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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna is the only Mandir in Indore controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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  • प्रभु से मांगना सीखिए

    हम सब याचक हैं, मांगते हैं। मांगना, याचना करना हमारी आदिम मनोवृत्ति है। परमपिता परमात्मा से, परमशक्ति से मांगना मानव की आदिम प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से सिद्ध है। हम आपस में मांगते हैं तो छोटे-बड़े आदि का भेद होता है। पर परमात्मा से मांगने में हम सब एक हैं। वहॉं ऊँच-नीच, अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं। सब अपने-अपने स्तर के अनुसार अपनी मनोकामना याचना के रूप में प्रभु के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूँकि प्रभु चैतन्य हैं, अन्तर्यामी हैं अत: सबकी याचनाएँ उनके द्वारा प्रस्तुत करने के पूर्व ही जान लेते हैं। सरल भाषा में कहें तो सबकी प्रार्थनाएँ सुन लेते हैं।

    Ved Katha Pravachan _103 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    सृष्टि रचयितानियन्ता एवं सर्वशक्तिमान प्रभु की सत्ता समझने से पहिले जरा कुछ दृश्य देखिए । विश्व की अथाह सम्पदा के ज्ञात धनाढ्‌यों में बिल गेट्‌सअरब अमीरात के सुल्तानलक्ष्मी मित्तल और भारत के अम्बानी बन्धुटाटाबिड़ला। इनमें से कोई एक धनपति प्रात: कालीन सूर्योदय की स्वर्णिम प्रभा का आनन्द उठाने कन्याकुमारी के तट पर भ्रमण कर रहा है। शीतल मन्द समीर ने वातावरण को बहुत ही सुखद बना दिया है। इस वातावरण ने कुछ समय के लिये ही सहीउसकी चिन्ताओं का भार हल्का कर दिया है। मन प्रफुल्ल है। इतने में ही एक भिखारी टकरा गया। बाबाभीख दोबाबा नाम से सम्बोधित धनिक ने पूछाक्या चाहिएउत्तर मिलाचवन्नी का जमाना चला गया। एक रूपया लूंगा। बाबा ने कहा- कुछ औरभिखारी समझा कुछ नहीं देना चाहता इसलिए कुछ और कह रहा है। कहा- मैं एक रुपया मांगता हूँदेना हो तो दे दो। लक्ष्मी-मित्तलबिल गेट्‌स सोचता है कि इस अज्ञानी को मालूम नहीं कि मैं कौन हूँक्या कुछ दे सकता हूँऔर यह एक रुपया ही मांग रहा है। यह तो आज की स्वर्णिम बेला में कुछ भीलाख दो लाख मांगता तो भीमैं एक क्षण सोचे बिना इसे दे देता। बाबा ने एक रुपया दे दिया। मांगने वाला खुशदेने वाला नाखुश। प्रभु से मांगने में हम समस्त मानवों की यही स्थिति रहती है। हम सब अपनी-अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये ही प्रभु से याचना करते हैं और नहीं जानते कि वह क्या कुछ दे चुका है अथवा दे सकता है।

    प्रभु के समक्ष हम मानव क्या याचना करते हैंजरा देखिए तो-

    कुम्हार याचना करेगासूरज तपता रहे। जितना ज्यादा तपेगा उतनी जल्दी उसके मिट्‌टी के बर्तन सूखेंगे। किसान प्रभु से मांगेगा कि घनघोर वर्षा होउसकी जोती-बोई फसल लहलहा जावे। मुकदमे के दोनों पक्षधर मांगेंगे उसकी विजय हो। हत्याबलात्कारजघन्य सामूहिक हत्याओं के जिम्मेदार निरंकुश तानाशाह भी अपनी जिन्दगी की भीख मांगते होंगेआजकल के राजनेता बड़े जोश-खरोश से यज्ञ-यागभजन-पूजन कर याचना करते हैं कि प्रभु उनकी पार्टी की जीत हो और उन्हें जनता का खून-चूसने का मौका एक बार और मिले। सन्तानहीन महिला लड़ाई होने पर पड़ोसन की नवागता पुत्रवधु को शाप देती हुई प्रभु से प्रार्थना करेगी कि यह निपूती मर जायेइसके वंश का नाश हो जाये। विद्यार्थी अध्ययन न करने पर भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने की मांग रखेंगे। हिन्दू मंगतों की स्थिति बड़ी दयनीय है । वह यह भी नहीं देखते कि किस देवता से क्या मांगना चाहिए। यदि युवतियॉं हनुमान जी से प्रेम में सफलता या उत्तम वर पाने की मांग रखें तो हनुमान जी ऐसे संकट में पड़ेंगे कि संकटमोचन उपाधि तत्काल उतारने को जी चाहेगा। यही स्थिति तब भी होगी जब कोई विवाहिता महिला उनसे पुत्र मांग बैठे।

    यही नहीं किसी एक देवता पर भी हिन्दू भक्त को विश्वास नहीं है। यदि हनुमान जी प्रसन्न नहीं होंगे तो राम जीयदि राम जी भी नहीं तो सीताराधाकृष्णशिव-पार्वती कोई तो होगातैंतीस करोड़ हैं। यदि इनसे भी काम नहीं बना तो पीर साहब हैंवह (हिन्दू भक्त) यह भी नहीं सोचता कि जिन पीर साहब से वह मांग रहा हैउनका शव तो खुद कब्र में पड़ा कयामत का इन्तजार कर रहा है। बहुतायत हिन्दू मूर्तिपूजक तो हैं हीशव पूजक भी सिद्ध हैं। गुरुद्वारे में भी तो अरदास लगाई जा सकती है। जालंधर के एक गुरुद्वारे में विदेश यात्रा के इच्छुक भक्तों को सौ रुपये से लेकर पांच सौ तक का वायुयान चढावे में देने पर गुरुग्रन्थ साहिब अवश्य मनोकामना पूरी करेंगे- आश्वासन दिया जा रहा है। प्रेम-प्रसंगों की बात ही छोड़िए ऐसी असंख्य मांगें प्रभु के सामने प्रस्तुत की जाती हैं।

    ऐसी मांगों की पूर्ति के करने के लिये भगवान को रिश्वत देने का प्रस्ताव भी बड़ी सुन्दरता से किया जाता है। यह तो आम प्रार्थना है। हे प्रभु ! यदि आप मेरी याचना स्वीकार कर लेंगे तोमांग पूरी कर देंगे तो आपको सवा किलो का प्रसाद चढाऊँगा/चढाऊँगी। यह सवा किलो से सवा मनफिर प्रसाद का प्रकार परिवर्तन चढावा-चादर से लेकर चांदीअपार सम्पत्ति इकट्‌ठी होती जा रही है। भगवान के पास पहुँचती नहीं दिखती। ठीकउसी प्रकार जिस प्रकार श्राद्ध पक्ष में पण्डितोंकौवों को खिलाया हुआ पितरों तक स्वर्ग पहुँचता नहीं दिखता।

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    हमारे में से कुछेक की मनोकामना पूरी हुई तो हजार मुख से प्रचारित होगा कि ऐसी उल्टी-सीधी मनोकामना की पूर्ति भी भगवान करता हैयदि यह कामना/याचना "सच्चे मन" से की जावे। "सच्चे मन का तत्व" इसलिये प्रविष्ट करा दिया जाता है कि यदि कामना की पूर्ति नहीं हुई तो आरोप जड़ा जा सकता है कि तुम्हारा मन "सच्चा" नहीं था। गणेश जी ने भी दुग्धपान किसी आर्यसमाजी से नहीं किया होगाक्योंकि इस काम के लिये उसका मन सच्चा नहीं माना जायेगा। यह व्यक्ति आर्यसमाजी हैजानकर किसी गणेश भक्त ने उस आर्यसमाजी से अनुरोध भी नहीं किया होगा कि वह गणेश प्रतिमा को दुग्धपान करावे। गणेश जी ने दुग्धपान किया थाइसका कारण र्डीीषरलश ींशपीळेप को बताते हुए वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का प्रयास जिस भारतीय वैज्ञानिक ने किया था वह भी संस्कारवश पौराणिक परिवार में ही उत्पन्न हुआ होगा।

    थोड़ा व्यतिरेक हो गया दिखता हैलेकिन ऊटपटांग कामनाओं की पूर्ति ईश्वर करता है या नहींइसका स्पष्ट विवेचन आवश्यक प्रतीत हुआ। वास्तविकता ऐसी नहीं है। वेद का ईश्वर यदि पौराणिकों के ईश्वर की तरह किया करता तो मुस्कराता और कहता- ये याचक न मुझे समझते हैं और न मेरी रचना सृष्टि को। इस सम्पूर्ण सृष्टिकेवल यह पृथ्वी ही नहींचॉंद-सितारेअसंख्य सूर्यअसंख्य आकाश गंगाएँइन सबका रचयितानियन्ता मैंसर्वशक्तिमाननिराकार परब्रह्म हूँ। समस्त कार्य-व्यापारों का नियम न्यायपूर्वक करता हूँ। ईश्वर के इस स्वरूप को न समझते हुए हम मांगते हैं- धन-दौलतमोटरमकानपुत्र-पुत्रीमुकदमे में जीतशत्रु का विनाशदैहिक प्रेम में सफलता आदि- आदि।

    ईश्वर कहता है - सुख-समृद्धि और ये समस्त याचना की गई वस्तुओं को देने का एक मैकेनिज्मएक विधि समस्त मानवों के लिये मैंने निर्धारित कर दी है। मेरे अनन्त वैभव सेअपार क्षमता सेसर्वशक्तिमत्ता से तुम भरपूर लाभ उठा सकते हो। लेकिन माध्यम वही तरीका होगा जिसे विद्वान लोग "कर्मफल सिद्धान्त" के रूप में निरूपित करते हैं। और इसी सिद्धान्त के अनुसार तुम्हारे अनन्त जन्मों केअनन्त पाप-पुण्यों के कर्मों के लेखे अनुसार जो तत्व शेष रहता है उसे "प्रारब्ध" के रूप में परिभाषित करते हैं। सौभाग्य ऐसी कुछ चीज नहीं है जिसे मैं कुछ को देता हूँ और कुछ को नहीं देता।

    महाकवि तुलसीदास का यह वचन सत्य नहीं है- "रहिए जिस विध राम रचि राखा"। रचा तुमने हैकर्म तुमने किए हैंकेवल फल का निर्धारण राम (परमात्मा) ने अपने पास सुरक्षित रखा है। और उस कर्मफल-भाग्य के सहारे मनुष्य कैसे-कैसे नाच नाचता है। इस कर्मफल सिद्धान्त का नियमन परम दयालु परमात्मा अत्यन्त कठोर प्रतीत होने वाली न्याय प्रक्रिया द्वारा करता है।

    मानवतू मेरी रचना है। मैंने तुझे देह देकर सृष्टि के समस्त भौतिक सुखों का आनन्द लेने के लिएमेरी रचना सामर्थ्य देखने के लिये तेरा निर्माण किया है । पर तेरी यह देह भौतिक सुखों के उपभोग के अतिरिक्त और कुछ कर्म-सुकर्म करने के लिये भी दी है। दिए हैं तुझे कुल सौ वर्ष। भोगयोनि से पृथक्‌ करने के लिये "बुद्धि" दी है। तू मुझे व मेरी रचना को समझ। सत्‌ चित्त से आनन्द की ओर अग्रसर करने के लिये ही यह "धी" तुझे दी है। तुझे स्वत: ज्ञान नहीं दियापरन्तु समस्त ज्ञान-विज्ञान के भण्डार वेद तुझे उपलब्ध करा दिए हैं।

    तू अल्पज्ञ हैइसलिये मैं तुझे यह भी बताता हूँ कि तुझे मुझसे क्या मांगना चाहिए। हे देहधारी मनुष्य ! कामक्रोधलोभमोहमदमत्सर में तू सभी अन्य जीवधारियों के सदृश है। इनसे युक्त कार्य-व्यवहार में अन्य जीवधारियों से तुझमें रंचमात्र भी भेद नहीं रखा। इनसे जनित कामनाओंवासनाओं की पूर्ति भी इन जीवधारियों के समान ही तू भी करेगा- परतुझे दी है बुद्धि और विवेक। यही अच्छे-बुरे कर्म का निर्णय करेगी। तेरी सहायता के लिये ही तो मैं तेरे हृदय स्थल में विराजमान हूँ। बुरा काम करने के पहिले चेतावनी दूँगा- भयशंका व लज्जा तेरे मन में उत्पन्न करुँगा- अच्छा काम-सत्कार्य करने पर तेरा मन आनन्दअल्हाद से भर दूँगा। होगा यह क्षण मात्र में ही। मान या न मान तेरी मर्जी। और इस प्रकार विवेक/अविवेक से किए गए कर्मतेरा कर्मफल-भाग्य या दुर्भाग्य निर्धारित करेंगे और तदनुसार ही तुझे सुख-दु:ख मिलेंगे।

    इसलिए तुझे बताता हूँ कि तू मुझसे क्या मांग-

    1. धियो यो न: प्रचोदयात्‌।
    2. दुरितानि परासुव।
    3. उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌।
    4. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।

       सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित्‌ दु:ख भाग्‌भवेत्‌।
    5. द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति:। शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।

    सम्पूर्ण वेद में अपनी तथा समस्त सृष्टि के कल्याण की कामना के अनेक मन्त्र मिल जायेंगेवही मांग और कुछ मांगने योग्य नहीं। अभिमन्यु कुमार खुल्लर

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    In order to fulfill such demands, a proposal to bribe God is also made with great beauty. This is a common prayer. Oh God ! If you accept my petition, then if you fulfill the demand, then I will offer you a prasad of 1.25 kg. This change from a quarter to a quarter to a quarter to a quarter, then from offerings to silver, immense wealth is being collected. Do not appear to reach God. Exactly, in the same way that heaven does not appear to the ancestors and crows fed to the fathers in the Shraddha Paksha.

     

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  • प्रभु-कृपा

    ओ3म्‌ उत न सुभगॉं अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः।
    स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि।। ऋग्वेद 1.4.6

    ऋषिः मधुच्छन्दा।। देवता इन्द्रः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय - हे पापों और बुराइयों का नाश करने वाले जगदीश्वर! तुम्हारी कृपा से मैं इतना उच्च हो जाऊँ कि मेरी अच्छाइयों का बखान मेरे शत्रु भी करें। मेरी ओर से तो मेरा कोई शत्रु नहीं होना चाहिए। पर जो मेरे प्रतिद्वन्द्वी हैं, जिनके विचार मेरे विचारों से नहीं मिलते, जो मेरे वायुमण्डल से बिलकुल उलटे वायुमण्डल में रहते हैं, उन मेरे विरोधी भाइयों के लिए यह स्वाभाविक होगा कि उनके कानों में सदा मेरे अवगुण ही पहुँचें और उनका दृष्टिकोण ही ऐसा होगा कि उन्हें मेरी बुराइयॉं ही सहज में दिखाई देवें। पर हे प्रभो! यदि मेरा जीवन बिलकुल पवित्र होगा, मेरे आचरण में सर्वथा सचाई और शुद्धता होगी तो मेरे जीवन का उस दूरस्थ (विचारों से मुझसे दूर रहने वाले) भाई पर भी असर क्यों न होगा? बस, हे प्रभो! मेरे अन्दर से सब बुराइयों का नाश करके मुझे ऐसा उच्च बना दो कि जो मुझसे इतनी विपरीत परिस्थिति में रहते हैं, उन पर भी मेरी अच्छाई की, उच्चता की छाप पड़े बिना न रहे। सामान्य मनुष्य तो मुझे अच्छा कहेंगे ही, मेरी स्तुति करेंगे ही, पर इन विरोधियों के अन्तःकरण भी मेरी विशुद्धता को पहचानें, यही इच्छा है।

    Ved Katha Pravachan _95 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    अपने सच्चे विरोधियों से जो यश मिलेगा वह खरा यश होगा। उसमें अत्युक्ति आदि का खोट न होगा। मित्रों और उदासीनों से तो यश मिला ही करता है, उसमें कुछ विशेषता नहीं, उसका कुछ मूल्य नहीं। 

    पर हे प्रभो! इस यश को पाकर मैं फूल नहीं जाऊँगा। तुम्हें भूल नहीं पाऊँगा। बल्कि इस यश को भूला रहकर सदा तुम्हारी ही याद में सुखी रहूँगा। यह यश मेरी विशुद्धता की पहचानमात्र होगा, यह मेरे सब सुख का कारण कभी नहीं होगा। मेरा सुख तो तुम्हारी शरण में है। बाहरी दुनिया चाहे मेरी घोर निन्दा करे, मुझे अपमानित करे, तो भी मैं तेरे प्रसाद से पाये सुख से वैसा ही सुखी रहूंगा, जैसा कि बाहरी यश पाने पर हूँ। मेरा सुख या दुःख बाहरी यश या अपयश पर अवलम्बित न होगा। हे प्रभो ! ऐसी कृपा करो कि तुझ परमेश्वर की प्रसन्नता से पाये हुए सुख में ही मैं सदा सुखी, आनन्दित और सन्तुष्ट रहूँ। बाहरी यश द्वारा सुख पाने की चाह मुझमें कभी उत्पन्न न हो। बाहरी यश मिलते रहने पर भी उस यश से सुख पाने की चाह मुझमें कभी उत्पन्न न हो। मैं तुम्हारे ही सुख में रहूँ। 

    शब्दार्थ- दस्म=हे पापनाशक इन्द्र! अरिः उत=शत्रु भी नः सुभगान्‌ (वोचेयुः)=हमारी अच्छाइयों को, हमारे सौभाग्यों को कहें उ=और कृष्टयः वोचेयुः=सामान्य मनुष्य तो कहें ही। फिर भी हम इन्द्रस्य इत्‌=तुझ परमेश्वर के ही शर्मणि=सुख में स्याम=रहें, होवें। आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

     

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    But oh my God! I will not flower after getting this fame. I will not be able to forget you. Rather forgetting this fame, I will always be happy in your memory. This fame will be the hallmark of my purity, it will never be the reason for all my happiness. My happiness is in your shelter. Even if the outside world blasphemes me, insults me, I will still be happy with the happiness you get from your offerings, just as I am on external fame. My happiness or sorrow will not be dependent on external fame or waste. Oh, Lord ! May I always be happy, happy and content in the happiness you get from the happiness of God. The desire for happiness through external fame should never arise in me. Even after getting external fame, the desire to get happiness from that fame should never arise in me. I will be in your happiness only.

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  • प्रभो ! मुझे वाणी की मधुरता प्रदान कीजिये

    ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।
    औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

    ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के इक्कीसवें सूक्त के छठे मन्त्र में जहॉं अपने उल्लासमय जीवन के लिये अनेक प्रार्थनायें की गई हैं, वहीं "वाचः स्वाद्‌मानं धेहि' कहते हुए वाणी की मधुरता प्रदान करने की भी प्रार्थना परमात्मा से की गई है।

    मनुष्य जीवन में वाणी का बड़ा महत्व है। वाणी को मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण कहा गया है। नीति-शतक के एक श्लोक का सारांश है कि मनुष्य को उसकी सुसंस्कृत वाणी ही अंलकृत करती है। अन्य आभूषण तो क्षीयमान हैं। किन्तु वाणी रूपी आभूषण ही वास्तव में मनुष्य का आभूषण है। रहीम ने भी कहा है- रहिमन कटुक वचन ते दुख उपजत चहुं ओर।

    Ved Katha Pravachan _93 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    महाभारत युद्ध के अनेक कारणों में से एक कारण वाणी का दुरुपयोग भी है। दुर्योधन प्रकृत्या महत्वाकांक्षी और ईर्ष्यालु तो था ही, किन्तु बिना सोचे-समझे द्रोपदी, अर्जुन, कृष्ण, नकुल, सहदेव और भीम के वचन तथा उपहासपूर्ण व्यवहार ने उसकी ईर्ष्याग्नि में घृत का कार्य किया था। युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ के समय उसको भण्डारगृह का अधिपति बनाया गया था। विभिन्न देशों के राजा-महाराजाओं द्वारा दी जाने वाली भेंट और सम्पत्ति, धन-दौलत, आभूषण आदि एकत्रित हो गये थे कि दुर्योधन की आँखें चौंधिया गई और वह ईर्ष्या से दहकने लगा था तथा इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था।

    उसकी ऐसी दशा देखकर मामा शकुनि ने धृतराष्ट्र से इसका वर्णन किया तो धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलाकर कहा, '"पुत्र ! तुम्हारे पास भी किसी वस्तु की कमी तो है नहीं। तम्हारे लिये भी पाण्डवों जैसा सभागार बनवाया जा सकता है। अतः तुम पाण्डवों की समृद्धि को देखकर अपना मन छोटा मत करो।'' यह सुनकर दुर्योधन अपनी व्यथा का बखान करते हुए बोला, "तात ! युधिष्ठिर के सभा-भवन को बहुमूल्य रत्नों से, जिनके ऊपर स्फटिक मणि भी लगी हुई थी, ऐसा रचा है कि उसका फर्श मुझे कमलों से सजी पानी से लबालब भरी वापी (बावड़ी) प्रतीत हुई। मैंने उसे पानी से भरी बावड़ी समझकर उधर से जाते हुए अपने कपड़े ऊपर को उठा लिये तो भीम खिलखिला कर हंस पड़ा। उसके हंसने का एक भाव यह भी था कि उसके पास अपार ऐश्वर्य है और मैं निरैश्वर्य हूं। उस समय मन में आया कि उसका वहीं पर गला घोंट दूँ। किन्तु तभी मेरी समझ में आ गया कि यदि मैंने ऐसा किया, तो मेरी भी वही गति होगी जो गति कृष्ण ने शिशुपाल की की थी। शत्रु द्वारा किया गया इस प्रकार का उपहास मुझे जलाये डाल रहा है। मैंने आगे चलकर फिर देखा कि वैसी ही कमलों से सजी एक अन्य बावड़ी है। मैंने पहले के समान उसे भी रत्नकमल जटिल पत्थर ही समझा और मैं आगे बढ़ा तो पानी में गिर पड़ा। यह देखकर कृष्ण और अर्जुन ठहाका मारकर हंसे, तो द्रोपदी भी अपनी सखियों के साथ खिलखिला पड़ी। इस उपहास से मुझे मर्मान्तक वेदना हुई। पाण्डवों के सेवकों ने मेरे लिये अन्य वस्त्रों की व्यवस्था कर दी। हे राजन ! और भी जो धोखा हुआ वह भी सुनिये। एक दीवार पर द्वार सा प्रतीत होता था। जब मैं उससे निकलने लगा तो मेरा मस्तक दीवार से टकराकर चौटिल हो गया। नकुल सहदेव ने यह देखकर मुझे अपनी बाहों में थामते हुए खेद व्यक्त किया और बोले राजन्‌ ! द्वार यह है वह नहीं। उसी समय उच्च स्वर में हंसते हुए भीम ने कहा, धृतराष्ट्रपुत्र! द्वार यह है, वह नहीं। धृतराष्ट्रपुत्र कहकर प्रकारान्तर से उसने मुझे अन्धा कह दिया।'' 

    इस सारे प्रकरण से स्पष्ट है कि पाण्डवों का गर्व मिश्रित यह उपहास और उसे धृतराष्ट्र-पुत्र कहकर पुकारना, जिससे दुर्योधन को अन्धा कहना ध्वनित होता है, साधारण बात नहीं अपितु व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुत बड़ी भूल थी। कटु और व्यंग्यात्मक वाणी तथा मधुर वाणी में यही अन्तर है। नम्र वाणी तो जादू का सा प्रभाव डालती है। इस प्रकार महाभारत युद्ध का एक कारण कटुवाणी भी थी, जिसने दुर्योधन को विचलित कर दिया और उसने युधिष्ठिर की उस सम्पत्ति को हड़पने के उपाय में पाण्डवों को वनवास तक दिला दिया।

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    इसके विपरीत महाभारत का ही वह प्रसंग भी है जब महाभारत युद्ध आरम्भ ही होने वाला था और समुद्र के समान विशाल सेनायें युद्धभूमि पर खड़ी थी, तब युधिष्ठिर अपने शस्त्रास्त्र अपने रथ पर रखकर हाथ जोड़ता हुआ शत्रु सेना की ओर बढ़ चला। उसे इस प्रकार जाता देखकर अर्जुन भी उसी प्रकार उसके पीछे-पीछे चलने लगा, तो कृष्ण सहित सभी पाण्डव भी चलने लगे। पर कहॉं और क्यों जा रहे हैं, यह किसी को ज्ञात नहीं था। उनकी यह दशा देखकर कृष्ण ने कहा, '"भैया युधिष्ठिर सर्वप्रथम भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य की अनुमति लेकर शत्रु से युद्ध करेंगे।''

    उधर युधिष्ठिर को कौरव सेना की ओर जाता देखकर कौरवों के सैनिक यह अनुमान करने लगे कि हमारी सेना की विशालता को देखकर युधिष्ठिर युद्ध न करने का विचार व्यक्त करने आ रहा है। इस प्रकार चलते हुए युधिष्ठर ने शस्त्रास्त्र से सज्जित भीष्म के सम्मुख जाकर उनके चरण पकड़कर कहा, '"तात! आपसे आपके विरुद्ध युद्ध करने की अनुमति लेने के लिए हम लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं। कृपया आज्ञा और आशीर्वाद देकर हमें अनुग्रहित कीजिये।'' भीष्म, युधिष्ठिर के श्रद्धापूर्ण तथा स्नेहिल वनचों को सुनकर गद्‌गद्‌ हो गये और बोले, '"पुत्र ! मैं प्रसन्न हुआ।

    तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो।'' इसी प्रकार युधिष्ठिर द्रोण, कृप और शल्य के पास गये तो उन सब पर भी उसकी वाणी का वही प्रभाव हुआ जो भीष्म पर हुआ था और उन्होंने भी उसी प्रकार आशीर्वाद देकर उसके विजय की कामना की। उसके बाद युधिष्ठिर कौरव सेना की ओर उन्मुख होकर बोले, "जो योद्धा हमें न्याय के मार्ग पर समझकर हमारी सेना में आना चाहता हो हम उन्हें गले लगाने को उद्यत हैं।'' यह सुनकर दुर्योधन का सहोदर भाई "युयुत्सु' बोला, "यदि आप मुझे अपना सकें तो मैं आपकी ओर से कौरवों से लड़ने को उद्यत हूँ।'' युधिष्ठिर ने उसे गले लगाया और कहा कि प्रतीत होता है युद्धोपरान्त धृतराष्ट्र के नामलेवा तुम ही रहोगे।

    यह बात दूसरी है कि यदि भीष्म आदि इस परिस्थिति के उपस्थित होने से पूर्व ही दुर्योधन को उसके कुमार्ग से हटाने का यत्न करते तो कदाचित महाभारत युद्ध न होता और 18 अक्षोहिणी सेना नष्ट न होती और महिलायें विधवा तथा उनके बाल-बच्चे अनाथ न होते एवं युद्धोपरान्त कुछ काल के पश्चात जो दुराचार और अनाचार देश में फैला वह भी न फैलता।

    इसी प्रसंग में दुर्योधन की कुटिल मृदुभाषिता का भी एक उदाहरण यह है कि लोलुपता और चाटुकारिताप्रिय मद्रनरेश जो नकुल और सहदेव का सगा मामा था, दुर्योधन की नम्रता और सद्‌व्यवहार पर मुग्ध होकर उसकी ओर से युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया था। दुर्योधन के उस अभिनय को लोलुप शल्य समझ नहीं पाया था। पाण्डवों का सगा मामा विरोधी पक्ष में हो जाए, यह मीठी वाणी और सद्‌व्यवहार का ही तो चमत्कार था। 

    मृदु वाणी और कटु एवं व्यंग्यात्मक वाणी के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव से सम्बन्धित महाभारत युद्ध के ये प्रसंग मनुष्य की आँखें खोलते हुए इस लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं कि मृदु वाणी ही सफल एवं स्वच्छ जीवन का सार है। महाभारत के ही एक अन्य प्रसंग में महात्मा विदुर ने वाणी के विषय में एक सुन्दर उदाहरण देेते हुए कहा है कि बाणों से बीन्धा हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाड़ी से काटा गया वृक्ष अथवा वन पुनः हराभरा हो जाता है, किन्तु कटु वाणी द्वारा बीन्धा गया व्यक्ति का घाव कभी नहीं भरता। 

    कागा किससे क्या लेत है, कोयल किसको क्या देत।
    मधुर वचन बोल के, जग अपनो करि लेत।।आचार्य डॉ. संजयदेव

     

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    Voice has great importance in human life. Vani has been called the greatest jewel of man. The summary of one verse of Niti-century summarizes that man is his cultured voice. Other ornaments are dilapidated. But speech ornament is really a human ornament. Rahim has also said - Rahiman katuk vaan te dukh upjat chahinder

     

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  • प्रान्तीयता घातक है

    विनायक दामोदर सावरकर ने सन्‌1911 में अण्डमान (कालापानी) की जेल में अमानवीय यातनाएं सहन कर रहे थे। तेल पेरने जैसे मशक्कत के कठोर काम से छूट मिलते ही वे कैदियों को हिन्दी सिखाने के काम में लग जाते थे। उन्होंने हिन्दी की पुस्तकें मंगवाई तथा उन्हें जेल के पुस्तकालय में रखवाया, जिससे कैदी रामायण, गीता तथा अन्य हिन्दी पुस्तकों का अध्ययन कर सकें।

    Ved Katha Pravachan -10 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक दिन सावरकर जी ने गैर हिन्दी भाषी अपने साथी बन्दियों के बीच कहा- "बंगलामराठीतेलगू आदि सभी भाषाएँ प्रान्तीय हैं। उनका विशेष महत्व है। किन्तु तमाम भारत को अटक से लेकर कटक तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक को जोड़ने की सामर्थ्य केवल हिन्दी भाषा में है। बद्रीनाथ-केदारनाथ तीर्थयात्रा के लिये आने वाले दक्षिण भारत के लोग भी हिन्दी सहजता से समझ लेते हैं। संस्कृत के शब्दों की अनेक प्रान्तीय भाषाओं में बहुतायत है। संस्कृत हिन्दी तथा अन्य अनेक भाषाओं की जननी है। इसलिए हिन्दी ही सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा कहलाये जाने की क्षमता रखती है।''

    एक दिन जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट बारी ने कुछ बन्दियों को बरगलाया कि सावरकर हिन्दी की आड़ में बंगालीपंजाबी आदि को खत्म करना चाहते हैं। सावरकर जी ने उन्हें समझाया कि "मैं स्वयं मराठी भाषी हूँफिर भी हिन्दी के महत्व को समझता हूँ। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुजराती भाषी होते हुए भी हिन्दी में "सत्यार्थ प्रकाशलिखा।'' उन्होंने हिन्दी पढ़ानी जारी रखी।

    सन्‌ 1915 में सावरकर जी के भाई बाल ने उन्हें कुछ पत्र-पत्रिकाएं व साहित्य भेजा। एक पत्रिका में 'आन्ध्र माता की जयशीर्षक देखकर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा- "इस प्रकार की प्रान्तीयता की भावना से राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी। हम सब मराठियोंबंगालियोंतमिल वासियों सभी को अपने-अपने प्रान्तों पर गर्व करते हुए हिन्दी को एकता का सूत्र मानकर "भारत-राष्ट्रकी भावना पुष्ट करनी चाहिए। हमें "बंग आमारकी जगह "हिन्दी आमारका गीत गाना चाहिए।'' 

    "महाराष्ट्र में केवल "मराठी चलेगीका दुराग्रह  करने वालों को महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर जी के उपरोक्त विचारों से शिक्षा होनी चाहिए। शिवकुमार गोयल

     

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    One day Jail Superintendent Bari tricked some prisoners that Savarkar wants to end Bengali, Punjabi etc. under the guise of Hindi. Savarkar ji explained to him that "I myself am Marathi speaking, yet I understand the importance of Hindi. The founder of Arya Samaj Swami Dayanand Saraswati wrote" Satyarth Prakash "in Hindi despite being Gujarati speaking." He continued to teach Hindi.

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  • प्रेरक प्रसंग

    हिन्दवी साम्राज्य का सेनापति

    स्वातन्त्र्यवीर सावरकर तात्या टोपे को छत्रपति शिवाजी के समान महान्‌ सेनापति मानते हैं। सावरकर जी लिखते हैं- "श्री तात्या टोपे मानो पराभूत शिवाजी थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रयत्न को यश नहीं मिला, इतना ही दोनों में अन्तर था। किन्तु सेनापतित्व से दोनों समान थे।''

    युद्ध क्षेत्र में होने वाली उनकी गतिविधियॉं इतनी वेगवान थीं कि बड़े-बड़े सेनापति दॉंतों तले उंगली दबाते थे। ब्रिगेडियर राबर्ट्‌स ने तात्या टोपे पर जब आक्रमण किया तो वे दहाड़कर बोले, "हिन्दवी साम्राज्य का मैं सेनापति हूँ।''

    तात्या की बहादुरी देख अंग्रेज हैरान हो गए।18 अप्रैल1859 को तात्या टोपे को फॉंसी की सजा दी गई।

    Ved Katha Pravachan _82 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    धीरज

    भगवान बुद्ध भ्रमण कर रहे थे। लम्बा सफर तय करने के उपरान्त उन्हें मार्ग में प्यास लगी। उन्होंने आनन्द से समीपस्थ झरने से पानी लाने के लिए कहा। जबकि उन्होंने देखा कि कुछ समय पूर्व ही वहॉं से बैलगाड़ियॉं गुजरी थीं तथा बैलों ने सारा जल गन्दा कर दिया था। उसके बावजूद भी बुद्धदेव ने आनन्द से वहीं से जल लाने को कहा।

    आनन्द जल लेने चले गएकिन्तु कुछ ही देर बाद वे आए और बुद्धदेव से बोले- "यहॉं का जल गन्दा है। मार्ग में हमें जो नदी मिली थीमैं वहॉं का जल लाता हूँ।'' किन्तु बुद्धदेव बोले- "झरने से ही जल ले आओ।'' आनन्द जब झरने के पास गए तो उन्होंने देखा कि जल अभी भी साफ नहीं हुआ है। वे वापस आ गए और बुद्धदेव से उन्होंने फिर जल के गन्दे होने की बात बताई। बुद्धदेव ने उन्हें पुनः झरने का ही जल लाने भेजा। किन्तु गन्दा जल देख आनन्द की इच्छा न हुई कि उसे अपने स्वामी को पिलाया जाए। वे लौट आए और बुद्धदेव ने पुनः उन्हें वापस भेजा। ऐसा तीन बार हुआ। चौथी बार जब आनन्द वहॉं गए तो देखा कि मिट्टी और सड़े-गले पत्ते नीचे बैठ चुके हैं तथा पानी आईने की भॉंति चमक रहा है। इस बार वे जल लेकर लौटे।

    तब बुद्धदेव बोले- "आनन्द! जीवनरूपी जल को भी कुविचारूपी बैल प्रतिदिन गन्दा करते रहते हैं और तब हम जीवन से पलायन करते हैं। किन्तु हमें भागना नहीं चाहिएबल्कि मनरूपी झरने के शान्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसके लिए धीरज की आवश्यकता है। तभी सब कुछ स्वच्छ दिखाई देगाठीक इस झरने की तरह।''

    अब जाकर आनन्द की समझ में आया कि बुद्धदेव क्यों बार-बार उसे झरने का ही जल लाने के लिए कह रहे थे। धीरज रखने से ही गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

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    Lord Buddha was traveling. After traveling a long way, he got thirsty on the way. He asked Anand to bring water from the nearby waterfall. While he saw that some time ago bullock carts had passed from there and the bulls had messed up all the water. Even then, Buddhadev asked Anand to bring water from there.

     

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  • बढ़ती संस्कार-हीनता का कारणः विभक्त परिवार

    समाज की सबसे छोटी ईकाई परिवार है, जहॉं किसी भी बच्चे को उचित संस्कार में ढालकर मनुष्य बनाया जाता है। भारतीय समाज कृषिप्रधान रहा है। कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण संयुक्त परिवारों का वर्चस्व प्राचीनकाल से ही रहा है। ग्रामीण जनजीवन में आज भी संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता मौजूद है। आधुनिक औद्योगीकरण का परिणाम संयुक्त परिवारों का विघटन है। कृषि के प्रति मोहभंग होना और गॉंवों से शहरों की ओर पलायन ही संयुक्त परिवार के विघटन और एकल परिवारों के जन्म का कारण है। 

    Ved Katha Pravachan -1 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    संयुक्त परिवारों में जहॉं व्यक्ति एक साथ एक छत के नीचे रहकर एक-दूसरे का दुःख-दर्द बांटते हैं, उनमें सहयोगी की भावना पनपती है, वहीं भारतीय धर्म, संस्कृति और संस्कारों का जितना सतर्कता से पालन किया जाता है, उतना आज टुकड़ों में बंटे एकांगी परिवारों में नहीं। संयुक्त परिवारों में आज के परिष्कृत, महंगे मनोरंजन के साधनों का उपयोग स्वयं को बहलाने के लिए कम ही होता देखा जाता है। निकट के संबंधों में आपसी सौहार्द और परस्पर सहयोग की भावना अधिक पायी जाती है। जबकि एकांगी (टूटे हुए) परिवारों में घर के सदस्य अपना अधिकांश समय या तो क्लबों में बिताते हैं या टेलीविजन के सामने मूकदर्शक बने उसकी क्रियाओं से स्वयं को आनन्दित करते हैं। एकांगी परिवारों के बच्चे अपना अधिकांश समय टेलीविजन के सामने ही बिताते हैं। संयुक्त परिवारों में बच्चे अपने बड़े-बूढ़ों के सामने वार्तालाप करते थे, हंसी-मजाक होता था। दादा या दादी द्वारा कुछ ज्ञानवर्द्धक कथाएं भी कही जाती थीं, जिनसे बच्चों का नैतिक विकास व उनके ज्ञान में वृद्धि होती थी।

    परिवार के सदस्यों के अन्दर के विचार समझ में आते थे कि वे किस हाल में हैं? भविष्य में क्या करना है? बड़े एकांगी परिवारों में यह सब कुछ लुप्त हो गया। छोटा परिवार और सुखी परिवार की प्रासंगिकता के कारण परिवार के सदस्य कम हुए। पति-पत्नी का अधिकांश समय दफ्तर या बाहर गुजारा करता है। बच्चों को या तो आया संभाला करती है या वो सारा दिन घर में अकेले पड़े टेलीविजन वीडियो गेम में खोये रहते हैं। टेलीविजन ने एक ऐसी पाश्चात्य मूल्यों पर आधारित संस्कृति को जन्म दिया है, जो मात्र उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे सकती है। एकांगी परिवारों के बच्चे जब जवानी में कदम रखते हैं, तो अनायास ही जिन्दगी की मायूसियों को मिटाने के लिये गलत चीजों का सहारा लेते हैं, जो उन्हें अपराध करने के लिए प्रेरित करती हैं।

    संयुक्त परिवार अपने वर्चस्व के कारण परिवारों में गलत कार्यों को होने नहीं देते थे। बुजुर्गों की मान-मर्यादा, उनका स्नेह और सहयोग से भरा नियन्त्रण संस्कृति के पतन को रोके रखता था। वे संयुक्त परिवार की प्रथाएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करते रहे हैं। अब एकांगी परिवारों में इन मूल्यों का अभाव है, तो वे उन्हें हस्तांतरित करने में भी असमर्थ हैं। आधुनिक एकांगी परिवारों में सहयोग तो नाममात्र का भी देखने को नहीं मिलता है। इन परिवारों के बच्चे तनावग्रस्त रहने के कारण प्रायः भावनाशून्य हो जाया करते हैं। भावनाशून्य मनःस्थिति व्यक्ति को अपराधों की ओर ले जाती है। 

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    आज के परिवार बिना कमाण्डर की सेना के समान हैं। उद्देश्यहीन पाश्चात्य संस्कृति का एक झोंका उन्हें जिस ओर मोड़ देता है, वो उसी ओर चल पड़ते हैं। जिन परिवारों में आदर्श का अभाव हो, भावनाहीन व नियन्त्रण से परे हों, वे भला क्या दे पायेंगे इस समाज को? कौन-सी पौध वे तैयार करेंगे समाज और राष्ट्र के लिए? 

    आज एकांगी परिवारों की कोई निश्चित आचार संहिता नहीं है। एक सदस्य पूर्व की ओर भाग रहा है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। इसका कारण है भोगवादी सुख की चाह तथा स्वयं की इच्छा के सामने बड़ों की आज्ञा को नकार देना। पति और पत्नी के मध्य बढ़ते तनाव का कारण भी यही है। छोटी सी घर-गृहस्थी चलाने में परिवार को ही तबाह कर लेना कितना उचित है? आज बड़े नगरों, महानगरों में शादीशुदा महिलाओं पर चढ़ता प्रेम का बुखार अपने स्वर्ग जैसे घर को तबाह करने का एक और रास्ता है। इस मानसिकता की जड़ भी एकांगी परिवारों से ही उपजी है, जिसका नयी पीढ़ी पर कुप्रभाव पड़ रहा है। 

    आज जो मानसिकता बनती जा रही है, हम या आप चाहकर भी उसे परिवर्तित नहीं कर सकते। आज एकांगी परिवार में जन्मा पुत्र शीघ्र ही अपने पैरों पर खड़ा होकर शादी करके स्वयं की दुनिया अलग बसाना चाहता है। ऐसा क्यों? किसी परिवार में अकेला पुत्र होने पर भी वह अपने माता-पिता के साथ कम ही एडजेस्ट होना चाहता है। निःसन्देह भौतिक सुख की चाह ही उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है। 'मैं और मेरे बच्चे' जैसी संकुचित मानसिकता की प्रवृत्ति ने परिवारों के बिखराव को हवा दी है। एकांगी परिवार अपने बच्चों को उतना सब कुछ नहीं दे पाते हैं, जितना संयुक्त परिवार। हॉं, भौतिक सुख-सुविधाएं बढ़ सकती हैं। जेब खर्च भी अधिक मिल सकता है, पर नैतिकता के स्तर पर हमें क्या मिला?

    एकांगी परिवारों में पति-पत्नी के मध्य झगड़ों का क्रम भी बात-बात पर बढ़ जाया करता है। आत्महत्या, फांसी, हत्या आदि जघन्य अपराध एकांगी परिवारों में निरन्तर बढ़ रहे हैं, जिनका बच्चों पर कुप्रभाव पड़ता है। बच्चे भी गलत मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं। आज के पाश्चात्य संस्कृति प्रधान परिवारों में अपने से बड़ों के लिए छोटों के दिलों में वह सम्मान, आदर विलुप्त हो गया है। चरण स्पर्श की वह परम्परा, जिसमें सिर्फ आत्मिक तरंगों द्वारा बड़ों का आशीर्वाद आत्मा से ग्रहण किया जाता था, वह परम्परा भी विलुप्त होती जा रही है। 

    आज के परिवार नई पीढ़ी को वह सब नहीं दे पाते हैं, जिनकी उन्हें जरूरत है।आवश्यकता है ऐसे स्वस्थ मूल्यों से ओतप्रोत परिवारों के निर्माण की, जो दिव्य समाज का निर्माण कर सकें तथा हमारे आदर्श वैदिक सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कर सकें, जिनमें हमारा आत्मिक सम्बन्ध सुरक्षित रह सके। आचार्य डॉ.संजयदेव

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    Today's families are like an army without a commander. The purposeless Western culture gusts turn them in the same way, they move in the same direction. What families, who lack the ideal, are emotionless and beyond control, what will they give to this society? Which plant will they prepare for the society and the nation?

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  • बहुआयामी व्यक्तित्व स्वामी श्रद्धानन्द

    बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म पंजाब के तलवन नामक गॉंव में 23 फरवरी 1857 को हुआ था। उनका पहला नाम बृहस्पति था, परन्तु बाद में उन्हें मुंशीराम कहा जाने लगा। 1917 में संन्यास के बाद उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हुआ। उनके पिता नानकचन्द थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारस और लाहौर में हुई। उनका विवाह श्रीमती शिवदेवी से हुआ, जो 35 वर्ष की अवस्था में अपने दो पुत्रों तथा दो पुत्रियों को छोड़कर चल बसी। मुन्शीराम नायब तहसीलदार बने। उन्होंने यह नौकरी छोड़कर फिल्लौर में और बाद में जालन्धर में वकालत शुरू कर दी। यहॉं भी उनका मन नहीं लगा और वे स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से आर्यसमाज के क्षेत्र में प्रवृत्त हुए। उन्होंने 4 मार्च 1902 को वैदिक ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप राष्ट्र के लिए समर्पित नवयुवक तैयार करने हेतु गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की।

    Ved Katha Pravachan _77 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    दक्षिण अफ्रीका से लौटकर महात्मा गांधी गुरुकुल कांगड़ी में आए। महात्मा मुन्शीराम से उनका मेलजोल बढ़ा और वे भी देश को स्वाधीन कराने की राह पर चल पड़े। मोहनदास कर्मचन्द गांधी को उन्होंने 'महात्माकी उपाधि से विभूषित किया। 1917 में वे संन्यासी हो गए। वे दिल्ली आकर रहने लगे। यहॉं उन्होंने दलितों और अनाथों के लिए संस्थाएं बनायी। यहॉं से उर्दू में "तेजऔर हिन्दी में "अर्जुननामक समाचार पत्र निकाला। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हड़तालों तथा धरना-प्रदर्शनों का आयोजन किया। रौलट एक्ट का विरोध किया। सैनिकों की संगीनों का छाती तानकर सामना किया। जामा मस्जिद से व्याख्यान देने वाले वे पहले और आखिरी हिन्दू थे। वे हिन्दुओं तथा मुसलमानों सभी के रहनुमा थेउनका जीवन त्याग और तपस्या से परिपूर्ण था। उन्होंने 23 दिसम्बर 1926 को अन्तिम सांस ली। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 30 मार्च 1970 को एक डाक टिकट जारी किया था। शताब्दी वर्ष 2002 में भारत सरकार ने गुरुकुल कांगड़ी पर डाक टिकट जारी किया। 

    स्वामी श्रद्धानन्द के प्रयास से जलियांवाला बाग काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का महाअधिवेशन हुआ था। उसमें कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता उपस्थित थे। पं. मोतीलाल नेहरू और महामना मदनमोहन मालवीय उस समय कांग्रेस के अग्रणी कार्यकर्त्ता थे। स्वामी श्रद्धानन्द उस समारोह के स्वागताध्यक्ष थे। स्वामी जी ने उस समय देशवासियों को चार परामर्श दिए थे- 

    1. केवल इतनी आवश्यकता है कि आर्य लोग अपने आचरण को उत्तम बनाकर दीपक बनेंताकि उनसे दूसरे दीपक जलाए जा सकें। 

    2. सभी प्रान्तों में मैंने देखा है कि हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे पर सन्देह करने लगे हैं। किन्तु हिन्दू सामाजिक दृष्टि से बिखरे हुए हैं। मेरी सम्मति में इसका उपाय एक ही है कि हिन्दू नेता हिन्दू समाज को सामाजिक दृष्टि से संगठित करें और मुसलमान नेता खिलाफत की अपेक्षा स्वराज्य की प्राप्ति पर अधिक ध्यान दें।

    3. यदि देश और जाति को स्वतन्त्र देखना चाहते हो तो स्वयं सदाचार की मूर्ति बनकर अपनी सन्तान में सदाचार की बुनियाद रखो। जब सदाचारी-ब्रह्मचारी शिक्षक हों और कौमी हो शिक्षा पद्धतितब ही कौम की जरूरत पूरी करने वाले नौजवान निकलेंगे। अन्यथा अपनी सन्तान विदेशी विचारों और विदेशी सभ्यता की गुलाम बनकर रहेगी।

    4. ईसाई मुक्ति फौज भारत के साढ़े छः करोड़ अछूतों को विशेष अधिकार दिलाने के लिए प्रयत्नशील हैै। क्योंकि वे भारत में ब्रिटिश सरकार के जहाज के लिए लंगर के समान हैं। आज से ये साढ़े छः करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहेबल्कि हमारे भाई-बहन हैंहमारे पुत्र-पुत्रियॉं हैं। उन्हें मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करो। उन्हें पाठशालाओं में पढ़ाओ। उनके गृहस्थ नर-नारियों को अपने सामाजिक व्यवहार में सम्मिलित करो। 

    स्वामी जी महाराज ने ये चार परामर्श दिये थे। ये भारतीयता की रक्षा के इतिहास मेंभारतीय गौरव की पुनःस्थापना के इतिहास में तथा वैदिक धर्म के प्रसार के इतिहास में प्रकाश-स्तम्भ के समान हैं। पहली बात में उन्होंने सम्पूर्ण आर्यजाति का आह्वान किया है कि वे दीपक के समान तेजस्वी हों। वे दीपक के समान मार्गदर्शक होकर अपने आपको तिल-तिल करके होम कर देने वाले हों। निश्चय ही उनका अपना जीवन दीपक था। उन्होंने दूसरों को मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने आपको दीपक के समान जला दिया। उन्होंने देश और जाति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया। उन्होंने तो सर्वमेध यज्ञ किया था। वे प्रारम्भिक जीवन में क्या थेसभी जानते हैं। पर आगे चलकर उन्होंने अपने आपको कितना आचारवान्‌ बनायायह भी किसी से छिपा नहीं है। वे सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति थे। सार्वजनिक व्यक्ति का कोई व्यक्तिगत जीवन नहीं होता। उसका तो एक-एक क्षण सबके सामने होता है। उसका कोई भी कार्य अपने लिए नहीं होता। उसके सभी कार्य दूसरों के लिए होेते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन स्वच्छ दर्पण के समान आभासमान था। संस्थाओं के सर्वोच्च अधिकारियों को उनके जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। उन्हें सदाचारी बनना चाहिए। उन्हें प्रकाशस्तम्भ बनना चाहिए।

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    स्वामी जी महाराज ने हिन्दू जाति के संगठन की बात कही है। यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यदि हमें कुछ पाना हैअपने राष्ट्र का उद्धार करना हैआर्य जाति को प्रगति के पथ पर लाना है तथा आर्य जाति को गौरवान्वित करना हैतो हमें संगठित होना ही होगा। संगच्छध्वं  संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌का नाद गुंजाना ही होगा। आज हमारे अनेक भाई छोटे-छोटे विवादों में फंसे हैं। वे उस बृहद उद्देश्य को भूल चुके हैंजो ऋषि ने हमें बताया था तथा जिस मार्ग पर स्वामी श्रद्धानन्द चले थे। संगठनात्मक दृष्यि से आज भी सुदृढ़ता की आवश्यकता है। स्वामी श्रद्धानन्द एक शहीद की मौत मरे। हर किसी की कामना हो सकती है कि वह शहीद की मौत मरे। पर शहीद वही होता है जो किसी उद्देश्य के लिए अपने को न्योछावर करे।  स्वामी श्रद्धानन्द ने उसी संगठनात्मक सुदढ़ता और एकता के लिए अपने जीवन का बलिदान किया। वह तो वीर पुरुष थे। वे वीरता की ही मृत्यु को प्राप्त हुए। कायर लोग अपने जीवम में अनेक बार मरते हैं। वे जब भी डरेंगेतभी मरेंगे। परन्तु वे बहादुर ही सदा याद किये जाएंगेजो निर्भीक होंगेअपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होंगे। 

    स्वामी जी ने अपनी सन्तान को सदाचारी बनाने की बात कही है। 'जनया दैव्यम्‌ जनम्‌यह वेद का आदेश है। स्वयं सदाचारी बनो तथा अपनी सन्तति को सदाचारी बनाओ। स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति के माध्यम से दिव्य व्यक्तित्वों के निर्माण की बात अपने मन में सोची थी। उनका सपना सच हुआ। गुरुकुल के सैकड़ों स्नातकों ने अपने-अपने क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। स्वामी श्रद्धानन्द अपने दोनों पुत्रों हरिश्चन्द्र और इन्द्रचन्द्र को लेकर गंगा के किनारे बीहड़ जंगल में चले गए थे। वहीं पर उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के अपने सपने को साकार किया। उन्होंने भारतीय इतिहास एवं दर्शन की उन्हें शिक्षा दी। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उन्हें शिक्षा दी। सदाचार की उन्हें शिक्षा दी। उन्हें अपने देश पर बलिदान होने की शिक्षा दी। उन्हें वीरता एवं निर्भीकता प्रदान की। गुरुकुल का विद्यार्थी "भयकरना नहीं जानता। वह तो साक्षात्‌ "वीरताहै। स्वामी श्रद्धानन्द तो कर्मशूर भी थे। उन्होंने जो कहा वह करके दिखाया। वे केवल भाषण तक सीमित नहीं थे। आज के भाषणकर्त्ताओें का प्रभाव नहीं पड़ताक्योंकि उनकी कथनी और करनी में अन्तर होता है। असली प्रभाव उसी का पड़ता हैजो जैसा कहता है वैसा ही करता भी है। सत्य का उपदेश करने वाले को सत्यवादी होना चाहिए। कर्म का उपदेश करने वाले को कर्मशील होना चाहिए। संयम का उपदेश करने वाले को संयमी होना चाहिए। स्वामी श्रद्धानन्द में ये सभी गुण विद्यमान थे।

    आप अपनी सन्तान को सदाचारी बनाएं। उन्हें देश और जाति पर गर्व करने वाला बनाएं। उन्हें नित्य संध्या और अग्निहोत्र करने वाला बनाएं। तभी देश और जाति की रक्षा हो सकती है। आज के विषाक्त वातावरण में सदाचारी लोगों की आवश्यकता है। 

    स्वामी श्रद्धानन्द का चौथा परामर्श वास्तव में एक चेतावनी है। धर्मान्तरण उस समय भी हो रहा थाआज भी हो रहा है। देश के गरीब लोगों को ईसाई बनाया जा रहा थाआज भी बनाया जा रहा है। उन्हें आज मुसलमान भी बनाया जा रहा है। स्वामी श्रद्धानन्द के हृदय में एक टीस थी। इसीलिए उन्होंने दलितोद्धार सभा बनायी। वे नहीं चाहते थे कि धर्मान्तरण हो। दलितोद्धार का मूल मन्त्र है कि सभी को समानता का अधिकार दिया जाए। सभी जगह समता सम्मेलन आयोजित किए जाएं। जब सभी को समान सम्मान मिलेगाऊँच-नीच का भेद समाप्त हो जाएगासभी को समान अवसर मिलेंगेतो स्वतः ही धर्मान्तरण का चलन समाप्त हो जायेगा। इस कार्यक्रम को वास्तविक व्यवहार में लाने की आज भी उतनी ही आवश्यकता हैजितनी कि स्वामी श्रद्धानन्द के समय थी। स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान दिवस मनाने की सार्थकता इसी बात में है कि भारतवासी उनके सच्चे अनुयायी बनें। अपनी सन्तान को श्रेष्ठ एवं वैदिकधर्मी बनायें तथा सभी को गले लगाएं। अपनी भाषा का प्रयोग करें। मद्यादि व्यसनों से दूर रहें तथा गोरक्षा हेतु प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार हों। -डॉ. धर्मपाल

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    The Christian Liberation Army is trying to give special rights to the six and a half crore untouchables of India. Because they are similar to anchors for British government ships in India. From today, these six and a half crores are not untouchables for us, but are our brothers and sisters, our sons and daughters. Cleanse them with the love water of the motherland. Teach them in schools Include their men and women in their social behavior.

     

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  • बोलना सिखाया जिन्होंने अब उनसे ही बोलते नहीं

    घर-परिवार

    शीर्षक में इंगित समस्या आज की ही नहीं, पुरातन काल से चली आ रही है, भले पहले अतिन्यून हो, अब अत्यधिक है। महर्षि दयानन्द सरस्वती से पूर्ण प्रभावित होकर छलेसर के रईस ठाकुर मुकुन्दसिंह ने उनको आग्रहपूर्वक अपने गॉंव में आमन्त्रित किया। हाथी-घोड़ा-पालकी-सैनिक व विशाल जन-समूह के साथ उनका स्वागत किया। उनके प्रवास के लिये नवीन भवन बनवाया। विशेष यज्ञ रचाया। पण्डित व प्रजाजन की वहॉं भीड़ लगी रही। इतने कोलाहल में भी ठाकुर मुकुन्दसिंह के पुत्र कुँअर चन्दनसिंह का मौन महर्षि को बहुत अखर रहा था। कारण कुछ भी हो, पिता-पुत्र की बोलचाल बन्द थी। ग्राम में कुम्भ जैसा मेला और उसका शोर, फिर भी पिता-पुत्र में मनोमालिन्य बना रहे, महर्षि इस पीड़ा को सहन नहीं कर सके। इन दोनों के सम्मुख वे बोले और ऐसा बोले कि पिता ने निज पुत्र के लिए अपनी बाहें फैला दी तथा उसे अपनी गोदी में बैठा लिया और मन का मैल सदा-सदा के लिये धुल गया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    तेतीस कोटि देवताओं का स्वरूप-1

    Ved Katha Pravachan _65 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev 


    परमपिता परमात्मा अपने प्रतिनिधि पुत्र सन्तरूप में भेजकर समाज में श्रेष्ठ वार्तालाप का वातावरण बनाते रहते हैं। जब यही तथाकथित सन्त स्वार्थी हो जाते हैंतो समाज में संवाद समाप्त होकर विवाद-परिवाद की वायु बहकर सन्ताप उत्पन्न कर देती है।

    विवाह संस्कार के कारण श्रीमती सहित एक उस नगर में जाने का अवसर मिलाजहॉं हम कभी 49 वर्ष पहले गये थे। श्रीमती जी अपनी दूर की दादी से मिलना चाहती थी और मुझे अपने समवयस्क मित्र से मिलने का आकर्षण था। मित्र मिले। वे उतने ही प्रतिष्ठित व लोकप्रिय मिलेजितने राजासाहब सम्बोधन से जाने जाने वाले उनके पिता थे। जितनी अधिक उनकी भूमि-भवन-धन की सम्पदा थीउतनी ही उनकी सुकीर्ति मान्यता भी थी। उन्होंने सर्वत्र मुझको भ्रमण कराया और ले जाकर खड़ा कर दिया अपने एक पुत्र के प्रभूत प्रतिष्ठान पर और लगे उससे मेरा परिचय कराने। वह अच्छा खासा समझदार पुत्र न उनसे बोला और न मुझसे नमस्ते तक की। मित्र तो खड़े के खड़े ही रह गये। किन्तु मुझसे वहॉं नहीं रुका गया और मैं उनका हाथ पकड़कर आगे बढ़ा लाया। मार्ग में उन्होंने बताया कि इस पुत्र को मुझसे यह आपत्ति है कि पिता की इतनी उच्च मान-प्रतिष्ठा होेते हुए भी मेरे लिए कुछ नहीं किया।

    यह तो रही मेरी भेंट मित्र सेअब श्रीमती जी की दूर की दादी की कहानी सुनिये। मिलने पहुँची तो उनको घर से बाहर एक टूटी-टाटी खाट पर पड़ा पाया। देखकर उठी। इनको अपने हृदय से चिपटा लिया। दादी के स्वावलम्बी पुत्र का बाल-बच्चों वाला परिवार! किन्तु दादी से कोई बोलता नहीं।

    यह जो हमने दूर के नगर में जाकर देखावह हमारे नगर में आस-पास भी घटता दिखाई देता रहता है। हम दो ऐसे बच्चों को जानते हैं। एक दूसरे ही वर्ष में चलने और बोलने लगा तथा दूसरे बच्चे ने इन दोनों कार्यों में कई-कई वर्ष लगा दिए। जब यह चलता-बोलता नहीं थातो माता-पिता-परिजन सब व्याकुल रहते थे। उपचार-उपाय खोजते व चिन्तित रहते दिन कटते थे। जिन माता-पिता-अभिभावकों ने उन्हें बोलने में समर्थ बना दियाबड़े होकर वही बच्चे अन्य सबसे तो बोलते हैं पर अपनों से ही नहीं बोलते हैंतो उनका हृदय टूट जाता है। इसका दूरगामी दुष्प्रभाव ऐसी सन्तानों पर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता है। माता-पिता ही क्या उस परमेश प्रभु के साथ भी ऐसे लोगों का यही व्यवहार होता हैजो माता-पिता दोनों के रूप में जन्म देकर पालन-पोषण करता है। प्रभुदेव सविता अग्नि के समक्ष शान्त शीतल जलाञ्जलि पूर्वक व्यक्ति मांग करता है- वाचस्पतिर्वाचं ना स्वदतु (यजुर्वेद 30.1) अर्थात्‌ हे वाणी के स्वामी परमेश्वर! आप हमारी वाणी को मधुर बना दीजिये।

    जीभ तो मानव-पशु सबके पास है। पशुओं की जीभ तो सदा समान रहती है, किन्तु मनुष्यों की जीभ अपने स्वाद बदलती रहती है। कभी कड़वी कभी मीठी। कड़वी हुई तो मानो कटार हो गयी। दिल के आर-पार हो गई। अतः इसका कोमल व मधुर रहना ही ठीक है। प्रभु से यही मांग है। इसी क्रम में अभिभावकों की उत्कट कामना द्रष्टव्य है-
    ओ3म्‌ उप नः सूनवो गिरः श़ृण्वन्त्वमृतस्य ये।
    सुमृडीका भवन्तु नः।। सामवेद 1595।।

    अर्थात्‌ हमारे पुत्रगण अविनश्वर परमेश्वर की वाणी सुनें और हम लोगों को सुखी करें। परमेश प्रभु की वाणी वेद का कितना मधुर सन्देश है-

    3म्‌ उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि।
    धनज्जयो रणे रणे।। सामवेद 1382।।

     

    मन्त्र-भावार्थ देखिये-

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    प्रभु हमको शक्ति विमल देते,
    हम जिससे शत्रु मसल देते।

    प्रभु ने जीवन धाम दिया है,
    प्रभु ही इसको चमकाते हैं।।

    जीवन्त प्राणधारी आओ,
    प्रभु से सम्मति ले आओ।

    बैठो प्रभु से करो वार्ता,
    सन्मार्ग वही दिखलाते हैं।।

    जिसने निज को उत्कृष्ट किया,
    हर कष्ट सहन कर पुष्ट किया।

    वे नर जीवन संग्रामों में,
    प्रभु की सहाय पा जाते हैं।।

    क्षण क्षण सम्मुख रण आते हैं।
    धन-जय प्रभु ही दिलवाते हैं।।

    "सामश़्रद्धाके देवातिथि द्वारा रचित सामगीत में यही सन्देश निहित है कि जिस प्रभु से हम हर संग्राम में विजय व वैभव प्राप्त करने की कामना करते हैं और वह हमें सुलभ भी हो जाता है। इस ऋद्धि-सिद्धि-उपलब्धि के बाद अधिकांश व्यक्ति इसी में रम जाते हैं। इसकी ही बात करते रहते हैं। प्रभु से बात करने का उनके पास समय ही नहीं बचता है। मन्त्र का मृदुल आदेश है कि इसे मांगने व मिल जाने के बाद भी प्रभु से बात करते रहो। स्तुति करके धन्यवाद देते व आशीर्वाद लेते रहो।

    परमेश प्रभु की ही भॉंति हमारे पितरजन भी हमें सब कुछ देते हैं। तन देते हैंसुसंस्कृत मन देते हैंयथासम्भव धन देते हैंविद्या और गुण देते हैं। फिर भी हम सर्वसमृद्ध होकर जरा सी बात पर उनसे बोलना ही बन्द कर देते हैं। वे तो वयोवृद्ध हैं। अपने समस्त उत्तराधिकार देकर हमें समृद्ध करके चिर-विदा लेकर चले ही जाने वाले हैं। फिर हम उनसे बात न करें तो इसे हमारा अधर्माचरण ही कहा जायेगा। यहॉं पर हिन्दी के प्रसिद्ध रसिक कवि बिहारी जी का एक दोहा उद्‌धृत किया जा रहा हैजो इस प्रकार से दो अर्थ प्रस्तुत करता है कि एक ओर तो वे अपने आराध्य श्रीकृष्ण का तथा दूसरी ओर अपने वंश व पिता का स्मरण भी कर लेते हैं। लीजिए पढ़िये-

    प्रगट भए द्विजराज-कुलसुबस बसे ब्रज आइ।
    मेरे हरो कलेस सबकेसव केसवराइ।।

    दोहे में प्रयुक्त "द्विजराजशब्द द्वि-अर्थक है। एक चन्द्रमा व दूसरा ब्राह्मण। दोहे का एक अर्थ बनता है कि केशव कृष्ण चन्द्रकुल में जन्म लेकर ब्रज भूमि में बस रहे हैंवे मेरे सभी कष्टों को दूर करें। दूसरे अर्थ में वे अपने पिताश्री का आराध्यतुल्य स्मरण करते हुए कहते हैं कि मैं भी ब्राह्मण कुल भूषण ब्रजवासी हूँमेरे जन्मदाता केशवराय मेरे कष्टों को दूर करें।

    कभी-कभी ऐसा कुयोग भी आ जाता हैजब सन्तान से पितर वृद्धजन अपनी ओर से बोलना बन्द कर देते हैंवह भी जरा से भ्रम के कारण। एक माता के तीन-चार पुत्री एवं एक पुत्र था। किशोरावस्था में पुत्र नहीं रहा। उनका बड़ा दामाद उनका मातृवत सम्मान करने वाला है। एक बार अपना भोजन साथ लेकर वह दामाद के घर गयी। सदैव की भॉंति दामाद ने स्वागत-अभिवादन किया और उनसे भोजन करने के लिये जोरदार आग्रह करने लगा। माता मना करती रही। दामाद के मुख से निकले शब्द- "आपके कोई है नहींइसलिए मैं आपसे खाने के लिए कह रहा हूँकोई होता तो भला मैं क्यों कहता''- उस माता के हृदय में ऐसे चुभ गये कि कई महीनों से उस माता ने अपने दामाद से बोलचाल बन्द रक्खी। दामाद को स्थिति का आभास हुआ। अनेक प्रकार से उसने माता से बोलना चाहाकिन्तु माता का मुँह बन्द का बन्द ही रहा। माता ने यह स्थिति मुझे बताकर कुछ परामर्श चाहातो मैंने सन्त तुलसीदास के शब्दों को- क्षमा बड़न को चाहियेछोटन को उत्पातदोहरा दिया। तभी माताजी ने कहा कि अब तो वे मुझे अपने बच्चों के साथ तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहते हैं। ठीक ही हैसुखद अन्तराल में दुःखद बात विस्मृत होना असम्भव नहीं है। धर्म के दस लक्षणों में "क्षमाविलक्षण है। और सभी एक पक्षीय हैंपर क्षमा द्विपक्षीय है। क्षमा मांगने वाला धर्म का पालन करता है और क्षमा करने वाला सद्धर्म का परिपालन करता है। बड़े लोग किसी भी कारण से बोलना बन्द करने के स्थान पर अपनी सकारात्मक सोच विकसित करके प्रकरण की नकारात्मकता को तिरोहित करके अपने छोटों को सन्मार्ग दिखाने का सत्प्रयास कर सकते हैं।

    उपरोक्त प्रकरण में घोर निराशा को घनघोर आशा में इन्हीं माताजी के शब्दों ने बदल दिया। वे बोली कि कुछ दिनों के लिए बाहर क्या चली गयीपड़ोसी बच्चों ने छत पर कूद-फॉंदकर सीमेण्ट उखाड़ दिया। जरा सी वर्षा में छतें टपकने लगती हैं। प्रयोग में न आने से हस्तचालित नल ने पानी देना बन्द कर दिया और शौचालय का पानी निकलता नहीं। एक अकेले के लिये हजारों रूपये व्यय करके ठीक करायेंफिर चलें जायें बाहर तीर्थयात्रा पर। लौटकर आयें तो वही "ढाक के तीन पात'। मैंने उनसे कहा कि यह सब अव्यवस्थायें इसीलिए हुई हैं कि आप दामाद का आमन्त्रण स्वीकार कर कुछ दिन बाहर तीर्थाटन कर आयें। जब लौटकर आएंगीतो तीन दिन में ही यह सब बिगड़े काम बन जाएंगे और सम्बन्ध स्नेहपूर्ण सामान्य हो जायेंगे। शायद प्रभु भी यही चाहते हैं। माता जी जो सुस्त-मुस्त आयीं थींमस्त-चुस्त मुस्काती चली गयीं।

    3म्‌ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
    धियो विश्वा वि राजति।।ऋग्वेद 1.3.12।।

    इस मन्त्र अनुसार ज्ञान देवी सरस्वती की उपासना से ज्ञान के महासागर का आभास मिलता है। जो माता सरस्वती के ज्ञानध्वज के नीचे आ जाते हैंवे अपनी सब बुद्धियों को विशेषतया दीप्त करके जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाना चाहते हैंउस-उस वस्तु के तत्वबोध को प्राप्त कर लेते हैं। गहराई में उतरने वालों को सबकुछ मिल जाता है और किनारे बैठे रहने वाले इधर-उधर ताकते रह जाते हैं। कहा भी है-

    सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
    खर्चे से घटती नहीं बिन खर्चे घटि जात।।

    शून्य से शिखर पर पहुँचने वाले व्यक्तियों की सन्तानें उनकी प्रतिष्ठा को तो देखती हैंउनकी त्याग-तपस्या-श्रम व पुरुषार्थ को नहीं देख पाती हैं। सन्तानों की अभिलाषा रहती है कि वे भी प्रतिष्ठा पायेंपरन्तु अपने बल पर नहीं पूर्वजों की प्रतिष्ठा के बल पर। उदाहरणस्वरूप एक कथानक प्रस्तुत है। पर्वतीय क्षेत्र से एक किशोर प्रयाग आया। श्रम-साधना एवं सद्‌भावना से प्रयाग विश्वविद्यालय में उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। अनी मेधा के श्रेयस्वरूप उसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बना और सेवानिवृत्त हो गया। इस लम्बे अन्तराल में उसके शिष्यों की श़ृंखलायें बढ़ती गयींऔर परिवार की पीढ़ियॉं भी बढ़ती गयीं। महानगर में शिक्षा-सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्रों में वयोवृद्ध प्राध्यापक की अकूत मान्यता होने लगी। इस मध्य हुआ यह कि उनके पौत्र की उपस्थिति कम होने के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया। पौत्र व घर वालों ने जोर लगाकर देख लियापर उसको परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिली। थककर घर वालों ने प्रतिष्ठित पितामह से अनुशंसा करने को कहा। उन्होंने सुनी-अनसुनी कर दी। घर वालों ने उनसे बोलना बन्द कर दिया। अन्ततः प्राध्यापक पितामह पौत्र को लेकर विश्वविद्यालय के तत्सम्बन्धी विभाग में जा पहुँचे। तेजस्वी विभागाध्यक्ष अपने उच्चासन से उठे और वयोवृद्ध प्राध्यापक के चरणस्पर्श करके अपने आसन पर बैठाया। स्वागत करते हुए वे बोल पड़ेप्रोफेसर सर! आज मैं जो कुछ हूँआपके कारण हूँ। उस समय उपस्थिति कम होने पर आप मुझे परीक्षा में बैठने से रोकते नहींतो मैं विशद तैयारी नहीं करताशीर्ष स्थान न पाता और आज विभागाध्यक्ष न होता। वर्तमान विभागाध्यक्ष ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने कोई अनुशंसा नहीं की। इधर से निकल रहा थासोचा मिलता चलूँ। अच्छा! अब चलता हूँ। पौत्र ने घर आकर सारी बात बतायी। घर वालों को समझाकर सन्तुष्ट कर दिया। आगे की तैयारी के लिये स्वयं को पुष्ट कर लिया। वयोवृद्ध प्राध्यापक से सबके प्रणाम चल निकले और पौत्र का सुनिश्चय उत्कृष्ट हो गया। उसका भी भविष्य समुज्ज्वल हो गया। देवनारायण भारद्वाज

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    According to this mantra, worship of the knowledge goddess Saraswati gives an impression of the ocean of knowledge. Those who fall under the enlightenment of Mother Saraswati, by lighting all their intellects, they attain the essence of the object of which they want to go in depth. Those who get into the depth get everything and those who sit on the sidelines are kept looking around.

     

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  • भक्ति महान्‌ फल देने वाली होती है

    ओ3म्‌ कदु प्रचेतसे महे वचो देवाय शस्यते।
    तदिद्ध्‌यस्य वर्धनम्‌।। साम. पू. 3.1.4.2

    ऋषिः मारीचः कश्यपः।। देवता विश्वदेवाः।। छन्दः गायत्री।। 

    विनय- प्रभु की थोड़ी-सी भक्ति महान्‌ फल देने वाली होती है। हम लोग समझा करते हैं कि थोड़े से सन्ध्या-भजन से या एक-आध मन्त्र द्वारा उसका स्मरण कर लेने से हमारा क्या लाभ होगा, या एक दिन यह भजन छोड़ देने से हमारी क्या हानि होगी, पर यह सत्य नहीं है। हमारी उपासना चाहे कितनी स्वल्प और तुच्छ हो, पर वह उपास्यदेव तो महान्‌ है। ज्ञान और शक्ति में वह हमसे इतना महान्‌ है कि हम कभी भी उसके योग्य उसकी पूरी भक्ति नहीं कर सकते और उसके सामने हम इतने तुच्छ हैं कि वह यदि चाहे तो अपने जरा से दान से हमें क्षण में भरपूर कर सकता है। यह यदि थोड़ी देर के लिए भी उससे अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं तो वह महान्‌ देव उस थोड़े से समय में ही हमें भर देता है। सन्त लोग अनुभव करते हैं कि प्रभु का क्षण-भर ध्यान करते ही प्रभु की आशीर्वाद-धारा उनके लिये खुल जाती है और वे उस क्षण भर में ही प्रभु के आशीर्वाद से नहा जाते हैं।

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    एक बार प्रभु का नामोच्चारण करते ही उन्हें ऐसा आवेश आता है कि शरीर रोमांचित हो जाते हैं और आत्मा आनन्दरस से पवित्र और प्रफुल्ल हो जाते हैं। पर यदि हम साधारण लोगों की प्रार्थना-उपासना अभी उस महाप्रभु से इतना ऐश्वर्या नहीं पा सकती है, तब तो हमें उसके थोड़े-से भी भजन की बहुत कद्र करनी चाहिए। एक भी दिन, एक भी समय नागा न करना चाहिए। एक समय भी नागा होने से जो सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, वह फिर जोड़ना पड़ता है। यही कारण है कि नागा होने पर प्रायश्चित का विधान है। एक समय नागा होने से एक समय की देरी ही नहीं होती, अपितु वह दुबारा सम्बन्ध जोड़ने जितनी देरी हो जाती है। अतः हम चाहे किसी दिन भजन में बिल्कुल दिल न लगा सकें, तथापि उस दिन भी कुछ न कुछ उपासना जरूर करनी चाहिए, यत्न जरूर करना चाहिए। पीछे पता लगता है कि एक दिन का भी यत्न व्यर्थ नहीं गया। एक-एक दिन की उपासना ने हमें बढ़ाया है, हमारे शरीर, मन और आत्मा को उन्नत किया है। 

    कम से कम यह तो असन्दिग्ध है कि संसार की अन्य बातों में हम जितना समय देते हैं, सांसारिक बातों की जितनी स्तुति-उपासना करते हैं और उससे जितना फल हमें मिलता है, उससे अनन्त गुणा फल हमें प्रभु की (अपेक्षया बहुत ही थोड़ी सी) स्तुति-उपासना से मिल सकता है और मिल जाता है। कारण स्पष्ट है, क्योंकि वह महान्‌ है, ज्ञान का भण्डार है, सर्वशक्तिमान है और ये सांसारिक बातें अल्प हैं, तुच्छ हैं, निस्सार हैं, ज्ञानशक्तिविहीन केवल विकार हैं।

    शब्दार्थ - महे=महान्‌ प्रचेतसे=बड़े ज्ञानी देवाय=इष्टदेव परमेश्वर के लिए कत्‌ उ=कुछ भी, थोड़ा-सा भी वचःशस्यते=वचन स्तुतिरूप में कहा जाए तत्‌ इत्‌ हि=वह ही निश्चय से अस्य=इस वक्ता का वर्धनम्‌=बढ़ाने वाला है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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    हमारी पुकार

    ओ3म्‌ आ घा गमद्यदि श्रवत्‌ सहस्त्रिणीभिरूतिभिः।
    वाजेभिरुप नो हवम्‌।। ऋ. 1.30.8, साम. उ. 1.2.1.1., अथर्व. 20.26.2

    ऋषिः आजीगर्तिः शुनःशेप।।देवता इन्द्र।। छन्दः निचृद्‌गायत्री।। 

    विनयः - वह आ जाता है, निश्चय से आ जाता है, हमारे पास प्रकट हो जाता है यदि वह सुन लेवे। बस, उसके सुन लेने की देर है। उस तक अपनी सुनवाई करना, अपनी रसाई करना बेशक कठिन है। उस तक हमारी पुकार पहुंच जाए, इसके लिए हममें कुछ योग्यता चाहिए, हममें कुछ सामर्थ्य चाहिए, पर इसमें कुछ सन्देह नहीं है कि वह परमात्मदेव यदि पुकार सुन लेवे, यदि हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लेवे तो वह निश्चय से आ जाता है। और तब वह आता है अपनी सहस्रों प्रकार की रक्षा शक्तियों के साथ हमारी रक्षा के लिए मानो वह अनन्त महाशक्ति सेना के साथ आ पहुंचता है। हमारी रक्षा के लिए तो उसकी जरा सी शक्ति ही बहुत होती है, पर तब यह पता लग जाता है कि उसकी रक्षा शक्ति असीम है। वह हमारे "हव' पर, पुकार पर अपने "वाज' के साथ (अपने ज्ञान-बल के साथ) आ पहुंचता है। वह पीड़ितों की रक्षा कर जाता है और हम अज्ञानान्धकार में ठोकरें खाते हुओं के लिए ज्ञान-प्रकाश चमका जाता है, पर यदि वह सुन लेवे। कौन कहता है कि वह सुनता नहीं? बेशक, हमारी तरह उसके कान नहीं, पर वह परमात्मदेव बिना कान के सुनता है। यदि हमारी प्रार्थना कल्याण की प्रार्थना होती है और वह सच्चे हृदय से, सर्वात्मभाव से की गई होती है तो उस प्रार्थना में यह शक्ति होती है कि वह प्रभु के दरबार में पहुँच सकती है। आह! हमारी प्रार्थना भी प्रभु के दरबार में पहुँच सके। हममें इतनी स्वार्थशून्यता, आत्मत्याग और पवित्रता हो कि हमारी पुकार उसके यहॉं तक पहुँच सके। यदि हमारी प्रार्थना में इतनी शक्ति हो, कि हम अन्धकार में पड़े हुए दुःख-पीड़ितों, दुर्बलों के हार्दिक करुण-क्रन्दनों में इतना बल हो कि इन्द्रदेव उसे सुन ले तो फिर क्या है! तब तो क्षण-भर में वे करुणासिन्धु हम डूबतों को बचाने के लिए आ पहुँचते हैं। बस, हमारी प्रार्थना उन तक पहुँचे, हमारी पुकार में इतना बल हो, तो देखो! वे प्रभु अपने सब साज-सामान के साथ, अपने ज्ञान, बल और ऐश्वर्य के भण्डार के साथ, अपनी दिव्य विभूतियों की फौज के साथ हम मरतों को बचाने के लिए, हम निर्बलों में बल संचार करने के लिए, हम अन्धों को अपनी ज्योति से चकाचौंध करने के लिए आ पहुँचते हैं। 

    शब्दार्थ - यदि = यदि नः हवम्‌ = हमारी पुकार श्रवत्‌ = वह इन्द्र सुन लेवे तो वह सहस्त्रिणीभिः ऊतिभिः = अपनी सहस्रों बलशालिनी रक्षा-शक्तियों के साथ और वाजेभिः = सहस्रों ज्ञानबलों के साथ घ = निश्चय से उपागतम्‌ = आ पहुँचता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

     

    At least it is unquestionable that the amount of time we spend in other things of the world, the praise of the worldly things and the fruits we receive from it, the infinitely multiplied fruit of the Lord gives us (very rarely) You can and should be praised. The reason is obvious, because it is great, is a storehouse of knowledge, is omnipotent and these worldly things are meager, insignificant, meaningless, lack of knowledge, are just vices.

     

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  • भगत सिंह का मातृप्रेम

    फॉंसी से पूर्व भगतसिंह जेल में बन्द थे। जेल में जो सफाई कर्मचारी काम करती थी, भगतसिंह उसे मॉं कहते थे। उनका कहना था कि बचपन में मेरी मॉं ने मेरी गन्दगी उठायी थी और जवानी में इस मॉं ने उठायी है।

    जब फॉंसी से पूर्व भगतसिंह से उनकी इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने मॉं के हाथ की रोटियॉं खाने की इच्छा जाहिर की। जेलर ने इसे उनका मातृप्रेम समझा। किन्तु जब जेलर को पता चला कि भगतसिंह सफाई कर्मचारी के हाथ से भोजन करना चाहते हैं तो वह स्तब्ध रह गया।

    जेलर ने जब उस महिला को भगतसिंह की इच्छा बताई, तो वह भाव विभोर होकर रो पड़ी और बोली, "बेटा, मेरे हाथ ऐसे नहीं है कि उनसे बनी रोटी आप खाएँ।'' भगतसिंह ने प्यार से उनके दोनों कन्धे थपथपाते हुए कहा, "मॉं जिन हाथों से बच्चों का मल साफ करती है, उन्हीं हाथों से तो खाना बनाती है। मॉं, तुम चिन्ता मत करो और रोटी बनाओ।' भगतसिंह ने बड़े चाव से उसके हाथ से बनी रोटियॉं खाई।

    Ved Katha Pravachan _83 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


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    When his wish was asked to Bhagat Singh before Fonsi, he expressed his desire to eat the loaves of mother's hand. The jailer considered it his maternal love interest. But when the jailer came to know that Bhagat Singh wanted to eat from the hand of the sweeper, he was shocked.

     

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  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.2

    कुछ लोगों का कहना है कि हम मूर्त्तियों को ईश्वर नहीं मानते, हम उन्हें केवल मानसिक विकास का साधन मानते हैं। इस पर राजा राममोहन राय का कहना था-

    “Hindus of the present age have not the least idea that it is the attributes of the Supreme Being as figuratively represented by Shapes corresponding to the nature of those attributes, they offer adoration and worship under the denomination of gods and godesses.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.4

    सन्‌ 1857 के संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने कूटनीति का सहारा लिया और महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र (Proclamation) जारी किया । उसकी भाषा बडी लुभावनी थी। उसमें कहा गया था-

    “When by the blessings of Providene, internal tranquility shall be restored, it is our earnest desire to stimulate the peaceful industry in India, to promote works of public utility and improvement and to administer its Government for the benifit of all our subjects residents therein.

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती - 1.1

    राजा राममोहन राय-

    भारत के इतिहास एवं संस्कृति का परिचय देनेवाली पुस्तकें राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि उस युग में राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उस समय प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों पर प्रहार करके समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप सन्‌ 1828 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बना।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती -1.3

    स्वयं मैकाले ने लिखा था-

    “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern a class of persons Indian in blood and clour, but English in taste, in opinions, words and intellect”.

    अर्थात्‌ हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग पैदा करने का यत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित करोडों भारतीयों के बीच दुभाषियों का काम कर सके। यह वर्ग हाड़-मांस और रङ्ग से भले ही भारतीय लगे, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से अंग्रेज बन जाए।

  • भारत-भाग्य विधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती – 2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    केशवचन्द्र सेन- ऐसे समय में कलकत्ते में बाबू केशवचन्द्र सेन का प्रादुर्भाव हुआ। वे बड़े तीव्र बुद्धि,तार्किक और विद्वान्‌ युवक थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ को वे ब्रह्म समाज के लिए बड़े उपयोगी जान पड़े। 1857 में वे ब्रह्म समाज में सम्मिलित हो गये। उन्होंने उत्साहपूर्वक समाज को संगठित करना प्रारम्भ किया और इस कारण महर्षि के कृपापात्र होकर वे शीघ्र ही उसके आचार्य पद पर नियुक्त हो गये,परन्तु केशव बाबू का आना ब्रह्म समाज के संगठन और स्वरूप के लिए अभिशाप बन गया। महर्षि देवेन्द्रनाथ और केशवबाबू के विचार नहीं मिलते थे,परिणामत: ब्रह्म समाज का विभाजन हो गया। मूल ब्रह्म समाज आदि ब्रह्म समाज के नाम से जाना जाने लगा और केशवबाबू का नवगठित समाज भारतवर्षीय ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद का सन्देश सबके लिये, मन्त्र व्याख्या - यजुर्वेद 30.3
    Ved Katha Pravachan _37 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    केशव बाबू की शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य संस्कारों के साथ हुई थी। स्वभावत: ईसाइयत के प्रति उनमें अपार उत्साह था। वे ईसा को एशिया का महापुरुष ही नहींसमस्त मानवजाति का त्राता मानते थे और अपने अनुयायियों को ईसाईमत की धार्मिक एवं आचारमूलक शिक्षाओं को खुलेआम अपनाने की प्रेरणा देते थे। ‘Prophets of New India’नामक पुस्तक में रोम्यॉं रोलॉं (Romain Rolland)लिखते हैं- “Keshab Chandra Sen ran counter to the rising tide of national conciousness then feverishly awakening” (P. 97)अर्थात्‌ केशवचन्द्र सेन देश में बड़ी तेजी से उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना के विरुद्ध दौड़े। जब नेता में ही देशभक्ति की भावना न हो तो उसके अनुयायियों का क्या कहना ! वस्तुत: केशव बाबू के अपने कोई सिद्धान्त नहीं थे। हिन्दू धर्म की मान्यताओं को नकारने के कारण उनके द्वार सबके लिए खुले थे। किन्तु वे पूरी तरह ईसाइयत के रंग-में-रंगे हुए थे और इस कारण ब्रह्म समाज को ईसाईसमाज का भारतीय संस्करण बनाना चाहते थे। अपनी प्रखर बुद्धि तथा ओजस्वी वाणी के कारण वे बंगाल में ही नहींसमूचे देश में प्रसिद्ध हो गये।

    9 अप्रैल 1879 को कलकत्ता के टाउनहाल में ‘India asks: Who is Christ?’शीर्षक व्याख्यान में केशव बाबू ने अपने हृदय के भावों को इन शब्दों में व्यक्त किया था- “My Christ, my sweet Christ, the brightest jewel of my heart. the necklace of my soul! For twenty years have I cherished him in this my miserable heart.अर्थात्‌ मेरा ईसामेरा प्यारा ईसामेरे हृदय का सर्वाधिक आभावान हीरामेरी आत्मा का कण्ठहार ! बीस वर्ष तक मैंने इसे अपने सन्तप्त हृदय में संजोए रक्खा है। कदाचित इसी को लक्ष्य करके रोम्यॉं रोलॉं ने‘Life of Ramkrishna’में केशवचन्द्र के सम्बन्ध में लिखा- “Christ had touched him and it was to be his mission of life to introdue him to Brahma Samaj. Keshav not only accepted Christianity but extolled it with greatness and was enlightened with it. He called it the loftiest expression of the world’s relegious consciousness.”अर्थात्‌ ईसा ने उसके अन्तस्तल करे स्पर्श किया था और ईसा को ब्रह्म समाज में प्रविष्ट करना केशवचन्द्र के जीवन का लक्ष्य था। केशवबाबू ने ईसाईयत को अंगीकर ही नहीं किया थाप्रत्युत उसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया था। वे स्वयं उससे आलोकित थे तथा उसे संसार की धार्मिक चेतना का सर्वोच्च विचार मानते थे। इतना ही नहींरोम्यॉं रोलॉं इससे आगे लिखते हैं- “Did any thing still separate him from Christianity?”अर्थात्‌ क्या अब भी कोई बात उसे ईसाइयत से दूर करती हैफ्रैंच लेखक लिल्लिंगटन ने ‘The Brahma Samaj and the Arya Samaj’नामक ग्रन्थ में लिखा - ‘Let Indian accept Christ’ were the words of Keshav Chandra Sen, one of the leaders of Brahma Samaj of India when he preached to a large congregation at Culcutta in 1879. To christian ears no words were more welcome.” (P. 1)अर्थात्‌ सन्‌ 1879 में कलकत्ता में एक बड़ी सभा में केशवचन्द्र सेन ने कहा था- भारत को ईसा को स्वीकार कर लेना चाहिए। ईसाई कानों को इससे अधिक सुखद शब्द नहीं हो सकते थे । मैक्समूलर ‘Biographical Essays’में पृष्ठ 89 पर पादरी क्लार्क वोयरो का यह प्रमाण उद्धत करता है- “Believers of Keshav Chandra Sen forefieted the name of theists, because their leader has been more and more inclined towards Christianity.”अर्थात्‌ केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों को ब्राह्म कहाने का अधिकार नहीं हैक्योंकि उनका नेता ईसाइयत की ओर अधिक-से-अधिक झुक गया है।

    इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस ब्रह्म समाज की आलोचना स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में की हैवह न राममोहन राय का ब्रह्म समाज है और न देवेन्द्रनाथ ठाकुर का। निश्चय ही वह केशवचन्द्र सेन का ब्रह्म समाज है। वहॉं "ईसाई होने से बचाये" यह वाक्य राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित ब्रह्म समाज से सम्बन्धित है। केशव बाबू‘Brahmo Marriage Act’ पास कराना चाहते थे। आदि ब्रह्म समाज के लोगों ने उसका विरोध किया। वे अपने-आपको हिन्दू मानते थेइसलिए वे उसे अपने ऊपर लागू करवाना नहीं चाहते थे ! केशव बाबू के परामर्श से ब्रह्म समाज की ओर से जो ज्ञापन सरकार को भेजा गया था उसमें स्पष्ट लिखा था-“The term ‘Hindu’ does not include the Brahmo’s who deny the authority of the Vedas.” अर्थात्‌ हिन्दू शब्द में ब्राह्मों को शामिल नहीं माना जाएगाक्योंकि वे वेद को प्रमाण नहीं मानते। जबकि स्थापना के समय ब्रह्म समाज के मूल ट्रस्टडीड में स्पष्ट लिखा गया था- "वेद और उपनिषदों को मानना चाहिए और मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध हैइसलिए त्याज्य है।" अन्तत: उक्त बिल 19 मार्च 1872 को "देशी विवाह एक्ट"(Native Marriage Act) के नाम से पास हुआ।

    केशवचन्द्र सेन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने के कारण ही परवर्त्ती ब्रह्म समाज का विशाल हिन्दू समाज से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। ब्राह्म लोग अपने आपको हिन्दुओं की मान्यताओं और विश्वासों की मुख्य धारा से पृथक्‌ करते गये। परिणाम यह हुआ कि जिस ब्रह्म समाज की स्थापना हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर करके उसे एक स्वस्थ समाज का रूप देने के लिए की गई थीवह एक संकीर्ण समाज बनकर रह गया।‘Modern Religious movements in India’ के लेखन J.N. Farquhar ने ठीक लिखा है- “The Brahma today is as distinctly outside as the Chritians.” (P. 38) भारत में जन्मेंपले और बढे सभी मतों और सम्प्रदायों ने किसी-न-किसी रूप में वेद के प्रामाण्य को स्वीकार किया है। इसी परम्परा के अनुसार राममोहन राय ने वेदों की अपौरुषेयता को स्वीकार किया था और शास्त्र-प्रमाण-विचार में वेद को सर्वोपरि प्रमाण माना था-“A commonly accepted rule for ascertaining the authority of any book is that whatever book opposes the Veda is destitute of authority.” -The Brahmanical Magazine, No.2, Page 162 किन्तु कालान्तर में इस स्थिति में अन्तर आ गया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर के काल में स्थिति कुछ-कुछ बीच की-सी रहीपर केशव बाबू के समय में ब्रह्म समाज ने वेद की प्रामाणिकता को नकार दिया। इस प्रकार अन्तत: Brahmo (Native)विवाह कानून के सन्दर्भ में यह स्पष्ट हो गया कि वेद को मानने वाले हिन्दू होते हैं और न माननेवाले ब्राह्म होते हैं। प्रो. मैक्समूलर ने‘Rammohan to Ramkrishna’ मे लिखा- “Members of the Brahma Samaj, after becoming better acquinted with their own sacred teachings than they ever had before, should solemnly have declared in the year 1850 (17 years after the death of Raja Rammohan Rai) that the claim of being divinely inspired could no longer be maintained in favour of the Brahmans of the Veda.” साथ-साथ यह भी कहना आरम्भ कर दिया कि हमारे लिए बाइबलकुरान आदि सब समान रूप से मान्य हैं। कालान्तर में जब केशव बाबू ने अपनी अल्पवयस्का पुत्री का विवाह कूचबिहार के राजकुमार के साथ करना निश्चित किया और उस अनुष्ठान में भी ब्राह्मविधि का प्रयोग न किया जाकर परम्परागत मूर्त्तिपूजा-प्रधान-संस्कार ही सम्पन्न हुआ तो केशव के रहे सहे साथी थी उनका साथ छोड़ गये। केशव ने अपनी अल्पावस्था पुत्री के विवाह को विधिसम्मत सिद्ध करने के लिए अपने-आपको दैवी आदेश प्राप्त करने वाले सिद्ध पुरुष के रूप में प्रस्थापित किया। मुहम्मद साहब जो कुछ करना चाहते थेउसकी स्वीकृति देने वाली आयत खुदा की ओर से उनपर पहली रात में नाजल हो जाती थी। केशव बाबू की इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण तत्कालीन वायसराय लार्ड लारेंस ने उन्हें  भारतीय जनता का उद्धारक कहकर सम्मानित किया था। 

    राममोहन राय तथा उन्हीं के सम्प्रदाय के केशवचन्द्र सेन ने ईसाईमतपाश्चात्य सभ्यतासंस्कृतिभाषाशिक्षा तथा नैतिक मूल्यों से प्रभावित होकर जो कुछ किया उसके कारण भारतीय जनमानस ने उन्हें सदा के लिए नकार दिया। सत्यार्थप्रकाश में ब्रह्म समाज के प्रकरण में स्वामी दयानन्द लिखते हैं- "इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत कम है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहाउसके स्थान पर भरपेट निन्दा करते हैं।" 

    "ब्रह्मादि ऋषियों का नाम तक नहीं लेते, प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ। आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।....भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं और इसी का अन्न-जल खाया-पिया, अब भी खाते-पीते हैं, तब अपने माता-पिता-पितामह आदि का मार्ग छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्रह्म समाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत विद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना बुद्धिमान्‌ का कार्य क्योंकर हो सकता है?"

    "जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है" वे लोग भारत का निर्माण कैसे कर सकते थे?

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    Rammohan Roy and Keshav Chandra Sen of his community, influenced by Christianity, Western civilization, culture, language, education and moral values, rejected the Indian public forever. In the episode of Brahmo Samaj in Satyarth Prakash, Swami Dayanand writes - "These people have very little indoctrination. Many have taken the conduct of Christians. It is far from praising their country and praising their ancestors, they blatantly condemn it"

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.1

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती 

    देशभक्त दयानन्द- जो इस देश को अपना नहीं समझता उससे इसकी उन्नति में प्रवृत्त होने की आशा कैसे की जा सकती है? इसमें सन्देह नहीं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी सबसे बड़ी देन है वह नारा जिसने इस आन्दोलन में जान फूँक दी थी। वह नारा था- "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" परन्तु लोकमान्य की मान्यता है कि आर्यलोग (अर्थात्‌ इस देश की 80 प्रतिशत आबादी) इस देश के मूल निवासी नहीं हैं। वे विदेशी आक्रमणकारी हैं, जिन्होंने उत्तर ध्रूव से आकर अपनी सैनिक शक्ति के बल पर इस देश पर बलात्‌ अधिकार किया और यहॉं के आदिवासियों को खदेड़कर बाहर किया तथा उनके घर-द्वार पर ही नहीं, उनकी स्त्रियों पर भी अधिकार कर बैठे । क्या इस प्रकार बलात्‌ पराये घर पर अधिकार जमानेवाले लोगों का यह अधिकार है कि वह उस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताएँ? लोकमान्य ने अपने मत का उल्लेख ‘Arctic Home in the Vedas’ में किया था। जब "मानवेर आदि जन्मभूमि" के लेखक बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने पूना जाकर उनसे पूछा कि वेदों में यह कहॉं लिखा है, तो लोकमान्य ने उत्तर दिया-"आमि  मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहब अनुवाद पाठ करिये छे" (मैंने मूल वेद नहीं पढे, मैंने तो साहब लोगों (अंग्रेजों) का किया हुआ अनुवाद पढा है)।

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    विद्या प्राप्ति के प्रकार एवं परमात्मा के दर्शन
    Ved Katha Pravachan _21 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    "फूट डालो और राज्य करो" (Divide and rule) के सिद्धान्त के अनुसार भारतीयों को भ्रमित करने के विचार से आर्य-द्रविड़ जातियों के सिद्धान्त की कल्पना लण्डन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के बन्द कमरे में 9 अप्रैल 1866 की सभा में की गई थी। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल (नई मालिका 5, पृ.420 की टिप्पणी) के अनुसार यह सभा राइट ऑनरेबल वाईकाउण्ट स्ट्रांगफील्ड (Viscount Strongfield) की अध्यक्षता में हुई थी। मिस्टर एडवर्ड टामस ने चौथे शीर्षक के अन्तर्गत चर्चा का आरम्भ करते हुए कहा कि "आक्सस नदी से आर्यन आक्रामकों की लहरें अरिमानिया प्रान्त और हिन्दूकुश के मार्ग से भारत में प्रविष्ट हुईं।" तद्‌नुसार भारत में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी स्तर तक की पुस्तकों में पढाया जाने लगा कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहॉं के मूल (आदि) निवासियों को परास्त कर इस देश पर बलात्‌ अधिकार करके इसके स्वामी बन गये। इस प्रकार इस देश के मूल निवासी आर्य आक्राम के रूप में द्वितीय श्रेणी के नागरिक कहलाने लगे। हम अपने ही घर में पराये बन गये। इसी आधार पर आज यह मॉंग की जा रही है कि अन्य विदेशियों (मुसलमानों तथा अंग्रेजों की भॉंति) आर्यों (हिन्दुओं) को भी, इस देश को आदिवासियों को सौंपकर, जहॉं से आये थे वहॉं लौट जाना होगा। यदि दौ सौ वर्ष पूर्व आनेवाले अंग्रेज विदेशी थे तो तीन हजार वर्ष पूर्व आनेवाले आर्य विदेशी क्यों नहीं? इस सन्दर्भ में ‘Muslim India’ के 27 मार्च 1985 के अङ्क में प्रकाशित यह वक्तव्य द्रष्टव्य है- 

    “This land belongs to those who are its original inhabitants and hence its rightful owners. It is they who built Harappa and Mohenjodaro, the world’s most ancient civilisation. Most of India’s Muslims and Christians are converts from these sons of the soil. They are either Dalits or tribals. In all foreign invasions, it is these people who defended India. They (Aryans) don’t belong to India and hence don’t love India. They are foreigners, the enemy within. As Aryans they are India’s first foreigneres. If Muslims and Christians are foreigners and must get out of India, as India’s first foreigners, the Aryans are duty bound to get out first. Those who came first must leave first.” 

    इस प्रकार ईसाइयों और मुसलमानों की ओर से यह कहा जा रहा है कि इस देश के मुसलमानों में अधिसंख्य यहॉं की छोटी जातियों- अनुसूचित जातियों, जनजातियों, गिरिजनों आदि में से हैं, क्योंकि यही लोग भारत के मूल निवासी हैं, इसलिए हिन्दू से मूसलमान व ईसाई बने लोग ही इस देश के मालिक हैं, अन्य सब विदेशी हैं। अंग्रेज चले गये, पर भारत पर सबसे पहले आक्रमण करके यहॉं बसे विदेशी आर्य नहीं गये। जो सबसे पहले आये थे उन्हीं को सबसे पहले जाना चाहिए था। 

    आर्यों के विदेशी होने की मान्यता का फलितार्थ विभिन्न रूपों में हमारे सामने आ रहा है। 4 सितम्बर 1977 को संसद्‌ में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य फैंक एन्थोनी ने मॉंग की- 

    “Sanskrit should be deleted from the 8th schedule of the constitution of India, because it is a foreign language brought to this country by foreign invaders, the Aryans”. - Indian Express, Sept. 9,1977. 

    अर्थात्‌ विदेशी आर्यों द्वारा लाई गई संस्कृत के विदेशी भाषा होने के कारण उसे भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से निकाल देना चाहिए। सन्‌ 1978 के आरम्भ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ा था। उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्‌ट के नाम पर रक्खा गया था। 23 फरवरी 1978 को द्रमुक (द्रविड़मुन्नेत्र कड़गम) के प्रतिनिधि लक्ष्मणन ने उस नाम पर आपत्ति करते हुए राज्यसभा में मॉंग की थी कि आर्यभट्‌ट नाम के विदेशी होने के कारण उसके स्थान पर भारतीय नाम रक्खा जाना चाहिए। कई वर्ष पहले तमिलनाडू के सलेम नामक शहर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आर्य होने के कारण उनकी मूर्ति के गले में जूतों का हार पहनाकर झाडुओं से मारते हुए जलूस निकाला गया। इन सबके मूल में आर्यों के विदेशी होने की मान्यता थी। 

    ऋषि क्रान्तदर्शी होता है। ऋषि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पाश्चात्यों की इस विनाशकारी कूटनीतिक चाल को समझा और इसके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने घोषणा की - 

    "किसी संस्कृतग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहॉं के जङ्गलियों से लड़कर, जय पाके, उन्हें निकालके इस देश के राजा हुए। पुन: विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात्‌ तिब्बत से सीधे इसी देश में आकर बसे थे। इससे पूर्व इस देश का कोई नाम भी नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे।" - सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास

    अपने को आक्रामक मानकर इस देश पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताना और अंग्रेजों को निकालकर इस पर शासन करना न्याय नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार यही है कि यह देश हमारा है, इसलिए इस पर शासन करने का अधिकार हमारा है। इसी से देशप्रेम और देशभक्ति की भावना को बल मिलता है। इस प्रकार दयानन्दकृत "सत्यार्थप्रकाश" तथा "आर्याभिविनय" ही "यतेमहि स्वराज्ये" के आदि प्रेरक हैं। दयानन्द से अतिरिक्त इसमें अन्य कोई भागीदार नहीं है। 

    सन्‌ 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर ब्लण्ट ने आर्यसमाज की समीक्षा करते हुए लिखा था- 

    “The Arya Samajic doctrine has a patriotic has a patriotic side. The Arya doctrine and Arya education alike sing the glories of ancient India and by so doing arouse a feeling of national pride in its disciples, who are made to feel that their country’s history is not a tale of humiliation. Patriotism and politics are not synonymous, but the arousing of an interest in national affairs is a naural result of arosing national pride.” -Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap IV, P. 135

    अर्थात्‌ "आर्यसमाज के सिद्धान्तों में स्वदेशप्रेम की प्रेरणा है। आर्य सिद्धान्त और आर्यशिक्षा समान रूप से भारत के प्राचीन गौरव के गीत गाते हैं और ऐसा करके अपने अनुयायियों में राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को जागरित करते हैं। इस शिक्षा के फलस्वरूप वे समझते हैं कि हमारे देश का इतिहास पराभव की कहानी नहीं है। देशभक्ति और राजनीति एकार्थवाची नहीं हैं, किन्तु राष्ट्रीय कार्यों में रुचि या प्रवृत्ति राष्ट्रीय भावना का स्वाभाविक परिणाम है।" 

    ब्लण्ट के अनुसार स्वदेश के प्रति जागरित इस गौरवगान का यह परिणाम हुआ कि लोगों में अपने खोये गौरव को फिर से पाने की लालसा को बल मिला। किसी भी मामले में विदेशियों के सामने सिर झुकाना दयानन्द को सह्य नहीं था। वह लिखते हैं, "जब अपने देश में सब सत्य विद्या, सत्य धर्म और परमयोग की सब बातें थीं और अब भी हैं, तब विचारिए कि थियोसोफिस्टों को स्वदेशवासियों के मत में मिलना चाहिए या आर्यावर्त्तियों को थियोसोफिस्ट बनना चाहिए?"

    ब्राह्मसमाज के खण्डन के प्रकरण में यह बात और भी अधिक स्पष्टता से उभरकर आती है, "इन लोगों में स्वदेश भक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के बहुत-से आचरण लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा और पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहा, उसके स्थान में भरपेट निन्दा करते हैं। ब्रह्मादि ऋषियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आजपर्यन्त कोई विद्वान्‌ ही नहीं हुआ, आर्यावर्त्तीय सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई।...भला जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं, तब अपने माता-पिता, पितामह आदि के मार्ग को छोड़कर दूसरे विदेशी मतों पर झुक जाना ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृतविद्या से रहित अपने को विद्वान्‌ प्रकाशित करना, इंगलिश पढके पण्डिताभिमानी होकर एक नया मत चलाने में प्रवृत्त होना मनुष्यों का बुद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता हैं?"

    कितना स्वदेशाभिमानी था दयानन्द ! सन्‌ 1901 में जनसंख्या के अध्यक्ष (सेंसस्‌ कमिश्नर) मिस्टर वर्न थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा- “Dayananda feared Islam and Christianity because he considered that the adoption of any foreign creed would endanger the national feelings he wished to foster.”

    अर्थात्‌ "दयानन्द इस्लाम तथा ईसाइयत के प्रति इसलिए शङ्कित थे, क्योंकि वे समझते थे कि विदेशी मतों के अपनाने से देशवासियों की राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचेगी, जिन्हें वे पुष्ट करना चाहते थे।"

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    According to Blunt, this result of this glorified awareness of home country has resulted in the desire of people to regain their lost glory. In any case, Dayanand was not tolerant to bowing before the foreigners. He writes, "When there was, and still is, all the truth, truth religion, and paramyoga in our country, then should the Theosophists should get the opinion of the indigenous people or should the Aryavartis become theosophists?"

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-10.2

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    इसमें सन्देह नहीं कि हमारी दासता की बेड़ियों को सुदृढ करने में ईसाइयों ने अंगरेजों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम किया है। जब तक किसी देश के लोगों में स्वाभिमान की भावना रहती है तब तक विदेशी शासन के स्थायित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहता है। इसी भावना को नष्ट करने के लिए ईसाइयत ने हिन्दुस्तानियों को असभ्य और जंगली बताकर उनमें हीनता की भावना को उभारने का यत्न किया।

    इस्लाम के इतिहास से सभी भली-भॉंति परिचित हैं। यह ठीक है कि भारत में रहने वाले प्राय: सभी मुसलमान मूलत: इसी देश के वासी हैं,किन्तु आठ सौ वर्ष से इस धरती के अन्न-जल से पोषण पाकर भी वे इस देश के नहीं बन सके। भारत के मुसलमानों ने कभी इस देश पर शासन नहीं किया। शासन करनेवाले मुगल,पठान,खिलजीलोधी,गोरी,आदि सभी आक्रमणकारी विदेशी मुसलमान थे,परन्तु जितना गर्व उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों और इस देश के लोगों पर अत्याचार करनेवालों पर है उतना इस देश में पैदा हुए राम,कृष्ण और ऋषि-मुनियों पर अथवा इस देश के लिए मर मिटनेवाले राणा प्रताप,शिवाजी आदि पर नहीं है।

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    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    धर्म की कसौटी - सबका कल्याण
    Ved Katha Pravachan _20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मिस्टर ब्लण्ट ने ही एक बात और लिखी है-‘Dayananda was not merely a religious reformer, he was a great patriot. It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.’

    अर्थात्‌ दयानन्द मात्र धार्मिक सुधारक नहीं था। वह एक महान्‌ देशभक्त था। यह कहना ठीक होगा कि उसके लिए धार्मिक सुधारराष्ट्रीय सुधार का एक उपाय था। ब्लण्ट ने बड़े पते की बात कही है। इसमें सन्देह नहीं कि दयानन्द ने पाखण्डों और परस्पर विरोधी मतों का खण्डन इसलिए किया कि इनके रहते दयानन्द के अपने शब्दों में "परस्पर एकतामेल-मिलाप या सद्‌भाव न रहकर ईर्ष्याद्वेषविरोध और लड़ाई-झगड़ा ही होगा।" यदि ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्यावर्त्त की दुर्दशा क्यों होती?

    दयानन्द ने सबसे अधिक खण्डन मूर्तिपूजा का किया है। इस प्रकरण में उन्होंने मूर्त्तिपूजा से होनेवाली सोलह हानियों का उल्लेख किया हैजिनमें से अधिकतर का सम्बन्ध उसके कारण देश को होनेवाली हानियों से है। वे लिखते हैं, "नाना प्रकार की विरुद्ध स्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चलकर आपस में फूट बढाके देश का नाश करते हैं। जो मूर्ति के भरोसे शत्रु की पराजय और अपना विजय मानके बैठे रहते हैं उनका पराजय होकर राज्यस्वातन्त्र्य और सुख उनके शत्रुओं के अधीन हो जाता हैक्यों पत्थर पूजकर सत्यानाश को प्राप्त हुएदेखोजितनी मूर्तियॉं पूजी हैं उनके स्थान में शूरवीरों की पूजा करते तो कितनी रक्षा होती?"

    राष्ट्रोत्थान के लिए एकता आवश्यक है। दयानन्द ने "सत्यार्थप्रकाश" में अनेकत्र इस बात पर बल दिया है। उनका कहना है, "जब तक एक मतएक हानि-लाभएक सुख-दु:ख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है।" जब भूगोल में एक मत थाउसी में सबकी निष्ठा थी और एक-दूसरे का सुख-दु:खहानि-लाभ आपस में समान समझते थे तभी तक सुख थापरन्तु दयानन्द के अनुसार "भिन्न-भिन्न भाषापृथक्‌-पृथक्‌ शिक्षाअलग-अलग व्यवहार के विरोध का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।" एकता-सम्मेलन समझौते का आधार बन सकते हैंएकता का नहीं। समझौतों से सामयिक समस्या का समाधान भले ही हो जाएउसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। ऐसे उपायों से रोग दब सकता हैकिन्तु नष्ट नहीं हो सकता। इतना ही नहींकालान्तर में वह और भी उग्र रूप धारण कर सकता है।

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    एक दिन श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्‌या ने स्वामी दयानन्द से पूछाभगवन्‌ ! भारत का पूर्ण हित कब होगायहॉं जातीय उन्नति कब होगीस्वामीजी ने उत्तर दिया, "एक धर्मएक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण कित और जातीय उन्नति होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्रस्थान ऐक्य है। जहॉं भाषाभाव और भावना में एकता आ जाए वहॉं सागर में नदियों की भॉंति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूँ कि देश के राजा-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्मभाषा और भावों में एकता करें। फिर भारत में आप ही सुधार हो जाएगा।"

    महात्मा गॉंधी ने स्वदेशी के लिए आन्दोलन किया था। उनका वह आन्दोलन स्वदेशी वस्त्रों या खादी तक सीमित था। वर्तमान में एक बार फिर इस प्रकार के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है जिसका लक्ष्य भारत में विदेशी या अर्धविदेशी कम्पनियों द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार करना बताया जाता है।

    दयानन्द ने अपने समय में देश की आर्थिक समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया। विचार ही नही  किया अपितु निश्चित योजना भी बनाई और तदर्थ विदेशों से पत्र-व्यवहार भी किया। दैवगति से उन्हें अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिला। स्वामीजी इस बात को बड़ी पीड़ा के साथ अनुभव करते थे कि विदेशी माल की खपत से कितनी हानि हो रही है। उन्होंने "सत्यार्थप्रकाश" में लिखा, "जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करें दो दारिद्र्‌य और दु:ख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।" देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के उद्‌देश्य से विदेशी वस्तुओं और रहन-सहन का बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा करते हुए उन्होंने बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा, "इतने से ही समझ लेओ कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते। देखोकुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियनों को हो गये और आज तक ये लोग वैसे ही मोटे कपड़े आदि पहनते हैंजैसेकि स्वदेश में पहनते थेपरन्तु उन्होंने अपने देश का चलन नहीं छोड़ा। तुममें से बहुत-से लोगों ने उनकी नकल कर ली। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। इससे तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान ठहरते हैं। वे अपने देशवालों को व्यापार में सहायता देते हैंइत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है।

    "अन्य देशस्थ मनुष्यों का भी उतना मान नहीं करते जितना अपने देश के जूते का" लिखनेवाले के मन में कितनी पीड़ा रही होगीअपने देश की दीन-हीन दशा देखकर कितनी तीव्र घृणा रही होगी उसके हृदय में विदेशी शासन और विदेशी वस्तुओं के प्रयोग के प्रति! छावली निवासी ठाकुर ऊधोसिंह को विदेशी वेशभूषा में देखकर उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था, "क्या तुम विदेशी कपड़ों से बने इस नये वेश से विभूषित होकर अपने पिताजी से अधिक सुसंस्कृत हो गये हो।?" -श्रीमद्दयानन्द प्रकाश

    स्वामीजी से प्रेरणा पाकर बड़ी संख्या में आर्यसमाजी स्वदेशी वस्त्रों का प्रेरणा करने लगे थे। लाहौर की आर्य समाज के सभासदों द्वारा अंग्रेजी वस्त्रों का प्रयोग न करने और स्वदेशी वस्त्रों का ही प्रयोग करने के निर्णय का समाचार "स्टेट्‌समैन" के 14 अगस्त 1879 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था-

    ‘The present condition of India is one of rapidly increasing improverishment. In this condition of the country, there is no public question of such high importance and absorbing interest as the question of the rivival of our trades and industries. The action of the members of Lahore Arya Samaj, founded by the learned Pandit Dayanand Saraswati should, therefore, be hailed with satisfaction by those who have the interest and welfare of this country at heart. They resolved at a meeting held at the premises of the Arya Samaj building to abstain from the use of English clothes. Hence foreward they will stick to the clothes manufactured solely in India. If they can fulfil their promises, and others follow their example, a great object will be gained. This is the only way be which the influence of Manchaster can be counteracted in the Indian market.’

    अर्थात्‌ "भारत की वर्तमान अवस्था तेजी से बढती हुई दरिद्रता की है। देश की इस अवस्था में अपने धन्धों और उद्योगों की पुन: बहाली का प्रश्न जितना महत्त्वपूर्ण और रोचक है उतना अन्य कोई सामाजिक प्रश्न नहीं है। अत: विद्वान्‌ मनीषी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित लाहौर आर्यसमाज के सदस्यों के कदम का सन्तोष के साथ अभिनन्दन उन सब लोगों को करना चाहिए जिनके हृदय में देश का हित है। आर्यसमाज भवन के परिसर में हुई एक बैठक में उन्होंने अंगे्रजी कपड़ों के उपयोग से विरत होने का निश्चय किया है। आगे से वे केवल भारत में बने कपड़ों का हठ रखेंगे। यदि वे अपने वचनों को क्रियान्वित कर सके और अन्य लोग उनके उदाहरण का अनुकरण कर पाये तो एक महान्‌ लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय बाजार में मैंचेस्टर के प्रभाव का जवाब देने का यह एक उपाय हैं।"

    राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
    अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
    आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
    नरेन्द्र तिवारी मार्ग
    बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास
    दशहरा मैदान के सामने
    अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
    दूरभाष : 0731-2489383, 9302101186
    www.aryasamajannapurnaindore.com 

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    Akhil Bharat Arya Samaj Trust
    Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
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    Near Bank of India
    Opp. Dussehra Maidan
    Annapurna, 
    Indore (M.P.) 452009
    Tel. : 0731-2489383, 9302101186
    www.allindiaaryasamaj.com 

     

    Of course, Christians have worked together to strengthen the shackles of our slavery by mixing the shoulders of the British. As long as there is a sense of self-respect among the people of a country, then the stability of foreign rule remains in question. To destroy this sentiment, Christianity tried to instill a sense of inferiority in them by calling Hindustani rude and wild. 

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-11

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    वेदोद्धारक दयानन्द-वेदों के सम्बन्ध में भ्रान्तियॉं महाभारत-काल से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न होने लगीं थीं। किन्तु तत्कालीन ऋषियों की जागरूकता के कारण अभी उनका विस्तार नहीं हुआ था। तत्पश्चात्‌ भी कुछ समय तक भगवान्‌ वेदव्यास और उनकी शिष्य-परम्परा वैदिक ज्ञान को कुछ काल तक अपने स्वरूप में सुरक्षित रखने में प्रयत्नशील रही। जैमिनि वेदव्यास के साक्षात्‌ शिष्य थे। शायद इसी कारण स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में अनेकत्र "ब्रह्मा से जैमिनि पर्यन्त" शब्दों का प्रयोग किया है। वैदिक वाड्‌मय के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उसी काल के हैं। यह स्थिति जैसे-तैसे महाभारत-काल के सौ-दौ सौ वर्षों तक बनी रही। तत्पश्चात्‌ वैदिक युग तेजी से समाप्ति की ओर बढने लगा। परिणामत: मानवजाति शतश: मत-मतान्तरों में विभक्त होने लगी। सायणाचार्य से पूर्ववर्ती आचार्यो के वेदार्थ को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यास्क आदि आप्त ऋषियों के वेदार्थ की परम्परा न्यूनाधिक रूप में उन आचार्यों तक बनी रही। मध्यकाल तक आते-आते वेदों का प्रयोजन द्रव्यमय यज्ञों के अनुष्ठान तक सीमित हो गया और इस प्रकार आर्ष परम्परा धीरे-धीरे ह्रासोन्मुख होकर लुप्तप्राय-सी हो गई।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मानवता ही मनुष्य का धर्म
    Ved Katha Pravachan -19 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    शताब्दियों तक वैदिक साहित्य याज्ञिक कीली के ईर्द-गिर्द घूमता रहा। सायण के काल तक ऐसी स्थिति हो गई कि आध्यात्मिक तत्त्वों का स्पष्ट निर्देश करनेवाले मन्त्रों को भी पकड़-पकड़कर बलात्‌ यज्ञप्रक्रिया में घसीटा जाने लगा। यहॉं तक कि शतपथ आदि वेद के व्याख्यान-ग्रन्थों तक में प्रक्षेप कर उन्हें दूषित करने की चेष्टा की जाने लगी। मांसभक्षण, मदिरापान, पशुबलि, गुप्तेन्द्रियपूजन आदि आसुरी दुष्प्रवृत्तियों का "ब्राह्मण" आदि ग्रन्थों में प्रक्षेप कर दिया गया और उन्हें भी "वेद" संज्ञा देकर अपनी मान्यताओं की वेद के नाम पर पुष्टि कर दी गई।

    राजा कालस्य कारणम्‌- "शासन-व्यवस्था का प्रभाव छोटे-बड़े सभी पर पड़ता है।" सायण विजयनगरम्‌ राज्य के प्रधानमन्त्री थे। वह यज्ञप्रधान युग था और यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य मानी जाती थी। उसी के आधार पर उसने वेदों का भाष्य किया। जब सायणाचार्य के मन में यह धारणा काम कर गई कि वेदा यज्ञार्थं प्रवृत्ता:, अर्थात्‌ वेदमन्त्र याज्ञिक प्रक्रिया का ही प्रतिपादन करते हैं तो यह स्वाभाविक था कि वह अपना समस्त बौद्धिक वैभव याज्ञिक प्रक्रिया में समर्पित कर बैठते। वेदार्थ की त्रिविध प्रक्रिया में याज्ञिक प्रक्रिया भी एक है। तद्‌नुसार भी मन्त्रार्थ किया जा सकता है, पर सायणाचार्य ने पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा का सर्वथा परित्याग करके वेदमन्त्रों का केवल याज्ञिक प्रक्रिया-परक अर्थ ही किया। अथर्ववेद के नवम काण्ड का चतुर्थ सूक्त बड़े-बड़े चौबीस मन्त्रों का है। इसमें गोवंश की उन्नति और उसके कृषि में उपयोग से सम्बन्धित अनेक बातों का विशेषत: उत्तम कोटि के बछडे उत्पन्न करने का उल्लेख हुआ है, परन्तु सायण आदि ने वेद के इस सूक्त को बैल को मारकर उसके मांस से यज्ञ करने में लगाया है। सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में बैल को पिता वत्सानां पतिरघ्न्यानाम्‌, उत्तम बछड़े-बछड़ियों का पिता और गौओं का पति बतलाते हुए, त्वष्टा रूपाणां जनिता पशूनाम्‌, सुन्दर-सुडौल सन्तान पैदा करनेवाला और आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेत:, घी-दूध के घड़े भरनेवाला कहा है। जब किसी के घर में उत्तम कोटि का बछड़ा उत्पन्न हो जाए तो उसे ग्राम या नगर की उत्तम गौओं से उत्तम सन्तान उत्पन्न करने के लिए सॉंड के रूप में राष्ट्र के निमित्त दान कर देना चाहिए। मन्त्र-गत "जुहोति" क्रिया की "हु" धातु का अर्थ दान भी होता है। प्रकरणश एव तु निर्वक्तव्या:, यास्क के इस निर्देश के अनुसार, "प्रकरण के अनुकूल ही निर्वचन होने चाहिएँ।" कृषि के प्रसङ्ग में "हु" धातु का "दान" अर्थ ही संगत होगा। काटकर होम किये हुए बैल से न खेती होगी और न उसके द्वारा घी-दूध प्राप्त होगा, पर कर्मकाण्ड की भंवर में फॅंसे होने के कारण वेदार्थ-विषयक मूलभूत सिद्धान्तों की अवहेलना करके पूर्वापर प्रसङ्ग पर विचार किये बिना, यहॉं तक कि गौ के "अघ्न्या" नाम की चिन्ता किये बिना सायण ने होमपरक अर्थ करके बैल के विभिन्न अंगों को काट-काटकर आग में झोंकने का विधान कर डाला।

    सन्तप्त हृदयों की आन्तरिक ज्वाला को शान्त कर आत्म समर्पण द्वारा प्रभु प्रेम में असीम आस्था का अनूठा दृश्य उपस्थित करनेवाला ऋग्वेद का एक अत्यन्त हृदयग्राही मन्त्र है, यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत्‌ सत्यमङ्गिर:। (1.1.6) हे प्रियतम देव ! शरणागत का कल्याण करना तुम्हारा नियम है। मन्त्र के इस भावनापूर्ण अर्थ का दर्शन न करके सायण यजमान के लिए "वित्त-गृह-प्रजा-पशुरूपं कल्याणम्‌" की प्रार्थना करते हैं और वह भी परमेश्वर से नहीं जड़ भौतिक अग्नि से। वस्तुत: यज्ञपरक उपर्युक्त मिथ्या धारणा के पूर्वाग्रह ने सायण को वेदमन्त्रों में निहित अर्थ तक पहुँचने ही नहीं दिया।

    इसमें सन्देह नहीं कि सायण ने अपने समय में वैदिक साहित्य में महान्‌ श्रम किया। वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों पर भाष्य लिखे। अन्य अनेक विषयों पर भी बहुत से प्रौढ ग्रन्थ लिखे या लिखवाये। उनके वेदभाष्य में व्याकरण आदि का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ है। सायण के इस प्रयास के लिए हम उन्हें साधुवाद दिये बिना नहीं रह सकते, परन्तु मूल धारणा के भ्रान्त होने के कारण उन्होंने स्वयं ही अपने किये-कराये पर पानी फेर दिया। महीधर आदि का भाष्य तो पूरी तरह वाममार्ग के रंग में रंगा है। इन भाष्यों को पढने के बाद कौन कणाद के बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे, वैशेषिक दर्शन 6.1.1 या मनु के सर्वज्ञानमयो हि स:, सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति और प्रमाणं परमं श्रुति:, इत्यादि वचनों पर विश्वास कर सकता है? इन सबने मिलकर वेद के प्रति श्रद्धा के मार्ग में पथरीली चट्‌टानें खड़ी कर दीं। वेदार्थ के विषय में भ्रान्ति पैदा करके संसार को वेद से विमुख करने में सबसे बड़ा हाथ सायण का है। सायण का नाम बार-बार इसलिए आता है कि वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों पर सबसे अधिक भाष्य उन्हं के हैं और उन्हीं के आधार पर आगे लोगों ने अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद आदि कार्य किया।

    क्या वेदों में वही कुछ है जो सायण, महीधर आदि ने बताया है? यदि इसका उत्तर "हॉं" में है तो महात्मा बुद्ध के स्वर-में-स्वर मिलाकर हम भी यही कहने को विवश होंगे कि ऐसे वेदों से दूर ही भले, हम ऐसे वेदों को नहीं मानते और यदि वे ईश्वरप्रदत्त हैं तो हम ऐसे ईश्वर को नहीं मानते। इन तथाकथित वेदाचार्यों द्वारा किये गये वेदभाष्यों के आधार पर होनेवाले कुकृत्यों को देखकर चारवाक चिल्ला पड़े, त्रयो वेदस्य कर्त्तारो, धूर्त्तभण्डनिशाचरा:। वेदों के नाम पर प्रसारित अधर्ममूलक दुष्प्रवृत्तियों से जनसाधारण में जो प्रतिक्रिया हुई उसी के फलस्वरुप चारवाक, जैन और बौद्ध मतों का प्रादुर्भाव हुआ। चारवाकों ने ईश्वर और वेदों के परित्याग के साथ-साथ आत्मा की सत्ता को भी नकार दिया। वेदों के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा यज्ञों में मूक प्राणियों की हिंसा से दयार्द्र महावीर और बुद्ध ने परम धर्म के नाम पर अहिंसा को प्रतिष्ठित किया। वेद के नाम पर होने वाली हिंसा, पाखण्ड, जन्मना वर्ण-व्यवस्था को या ऊँच-नीच, मृतक श्राद्ध, स्त्रियों और शूद्रों पर होनेवाले अमानुषिक अत्याचार आदि को सहन न कर सकने के कारण चारवाकों, जैनों और बौद्धों ने वेदों पर भीषण प्रहार किये। साधारण जनता वेदानुयायी-ब्राह्मणों के कदाचारों से तंग आ चुकी थी। अत: महावीर और बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर वह जैन और बौद्ध मतों में दीक्षित होने लगी। वेदों से घृणा हो जाने के कारण वैदिक धर्म विलुप्त होने लगा।

    arya samaj dayanand saraswati

    ऐसी अवस्था में कुमारिल भट्‌ट और शंकराचार्य ने वेदों को पुन: प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि बौद्ध मतानुयायियों द्वारा वेदों पर किये गये भीषण प्रहारों से त्रस्त कोई वेदानुयायी राजकुमारी अपने महल पर खड़ी आँसू बहा रही थी। महल के नीचे से जा रहे कुमारिल भट्‌ट के ऊपर गरम-गरम आँसुओं की बूदें पड़ीं तो उन्होंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा और राजकुमारी से उसके रोदन का कारण पूछा। राजकुमारी बोली, किं करोमि क्व गच्छामि? को वेदानुद्धरिष्यति? इस करुणक्रन्दन को सुनकर राजकुमारी को ढाढस बॅंधाते हुए कुमारिल ने उच्च स्वर से कहा, मा बिभेषी वरारोहे! भट्टाचार्योस्ति भूतले, हे देवि ! रो मत। वेद के उद्धार के लिए इस धरती पर भट्टाचार्य विद्यमान है। परन्तु कुमारिल यज्ञिय कर्मकाण्ड की प्रतिपादक शाखाओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में ही उलझकर रह गये। मूल संहिताओं का उन्होंने स्पर्श तक नहीं किया।

    शंकराचार्य वेद आदि शास्त्रों में निष्णात थे। उनकी तर्कशक्ति बड़ी प्रबल थी। उन्होंने अकेेले ही वेदविरोधी चारवाकों, जैनों और बौद्धों से लोहा लिया। बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हुए। वे शंकर के प्रचण्ड तर्कों का सामना न कर सके। धीरे-धीरे इन मतों का वर्चस्व मन्द पड़ गया। शंकराचार्य के काल तक वैदिक शाखाओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों की भी "वेद" संज्ञा प्रचलित हो चली थी। अध्यात्मप्रवण शंकर ने "वेदान्त" नाम से अध्यात्मप्रधान उपनिषदों पर अपने अद्वैत मत को स्थापित किया। इस मत का आधारभूत सिद्धान्त है, ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। "जगमिथ्या" का आधार है शंकराचार्य के दादागुरु गौड़पादाचार्य द्वारा प्रतिपादित वह सिद्धान्त कि आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा, अर्थात्‌ "यह जगत्‌ उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय होने पर नहीं रहेगा, इसलिए इस समय भी नहीं है।" मूल संहिताओं का स्पर्श शंकर ने भी नहीं किया। उनके सम्पूर्ण साहित्य में वेद के कहीं दर्शन नहीं होते। वैदिक संहिताओं की उपेक्षा उन्होंने इसलिए की क्योंकि उनके काल तक वेद केवल अपरा-विद्या के ग्रन्थ माने जाने लगे थो। वेदों का प्रयोजन केवल कर्मकाण्ड तक सीमित था। परा-विद्या अथवा ज्ञानकाण्ड के ग्रन्थों के रुप में उपनिषदों की मान्यता थी। प्रस्थान-त्रयी के जिन वचनों में द्वैतवाद का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है, उनका भी शंकराचार्य ने अद्वैतपरक व्याख्यान किया है।

    सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य) का नारा लगानेवाले शंकर को शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:, (श्रीमद्‌भगवद्‌गीता) के अनुसार मनुष्यमात्र को ही नहीं प्राणिमात्र को आत्मवत्‌ समझना चाहिए था, परन्तु वेदान्तदर्शन के "अपशूद्राधिकरण" में मात्र वेद को सुनने के तथाकथित अपराधी शूद्र के कानों में गरम-गरम सीसा या लाख उँडलने का निर्देश करके "प्रश्नोत्तरी" में नारी को नरक का द्वार बतलाकर और काशी में सामने से आ रही शूद्रा को परे हटने का आदेश देकर अपने मनस्यन्यद्‌ वचस्यन्यत्‌ कर्मण्यन्यत्‌ का उदाहरण उपस्थित कर "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के याथार्थ्य का भाण्ड़ा फोड़ दिया। डॉ. राधाकृष्णन्‌ द्वारा वेदान्तदर्शन का अंग्रेजी में किया गया भाष्य शंकराचार्य के भाष्य का अंग्रेजी में अनुवाद मात्र है, सर्वथा उसके अनुकूल है, परन्तु 1.3.38 श्रवणाध्ययनार्थप्रतिरोधात्‌ स्मृतेश्च के अपने भाष्य में वे शंकर से अपना मतभेद प्रकट किये बिना न रह सके। वहीं उन्होंने लिखा हैं-

    ‘But the restricitons imposed with regard to Vedic study cannot be defended. If we take our stand on the potential divinity of all human beings, whatever be their caste or class. race or religion, sex or occupation, the methods for gaining release should be open to all.’  

    अर्थात्‌ "वेदाध्ययन पर लगाये गये प्रतिबन्धों की वकालत असम्भव है। यदि हम अपना पक्ष सब मनुष्यों की निहित दिव्यता पर आधारित करते हैं, भले ही उनकी जाति या श्रेणी नस्ल या धर्म, लिङ्ग या धन्धा कुछ भी हो, तो मोक्षप्राप्ति के उपाय सबके लिए अगोप्य होने चाहिएँ।" परन्तु शंकर ने कलम की एक नोक से मानवसमाज के तीन चौथाई भाग (स्त्री-रूप आधा+शूद्र-रूप अन्य अर्द्ध) को वेदाध्ययन से वञ्चित कर दिया और रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि सभी आचार्यों ने उनका आँख मून्दकर समर्थन कर दिया। यह कैसा वेदोद्धार था और कैसा अद्वैतवाद? वस्तुत: यह सब इन आचार्यों की वेदार्थ सम्बन्धी भ्रान्तियों से उत्पन्न अवैदिक विचारधारा का परिणाम था।

    अहं ब्रह्मास्मि के मिथ्या भूत के कारण शंकर के लिए वेद गौण हो गये और वेदान्त मुख्य। यही कारण है कि उनके ग्रन्थों में ढूँढने पर भी वेदमन्त्र नहीं मिलते। मनु के अनुसार श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेय:, "श्रुति से वेदों (मन्त्रसंहिताओं) का ही ग्रहण होता है", परन्तु शंकर "श्रुति" नाम से ब्राह्मण, उपनिषद्‌, स्मृति आदि को उद्धृत करते हैं। ऐसा लगता है कि शंकर ने केवल वेदविरोधी मतों का खण्डन करने के लिए ही  अद्वैत मत को अपनाया था। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। यदि ऐसा न होता तो अपने से भी पहले वेदमत की प्रतिष्ठार्थ प्रयास करनेवाले, किन्तु द्वैतवादी कुमारिल भट्‌ट से शास्त्रार्थ करने प्रयाग न पहुँच जाते।

    इस प्रकार वेदमत के उद्धार के लिए कृतसंकल्प शंकर उपनिषदों से आगे नहीं बढे। ऐसी अवस्था में मनु आदि द्वारा वेद के लिए कहे गये सर्वज्ञानमयो हि स:, सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति और नि:सृतं सर्व शास्त्रं तु वेदशास्त्रात्‌ सनातनात्‌, इत्यादि कथन जो वेद को सब विद्याओं का आकर ग्रन्थ बताते हैं, निरर्थक हो गये। वस्तुत: कमारिल और शंकर ने अपने वेदोद्धार के कार्य के निमित्त तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन्मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढम्‌, (निरुक्त 13.12) के "मन्त्रार्थ के सत्यमार्गदर्शक, ऋषिभूत तर्क" का आश्रय नहीं लिया। ऐसा न कर पाने के कारण वे वेदों को मनुष्य के लिए अपेक्षित सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार के रूप में प्रस्तुत न कर सके। पॉंच सहस्त्र वर्षों के पश्चात्‌ प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द की प्रेरणा से प्राप्त इस दिव्यास्त्र का प्रयोग करके संसार में व्याप्त अविद्यान्धकार को दूर करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को मिला।

    वेदोद्धार का जो महत्तम कार्य महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया वह पूर्वकाल के कुमारिल और शंकर के काम से कहीं अधिक क्लिष्ट और दुरूह था। इन दोनों आचार्यों ने जिन चारवाक, जैन और बौद्ध मतों का खण्डन किया वे मूलत: वैदिक और भारतीय थे। स्वामी दयानन्द के काल में पूर्वोक्त अवैदिक मतों के अतिरिक्त कुकुरमुत्तों की भॉंति अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये थे जो अपने को वैदिक मतानुयायी कहते हुए भी वास्तव में अवैदिक थे। स्वयं शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित अद्वैतवाद भी उन्हीं में से एक था। अवतारवाद, बहुदेवतावाद, मूर्तिपूजा, जन्मगत ऊँच-नीच आदि अनेकविध अवैदिक मान्यताअें से ग्रस्त समाज बड़ी तेजी से पतन की ओर बढ रहा था। जिस सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म की राम और कृष्ण उपासना करते थे, उसे छोड़कर उसके उपासक स्वयं राम और कृष्ण को उपास्य मानकर उन्हें वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर उन्हीं की धूप और नैवेद्य आदि से पूजा करने लग गये थे। श्रीमद्भगवद्‌गीता ने कहा था, ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन! तिष्ठति। (17.61) परन्तु भक्तजनों ने उन्हें अपने हृदय-मन्दिरों से निकालकर गली-कूचों में बने ईंट-पत्थरों के मन्दिरों में कैद कर दिया था। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" की मनमानी व्याख्या करके ईश्वर के नाम पर निरीह पशुओं और कभी-कभी मानव-शिशुओं की बलि देकर तथाकथित भक्तजन खुशी में पागल होकर नाचते-कूदते थे। गुण-कर्म-स्वभाव पर आश्रित वर्णव्यवस्था का स्थान जन्ममूलक दूषित जातिप्रथा ने ले लिया था। दुधमुँहे बच्चों के विवाह कर दिये जाते थे। परिणामत: लाखों बाल-विधवाएँ अभिशप्त जीवन व्यतीत करने को विवश थीं। पुरोहित-वर्ग पति की मृत्यु पर पत्नी को स्वर्ग-प्राप्ति का प्रलोभन देकर अथवा सामाजिक दण्ड और अत्याचार का भय दिखाकर सती के नाम पर उसे जीवित ही आग में झोंक देता था। ब्राह्मणवर्ग तरह-तरह के पाखण्ड रचकर जनता को लूटता था। रोगों को भूत-प्रेत की लीला बताकर जहॉं एक ओर अपनी जेबें गरम की जाती थी वहॉं दूसरी ओर रोगी को समुचित चिकित्सा से वंचित कर मौत के मुँह में धकेल दिया जाता था। तीर्थस्थान व्यभिचार के अड्डे बने हुए थे। "स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्‌" का मिथ्या प्रचार करके देश की आधी से अधिक आबादी को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था। इस प्रकार भारत अनपढ, गॅंवारों का देश बनकर रह गया था और यह सब वेदों के नाम पर हो रहा था।

    founder of arya samaj

    उक्त भारतीय मत-मतान्तरों और अवैदिक मान्यताओं के पोषक पौराणिक वेदभाष्यों के अतिरिक्त मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वान्‌ जान-बूझकर वेदों को विकृ त रूप में प्रस्तुत करने के लिए कटिबद्ध थे। जैसे हम वेदों को कण्ठस्थ करनेवाले दाक्षिणात्य ब्राह्मणों के ऋणी हैं, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानों के भी ऋणी हैं। भारतीय ब्राह्मणों ने यदि वेदों को नष्ट होने से बचाया तो पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों को भारत में ही सीमित न रहने देकर उन्हें विश्व की सम्पत्ति बनाया। यूरोपीय विद्वानों के प्रयत्न से वेद सारे संसार में चर्चित होने लगे, किन्तु जैसे सायण आदि का दृष्टिकोण यज्ञपरक था और उनके अनुसार हर मन्त्र का लक्ष्य यज्ञ की किसी क्रिया को सामने रखकर मन्त्र का नियोजन करना था, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानों का लक्ष्य वेदभाष्य करते समय ईसाई मतावलम्बी विदेशी सरकार के हितों को ध्यान में रखते हुए उन पर विकासवादी दृष्टिकोण से विचार करना था। मैक्समूलर के भाष्य पर सायण और डार्विन दोनों छाए हुए हैं और उसके भीतर मैकाले की आत्मा विद्यमान है मैक्समूलर ने विकासवाद को सामने रखकर सायण आदि के भाष्यों का अंग्रेजी में रूपान्तर किया। वस्तुत: पाश्चात्य भाष्यकारों की विचारधारा का आधारभूत सिद्धान्त विकासवाद का विचार है। उनके लिए विकासवाद का सिद्धान्त पहले था। उसके बाद जो कुछ आया उसे विकासवाद की कसौटी पर घटाकर देखा गया। विकासवाद की कसौटी पर परखकर ही ये लोग किसी बात को सही या गलत होने का निश्चय करते हैं। मैक्समूलर ने बहुदेवतावाद (पॉलीथीज्म) और एकेश्वरवाद (मोनोथीज्म) के मुकाबले में "हीनोथीज्म" नाम से एक नये मत की कल्पना सिर्फ इसलिए की क्योंकि वह विकासवाद के सिद्धान्त के विपरीत, यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि एकेश्वरवाद-जैसा उत्कृष्ट विचार मानव-संस्कृति के प्रारम्भिक काल में किसी मनुष्य के विचार में आ सकता था। जब एकेश्वरवार के विचार की पुष्टि में वेद से "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" वाक्य को उद्‌धृत किया जाता है तो कहते हैं कि यह बहुत बाद का विचार (ऑफ्टर थाट) है। मैक्समूलर के प्रमुख शिष्य मैकडानल ने अपनी पुस्तक "ए वैदिक ग्रामर फॉर स्टूडेण्ट्‌स"  में लिख दिया कि ऋग्वेद के 10 मण्डलों में से 8 मण्डल पहले लिखे गये, तत्पश्चात्‌ नवॉं और अन्त में दसवॉं। उनके कहने का अभिप्राय यह है कि पहले आठ और अगले दो (जिनमें एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया है) मण्डलों के लिखे जाने का समय भिन्न है। जब उन्हें यह बतलाया जाता है कि "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" तो पहले मण्डल में ही आया है, तो वे कहते हैं कि वहॉं यह प्रक्षिप्त है। परन्तु यह वाक्य तो वेद का अभिन्न अंग है जो भिन्न-भिन्न शब्दों में यत्र-तत्र-सर्वत्र ओत-प्रोत है। फिर इसे प्रक्षिप्त या बाद में डाला हुआ कैसे कहा जा सकता है? यह शीर्षासन केवल इसलिए किया जाता है, क्योंकि उनकी विकासवादी विचारधारा में यह फिट नहीं बैठता। इस विषय में योगी अरविन्द ने लिखा है-

    “We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn (Rg. 1.164.46), they say, was a later production; this loftier idea, which it expresses with so clear a force, rose up somehow in the mind or was borrowed by those ignorant fire-worshippers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughtout the Veda we have a large number of conformatory hymns and expressions..... Why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism, rather than this new fangled monstrocity of henothism? Well, because primitive barbarians could not possibly have so risen, you imperil our theory of evolutionary stages of human developmet. Truth must hide itself, common sense disappear from the field so that your theory may flourish. I ask in this point and it is the fundamental point, who deals most forwardly with the text, Dayanand or the Western Schoolars?

    इस उद्धरण का अभिप्राय यह है कि यदि "एकं सद्‌ विप्रा बहुधा वदन्ति" से विकासवाद खण्डित होता है तो पाश्चात्य विद्वानों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अपने अर्थ को स्पष्ट करने के लिए वेद की अन्त: साक्षी प्रमाण होगी या मैक्समूलर, कीथ, ग्रिफिथ आदि जो कहेंगे वह प्रमाण होगा? वेदों का अर्थ यदि वेदों से ही स्पष्ट होता हो तो उस प्रक्रिया का सर्वोच्च स्थान होना चाहिए। परन्तु यदि वेदों का स्वत:-प्रसूत अर्थ विकासवाद को पुष्ट नहीं करता तो पाश्चात्य विद्वान्‌ अर्थों को तोड-मरोडकर अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते हैं। अरविन्द के अनुसार दयानन्द ऐसा नहीं करते।

    यद्यपि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों पर पर्याप्त कार्य किया तो भी वे उनमें निहित ज्ञान की थाह न पा सके। सच्चाई तक पहुँचने में विकासवाद के अतिरिक्त उनका पूर्वाग्रह और स्वार्थ आड़े आया। यूरोपियन समाज भारत में ब्रिटिश सााम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारतीयों को ईसाइयत के सॉंचे  में ढालने के उद्‌देश्य से इस देश के साहित्य और इतिहास को विकृत करने में प्राणपण से जुटा हुआ था। इसीलिए उन्होंने वेदों का ऐसा भाष्य किया जिसे पढने के बाद इस देश के लोग अपनी सांस्कृतिक विचारधारा को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। इस अभियान का आरम्भ मैकाले के क्रीतदास मैक्समूलर ने किया। स्वयं मैक्समूलर ने अपने पत्नी के नाम लिखे पत्र में इस तथ्य को स्वीकार किया-

    “This edition on mine and the translation of the Veda will, hereafter, tell to a great extent on the fate of India. It is the root of their religion and to show them what the root is. I feel sure, it is the only way of uprooting all that has sprung the last three thousand years.” (Life and Letters of Frederick Max Muller, Vol. I, Ch. XV, P.34)

    अर्थात्‌, मेरा यह भाष्य भारत के भाग्य को दूर तक प्रभावित करेगा। यह वेद उनके धर्म का मूल है और उन्हें यह दिखा देना कि उनका मूल कैसा है, उनकी गत तीन हजार वर्षों की उपलब्धि को समूल नष्ट कर देगा।

    इसका क्या परिणाम हुआ, यह भारत-सचिव के नाम 16 दिसम्बर 1868 को लिखे मैक्समूलर के निम्न पत्र से स्पष्ट हो जाता है-

    “The ancient religion of India is doomed. Now if Christinity does not step in whose fault will it be?” -Ibid, Ch. XVI, P. 378

    अर्थात्‌ "भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है। अब यदि ईसाइयत उसका स्थान नहीं लेती तो यह किसका दोष होगा?

    मैक्समूलर के प्रयासों की सराहना करते हुए उसके घनिष्ठ मित्र ई. बी. पुसे ने अपने एक पत्र में लिखा-

    ‘Your work will mark a new era in the efforts for the conversion of India.’
    अर्थात्‌ आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने की दिशा में नवयुग लानेवाला होगा।

    भारत को "यावच्चन्द्रदिवाकरौ"दासता की बेड़ियों में जकड़े रखने के लिए बोर्ड ऑफ एजुकेशन के अध्यक्ष लार्ड मैकाले द्वारा निर्धारित शिक्षा-नीति के अनुसार खोले गये स्कूलों और कॉलेजों के लिए जो पाठ्‌यक्रम नियत किया गया वह "मेड इन इंग्लैंड एण्ड फॉर इंगलैंड" था। उसका एकमात्र प्रयोजन पाश्चात्य विचारवाले ऐसे व्यक्ति तैयार करना था जो तन से भले ही काले हों, पर मन से गोरे अर्थात्‌ अंग्रेज बन जाएँ। उस शिक्षा पद्धति के सॉंचे में ढलकर जो भी निकले, डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में "दे वर मोर इंग्लिश दैन द इंग्लिश दैमसैल्व्ज्‌" (इंडियन फिलासफी, वाल्यूम II )। इस शिक्षा-नीति के फलस्वरूप लोकमान्य तिलक जैसे महान्‌ देशभक्त भी वेदों के आधार पर अपने को इस देश में विदेशी मान बैठे, और जब उनसे पूछा गया कि वेदों में यह कहॉं लिखा है तो भेंटकर्त्ता उमेशचन्द्र विद्यारत्न से उन्होंने सहजभाव से कह दिया, "आमि मूल वेद अध्ययन करि नाई, आमि साहिब अनुवाद पाठ करिये छे"। -मानवेर आदि जन्मभूमि पृष्ठ 124 

    ऐसे समय में सन्‌ 1824 में स्वामी दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से इस देश की समस्याओं पर विचार किया। उन्होंने समझ लिया कि रोगी वृक्ष के पत्तों को सींचने से वृक्ष नहीं पनप सकता। उसकी जड़ों में रोगनाशक दवाइयों का प्रयोग कर अपेक्षित खाद-पानी देने से ही वह फलीभूत होगा। विचार के पश्चात्‌ वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस देश, जाति और समाज की दुर्दशा का मूलकारण वेदविद्या के प्रचार के अभाव में देश में व्याप्त अविद्यान्धकार है। इसलिए जब तक वेदों का उद्धार करके उनको अपने वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाएगा तब तक अविद्यान्धकार दूर नहीं होगा। वेदों को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए दयानन्द को भारतीय अवैदिक मत-मतान्तरों के अनुयायियों, विदेश से आयातित अर्थ व बलपूर्वक आरोपित मतों (इस्लाम और ईसाइयत), पाश्चात्य और तद्‌नुयायी भारतीय विद्वानों द्वारा फैलाई गई विविध भ्रान्त धारणाओं से एक-साथ लड़ना पड़ा । वस्तुत: स्वामी दयानन्द भारतीय पुनर्जागरण (रिनेसेंस) के अग्रदूत थे। फ्रॉंस के महान्‌ लेखक रोम्यॉं रोलॉं ने लिखा है-

    “This man with the nature of a lion is one of those whom Europe is apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost; for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. He was a hero with the athletic strength of Herculese who thundered against all forms of thought other than his own, the only true one. He was so successful that in five years the whole of Northern India was completely changed. He possessed unrivlled knowledge of Sanskrit and the Vedas. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. Dayananda was not a man to come to understanding with religious philosophers imbued with Western ideas.”

    "यह सिंह-सदृश प्रकृतिवाला मनुष्य उनमें से एक था जिसे यूरोप प्राय: उस समय भुला देता है जब वह भारत के सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाता है, किन्तु एक-न-एक दिन विवश होकर उसे अपनी भूल मानकर दयानन्द को स्मरण करना होगा, क्योंकि उसमें कर्मयोगी, चिन्तक तथा नेतृत्व के लिए अपेक्षित प्रतिभा का दुर्लभ मिश्रण था। शारीरिक बल में वह हरकूलीस के समान शक्तिशाली था जो सत्य के विपरीत हर प्रकार के विचार के विरुद्ध गर्जता था। अपने प्रयास में वह इतना सफल हुआ कि पॉंच वर्ष के भीतर सारा उत्तर भारत पूरी तरह बदल गया। संस्कृत और वेदों के ज्ञान में उससे बढकर कोई नहीं था। शंकर के बाद दयानन्द के समान वेदों का प्रवक्ता दूसरा नहीं हुआ। पाश्चात्य विचारों से प्रभावित किसी धार्मिक या दार्शनिक विचारधारावालों से उसने कभी समझौता नहीं किया।"

    पर शंकराचार्य ने वैदिक ज्ञान में निष्णात होते हुए भी वेदों के सम्बन्ध में कभी कोई बात नहीं की। प्रस्थानत्रयी में उलझकर वह वेदों को मानो भूल ही गये थे। वस्तुत: शंकर के लिए वेद आस्था की वस्तु थे। व्यवहार में उसके लिए कोई स्थान नहीं था। उसके विपरीत दयानन्द ब्रह्मा से लेकर जैमिनि-पर्यन्त जितने भी ऋषि-मुनि-आचार्य हुए और उनके द्वारा प्रोक्त जो वाङ़्‌मय इस समय उपलब्ध है तथा जो वेदानुकूल भारतीय शिष्टाचारान्तर्गत परम्परा है, उस सबको अपने भीतर समेटे हुए थे और उस सबको उन्होंने लोकार्पण करके यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रसारित किया। जहॉं "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के सिद्धान्त के अनुसार प्राणिमात्र को ब्रह्मरूप में माननेवाले शंकर ने वेदमन्त्रों को सुननेवाले शूद्र के कानों में सीसा भरने, पढनेवाले की जिह्वा काटने और याद करनेवालों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने का आदेश दिया वहॉं दयानन्द ने "यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्य:" (यजुर्वेद 26.2) इत्यादि मन्त्रों के आधार पर मनुष्य-मात्र को वेद के पढने-पढाने और सुनने-सुनाने का अधिकार प्रदान किया। दयानन्द के मत में जैसे ईश्वर की सृष्टि में जल, वायु आदि सब पदार्थ सबके लिए हैं वैसे ही उसका ज्ञान भी सबके लिए है। वह किसी वर्ग-विशेष की धरोहर नहीं है। इस प्रसंग में रोम्यॉं रोलॉं के निम्नलिखित शब्द विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

    “It was in truth an epoch-making day for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas, whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmanas, but duty of every Arya”.

    अर्थात्‌, "भारत के इतिहास में वह दिन सचमुच युगान्तरकारी था, जब एक ब्राह्मण ने मनुष्यमात्र को वेदाध्ययन का अधिकारी ही घोषित नही किया, जिस पर पहले कट्‌टरपन्थी ब्राह्मणों ने रोक लगा रक्खी थी, अपितु प्रत्येक आर्य के वेदाध्ययन करने और वेद का प्रचार करने को अपना कर्तव्य समझने पर बल दिया।" इस प्रकार जहॉं तक वेद का सम्बन्ध है, स्वामी दयानन्द का स्थान हर दृष्टि से शंकराचार्य से कहीं ऊँचा है। दयानन्द ने जो किया शंकर उसका दशांश भी नहीं कर पाये।

    स्वामी दयानन्द के अनुसार मन्त्रसंहिताओं को छोड़कर सम्पूर्ण वैदिक वाङ्‌मय परत:प्रमाण है। केवल चार संहिताएँ ही स्वत: प्रमाण हैं। वेदार्थ प्रक्रिया में भी दयानन्द का अपना विशिष्ट योगदान है। वेद के सभी शब्दों को उन्होंने यौगिक या योगरूढ माना है। कोई भी शब्द रूढ या यदृच्छा-रूप नहीं है। प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा निर्दिष्ट त्रिविध प्रक्रिया को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने वेदमन्त्रों का व्यावहारिक अर्थ करके वेदों को सर्वजनोपयोगी रूप में प्रस्तुत किया। वेदों के सर्वज्ञानमयत्व और "सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति" आदि वचनों को सार्थक करनेवाला वेदों का एकमात्र भाष्य दयानन्द-कृत ही है। इसके निदर्शनार्थ उन्होंने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" की रचना की। इस अद्‌भुत ग्रन्थ के अध्ययन का यह परिणाम हुआ कि जिस मैक्समूलर ने सन्‌ 1866 में स्वरचित "चिप्स्‌ फ्रॉम ए जर्मन वर्कशॉप" में लिखा था कि "वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या बिल्कुल बचकानी, जटिल, निकृष्ट और अत्यन्त साधारण हैं", उसी ने सन्‌ 1882 में "भारत से हम क्या सीखें?" में लिखा, "वेद में जैसी भाषा पाई जाती है, उसमें जैसा जीवनदर्शन है और जैसे धर्म का दर्शन होता है, उससे जो दृश्यावली दृष्टिगत होती है, वर्षों में तो उसे कोई माप नहीं सकता। वेद में ऐसी भावनाओं का प्रकाश हुआ है जो हम यूरोपियनों को 19वीं शताब्दी में आधुनिक प्रतीत होती हैं। मानव-विचारधारा के इतिहास के विषय में जो जानकारी हमें वेदों से मिलती है वह वेदों की खोज से पूर्व हमारी कल्पना से परे थी" (पृ.130)।

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    इतना ही नहीं जिस मैक्समूलर ने दयानन्द के सम्बन्ध में कभी यह लिखा था-

     “He (Dayanand) actually published a commentary in Sanskrit on Rigveda. But in all his writings there is nothing which can be quoted as original, beyond his somewhat strange interpretations of words and whole passages.”-A Real Mahatman.

    अर्थात्‌ दयानन्द ने ऋग्वेद पर संस्कृत में एक भाष्य प्रकाशित किया है, पर उसके समस्त लेखन में मौलिक रूप से उल्लेखनीय कुछ भी नहीं है, सिवाय शब्दों और पूरे-पूरे अंशों के उसके अजीब-से अर्थों के।

    उसी मैक्समूलर ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" पढने के बाद दिखा-

     “We may divide the whole of Sanskrit literature beginning with the Rigveda and ending with Dayananda’s ‘Rigvedadibhashya bhumika’ (‘Introduction to his commentary on the Rigveda’).

    अर्थात्‌ ऋग्वेद से आरम्भ होनेवाले और दयानन्द की "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" तक समूचे संस्कृत वाङ्‌मय को हम बॉंट सकते हैं।"

    इस प्रकार मैक्समूलर ने संस्कृत साहित्य के एक ध्रुव पर ऋग्वेद को रक्खा और दूसरे पर "ऋग्वेदिभाष्यभूमिका" को। ऋग्वेद का सम्बन्ध ब्रह्मा से है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार दयानन्द ने अनेकत्र "ब्रह्मा से जैमिनिपर्यन्त" शब्दों का प्रयोग किया है वैसे ही यहॉं "ब्रह्मा से दयानन्दपर्यन्त" कहा गया है।

    दयानन्द के वेदभाष्य को लक्ष्य करके श्री अरविन्द ने कहा-

    “There is nothing fantasfic in Dayananda’s idea that the Veda contains truths of science as well as truths of religion. I will even add my own conviction that the Veda contains the other truths of seience which the modern world does not at all possess and in that case Dayananda has rather understated than overstated the depth of the range of Vedic wisdom.” -Dayananda and the Veda

    "दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों सचाइयॉं पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद या कल्पना मूलक बात नहीं है। मैं इसके साथ अपनी यह धारणा भी जोड़ना चाहता हूँ कि वेदों में विज्ञान की वे सचाइयॉं भी हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। ऐसी अवस्था में दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई के सम्बन्ध में अतिशयोक्ति से नहीं अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है।" -दयानन्द और वेद

     “In the matter of Vedic interpretatiohn, I am convinced, whatever may be the final and complete inerpretation of Vedas, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amids the chaos and obscurity of old ignorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He has found out the keys of the doors that time had closed and rent assunder the seals of the imprisoned fountains.”-Vedic Magazine, Lahore, Nov., 1916. 

    "वैदिक व्याख्या के सम्बन्ध में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की अन्तिम और पूर्ण व्याख्या चाहे कुछ भी हो, यथार्थ निर्देशों के प्रथम आविर्भावक के रूप में दयानन्द का नाम सदा सम्मान के साथ लिया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग की मिथ्या ज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच यह उनकी अन्तर्दृष्टि थी जिसने सचाई को खोजा और उसे वास्तविकता के साथ जोड़ दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रक्खा था उनकी चाबियों को उसने ढूँढ निकाला और बन्द पड़ें फौवारे की मोहरों को तोड़ फेंका।" (वैदिक मैगजीन, लाहौर, नवम्बर 1916)

    यह ध्रुव सत्य है कि गत पॉंच सहस्त्र वर्षों में वेद के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर उसे उसी रूप में पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्प, सर्वात्मना समर्पित व्यक्ति दयानन्द से अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हुआ। मनु आदि ऋषियों के "सर्वज्ञानमयो हि स:", सर्वं वेदात्‌ प्रसिध्यति", "नि:सृतं सर्वशास्त्रं तु वेदशास्त्रात्‌ सनातनात्‌", "वेद: प्रमाणं लोकानाम्‌", इत्यादि वाक्यों का मानो भाष्य करते हुए दयानन्द ने "वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक" बताया और क्योंकि "धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:" कहा गया है, इसलिए "वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना ही सब आर्यों का परम धर्म" निश्चित किया। जहॉं अन्य समाज-सुधारकों में से किसी ने सत्य को परम धर्म बताया, किसी ने अहिंसा को, किसी ने परोपकार को, वहॉं दयानन्द ने अपने अनुयायियों के लिए वेदाध्ययन को परम धर्म घोषित किया। 10 अप्रेल, 1875 (संवत्‌ 1931-32) को बम्बई में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना करते समय उसका उद्‌देश्य इन शब्दों में निश्चित किया गया था- "आ समाजनो मुख्य उद्देश्य ए छे कि वेदधर्मतत्वो प्रत्येक सभासदे मान्य करवां अने देश-विदेश मा तेनो प्रसार करवाने यथाशक्ति प्रयत्न करवो।" इससे स्पष्ट है कि दयानन्द की दृष्टि में आर्यसमाज की स्थापना का प्रयोजन वेदों का प्रचार-प्रसार करना था।

    स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में जगह-जगह लिखा है, "वेदों की अप्रवृत्ति होने से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत हो जाने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त हो जाने के कारण जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया।" इस कारण दयानन्द ने प्रमुखरूप से वेदविद्या के पुन: प्रतिष्ठापन के लिए ही आर्यसमाज की स्थापना की। यही उनका मुख्य कार्य था, शेष सब कार्य उसी के अंग-प्रत्यंग-रूप थे। "श्रीमद्भगवद्‌गीता" की शैली में कहा जा सकता है कि "लुप्त हुए वैदिकधर्म संस्थापनार्थाय" ही दयानन्द का अवतरण हुआ था।

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    That is, "The day in the history of India was truly epoch-making, when a Brahmin did not declare mankind to be the authority of Vedhyayana, which was previously forbidden by the Katharpanthi Brahmins, but to study every Arya and preach the Veda. Stressed to understand his duty. " Thus far as Vedas are concerned, Swami Dayanand's place is higher than Shankaracharya's in every respect. Shankar could not even tithe what Dayanand did.

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-13

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
    राष्ट्रभाषा-प्रसारक दयानन्द-स्वामी दयानन्द ने स्वरचित "ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका" में "वेदानां नित्यत्वविषय:" के अन्तर्गत लिखा, "जो जिस देशभाषा को पढता है उसको उसी का संस्कार होता है।" भाषा के हर शब्द की एक पृष्ठभूमि होती है। वह तत्तद्‌ देश की संस्कृति और परम्पराओं से बनता है। भाषा के बदल जाने पर उस संस्कृति विशेष में उथल-पुथल होने की पूरी सम्भावना रहती है। संस्कृति समाज की आत्मा होती है। उसके नष्ट हो जाने पर वह समाज या राष्ट्र जीवित नहीं रहता। जब हम "यूनानो मिस्त्र रोमॉं सब मिट गये जहॉं से" कहते हैं तो उनका यह मिटना इन्हीं अर्थों में होता है। इस देश की सभ्यता,संस्कृति,इतिहास और परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए इस देश की भाषा को जीवित रखना और उसका विकास करना स्वामीजी आवश्यक समझते थे। उनके अपने शब्दों में "मैंने आर्यावर्त में भाषा का ऐक्य सम्पादन करने के लिए अपने सकल ग्रन्थ आर्यभाषा में लिखे हैं।" स्वामीजी अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के पढने के विरोधी नहीं थे। किन्तु वे इस बात को जानते थे कि अंग्रेजी विदेशी शासकों की भाषा है और उन्हें इस बात का दु:ख था कि वह यहॉं के लोगों की मातृभाषा बनती जा रही है। इसीलिए उन्होंने अन्य देशीय भाषाओं से पहले देवनागरी अक्षरों के अभ्यास पर बल दिया।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    सुखी जीवन का मूल धर्म
    Ved Katha -17 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    एक सज्जन ने जब स्वामीजी से उनके ग्रन्थों के उर्दू में अनुवाद की अनुमति चाही तो उन्होंने लिखा, "जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी वे इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्त्तव्य समझेंगे। अनुवाद तो विदेशियों के लिए होता है।" मैडम ब्लेवैटस्की को उन्होंने लिखा था कि "मेरा विचार आपको अनुवाद करने से रोकने का नहीं हैक्योंकि बिना अंग्रेजी अनुवाद के यूरोपीय जातियॉं सत्य के प्रकाश को नहीं पा सकेंगीकिन्तु भारत की जनता मेरे भाष्य के अंग्रेजी में प्रकाशित होने पर संस्कृत और हिन्दी के अभ्यास को त्याग देगी। मेरा वेदभाष्य समझने के लिए संस्कृत और हिन्दी का अध्ययनजो मेरा लक्ष्य हैनष्ट हो जाएगा।" स्वामीजी का किसी भी भाषा से विरोध या द्वेष नहीं था। किन्तु उनका यह कहना था कि जो इस देश में उत्पन्न होकर इस देश की भाषा नहीं सीख सकता उससे और क्या आशा की जा सकती हैइसलिए उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का जानना प्रत्येक आर्य के लिए अनिवार्य कर दिया।

    स्वामीजी उर्दू को म्लेच्छ भाषा नहीं कहते थे। लेकिन पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी के अनुसार उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्रप्रतापनारायण मिश्रबालकृष्ण भट्टबदरीनारायण चौधरी "प्रेमघन" की उपस्थिति में एक दिन उर्दू को "वारविलासिनी" और हिन्दी को "कुलकामिनी" कहा था। इसका एक कारण यह भी था कि उस समय उनके परम हितैषी और प्रशंसक सर सैयद अहमदखॉं भी हिन्दी को "गॅंवारू भाषा" कहकर उसका उपहास करते थे। आज वही गॅंवारू भाषा राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित है।

    रामधारीसिंह "दिनकर" के अनुसार यह कहना अप्रासङ्गिक न होगा कि हिन्दी-साहित्य के इतिहास में रीतिकाल के ठीक बादवाले काल में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी वह थी स्वामी दयानन्द का पवित्रतावादी दृष्टिकोण। इस काल के कवियों को श़ृंगार की कविता लिखते समय ऐसा प्रतीत होता था जैसे स्वामी दयानन्द पास खड़े सब-कुछ देख रहे हैं। इस भय से छायावादी कवि भी प्रत्यक्ष नारी के स्थान पर "जुही की कली" या "विहगिनी" का आश्रय लेकर अपने भावों का विवेचन करने लगे। प्रेमचन्द के आरम्भिक साहित्य पर स्वामी दयानन्द और उनके द्वारा संस्थापित आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट है। जयशंकर "प्रसाद" और मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य में यत्र-तत्र जो इस देश के अतीत का गौरवगान किया है उसके मूल में भी दयानन्द द्वारा "सत्यार्थप्रकाश" में वर्णित प्राचीन आर्यावर्त की गौरव-गाथा का विस्तार है और "दिनकर" के अनुसार साकेत के राम तो दयानन्द के "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌" नारा लगाते प्रतीत होते हैं।

    हिन्दी को देश की एकता के लिए आवश्यक समझ लेने पर स्वामीजी जीवन के अन्तिम क्षण तक उसके प्रचार-प्रसार के लिए सर्वात्मना समर्पित रहे। उन्हेांने श्यामजीकृष्ण वर्मा को वेदभाष्य के पार्सलों पर देवनागरी में पते लिखने की प्रेरणा की। महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित समाजसुधारक श्री गोपाल हरिकृष्ण देशमुख को आर्यभाषा के प्रचार में पुरुषार्थ करने को प्रेरित किया। उन्हीं की प्रेरणा से कर्नल अल्काट ने हिन्दी पढना आरम्भ किया।

    स्वामीजी ने तत्कालीन राजाओं को प्रेरित किया कि वे अपने राज्यों का काम हिन्दी में चलाएँ। तदनुसार उदयपुर के महाराणा ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने जोधपुर नरेश को पत्र लिखा कि राजकुमारों को पहले हिन्दी (देवनागरी)फिर संस्कृत और तत्पश्चात्‌ (यदि समय हो) अंग्रेजी पढाएँ। 12 अगस्त सन्‌ 1883 को राज्य के प्रधानमन्त्री के अधिकार से कर्नल प्रतापसिंह ने एक दिन उर्दू में लिखी 50-60 अर्जियॉं फाड़कर फेंक दीं। उसी दिन से राज्य का सारा काम हिन्दी में होने लगा।

    भारतीय संविधान की धारा 343 के अनुसार-

     “The official language of the Union of India shall be Hindi in Devanagri Script.”

    अर्थात्‌ संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी गई हिन्दी होगी। पुन: धारा 351 के अनुसार-

     “It (Hindi) shall draw for its vocabulary, primarily on Sanskrit and secondarily on other languages.”

    अर्थात्‌ वह (हिन्दी) अपने शब्दभण्डार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करेगी। संस्कृत को यह वरीयता या प्रतिष्ठा क्यों दी गईइसका कारण इसी धारा (351) के आरम्भिक वाक्य में इन शब्दों में बताया गया है-

     “It shll be the duty of the Union to promote the spread of the Hindi language, to develp it so that it may serve as a medium of expresson for all the elements of the composite culure of India.”

    अर्थात्‌ संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी का प्रसार बढाए और उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।

    मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि हिन्दी को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया क्योंकि देश में प्रचलित भाषाओं में 60 से 90 प्रतिशत तक तत्सम या तद्‌भव शब्द संस्कृत के हैं।

    भारतीय संविधान में उक्त धाराओं का समावेश 14 सितम्बर 1949 को हुआपरन्तु इसके लिए आन्दोलन का सूत्रपात स्वामी दयानन्द ने सन्‌ 1882 में हण्टर कमीशन के पास हिन्दी के पक्ष में भेजे गये ज्ञापनों से किया था। अंग्रेजी सरकार ने 1882 में डाक्टर हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया था। इसका उद्देश्य राजकार्य को जो उस समय प्रधानता उर्दू-फारसी और अंग्रेजी में चल रहा थाआर्यभाषा हिन्दी मेंं प्रवृत्त करना था। स्वामी दयानन्द इस अवसर को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इसके लिए विशेष पुरुषार्थ किया। हिन्दी के प्रसङ्ग में यह बात समझ लेनी चाहिए कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास में स्वामीजी किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात से ग्रस्त होने के कारण प्रवृत्त नहीं हुए थे। इसके विपरीत वे राष्ट्रभाषा की आवश्यकता अनुभव करते हुए हिन्दी तक जा पहुँचे थे। सन्‌ 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से भेंट के बाद उन्होंने समझ लिया था कि संस्कृत के देववाणी होते हुए भी उसमें जनवाणी होने की सामर्थ्य नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि "किसी भी देश पर मध्यप्रदेश का शासन होता हैसीमान्त प्रदेशों का नहीं। भारत के मध्य प्रदेशों की भाषा हिन्दी हैवही इस देश की राष्ट्रभाषा होगी।" स्वामी दयानन्द ने अपनी दिव्य दृष्टि से इसी बात को डेढ सौ वर्ष पूर्व देख लिया था।

    जब भारत सरकार ने देश के काम-काज की भाषा के निर्धारण हेतु हण्टर कमीशन गठित किया तो स्वामीजी ने देश भर की आर्यसमाजों को आदेश दिया कि वे उक्त कमीशन के पास भारी संख्या में हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन भेजें। आर्यसमाज फर्रुखाबाद के स्तम्भ बाबू दूर्गादास को भेजे  गये अपने पत्र में उन्होंने लिखा, "यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूकेवह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ तो आशा हैमुख्य सुधार की नींव पड़ जाएगी।" स्वामीजी के प्रयासों से देश के कोने-कोने से हिन्दी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने हेतु स्मरण-पत्र भेजे गये। कानपुर से भेजे मैमोरियल से ज्ञात होता है कि लगभग दो लाख मनुष्यों के हस्ताक्षरों से युक्त दो सौ ज्ञापन हण्टर कमीशन के पास भेजे गये थे। दयानन्द वह दिन देखना चाहते थे जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का प्रचार होगा।

    पं. जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा या राज्यभाषा बने। उन्होंने डटकर विरोध किया पर उनकी एक न चली। जब हिन्दी का राजभाषा होना निश्चित-सा हो गया तो उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कहा कि हिन्दी राजभाषा हो जाएपरन्तु 15 वर्षों तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी चलती रहे। लोगों ने नेहरू का मन रखने के लिए "इतनी-सी" बात मान ली। हमारी तुष्टिकरण की नीति से देश के बड़े-बड़े काम बिगड़ते आये हैं। इसी के फलस्वरूप पाकिस्तान बना । राम तो 14 वर्षों के बाद वन से लौट आये थे पर 66 वर्ष बीत गयेहिन्दी अपने आसन पर न लौटनी थीन लौटी और न अब कभी लौटने की आशा है। 15 वर्ष बीतने से दो वर्ष पूर्व ही 1963 में नेहरू ने संसद से एक प्रस्ताव पास कराके अंग्रेजी को अमरता का वरदान दे दिया। उस प्रस्ताव के अनुसार यदि एक भी प्रदेश हिन्दी का विरोधी होगा और अंग्रेजी को बनाये रखना चाहेगा तो हिन्दी की सौत के रूप में अंगे्रजी प्रतिष्ठित रहेगी। उस समय ऐसा एक प्रदेश नागालैण्ड था अब "वीटो" करनेवाले कुछ और प्रदेश भी हो गये हैं। इस प्रकार हिन्दी के समूचे देश की एकमात्र राजभाषा बनने पर सदा के लिए रोक लग गई है।

    किन्तु राज्यों को अपने-अपने यहॉं हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग की छूट बनी रही। तब राजीव गॉंधी ने स्वत: या नूरजहॉं के संकेत पर सदा के लिए हिन्दी को और उसी के साथ धीरे-धीरे सभी क्षेत्रीय भाषाओं को निकालकर अंग्रेजी के निष्कण्टक राज्य का मार्ग प्रशस्त करने का संकल्प किया। "एके साधे सब सधे" का गुरुमन्त्र जपने पर पता चला कि यदि अकेली संस्कृत को मार दिया जाए तो इस देश की सभी भाषाएँ अपनी मौत आप मर जाएँगीक्योंकि इनका आत्मा संस्कृत में हैं।

    साधारणतया भी इन भाषाओं में 60 से 90 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं और पारिभाषिक शब्द तो शत-प्रतिशत संस्कृत से ही मिलेंगे। पारिभाषिक शब्द सर्वत्र प्राचीन भाषाओं से ही मिलते हैं। अंग्रेजी बड़ी सम्पन्न भाषा मानी जाती हैकिन्तु इसमें लगभग 75 प्रतिशत पारिभाषिक शब्द ग्रीक या लेटिन मूल के और 15 प्रतिशत जर्मन और फ्रेंच मूल के हैं। संस्कृत के बिना हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ शून्य हो जाएँगी- इसे स्पष्ट करने के लिए तो एक पूरा व्याख्यान अपेक्षित होगा। जब ये सब भाषाएँ दिवालिया हो जाएँगी तो विवश होकर अंग्रेजी को छाती से लगाना होगा और इसी के साथ इस देश की सभ्यतासंस्कृतिपरम्परा एक साथ बिदा हो जाएँगे।

    राजीव सरकार द्वारा निर्धारित नई शिक्षानीति के अन्तर्गत स्कूलों के पाठ्‌यक्रम में से संस्कृत को लगभग पूरी तरह निकाल दिया गया है।

     

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    But the states remained free to use Hindi or regional language at their respective places. At that time, Rajiv Gandhi pledged to pave the way for the perfect state of English by removing Hindi and all regional languages ​​gradually, at the behest of either auto or Nurjahan. On chanting the Gurmantra of "AK Sadhe Sab Sadhe", it was found that if Sanskrit alone is killed, then all the languages ​​of this country will die on their own, because their souls are in Sanskrit.

     

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  • भारत-भाग्यविधाता महर्षि दयानन्द सरस्वती-14

    लेखक- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

    खण्डन- ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत अज्ञानान्धकार में बुरी तरह डूबा हुआ था। सबसे बुरी बात तो यह थी कि धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा था। व्यभिचार तक को धर्म का प्रश्रय प्राप्त था। अतएव सभी सुधारक खण्डन में प्रवृत्त थे। वस्तुत: खण्डन और मण्डन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- एक ही क्रिया के दो भाग हैं- एक विनाशक है तो दूसरा विधायक। घास-फूँस काटकर फेंकना विनाशक है तो बीजारोपण करना विधायक है। किसान या माली खेत या बगीचे में उत्पन्न खरपतवार या हानिकारक घास-पात को उखाड़कर फेंकता है और उपयोगी पौधों को खाद-पानी देकर पुष्ट करता है। तब अपेक्षित अन्न प्राप्त होता है। इससे खण्डन और मण्डन एक-दूसरे के पूरक ठहरते हैं। समाज के हितैषी महापुरुष समाज में व्याप्त दोषों,अन्धविश्वासों और कुरीतियों को दूर करके उसके विकास में सहायक विचारों का प्रचार व प्रसार करते हैं। शरीर को हानि पहुँचा रहे अंग को काटकर फेंक देना और उसके स्थान पर स्वस्थ अंग का प्रत्यारोपण करना शरीरशास्त्र की दृष्टि से खण्डन-मण्डन ही तो हैं।

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    Ved Katha -16 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    निर्माण कार्य में बाधक चट्टानोंजङ्गलोंकुओंतालाबों आदि को नष्ट करके धरती को समतल किये बिना उस पर निर्माण नहीं होता। इसी प्रकार समाज में व्याप्त दोषों को दूर किये बिना समाज-सुधार के कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। सदसत्‌ प्रवृत्तियों का संघर्ष मानवमात्र में सदा से चला आता है। सद्‌गुणरूपी दैवी सेना तथा दुर्गुणरूपी आसुरी सेना दोनों आमने-सामने खड़ी रहती हैं। दोनों ने अपनी-अपनी व्यूह रचना व्यवस्थित कर रक्खी है। वेद में "भद्रमासुव" से पहले "दुरितानि परासुव" कहा है। जब तक "दुरित" दूर होकर जगह खाली नहीं करेंगे तब तक "भद्र" को स्थान कैसे मिलेगा ! गीता में भी "परित्राणाय साधूनाम्‌" के साथ ही "विनाशाय च दुष्कृताम्‌" भी कहा है। दुष्टों का दमन किये बिना सज्जनों की रक्षा नहीं हो सकती। राक्षसों का संहार किए बिना श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ का सम्पादन नहीं हो सकता था। इसलिए ऋषियों को क्षत्रिय कुमारों की आवश्यकता पड़ी- "शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्त्तते"। समाज में क्षत्रिय खण्डन का प्रतीक है तो ब्राह्मण मण्डन का। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

    समस्त दु:खों या पापों का मूल अविद्या है। ज्ञानविद्या तथा सत्य पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार अविद्याअज्ञान और असत्य एकार्थवाची हैं। दवाई की जगह जहर की शीशी चाहे जानकर पी जाएचाहे अनजानेदोनों का परिणाम एक ही है- मृत्यु। सुकरात ने अपने मुकदमे के दौरान कहा था-"अज्ञान के बिना पाप हो ही नहीं सकता। जिसे तुम पाप कहते होवह अज्ञान ही है।" जिसके बिना कोई  पाप हो ही नहीं सकतावह (अज्ञान) स्वयं महा पाप है। कानून का अज्ञान अपराध करने का बहाना नहीं हो सकता (lgnorance of law is no excuse)। ईश्वरीय कानून को न जानना सबसे बड़ा अपराध है। इसलिए समाज का परिष्कार करनेवालों ने सदा अज्ञान-असत्य को मिटाकर सदा ज्ञान-सत्य का प्रचार-प्रसार करना ही अपने जीवन का उद्‌देश्य बनाया।

    देर-सवेर सभी को खण्डन का आश्रय लेना पड़ता है। जब सामान्य ओषधोपचार से काम नहीं चलता तो आपरेशन के लिए सर्जन को चाकू चलाना पड़ता है। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द का निम्न वक्तव्य द्रष्टव्य है-

    "संसार को समय-समय पर कठोर आलोचना की भी आवश्यकता होती है (हिन्दू धर्मपृ.56)। प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं बन सकता (पत्रावली भाग 2पृ.71)। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँपरन्तु जब अन्तरस्थ सत्य से समझौता करने का अवसर आता है तब मैं रुक जाता हूँ (वही पृ. 70)। हमारे  बहुतेरे कुसंस्कार हैंहमारी देह पर बहुत-से काले धब्बे और हानिकारक घाव हैं- उन्हें चीर-फाड़ करके एक दम निकाल देना होगा। नहीसमझौता नहींलीपा-पोती नहींगले-सड़े मुर्दों को फूलों से न ढको (विवेकानन्द चरितपृ. 376)। यदि हम देखें कि परम्परा-प्राप्त आचार-विचार समाज के विकास व परिपुष्टि के मार्ग में बाधक हैंयदि वे हमारे विशुद्धज्ञान की प्राप्ति में रोड़े सदृश हैं तो हम जितनी जल्दी उनका त्याग कर दें उतना अच्छा है (विवेकानन्द चरित168)। पुरातन पौराणिक घटनाओं को रूपक मानकर चिरस्थायी करने की चेष्टा करने और इस प्रकार उन्हें महत्त्व देने से कुसंस्कारों की उत्पत्ति होती है और यह सचमुच दुर्बलता है। असत्य के साथ कभी भी और किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। सत्य का उपदेश दो और किसी प्रकार से भी असत्य के पक्ष में युक्ति देने की चेष्टा मत करो (देववाणी पृ. 161)। उन पाखण्डी पुरोहितों को जो सदा उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैंनिकाल बाहर करोक्योंकि उनका कभी सुधार नहीं होगा (पत्रावली भाग 1पृ.65)। पौरोहित्य की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वे एकदम चकराकर एटलांटिक सागर में जा गिरें (वही पृ.254)"।

    यह सर्वसम्मत तथ्य है कि महाभारत से पहले संसार में वेद से अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं था। महाभारत के पश्चात्‌ कुकुरमुत्तों की तरह फैले अवैदिक मतों का निराकरण आवश्यक था। इस दुरूह कार्य को करने का साहस दयानन्द- जैसा उद्भट विद्वान्‌ तथा सत्यनिष्ठनिष्पक्ष एवं निर्भीक महामानव ही कर सकता था। मत-मतान्तरों की आलोचना से दयानन्द का तात्पर्य था कि धर्म को तर्कसंगतयुक्तियुक्त एवं सहेतुक बनाया जाए। उसमें अन्धविश्वासों के लिए कोई स्थान न हो। बाबा वाक्यं प्रमाणम्‌ के स्थान पर सत्यासत्य की स्वयं परीक्षा करके सत्य को ग्रहण किया जाए और असत्य का परित्याग किया जाए। भगवान्‌ मनु का वचन है- "यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतर:" - जो मनुष्य तर्क के द्वारा अनुसन्धान करता है वही धर्म के तत्व को जानता हैअन्य नहीं। पूर्वकाल में ऋषियों के न रहने पर मनुष्य देवजनों (श्रेष्ठ विद्वानों) के पास गये और जिज्ञासा की- "को न ऋषिर्भविष्यति?" अब कौन हमारा ऋषि होगा (निरुक्त 13.12)। देवजनों ने उन्हें तर्क नाम का ऋषि दिया। मनु के आदेश के अनुसार सत्यासत्य की परीक्षा के लिए धर्म पर तर्क की कैंची चलाना आवश्यक है। तर्करूपी कैंची से जो कट जाएसमझो वह तीन कौड़ी का है- धर्म ही नहीं है। दयानन्द ने वही किया। सत्यासत्य के लिए तर्क द्वारा परख करके असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया।

    अधिक समझदार लोगों को यह कहते सुना जाता है कि समालोचना तो ठीक हैपर खण्डन-मण्डन करना उचित नहीं है। वास्तव में लोग समालोचना से अंग्रेजी के Criticism का और खण्डन से Condemnation का ग्रहण करते हैं। ऐसा इसलिए है कि वे समालोचना शब्द के निहितार्थ को नहीं समझते। समालोचना शब्द "सम्‌+आ" उपसर्गपूर्व "लुच्‌" धातु से निष्पन्न होता है। इस प्रकार इसका अर्थ है किसी वस्तु को विधिपूर्वक हर प्रकार से अच्छी तरह देखना। विधिपूर्वक अच्छी तरह देखने में हम उस वस्तु के आकार-प्रकाररूप-रंगगुण-कर्म-स्वभाव एवं गुण-दोष के आधार पर उससे सम्भावित हानि-लाभ का विवेचन करते हैं। तभी हमें उस वस्तु का पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान होता है। दयानन्द के खण्डन की प्रक्रिया समालोचना से भिन्न नहीं है। दयानन्द ने सदा से चली आ रही परम्परा का ही अनुसरण किया है। उसमें किसी प्रकार का असामञ्जस्य अथवा अनौचित्य नहीं है।

    भारत में दार्शनिक सम्प्रदायों में खण्डन-मण्डन सदा से चला आया है। समन्वयवाद के नाम पर यह कहना कि "अपनी-अपनी जगह सब ठीक है" आधुनिकता या भलमनसाहत की पहचान बन गया हैकिन्तु इस "रामाय स्वस्ति:रावणाय स्वस्ति:" की उपलब्धि तो शून्य है। वह आत्म-प्रवंचन या भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं। कुछ करने की भावनावाले खण्डन में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रह सकते। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का उद्‌घोष करनेवाले आदि शंकराचार्य सारा जीवन जैनबौद्ध और चार्वाक आदि नास्तिक मतों का खण्डन करने में ही लगे रहे। सिद्धान्तभेद के कारण मण्डन मिश्र जैसे वैदिक मतावलम्बी को भी ललकारने में संकोच नहीं किया। समन्वयवाद का आदर्श माने जानेवाले क बीर ने तो सबको खरी-खोटी सुनाईं हीकबीर की अपेक्षा कहीं अधिक सौम्य नानकदेव भी दूसरे मतों का खण्डन करने में पीछे नहीं रहे।

    खण्डन में भी स्वामीजी कितने सन्तुलित रहेइसका पता 11वें समुल्लास का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने पर चलता है। उन्होंने गुरु नानक तथा गुरु गोविन्द सिंह की आलोचना की है। गुरु नानक से सम्बन्धित आपत्तिजनक अंश इस प्रकार है-"विद्या कुछ भी नहीं थी.... वेदादिशास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा।"परन्तु जहॉं स्वामीजी ने यह लिखावहॉं ये स्तुतिपरक वाक्य भी लिखे हैं- "नानक जी का आशय अच्छा था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को (मुसलमान होने से) बचाया।"

    इन शब्दों से स्पष्ट है कि स्वामीजी के मन में गुरु नानक के प्रति दुर्भावना न होकर प्रशंसा के भाव थे। उनका (गुरु नानक) का संस्कृत से और वेदशास्त्र से अनभिज्ञ होना तो निर्विवाद हैपरन्तु इसके लिए भी उन्होंने गुरु नानक को नहींतत्कालीन परिस्थितियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने लिखा है- "उस समय पंजाब संस्कृतविद्या से रहित और मुसलमानों से पीड़ित था।" गुरु नानक सम्बन्धी गपोड़ों के लिए स्वामीजी लिखते हैं-"इसमें उनके चेलों का दोष हैनानकजी का नहीं।" गुरु नानक द्वारा प्रवर्तित भक्तिभावना के विषय में उन्होंने लिखा है- "नानकजी ने कुछ भक्तिविशेष ईश्वर की लिखी थीउसे करते जाते तो अच्छा था।" इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन के सन्दर्भ में भी गुरु नानक के उसके परित्याग के लिए भी उनके अनुयायियों को दोष दिया है।

    दशम गुरु गोविन्दसिंह के विषय में स्वामीजी ने लिखा है- "गुरु गोविन्दसिंह शूरवीर हुए। पंच ककार की रीति उन्होंने बुद्धिमत्ता से की। इन सब (अर्थात्‌ सिख गुरुओं) ने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हटाया। जैसे इसको हटाया वैसे विषयासक्तिदुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।" स्वामी दयानन्द वेदों के प्रकाण्ड विद्वान्‌ थे। वे वेदों को सब विद्याओं का मूल मानते थे और उन्हीं के अपनाए जाने में वे मनुष्य मात्र का कल्याण मानते थे। इसलिए वेद विरोधी सभी मतों और उनके प्रवर्तकों की आलोचना की। इसमें उन्होंने कहीं भी पक्षपात नहीं किया। पंजाब में एक ऐसा समय था जब उच्चवर्ग के हिन्दू दलित व पिछड़ेवर्ग के लोगों को अछूत मानते थे। हिन्दुओं में ही नहींअपने को हिन्दुओं से अलग माननेवाले सिखों में भी मजहबीगुलाबदासीरैदासीकबीरपन्थी आदि को भी अछूत समझा जाता था। उस समय ऐसे लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा। उच्चवर्ग (सवर्णों) की तुष्टि के लिए उनके शुद्धि संस्कार और दलितों के सन्तोष के लिए बड़े स्तर पर सहभोजों आदि की व्यवस्था की जाती थी। इन पंक्तियों के लेखक को अपने पिताश्री के साथ अनेक बार ऐसे शुद्धि-संस्कारों तथा समारोहों में सम्मिलित होने का अवसर मिला। इस प्रकार शुद्ध होकर समाज में प्रतिष्ठित होनेवाले लोग स्वाभाविक रूप से अपने को आर्यसमाजी मानकर महाशय जीआर्य जी आदि नामों से पुकारें जाने में गौरवान्वित अनुभव करने लगे। 

    दयानन्द पर खण्डन का आरोप लगाते समय तत्कालीन विशेष परिस्थियों परविचार करना आवश्यक है। हमें भी पिछले पृष्ठों में आलोचना का आश्रय लेगा पडा। ‘All that glitters is not gold’ इसलिए खरे-खोटे की पहचान करने-कराने के लिए अपेक्षित कसौटियों पर कसना,घिसना आवश्यक था।

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    When accusing Dayanand of rebuttal, it is necessary to consider the then special circumstances. We also had to take criticism in the previous pages. 'All that glitters is not gold', therefore, it was necessary to tighten and weave the required criteria in order to identify the mold.

     

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