बतलाया प्रभु सर्वव्यापक लेता नहीं कभी अवतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-1
    Ved Katha Pravachan -12 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता हैवा नहीं?" इस प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने यह लिखकर दिया-"नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाये कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे। और जो अपराध नहीं करतेवे भी अपराध करने से न डरकर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत्‌ देना ही ईश्वर का काम हैक्षमा करना नहीं।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को सगुण और निर्गुण  (दोनों गुणों से मुक्त) माना हैं। वे इस वेदोक्त मान्यता के समर्थन में लिखते हैं- "जैसे जड़ के रूपादि गुण हैं और चेतन के ज्ञानादि गुण जड़ में नहीं हैंवैसे चेतन में इच्छादि गुण हैं और रूपादि जड़ के गुण नहीं हैं। इसलिए जो गुण से सहित वह सगुण और जो गुणों से रहित वह "निर्गुण" कहाता है। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसमें केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैंसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान-बलादि गुणों से सहित होने से सगुण और रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक्‌ होने से "निर्गुण" कहाता है।"

    जब उनसे यह कहा गया कि- "संसार में निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहते हैं।" तो उन्होंने बताया- "यह कल्पना केवल अज्ञानी और अविद्वानों की है। जिनको विद्या नहीं होतीवे पशु के समान यथा-तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात ज्बरयुक्त मनुष्य अण्डबण्ड बकता हैवैसे ही अविद्वानों के कहे व लेख को व्यर्थ समझना चाहिये।"

    महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को न तो रागी माना और न विरक्त। इस सम्बन्ध में उनका मत यह है कि- "राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता हैसो परमेश्वर से कोई पृथक्‌ वा उत्तम नहीं हैइसलिये उसमें राग का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवेउसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकताइसलिये विरक्त भी नहीं।"

    ईश्वर में इच्छा है वा नहीं?" इस प्रश्न के उत्तर में वे लिखते हैं कि- "इच्छा भी अप्राप्त उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख-विशेष होवे उसकी होती हैतो ईश्वर में इच्छा (कैसे) हो सकेन उससे कोई अप्राप्त पदार्थन कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं हैइसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं किन्तु ईक्षण अर्थात्‌ सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता हैवह ईक्षण है।"

    जान स्वरूप सत्य ईश का भ्रम से मुक्त हुए नर नार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा-  इन्द्रियों का विषय न होने से मध्ययुग में हुए वेद विहीन व्यक्तियों के लिये  ईश्वर पहेली बन गया। अत: अवैदिक मतों के प्रवर्तकों ने अपने-स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न कल्पनाएँ की और अध्यात्म प्रेमियों को भटका दिया। अर्थात्‌ किसी ने अपनी कल्पना के आधार पर ईश्वर की सत्ता का निषेध किया तो किसी ने ईश्वर को एकदेशी और साकार बताया।

    जिन्होंने यह कहा कि संसार में ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है अथवा ईश्वर एक देशी और साकार हैउनमें से किसी ने भी ईश्वर साक्षात्कार वाला वेदोक्त मार्ग नहीं बताया तथा न ही महात्माभक्त आदि महानुभावों ने महर्षि पतंजलि वाले अष्टांग योग को आचरण से अपना कर ईश्वर विषयक अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने तो ईश्वर के सम्बन्ध में अपनी कल्पना से जो निर्णय लियावही माना और मनवाया।

    यह सर्व विदित है कि ऋषियों द्वारा लिखे गये सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। जबकि मध्यकालीन अनेक सन्त-महात्मा नामधारियों को संस्कृत भाषा का तनिक भी ज्ञान नहीं था। यही कारण है कि वे अपने मत की पुष्टि प्राचीन शास्त्रों से नहीं कर पाये और अपनी शैक्षणिक अयोग्यता पर पर्दा डालने के लिये वेद विरोधी बन गये। जो संस्कृत भाषा के विद्वान्‌ थे उन्हें ऋषियों की आर्ष परम्परा का बोध नहीं था। अत: वे वेद तथा वैदिक मान्यताओं को ठीक से जानने में असमर्थ रहे और अपने स्तर पर ईश्वर सम्बन्धी की गई कल्पनाओं को उचित मान बैठे। उनकी ये "अध्यात्म सम्बन्धी अनधिकार चेष्टा" थी। भले ही उन महानुभावों की भावनाएँ अच्छी रहीं होंकिन्तु यथार्थ ज्ञान के अभाव में वे संसार का उपकार नहीं कर सके।

    उदाहरण- डॉक्टर से रोगी को यह कहते हुए सुन कर कि मैं गरीब हूँऔषधियों का मूल्य और आपकी फीस देना मेंरे लिये सम्भव नहीं हैकिसी परोपकार प्रिय व्यक्ति को दया आ जावे और वह निर्धनों को नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा देने की कामना से नगर में यह विज्ञापन करावे कि "मैं गरीबों का मुफ्त इलाज करूंगाकृपया मुझे सेवा का अवसर दीजियेगा।" जबकि उसे चिकित्सा सम्बन्धी कुछ भी जानकारी नहीं हैतो क्या उसके इस तथा कथित सेवा कार्य को उचित माना जायेगाहॉंयदि कोई दयालु किसी अभावग्रस्त रोगी का सुयोग्य चिकित्सक से अपने व्यय पर उपचार करवादे तो उसे उपकारी समझा जा सकता हैकिन्तु वह स्वयं ही इलाज करने लगे तो यह उसको "अनधिकार चेष्टा" ही कहलायेगी। मध्ययुग में अध्यात्म के नाम पर यही हुआ। जिसके परिणामस्वरूप मानव समुदाय भ्रमित हो गया।

    शिक्षित वर्ग यह जानता है कि अनधिकारी चिकित्सकों को अपराधी मान कर सरकार उन्हें दण्ड देती है। यदि अध्यात्म सम्बन्धी भी ऐसा कोई विधान होता तो ईश्वर के नाम पर परस्पर विरोधी मान्यताओं वाले ये मत-मतान्तर प्रचलित नहीं हो पाते। आश्चर्य है कि जिन्होंने वेदउपनिषद्‌दर्शनशास्त्र देखे तक नहीं उन्होंने आत्मा-परमात्मा से सम्बन्धित जानकारी देने का दुस्साहस कर लिया।

    अनधिकृत अध्यात्मज्ञान को दूषित सिद्ध किया ललकार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार।।

    ईश्वर सम्बन्धी मूल प्रश्न और यथोचित उत्तर-

    (1) ईश्वर की सत्ता है अथवा नहीं ?
    (2) यदि ईश्वर है तो वह कहॉं रहता है?
    (3) ईश्वर कैसा है?
    (4) ईश्वर के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है?

    maharshi swami dayanand saraswati

    महर्षि दयानन्द ने इन प्रश्नों का यथोचित उत्तर देकर अध्यात्मप्रेमियों पर महान्‌ उपकार किया है, इस सत्य को सभी निष्पक्ष बुद्धिमान्‌ मनीषी स्वीकारते हैं। आदि सृष्टि से महर्षि दयानन्द द्वारा रचित ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है, संसार में दिखाई दे रहे नियम और हो रहे कार्य आदि नियामक, कर्त्ता ईश्वर के अस्तित्व की साक्षी दे रहे हैं। इस प्रथम का उत्तर है। द्वितीय और तृतीय प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने हेतु आर्यसमाज का दूसरा नियम ध्यान से पढना चाहिये। लिखा है, वह-"ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र है।" चतुर्थ प्रश्न के उत्तर से जानकारी मिलती है  कि ईश्वर सृष्टि का निर्माण, पालन, संहार करता और हम जीवों को हमारे शुभाशुभ कर्मों का यथावत्‌ फल देता है। ईश्वर सम्बन्धी पॉंचवें प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने स्तुतिप्रार्थनोपासना के सातवें मन्त्र से दिया- "वह परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है" तथा "आर्य्याभिविनय" द्वितीय प्रकाश के प्रथम व्याख्यान में उन्होंने ईश्वर को सम्बोधित करते हुए लिखा- "हम आपको ही पिता, माता, बन्धु, राजा, स्वामी, सहायक, सुखद, सुहृद, परम गुरु आदि जानें।"

    उलझन सुलझादी ईश्वर सम्बन्धी करके कृपा अपार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    भगवान्‌ भक्तों के वश में नहीं होता-  मध्ययुग में हुए तथा कथित भगवद्‌ भक्तों के नाम से अवैदिक मतों द्वारा यह प्रचार किया गया कि भक्तभगवान को वश में कर लेते हैं अर्थात्‌ वे भगवान्‌ से अपने इच्छित कार्य करवा सकते हैं। वेद विरुद्ध इस मान्यता की पुष्टि हेतु "भक्तमाल" जैसी पुस्तकों में विभिन्न काल्पनिक कथाएँ लिखी गईजिन्हें पढ-सुन कर भोले नर-नारी भ्रमित हो गये।

    महर्षि दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" के सप्तम समुल्लास में स्पष्ट कर दिया कि "कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा- हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी बना कर खिलाइयेमकान में झाडू लगाइयेवस्त्र धो दीजिये और खेती बाडी कीजिए। इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते वे महामूर्ख हैं।"

    "भगवान्‌ भक्तों के वश मेंे हो जाता है"इस अन्धविश्वास ने मानव समुदाय का बहुत अहित किया है। भगवान्‌ से किसी के पॉंव दबवानेखेत कटवाने तथा छप्पर बॅंधवाने वाली कल्पित कथाओं के लेखकों को ईश्वर सम्बन्धी कुछ भी ज्ञान नहीं था।

    "भक्त भगवान्‌ से अपने मनमाने कार्य करवा लेते है"इस मान्यता के समर्थन में जो कहानियॉं सुनायी जाती हैं उनमें से उदाहरणार्थ यहॉं एक कहानी का उल्लेख किया जा रहा है। किसी युवक की मृत्यु का दु:ख उसकी माता के लिये असहाय हो गया। वह तथाकथित एक "भगत" के पास जाकर बोली कि आप भगवान्‌ से कहकर मेरे पुत्र को जीवित करवा दीजिएआपकी बड़ी कृपा होगी। भक्त ध्यानावस्थित हो गया और फिर नेत्र खोलकर उस माता से बोला- "मैंने भगवान्‌ से पूछा तो उन्होंने मुझे बतलाया आपके पुत्र की आयु समाप्त हो चुकी हैइसलिये अब यह जीवित नहीं हो पायेगा।" जब "भगत" ने दुखी माता से यह सुना कि यदि भगवान्‌ आपकी इच्छा पूर्ण नहीं करेंगे तो भक्त और भक्ति पर किसी को विश्वास नहीं होगा । उसने पुन: नेत्र बन्द किये और भगवान से कहकर उस मृत युवक को जीवित करवा दिया। मध्ययुग से होती आ रही ऐसी मूर्खतापूर्ण कथाओं ने ईश्वर के न्याय-नियमों पर प्रश्न चिन्ह लगाया। यह ऐतिहासिक सत्य है।

    भक्तों के वश हुए प्रभु का करके दिखलाया उद्धार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    ईश्वर अपरिवर्तनीय और एकरस है- परमात्मा की सत्ता को स्वीकारने वाले वेद विरुद्ध मतों से सम्बन्धित अनेक महानुभाव यह मानते और कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों पर प्रसन्नदुष्टों पर कुपित और प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों से प्रभावित होता है। जबकि वैदिक मान्यतानुसार ईश्वर की अवस्था सदैव एक-सी रहती है। उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ करता। अर्थात्‌ पापियों को दण्ड और पुण्यात्माओं को सुख देते समय वह परिवर्तित नहीं होता। हम अपने कर्म-फल उसकी न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत भोगते रहते हैंउसके न्याय-नियम कभी नहीं बदलते।

    इसी प्रकार से चाहे कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुतिवह प्रभावित नहीं होता और सर्दी-गर्मीभूख-प्याससुख-दु:खहानि-लाभअनुकूलता आदि का प्रभाव जीवों की भॉंति ईश्वर पर नहीं होता। अर्थात्‌ हम देखते हैंजड़ से जड़जीव से जीवजड़ से जीव और जीव से जड़ पदार्थ प्रभावित होते हैं। जैसे अग्नि से जललकड़ीवस्त्रादिजल से अग्निमिट्‌टीवनस्पति आदिशेर से हिरनखरगोशमनुष्यादिमनुष्यों से अनेक प्राणीसर्दी-गर्मी-भूख-प्यास आदि से देहधारी आत्माएँ और प्राणी जगत्‌ से जलवायु वस्त्रादि प्रभावित होते हैं ईश्वर नहीं।

    कहा सभी को अटल एक रस अपरिवर्तित है करतार।
    याद रहेगा सदा महर्षि दयानन्द का यह उपकार ।।

    कृतज्ञता- इस लेख माला में वैदिक मान्यताओं पर आधारित वेद तथा ईश्वर सम्बन्धी यथार्थ बोध कराने वाले महर्षि दयानन्द के उपकारों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। ऋषियुग की समाप्ति के पश्चात्‌ आये आचार्ययुग और सन्तयुग ने अध्यात्म को बहुत उलझाया है। अर्थात्‌ श्री आचार्य बृहस्पतिश्री शंकराचार्यश्री रामानुजाचायर्यश्री माधवाचार्यश्री राधवाचार्यश्री बल्लभाचार्य आदि आचार्यों तथा कबीरदासतुलसीदाससूरदासरविदास आदि सन्तों ने वेद एवं ईश्वर विषयक परस्पर विरोधी विचार व्यक्त करके मानव समुदाय को विभिन्न भागों में विभक्त कर दिया।

    लगभग पॉंच हजार वर्षों की अवधि में इस भूमण्डल पर आचार्यगुरुसन्तमहन्त नामधारी तो अनेक हुए किन्तु किसी ने ऋषित्व प्राप्त नहीं किया। अर्थात्‌ आर्ष परम्परा के अनुकूल वेद का महत्व तथा ईश्वर का सत्यस्वरूप कोई भी नहीं जान पाया। इस दृष्टि से सम्पूर्ण मानव समुदाय महर्षि दयानन्द का सदैव ऋणि रहेगा। यदि महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव नहीं होता तो संसार सद्‌ज्ञान और सच्चे अध्यात्म को नहीं समझ पाता।कमलेश कुमार अग्निहोत्री

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  • माता को प्रथम गुरु क्यों कहा गया है

    मॉं को प्रथम गुरु कहा गया है। माता जहॉं जन्म देती है तथा शिशु को नौ महीने तक गर्भ में पालती है और साथ ही संस्कारित भी करती है। बालक नौ महीने तक गर्भ के अन्दर रहता है, तब जो शिक्षा चलती है वह संस्कारों की शिक्षा है। इसलिए माता प्रथम गुरु है। शिवाजी को उसकी मॉं जीजाबाई ने गर्भ में ही संस्कारों की शिक्षा दी थी। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। 

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    Ved Katha Pravachan _56 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    माता मन में ज्ञान के प्रकाश को डालती है। मन-बुद्धि के अन्दर ज्ञान भली प्रकार माता के द्वारा डाला जाता है। यह संस्कारों का पोषण है। माता पोषित एवं संस्कारित करती है और पिता पालन करता है तथा गुरु अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाला है। गुह्य ज्ञान का प्रकाशक जो है, उसका नाम है गुरु। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। बालक जब बड़ा हो जाता है तो संसार का ज्ञान कराती है मॉं। गुरु भी ज्ञान कराता है, लेकिन गर्भ के अन्दर जो ज्ञान होता है, वह आन्तरिक ज्ञान है, अन्तः शिक्षा है। यह अन्तः शिक्षा पूरे जीवन में काम करती है। बाह्य शिक्षा समय के साथ है, संस्कारों के साथ है। जो संंस्कार गर्भ में पड़ जाते हैं, वही जीवन भर चला करते हैं। इसलिए मॉं को श्रेष्ठ और प्रथम गुरु कहा गया है। 

    बल, बुद्धि और ज्ञान से सम्पन्न को वेद में शूरवीर कहा गया है। जो न स्वयं दीन होते हैं और न ही राष्ट्र को दीन बनने देते हैं, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली मॉं साधुवाद और प्रशंसा की पात्र है। क्योंकि ऐसे वीर पुत्र देवों को भी वश में कर लेते हैं। ऐसे पुत्रों को जन्म देने वाली मॉं और वह कुल जिसमें जन्म लिया है, दोनों ही कृतार्थ हो जाते हैं। - डॉ. विनोद शर्मा

    दुनिया में सबसे सुन्दर हाथ

    एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ अपने आरामदेय घर में बैठा था। वह अपनी मॉं से बोला- "मॉं! आपका चेहरा दुनिया में सबसे दयालु व सुन्दर है। दिल चाहता है कि मैं इसे हमेशा देखता रहूँ।'' 

    जैसे ही वह ये शब्द बोल रहा था, उसकी नजर अपनी मॉं के हाथों पर पड़ी। वे मुड़े हुए और बड़े कुरूप थे। वह बोल उठा- "मॉं! आपके हाथ दुनिया में सबसे कुरूप हाथ होंगे। मैं उनकी तरफ देख भी नहीं सकता।'' 

    इस पर पिता ने बेटे को अपनी गोद में बैठाया और कोमलता से बोला- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक समय की बात है कि एक नन्हा बच्चा अपने पालने में शान्तिपूर्वक सोया हुआ था कि पालने को आग लग गई।'' 

    लड़के ने पूछा- "बच्चे का क्या हुआ?'' "बच्चे की देखभाल के लिए जो आया रखी थी, वह डरकर भाग गई'', पिता ने बात जारी रखी, "लेकिन मॉं ने आग देख ली और बच्चे को बचाने दौड़ी। उसने देखा कि बच्चे के चारों ओर आग इतनी फैल चुकी थी कि बच्चे को घायल हुए बिना उठाना असम्भव था। उसने हाथों से ही आग बुझाई। उसके हाथ बुरी तरह जल गये। उन्हें ठीक होने में कई महीने लग गये। पर उन पर दाग फिर भी रह गये।'' 

    छोटा बच्चा चहक उठा- "कितनी बहादुर मॉं होगी!'' 

    पिता ने कहा- "जानते हो वह कौन थी? वह तुम्हारी मॉं थी। उसके कुरूप हाथों ने ही तुम्हें बचाया था।'' 

    यह सुन बच्चे की आँखों में आँसुओं की धारा फूट पड़ी। वह अपनी मॉं की तरफ मुड़ा और बार-बार उसके हाथ चूमने लगा। वह रोते हुए बोला- "मॉं, यह दुनिया के सबसे सुन्दर हाथ हैं।'' - प्रस्तुतिः वरुण

    शिष्य की निष्ठा

    एक सन्त घने जंगल से होकर अपने गन्तव्य के लिये निकले। यह देखकर उनका शिष्य भी उनके पीछे चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। नदी को पार करने के लिए कोई पुल न था। सन्त को नदी के पार पहुंचना जरूरी था। यह देख शिष्य दौड़कर गुरु जी से आगे आया और नदी के तेज जल में उतर गया। गुरु खड़े हुए यह दृश्य देखते रहे। शिष्य नदी को पार करने लगा। उसके गले तक जल आने लगा। अन्ततः उसने नदी को पार कर ही लिया। उसने गुरु जी से कहा- गुरुवर! अब आप भी धीरे-धीरे नदी पार कर लें। गुरु ने भी उसके आग्रह पर तेज जल प्रवाह में चलकर नदी को पार कर लिया। 

    सन्त ने शिष्य से कहा कि तू दौड़कर मुझसे आगे आया और नदी में उतर गया। अगर तू डूब जाता तो क्या होता? शिष्य ने गुरु के चरण पकड़कर कहा- "हे गुरुवर, अगर मैं डूब जाता तो कोई फर्क न पड़ता, किन्तु अगर आप डूब जाते तो देश की अत्यधिक हानि होती। आपको मेरे जैसे अनेक शिष्य मिल जायेंगे। किन्तु जन-मानस को आप जैसा गुरु कहॉं से मिलता?'' प्रस्तुतिः कु. भावना

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    Mother has been called the first Guru. The mother where she gives birth and raises the baby in the womb for nine months and also performs the rituals. The child stays inside the womb for nine months, then the education that goes on is the education of the sacraments. Therefore Mata is the first Guru. Shivaji was taught the rites by his mother Jijabai in the womb itself. Janmani Janmabhoomi Swargadpi Gariyasi. Janani and Janmabhoomi is also greater than heaven.

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  • मांस निषेध

    ओ3म्‌ यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्‌क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः।
    यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च।। (ऋ. 10.87.16)

    शब्दार्थ- (यः यातुधानाः) जो राक्षस, दुष्ट (पौरुषेयेण) पुरुष सम्बन्धी मांस से (सम्‌ अङ्‌क्ते) अपने शरीर को पुष्ट करते हैं (यः) जो क्रूर लोग (अश्व्येन) घोड़े के मांस से और (पशुना) पशु के मांस से अपना उदर भरते हैं (अपि) और भी (यः) जो (अघ्न्यायाः) अहिंसनीय गौ के (क्षीरम्‌) दूध को (भरति) हरण करते हैं (अग्ने) हे तेजस्वी राजन्‌! (तेषां) उन सब राक्षसों के (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने तेज से (वृश्च) काट डाल। 

    Ved Katha Pravachan _87 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    भावार्थ - मन्त्र में राजा के लिए आदेश है कि जो मनुष्यों का मांस खाते हैं, जो घोड़ों का मांस खाते हैं, जो अन्य पशुओं का मांस खाते हैं और जो बछड़ों को न पिलाकर गौ का सारा दूध स्वयं पी लेते हैं, हे राजन्‌! तू अपने तीव्र शस्त्रों से ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के सिरों को काट डाल। इस मन्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध है।

    "अघ्न्याया क्षीरं भरति' का यही अर्थ सम्यक्‌ है कि जो बछड़े को न पिलाकर सारा दूध स्वयं ले लेते हैं। इस मन्त्र से गोदुग्ध पीने वालों को मार दे ऐसा भाव लेना ठीक नहीं है। क्योंकि वेद में अन्यत्र कहा गया है "पयः पशूनाम्‌' (अथर्व. 19.31.5) हे मनुष्य! तुझे पशुओं का केवल दूध ही लेना है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    मद्य निषेध

    ओ3म्‌ हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्‌।
    ऊधर्न नग्ना जरन्ते ।। (ऋग्वेद 8.2.12)

    शब्दार्थ - (न) जिस प्रकार (दुर्मदासः) दुष्टमद से युक्त लोग (युध्यन्ते) परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार (हृत्सु) दिल खोलकर (सुरायाम्‌ पीतासः) सुरा, शराब पीने वाले लोग भी लड़ते और झगड़ते हैं तथा (नग्नाः) नङ्गों की भॉंति (ऊधः) रातभर (जरन्ते) बड़बड़ाया करते हैं।

    भावार्थ - मन्त्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में शराब पीने का निषेध किया गया है । मन्त्र में शराब की दो हानियॉं बताई गई हैं- 

    1. शराब पीने वाले परस्पर खूब लड़ते हैं ।
    2. शराब पीने वाले रातभर बड़बड़ाया करते हैं।

    मन्त्र में शराबी की उपमा दुर्मद से दी गई है। जो शराब पीते हैं वे दुष्टबुद्धि होते हैं। मद्यपान से बुद्धि का नाश होता है और "बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति' (गीता 2.63) बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य समाप्त हो जाता है। "शराब' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - शर+आब। इसका अर्थ होता है शरारत का पानी। शराब पीकर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता । वह शरारत करने लगता है, व्यर्थ बड़बड़ाने लगता है। 

    मद्य पेय पदार्थ नहीं है। शराब पीने की निन्दा करते हुए किसी कवि ने भी सुन्दर कहा है-

    गिलासों में जो डूबे फिर न उबरे जिन्दगानी में।
    हजारों बह गए इन बोतलों के बन्द पानी में।। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Charity - In the mantra, there is a command for the king that those who eat the flesh of humans, who eat the flesh of horses, who eat the flesh of other animals, and who drink all the milk of the cow themselves without feeding the calves, O king! You cut off the heads of such evil persons with your sharp arms. According to this mantra, eating meat of any kind is strictly prohibited.

     

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