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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • मुक्ति से पुनरावृत्ति

    ओ3म्‌ कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    को नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।।

    ओ3म्‌ अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
    स नो मह्या अदितये पुनर्दात्‌ पितरं च दृशेयं मातरं च।। (ऋग्वेद 1.24.1-2)

    शब्दार्थ- (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (कतमस्य कस्य देवस्य) कौन-से तथा किस गुण वाले देव का (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम हम स्मरण करें। (कः नः) कौन हमें (मह्या अदितये पुनः दात्‌) महती, अखण्ड-सम्पत्ति-मुक्ति के लिए पुनः देता है (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) और फिर किसकी प्रेरणा से माता-पिता के दर्शन करता हूँ। (वयम्‌) हम (अमृतानाम्‌) नित्य पदार्थों में (प्रथमस्य अग्नेः देवस्य) सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप, परमात्मदेव के (चारु नाम मनामहे) सुन्दर नाम का स्मरण करें। (सः नः) वही परमात्मा हमें (मह्या अदितये) महती मुक्ति के लिए (पुनः दात्‌) फिर देता है और उसी से प्रेरणा पाकर (पितरं च मातरं च दृशेयम्‌) मैं माता और पिता के दर्शन करता हूँ। 

    Ved Katha Pravachan _86 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भावार्थ- मनुष्यों को सर्वप्रमुख, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ही जप, ध्यान एवं स्मरण करना चाहिए। वह प्रभु ही जीव को मुक्ति में पहुँचाता है। वही परमात्मा मुक्त जीव को मुक्ति-सुख-भोग के पश्चात्‌ माता-पिता के दर्शन करता है, उसे जन्म धारण कराता है। जन्म धारण करना, मुक्ति प्राप्त करना, पुनः जन्म धारण करना यह एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है और चलना भी चाहिए। यदि जीव परमात्मा में विलीन हो जाए, तो वह मुक्ति क्या हुई? - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    त्रैतवाद

    ओ3म्‌  द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
    तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। (ऋग्वेद 1.164.20)

    शब्दार्थ- (द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखों वाले पक्षी, पक्षी की भॉंति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक-दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्‌) एक ही वृक्ष=प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्‌) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है। 

    भावार्थ- मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान्‌ और चेतन हैं। दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है। 

    मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Trivialism is beautifully rendered in the chant. Three substances in the world are eternal - divine, living soul and nature. All three are instructed in the mantra. Both the soul and the divine are knowledgeable and conscious. Both are located on the tree of the world. The individual is little known. Due to his superficiality, he considers the fruits of the world to be tasty and gets enamored in them. God is omniscient. He has no desire for enjoyment, not even need. He remains a witness to the individual soul.

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  • युवा-मञ्च

    राष्ट्र निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका

    हमारा देश अभी भी अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन एवं सामाजिक अन्याय से पीड़ित है। विश्व शान्ति एवं सांस्कृतिक सद्‌भाव का प्रेरक देश आज आतंकवाद एवं उग्रवाद के विस्फोटों से ग्रस्त है। जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा हमारे देश के लिए खतरा बनी हुई है। समूचा राष्ट्र भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। पूरा समाज आज नेतृत्व-विहीन है। राजनीति भ्रष्टाचार एवं अपराध का पर्याय बन गयी है। लोकतन्त्र की व्यवस्था उपहास मात्र बनती जा रही है। राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक अंधेरी गली में खो गया है। राष्ट्रव्यापी असंतोष, अव्यवस्था आज देश की बुरी स्थिति को प्रकट कर रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझने की सामर्थ्य किसमें है? उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने का साहस कौन कर सकता है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर में हम युवा शक्ति का आह्वान करते हैं। सभी इस बारे में एकमत हैं कि युवाओं में प्रचण्ड ऊर्जा है, भले ही आज वह दिशाहीन होकर बिखर रही है। हमें इस युवाशक्ति को उचित दिशा की ओर प्रेरित करना चाहिए, जिससे हमारे राष्ट्र का निर्माण सफलतापूर्वक हो सके और हमारा भारत प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सके।

    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अपनी मनोभावनाओें को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है। संसार एक लम्बा-चौड़ा बिल्लौरी कॉंच का चमकदार दर्पण हैइसमें अपना चेहरा हुबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा हैउसके लिए सृष्टि में वैसे ही तत्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरसता रहता है। आशावादी व्यक्ति कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले कार्यों में जहॉं सफलता प्राप्त कर लेता हैवहीं निराशावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति साधारण-सी समस्या और कठिनाइयों को भी पार नहीं कर पाता है।

    सदैव राष्ट्रीय गौरव की सुरक्षा के लिए युवाओं ने ही अपने कदम बढाये हैं। संकट चाहे सीमाओं पर हो अथवा सामाजिक एवं राजनैतिकइसके निवारण के लिए अपने देश के युवक-युवतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आवश्यकता यही है कि अपने हृदय में समाज की कसक उत्पन्न करें और अपनी बिखरी शक्तियों को एकत्रित करके समाज की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में लगायें। देश की प्रगति ही अपनी प्रगति और उन्नति है। इस श्रेष्ठ विचार के आधार पर ही युवाशक्ति राष्ट्रशक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धिउन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है।

    किसी देश का विकास भीड के सहारे नहींबल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। आज बड़े दुःख की बात है कि अधिक धन एवं सुख-सुविधा के लोभ में देश की युवा प्रतिभाएँ विदेशों में अपना रैन-बसेरा बनाने के लिए आतुर हैं। किसी भी देश के नवनिर्माण में ज्ञान एवं युवाशक्ति का योगदान सदा ही रहा है। परन्तु किसी भी काल में यह इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा होगाजितना कि आज के इस वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के युग में है। इन क्षणों में प्रत्येक युवा को जो महान्‌ पाठ सीखना हैवह है परिश्रमत्याग और प्रत्येक व्यक्ति को सबके हित में कार्य करने का पाठ।

    सबके जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता समान रूप में नहीं आतीकिसी के जीवन में कम और किसी के जीवन में ज्यादा। परन्तु इन परिस्थितियों का सर्वथा अपवाद कोई नहीं हो सकता यह एक सच्चाई हैजिसे हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसीलिए इन परिस्थितियों से घबराना कायरता है। हमें इन प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाये रखता हैवह बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए हमें शरीर को आरंभ से ही प्रतिकूलताओं को सहन करने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।     

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की भॉंति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र होता हैउसके जीवन का प्रधान स्तर हैजिसके साथ अन्य सब स्वर मिलकर समरसता उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करेउससे विमुख हो जाने का प्रयत्न करे और यदि वह अपने इस कार्य में सफल हो जायतो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतः अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र धर्म नैतिकता-सदाचार को ही बनाना होगा। युवाओं में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। संसार को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से भरने से पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। पहले यही धर्म-प्रचार आवश्यक है। धर्म-प्रचार करने के बाद उसके साथ ही साथ लौकिक विद्या और अन्यान्य आवश्यक विद्याएँ अपने आप ही आ जायेंगी। मनुष्य केवल मनुष्य भर ही होना चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता हैजिससे हम मनुष्य बन सकें। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन हृदयवान्‌ उत्साही युवकों के भीतर से ही सैकड़ों वीर उठेंगेजो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे। आज युवकों के सामने यही महान्‌ कर्त्तव्य है। अतएव एक बार फिर हमारे देश के युवकों के "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' का अनुसरण करना चाहिए। - गौरीशंकर शर्मा(नवोत्थान लेखासेवा हिन्दुस्थान समाचार)

     

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    Man imposes his feelings on those in front of him and considers them as he himself is. The world is a luminous mirror of a long, wide bellow conch, in which its face is seen accurately. For a person who is like him, similar elements come out in the creation. Satyuga souls live in every age and they always have the golden age. Where an optimistic person achieves success in difficult and seemingly impossible tasks, a person with pessimistic attitude is not able to overcome even the simple problems and difficulties.

     

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  • राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का आन्दोलन

    जनवरी सन्‌ 1873 को महर्षि दयानन्द सरस्वती ब्रिटिशों की राजधानी में पहुँचने से पूर्व ही विभिन्न स्थानों पर वैदिक धर्म के सिद्धान्तों और भावनाओं का प्रचार करते हुए कलकत्ता पहुंचे।

    अंग्रेजी राज्य महर्षि दयानन्द की लोकप्रियता और उनकी प्रसिद्धि से भली प्रकार परिचित हो चुका था। साथ ही उन्हें इस बात का भी पता हो चुका था कि महर्षि जहॉं कहीं भी पहुँचते हैं उन पर आस्था रखने वाले सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उपस्थित होकर उनके विचारों से लाभान्वित होते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर
    Ved Katha Pravachan -4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जब कलकत्ता पहुँचे तो तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड नार्थब्रुक ने उनसे भेंट करने की अपनी आकांक्षा प्रकट की। श्री स्वामी जी ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत कर लिया। निश्चित तारीख पर वायसराय महोदय संस्कृत और अंग्रेजी के विशिष्ट अनुवादकर्त्ता के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे।

    औपचारिक शिष्टाचार और कुशल क्षेम के उपरान्त वायसराय बहादुर ने कहा कि- "मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अन्य सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके विश्वास की कड़ी आलोचना करते हैं। इससे उनको मानसिक कष्ट होता है। इसके कारण वे आपके शत्रु भी हो सकते हैं। यदि आप आज्ञा करें तो आपकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाए।" इस पर महर्षि ने कहा कि "अंग्रेजी राज्य में मुझे कोई कष्ट और पीड़ा नहीं। मुझको अपने विचारों की अभिव्यक्ति में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ। प्रत्येक सम्प्रदाय में व्याप्त बुराई को हटाना मेरा कर्त्तव्य है।"

    लार्ड नार्थ ब्रुक ने श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से कहा कि "हमारे राज्य में आपको यदि कोई कष्ट नहीं है तो इस राज्य के भारत में बने रहने के लिए ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करें तो उचित होगा।" लार्ड महोदय की इस बात को सुनकर श्री स्वामी जी ने दर्शाया कि आपकी इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। कारण कि मेरा यह विश्वास है कि मेरे देश की जनता को संसार के अन्य देशों में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए शीघ्र स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेना आवश्यक है। मैं प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जिस प्रकार भी हो सके शीघ्र विदेशी राज्य की दासता से मेरा देश मुक्त हो जाए। स्वामी जी के इन विचारों को सुनकर वायसराय महोदय का मुख कान्तिहीन हो गया और विद्रोही संन्यासी की इस विद्रोहात्मक भावना को स्पष्ट शब्दों में सुन कर वायसराय महोदय ने गुप्त रूप से ब्रिटिश राज्य को सूचना दी कि "आर्यसमाज का आन्दोलन" जिस विद्रोही संन्यासी ने आरम्भ किया है इससे राज्य को खतरा है और इस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी भी आवश्यक है। भविष्य में यह आन्दोलन राज्य को क्षति पहुँचा सकता है।

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    महर्षि दयानन्द का विचार था कि साम्राज्यवादी सरकार को जहॉं समाप्त करना आवश्यक हैउससे कहीं अधिक आवश्यकता है कि राष्ट्रीयता की भावना का देशवासियों में प्रचार किया जाये। स्वामी जी ने अपनी विश्वविख्यात क्रान्तिकारी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि "देश में अखण्डस्वतन्त्रनिर्भय चक्रवर्ती राज्य की स्थापना हो।" फिरंगी राज्य स्थापित हो जाने के बाद स्वामी दयानन्द ही ऐसे क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं कि जिन्होंने देशवासियों के हृदय में स्वाधीनता और देश प्रेम की ज्योति जागृत की थी।

    कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और उसे सुद्दढ बनाने की दृष्टि से जिस गौरव के साथ "लार्ड क्लाइव" का नाम लिया जाता है उसी प्रकार देश की जनता में देश प्रेम और स्वराज्य की स्थापना की स्वाभाविक भावना को जागृत करके देश भर के बुद्धिवादी वर्ग को सचेत करने का यश स्वामी दयानन्द सरस्वती  को ही है। आप ने जो जनता के हृदय में स्वतन्त्रता की अग्नि प्रदीप्त की थीउसी का ही परिणाम था कि आगे चलकर दीर्घकाल के बाद महात्मा गांधी और स्वतन्त्रता के पुजारियों के महान्‌ बलिदानों और प्रयत्नों से सन्‌ 1947 में अंग्रेजी राज्य का सूर्य जो पश्चिम से उदय हुआ था भारत भूमि के पश्चिम में सदैव के लिए अस्त हो गया।

    महर्षि इस बात को भली प्रकार से जानते थे कि अपने देश में स्वराज्य और विदेशी राज्य के होने का क्या उद्देश्य हैस्वामी जी का उद्देश्य कोरा कर्मकाण्डी सम्प्रदाय-स्थापित करना नहीं था। वह राज्य धर्म के सच्चे संस्थापक थे। देश और आर्यावर्त्त की सभ्यता व संस्कृति से आपको कितना प्रेम थाइसका एक उदाहरण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है।

    घटना इस प्रकार है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी ने महर्षि से कहा कि "भारत में हमारे राज्य के होने से आपको प्रसन्न होना चाहिए। कारण कि इस देश को उन्नति के मार्ग पर हमने लगाया है। यदि हम यहॉं न आते तो शायद ही हिन्दुस्थान खुशहाल हो पाता।" इस पर महर्षि ने कहा था कि "यह आपकी धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। आप जिसको उन्नति और प्रगति मानते हैं वह धोखा और भ्रम है। अन्यों को दास बनाए रखने वाले धर्मभ्रष्ट लोगों ने क्या कभी किसी देशजाति और राष्ट्र का हित किया हैमुझे नहीं जान पड़ता।"

    महर्षि की इस यथार्थ बात को सुनकर अंग्रेज अधिकारी के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और कांपते होठों से कहा कि "धर्मभ्रष्ट से आपका क्या अभिप्राय है?" स्वामी जी ने उच्च स्वर में निर्भीकता से उत्तर दिया कि "अपने पास जो कुछ है उसको ही सब कुछ समझना और उसी पर निर्भर रहनादूसरों के देश पर छल-बल से अधिकार कर अपना लाभ उठाएवह धर्मभ्रष्ट है। इन बातों से जो मुक्त रहता हैवह धर्मात्मा है।"

    महर्षि न केवल धार्मिक-सामाजिक सुधारक और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पोषक व प्रचारक थेअपितु  वह राष्ट्रीयता के भी अग्रदूत थे। यदि महर्षि ने इन राष्ट्रीय विचारों को भारतीय जनता में जागृत न किया होता तो स्वतन्त्रता का प्राप्त कर लेना इतना सरल और सुगम न था।

    महर्षि के द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने न केवल भारत में ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया और जनता को तैयार कियाअपितु दास बनाकर विदेशों को ले जाए जाने वाले भारतीयों के मन में भी स्वाभिमान व जागृति के भाव उत्पन्न किए। इसके परिणामस्वरूप ही अन्य देशों में बसने वाले भारतीयों ने शानदार ढंग से वहॉं के स्वाधीनता आन्दोलनों में अपना योग प्रदान किया। यह विश्वव्यापी सफलता आर्य समाज के आन्दोलन की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

    आज की परिस्थिति में आर्यसमाजियों को आस्था के साथ संकल्प करना होगा कि समाज के भीतर प्रविष्ट सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाकर समाज को दृढ और युवकों को वैचारिक और चरित्र की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाकर प्राप्त स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। - स्वामी सोमानन्द सरस्वती

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    When Shri Swami Dayanand Saraswati reached Calcutta, the then Viceroy of India Lord Northbrook expressed his desire to meet him. Shri Swami Ji accepted his prayer. On a certain date, the Viceroy reached Swamiji with a special translator of Sanskrit and English.

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  • रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    नीम्बू से रोग निवारण के घरेलू नुस्खे

    1. एक चम्मच नीम्बू का रस, एक चम्मच पिसी हुई अजवायन आधा कप गर्म पानी में डालकर सुबह-शाम पीना चाहिए।
    2. एक गिलास पानी में नीम्बू निचोड़कर चौथाई चम्मच सोड़ा मिलाकर नित्य पीयें।
    3. आधा गिलास गरम पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर जरा सी पीसी हुई काली मिर्च की फंकी सुबह-शाम लें।

    Ved katha _15 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    4. एक चम्मच सौंठ तथा साबुत अजवायन 50 ग्राम नीम्बू के रस में भिगोकर छाया में सुखायें। भोजन के बाद इसकी एक चम्मच चबायें।
    5. नीम्बू काटकर इसकी फांकों में नमक तथा काली मिर्च भरकर गर्म करके चूसने से लाभ होता है। उपरोक्त सभी उपायों से वायु विकार में लाभ होता है।
    6. एक गिलास गर्म पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर 4 बार नित्य कुल्ले करने या नित्य नीम्बू-पानी में स्वाद के लिये चीनी या नमक डालकर प्रातः भूखे पेट पीने व रात को सोते समय एक गिलास गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से दो-तीन महीने तक प्रयोग से छालों में लाभ होता है।
    7. नीम्बू के पेड़ से हरी पत्तियॉं तोड़कर चबाकर रस चूसने, तेज गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर घूंट-घूंट पानी पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    8. नीम्बू, सौंठ, काली मिर्च, अदरक सब थोड़ी मात्रा में लेकर चटनी बनाकर चाटने, नीम्बू में नमक भरकर 4 बार चूसने, काला नमक तथा शहद और नीम्बू का रस मिलाकर चाटने से हिचकी बन्द हो जाती है।
    9. खट्टी डकार आने की स्थिति में गर्म पानी में नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
    10. 50 ग्राम पुदीने की चटनी पतले कपड़े में डालकर, निचोड़कर रस निकालकर आधा नीम्बू निचोड़ें।
    11. 2 चम्मच शहद और 2 चम्मच पानी मिलाकर पीने से पेट का दर्द जल्द बन्द हो जाता है।
    12. आधा कप पानी, 10 पिसी हुई काली मिर्च, एक चम्मच अदरक का रस, आधे नीम्बू का रस सब मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है। स्वाद के लिये चीनी या शहद मिला सकते हैं।
    13. एक नीम्बू, काला नमक, काली मिर्च, चौथाई चम्मच सौंठ, आधा गिलास पानी में मिलाकर पीने से पेट दर्द ठीक होता है।
    14. अजवायन तथा सेंधा नमक को नीम्बू के रस में भिगोकर सुखा लें। पेट दर्द होने पर एक चम्मच चबाकर पानी पीएं। इस प्रकार जब तक दर्द रहे, हरेक घण्टे में सेवन करें और पेट पर सेक करें।

    शुद्ध शहद की पहचान कैसे करें

    1. शहद में अपनी साफ उंगली लगाकर नेत्रों में लगावें। यदि नेत्रों को लगता है, आंसू निकलते हैं तो शहद शुद्ध है।
    2. कुत्ते के आगे शहद में रोटी भिगोकर दें। यदि कुत्ता दूर से ही रोटी सूंघकर हट जाये तो शहद असली है।
    3. शहद में रूई की बत्ती भिगोकर जलावें। यदि घी की तरह जलने लगे तो शहद असली है।
    4. शहद को कागज पर रखें। कागज न गले तो शहद शुद्ध है।
    5. पान की दुकान से तरल चूना लेकर हथेली पर रखें। थोड़ी सी शहद की बून्द लेकर हल्के चूना में मिलावें हथेली जलने लगेगी ।
    6. कपड़े पर शहद की बून्द डाल दें तथा कपड़े को हल्का सा झाड़ दें। बून्द कपड़े से अलग गिर जायेगी, निशान नहीं बनेगा । इसके विपरीत परिणाम मिले तो भूलकर भी ऐसा शहद न खरीदें।एकता ओझा

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    सौंफ से पाचन-शक्ति बढ़ती है

    बहुत से लोग भोजन के बाद कभी-कभी सौंफ खाना पसन्द करते हैं। जो लोग कभी भी सौंफ नहीं खाते, वे भी होटल में भोजन करने के बाद पेमेण्ट काउण्टर पर रखी सौंफ को मुंह में डाल लिया करते हैं। रसोईघर में भी सौंफ का बहुत बोलबाला होता है। कुछ विशिष्ट सब्जियों को स्वादिष्ट और खुशबूदार बनाना सौंफ का महत्वपूर्ण गुण है। वैसे ज्यादातर लोग सौंफ को भोजन करने के बाद खाते हैं। स्वागत-सत्कार में भी सौंफ-सुपारी का प्रचलन है। सौंफ के कुछ प्रमुख गुण ये हैं -

    1. इसके खाने से पाचनशक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है।
    2. सौंफ और धनिया को समान मात्रा में पीसकर डेढ़ गुना शुद्ध घी में मिला लें। इसमें स्वाद हेतु शक्कर भी मिला लें। इस मिश्रण का कुछ दिनों तक सुबह-शाम सेवन करें। इसके सेवन से शरीर के किसी भी भाग में होने वाली खुजली जड़ से मिट जाती है।
    3. कच्ची एवं भुनी हुई सौंफ खाने से दस्तों में तुरन्त फायदा होता है।
    4. नीम्बू के रस में पिसी हुई सौंफ का प्रयोग करने से भूख भी खुलकर लगती है एवं कब्ज की शिकायत भी मिटती है।
    5. निःसन्तान महिलाओं को नियमित रूप से दो- तीन माह तक सौंफ के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें सौंफ के एक चम्मच चूर्ण के साथ गाय का शुद्ध घी एक चम्मच मिलाकर सुबह-शाम लेना अत्यन्त गुणकारी है। इसके प्रयोग से पेट के विकार समाप्त होते हैं तथा गर्भ स्थापन की स्थिति बनती है।
    6. वायुगोला का दर्द पेट में होने पर सौंफ को चिलम में भरकर पीने से कुछ ही मिनटों में दर्द उड़न-छू हो जाता है । इसे तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीते हैं।
    7. जो महिलायें गर्भावस्था में नारियल और सौंफ का प्रयोग करती हैं, उनकी सन्तान गौर वर्ण होती है।
    8. पाचन सम्बन्धित जो भी चूर्ण तैयार होते हैं। लगभग सभी चूर्णों में सौंफ जरूर डाली जाती है डॉ. ऋषिमोहन श्रीवास्तव

    पुदीना के प्रयोग

    1. गर्मी के कारण उत्पन्न फुंसियों पर पुदीने का रस बहुत राहत देता है।
    2. ताजा हरा पुदीना पीसकर चेहरे पर बीस मिनट तक लगा लें। फिर ठण्डे पानी से चेहरा धो लें। इससे आपको गर्मी से राहत मिल जाएगी और आप तरोताजा महसूस करेंगे।
    3. पुदीने के पत्तों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर तीन बार चाटने से अतिसार (दस्त) से राहत मिलती है।
    4. गर्मी के समय प्रतिदिन भोजन के साथ पुदीने की चटनी अवश्य खाएं।
    5. गन्ने के रस में पुदीने का थोड़ा सा रस भी मिलाकर लिया जा सकता है।

     

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    Grind equal quantity of fennel and coriander and mix it in one and a half times pure ghee. Add sugar to taste as well. Drink this mixture twice a day for a few days. Due to its use, itching in any part of the body disappears from the root.

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  • विचार शक्ति का महत्व

    विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।  इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान्‌ शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए-
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    दुःख निवारण के उपाय

    Ved Katha Pravachan _67 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य हैपरन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत्‌ की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलितमहान्‌ अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैंजो केवल सत्संगउपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैंतो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैंतो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता हैवह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

    इन विचारों का उद्‌गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता हैपुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता हैफिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक "राजयोगमें एक स्थान पर लिखा है, "मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता हैकोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात्‌ घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

    मनुष्य बूढ़ा क्यों होता हैविशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता हैवैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक"Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्‌ढ़े का चित्र है। बाल सफेदगले में झुर्रियॉंमाथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में हैजिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

    उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्चित हैपरन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्चात्‌ जब वह फ्रांस लौटातब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थीजैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, "मैंने निश्चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सकातो उसने दूसरा निश्चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।'' इस निश्चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

    इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारोें के द्वारा हम सदैव अपने विचारोें के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत्‌ में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानेंउसकी इच्छा करें अथवा न करेंपरन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता  है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है'Like attracts live'' अर्थात्‌ जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी कोजुआरी जुआरी कोचोर चोर कोगायक गायक कोसत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैंजहॉं से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्वास और नाड़ी सदैव चलती रहती हैपरन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देतेठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता हैपरन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं। 

    विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगे और विचार जितने ही प्रबल होंगेकर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देनाऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता हैउसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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    This whole world is the result of thought (sankalpa) power. Due to this nature being inertial, the speed itself is zero, but as soon as the idea of ​​worldliness comes in the divine, motion arises in the nature and according to the natural law, respectively, the world is born. This unique work, so incomparable, is done only on the strength of thought (sankalpa). This is why this power of thought is so widespread. Man becomes like what he thinks.

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  • वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

    वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।

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    ऐसे गम्भीर और जटिल विषय का फल क्या है? महामुनि पतंजलि के शब्दों में वेद का एक शब्द भी, यदि उसको अच्छी तरह समझकर जीवन में ढाल लिया जाए तो लोक और परलोक की सिद्धि करने हारा है। बिना अर्थज्ञान के वेदार्थं को हृदयंगम किए बिना वेद को पढना व्यर्थ में भार ढोने के समान है। वेदार्थ को जानने हारा सकल कल्याण को प्राप्त करता है। वेदमन्त्र नारियल के समान बाहर दुर्गम एवं कठोर है, परन्तु भीतर उनमें जीवन रस भरा हुआ है। उसको फाड़कर ही, वेदमन्त्रों को समझकर ही वह रस चखा जा सकता है। वह रस चखा कैसे जाए? मन्त्रों का मनन करने से, केवल पढने से नहीं, काम-क्रोध-राग-द्वेष से रहित होकर मनन-चिन्तन करने से।

    इस प्रकार का है यह वेद का जगत्‌ जो आश्चर्यजनक भी है, सूक्ष्म और गम्भीर भी है। सर्वजनहिताय है, सर्वभूत मैत्रीप्रतिपादनीय है। विश्व के समस्त अमृतपुत्रों, अमर मानवों के लिए है। समस्त पृथिवी इसका क्षेत्र है। वेदान्तदर्शन के शब्दों में जगत्‌ और ब्रह्मा के बीच समन्वय-स्थापक है, जो कुछ जगत ये है उसका वर्णन वेद में है। प्राचीन काल से लेकर आज तक वेद को समझने का प्रयास होता रहा है। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वान्‌ (Indologists or Sanskritists of the East and the West) वेद को समझने का यत्न करते रहे हैं। परन्तु वेद अब भी रहस्य बने हुए हैं।

    इन्हीं वेदों के लिए यतिवर दयानन्द ने अपना जीवन लगाया तथा उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ने विगत 140 वर्षों में इसके प्रचार और प्रसार का यत्न किया। एक वाक्य में आर्यसमाज के पिछले एक सौ चालीस वर्षों की कहानी वेदों के प्रचार की कहानी है। इसमें उसे कितनी सफलता मिली, यह निर्णय करना सुविज्ञ पाठकों पर है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पुनर्जागरण (Revival) में अनेक महान्‌ आत्माओं ने अपना योगदान दिया है। परन्तु इसके मूल उत्स या प्रेरणास्रोत वेद की ओर हमारा ध्यान किसने खींचा, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें। दयानन्द इसलिए महान्‌ नहीं कि वे आर्यसमाज के संस्थापक थे, अपितु इसलिए कि उन्होंने वेद का उद्धार किया तथा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किया। जैसे कभी मण्डनमिश्र के द्वार पर शुकसारिकाओं में वेद के स्वत: प्रमाण अथवा परत: प्रमाण होने के बारे में चर्चा होती थी, वैसे ही विगत 140 वर्षों में आर्य समाज के मंच से विभिन्न रूपों में वेदों की चर्चा रही है और आज इसी का परिणाम है कि "आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया" में विन्सैण्ट स्मिथ ने आर्यसमाज के वेद-विषयक मत का उचित उल्लेख किया है। अन्य किसी संस्था या सम्प्रदाय को यह श्रेय नहीं मिला। महर्षि दयानन्द ने वेद में ही मानव की सब समस्याओं का समाधान ढूंढा तथा वेद में ही सब ज्ञान-विज्ञान को बताया। बर्तानिया ज्ञान का विश्वकोष इस बात को स्वीकार करता है-

    वेद के बारे में दयानन्द और उनके आर्यसमाज ने एक शताब्दी पूर्व जो स्थापनाए रखी थीं, वे आज विद्वद्‌जगत्‌ को मान्य हो चली हैं तथा इतिहासकार, वेदविद्‌ तथा संस्कृतज्ञ उनके मत को उचित स्थान देने लगे हैं। प्रश्न केवल निष्पक्ष होकर विचार करने का है। आर्यसमाज मानो रथ है और दयानन्द उस रथ के सारथि हैं और वेद मानो उनका सुदर्शन चक्र था, जिसके द्वारा उन्होंने अज्ञान अविद्या तथा अवैदिक विचारों की कौरव सेना का विध्वंस किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में दयानन्द ने सनातन वैदिक संस्कृति के सिद्धान्तों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।

    वेद आर्य अथवा भारतीय संस्कृति के उद्‌गम-स्रोत हैं। भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशितHistory and Culture of Indian people प्रथम खण्ड की भूमिका में डा. मजुमदार इसको स्वीकार करते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, ऋषियों ने तप एवं समाधि के द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्‌ किया, दयानन्द की यह अगली स्थापना थी। डा. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इस मत को स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि वेद में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों का धर्म एवं तपश्चर्या द्वारा पुन: साक्षात्‌ या प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

    आर्य लोग बाहर से नहीं आए, दयानन्द की इस मान्यता को कई विद्वान्‌ स्वीकार करने लगे हैं। डा. के. एम. मुन्शी इस मत को मानते हैं तथा स्वतन्त्र लेख को भी इस विषय मेंHistory and Culture of Indian people में स्थान दिया गया है।

    वेद के विषय में दयानन्द की स्थापनाओं के सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से अधिक कुछ न कहकर हिन्दी विश्वकोष को उदधृत करूंगा, जिसे नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया है, इसका समस्त व्यय भारत सरकार ने वहन किया है। यह भी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका की तरह हिन्दी में ज्ञान का विश्वकोष (Encyclopedia Hindi) है। इस विश्वकोष के खण्ड 11 में वेद के विषय में दामोदर सातवलेकर को प्रमाणित मानकर अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इससे बढकर दयानन्द की स्थापनाओं की दिग्विजय और क्या हो सकती है? आर्यसमाज के लिए यह गौरव का विषय है कि अन्तत: सुधी विद्वानों ने निष्पक्षभाव से उसकी मान्यताओं का आदर किया है। सातवलेकर के बारे में पाठकों को विदित रहे कि उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित पद्धति का अनुसरण किया है। दयानन्द से पहले आधुनिक समय में किसी ने वेद की ओर हमारा ध्यान नहीं खींचा। सातवलेकर के शब्दों में जो राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ सन्देश देता है वह ऋषि कहलाता है। स्वामी दयानन्द सचमुच ऋषि थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं के पतन का सच्चा कारण देखा और उन्नति का सच्चा मार्ग भी देखा। यह सत्य दृष्टि ही ऋषि की दृष्टि है। उनके समय में बहुत से नेता थे, वे नेतागण हिन्दुओं के उद्धार का मार्ग भी सोचते थे परन्तु किसी ने वेद का मार्ग देखा नहीं। उस समय शास्त्री पण्डित भी थे, परन्तु वे बेचारे वेद को जान भी नहीं सकते थे, फिर वेद के धर्म से मानवों का त्राण होने की बात जानना और वैसा उपदेश करना तो दूर की बात है। केवल अकेले ऋषि दयानन्द जी के पास ही यह ऋषित्व आता है। इन्होंने ही यह सच्ची रीति से जाना और कहा कि वेदों को पढो और वेदोपदेश को आचरण में लाओ।

    विश्वकोष में लिखा है कि यज्ञ में पशुवध नहीं होता, क्योंकि वेद में वध करने का कोई मन्त्र नहीं है-

    ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनं हिंसी:। हे औषधि, इसका संरक्षण कर। हे शस्त्र, इसकी हिंसा न कर। मन्त्र का स्पष्ट भाव पशु का संरक्षण करना ही है। गोमेध में गाय का वध उचित नहीं, क्योंकि वेदों में गौ को अघ्न्या (अवध्या) कहा है। अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक धान्य का नाम है। कोश में अज के अर्थ अजश्रृंगि-औषधि-प्रेरक-नेता-सूर्य किरण-चन्द्रमा-प्रकृति-माया आदि हैं। राष्ट्र सेवा ही अश्वमेध यज्ञ है- राष्ट्र वा अश्वमेध:। (शतपथ ब्राह्मण)

    वैदिक यज्ञों के बारे में यह स्थापना किसने की थी? पाठक स्वयं अनुमान करें।

    अथर्ववेद-अथर्ववेद का अर्थ गतिरहितता अर्थात्‌ शान्ति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शान्ति स्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

    अथर्वेति गतिकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात:। (निरुक्त)

    इससे पहले तो अथर्ववेद जादू टोने चमत्कार का ही पिटारा बन गया था। दयानन्द ने उसे वेदत्व का दर्जा दिलवाया, अन्यथा उसके वेद होने को ही नकारा जाने लगा था।

    ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बतलाते हैं। ऋग्वेद (10.111.2) का उपदेश है- संगच्छध्वं संवदध्वं। हम मिलकर चलें, मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों। यजुर्वेद (40.1) कहता है कि यह सारा संसार ईश की सत्ता से व्याप्त है, त्याग भाव से इसका उपभोग करो।

    दयानन्द की अगली स्थापना थी कि वेद में इतिहास नहीं। सातवलेकर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि वेद में इतिहास-पुराण की कल्पना पृथक्‌ है। भारत के ऋषि-मुनि मानवीय शरीरों की हलचल को इतिहास नहीं मानते। शरीर की हलचल मानसिक विचारों से होती है। वेद में दशरथ, दु:शासन गुणबोधक नाम है। अयोध्या नगरी शरीर को कहा है, जिसमें आठ चक्र और नवद्वार हैं। ये मानवीय भावों और विचारों का शाश्वत और सनातन इतिहास है।

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    दयानन्द का उद्देश्य कोई नवीन सम्प्रदाय अथवा मत-मतान्तर चलाने का नहीं था। उन्होंने उसी प्राचीन वेदमार्ग का पुनरुद्धार (Revival) किया जिसको ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त मानते आए हैं। वेद परम प्रमाण हैं। वेद विरुद्ध जितनी भी स्मृतियॉं या ग्रन्थ हैं वे निरर्थंक हैं तथा वेद को पढना ही सबसे बड़ा तप या धर्म है। ऋषि दयानन्द ने मनु की इन धारणाओं को अक्षरश: सत्य चरितार्थ कर दिखाया। इसी कारण उन्होंने मतमतान्तरों की आलोचना की, किसी की हानि या द्वेष के भाव से नहीं।

    वर्तमान समय में जब हम एक शताब्दी बाद यतिवर दयानन्द के विचारों का मूल्यांकन (Estimate) करते हैं, तो वेद एवं वैदिक अथवा आर्य संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति के बारे में उनकी मौलिक स्थापनाएं मान्य एवं सत्य हो चली हैं। परन्तु मतमतान्तरों या विभिन्न धर्मों के बारे में उनके विचारों में संशोधन की आवश्यकता है तथा इसी प्रकार का दृष्टिकोण त्याज्य अथवा अपाठ्‌य ग्रन्थों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। विचारों की समय-समय पर पुनर्व्याख्या (Review) पुनरालोचना होती रहने से ही विचार वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत बने रहते हैं, अन्यथा वे रूढिग्रस्त (Traditional, old) पुराने तथा असंगत हो जाते हैं। पुनरालोचन से सारतत्व (मुख्य बातें) छंट जाता है तथा गौण बातें त्याग दी जाती हैं। वेद एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार दयानन्द का मुख्य लक्ष्य अथवा साध्य था। मतों की आलोचना तथा त्याज्य ग्रन्थों का उल्लेख यह साधन था। साधन कभी स्थायी नहीं होते, वे देशकालानुसार बदलते रहते हैं। यही दृष्टिकोण (Approach) हमें राग, द्वेष और पक्षपात से रहित होकर अपनाना होगा। विभिन्न भारतीय धर्मों एवं मतों तथा ग्रन्थों में से हम वेदानुकूल को ग्रहण कर लें। दूसरे इन सबमें मूलभूत विचार (Fundamental ideas) तो उसी वैदिक अथवा आर्य संस्कृति के ही हैं।  विभिन्न धर्मों के बारे में विगत एक शताब्दी में काफी शोध (research) कार्य हुआ है। हम नई खोज तथा नए विचारों से लाभ उठाएं।

    आज हमें कालिदास, माघ और भारवि के काव्यों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है और न ही सांख्यतत्वकौमुदी तथा तर्कसंग्रह से डरने की आवश्यकता है। यही दृष्टिकोण तुलसी-रामायण के बारे में अपनाना है। विगत 60-70 वर्षों में इस पर काफी अनुसन्धान हुआ है। हॉं, हम इन्हें तर्क की कसौटी पर परख लें। इसी प्रकार पुराणों के बारे में भी अनेक आलोचनात्मक अध्ययन (Critical studies) या ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। स्वयं गीता प्रैस गोरखपुर से राधा और कृष्ण की तथा पुराणों में कृष्णलीला की युक्तिसंगत व्याख्या प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें विभिन्न मतों एवं धर्मों के बारे में अपनाने की आवश्यकता है। सब मतों की अच्छी बातें, जो-जो बातें सबके अनुकूल सत्य हैं, उनको हम ग्रहण कर लें और जो एक दूसरे से विरुद्ध हैं उनको हम त्याग दें। हमें सबको अपने साथ लेकर चलना है, समस्त मानव समाज का कल्याण करना है, सबको श्रेष्ठ बनाना है। सबकी उन्नति में हमारी उन्नति है। भारतोद्‌भूत जितने भी धर्म हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख इनका मूलस्रोत तो एक ही है। ये सारे एक सनातन वैदिक धर्म या आर्य धर्म में विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार ईसाई तथा मुस्लिम धर्मों के प्रति भी हमें अपना दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत करना होगा। क्योंकि आज विज्ञान की दुनियां में समस्त मानव समाज एक इकाई (Unit of family) बन गया है।

    धर्मों एवं मतान्तरों की आलोचना से ऋषि दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म में तर्कसंगतता (resonability), युक्ति एवं हेतु (argument) की प्रधानता हो, अन्धविश्वास तथा आडम्बर न हो। हम बाबा-वाक्यं को प्रमाण न मानें, सत्य-असत्य की स्वयं परीक्षा तथा छानबीन करें। यही उनकी धर्म को स्थायी देन है। - प्रा. चन्द्रप्रकाश आर्य

     

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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  • वेद सौरभ - चार वर्ण

    3म्‌  ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्‌ बाहू राजन्यः कृतः।
    ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्‌भ्यां शूद्रो अजायत।।(यजुर्वेद31.11)

    शब्दार्थ- (अस्य) इस सृष्टि का, समाज का (ब्राह्मणः मुखम्‌ आसीत्‌) ब्राह्मण मुख के समान है, होता है (बाहू राजन्यः कृतः) क्षत्रिय लोग शरीर में विद्यमान भुजाओं के तुल्य हैं (यत्‌ वैश्यः) जो वैश्य हैं (तत्‌) वह (अस्य ऊरू) इस समाज का मध्यस्थान, उदर है (पद्‌भ्याम्‌) पैरों के लिए (शूद्रः अजायत) शूद्र को प्रकट किया गया है।

    भावार्थ- इस मन्त्र में अलंकार के द्वारा चारों वर्णों का स्पष्ट निर्देश है। मुख की भॉंति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण पद का अधिकारी होता है।

    भुजाओं की भॉंति रक्षा में तत्पर, लड़ने-मरने के लिये सदा तैयार अपने प्राणों को हथेली पर रखने वाले क्षत्रिय होते हैं।

    उदर की भॉंति ऐश्वर्य और धन-धान्य को संग्रह करके उसे राष्ट्र के कार्यों में अर्पित करने वाले व्यक्ति वैश्य होते हैं।

    जैसे पैर समस्त शरीर का भार उठाते हैं, उसी प्रकार सबकी सेवा करने वाले शूद्र कहलाते हैं।

    समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये इन चारों वर्णों की सदा आवश्यकता रहती है। आज के युग में भी अध्यापक, रक्षक, पोषक और सेवक ये चार श्रेणियॉं हैं ही। नाम कुछ भी रक्खे जा सकते हैं, परन्तु चार वर्णों के बिना संसार का कार्य चल नहीं सकता। 

    इन वर्णों में सभी का अपना महत्व और गौरव है। न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई ऊँच है और न कोई नीच तथा न ही कोई अछूत है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

    Ved Katha Pravachan _98 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

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    These four varnas are always needed to run the society smoothly. Even today, these four categories are teachers, guards, nurturers and servants. Names can be saved, but without four characters the work of the world cannot go on.

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  • वेद-सौरभ - यज्ञोपवीत

    3म्‌ स सूर्यस्य रश्मिभिः परिव्यत तन्तुं तन्वानस्त्रिवृतं यथा विदे।
    नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुपयाति निष्कृतम्‌।।
    (ऋग्वेद9.86.32)

    शब्दार्थ - (सूर्यस्य रश्मिभिः) ज्ञान-रश्मियों से (परिव्यत) आवृत, परिवेष्टित आत्मावाला (सः) वह गुरु (त्रिवृतं तन्तुं) तीन बटवाले धागे, यज्ञोपवीत को (तन्वानः) धारण कराता हुआ (यथा विदे) सम्यक्‌ ज्ञान के लिए (ऋतस्य) सृष्टि-नियम की (नवीयसीः) नवीन, अति उत्तमोत्तम (प्रशिषः) व्यवस्थाओं का (नयन्‌) ज्ञान कराता हुआ (पतिः) उनका पालक होकर (जनीनाम्‌) सन्तानोत्पादक माताओं के (निष्कृतम्‌ उपयाति) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है।

    Ved Katha Pravachan _100 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    भावार्थ - 1. जिसकी आत्मा सूर्य के समान देदीप्यमान होऐसा व्यक्ति ही गुरु होने के योग्य है।2. ऐसा गुरु ही शिष्य को यज्ञोपवीत देने का अधिकारी है। 3. गुरु का कर्त्तव्य है कि वह अपने शिष्य को सम्यक्‌ ज्ञान कराए। 4. गुरु को योग्य है कि वह अपने शिष्य को सृष्टि-नियमों का बोध कराएं। 5. गुरु को शिष्यों का पालक और रक्षक होना चाहिए। 6. ऐसे गुणों से युक्त गुरु माता की गौरवमयी पदवी को प्राप्त होता है। माता के समान गौरव और आदर पाने योग्य होता है। 

    मन्त्र में आये "तन्तुं तन्वानास्त्रिवृतम्‌शब्द स्पष्ट रूप में यज्ञोपवीत धारण करने का संकेत कर रहे हैं।स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    Connotation- 1. Only a person whose soul is resplendent like the Sun is eligible to be a Guru. 2. Only such a master is entitled to offer the yagyopaveet to the disciple. 3. It is the duty of the Guru to make his disciple get proper knowledge. 4. The Guru is able to make his disciple understand the rules of creation. 5. The Guru should be the foster and protector of the disciples. 6. With such qualities, one attains the glorious status of Guru Mata. It is worthy of pride and respect like a mother.

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  • वैदिक विनय - अमरता

    3म्‌ जुहुरे चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति।
    आ दृळहां पुरं विविशुः।। ऋग्वेद5.11.2।।

    ऋषिः आत्रेयो वव्रिः।। देवता अग्निः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय -एक नगर है जो कि बिलकुल दृढ़ है, अभेद्य है। इसमें पहुंच जाने पर हम पर किसी भी शत्रु का आक्रमण सफल नहीं हो सकता। क्या कोई उस स्थान पर पहुँचना चाहता है? वहॉं पहुँचने का मार्ग कुछ विकट है, कड़ा है, आसान नहीं है। वहॉं पहुँचने वालों को ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते जाना होता है और सदा जागते हुए अपने "नृम्ण' की, आत्म-बल की रक्षा करते रहना होता है। ये दो साधनाएँ साधनी होती हैं। कई लोग अपने कर्त्तव्य व उद्देश्य का बिना विचार किये यूँ ही जोश में आकर "आत्म-बलिदान' कर डालते हैं। ऐसा करना आसान है, पर यह सच्चा बलिदान नहीं होता। इससे यथेष्ट फल नहीं मिलता।

    Ved Katha Pravachan _99 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस पवित्र उद्देश्य के सामने अमुक वस्तु वास्तव में तुच्छ हैइसलिए अब इस वस्तु को स्वाहा कर देना मेरा कर्त्तव्य हैइस प्रकार के स्पष्ट ज्ञान के बिना आत्म-बलिदान के नाम से वे आत्मघात कर रहे होते हैं। वहॉं पहुँचने के लिए तो आत्मा का घात नहींकिन्तु आत्मा की रक्षा करनी होती है। हम लोग प्रायः क्रोध करकेअसत्य बोलकरइन्द्रियों को स्वच्छन्द भोगों में दौड़ाकर अपना आत्म-तेजआत्मवीर्यआत्मबल खोते रहते हैंपर धीर पुरुष अपने इस "नृम्ण'=आत्मबल की बड़ी सावधानी सेसदा जागरूक रहते हुए बड़ी चिन्ता से रक्षा करते हैं। वे पल-पल में अपनी मनोगति पर भी ध्यान रखते हुए देखते रहते हैं कि कहीं अन्दर कोई आत्मबल का क्षय करने वाला काम तो नहीं हो रहा है। इस प्रकार रक्षा किया हुआ आत्मबल ही उस दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। वास्तव में ये दोनों साधनाएँ एक ही हैं। यदि हम इनके इस सम्बन्ध पर विचार करें कि ऐसे लोग आत्मबल की रक्षा करने के लिए शेष प्रत्येक वस्तु का बलिदान करने को उद्यत रहते हैं और ये सदा इतने सत्य के साथ आत्मबलिदान करते जाते हैं कि उनके प्रत्येक आत्मबलिदान का फल यह होता है कि उनका आत्मबल बढ़ता है। आओ! हम भी आत्महवन करते हुए और आत्मबल की रक्षा करते हुए चलने लगें तथा उस मार्ग के यात्री हो जाएं जोकि अभयताअजातशत्रुताअमरता और अभेद्यता की दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। 

    शब्दार्थ - जो वि चियन्तो जुहुरे=ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते हैं और अनिमिषं नृम्णं पान्ति=लगातार जागते हुए अपने आत्मबल की रक्षा करते हैं ते=वे दृळहां पुरम्‌=दृढ़-अभेद्य नगरी में आविविशुः= प्रविष्ट हो जाते हैं। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Vinay - A city that is absolutely resolute, impenetrable. On reaching it, no enemy attack can succeed on us. Does anyone want to reach that place? The way to reach there is a bit difficult, difficult, not easy. Those who reach there have to go with self-sacrificing knowledge and keep on guarding the self-strength of their "nirma", always awake. These two practices are spiritual. Many people do not consider their duty and purpose. He gets excited and commits "self-sacrifice". This is easy to do, but it is not a true sacrifice. It does not yield enough fruit.

     

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  • वैदिक-विनय-प्रभु की प्राप्ति

    3म्‌ सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सर्पयन्‌।
    न देवो वृतः सूर इन्द्रः।। साम. पू.3.1.1.3।।

    ऋषिः प्रगाथः काण्वः।। देवता इन्द्रः।।छन्दः गायत्री।।

    विनय - हे मनुष्यो ! तुम अपने परमात्मा से प्रेम क्यों नहीं करते? जहॉं हरिकथा होती है वहॉं से तुम भाग आते हो। बार-बार प्रभु-चर्चा होती देखकर तुम ऊबते हो, जबकि विषयों की चर्चाएँ सुनने के लिए सदा लालायित रहते हो। तुम्हें उस अपने पिता से इतना हटाव क्यों हैं? तुम चाहे जो करो, वह देव तो तुम्हें कभी भुला नहीं सकता। वह तो तुम्हें प्रेम से अपनी ओर आकर्षित ही कर रहा है, सदा आकर्षित कर रहा है, निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है। तुम जानो या न जानो, पर वह अत्यन्त समीपता के साथ माता की भॉंति तुम-पुत्रों की निरन्तर परिचर्या भी कर रहा है।

    Ved Katha Pravachan _101 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    वह परमेश्वर हमारे रोम-रोम में रमा हुआहमारे एक-एक श्वास के साथ आता-जाता हुआहमारे मन के एक-एक चिन्तन के साथ तद्रूप हुआ-हुआ और क्या कहेंहमारी आत्मा की आत्मा होकरएक अकल्पनीय एकता के साथ हमसे जुड़ा हुआ है। हमें संसार में जो कुछ प्रेमआरामवात्सल्यभोगसेवासुख मिल रहा है वह किन्हीं इष्ट-मित्रों या प्राकृतिक वस्तुओं से नहीं मिल रहा है। वह सब हमारे उस एक अनन्य सम्बन्धी परम दयालु प्रभु से ही मिल रहा है। वह केवल हमें अपनी ओर खींच ही नहीं रहा हैअपितु अति समीपता से निरन्तर हमारी सेवा भी कर रहा हैप्रेम-प्रेरित होकर हमारी सेवा कर रहा है। हमारा पालनपोषणरक्षणदुःखनिवारण आदि सब परिचर्या कर रहा है। अरे! वह तो कहीं छिपा हुआ भी नहीं है। उसके और हमारे बीच में कोई भी आवरण नहीं है। उसे ढका हुआआच्छादित भी कौन कहता है?

    हे मनुष्यो ! सच बात तो यह है कि यदि हम उसके इस प्रेमाकर्षण को जानने लग जाएँ कि वे प्रभुदेव सदा प्रेम से हमें अपनी ओर खींच रहे हैंयह हम सचमुच अनुभव करने लग जाएँतो हमें यह भी दिख जाए कि वे हमारे अत्यन्त निकट हैं और अत्यन्त निकटता के साथ हमारी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं और फिर एक दिन हमें यह भी दिख जाए कि वे सब ब्रह्माण्ड के रचयिता महापराक्रमी इन्द्र प्रभुजिनके विषय में परोक्षतया हम इतनी बातें सुना करते थेवे हमसे किसी आवरण से ढके हुए भी नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं और यह दिख जाना ही परमात्मा का साक्षात्कार करना हैपरम प्रभु को पा लेना है।

    शब्दार्थ- हे मनुष्यो ! इन्द्रः = परमेश्वर वः = तुम्हें सदा = सदैव आचर्कृषत्‌ = अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। सः = वह नु = निःसन्देह उप उ=समीप हीसमीपता के साथ सपर्यन्‌ = तुम्हारी सेवा करता हुआ विद्यमान है। शूरः इन्द्र देवः = वह महापराक्रमी इन्द्रदेव वृतः = ढका हुआआच्छादित न = नहीं है। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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    Hey man The truth is that if we start to know his love for God, that he is pulling us towards us with love, we can start realizing, then we should also see that he is very close to us and very We are doing our service with close proximity and then one day we can also see that all those who were the creators of the universe, Mahaprakrami Indra Prabhu, whom we used to hear so much about indirectly, are not covered by any cover from us. . They are directly in front of us and to see this is to interview God, to find the Supreme Lord.

     

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  • शिव नाम परमात्मा का है

    शिवरात्रि का सीधा सरलार्थ कल्याण रात्रि है। पौराणिक परिभाषा में यह शिव की रात है। जो भी कोई शिवभक्त इस रात्रि में शिवमूर्ति का पूजन करता है, वह शिवजी के प्रसाद से कृतकृत्य होकर शिव लोक प्राप्त करने का अधिकारी बन जाएगा। ऐसा पौराणिक प्रचार है। मुसलमानों में भी शबरात की बड़ी महिमा है। शबरात "शिवरात्रि' शब्द का ही विकृत रूप हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि उर्दू, अरबी तथा फारसी लिपि में इकार-उकारादि मात्रायें प्रायः लिखी नहीं जाती तथा व में मध्य रेखा खींचकर व का ब बन जाना सम्भव है। अतः शिव का शब बन जाना और रात्रि का रात लिखा जाना सरलता से समझा जा सकता है। 

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    स्वर्ग और नरक का निर्माण विचारों से ही होता है

    Ved Katha Pravachan _52 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    वेद में शिव नाम परमात्मा का है, जिसके अर्थ कल्याणकारी के हैं। उसकी आराधना-उपासना प्रातः-सायं होती है। 

    पौराणिकों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश या शिव तीन देवता माने हैं। पुराणों में इनकी कथाएं बहुत लिखी गई हैं। इनके आधार पर पिता जी ने अपने बालक मूलशंकर को शिवरात्रि के व्रत द्वारा रात्रि जागरण का महात्म्य बताकर शिवदर्शन की बात कही, जिससे आत्मा का कल्याण होकर मोक्ष की प्राप्ति हो। 

    किन्तु जागरण के मध्य ऋषि की आत्मा में सच्चाई का प्रमाण उदित हो गया कि यह जड़ पाषाण मूर्ति सच्चा कल्याणकारी शिव नहीं है। वह सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्‌, अजर-अमर, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता परमात्मा घट-घट वासी है। उस निराकार परमात्मा की पूजा निराकार आत्मा में शुभ गुणों के विकास के साथ-साथ ध्यान द्वारा होती है, जिसके लिये योग साधना की आवश्यकता है। 

    अतः योग-युक्तात्मा के सान्निध्य की आवश्यकता हुई, वर्षों के कठोर परिश्रम और साधना के पश्चात्‌ यह सिद्धिप्राप्त हुई। तब योग-युक्तात्मा महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी से वेदों के रहस्यों को समझकर गुरु दक्षिणा में वेदों के प्रचार में जीवन की आहुति देकर संसार के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 

    वास्तव में जिस भी क्षण में मनुष्य को सन्मार्ग की प्रेरणा मिले, वही शिव अर्थात्‌ कल्याणकारी है। योग-समाधि का पर्याय ही योगनिद्रा है। कल्याण की सच्ची प्राप्ति योगनिद्रा से विभूषित होती है और योगरात्रि भी कही जा सकती है। 

    संसार जागते हुए भी शुभ प्राप्ति से विमुख होकर वास्तव में मोहान्ध होकर एक प्रकार से गफलत की नींद में सोए रहता है। किन्तु योगी समाधि निद्रा में प्रभु दर्शन से आनन्दविभोर हो रहा होता है। यह योगनिद्रा है। यह योग समाधि ही योगरात्रि या कल्याणकारिणी शिवरात्रि है। हिन्दू-मुसलमान तथा अन्य सभी लोग इस रहस्य को समझ जाएं, तो किसी भी जागरूक क्षण को शबरात या शिवरात्रि कहा जा सकेगा। यही रहस्य दयानन्द ने समझा और ऋषि-महर्षि की पदवी प्राप्त की। 

    नमस्यामो देवान्ननु बत ! विधेस्तेऽपि वशगा, विधिर्वन्धः, सोऽपि प्रतिनियत-कर्मैकफलदः।
    फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किं च विधिना, 
    नमस्तत्‌ कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति।। (नीति शतक 95)

    हम विद्वान आदि देवों को नमस्कार करते हैं, किन्तु अरे! वे भी तो विधाता के आधीन हैं। तो फिर विधाता अवश्य वन्दनीय है, किन्तु वह भी तो कर्मों के अनुरूप ही निश्चित फल देता है। इस प्रकार जब फल कर्मों के ही आधीन है (कर्मों के अनुसार ही मिलने वाला है) तो देवों और विधाता के ऊपर निर्भर न रहकर कर्मों को नमस्कार करें, कर्मों को प्रधानता दें, जिनको बदलने में विधाता भी समर्थ नहीं है। - पं. शान्तिप्रकाश (शास्त्रार्थ महारथी)

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    Mythologists have considered Brahma, Vishnu, Mahesh or Shiva as the three gods. Their stories have been written a lot in the Puranas. On the basis of this, Father told Shivdarshan by telling his child Mool Shankar the great significance of night awakening by fasting of Shivaratri, so that the soul can be benefited and attain salvation. 

    Shiva is the name of God | Arya Samaj Bank Colony Indore Madhya Pradesh India | Arya Samaj Indore MP | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj Mandir Indore address | Arya Samaj and Vedas | Arya Samaj in India | Arya Samaj and Hindi | Marriage in Indore | Hindu Matrimony in Indore | Maharshi Dayanand Saraswati | Ved Gyan DVD | Vedic Magazine in Hindi |  शिव नाम परमात्मा का है | Arya Samaj Mandir Indore | Arya Samaj | Arya Samaj Mandir | Arya Samaj in India | Arya Samaj Marriage Indore | Arya Samaj in India | Arya Samaj in Madhya Pradesh | Vedas | Maharshi Dayanand Saraswati | Vaastu Correction Without Demolition | Arya Samaj helpline Indore Madhya Pradesh | Arya Samaj Online | Arya Samaj helpline | Hindi Vishwa | Intercast Marriage | Hindu Matrimony | Havan for Vastu Dosh Nivaran | Vastu in Vedas | Vedic Vastu Shanti Yagya | Vaastu Correction Without Demolition .

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  • सत्य और न्याय के पोषक-ऋषि दयानन्द

    ऋषि दयानन्द अपने युग की महान विभूति थे। उनके व्यक्तित्व में तेजस्विता, अखण्ड ब्रह्मचर्य, अपूर्व क्रान्ति, योगानुभूति, चुम्बकीय प्रभाव आदि गुण थे। भीष्म पितामह के बाद उनसे बड़ा कोई ब्रह्मचारी नहीं हुआ। जगत्‌ गुरु शंकराचार्य के पश्चात उनसे बड़ा कोई विद्वान्‌ नहीं हुआ। वे सत्य के पुजारी थे। सत्य के लिए ही जिये और सत्य के लिए ही उन्होंने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने सत्य के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। उन्हें सत्य से कोई डिगा नहीं सका। सत्य की रक्षा के लिए उन्हें अनेकों बार जहर पीना पड़ा। वे जीवित शहीद थे। सत्य की यज्ञाग्नि में उन्होंने अपना सर्वस्व होम कर दिया था। गुरुडम और मूर्तिपूजा का खण्डन न करने के लिए उन्हें एकलिंग की गद्दी व अपार धन-ऐश्वर्य का प्रलोभन दिया गया। किन्तु वह निराला तपस्वी, त्यागी, यति अपने ध्येय से टस से मस नहीं हुआ। काशी के विद्वानों ने लालच दिया कि यदि आप मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवाद के विरोध में बोलना बन्द कर दें तो हम आपकी हाथी पर सवारी निकाल कर आपको अवतार घोषित कर सकते हैं। किन्तु सत्य के उद्धारक ऋषिवर अपने संकल्प से किंचित विचलित नहीं हुए। सत्यासत्य के प्रकाश के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश की रचना की। संसार की आंखों पर पड़ी अज्ञान, अन्धकार, असत्य, पाप-पाखण्ड आदि की पट्टी को खोलकर सबको सत्य मार्ग दिखाया। उनका संकल्प था- ऋतं वदिष्यामि,सत्यं वदिष्यामि। इस व्रत  को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया। सच्चे शिव की खोज में वे घर से निकले थे। सत्य रूप शिव को उन्होंने पाया और उसको संसार को दिखाया।

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    मनुष्य बनने के साधन एवं सूर्य के गुण
    Ved Katha Pravachan -9 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि की सत्यनिष्ठा- वह पुण्यात्मा संसार में सत्य की नई रोशनी लेकर आया था। सत्य के प्रकाश के मार्ग में जो पाखण्डआडम्बररूढियॉंअवतारपीर पैगम्बरमसीहामहन्त आदि आएउन्हें तर्क प्रमाण व युक्ति से परास्त किया और "सत्यमेव जयते" के आर्ष वाक्य को जीवित रखा। वे सत्य के कथन में कठोर थे। सत्य के आगे किसी से डरे नहीं और समाज के नियमों में सत्य को पांच बार दोहराया। उनकी दृष्टि में सत्य सर्वोपरि था। वे संसार में सत्य-सनातन वैदिक धर्म प्रचारित एवं प्रसारित करने आए थे। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने ईंटपत्थर तथा गालियॉं खाई। वे इस भूली-भटकी मानव जाति को सत्य पथ दिखाने के लिए संसार में आए थे। इसीलिए वे सदा सत्य के उद्‌घोषक रहे। उनके जीवनव्यवहार और कथन में सत्य ही निकलता था। बरेली के व्याख्यान में कलेक्टर व कमिश्नर को डांटते हुए सम्बोधन में कहा- लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करोकलेक्टर क्रोधित होगाकमिश्नर अप्रसन्न होगागवर्नर पीड़ा देगा। अरे! चक्रवर्ती राजा क्यों न अप्रसन्न होहम तो सत्य ही कहेंगे। ऐसी थी उस सत्यवादी ऋषि की निर्भीकता। एक बार सहारनपुर में जैनियों ने कुपित होकर विज्ञापन निकाला। एक भक्त ऋषि के पास आए। बड़े दुखी मन से कहा कि महाराज जैन मत वाले आपको जेल में बन्द कराना चाहते हैं। स्वामी जी ने कहा- भाई! सोने को जितना तपाया जाता हैउतना ही कुन्दन होता है। विरोध की अग्नि में सत्य और चमकता है। दयानन्द को यदि कोई तोपों के मुख के आगे रखकर भी पूछेगा कि सत्य क्या हैतब भी उसके मुख से सत्य और वेद की श्रुति ही निकलेगी। वे सत्य के उपासक थे। जोधपुर जाते समय लोगों ने कहा- स्वामी जी आप जहॉं जा रहे हैं वहॉं के लोग कठोर प्रकृति के हैं। कहीं ऐसा न हो कि सत्योपदेश से चिढकर वे आपको हानि पहुंचाएं। प्रभु विश्वासी ऋषि ने कहा- यदि लोग हमारी उंगलियों की बत्ती बनाकर जला दें तो कोई चिन्ता नहीं। मैं वहॉं जाकर अवश्य उपदेश दूंगा। वह निडर संन्यासी सत्य के पालन के कारण जीवन भर अपमानविरोध और जहर पीता रहा। उन्होंने मृत्यु को हंसते-हंसते वरण किया। वे कभी भी अन्यायअसत्य व अधर्म की ओर नहीं झुके।

    असत्य से समझौता नहीं- ऋषि की वाणी में अद्‌भुत शक्ति और प्रभाव था। जिसने भी उन्हें सुना और उनके सम्पर्क में आया वह प्रेरित होकर लौटा। न जाने कितने मुंशीरामअमीचन्द और गुरुदत्तों को उन्होंने नये जीवन दिए। उनके तप: पूत जीवन से निकली पवित्र वाणी लोगों के जीवन में चमत्कार का कार्य करती थी।

    जोधपुर प्रवास में एक दिन ऋषिवर महाराजा यशवन्त सिंह के दरबार में पहुंचे। महाराजा ऋषि का बड़ा आदर सम्मान करते थे। उस समय महाराजा के पास नन्हीं बाई वेश्या आई हुई थी। ऋषि के आगमन से महाराज घबरा गए। वेश्या की डोली को स्वयं कन्धा लगाकर जल्दी से उठवा दिया। किन्तु इस दृश्य को देखकर पवित्रात्मा ऋषि को अत्यन्त दु:ख हुआ। उन्होंने कहा- राजन्‌ ! राजा लोग सिंह समान समझे जाते हैं। स्थान-स्थान पर भटकने वाली वेश्या कुतिया के सदृश होती है। एक सिंह को कुतिया का साथ अच्छा नहीं होताइस कुव्यसन के कारण धर्म-कर्म भ्रष्ट हो जाता है। मान-मर्यादा को बट्टा लगता है। इस कठोर सत्य से राजा का हृदय परिवर्तन हो गया। नन्हीं बाई की राजदरबार से आवभगत उठ गई। उसे बड़ी गहरी ठेस पहुंची। उसने षड्‌यन्त्र रचा। इस षड्‌यन्त्र में ऋषि के विरोधी भी सम्मिलित हो गए। स्वामी जी के विश्वस्त पाचक को लालच देकर फोड़ा गया। पाचक ने रात्रि को दूध में हलाहल घोलकर पिला दिया। सत्य का पुजारी सत्य पर शहीद हो गया। वह युग पुरुष शारीरिक कष्ट वेदना सहता हुआघोर अंधेरी अमावस्या की रात में संसार को ज्ञान व प्रकाश की दीपावली देता हुआ सदा के लिए विदा हो गया। इसलिए दीवाली का पर्व ऋषि भक्तों और आर्य विचारधारा वालों के लिए विशेष सन्देश व प्रेरणा लेकर आता है। हर साल दीवाली आती हैधूम-धड़ाकेखान-पानमेले व श्रद्धाञ्जलि तक सीमित रह जाती हैऋषि की व्यथा-कथा को कोई नहीं सुन पाता है।

    हम और हमारी श्रद्धाञ्जलि- ऋषि भक्तो ! आर्यो ! उठो ! जागो ! आंखें खोलो ! सोचो ! हृदय की धड़कनों पर हाथ रखकर अपने से पूछो हम दयानन्द और उनके मिशन आर्य समाज के लिए क्या कर रहे हैंहम उस ऋषि के कार्य को कितना आगे बढा रहे हैंउसके प्रचार-प्रसार के लिए कितना योगदान दे रहे हैंउस योगी की आत्मा जहॉं भी होगी हमसे पूछ रही होगी- आर्यो ! मैंने जो सत्य-सनातन वैदिक धर्म की मशाल तुम्हारे हाथों में दी थीउसे तुम समाज मन्दिर में बने स्कूलदुकानबारातघर और औषधालय के कोने में रखकर वेद की ज्योति जलती रहेओ3म्‌ का झण्डा ऊंचा रहे बोलकर शान्ति पाठ कर रहे होमैंने जिन बातों का विरोध किया थाजिस पाखण्डगुरुडमअज्ञान आदि को दूर करने के लिए मैं जीवन भर जहर पीता रहावही सब कुछ तुम जीवन में घर और मन्दिरों में कर रहे हो। जिस सहशिक्षा और अंग्रेजियत की शिक्षा का मैं विरोधी रहावही सब कुछ तुम समाज मन्दिरों में महापुरुषों के चित्रों के नीचे कव्वालियॉं और लड़के-लड़कियों के नाच करा रहे हो। मेरे नाम को व्यापार बनाकर धन बटोरकर मौजमस्ती ले रहे होमैंने तुम्हें जीवन जगत्‌ के लिए श्रेष्ठ सीधा सच्चा व सरल मार्ग दिखाया था। जो प्रभु का आदेशउपदेश और सन्देश वेदवाणी है उसका तुम्हें आधार दिया था। उसके प्रचार-प्रसार का कार्य छोड़कर तुम भी भवनोंदुकानोंस्कूलों और एफडियों की लाइन में लग रहे होपदमानमहत्त्व और सत्ता के लिए ऐसे लड़ने लगे हो जैसे परस्पर पशु लड़ते हैं। तुम्हारी इस चुनावी जंग को देखकर

    श्रद्धालु भावनाशील और विचारों व सिद्धान्तों को प्यार करने वाले लोग तुमसे अलग होते जा रहे हैं। जो मैंने तुम्हें आर्य समाज के माध्यम से श्रेष्ठतम विचारों का चिन्तन दिया थाउसे तुमने इतना संकीर्णसीमित बना दिया है कि अनुयायियों व प्रभाव की दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। समाज मन्दिरों को जलसेजलूस व लंगरों तक सीमित करते जा रहे हो। समाज मन्दिरों की दशावातावरणपरिस्थिति आदि को देखकर रोना आता है। क्या मेरे किए हुए कार्यों का यही प्रतिदान हैयही स्मरण हैयही श्रद्धाञ्जलि हैयदि यही है तो आर्यों ! मुझे माफ करो ! मैंने आर्य समाज को बनाकर बड़ी भूल कीमुझे ये उम्मीद न थी जिस रूप में आज समाज है और जिस दिशा में जा रहा है।

    ऋषि के बलिदान दिवस पर शान्त भाव से सच्चाई को समझकर यदि कुछ हम जीवन और आर्य समाज के लिए सोच सकेंकुछ अपने को बदल सकेंकुछ दिशाबोध ले सकेंऋषि के दर्द को समझ सकेंमिशन के लिए तपत्यागसेवा का भाव जगा सकें तो ये लिखी पंक्तियां सार्थक समझी जाएंगी। डॉ. महेश विद्यालंकार

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    There is no compromise with untruth - the sage's voice had amazing power and influence. Whoever heard them and came in contact with them returned inspired. Do not know how many Munshiram, Amichand and Gurudattas gave them new life. The sacred voice that came out of his tenacity and life was a miracle in people's lives.

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  • सत्यार्थप्रकाश की प्रासंगिकता

    ऋषि दयानन्द जिस समय सन्‌ 1860 में गुरु विरजानन्द जी के पास विद्याध्ययन के लिये पहुँचे, उस समय उनकी आयु 36 वर्ष की थी। 1863 में उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और उनके पास से अध्ययन समाप्त कर जीवन-क्षेत्र में उतर पड़े। इस समय वे 39-40 वर्ष के हो चुके थे। विरजानन्द जी के पास उन्होंने जो कुछ सीखा वही उनकी वास्तविक शिक्षा थी। क्योंकि इससे पहले वे जो कुछ पढ आये थे, उसे विरजानन्द जी ने भुला देने की उनसे प्रतिज्ञा ली थी। इस प्रकार ऋषि दयानन्द जी की यथार्थ शिक्षा 1960 से 1963 तक अर्थात्‌ कुल तीन वर्ष हुई थी। उन्होंने पीछे चलकर अपने जीवनकाल में जितने व्याख्यान दिये, जितने ग्रन्थ लिखे, जितने शास्त्रार्थ किये, वह इन तीन वर्षों के अध्ययन का ही परिणाम था। इसी से स्पष्ट होता है कि इन तीन सालों में उन्होंने जो पाया था वह कितना मूल्यवान था।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद सन्देश- विद्या एवं ज्ञान प्राप्ति के चार चरण
    Ved Katha Pravachan _35 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अपने गुरु विरजानन्द जी से ऋषि दयानन्द ने जो गुर पाया था वह आर्ष तथा अनार्ष ग्रन्थों में भेद करना था। 36 वर्ष की आयु से पहले उन्होंने जो कुछ पढा था वह अनार्ष ग्रन्थों का अध्ययन था। आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन ने उनके जीवन, उनके विचारों में जो क्रान्ति उत्पन्न कर दी उससे भारत के पिछले वर्षों का इतिहास बन गया।

    इस क्रान्ति का मूल स्रोत सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थप्रकाश 1874 में लिखा गया। मुरादाबाद के राजा जयकृष्णदास जी काशी में डिप्टी कलेक्टर थे तब ऋषि दयानन्द काशी पधारे। राजा जयकृष्ण दास ने ऋषि से कहा कि आपके उपदेशामृत से वे ही व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं जो आपके व्याख्यान सुनते हैं। जिन्हें आपके व्याख्यान सुनने का अवसर नहीं मिलता उनके लिए अगर आप विचारों को ग्रन्थ रूप में लिख दें, तो जनता का बड़ा उपकार हो। ग्रन्थ के छपने का भार राजा जयकृष्णदास ने अपने ऊपर ले लिया। यह आश्चर्य की बात है कि यह बृहत्कार्य तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, जिसे पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने 14 बार पढकर कहा कि हर बार के अध्ययन से उन्हें नया रत्न हाथ आता है, कुल साढे तीन महीनों में लिखा गया।

    केवल साढे तीन मास में- सत्यार्थप्रकाश का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इसमें 377 ग्रन्थों का हवाला है। इस ग्रन्थ में 1542 वेद-मन्त्रों या श्लोकों के उद्धरण दिये गये हैं। चारों वेद, सब ब्राह्मण ग्रन्थ, सब उपनिषद्‌, छहों दर्शन, अट्‌ठारह स्मृति, सब पुराण, सूत्रग्रन्थ, जैन-बौद्ध ग्रन्थ, बायबल, कुरान इन सबके उद्धरण ही नहीं, उनके रेफरेंस भी दिये गये हैं। किस ग्रन्थ में कौन-सा मन्त्र या श्लोक या वाक्य कहॉं है, उसकी संख्या क्या है यह सब कुछ इस साढे तीन महीनों में लिखे ग्रन्थ में मिलता है। आज का कोई रिसर्च स्कालर अगर किसी विश्वविद्यालय की संस्कृत की अप-टु-डेट लायब्रेरी में, जहॉं सब ग्रन्थ उपलब्ध हों, इतने रेफरेंस वाला कोई ग्रन्थ लिखना चाहे तो भी उसे सालों लग जायें, जिसे ऋषि दयानन्द ने साढे तीन महीनों में तैयार कर दिया था। साधारण ग्रन्थ की बात दूसरी है। सत्यार्थप्रकाश एक मौलिक विचारों का ग्रन्थ है। ऐसा ग्रन्थ जिसने समाज को एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिला दिया। जिन ग्रन्थों ने संसार को झकझोरा है उनके निर्माण में सालों लगे हैं। कार्ल मार्क्स ने 34 वर्ष इंग्लैण्ड में बैठकर "कैपिटल" ग्रन्थ लिखा था जिसने विश्व में नवीन आर्थिक दृष्टिकोण को जन्म दिया।  मार्क्स के ग्रन्थ ने यूरोप का आर्थिक ढॉंचा हिला दिया तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ने भारत का सांस्कृतिक तथा सामाजिक ढॉंचा हिला दिया।

    क्रान्तिकारी विचारों का खजाना- सत्यार्थप्रकाश चुने हुए क्रान्तिकारी विचारों का खजाना है। ऐसे विचारों का जिन्हें उस युग में कोई सोच भी नहीं सकता था। समाज की रचना जन्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए, सत्यार्थ-प्रकाश का यही एक विचार इतना क्रान्तिकारी है कि इसके व्यवहार में आने से हमारी 60 प्रतिशत समस्याएँ हल हो जाती हैं। ऐसे संगठन में जन्म से न कोई ऊँचा, न कोई नीचा, जन्म से न कोई गरीब, न कोई अमीर, जो कुछ हो कर्म हो। ऐसी स्थिति में कौन-सी समस्या है जो इस सूत्र से हल नहीं हो जाती।

    शिक्षा क्षेत्र में गुरुकुल शिक्षा- प्रणाली का विचार सत्यार्थप्रकाश की ही देन है, जिसे पकड़ कर उत्तर भारत में जगह-जगह गुरुकुलों का जाल बिछ गया। आज भी हमारी शिक्षा-प्रणाली की जो छीछालेदार हो रही है, उसका इलाज गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में ही निहित है।

    लोकमान्य तिलक ने कहा था-"स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" दादा भाई नौरोजी ने भी "स्वराज्य" शब्द का प्रयोग किया था। इन सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 8वें समुल्लास में लिखा था-"कोई कितना ही कहे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।" ऋषि दयानन्द के ये वाक्य उस जगत्‌-प्रसिद्ध अंग्रेजी वाक्य से जिसमें कहा गया था- “Good government is no substitute for self-government”  से इतने मिलते-जुलते हैं कि 1874 में अंग्रेजों के राज्य में कोई व्यक्ति यह लिखने का साहस कर सकता था, यह जानकर आश्चर्य होता है।

    आज जिन समस्याओं को लेकर हम उलझे हैं, हरिजनों की समस्या, स्त्रियों की समस्या, गरीबी की समस्या, शिक्षा की समस्या, राष्ट्र-भाषा की समस्या, चुनाव की समस्या, नियम तथा व्यवस्था की समस्या, गोरक्षा की समस्या आदि कौन सी समस्या है जिसका हल सत्यार्थप्रकाश में मौजूद नहीं है और कौन-सा ऐसा हल आज के राजनीतिज्ञों ने ढूँढ निकाला हे, जो सत्यार्थ प्रकाश में पहले से नहीं है।

    वेदों के नाम पर-हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी समस्या वेदों की थी। यहॉं हर-कोई हर बात के लिए वेदों का नाम लेता था। स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार क्यों नहीं? क्योंकि वेदों में लिखा है- "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्‌।" बाल-विवाह क्यों नहीं होना चाहिए? क्योंकि वेदों में लिखा है- "अष्टवर्षा भवेत्‌ गौरी नववर्षा च रोहिणी। पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च, त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्टवा कन्यां रजस्वलाम्‌।" जन्म से वर्णव्यवस्था क्यों मानें? क्योंकि वेद में लिखा है- "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‌" - ब्राह्मण परमात्मा के मुख और शूद्र उसके पॉंव से उत्पन्न हुए हैं। जैसे मुख बाहु और बाहु मुख नहीं बन सकता, इसी प्रकार  ब्राह्मण शूद्र तथा शूद ब्राह्मण नहीं बन सकता। जब ऋषि दयानन्द ने यह देखा कि वेदों का नाम लेकर हर संस्कृत वाक्य को वेद कहा जा रहा है और वेदों का उद्धरण देकर वेद-मन्त्रों का अनर्थ किया जा रहा है, तब उन्होंने निश्चय कर लिया कि वेदों को ही केन्द्र बनाकर हिन्दू-समाज की रक्षा की जा सकती है और वह रक्षा तभी की जा सकती है, जब जन-साधारण की समझ में आ जाये कि वेदों में क्या कहा गया है।

    वैदिक वाड्‌मय के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की खोज यह थी कि हर संस्कृत वाक्य तथा हर संस्कृत ग्रन्थ वेद नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्‌, स्मृति, पुराण, सूत्र-ग्रन्थ ये सब वेद नहीं हैं। इन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अगर वेद-विरुद्ध है तो वह त्याज्य है, जो वेदानुकूल है वही  स्वीकार करने योग्य है। ऋषि दयानन्द का हिन्दू-समाज को कहना यह था कि अगर वेद को तुम अपनी संस्कृति का आधार मानते हो, तो इस पैमाने को लेकर चलना होगा। तुम जो चाहो वह वेद नहीं है, वेद जो है वह मानना होगा। इस कसौटी पर कसने से हिन्दू-समाज की 60 प्रतिशत रुढियॉं अपने आप गिर जाती हैं। इस विचारधारा को प्रकट करने के लिए उन्होंने दो शब्दों का प्रयोग किया-आर्ष ग्रन्थ तथा अनार्ष ग्रन्थ। अब तक संस्कृत साहित्य में इस दृष्टि को किसी ने नहीं अपनाया था। संस्कृत के हर ग्रन्थ में जो कुछ लिखा मिलता था वह प्रामाणिक मान लिया जाता था। ऋषि दयानन्द ने इस विचार को ध्वस्त कर दिया।

    वेदों के शब्द रूढिज नहीं- वेदों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की दूसरी खोज यह थी कि वेदों के शब्द रूढिज नहीं, यौगिक हैं। यद्यपि यह विचार नया नहीं था, निरुक्तकार का भी यही कहना था। तो भी वेदों के सभी भाष्यकारों ने वैदिक शब्दों के रूढि अर्थ ही किये थे। सायण, उव्वट, महीधर तथा उनके पीछे चलते हुए पाश्चात्य विद्वानों मैक्समूलर, राथ, विल्सन, ग्रासमैन ने मक्खी पर मक्खी मार अनुवाद किया था। सायण आदि एक तरफ वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे तो दूसरी तरफ उनमें इतिहास भी मानते थे, जो वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने के सिद्धान्त से टकराता था। इस बात की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। असल में सायण का भाष्य किसी गम्भीर विद्वत्ता से नहीं किया गया था, वह एक विशिष्ट लक्ष्य को सामने रखकर किया गया था। दक्षिण के विजयनगर हिन्दू-राज्य के राजा हरिहर और बुक्का के वे मन्त्री थे। मुस्लिम संस्कृति राज्य में प्रतिष्ठित न हो जाये, इसलिए संस्कृत वाड्‌मय का प्रसार करना मात्र इस भाष्य का उद्देश्य था। यही कारण था कि सायण या महीधर के भाष्य गहराई तक नहीं गये और असंगत बातों के शिकार रहे। वह यज्ञों का समय था। इसलिए भाष्यकार समझते थे कि वेदों के अग्नि, वायु, इन्द्र आदि देवता सचमुच स्वर्ग से यज्ञों में पधारते हैं और दान-दक्षिणा आदि लेकर तथा यजमान को आशीर्वाद देकर स्वर्ग चले जाते हैं। पाश्चात्य विद्वानो को यह बात अपनी विचारधारा के अनुकूल पड़ती थी। उनका विचार विकासवाद पर आश्रित था। आदि में मानव जंगली था। जंगली आदमी सूर्य को, अग्नि को और वायु को देवता समझकर पूजे तो यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वान कहने लगे कि वैदिक ऋषि क्योंकि जंगली थे इसलिए अनेक देवताओं को पूजते थे। इस निष्कर्ष में सायण आदि के भाष्य उनके विचारों की पुष्टि करते थे।

    ऋषि दयानन्द ने इस विचार को भी ठोकर मार कर गिरा दिया। वेदों से ही उन्होंने सिद्ध किया कि अग्नि आदि नाम विभिन्न देवताओं के नहीं अपितु एक ही परमेश्वर के हैं।  ऋग्वेद में लिखा है-एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहु। परमात्मा एक है, उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। इस एक मन्त्र से सारा का सारा विकासवाद कम-से-कम जहॉं तक वेदों का सम्बन्ध है, ढह जाता है।

    तीन प्रकार के अर्थ- ऋषि दयानन्द का कहना था कि वैदिक शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक। उदाहरणार्थ- इन्द्र का आधिभौतिक अर्थ अग्नि, विद्युत, सूर्य आदि है, आधिदैविक अर्थ राजा, सेनापति, अध्यापक आदि दैवीय गुणवाले व्यक्ति हैं, आध्यात्मिक अर्थ जीवात्मा, परमात्मा आदि हैं। इसी प्रकार अन्य शब्दों के विषय में कहा जा सकता है। इस कसौटी को सामने रखकर अगर वेदों को समझा जाये, तो न उनमें इतिहास मिलता है, न बहुदेवतावाद मिलता है, न जंगलीपन मिलता है, न विकासवाद मिलता है।

    वेदों के जितने भाष्यकार हुए हैं, इस देश के तथा विदेशों के उनमें सबसे ऊँचा स्थान ऋषि दयानन्द का है। अगर वेदों को किसी ने समझा तो ऋषि दयानन्द ने। अरविन्द घोष ने लिखा है-

     “In the matter of Vedic interpretation Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ingnorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision, that pierced the truth and fastened on that which was essential.”

    इस प्रकार इस युग के महायोगी श्री अरविन्द का कहना है कि जहॉं तक वेदों का प्रश्न है, दयानन्द सबसे पहला व्यक्ति था जिसने वेदों के अर्थों को समझने की असली कुञ्जी खोज निकाली। वेदों का अर्थ समक्षने के लिए सदियों से जिस अन्धकार में हम रास्ता टटोल रहे थे उसमें दयानन्द की दृष्टि ही इस अन्धकार को भेदकर यथार्थ सत्य पर जा पहुँचती थी।

    उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनेक समाज सुधारक हुए। ऋषि दयानन्द, राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन इसी युग की उपज थे। वे सब एक तरफ हिन्दू-समाज के पिछड़ेपन को देख रहे थे, दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की प्रगतिशीलता को देख रहे थे। यह सब देखकर वे हिन्दू-समाज को रूढियों की दासता से मुक्त करना चाहते थे। ऋषि दयानन्द तथा दूसरों की विचारधारा में भेद यह था कि जहॉं दूसरे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति तथा हिन्दुत्व को समाप्त करने पर तुल गये, वहॉं ऋषि दयानन्द ने हिन्दुओं को हिन्दु रखते हुए उन्हें नवीनता के नये रंग में रंग दिया। कोई वृक्ष जड़ के बिना नहीं खड़ा रह सकता है। जड़ कट जाये, तो वृक्ष गिर जाता है। जड़ को मजबूत बनाकर जो वृक्ष उठता है, वही टिका रहता है।

    कोई समाज अपने भूत के बिना नहीं जी सकता। भूत में पैर जमाकर भविष्य की तरफ बढना, पीछे भी देखना, आगे भी देखना यही किसी समाज के जीवन का गुर है। ऋषि दयानन्द ने इसी गुर को पकड़ा था। पीछे वेदों की ओर देखो, उसमें जमकर आगे भविष्य की ओर पग बढाओ। भूत को छोड़ दोगे तो वृक्ष की जड़ कट जाएगी। भविष्य की अनदेखी कर उठ नहीं सकोगे। यही सत्यार्थ प्रकाश का सन्देश है। - डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार 

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    The trick that Rishi Dayanand got from his Guru Virjanandji was to distinguish between joy and non-scripture. What he had read before the age of 36 was the study of non-human texts. The history of the last years of India became a history due to the revolution that arose in his life, his thoughts, by the study of the Aasha texts.

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  • साम्प्रदायिकता की समस्या और ऋषि दयानन्द

    साम्प्रदायिकता भारतीय समाज की चिर-परिचित समस्याओं में से प्रमुख विचारणीय समस्या रही है। वर्तमान युग में तो इस समस्या का राजनीतिकरण हो जाने के कारण यह अत्यधिक जटिल एवं चिन्तनीय हो गई है। साम्प्रदायिक विद्वेष, दंगे, उग्रवाद, आतंकवाद और अल्पसंख्यकवाद तथा बहुसंख्यकवाद की राजनीति ये समस्या के जाने-पहचाने चेहरे हैं, जो समय-समय पर राष्ट्रीय परिदृश्य में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। कभी आक्रामक रूप में तो कभी सामान्य रूप में ये सामाजिक शान्ति, प्रगति और स्थायित्व के राष्ट्रीय तन्त्र को प्रभावित करते हैं।

    इस समस्या के समाधान हेतु समय-समय पर विभिन्न विचारकों ने समाधान भी प्रस्तुत किये हैं, जिनमें महात्मा गांधी का "आदर्शवादी समाधान" विशेष प्रसिद्ध है, जिसे "सर्वपन्थ समभाव" के रूप में जाना जाता है। स्वामी विवेकानन्द और सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रभृति दार्शनिकों का भी यही मन्तव्य है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी पन्थ ईश्वर की ओर ले जाने वाले कल्याण-मार्ग हैं। इसलिए मानव-मात्र को सभी पन्थों के प्रति समान आदर भाव प्रदर्शित करना चाहिए। यह समाधान सभी पन्थों में निहित सत्य, परोपकार, पवित्रता, सेवा, करुणा जैसे उदात्त मूल्यों पर बल देता है। परन्तु इस "समभाव" से इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता है कि विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय परस्पर टकराते क्यों हैं? और इस टकराव में वे क्यों एक दूसरे का अस्तित्व मिटाने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। साम्प्रदायिक टकराव से कैसे बचा जा सकता है, जिसकी सामाजिक समरसता, शान्ति और स्थायित्व के लिए आज नितान्त आवश्यकता है।

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    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ऋषि दयानन्द ने इस जटिल समस्या के ऊपर आदर्श और यथार्थ- दोनों दृष्टियों से विचार किया हैजो प्रस्तुत निबन्ध का प्रतिपाद्य विषय भी है। आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए उन्होंने विभिन्न मत-पन्थों में निहित शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों को न केवल स्वीकार किया हैवरन्‌ उनके आधार पर समाज के पुन: संगठन पर बल भी दिया है। उनके शब्दों में, "आजकल बहुत विद्वान्‌ प्रत्येक मतों में हैंवे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात्‌ जो-जो बातें सबके अनुकूल हैंउनका ग्रहण करना और जो-जो बातें एक दूसरे के विरुद्ध हैंउनका त्याग कर प्रीति से बर्तें तो जगत्‌ का पूर्ण हित होेवे" (सत्यार्थ प्रकाश-भूमिका)

    ऋषि का यह सुविचारित मत है कि उन शाश्वत मूल्यों एवं सिद्धान्तों का मूल स्रोत "वेद" हैजो ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण निर्भ्रान्त है। अतएव मानव-मात्र के लिए वेदों में प्रतिपादित धर्म-आचार अनुपालनीय एवं रक्षणीय है। दयानन्द इस देश के सांस्कृतिक इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पॉंच हजार वर्ष से पूर्व वेद मत से भिन्न संसार में दूसरा कोई मत न था। क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। उसके उपरान्त संसार में सर्वत्र अज्ञानान्धकार व्याप्त हो गया। मनुष्य की बुद्धि भ्रमित होने से जिसके मन में जैसा आया मत चलायाजिनकी संख्या आज सहस्त्र से कम नहींपरन्तु अध्ययन-मनन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- पुराणीजैनीकिरानी और कुरानी। (सत्यार्थ प्रकाश-एकादश समुल्लासअनुभूमिका)

    ऋषि दयानन्द ने इन चार वर्गों पर विचार करते हुए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है और उन कारणों की पहचान करने का प्रयास किया हैजिनके कारण एक सम्प्रदाय दूसरे से टकराता है। वे कारण हैंविभिन्न सम्प्रदायों की मिथ्या वेद-विरुद्ध मान्यताएं एवं अन्धविश्वास यथा मूर्तिपूजाअवतारवादपैगम्बरवादचमत्कारपाप-क्षमाश्राद्ध-तर्पणतीर्थ-महात्म्यगुरुडमवादनाम-स्मरणग्रहवाद आदि-आदि। साम्प्रदायिक संघर्ष की जड़ें इन भिन्न मान्यताओं में हैं। इसीलिए स्वामी दयानन्द अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्द्ध की रचना करके विभिन्न सम्प्रदायों की असंगतता को सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैंजो संक्षेप में इस प्रकार है-

    ऋषि दयानन्द ने पुराणी वर्ग के अन्तर्गत वाममार्गियों से लेकर ब्रह्मसमाजियों तथा प्रार्थना समाजियों तक का उल्लेख किया है। पुराणी वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सम्प्रदायों की प्रमुख मान्यताएं हैं- अवतारवादगुरुडमवादभाग्यवादमूर्तिपूजाश्राद्ध-तर्पणव्रततीर्थाटनगंगा-स्नानपाप-क्षमा और नाम-स्मरण आदि। ये वेदों को प्रमाण रूप में तो स्वीकार करते हैंकिन्तु तन्त्र-साहित्यपुराणउपपुराण आदि इनके मुख्य ग्रन्थ हैं। अत: इन्हें ही विशेष मान्यता प्रदान करते हैं। पुजारीमहन्तसाधुतान्त्रिकओझा और पण्डित आदि इन पौराणिक सम्प्रदायों के धर्म-गुरु तथा व्यवस्थापक माने जाते हैं। मूर्तिपूजा इनकी आय का नियमित स्रोत होता है तथा श्राद्ध-तर्पणव्रत-अनुष्ठान आदि आय के अन्य आवश्यक साधन माने जाते हैं।

    जैनी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने वेद-विरोधी चार्वाकजैनोंबौद्धों का समावेश किया है। उन्होंने इनकी समीक्षा "सत्यार्थप्रकाश" के द्वाद्वश समुल्लास में विशेष रूप से की है। दयानन्द के मतानुसार इन वेद विरोधी मतों का जन्म वैदिक धर्म में विकृति आने के कारण उसकी प्रतिक्रियास्वरूप हुआ। इन्होंने वैदिक साहित्य तथा परम्परा के समानान्तर अपने स्वतन्त्र साहित्य तथा परम्परा की रचना की। ऋषि दयानन्द के अनुसार यही कारण है कि पौराणिकों की भॉंति इन सम्प्रदायों में साधु-साध्वी आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं। दयानन्द के मतानुसार मूर्तिपूजा जैनियों से प्रचलित हुई और बौद्धों तथा पौराणिकों में उत्कर्ष पर पहुँच गयी।

    किरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने यहूदी तथा ईसाई मजहबों का उल्लेख किया है जिनमें से दयानन्द युगीन भारतवर्ष में ईसाई धर्म अंग्रेज शासकों के धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित था। जबूरतौरेत तथा इंजील इनकी धार्मिक पुस्तकें हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कार आदि इनकी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं।पादरीपोप आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। अनुयाइयों द्वारा दान इनकी आय का प्रमुख स्रोत होता है।

    इनके अलावा कुरानी वर्ग के अन्तर्गत दयानन्द ने शियासुन्नी आदि सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। इस वर्ग में मुसलमान आते हैंजिनमें भारतवर्ष के सभी मुस्लिम सम्प्रदायों का समावेश हो जाता है। कुरान-मजीदहदीस आदि इनकी धार्मिक पुस्तकें मानी जाती हैं। पैगम्बरवादपाप-क्षमाचमत्कारवाद आदि इनकी भी प्रमुख धार्मिक मान्यताएं हैं। इमाममुल्लामौलवीहाफिज आदि इनके धर्म-गुरु समझे जाते हैं। इस वर्ग की आय का प्रमुख साधन मुसलमानों से समय-समय पर प्राप्त आय समझी जाती है।

    दयानन्द इन सभी मत-पन्थों/सम्प्रदायों का गहराई से अध्ययन-मनन करने के उपरान्त सहजत: इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विभिन्न सम्प्रदायों का आधार सम्प्रदायजनित अन्धविश्वास तथा भ्रान्त धारणाएं हैंजन-साधारण में व्याप्त अज्ञानता में ही जिनकी जड़े हैं। इसलिए साम्प्रदायिक गुरुओं और प्रवक्ताओं के सभी दावों तथा आश्वासनों को जन-साधारण समुचित परीक्षा किये बिना ही स्वीकार करने लगते हैं और इसी कारण साम्प्रदायिक आग्रहों में फॅंसी साधारण जनता अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं और आस्थाओं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगती हैजो कालान्तर में अन्य सम्प्रदायों के प्रति असहिष्णुता या कट्‌टरता तथा ईर्ष्या-द्वेष के रूप में सामने आती है। दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच टकराव तथा ईर्ष्या-द्वेष के लिए धर्म-गुरुओं को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनके शब्दों में, "विद्वानों के विरोध ने सबको विरोध-जाल में फॅंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फॅंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी एक मत हो जायें" (सत्यार्थ प्रकाश-अनुभूमिकाएकादश समुल्लास)। इसलिए वे साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के लिए विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों से मानवीय-मूल्यों तथा समस्याओं के आधार पर एकता स्थापित करने की अपील भी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों के बीच तनाव तथा संघर्ष को साम्प्रदायिक गुरुओं का निहित स्वार्थ मानते हैं। उनके अनुसार अलग-अलग "साम्प्रदायिक प्रभु" भोली-भाली अनपढ जनता का आर्थिकधार्मिक तथा सामाजिक शोषण करने के लिए नित नये-नये हथकण्डे खोजते हैंइनसे उन्हें धन तथा कामोपभोग की नित्य प्रति प्रचुर सामग्री प्राप्त होती रहती है। यही कारण है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता के मनोवैज्ञानिक आधार पर चोट करने के लिए जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वासों तथा अन्धश्रद्धा पर चोट करते हैंजिनमें अवतारवादगुरुडवादपैगम्बरवादभाग्यवादपाप-क्षमाकालवाद आदि प्रमुख हैंवहॉं इसी के साथ साम्प्रदायिकता के आर्थिक स्रोतों को बन्द करने के लिए उसके सामाजिक तथा धार्मिक आधार को छिन्न-भिन्न करने का प्रयत्न करते हैंजिनके अन्तर्गत मूर्तिपूजाव्रततीर्थकुपात्रों को दान आदि का खण्डन विशेष रुप से उल्लेखनीय है।

    दयानन्द विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अन्धविश्वास तथा रूढियों काजिन्हें वे प्राय: पाखण्ड के नाम से सम्बोधित करते दृष्टिगोचर होते हैंका खण्डन करने के लिए शास्त्रार्थ प्रणाली को आधार बनाते हैंजिनमें वे सभी अवैदिक मत-पन्थों तथा उनकी आधारभूत मान्यताओं की अवैज्ञानिकता तथा तर्कहीनता का प्रतिपादन प्रतिपक्षी की उपस्थिति में करते हैं। प्राय: जन-साधारण के सम्मुख इस प्रकार के तर्कीय आयोजनों का परिणाम यह होता है कि जन-साधारण असंगततर्क-विरुद्ध अन्धविश्वासों का परित्याग करने लगते हैं और दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वैदिक मान्यताओं की सुगमता को स्वीकार करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। दयानन्द द्वारा प्रवर्तित पाखण्ड-खण्डन के आन्दोलन की प्रासंगिकता को इसी आधार पर भलीभॉंति समझा जा सकता है।

    दयानन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता हैफिर चाहे वह कथित वैदिक नाम पर हो अथवा अ-वैदिकवह भारतीय हो अथवा अभारतीय। जन-जन में व्याप्त अज्ञानतामिथ्या विश्वास तथा पूजा-पाठी वर्ग का निहित स्वार्थउसके ये दो प्रमुख संघटक तत्व होते हैं। इसीलिए दयानन्द इन दोनों ही तत्वों के खण्डन के लिए प्राणपण से संकल्पवान्‌ जान पड़ते हैंजो उनके मण्डनात्मक या विधायी पक्ष को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

    दयानन्द के साम्प्रदायिकता-विरोधी दृष्टिाकोण को समुचित रूप में समझने के लिए धर्म तथा साम्प्रदायिकता में भी अन्तर करना आवश्यक प्रतीत होता है। दयानन्द के मतानुसार धर्म का अभिप्राय सत्यन्यायपरोपकारपवित्रता आदि उन शाश्वत मानवीय-मूल्यों से हैजिनका व्यक्ति और समाज की उन्नति तथा मुक्ति के लिए पालन करना आवश्यक है। उनके शब्दों में, "जो पक्षपात-रहित न्यायाचरणसत्य भाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेद से अविरुद्ध है उसको धर्म...... मानता हूँ।" किन्तु साम्प्रदायिकता का आधार संकुचितनिहित स्वार्थ तथा अज्ञानता से है। दयानन्द के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों के अन्तर्गत सत्यन्यायपवित्रतापरोपकारअहिंसा और शान्ति आदि मानवीय मूल्यों को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया जाता हैअन्यथा समाज में अस्तित्व बनाये रखना असम्भव हो जायेगातथापि अपने निहित स्वार्थों को प्रमुखता और वरीयता प्रदान करने के कारण ही विभिन्न सम्प्रदायों में परस्पर इतने विभेदझूठ तथा ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो गये हैं कि उन्हें धार्मिक तो क्या सहजत: सामाजिक संगठन स्वीकार करने में भी कठिनाई का अनुभव होने लगता है। इसलिए दयानन्द जहॉं एक ओर समाज में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों में व्याप्त अज्ञानताभ्रान्त धारणाओंअन्धविश्वासों तथा पाखण्डों का खण्डन करते हैंवहीं दूसरी ओर वैदिक धर्मत्रैतवादवैदिक कर्मफलवादपुरुषार्थ चतुष्टयसंस्कार आदि का मण्डन भी करते दृष्टिगोचर होते हैं जो उनकी दृष्टि में सबसे प्राचीन सत्य मानवतावादी धर्म है।

    अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दयानन्द साम्प्रदायिकता की समस्या दूर करने के लिए विभिन्न धार्मिक मत-पन्थ में निहित शाश्वत महत्व के तत्वों, मूल्यों की एकता पर बल देते हैं। उनके रक्षण, पल्लवन के लिए वैदिक धर्म के संस्थापन का लक्ष्य सामने रखते हैं, जो न केवल विश्व का प्राचीनतम धर्म है, वरन्‌ सभी शाश्वत मूल्यों का सार्वभौम स्रोत भी है। इसी के साथ-साथ विभिन्न साम्प्रदायिक, अन्धविश्वासों एवं भ्रान्त मान्यताओं से मानव-मात्र को मुक्ति दिलाने हेतु उनकी अतार्किकता, अवैदिकता एवं असत्यता का भी सफलतापूर्वक प्रतिपादन करते हैं, जिसकी वर्तमान भूमण्डलीयकरण के दौर में महती आवश्यकता है। -डॉ. सोहनपाल सिंह आर्य

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    In Dayanand's view, communalism is communalism, be it in the alleged Vedic name or non-Vedic, be it Indian or non-Indian. Ignorance prevailing among the people, false belief and vested interest of the class of worship are its two major constituents. That is why Dayanand appears determined to rebut both these elements, which seems necessary to give a tangible or legislative aspect.


    हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए के उद्‌घोषक

    महर्षि दयानन्द ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने "हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए" का नारा लगाया था। स्वामी दयानन्द ने वेदों तथा उपनिषदों द्वारा भारत के प्राचीन गौरव को सिद्ध करके बता दिया और संसार को दिखा दिया कि भारतवर्ष दर्शन-शास्त्र तथा आध्यात्मिक विद्या की खान (भण्डार) है। भारत में रहने वाले लोग मानते है कि भारत की प्राचीन महिमा तथा गौरव पागलों का प्रलाप नहीं, परन्तु सत्य है। आर्यसमाज के लिये मेरे हृदय में शुभ इच्छाएं हैं और उस महान्‌ पुरुष ऋषि दयानन्द के लिये जिसका आज आर्य आदर करते हैं, मेरे हृदय में सच्ची पूजा की भावना है।-भारत-भक्त नेत्री एनी बीसेन्ट

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  • सार्थक लक्ष्य

    युवा-प्रेरणा

    हे मानव !
    जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहॉं,
    फिर जा सकता वह सत्त्व कहॉं?
    तुम स्वत्व सुधा-रस पान करो,
    उठ के अमरत्व विधान करो।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त इन पंक्तियों के माध्यम से मनुष्य को जागृत करते हुए कह रहे हैं कि समस्त प्राणी जगत्‌ में सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन दिशाहीन न हो, लक्ष्य से विचलित न हो। जीवन में सफलता पाने के लिये एक सार्थक लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में जीवन बिना पतवार की नाव के समान होता है। लक्ष्य अपनी इच्छा और प्रतिभा के अनुरूप होना चाहिए। इसे पाने के लिए आपका तन-मन जुट जाए। इसके लिये कठोर से कठोर श्रम भी थकाए नहीं। बेचैन न करे। लक्ष्य को पाने पाने के लिये जो हर कठिनाई हंसते-खेलते झेल लेता है, उदासीनता, निराशा उसके पास नहीं फटकती। ऐसे पुरुषार्थी अपना लक्ष्य पा लेते हैं।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सब जगह शान्ति ही शान्ति (वेद का दिव्य सन्देश)
    Ved Katha Pravachan _62 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    लक्ष्य को लांघने वाला व्यक्ति भूत और भविष्यकाल के बारे में चिन्ता नहीं करता। क्योंकि वर्तमान से ही भविष्य को खरीदा जा सकता है, वह उसे कल पर टालता नहीं है। जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना चाहिये। कठिनाइयॉं और संघर्ष हमें निराश करने नहीं आते, बल्कि हममें साहस और शक्ति का संचार करने आते हैं। इसलिये उनसे निराश होकर जीवन की खुशी खोना नहीं है। जीवन जीने की कला हम जान लें तथा सकारात्मक सोच रखें, तो जीवन एक मुस्कुराहट भरा गीत बन जाएगा।

    नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति हर स्थिति में अपने को हारा हुआ मानता है। अच्छी से अच्छी परिस्थिति में भी पहले उसकी नजर, उसकी दृष्टि नकारात्मक पहलू पर ही पड़ती है। वह सकारात्मक पहलू पर ध्यान जाने से पूर्व ही निस्तेज हो जाता है। मनोवैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। वस्तुतः सभी के अन्दर कोई न कोई शक्ति छिपी है। बस उसे जागृत करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये आवश्यकता है प्रेरणा की। प्रेरणा से प्रतिभा का उदय होता है और प्रतिभा परिश्रम के लिये व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करती है।

    कई बार हम सफल इसलिये नहीं होते, क्योंकि हम अवसर को गम्भीरता से नहीं लेते। जैसे ही हम अवसर पर ध्यान देना शुरू करते हैं, जीवन मेें परिवर्तन घटित होने लगते हैं। तब हम अमूल्य समय को गंवाते नहीं हैं, नष्ट नहीं होने देते। क्योंकि हम यह समझ जाते हैं कि यदि वह समय गंवा दिया, तो पुनः लौटकर नहीं आएगा। फलस्वरूप लक्ष्य पा लेते हैं।

    सार्थक लक्ष्य पाने के लिये जीवन में अनुशासन का भी बहुत महत्व है। एक बार आचार्य सुमेध अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के किनारे टहल रहे थे। शिष्य वरतन्तु ने पूछा "आचार्य! विद्याध्ययन अथवा किसी लक्ष्य की प्राप्ति का आधार बौद्धिक प्रखरता है तो फिर कठोर अनुशासन की क्या आवश्यकता है?''

    आचार्य ने मुस्कुराकर पूछा- "अच्छा बताओ, यह गंगा नदी कहॉं से आ रही है और कहॉं तक जाएगी।'

    वरतन्तु ने कहा- "गंगा गोमुख से चलकर गंगासागर में मिल जाती है।''

    आचार्य ने पूछा- "यदि इसके दोनों किनारे न हों तो?''

    शिष्य ने कहा- "तब तो इसका जल दोनों तरफ बिखर जाएगा, बह जाएगा तथा कहीं बाढ़ और कहीं सूखा पड़ जाएगा और यह अपने लक्ष्य गंगासागर तक तो पहुंच ही नहीं पाएगी, बीच में ही खत्म हो जाएगी।'' आचार्य ने कहा- "हॉं, इसी तरह अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी या लक्ष्यार्थी की जीवन-ऊर्जा बंट जाएगी, बिखर जाएगी, क्योंकि एक लक्ष्य नहीं होगा, अनेक सोच होंगे। लक्ष्य प्राप्ति में रुकावट आने पर शरीर और मन निस्तेज हो जाएंगे। फलस्वरूप जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव हो जाएगी। अनुशासन, विद्याध्ययन या किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने व उसे आत्मसात्‌ करने का सूत्र है।

    सफलता पाने के बाद उसके सुख और यश को स्थायी रखने के लिये आवश्यक है विनय और अहंकारशून्यता। ज्ञानी जन कहते हैं कि ज्ञान, धन, पद, यश, प्रभुता आदि पाकर मनुष्य में अहंकार पैदा हो जाता है। महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु अत्यन्त वेद ज्ञानी ऋषि थे। वे जब गुरुकुल से वेदाध्ययन करके लौटे, तब उन्हें अपने पाण्डित्य पर इतना अभिमान हो गया था कि घर आकर उन्होंने अपने पिता महर्षि आरुणि को प्रणाम भी नहीं किया। अपने पुत्र का अभिमान देखकर पिता अत्यन्त दुखी हुए। उन्होंने अपने पुत्र से कहा- "वत्स! तुमने ऐसी कौन सी ज्ञान की पुस्तक पढ़ ली है, जो बड़ों का सम्मान करना भी नहीं सिखाती? यह ठीक है कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो, वेद-ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। किन्तु क्या तुम यह भी नहीं जानते कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है? वत्स! जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती, वह न तो फलीभूत होती है और न ही विकसित होती है।''

    पिता की इस मर्मयुक्त वाणी को सुनकर श्वेतकेतु को अपनी भूल ज्ञात हुई। उन्हें स्मरण हो आया जब उनके गुरु जी ने भी एक दिन कहा था- "वत्स श्वेतकेतु! जिस प्रकार फल आने पर वृक्ष की डालियॉं झुक जाती हैंउसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात्‌ हमें भी अधिक विनम्र और शालीन हो जाना चाहिये। "विद्या ददाति विनयम्‌के इस सिद्धान्त से प्रकाश पाकर ही तुम जीवन मेें सफल हो सकते हो।'' अपनी अहंकारजनित भूल से लज्जित श्वेतकेतु पिता के चरणों में सर झुकाकर क्षमा मांगने लगे। महर्षि ने उन्हें गले लगा लिया और बोले- "अभिमान तो पुत्र की विद्वत्ता पर मुझे होना चाहियेवत्स!''

    अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्‌।।

    विद्या विनय सिखाती है। बड़ों का सम्मान करने वाले तथा सदा सत्य का आचरण करने वाले विनयी और शीलवान व्यक्ति के आयु, विद्या, यश और बल- पराक्रम बढ़ते हैं। वह स्वयं शक्तिशाली बनकर समाज और देश को भी उन्नत करता है, क्योंकि वह जानता है कि- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तथा स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्‌।।

    इस संसार में अनेकों प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपनी जीवन लीलाओं को समाप्त कर इस संसार से विदा हो जाते हैं। परन्तु जीवन वही जीवन है जो अपने कुल, वंश, समाज और राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है।

    राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियॉं कितने सुन्दर शब्दों में स्वाभिमान को जागृत करती हैं-

    निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
    हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।

    सब जाये अभी पर मान रहे,
    मरणोत्तर गुंजित गान रहे।।

    कुछ होन तजो निज साधन को,
    नर होन निराश करो मन को।।

    तात्पर्य यह है कि अन्तःप्रेरणा से प्राप्त सार्थक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अवसर की गम्भीरता को समझना अर्थात्‌ वर्तमान क्षण का सदुपयोग करनासकारात्मक सोचअनुशासन और लक्ष्य के प्रति सचेत रहते हुए आशावान रहना जितना आवश्यक हैउतना ही उस सफलता की आत्मतुष्टि को चिरस्थायी रखने के लिये आवश्यक हैं आत्मविश्वासनिरभिमानिता और सज्जनता।- रोचना भारती

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    Discipline is also very important in life to achieve meaningful goals. Once Acharya Sumedha was walking along the banks of the river Ganges with his disciples. The disciple Varatantu asked, "Acharya! Intellectual intelligence is the basis of learning or the attainment of a goal, so what is the need for rigorous discipline?"

     

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  • सूर्य और चन्द्रमा की राह पर चलो

    ओ3म्‌ स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
    पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।।
    (ऋग्वेद 5.51.15) 

    अर्थ - (सूर्याचन्द्रमसाविव) सूर्य और चन्द्रमा की तरह (स्वस्ति) कल्याण के (पन्थाम्‌) मार्ग पर (अनुचरेम) चलते रहें (पुनः) और (ददता) दान करने वाले (अघ्नता) अहिंसा-स्वभाव वाले (जानता) ज्ञानी पुरुषों की (संगमेमहि) संगति करते रहें। 

    हम सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याण के मार्ग पर चलते रहें। सूर्य और चन्द्रमा कल्याण के मार्ग पर चलते हैं। हमें भी उन्हीं की तरह कल्याण की राह पर चलना चाहिये। सूर्य और चन्द्र का मार्ग कल्याण का मार्ग किस कारण बन जाता है? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि सूर्य-चन्द्र की गति नियमित है। इतनी नियमित कि वर्षों पहले सूर्य और चन्द्र-ग्रहणों का पता लग जाता है। सूर्य-चन्द्रादि पिण्ड यदि नियमित गति से न चलें, तो परस्पर टकराकर ब्रह्माण्ड नष्ट-भ्रष्ट हो जाये। इनकी नियमित गति के ही कारण वर्ष में छः ऋतुएं बनती हैं। सरदी, गरमी और वर्षायें आती हैं। और दूसरे यह कि सूर्य-चन्द्र अपनी नियमित गति से समय-समय पर जो ऋतुएँ बनाते हैं, उनका फल लोक-कल्याण होता है। हर एक ऋतु से खास-खास प्रकार के लाभ संसार को मिलते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश और गरमी, उनका आकर्षण और विकर्षण सब संसार के कल्याण के लिये ही होते हैं। 

    Ved Katha Pravachan _96 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    हमें भी सूर्य-चन्द्र की तरह "स्वस्ति' के, कल्याण के मार्ग पर चलना चाहिए। हमारा जीवन नियमित हो, हममें समय पर सब कार्य करने की क्षमता हो और हमारी सब शक्तियॉं संसार का कल्याण करने वाली हों। 

    सूर्य प्रकाश पुञ्ज है। उसमें असीम प्रकाश है। इस असीम प्रकाश के कारण ही सूर्य के जीवन में स्वस्ति है। सूर्य की भॉंति हमें भी अपने भीतर असीम प्रकाश भरना चाहिए। हमें महाज्ञानी बनना चाहिये। हमें तृण से लेकर ईश्वर-पर्यन्त सब पदार्थों के सम्बन्ध में भांति-भांति के विद्या-विज्ञान सीखने चाहियें। सूर्य में असीम गरमी है। इस गरमी के कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमें भी सूर्य की भांति अपने जीवन में गरमी भरनी चाहिए। हमारे जीवन में उत्साह, बल, स्फूर्ति, तेजस्विता और आगे बढ़ने की भावनाओं की गरमी रहनी चाहिए। चन्द्रमा में शीतलता, सौम्यता, शान्ति और आह्लादकता का असीम गुण है। इसके कारण ही उसके जीवन में स्वस्ति है। हमारे जीवन में भी यह गुण असीम मात्रा में होना चाहिए। हमारे जीवन में सूर्य की उष्णता और चन्द्रमा की शीतलता का समन्वय होना चाहिए। और हमें अपने प्रकाश-गुण से, ज्ञान-गुण से, अपनी समझ से भली-भांति विचार करके निश्चय करना चाहिए कि हमें जीवन में कब गरमी का परिचय देना है और कब शीतलता का। अपने प्रकाश, उष्णता और शीतलता के ये तीनों गुण हमें संसार के कल्याण में ही लगाने चाहियें। 

    पर हमारे अन्दर वह शक्ति ही कैसे आए, जिसका हमें सूर्य-चन्द्र की तरह संसार के कल्याण में व्यय करना है। इसका उत्तर मन्त्र के उत्तरार्द्ध में दिया गया है। हमें अपने अन्दर योग्यता हासिल करने के लिये ऐसे पुरुषों का संग करना चाहिए जो दानी हों, अपनी शक्तियों को संसार के उपकार में लगाते हों, जो अहिंसाशील हों, संसार के प्राणियों के दुःख-दर्द मिटाने की भावना से जो कर्म करते हों, जो ज्ञानी होकर तरह-तरह की विद्याओं के तत्व का उपदेश कर सकते हों। ऐसे लोगों की संगति में रहने से हमें शक्ति प्राप्त होती है, जिसका हम सूर्य-चन्द्र की तरह लोक-कल्याण में व्यय कर सकेेंगे। 

    मनुष्य! सत्पुरुषों की संगति में बैठना सीख, उनसे शक्ति प्राप्त कर और फिर उस शक्ति को सूर्य-चन्द्र की तरह से लोक-कल्याण में लगा दे। इसी से तेरा जीवन स्वयं भी स्वस्ति (सु अस्ति) अर्थात्‌ उत्तम सत्ता वाला हो सकेगा। कल्याण का यही मार्ग है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    Humans! Learn to sit in the company of Satpurus, get power from them and then put that power in the public welfare like Surya-Chandra. With this, your life itself will also be healthy (su asti), that is, with good power. This is the path to welfare. - Acharya Priyavrat Vedavachaspati

     

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  • स्वस्थ जीवन के लिए उपयोगी बातें

    आदत बनाएँ- सुबह बिस्तर से उठने के बाद पालथी मारकर बैठें और 1-3 गिलास गुनगुना या ठण्डा पानी पिएं। दो-दो घण्टे के अन्तराल पर दिन में कम से कम 8 से 10 गिलास पानी पिएं।

    महत्वपूर्ण कारक- लम्बी सांस लें और कमर सदैव सीधी रखें। दिन में दो बार मल त्याग की आदत डालें। दिन में दो बार ठण्डे या गुनगुने पानी से स्नान करें। दिन में दो बार सुबह और शाम प्रार्थना एवं ध्यान करेंं।

    विश्राम- भोजन करने के बाद मूत्र त्याग करें और 5 से 15 मिनट तक वज्रासन की मुद्रा में बैठें।सख्त या मध्यम स्तर के बिस्तर पर सोएं और पतला तकिया लगाएं। सोते समय अपनी चिन्ताओं को भूल जाएं और अपने शरीर को ढीला छोड़ दें। पीठ के बल या दाहिनी और करवट लेकर सोने की आदत डालें। भोजन और सोने के बीच दो घण्टे का अन्तर रखें।

    Ved Katha Pravachan -14 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    व्यायाम- प्रतिदिन सुबह आधा घण्टे तक तेज सैर या जॉगिंग करें अथवा आसन-प्राणायाम/सूर्य नमस्कार करें अथवा बागवानी करें या कोई खेल खेलें अथवा तैराकी करें।

    भोजन- भोजन अच्छी तरह चबाकर धीरे-धीरे और शान्तिपूर्वक करें। अपनी भूख के मुताबिक भोजन करेंलेकिन अपना तीन-चौथाई पेट ही भरें। दिन में 7 घण्टे के अन्तर से केवल दो बार ही भोजन करें। सुबह नाश्ते में अंकुरित अन्न अथवा रात भर भिगोए हुए मेवे प्रयोग में लें।

    भोजन का एक भाग अनाज एवं एक भाग सब्जियों का रखें। पके हुए एवं कच्चे भोजन को साथ न मिलाएं। असंतृप्त वसायुक्त शुद्ध तेलों का ही प्रयोग करें और वह भी अल्प मात्रा में।

    कच्चे भोजन में अंकुरित अन्नताजी और पत्तेदार सब्जियॉंमौसम के फलसलादरसचटनीनींबूशहद का उपयोग करें। पके हुए भोजन में चोकर समेत आटाबिना पॉलिश किया चावल और दलिए का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन का इस्तेमाल करें। उबले हुए भोजन और सूप को प्राथमिकता दें। भोजन करने के बाद 15-20 मिनट तक टहलें।

    कम करें- नमकमिठाइयॉंमसालेमिर्चआइस्क्रीमपकाया हुआ भोजनआलू और गिरीदार चीजें कम मात्रा में लें।

    ऊँची एडी के जूतेकठिन व्यायाम और टी.वी. एवं फिल्मों से बचें। धूम्रपानमदिरानशीली दवाएँसॉफ्टडिंरक्सतम्बाकूजर्दाचायकॉफी एवं बुरे व्यसनों से बचें।

    अभ्यास करें- दिन में एक बार नमक मिले गुनगुने पानी से गरारे कीजिए। अपनी आँखों को स्वस्थ व इनकी चमक बनाए रखने के लिए प्रतिदिन सुबह व शाम इन्हें त्रिफला के पानी से धो लीजिए।

    सप्ताह में एक बार वमनधौति (कुंजल/वमन) कीजिए। कब्ज होने पर एनिमा लीजिए। सप्ताह में एक बार मालिश और धूप स्नान लीजिए। प्रतिदिन तालू की हल्की मालिश कीजिए। प्रतिदिन दो बार माथे व आँखों पर पानी छींटिए और मुँह में पानी भरकर रखते हुए थूक दीजिए। प्रतिदिन थोड़ी देर तक हॅंसिए और गाना गाइए।

    सावधानी बरतें- काटने से पहले सब्जियों व फलों को अच्छी तरह धोइए। क्योंकि इन पर कीटनाशक और अन्य दूषित तत्व लगे होते हैं। जहॉं तक संभव हो सकेफलों व सब्जियों को छिलके समेत खाइए। टी.वी. देखते समय समुचित दूरी पर बैठिए। -रामचन्द्र वैष्णव

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    स्वस्थ जीवन चाहने वालों के लिए आवश्यक सन्देश

    1. प्रातः सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व उठें। अच्छी तरह दॉंत और जीभ साफ करके एक या दो गिलास ताजा पानी पीयें और कुछ देर बाद शौच इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत्त हों। आँखों पर शीतल जल छिटकें।

    2. किसी खुले और स्वच्छ स्थान पर जाकर व्यायाम करें। व्यायाम में टहलनादौड़नाभिन्न-भिन्न प्रकार की कसरत और योगाभ्यास इत्यादि सम्मिलित हैं।

    3. स्नान करने से पूर्व तेल की मालिश करलें तो अत्यधिक लाभ होगा।

    4. नित्य ठण्डे जल से खूब मल-मलकर स्नान करें।

    5. स्नान के पश्चात्‌ कुछ समय स्वाध्याय करें। जीवनोपयोगी उत्तम पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं का पठन-पाठन करें।

    6. भोजन के साथ पानी पीएं। भोजन के आधा घण्टा पूर्व एक या दो घण्टे पश्चात्‌ पानी पीएं।

    7. भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व अच्छी तरह हाथ-पैर धोएँ।

    8. भोजन नियत समय पर करें। बार-बार न खाएं। दो भोजनों के मध्य कम से कम पॉंच घण्टे का अन्तर होना चाहिए। प्रातः भोजन के पश्चात्‌ एक गिलास छाछ (मट्ठा) पीना स्वास्थ्यवर्द्धक है।

    9. भोजन बिना किसी तनाव के प्रसन्नता के साथ करें और अच्छा चबाकर करें।

    10. भोजन सादा और प्रामाणिक रूप से बनाया हुआ होजिसमें पोषक तत्व नष्ट न हुए हों।भोजन हल्का और पौष्टिक करें। यह सन्तुलित होना चाहिए। भोजन बढ़ती हुई अवस्था में कम मात्रा में करना चाहिये।

    11. भोजन के साथ फल और हरी तरकारियॉं प्रचुर मात्रा में खानी चाहिये।

    12. भोजन के साथ दहीअदरकनीम्बूटमाटर का सेवन किसी न किसी रूप से जुड़ा हुआ रखें।

    13.नित्य प्रतिदिन दाल या सब्जी में हींग का प्रयोग अवश्य करें।

    14.फलों का सलाद भोजन के साथ लें।

    15. भोजन के साथ नमक की मात्रा और गरम मसालों की मात्रा अधिक नहीं होना चाहिए।

    16. आंवलानीम्बूहरड़ का नित्य प्रतिदिन सेवन किसी न किसी रूप में अवश्य करें।

    17. भोजन के पश्चात्‌ अवश्य कुछ देर विश्राम करें और कोई भारी परिश्रम का कार्य न करें।

    18. अपने कार्य को नियत समय पर समाप्त करने का प्रयत्न करेंजिससे दूसरे कामों में गड़बड़ी न हो।

    19. दिन भर में इतना काम अवश्य करेंजिससे शाम को कुछ थकावट अनुभव होने लगे। इससे बड़ी मजेदार और मीठी नीन्द आयेगी। परिश्रम करने के पश्चात्‌ थककर सोनायोग-निद्रा के समान है।

    20. शाम का भोजन कुछ हल्का रखें और सोने से कम से कम तीन घण्टे पूर्व भोजन कर लिया करें। भोजन सूर्यास्त के पूर्व ही करना चाहिये।

    21. शाम को भोजन के बाद कुछ देर खुली हवा में अवश्य टहलें।

    22. वस्त्र अधिक कसे हुए न पहनें।

    23. इच्छा शक्ति के साथ अपना कार्य करें।

    24. विचारों को शुद्ध रखें। दिन में काफी हॅंसें और सदा प्रसन्न चित्त रहने का प्रयत्न करें।

    25. रात को सोने से पहले एक गिलास गर्म दूध पीएं और नौ से दस बजे तक सो जायें।

    26. रात को सोते समय हाथपैरमुँह धोना न भूलें।

    27. संयमहीन स्त्री-पुरुषों का जीवन अशान्त तथा गया-बीता समझें। डॉ. मनोहरदास अग्रावत

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    Food- chew food properly and slowly and calmly. Eat according to your hunger, but only fill three-fourths of your stomach. Eat only twice at a time of 7 hours. Use sprouted grains in breakfast in the morning or dry fruits soaked overnight.

     

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  • स्वाधीनता आन्दोलन और आर्य समाज

    आर्य समाज के प्रवर्तक, युगनिर्माता, वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक, भारतीय संस्कृति के संवाहक, महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम राष्ट्र निर्माताओं में सदैव आदरपूर्वक लिया जाएगा। महर्षि दयानन्द ने आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में जागृति का शंखनाद तो फूंका ही था, उन्होंने देशवासियों को स्वराज्य के महत्त्व से भी अवगत कराया था। उस समय की राजनैतिक दासता की स्थिति से उनका हृदय विह्वल था। उन्होंने अपने महान ग्रंथ "सत्यार्थप्रकाश" के आठवें समुल्लास में लिखा है- "अब अभाग्योदय से और आर्यो के आलस्य, प्रमाद, परस्पर विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ भी है सो भी विदेशियों से पादाकान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, माता-पिता के समान कृपा, न्याय औय दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

  • स्वामी दयानन्द एवं साम्यवाद

    ऋषि राज तेज तेरा चहुं ओर छा रहा है।
    तेरे बताए पथ पर संसार चल रहा है।।

    उपरोक्त पंक्तियों से ऋषि दयानन्द द्वारा मण्डित वैदिक सनातन धर्म की व्यापकता एवं लोगों के उसके अनुगमन पर प्रकाश पड़ता है। लेकिन अभी भी आशातीत रूप में सफलता हासिल नहीं हो सकी है। स्वामी जी का वैदिक धर्म के प्रति अटूट विश्वास, निष्ठा एवं धर्मानुचरण अनुकरणीय था। वैदिक धर्म के अनुशीलन एवं अनुकरण से ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। स्वामी जी ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं वेद की शिक्षाओं तथा आर्य संस्कृति पर पड़ रहे विजातियों के प्रभावों को बहुत ही नजदीक से समझा, परखा एवं आत्मसात्‌ किया था। यही कारण है कि उनकी शिक्षाएं आए दिन की अग्नि परीक्षाओं में कुन्दन-सी दमकती रही। उनके कटु सत्य से ढोल ढकोसला वाले लोग विचलित हो उठे। यद्यपि उनकी शिक्षाएं मानव मात्र के लिए थी, किसी सम्प्रदाय या धर्म विशेष के लिए नहीं थी।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    कोई राष्ट्र धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता -1

    Ved Katha Pravachan -5 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    जहॉं स्वामी जी की सत्य ज्ञान गंगा में बहुत लोगों ने अवगाहन किया और अपनी जीवन धारा को ही बदल डालावहीं कुछ ऐसे नासमझ लोग भी थे जिन लोगों ने न स्वामी जी को समझा और न वेद की शिक्षा को। फलस्वरूप लोग वेद से अलग हो गये। सदज्ञान से वंचित रह गए। जो चीज उनके ज्ञान की स्रोत थी उसी चीज से विरक्ति हो गई। जो उनके लिए अमृत लाया था वही उनको कुपथमार्गी दिखने लगा। कवि ने कहा-

    पिलाया जहर का प्याला इन्हीं नादान लोगों ने।
    जिनके लिए अमृत का प्याला ले के आये थे।

    इसका दुष्परिणाम यह निकला कि जिसे लोगों ने ज्ञान समझ रखा था वह अज्ञान साबित हुआ। जिस नींव पर अपने ज्ञान का महल खड़ा किया था वह महल ही धाराशायी हो गया। भौतिक जगत की चमक दमक मन को चैन एवं शान्ति प्रदान नहीं कर सकी। आज न चैन धनवान को हैन बलवान को है और न रूपवान को। धन वाले अलग दुखी हैंनिर्धन अलग। वेद विहित मार्ग पर नहीं चलने से चैन किसी को नहीं है और न था। अगर कहीं सुख दिखाई भी दिया तो वह क्षणिक था।  

    हर युग और समय की अपनी समस्याएं होती हैं। राम के सामने समस्या थी रावण पर विजय और कृष्ण के सामने पाण्डवों को राज्य प्राप्त करानेकी। स्वामी जी के सामने कुछ और ही समस्या थी। स्वामी जी के सामने तो एक रावण या एक कौरव कुल नहींहजारों रावण एवं हजारों कौरव कुल थे। उनकी समस्या थी वेदों का प्रचारछुआछूत का अन्तढोंग पाखण्ड का खण्डन एवं स्वराज्य प्राप्ति। लोगों में व्याप्त अनास्था को आस्था में बदलना कोई सरल काम नहीं था। यह समुद्र मन्थन से भी कठिन काम था। जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व होम किया वही उन्हें दुश्मन समझते थे।

    प्राच्य संस्कृति के धर्मअर्थकाम एवं मोक्ष के महत्व और गहनता से अनभिज्ञ कुछ पाश्चात्य विचारकों ने अर्थ को ही जीवन के सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थ प्राप्ति ही माना जाने लगा। आर्थिक समानता के नाम पर नये ढंग से शोषण का सूत्रपात हुआ। साम्यवाद की शिक्षा कहती है कि पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण होता है। लेकिन उनकी व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का शोषण होता है। इस चीज को नजर अन्दाज कर दिया गया। साम्यवादी समानता मात्र आर्थिक समानता तक ही सीमित लगती है।साथ ही मानवीय जीवन के अन्य आदर्श अछूते लगते हैं।

    वैदिक समानता का सिद्धान्त अपने आप में निराला है। सभी मानवों के लिए वेदों के ज्ञान ग्रहण की समानता उत्कृष्टतम व्यवस्था का प्रतीक है। साथ ही धनोपार्जन के लिये संयमित प्रयास की आवश्यकतासाधन की पवित्रता एवं साध्य की उत्कृष्टता सम्बन्धी वैदिक सन्देश व्यवस्था वह व्यवस्था है जिसमें गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक के मानवीय व्यवहार को व्यवस्थित करने का प्रावधान है। आचार शुद्धि के बाद ही आर्थिक समानता का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव है।

    स्वामी जी के आदर्शों एवं पवित्र निर्देशों के अनुरूप अगर चला जाये तो निस्सन्देह वसुधैव कुटुम्बकम्‌ हो सकता है। लेकिन आज भौतिकवादी चकाचौंध में भूलकर मानव ने अपना स्वरूप ही खो दिया है। आये दिन हो रहे युद्धआतंक और विश्व में हुए व्यवस्था परिवर्तन नि:सन्देह आधुनिक युग में मानव सुख प्राप्ति के लिए हो रहे प्रयास की असफलता की कहानी है। काश !  आज का मानव पुन: एक बार ऋषि के त्याग एवं तपस्या के महत्व को समझ पाता। जिन मूल्यों के लिए उन्होंने अपना बलिदान कियाउन मूल्यों को मानव अपने जीवन का आदर्श बना पाता तो महर्षि का परिश्रम बहुत अंश में आर्थक होता।

    सुख चैन चाहते हो तो वेद को देखो।
    आनन्द चाहते हो तो दयानन्द को देखो।।-रामचन्द्र सिंह क्रान्तिकारी

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  • स्वामी विरजानन्द दण्डी -2

    आदर्श शिष्य द्वारा गुरु सेवा- गुरु-शिष्य सम्बन्ध का यहॉं उल्लेख करना आवश्यक है। दण्डी ऋषि सुष्टु स्वभाव के होते हुए भी वृद्धवस्था के कारण कुछ तीक्ष्ण और क्रोधी वृत्ति के थे। इसके विपरीत दयानन्द अत्यन्त विनम्र, अध्ययनशीन, आज्ञाकारी और गुरु चरणों में अविचल श्रद्धा रखने वाले थे। दण्डी जी शीघ्र ही यह भांप गये थे कि दयानन्द उनके अन्य शिष्यों की तुलना में विशिष्ट और कुछ असाधारण गुणों का पुंज है। दण्डी जी बारहों महीने यमुना नदी के मध्यवर्ती जलधारा से स्नान और उसी का पान करने के अभ्यासी थे। दण्डी जी की सेवा का यह व्रत दयानन्द ने स्वयं ही अपनी इच्छा से सहर्ष स्वीकार किया। लगभग 3 वर्ष तक के अपने शिक्षाकाल में दयानन्द प्रतिदिन भोर बेला में बिना सर्दी-गर्मी, बरसात, आन्धी की परवाह किए यमुना जल के लगभग 15 घड़ों से गुरु जी को स्नान कराते और उनके लिए पेय जल लाते।

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    Ved Katha Pravachan _71 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    गुरु जी का प्रकोप शिष्य द्वारा सेवा पूर्ववत्‌- दण्डी जी के निवास स्थान को दयानन्द प्रतिदिन झाडू देकर साफ करते थे। एक दिन कूड़ा उठाकर उन्होंने कमरे के एक कोने में रख दिया और उसे बाहर उठाकर ले जाने के लिए कुछ चीज खोजने लगे। इतने में गुरु जी टहलते हुए उधर आ निकले। उनका पांव कूड़े पर पड़ गया। अत्यन्त क्रोधावेश में आ गये और स्वामी दयानन्द पर लाठी का प्रहार कर दिया और कठोर वचन भी कहे। स्वामी जी ने गुरु के इस दण्ड को सहर्ष अंगीकार किया। यद्यपि इस मामले में वे दोषी नहीं थे। जिस समय गुरु जी शान्त हुए तो स्वामी दयानन्द ने उनके चरणों और शरीर को श्रद्धा से सहलाना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि "गुरुवर ! मैं तो युवा हूँ पर आप वृद्ध हैं। आपका दण्ड तो मेरे लिए अमृतवत्‌ है। मेरा शरीर कठोर है, पर आपके वृद्ध, जर्जरित अस्थिमात्र शरीर में पीड़ा हो गई होगी, इसलिए मैं मालिश से उसे दूर करता हूँ।" गुरु अपने शिष्य की इस सेवा भावना से गदगद्‌ हो गये। इसी का यह परिणाम था कि गुरु-शिष्य का कई घण्टों तक प्राय: एकान्त में वार्तालाप होता था। निश्चिय ही गुरु जी को यह दृढ विश्वास हो गया था कि दयानन्द शिष्य सामान्य व्यक्ति नहीं है, किन्तु भारत का एक अनोखा रत्न है।

    गुरु से विदाई : गुरु दक्षिणा- लगभग 3 वर्ष तक दण्डी जी के चरणों में अन्तेवासी के रूप में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अब शिष्य दयानन्द की विदाई का समय आ गया। स्वामी दयानन्द की प्रबल इच्छा थी कि गुरु जी से प्राप्त शिक्षा को कार्यान्वित करने के लिये देशाटन करूं। पर खाली हाथ गुरु जी से विदा होना भारतीय परम्परा के विरुद्ध था। दयानन्द अत्यन्त विनम्रभाव से कुछ लौंग लेकर गुरुचरणों में उपस्थित हुए और बोले, "भगवन्‌! आपने विद्यादान कर मुझ पर जो उपकार किये हैं, उनसे मैं आजन्म उऋण नहीं हो सकता। पर अपनी हार्दिक श्रद्धा के प्रतीक ये कुछ लौंग आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं।" दण्डी जी ने स्मितहास्य के साथ कहा, "वत्स! मैं पार्थिव वस्तु की यह दक्षिणा नहीं चाहता। मैं अन्य वस्तु तुम से मांगता हूं और वह तुम्हारे पास है। तुम्हें कहीं से लानी नहीं पड़ेगी।" दयानन्द ने निवेदन किया, "गुरुदेव! मैं पूर्ण रूप से आपके चरणों में समर्पित हूँ। आज जो आदेश करेंगे, मैं उसे आजीवन निभाऊगां।" गुरु ने कहा, "मैं तुमसे यही दक्षिणा मांगता हूँ कि तुम आजीवन आर्ष ग्रन्थों का प्रचार और अनार्ष ग्रन्थों का खण्डन करते हुए वैदिक धर्म की स्थापना हेतु अपना प्राण तक अगर न्यौछावर करना पड़े तो तुम संकोच नहीं करोगे।" ऋषि दयानन्द ने गुरुदेव के श्रीचरणों को स्पर्श करते हुए कहा, "आपका शिष्य आपके इस आदेश का प्राणपन से पालन करेगा।" गुरुदेव ने अपने स्नेहमय कर कमलों से दयानन्द के सिर पर हाथ फेरते हुए हार्दिक आर्शीवाद दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य का भौतिक सम्बन्ध तो समाप्त हुआ, पर आत्मिक सम्बन्ध आजीवन अटूट रहा।

    ऋषि दयानन्द ने अपने समस्त ग्रन्थों में अपने आपको "विरजानन्द दण्डी शिष्य" इन शब्दों से गौरवान्वित करते हुए अपने आचार्य वर की पुण्यस्मृति को दैदीप्यमान रखा।

    दण्डी जी का स्वर्गवास- दण्डी विरजानन्द का स्वर्गवास लगभग 82 वर्ष की आयु में सम्वत्‌ 1925 आश्विन वदी त्रयोदशी सोमवार (तद्‌नुसार 14 सितम्बर 1868) को हुआ। ऋषिवर दयानन्द ने इस दु:खद समाचार को सुन कर कहा "आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।"

    इस वीतराग संन्यासी की पुण्य स्मृति में आर्यसमाज की ओर से करतारपुर में "श्री विरजानन्द स्मारक भवन" स्थापित किया गया है। 14 सितम्बर 1970 को भारत सरकार द्वारा दण्डी जी की पुण्य स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया। जब देश में दण्डी विरजानन्द जी जैसे गुरु और स्वामी दयानन्द जैसे शिष्य होंगे तभी देश का कल्याण होगा। - दीनानाथ सिद्धान्तालंकार

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