ऋषि दयानन्द अपने युग की महान विभूति थे। उनके व्यक्तित्व में तेजस्विता, अखण्ड ब्रह्मचर्य, अपूर्व क्रान्ति, योगानुभूति, चुम्बकीय प्रभाव आदि गुण थे। भीष्म पितामह के बाद उनसे बड़ा कोई ब्रह्मचारी नहीं हुआ। जगत् गुरु शंकराचार्य के पश्चात उनसे बड़ा कोई विद्वान् नहीं हुआ। वे सत्य के पुजारी थे। सत्य के लिए ही जिये और सत्य के लिए ही उन्होंने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने सत्य के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। उन्हें सत्य से कोई डिगा नहीं सका। सत्य की रक्षा के लिए उन्हें अनेकों बार जहर पीना पड़ा। वे जीवित शहीद थे। सत्य की यज्ञाग्नि में उन्होंने अपना सर्वस्व होम कर दिया था। गुरुडम और मूर्तिपूजा का खण्डन न करने के लिए उन्हें एकलिंग की गद्दी व अपार धन-ऐश्वर्य का प्रलोभन दिया गया। किन्तु वह निराला तपस्वी, त्यागी, यति अपने ध्येय से टस से मस नहीं हुआ। काशी के विद्वानों ने लालच दिया कि यदि आप मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवाद के विरोध में बोलना बन्द कर दें तो हम आपकी हाथी पर सवारी निकाल कर आपको अवतार घोषित कर सकते हैं। किन्तु सत्य के उद्धारक ऋषिवर अपने संकल्प से किंचित विचलित नहीं हुए। सत्यासत्य के प्रकाश के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश की रचना की। संसार की आंखों पर पड़ी अज्ञान, अन्धकार, असत्य, पाप-पाखण्ड आदि की पट्टी को खोलकर सबको सत्य मार्ग दिखाया। उनका संकल्प था- ऋतं वदिष्यामि, सत्यं वदिष्यामि। इस व्रत को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया। सच्चे शिव की खोज में वे घर से निकले थे। सत्य रूप शिव को उन्होंने पाया और उसको संसार को दिखाया।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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Ved Katha Pravachan -9 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
ऋषि की सत्यनिष्ठा- वह पुण्यात्मा संसार में सत्य की नई रोशनी लेकर आया था। सत्य के प्रकाश के मार्ग में जो पाखण्ड, आडम्बर, रूढियॉं, अवतार, पीर पैगम्बर, मसीहा, महन्त आदि आए, उन्हें तर्क प्रमाण व युक्ति से परास्त किया और "सत्यमेव जयते" के आर्ष वाक्य को जीवित रखा। वे सत्य के कथन में कठोर थे। सत्य के आगे किसी से डरे नहीं और समाज के नियमों में सत्य को पांच बार दोहराया। उनकी दृष्टि में सत्य सर्वोपरि था। वे संसार में सत्य-सनातन वैदिक धर्म प्रचारित एवं प्रसारित करने आए थे। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने ईंट, पत्थर तथा गालियॉं खाई। वे इस भूली-भटकी मानव जाति को सत्य पथ दिखाने के लिए संसार में आए थे। इसीलिए वे सदा सत्य के उद्घोषक रहे। उनके जीवन, व्यवहार और कथन में सत्य ही निकलता था। बरेली के व्याख्यान में कलेक्टर व कमिश्नर को डांटते हुए सम्बोधन में कहा- लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करो, कलेक्टर क्रोधित होगा, कमिश्नर अप्रसन्न होगा, गवर्नर पीड़ा देगा। अरे! चक्रवर्ती राजा क्यों न अप्रसन्न हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। ऐसी थी उस सत्यवादी ऋषि की निर्भीकता। एक बार सहारनपुर में जैनियों ने कुपित होकर विज्ञापन निकाला। एक भक्त ऋषि के पास आए। बड़े दुखी मन से कहा कि महाराज जैन मत वाले आपको जेल में बन्द कराना चाहते हैं। स्वामी जी ने कहा- भाई! सोने को जितना तपाया जाता है, उतना ही कुन्दन होता है। विरोध की अग्नि में सत्य और चमकता है। दयानन्द को यदि कोई तोपों के मुख के आगे रखकर भी पूछेगा कि सत्य क्या है, तब भी उसके मुख से सत्य और वेद की श्रुति ही निकलेगी। वे सत्य के उपासक थे। जोधपुर जाते समय लोगों ने कहा- स्वामी जी आप जहॉं जा रहे हैं वहॉं के लोग कठोर प्रकृति के हैं। कहीं ऐसा न हो कि सत्योपदेश से चिढकर वे आपको हानि पहुंचाएं। प्रभु विश्वासी ऋषि ने कहा- यदि लोग हमारी उंगलियों की बत्ती बनाकर जला दें तो कोई चिन्ता नहीं। मैं वहॉं जाकर अवश्य उपदेश दूंगा। वह निडर संन्यासी सत्य के पालन के कारण जीवन भर अपमान, विरोध और जहर पीता रहा। उन्होंने मृत्यु को हंसते-हंसते वरण किया। वे कभी भी अन्याय, असत्य व अधर्म की ओर नहीं झुके।
असत्य से समझौता नहीं- ऋषि की वाणी में अद्भुत शक्ति और प्रभाव था। जिसने भी उन्हें सुना और उनके सम्पर्क में आया वह प्रेरित होकर लौटा। न जाने कितने मुंशीराम, अमीचन्द और गुरुदत्तों को उन्होंने नये जीवन दिए। उनके तप: पूत जीवन से निकली पवित्र वाणी लोगों के जीवन में चमत्कार का कार्य करती थी।
जोधपुर प्रवास में एक दिन ऋषिवर महाराजा यशवन्त सिंह के दरबार में पहुंचे। महाराजा ऋषि का बड़ा आदर सम्मान करते थे। उस समय महाराजा के पास नन्हीं बाई वेश्या आई हुई थी। ऋषि के आगमन से महाराज घबरा गए। वेश्या की डोली को स्वयं कन्धा लगाकर जल्दी से उठवा दिया। किन्तु इस दृश्य को देखकर पवित्रात्मा ऋषि को अत्यन्त दु:ख हुआ। उन्होंने कहा- राजन् ! राजा लोग सिंह समान समझे जाते हैं। स्थान-स्थान पर भटकने वाली वेश्या कुतिया के सदृश होती है। एक सिंह को कुतिया का साथ अच्छा नहीं होता? इस कुव्यसन के कारण धर्म-कर्म भ्रष्ट हो जाता है। मान-मर्यादा को बट्टा लगता है। इस कठोर सत्य से राजा का हृदय परिवर्तन हो गया। नन्हीं बाई की राजदरबार से आवभगत उठ गई। उसे बड़ी गहरी ठेस पहुंची। उसने षड्यन्त्र रचा। इस षड्यन्त्र में ऋषि के विरोधी भी सम्मिलित हो गए। स्वामी जी के विश्वस्त पाचक को लालच देकर फोड़ा गया। पाचक ने रात्रि को दूध में हलाहल घोलकर पिला दिया। सत्य का पुजारी सत्य पर शहीद हो गया। वह युग पुरुष शारीरिक कष्ट वेदना सहता हुआ, घोर अंधेरी अमावस्या की रात में संसार को ज्ञान व प्रकाश की दीपावली देता हुआ सदा के लिए विदा हो गया। इसलिए दीवाली का पर्व ऋषि भक्तों और आर्य विचारधारा वालों के लिए विशेष सन्देश व प्रेरणा लेकर आता है। हर साल दीवाली आती है, धूम-धड़ाके, खान-पान, मेले व श्रद्धाञ्जलि तक सीमित रह जाती है? ऋषि की व्यथा-कथा को कोई नहीं सुन पाता है।
हम और हमारी श्रद्धाञ्जलि- ऋषि भक्तो ! आर्यो ! उठो ! जागो ! आंखें खोलो ! सोचो ! हृदय की धड़कनों पर हाथ रखकर अपने से पूछो हम दयानन्द और उनके मिशन आर्य समाज के लिए क्या कर रहे हैं? हम उस ऋषि के कार्य को कितना आगे बढा रहे हैं? उसके प्रचार-प्रसार के लिए कितना योगदान दे रहे हैं? उस योगी की आत्मा जहॉं भी होगी हमसे पूछ रही होगी- आर्यो ! मैंने जो सत्य-सनातन वैदिक धर्म की मशाल तुम्हारे हाथों में दी थी, उसे तुम समाज मन्दिर में बने स्कूल, दुकान, बारातघर और औषधालय के कोने में रखकर वेद की ज्योति जलती रहे, ओ3म् का झण्डा ऊंचा रहे बोलकर शान्ति पाठ कर रहे हो? मैंने जिन बातों का विरोध किया था, जिस पाखण्ड, गुरुडम, अज्ञान आदि को दूर करने के लिए मैं जीवन भर जहर पीता रहा, वही सब कुछ तुम जीवन में घर और मन्दिरों में कर रहे हो। जिस सहशिक्षा और अंग्रेजियत की शिक्षा का मैं विरोधी रहा, वही सब कुछ तुम समाज मन्दिरों में महापुरुषों के चित्रों के नीचे कव्वालियॉं और लड़के-लड़कियों के नाच करा रहे हो। मेरे नाम को व्यापार बनाकर धन बटोरकर मौजमस्ती ले रहे हो? मैंने तुम्हें जीवन जगत् के लिए श्रेष्ठ सीधा सच्चा व सरल मार्ग दिखाया था। जो प्रभु का आदेश, उपदेश और सन्देश वेदवाणी है उसका तुम्हें आधार दिया था। उसके प्रचार-प्रसार का कार्य छोड़कर तुम भी भवनों, दुकानों, स्कूलों और एफडियों की लाइन में लग रहे हो? पद, मान, महत्त्व और सत्ता के लिए ऐसे लड़ने लगे हो जैसे परस्पर पशु लड़ते हैं। तुम्हारी इस चुनावी जंग को देखकर
श्रद्धालु भावनाशील और विचारों व सिद्धान्तों को प्यार करने वाले लोग तुमसे अलग होते जा रहे हैं। जो मैंने तुम्हें आर्य समाज के माध्यम से श्रेष्ठतम विचारों का चिन्तन दिया था, उसे तुमने इतना संकीर्ण, सीमित बना दिया है कि अनुयायियों व प्रभाव की दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है। समाज मन्दिरों को जलसे, जलूस व लंगरों तक सीमित करते जा रहे हो। समाज मन्दिरों की दशा, वातावरण, परिस्थिति आदि को देखकर रोना आता है। क्या मेरे किए हुए कार्यों का यही प्रतिदान है? यही स्मरण है, यही श्रद्धाञ्जलि है? यदि यही है तो आर्यों ! मुझे माफ करो ! मैंने आर्य समाज को बनाकर बड़ी भूल की? मुझे ये उम्मीद न थी जिस रूप में आज समाज है और जिस दिशा में जा रहा है।
ऋषि के बलिदान दिवस पर शान्त भाव से सच्चाई को समझकर यदि कुछ हम जीवन और आर्य समाज के लिए सोच सकें, कुछ अपने को बदल सकें, कुछ दिशाबोध ले सकें, ऋषि के दर्द को समझ सकें, मिशन के लिए तप, त्याग, सेवा का भाव जगा सकें तो ये लिखी पंक्तियां सार्थक समझी जाएंगी। - डॉ. महेश विद्यालंकार
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There is no compromise with untruth - the sage's voice had amazing power and influence. Whoever heard them and came in contact with them returned inspired. Do not know how many Munshiram, Amichand and Gurudattas gave them new life. The sacred voice that came out of his tenacity and life was a miracle in people's lives.
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