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  • क्या आप बहू को अपनी बेटी बना सकती हैं

    बहू तुम अपनी तैयारी कर लो। रवि के कपडे भी रख लेना। सुबह की गाड़ी से तुम दोनों चले जाओ। बुखार से कराहती मेरी सास ने मुझसे कहा तो सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। थोड़ी देर खामोशी छाई रही, फिर मेरे ससुर ने ही मेरी सास से कुछ सोच-विचार के बाद कहा, तुम्हें इतना तेज बुखार है। डॉक्टर ने हिलने-डुलने तक को मना किया है, टाइफाइड का संदेह है। बहू को भेज दोगी तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? मेरी चिंता न करो बहू के मायके से फोन आया है। समधिन की तबियत ज्यादा ही खराब होगी, तभी फोन किया है। बेचारी के पास तीनों में से एक बेटी नहीं है बेटा तो है नहीं जो बहू का सुख देखती। बहू को ऐसे वक्त पर नहीं भेजेंगे तो फिर कब भेजेंगे? रवि के चले जाने से उन्हें बहुत सहारा मिलेगा।

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    मैं सास के सिरहाने बैठी उनका सिर दबा रही थी। मैंने भर्राए हुए स्वर में कहा, मां जी आप भी तो बीमार हैं। आप ज्याद बीमार हो गई तो मुझे दुःख होगा कि मैं आपको ऐसी हालत में छोड़कर क्यों गई। मां की चिंता तो मुझे है परन्तु यहां से जाकर आपकी चिंता में भी तो दुःखी रहूंगी। मेरी चिंता बिल्कुल मत करना बेटी। मुझे टाइफाइड वगैरह कुछ नहीं है। थोड़ी सर्दी लगी है तो बुखार आ गया। एक दो दिन में उतर जाएगा और हां, बच्चों को साथ न ले जाना वरना तुम उन्हीं में उलझी रहगी। अपनी मां की देखभाल क्या कर पाओगी? मेरी ह्रदय गदगद हो उठा। कोई भी अवसर आए, मेरी सास हमेशा ही अपनी सहृदयता का परिचय देती हैं।

    सास के इस आग्रह ने तो मुझे जन्मभर के लिए अपने मोहपाश में बांध लिया। मेरी पड़ोसन ने जब खोद-खोदकर इसका राज जानना चाहा तो मेरी सास ने नम आंखों से बताया कि निःसंदेह जिस दिन से बहू हमारे घर में आई हमें बेटी की कभी कमी महसूस नहीं हुई। बहू को मैंने मां का प्यार दिया तो उसने भी मुझे अपनी मां के समान ही आदर व स्नेह दिया परन्तु यदि मैं उससे यह अपेक्षा करूं कि वह अपनी मां की उपेक्षा करके मुझे उसका दर्जा दे तो यह मेरी भारी भूल होगी। मैं जानती हूं कि वह अंश तो अपने माता-पिता का ही है। अतः मुझे पहले उसके माता-पिता को बराबरी का दर्जा देना होगा, तभी बहू भी मुझे उनके बराबर सम्मान देगी। अन्यथा मैं कभी उसकी मां नहीं बन पाउंगी। बस उसकी सास ही रह जाऊंगी और आप तो जानती ही हैं कि सास-बहू के संबंध की क्या छीछालेदर की जाती है।

    मेरी एक सहेली के बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की। लड़की के परिवार में जरा भी समानता नहीं थी। केवल लड़की गुणवती और सुन्दर थी। ये लगो सात लोगों की बारात लेकर गए और लड़की ब्याह लाए परन्तु लोग तो जानबूझकर दूसरों की स्थिति का जायजा लेते हैं। बहू के आने पर अनेक प्रश्नों की बौछार हो गई। क्या-क्या लाई है बहू? सोना कितने तोला हैं ? आपके लिए तो बहू के मायके वालों ने बहुत ही कीमती साड़ी दी होगी.... देखें तो कैसी है? पता नहीं लोग अपनी आदतें क्यों नहीं छोड़ते? दूसरों को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि कोई जवाब देते नहीं बनता। वे झल्लाते हुए बता रही थी, सबको यह कहूं कि कुछ नहीं मिला तो बहू कैसा महसूस करेगी? ये लोग इतना भी नहीं समझते कि मैं बेटे को ब्याहने गई थी, न की अपने लिए कीमती साड़ी लेने। मैंने तो कभी बहू के मायके वालों से यह अपेक्षा नहीं की कि वे मेरे घर के अन्य सदस्यों के लिए कुछ दें।

    हमें तो केवल ऐसी लड़की चाहिए थी जो घर में आते ही हिल-मिल जाए, बड़ों को आदर दे व बराबर वालों को स्नेह। लोगों की टिका-टिप्पणी से बहू को सुरक्षित रखने के लिए वह कभी बहू द्वारा लाए गए वस्त्रों को भी नुमाइश नहीं लगातीं। जितने लोग देखते हैं उतनी ही बातें बनाते हैं। कुछ लोगों को तो यह एक आंख नहीं सुहाता कि किसी घर में सास-बहू शांति से रहें। अतः ऐसी स्थिति से बचना ही उचित है।

    इसके विपरीत बहू के आने से पहले ही लोग उससे क्या-क्या अपेक्षाएं लगाए रखते हैं। जो सामान इस मंहगाई के युग में वे स्वयं खरीदने में असमर्थ हैं, उसी की आशा वे बहू के मायके वालों से लगाए रखते हैं। ननदों देवरों के लिए भी बढ़िया से बढ़िया वस्त्रों की आशा की जाती है। यहां तक कि अन्य रिश्तेदारों के लिए भी जोड़ों की मांग की जाती है। इतना बोझ पड़ने पर बहू के मायके वाले यदि कुछ सस्ता कपड़ा खरीद लेते हैं तो सबके चेहरे बिगड़ जाते हैं। बहू के सामने ही आलोचना शुरू हो जाती है। क्या इसका स्पष्ट तौर पर यह अर्थ नहीं होता कि अपेक्षा कपड़ों को अधिक महत्व दिया जा रहा है, फिर बहू का मन जीतने की आशा ही ससुराल वाले कैसे कर सकते हैं? बदलते समय के साथ हमें अपने सिद्धांत और मान्यताएं बदलनी पड़ेगी। बहू को बहू बनाना तो सभी जानते हैं परन्तु बहू को बेटी बनाना और सास को मां बनाने वालों के पास ही गृह शांति और परस्पर प्रेम की कुंजी होती है।

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  • क्या है देव पूजा और आध्यात्मिक यज्ञ

    सभी तपस्वियों ने यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ माना है। यज्ञ मानव के लिए ऐसा मार्ग है जो मोक्ष तक पहुँचा देता है। जब हम यह कर्म करने के लिए तत्पर होते हैं तो उसके साथ हमारी मन की भावना होती है। मन का विचार होता है जो संकल्प मानव में उत्पन्न होता है। उसके साथ मानव की आत्मिक प्रतिभा रहती है। वह विचार बाह्य जगत में संसार की क्रियाओं में परणित होते हैं। या जो क्रिया है हमारा कर्मकाण्ड है। वही परमात्मा की एक आभा है जिसको हमें प्रायः विचारना है।
    यज्ञ देवपूजा कहलाती है। देव पूजा का अर्थ है देवों को हवि प्रदान करना। उससे हमारा अंतरात्मा प्रसन्न होता है। हमारा मानव जीवन देवताओं से सम्बन्धित है अर्थात देवताओं से हम प्रेरणा व सहायता प्राप्त करते हैं। देवता जितने प्रसन्न होते हैं जितने तृप्त रहते हैं। उतने ही हम भी ह्रदय से नम्र बनकर देवताओं की पूजा में संलग्न हो सकते हैं। हम देव पूजा करें। देवता में उस मार्ग पर ले जाते हैं जिस मार्ग पर जाने से हमारी आन्तरिक ध्वनि पवित्र बनती है। 

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 2 | Explanation of Vedas & Dharma | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है - 2

    हमारे देवता कौन है इसे भी जानना आवश्यक है जो बुद्धिमान, ब्रम्हावेता, दयावान आत्मायें चैतन्य देवता सूर्य, चन्द्र, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि जड़ देवता हैं। जड़ देवता हमें नाना वस्तुएं प्रदान करते रहते हैं। जब इन वस्तुओं पर आप चिन्तन करते हैं तो प्रतीत होता है कि वास्तव में परमात्मा की आभा में युक्त हैं। इस हमारे शरीर में भी देवता कार्य कर रहे हैं। अग्नि से ऊर्जा, तेज से सुगन्ध अंतरिक्ष से अवकाश प्राप्त होता है। जल से जीवन सूर्य से प्रकाश, चन्द्रमा से शीतलता। वह पंचमहाभूतों से शरीर बनता है। यही इस सृष्टि के मूल कारण हैं। इन्हीं से बाह्य जगत का निर्माण हुआ है। यज्ञ से हम इन पांच महाभूतों को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं। इसीलिए सर्वत्र जगत को भी यज्ञमयी माना गया है। और इस यह को ही वास्तविक में देव पूजा कहते हैं। जिससे हमें इन देवताओं को तृप्त करना है। संसार में अनेक प्रकार के यज्ञ होते हैं जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रक्रियायें होती हैं। इसीलिए हम संसार में याज्ञिक कर्म करने वाले बनें। देव पूजा से हम आध्यात्मिक मार्ग भी प्राप्त कर सकते हैं।

    जैसे हम भौतिक यज्ञ करने का निश्चय करते हैं तो उससे पूर्व यज्ञमान विराजमान होता है, ब्रम्हा, उद्गाता, अध्वर्यु होता सभी होते हैं। तभी यज्ञ का एक स्वरुप बनता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक यज्ञ करने का संकल्प लेते हैं। अपने अन्दर आध्यात्मिकता की अग्नि को जागरुक करना चाहते हैं तो समय होता, उद्गाता, उछगाता भी हमारे समीप होने चाहिए यज्ञमान तो यह आत्मा को जाता है। ह्रदय रूप यज्ञशाला में विचारों की आहुति दी जाती है। होता, अध्वर्यु उद्गाता हमारे कौन-कौन हैं? तो हमें प्रतीत होता है कि हम जितने शुभ कार्य इन इन्द्रियों को होता हैं वही यज्ञ कहलाता है। उसी यज्ञ को हमें कारण है। इस लिए हम देवपूजा के साथ-साथ अपने जीवन को यज्ञ में परणित करते हुए मानों एक सुन्दर यज्ञ के पथिक बन अपने जीवन को आभा युक्त बनायें। यज्ञ यज्ञमान के द्वारा होता है। यज्ञ का दूसरा अर्थ यह भी यही कि संसार में जितना शुभ और महान कर्म है उस सब को यज्ञ को संज्ञा दी जाती है। संसार में सब प्राणी यज्ञ के लिए आये।

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    पुरातन काल में प्रत्येक मनुष्य का जीवन यज्ञ बनकर रहता था। यज्ञ का अर्थ है कि हम संसार की उन कामनाओं में परणित नहीं हो जिनसे हमारा आत्मबल नष्ट हो। जब हम कुवृत्तियों को धारण कर लेते हैं तो हमारी यज्ञ करने की प्रथा समाप्त हो जाती है जिससे आज अनेक रुढियों, आवरणों में समाज कटिबद्ध हो गया है। वैदिक ऋषि जो बहुत ऊँची उड़ान है और कहता है कि जिस गृह में माता के नेत्रों से अश्रुपात होता है वह गृह नरक बन जलाते हैं। यह विचार धार हमें हज़रत मुहम्मद, ईसा मसीहा, बुद्ध, महावीर से प्राप्त नहीं होती यह हमें वैदिकता से प्राप्त होती है। आर्ष ग्रन्थों से प्राप्त होती है। यज्ञ का अर्थ है धारण करना, पालन कारना, सदुपयोग करना। आज मानव यज्ञों की परम्पराओं को समाप्त कर अपने में अभिमानी बनाकर कह रहा है कि ईश्वर कोई वस्तु नहीं यह सब पाखण्ड है ऐसा क्यों कहता हैं यज्ञ पाखण्ड है ऐसा क्यों कहता है क्योंकि वह स्वार्थी और एक दूसरे का शत्रु बन चूका है। आत्म बल उसमे है नहीं। सुरा सुन्दरी और धन कमाने में लगा रहता है। उसका आहार व्यवहार विचार दूषित हो चूका है। जहाँ वैदिक कालीन राष्ट्र अहिंसा परमों धर्म और यज्ञ को राष्ट्र को पाखण्ड और पशुओं का पालन उनके भक्षण करने के लिए करता है। मछली पालन, मुर्गी पालन, सुअर पालन, भेड़, बकरी पालन इसीलिए किया जाता है जिसको मार कर खाया जा सके। भोजन की सात्विकता और स्वच्छता पर कोई बिरला ही चल रहा है।

    आओ हम संकल्प करें अपना जीवन पवित्र वेद ध्वनि को अपनाते हुए यज्ञ और शुभ कार्यों को करते चले। जिससे समाज कुरीतियों को नष्ट करने वाला बन शुद्धता को धारण कर पवित्र बन सके। तथा हमरा स्वयं का जीवन पवित्रता में परणित हो महानता की वेदी पर जा संसार में मानवता के प्रसार में सहायक हो। जो यज्ञ जैसे कर्म नहीं करते वे भी महानता चाहते हैं। करुणा चाहते हैं परन्तु यह सभी तुम्हारे अन्दर होनी चाहिए। आत्मा की पिपासा ज्ञान और यज्ञ से शान्त होती है। यज्ञ से ही हमारा उत्थान होता है। इस भौतिक पंचमहायज्ञ के साथ सब हम आध्यात्मिक यज्ञ, ज्ञान और प्रकाश में रमण करते हुए बोलते हैं तब हम परमात्मा के समीप चले जाते हैं। यदि आज मानव कर्म और मानवता को जाना जायें तो यह कुप्रथाएं समाप्त हो जायेंगी। - सुमन कुमार वैदिक

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    All ascetics consider Yagya to be the best. Yagya is such a path for man that leads to salvation. When we are ready to do this action then we have a feeling of mind with it. There is a thought in the mind that the resolution arises in humans. With him is the spiritual talent of man. Those thoughts are found in the actions of the world in the outer world. Or the action that is our ritual. He has an aura of God that we often have to think about.

     

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  • क्रान्तिकारी पं.रामप्रसाद बिस्मिल

    जिस भारत में आज हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं, इस भारत की गुलामी की बेड़ियॉं काटने के लिये अनेक वीरों और रणधीरों ने अपने जीवन को बलिदान किया। वे हंसते-हंसते फॉंसी के फन्दे पर झूल गए या जेलों में सड़ते रहे। अपने आपको आजादी के लिए बलिदान देने वालों में पं. रामप्रसाद बिस्मिल भी एक थे।

    पं. रामप्रसाद का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी सं. 1897 को शाहजहॉंपुर के मुरलीधर तिवारी के यहॉं हुआ। वह आरम्भ से ही बुरी संगत में फंसकर बुरी आदतों यथा चोरी, धूम्रपान, भांग पीना, गन्दे उपन्यास पढ़ना आदि में समय नष्ट करने लगे। पकड़े जाने पर तथा सहपाठी के सुयोग्य मार्गदर्शन से इन गन्दी आदतों से छुटकारा मिला। मुन्शी इन्द्रजीत की प्रेरणा से आर्यसमाज के साथ जुड़े तथा नियमित आसन-प्राणायाम भी करने लगे। इससे आत्मविश्वास बढ़ा व शरीर भी बलिष्ठ हुआ। आर्य कुमार सभा के माध्यम से बच्चों को देशभक्ति की प्रेरणा दी जाने लगी।

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    इस सभा से युवकों को आत्मरक्षा हेतु शस्त्र चलाना भी सिखाया जाता था। इसके साप्ताहिक अधिवेशनों में वाद-विवाद व भाषण के अतिरिक्त धार्मिक पुस्तकों को पढ़ा भी जाता था। इसी सभा के माध्यम से उन्होंने अपने प्रायः सभी साथियों को देशभक्त बना लिया। इन्हीं दिनों आर्यसमाज के एक संन्यासी स्वामी सोमदेव जी से इनका सम्पर्क हुआ। इन्हीं के मार्गदर्शन में आजादी के दीवाने क्रान्तिकारी युवकों का संगठन बनाया, इसमें पं. गेंदालाल दीक्षित उनके सहयोगी व मार्गदर्शक बने। इनसे न केवल बन्दूक इत्यादि चलाना सीखा, अपितु स्वाधीनता व क्रान्ति सम्बन्धी अनेक पुस्तकें भी पढ़ीं।

    क्रान्ति के लिए भारी धन की आवश्यकता थी, जिससे शस्त्र खरीदे जा सकें। इसलिए काकोरी के पास गाड़ी में जा रहा सरकारी खजाना लूटा गया तथा इस पैसे से शस्त्र खरीदकर क्रान्ति की गतिविधियॉं तेज कर दी। सरकार के लाख यत्न करने पर भी वह न पकड़े जाते, यदि उनमें से ही एक साथी दुष्ट बनवारीलाल देशद्रोही बनकर भेद न खोलता। परिणामस्वरूप केवल एक चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी दस से दस देशभक्त दीवाने पकड़े गये। पुलिस अमानवीय अत्याचार करके भी कुछ उगलवा न सकी। न्याय का ढोंग अवश्य रचा गया तथा पूर्व निर्धारित दण्डस्वरूप फांसी की सजा सुना दी गई।

    जेल में फांसी की कोठरी में भी वीर बिस्मिल ने अपनी दिनचर्या को बनाए रखा। प्रतिदिन प्रातः उठना, दण्ड-बैठक निकालना, सन्ध्या-हवन इत्यादि नियमित दिनचर्या थी। इतना ही नहीं, इस अवसर पर उन्होेंने अपनी आत्मकथा भी उन्हीं दिनों लिख डाली। उनकी यह आत्मकथा जेल में फांसी की कोठरी में लिखी गई। कुल दो प्रथम आत्मकथाओें में से सम्भवता प्रथम आत्मकथा है, जो हिन्दी की न केवल श्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक है, बल्कि फांसी से मात्र तीन दिन पूर्व किस प्रकार जेल से बाहर भेज दी गई, यह विदेशी भी देखकर भोंचक्के रह गए। 19 दिसम्बर 1927 में फांसी देते समय जब अन्तिम इच्छा पूछी गई तो वीर बिस्मिल ने दहाडते हुए कहा कि "अंग्रेजी साम्राज्य का नाश हो, यही मेरी अन्तिम अभिलाषा है।'' वे हंसते हुए स्वयं रस्सी गले में डाल विदा हुए। जाते जाते भी सन्देश दे गए कि कट-कटकर मरें, फिर भी सन्ध्या-हवन आदि दिनचर्या को न छोड़ें। उनको सच्चे मन से यदि हम याद करना चाहते हैं, तो उनकी अन्तिम इच्छा की पूर्ति के लिए अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हुए बुराइयों के नाश के लिए डट जावें। डॉ. अशोक आर्य 

    जिन्दगी के नियम

    सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फांसी दी जानी थीउस दिन सुबह जल्दी उठकर वह रोज की तरह व्यायाम करने लगे। जेलर ने पूछा, "आज तो आपको कुछ समय बाद फांसी लगने वाली हैफिर व्यायाम से लाभ?'

    रामप्रसाद बिस्मिल ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, "जीवन आदर्शों व नियमों से पूर्ण रूप से बन्धा हुआ है। जब तक शरीर में सांस चल रही हैतब तक नियमों में व्यवधान आने देना उचित नहीं हैमैं अपना धर्म निभाने में लगा हूँ। कुछ देर बाद आप अपना कर्त्तव्य पूरा करना।'' जेलर बिस्मिल की बात सुन ठगा-सा खड़ा रह गया। -प्रस्तुतिः कु. विनीता

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    The famous revolutionary Ramprasad Bismil, who was to be hanged, got up early in the morning and started exercising as usual. The jailer asked, "Today you are going to be hanged after some time, then benefit from exercise?"

     

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  • खोजिए रामराज्य के आधार-सूत्र

    महात्मा गांधी जी का स्वप्न था, आजादी के बाद भारत में रामराज्य की स्थापना। बासठ वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो चुका है स्वतन्त्रता प्राप्ति को। परन्तु रामराज्य तो दूर की बात है, वर्तमान में तो उसके विपरीत विभिन्न क्षेत्रों में चरित्रहीनता का नग्न-नृत्य ही दिखाई दे रहा है। देशभक्ति और राष्ट्रीय चरित्र का कहीं दूर तक पता ही नहीं है। नेताओं से पूछने पर उत्तर मिला कि वे अपनी पार्टी के प्रति वफादार हैं। पार्टी ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करती है। खैर जाने दीजिए। वर्तमान के सन्दर्भ में तो डॉ. राधाकृष्णन के शब्द पूर्णतः सही स्थिति प्रस्तुत करते हैं। उनका कथन था, "वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि या तो मानव इतिहास का अन्त आ गया है अथवा यह नई करवट लेने को है। जब तक प्रकाश शेष है, परिवर्तन लाने के लिए जुट जाएं, अन्यथा.....।'' अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, वर्तमान तो हम सबके सामने है। 

    Ved Katha Pravachan -3 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    भ्रष्टाचार, मिलावट, रिश्वतखोरी तो है ही, परन्तु इससे भी अधिक चिन्ता का विषय है राष्ट्र और राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा के प्रति उदासीनता। प्राथमिकता के आधार पर इस दिशा में चिन्तन करने वाले देशभक्तों की प्रमुख चिन्ता है- "परिवर्तन लाना'। परिवर्तन आवश्यक है। अन्यथा देश की स्वतन्त्रता के अस्त होने के साथ इतिहास सहित आर्यजाति का लोप हो जाना सम्भव है। 

    परिवर्तन की प्रक्रिया के आधारबिन्दु अर्थात्‌ वैचारिक पृष्ठभूमि क्या हो सकती है, इस पर वेद तत्वान्वेषक एवं भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वानों से चर्चा की गई। एक विद्वान ने अथर्ववेद का उदाहरण देते हुए बतलाया कि पृथ्वी सात गुणों को धारण करती है। मानव धरती-माता का पुत्र है। इसलिए उसमें भी इन्हीं सात गुणों का होना अनिवार्य है। अथर्ववेद के अन्तर्गत "भूमिसूक्त' है। इसमें उल्लेखित है- माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या। अर्थात्‌ माता भूमि है और मैं उस माता का पुत्र हूँ। ये सात गुण इस प्रकार हैं- सत्य (मन, वचन एवं कर्म में), सरलता (अभिवादन, विनम्रता, वृद्धसेवा आदि), तेजस्विता (पराक्रम, शौर्य, साहस आदि) दृढ़ संकल्प (निश्चयात्मक बुद्धि) तितिक्षा, ज्ञान  (विज्ञान सहित ज्ञान, तत्वदर्शिता, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे का ज्ञान), यज्ञ (राष्ट्र तथा लोकोपकार हेतु सर्वस्व का त्याग करने की उत्कट अभिलाषा)। भारतीय चिन्तन के अनुसार देशभक्त में इन गुणों का होना आवश्यक है। धरती माता की अपने पुत्रों से ये ही उत्कट अभिलाषा है। इन्हें धारण करने वाला व्यक्ति सही अर्थों में आर्य है। यही आर्यत्व, मानवता, पुरुषत्व, हिन्दुत्व है। ऐसे गुणसम्पन्न व्यक्ति से किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का होना सम्भव नहीं है। ऐसे ही चरित्रसम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा राष्ट्र-हित में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। इस आधार पर रामराज्य पर विचार करते हैं। राजा देशरथ के चारों पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न इन्हीं गुणों से विभूषित थे। इन्हीं चारों के संयुक्त प्रयास का परिणाम था रामराज्य-कहेऊ मुनि यह हृदय विचारी, वेदतत्व नृप तव सुत चारी'। (रामचरित मानस)। अथर्ववेद का "पृथिवी सूक्त' इसी दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। यदि परिवर्तन लाने की उत्कट अभिलाषा हो तो इस ज्ञान की ओर लौटना होगा। ऊपरवर्णित गुण जब व्यवहार में लाए जाएंगें, तभी राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण सम्भव है। आज हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और उसका अस्तित्व उस चौराहे पर पहुँच गया है, जहॉं विनाश उसे खोज रहा है। जब तक प्रकाश शेष है अर्थात्‌ अवसर मिल रहा है, परिवर्तन लाने के लिए आपसी भेदभाव भुलाकर सुदृढ़ एकता के साथ प्रयास में जुट जाएं, अन्यथा हमारे पूर्वज और राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करने वाले ऋषिगण हमें क्षमा नहीं करेंगे। इन गुणों के आधार पर कर्मसाधना अपेक्षित है और तभी, हॉं! तभी भारत के प्रांगण में सच्ची स्वतन्त्रता का सूर्योदय हो सकेगा। यही साधना हमें ऋषिऋण से उऋण कर सकेगी। यही साधना हमें रामराज्य के स्वर्णिम युग में प्रविष्ट करेगी। 

    यह तो हमने सोचा है। आप भी सोचिए और अपने चिन्तन से हमें अवगत कराइए। हम सबने आपस में मिलकर राष्ट्र की झकोले खाती हुई डगमगाती नाव को बचाना है। - आचार्य डॉ.संजयदेव

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    What could be the basis of the process of change, that is, the ideological background, was discussed with the Vedic commentators and the learned scholars of Indian culture. A scholar cites the Atharvaveda as saying that the earth bears seven qualities. Man is the son of Mother Earth. Therefore, it is mandatory to have these seven qualities also. Under the Atharvaveda is "Bhumisukta". It mentions - Mother land sons and earth

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  • गले में खराश का घरेलू इलाज

    कभी-कभी मौसम में परिवर्तन के कारण या बेमौसम कुछ खाने में आ जाने से गले में दर्द, खराश या जुकाम की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसे में यदि आप गायन के पेशे से जुड़े हों तो और मुश्किल। स्वर स्पष्ट हों और आवाज साफ हो इसके लिए आजमाएँ कुछ खास घरेलू उपचार।

    1. यदि किसी कारण से गले में दर्द हो तो नीम के कुछ पत्ते एक गिलास पानी के साथ पीस लें, छान लें। हल्का गर्म करें और थोड़ा शहद डालकर गरारे करें। जल्दी आराम होगा।

    2. एक छोटा चम्मच नीम्बू का रस और एक बड़ा चम्मच शहद मिला लें। थोड़ी-थोड़ी मात्रा दिन में दो-तीन बार लें। इससे भी आराम मिलेगा।

    Ved Katha Pravachan _20 (Introduction to the Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    3. यदि आवाज फट रही होतो एक छोटा चम्मच प्याज के रस को एक छोटा चम्मच शहद के साथ मिलाकर लें।

    4. दो छोटे चम्मच सौंफ को जौ के पानी में उबालें और दिन में दो-तीन बार पिएं।

    5. दो छोटे चम्मच कुटी हुई दालचीनी और एक छोटा चम्मच कुटी हुई छोटी इलायची के ऊपर एक गिलास उबलता हुआ पानी डालें। हल्का गर्म होने पर छानकर गरारे करें।

    6. यदि आवाज में भारीपन होतो एक बड़ा चम्मच शहद के साथ छोटी इलायची के बीज मिलाएँ और प्रतिदिन खाएँ तो जल्द ही आराम होता है।

    7. एक कप पानी में आठ-दस बादाम रातभर भिगोकर रखें। बाहरी छिलका उतार लें और आठ-दस साबुत कालीमिर्च के साथ एक कप पानी में पीस लें। छान लें और स्वादानुसार मिश्री डालकर दिन में एक बार पिएँतो आराम मिलता है।

    8. यदि टॉन्सिल बढ़ गए हों और गला दर्द कर रहा होतो चाय में अदरक और तुलसी के पत्ते डालकर उबाल लें और दिन में दो-तीन बार गरारे करें।

    9. पानी अधिक से अधिक पिएँ। अक्सर देखा गया है कि पानी की कमी से गले की परेशानी बढ़ जाती है।

    10. दो बड़े चम्मच मैथीदाना 6 कप पानी में डाल लें। मन्दी आँच पर बीस मिनट तक उबाल लें। गरारे करने के लिए उतना ठण्डा कर लेंजिससे आपका गला न जले और इस घोल से दिन में दो-तीन बार गरारे कर लें।

    11. आधा छोटा चम्मच शहद और आधा छोटा चम्मच नीम्बू का रस हर एक-दो घण्टे में लेते रहें।

    12. दो-तीन कुटी हुई लौंग और दो कली लहसुन को एक कप शहद में डालें और एक-दो दिनों तक रखें। दिन में तीन बार खाएँ।

    13. गले में दर्द के लिए मुलेठी का पेष्ट गले के चारों तरफ लगाएँ। इससे आराम मिलेगा।

    14. एक कप दूध हल्का गर्म करें और उसमें एक-दो चुटकी हल्दी पावडर मिलाएँ। रात को सोते समय पिएँ।

    15. यदि गले में कोई तकलीफ न होतो फिर भी मुलेठी को मुँह में डालकर चूसते रहने से आवाज मधुर व सुरीली होती है।

    उपरोक्त नुस्खे अपनाकर आप गले की तकलीफों से छुटकारा पा सकते हैं और अपनी सुरीली आवाज का जादू बिखेर सकते हैं। हॉं, यदि किसी चीज से आपको एलर्जी हो या अन्य कोई तकलीफ हो, तो चिकित्सक के परामर्श के बाद ही उसे आजमाएँ। डॉ. किरण रमण

    घरेलू कामकाज की बातें

    1. तांबे में सरसों का तेल लगाकर रख देने से जंग नहीं लगता।

    2. प्लास्टिक की बाल्टी या किसी बर्तन में मिट्टी का तेल लगाकर थोड़ी देर धूप में रख देने से उसके थोड़ी देर बाद साबुन से धो देने पर बर्तन नया सा लगने लगता है। 

    3. दरवाजों के कब्जों या हैण्डिलों में सरसों का तेल लगा देने से जंग नहीं लगता।

     

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    Soak eight to ten almonds in a cup of water overnight. Remove the outer skin and grind it in a cup of water along with eight-ten whole black peppers. Sieve and add sugar candy as per taste and drink once a day, it gives relief.

     

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  • घरेलू इलाज

    श्वास रोग अस्थमा के लिए

    बढ़ते प्रदूषण और घटती रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते आजकल अस्थमा की बीमारी से कई लोग जूझ रहे हैं। महंगी दवाइयॉं और इलाज के बावजूद कई बार लोगों को इस बीमारी में लाभ नहीं मिलता। इन्हेलर होें, गोलियॉं हों या इंजेक्शन, कई बार मौसम की चपेट और मरीज की कमजोरी के आगे यह सब फालतू सिद्ध तो होता ही है, साथ ही मिलते हैं हॉस्पिटल के बिल और डॉक्टर के पास जाने की चक्करबाजी। इसीलिए प्रस्तुत हैं अस्थमा के लिए कुछ फायदेमन्द और आसान से घरेलू इलाज-

    Ved Katha Pravachan _19 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    1. एक चम्मच शहद में आधा चम्मच दालचीनी पावडर मिलाकर सेवन करने से अस्थमा में लाभमिलता है।
    2. जिन लोगों में इस बीमारी का शरुआती दौर है,उन्हें 8-10 लहसुन की कलियों को आधे कप दूध में उबालकर रात को पीने से काफी फायदा होता है।
    3. गरम पानी में एक चम्मच शहद मिलाकर सोने से पहले एक-एक घूंट पीएं। इससे लाभ होगा।
    4. एक कप पानी में रातभर एक चम्मच मेथीदाना भिगो दें। उसमें एक चम्मच अदरक का रस और एक चम्मच शहद मिलाकर सुबह-शाम सेवन करें।

    गठिया का घरेलू इलाज

    बढ़ती उम्र के साथ जोड़ों के दर्द की समस्या भी आम हो जाती है। डॉक्टरी इलाज के साथ-साथ इसके दर्द के लिए घर पर भी आप कुछ सामान्य इलाज कर सकते हैं।

    नागौरी असगन्ध की जड़ - नागौरी असगन्ध की जड़ और खाण्ड दोनों समान मात्रा में लेकर कूट-पीसकर कपड़े से छानकर बारीक चूर्ण बना लें और किसी कांच के बरतन में रख लें। रोज सुबह और शाम 6 ग्राम चूर्ण गरम दूध के साथ लें। आवश्यकतानुसार तीन सप्ताह से छः सप्ताह तक लें। इस योग से गठिया का वह रोगी भी ठीक हो जाता हैजिसने बिस्तर पकड़ लिया हो। इससे कमर दर्दहाथ-पांवजंघाओं का दर्द और दुर्बलता मिटती है। यह एक अच्छा टॉनिक है।

    बथुआ के पत्ते से इलाज- प्रतिदिन बथुआ के ताजा पत्तों का रस पीने से गठिया दूर होता है। इस रस में नमकचीनी आदि न मिलाएं। रोज सुबह या फिर शाम के चार बजे खाली पेट इसके रस का सेवन करें। इसका रस लेने के दो घण्टे पहले या बाद में कुछ न लें। इस रस का सेवन कम से कम दो माह तक करें।

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    Root of Nagauri Fragrance- Take equal amount of root and khand of Nagauri Fragrance, after grinding, make a fine powder by filtering it with a cloth and keep it in a glass vessel. Take 6 grams of powder with hot milk every morning and evening. Take from three weeks to six weeks as needed. This yoga also cures the arthritis patient who has held the bed. This erases backache, extremities, thigh pain and weakness. It is a good tonic.

     

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  • घरेलू नुस्खे

    दांत दर्द-दांत में चाहे थोड़ा सा भी दर्द हो, इसके उपचार में देर नहीं लगानी चाहिए। अन्यथा अन्य दॉंतों को रोग लग जाने का भय होता है। दॉंत में दर्द प्रायः रोटी के टुकड़ों आदि के सड़ जाने या कीटाणुओं से होता है। दॉंतों के उपचार में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात स्वच्छता है। दिन में दो बार दॉंतों को कीटाणुनाशक मंजन आदि से साफ करना चाहिए। गरम पानी में नमक या अन्य कीटाणुनाशक औषधि मिलाकर कुल्ले करने चाहिएं। कैल्शियम की भी ऐसे रोगी को अधिक आवश्यकता होती है। पीड़ा के स्थान पर इन औषधियों में से किसी एक का प्रयोग किया जा सकता है- लौंग का तेल, क्लोरोफाम, पीपरमेन्ट का तेल या क्लोडियन। यदि दॉंत में कीड़ा लगा हो, तो उस स्थान को साफ करवाकर भरवा देना चाहिए। अन्यथा सारे दॉंत को हानि पहुँचने का भय है।

    Ved Katha Pravachan _18 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    उँगलियों में खुजली- यदि हाथ या पांव की उंगलियों में खुजली होती होतो रात को सोते समय हल्के गरम पानी में थोड़ा सा नमक मिलाकर न केवल उँगलियों को धोना ही चाहिएअपितु कुछ समय तक उन्हें पानी में डूबी रहने देना चाहिए। इसके पश्चात्‌ उँगलियों को अच्छी तरह पोंछकर किसी गरम वस्त्र से लपेट दें।

    प्राकृतिक औषधि जल

    पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शरीर को जिन्दा रखने के लिए हवा के बाद दूसरा स्थान पानी का है। पंचतत्वों से निर्मित मानव शरीर में जल का सबसे अधिक महत्व है। हमारे शरीर में लगभग दो तिहाई मात्रा सिर्फ पानी की है। जब किन्ही कारणों से शरीर में पानी का अंश कम हो जाता है तब शुष्कताथकानबेचैनी तथा अन्य कठिनाइयॉं उत्पन्न होने लगती हैं। ठण्डे पानी से स्नान करने से शरीर निरोग रहता है।

    दो चम्मच जीरा एक गिलास में उबाल लें। ठण्डा होने पर छानकर इससे चेहरा तथा गर्दन धोयें। लगातार एक मास तक यह प्रयोग करने से त्वचा मुलायम होती है और रंग साफ होता है।

    प्रतिदिन सुबह-शाम आँखों पर ठण्डे पानी के छींटे मारें। इससे आँखों को ताजगी मिलती हैनेत्र-ज्योति बढ़ती है और आँखें चमकदार होती हैं।

    साबुन के घोल वाले गुनगुने पानी में पैर भिगोने से नाखून मुलायम हो जाते हैं। फिर उन्हें आसानी से आकार दिया जा सकता है।

    125 ग्राम पानी उबालकर ठण्डा करें। फिर इसमें 15 ग्राम नीम्बू का रस और 15 ग्राम शहद मिलाकर शरबत बना लें। सुबह खाली पेट यह शरबत पीने से मोटापा दूर होता हैअनावश्यक चर्बी घटकर शरीर सुडौल बनता है। दो माह के नियमित सेवन से ही फर्क दिखाई पड़ने लगेगा।

    आँखों के नीचे काले धब्बे या झुर्रियॉं पड़ जाने पर ताजे ठण्डे पानी में नीम्बू का रस व नमक मिलाकर दिन में दो-तीन बार पीयें। लाभ होगा।

    नहाने के बाद एक मग गुनगुने पानी में कुछ बून्दें नारियल के तेल की डालकर पूरे बदन पर इसी पानी को छिड़क लें और फिर तौलिये से थपथपाकर सुखा लें। प्रतिदिन ऐसा करने से सम्पूर्ण शरीर की त्वचा चिकनी व कोमल बनेगी।

    हाथ-मुंह धोते समय मुहॅं में दो घूंट पानी रखकर आँखों में पानी के छींटे दें। रोज ऐसा करने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है।

    त्वचा की कांति और चेहरे की चमक के लिए प्रातःकाल खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।

    स्तनों की पुष्टता के लिए एक बर्तन में गर्म तथा दूसरे बर्तन में ठण्डा पानी लेकर उनमें एक-एक तौलिया भिगो लें। स्तनों को वस्त्रविहीन करके पहले गर्म पानी में भीगे तौलिये को लेकर स्तनों पर फैला दें। कुछ देर बाद जब तौलिया ठण्डा हो जायेतब हटाकर ठण्डे पानी से भीगे तौलिये को फैलायें। ऐसा कई बार बदल-बदलकर करें। इससे स्तनों का रक्त संचार बढ़ेगा और स्तन पुष्ट और सुडौल बनेंगे।

    बालों को लम्बा करने के लिए पचास ग्राम कलौंजी को पानी में पीसकर एक लीटर पानी में मिला लें। इस पानी से प्रतिदिन सिर धोयें। इससे बाल एक माह में ही लम्बे हो जाते हैं।

    60 ग्राम इमली लेकर 250 ग्राम पानी में फूलने दें। फिर उसको मसलकर चटनी के समान बनाकर सारे शरीर में मलकर पन्द्रह मिनट बाद स्नान करें। उससे त्वचा का सांवलापन दूर होगा।

    बाल धोने के बाद अन्त में एक मग ठण्डे पानी में एक नीम्बू का रस निचोड़कर बाल धो लें। इससे बाल रेशन जैसे मुलायमचमकदार और स्वस्थ होते हैं।

    दोमुंहे बाल और बाल झड़ने की समस्या आजकल आम हो गई है। इसके लिए तीन बड़े चम्मच समुद्री नमक एक लीटर पानी में उबालकर ठण्डा करके बोतल में रख लें। जिस दिन बालों में शैम्पू करना होउस दिन इस पानी को बालों की जड़ों में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें। ऐसा करने से बाल स्वस्थ व मजबूत होते हैं। आनन्द कुमार

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    दूध से निखारें सौन्दर्य

    पौष्टिकता में संसार के किसी भी आहार की तुलना दूध से नहीं हो सकती है। प्रोटीन के अतिरिक्त दूध अन्य पौष्टिक तत्वों जैसे कैल्शियमफास्फोरसविटामिन का भी उत्तम साधन है। दूध को एक सम्पूर्ण आहार भी माना जाता है। दूध मनुष्यों के लिए पूर्ण भोजन ही नहीं हैरोगों की औषधि भी है। दूध तो अमृत आहार है। वास्तव में दूध ऐसा आहार है जो कमजोर काया को नवीन जीवनी शक्ति प्रदान कर सकता है। रात को सोते समय दूध में थोड़ी मात्रा में शहद मिलाकर सेवन करना गुणकारी बताया गया है। इसे भोजन के तुरन्त बाद न लेंवरन्‌ भोजन करके 2-3 घण्टे बाद सेवन करना चाहिए। दूध में मिठास होती हैजिसे हम "लैक्टोजके नाम से जाना जाता है।

    दूध केवल पीने-पिलाने एवं व्यंजन बनाने के काम नहीं आताबल्कि सौन्दर्य निखारने में भी यह काफी सहायक होता है। सौन्दर्य विशेषज्ञों ने दूध तथा दही में तमाम सौन्दर्य बढ़ाने वाले गुणों की चर्चा की है। वास्तव में दूध शारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने एवं रूप को निखारने के लिए सबसे सरल व सस्ता साधन है। चेहरे की सफाई के लिए दूध का प्रयोग अच्छा रहता है। दूध सबसे बेहतरीन क्लीजिंग एजेण्ट है। यहॉं दूध के कुछ सौन्दर्यवर्धक गुणों के बारे में जानकारी दी जा रही है-

    1. त्वचा को कान्तिमय और आकर्षक बनाने के लिए थोड़ा सा कच्चा दूध लीजिए। उसमें शहद मिला लीजिए। डबल रोटी के टुकड़े को इस मिश्रण में भिगोकर त्वचा पर मलिए। यह बहुत लाभप्रद है।

    2. गर्दन और हाथ-पैरों को सुन्दर व स्वच्छ रखने के लिए गाय के कच्चे दूध में ऊन का फाहा डुबोकर उससे गर्दन व हाथ-पैरों पर पुचारा दीजिए। बाद में रगड़कर धो लीजिए। ये उपाय बड़े ही कारगर पाये गए हैं।

    3. चेहरे का रूखापन समाप्त करने के लिए संतरे के सूखे हुए छिलके को कच्चे दूध में भिगो देंफिर उसे पीस लें। इस लेप को चेहरे पर उबटन की भांति प्रयोग करें।

    4. नहाने से पूर्व एक भाग बेसन को दो भाग दूध में मिलाकर यह लेप शरीर में साबुन के स्थान पर लगाया जायेतो शरीर की चिकनाहट और मुलायमित बनी रहती है।

    5. थोड़े से कच्चे या गुनगुने दूध में रूई या ऊनी कपड़े के एक टुकड़े को चेहरे और हाथों पर तथा शरीर के अन्य भागों पर धीरे-धीरे मलें। 8-10 मिनट बाद पानी से धो डालें। इससे त्वचा मुलायम और चिकनी हो जाएगी। साथ ही चेहरे की झुर्रियॉं आदि भी समाप्त हो जाएगी।

    6. रात को सोने से पहले मुलहठी का चूर्ण 5 ग्रामआधा चम्मच शुद्ध घी तथा डेढ़ चम्मच शहद मिलाकर चाटेंऊपर से दूध पी लें। हर आयु के व्यक्ति का शरीर इस उपाय से पुष्टसुड़ौल व शक्तिशाली बनता है।

    7. प्रातःकाल उठकर सबसे पहले चेहरे को कच्चे दूध से साफ करें। फिर चन्दन का पेष्ट (चन्दन पाउडर न लेकर यदि चन्दन की लकड़ी को घिसकर उसका इस्तेमाल करेंतो ज्यादा बेहतर होगा) बनाकर चेहरे पर 10 या 15 मिनट तक लगा रहने दें। सूखने पर धो लें। ऐसा नियमित करने से चेहरा चमक उठेगा।

    8. चने की दाल को रात भर दूध में भिगोकर सुबह पीस लें। उसमें थोड़ी सी हल्दी मिलाकर चेहरे पर लगाएं। सूखने पर ताजे पानी से चेहरा साफ कर लें। चेहरे में निखार आएगा।

    9. त्वचा की रंगत साफ करने के लिए दूधनीम्बू और सन्तरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगाएं। 20 मिनट बाद चेहरा ताजा पानी से साफ कर लें।

    10. दूध व नमक मिलाकर चेहरे पर लगाएं। इसके उपयोग से त्वचा कोमल बनी रहती है।

    11. सरसों को दूध में भिगोकर पीसकर चेहरे पर लगाएं। ये झाइयों को दूध करती है।

    12. एक चम्मच चिरौंजी को 4 चम्मच कच्चे दूध में 12 घण्टे तक भिगोकर उसके बाद पीसकर उसका पेष्ट तैयार कर लीजिए। इस पेस्ट को चेहरे पर आधे घण्टे तक लगा रहने देंउसके बाद ठण्डे से धो देना चाहिए। ऐसा करने से शुष्क त्वचा मुलायम एवं कोमल हो जाती है। 

    13. जायफल को गाय के दूध में पीसकर पेष्ट तैयार कीजिए। इसपेष्टकोप्रतिदिन रात में लगाने से मुहांसेझुर्रियॉं एवं कालापन दूर हो जाता है।

    14. भुने मटर को नारंगी के छिलके के साथ कच्चे दूध में पीसकर चेहरे पर मलने से चेहरे का रंग निखरता है।

    15. शहददूध की क्रीम तथाबेसन मिलाकर उबटन तैयार करें। इसे चेहरे पर लगाने से खुश्की एवं झुर्रियॉं दूर होती हैं।

    16. गर्म दूध की मलाई का लेपकरने से कटे-फटे होंठ लाल गुलाब की पंखुड़ियों की भांति खिल उठते हैं।

    17. शुष्क त्वचा के लिए एक चम्मच ताजी मलाई2-3 बून्दें नीम्बू के रस कीचुटकी भर हल्दी पाऊडर लें। इन सबको मिला लें। इस पेस्ट को चेहरे पर लगा लें। 20 मिनट बाद चेहरा हल्के हाथों से रगड़कर गुनगुने पानी से साफ करें।

    18. यदि त्वचा तैलीय हैतो क्रीम से निकले दूध में 8-10 बून्दें पानी के रस की मिला लें। फिर त्वचा की सफाई करके पानी को धो लें। चेहरा पोंछते समय थपथपा कर सुखाएंरगड़कर न पोछें।

    19. आपको चेहरा मौसम अथवा अन्य किसी कारणवश पीला पड़ जायेतो दूध में कुछ बून्दें नीम्बू की डालें। साथ में एक छोटा चम्मच शहद भी मिला दें। इस लेप को रूई की सहायता से चेहरे पर लगाएं। 30 मिनिट बाद सामान्य पानी से साफ कर लें। इससे त्वचा में कोमलता और कान्ति आएगी।

    20. आँखों के चारों ओर झुर्रियां न पड़ेंइसके लिए आँखों के चारों ओर दूध रोज लगाएँ।

    21. होठों पर स्वाभाविक रंग लाने के लिए केसर और बादाम को दूध में घिसकर रात के समय लगाएं।

    22. बाल ज्यादा खुश्क होंतो धोने के बाद कच्चा दूध दस मिनट तक बालों में लगाए रखें। फिर गुनगुने पानी से धो लें। रूखे व शुष्क बालों के लिए यह अच्छा कंडीशनर है।

    23. प्याज के बीजों को दूध में पीसकर लेप करने से मुख पर सुन्दरता आती है और सिर के बाल नहीं झड़ते। - डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम

     

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    Life cannot be imagined without water. To keep the body alive, water is the second place after wind. Water is of the highest importance in the human body made from the five elements. About two-thirds of our body is water only. When the water content in the body decreases due to any reason, then dryness, fatigue, restlessness and other difficulties begin. Taking a bath with cold water keeps the body healthy. 

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  • जागते रहने वाले को वेद चाहते हैं

    ओ3म्‌ यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
    यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः।। ऋग्वेद 5.44.14।।

    अर्थ - (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र (तम्‌) उसको (कामयन्ते) चाहते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (उ) और (तम्‌) उसी के पास (सामानि) समावेद के मन्त्र (यन्ति) जाते हैं (यः) जो (जागार) जागता रहता है (यः) जो (जागार) जागता रहता है (तम्‌) उसी को (अयम्‌) यह (सोमः) शान्ति और आनन्द का धाम भगवान्‌ (आह) कहता है कि (अहम्‌) मैं (तव) तेरी (सख्ये) मित्रता में (न्योकाः) नियत रूप से रहने वाला (अस्मि) होता हूँ।

    Ved Katha Pravachan _97 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मन्त्र में आये 'ऋचः' और 'सामानि' पदों का सामान्य अर्थ ऋग्वेद के मन्त्र और सामवेद के मन्त्र होता है। इन पदों से सूचित होने वाले 'ऋग्वेद' और 'सामवेद' यहॉं शेष दोनों वेदों यजुर्वेद और अथर्ववेद के भी उपलक्षण हैं। अर्थात्‌ ऋग्वेद और सामवेद के निर्देश से चारों वेदों का ही निर्देश समझ लेना चाहिए। वस्तुतः चारों वेदों के मन्त्रों की रचना तीन प्रकार की है। जो मन्त्र छन्दोवद्ध हैं और छन्दों में होने वाली पादव्यवस्था से युक्त हैं उन्हें 'ऋच्‌' या 'ऋचा' कहा जाता है- यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था सा ऋक्‌। (जैमिनीयसूत्र 2.1.35) ऋग्वेद में ऐसे मन्त्रों का बाहुल्य है इसलिए उसे ऋग्वेद कहा जाता है। जब ऋचाओं को ही गीति के रूप में गाया जाता है तो उन्हें 'साम' कहा जाता है- गीतिषु सामाख्या (जैमिनीयसूत्र 2.1.36)। सामवेद में जितने मन्त्र हैं वे भक्तिरस में भरकर गीतिरूप में गाये जाते हैं, इसलिए उसका नाम सामवेद है। जो मन्त्र छन्दोबद्ध नहीं हैं और गीतिरूप में गाये नहीं जा सकते अर्थात्‌ जो मन्त्र पद्य नहीं हैं गद्य हैं, उन्हें 'यजुः' कहते हैं- शेषे यजुः शब्दः (जैमिनीयसूत्र 2.1.37)। यजुर्वेद में ऐसे 'यजुः' मन्त्र अधिक हैं इसलिए उसका नाम यजुर्वेद है। अथर्ववेद में तीनों प्रकार के मन्त्र हैं। क्योंकि चारों वेदों के मन्त्रों की रचना ही तीन प्रकार की है, इसलिए चारों वेदों को त्रयी या तीन वेद कह दिया जाता है। यों वेद चार ही हैं। केवल तीन प्रकार की रचना के कारण उन्हें तीन वेद भी कह दिया जाता है। इन तीन प्रकार की रचनाओं में भी प्राधान्य ऋग्‌ मन्त्रों और साम मन्त्रों का ही है, चारों वेदों की अधिकांश रचना इन्हीं में है। इसलिए इस मन्त्र के 'ऋचः' और "सामानि' ये पद यों भी चारों वेदों का निर्देश करने वाले हो जाते हैं।

    मन्त्र कहता है कि ऋग्वेद उसी की कामना करता है और सामवेद उसी के पास जाता है, जो जागता रहता है। ऋग्वेद और सामवेद से उपलक्षित होने वाले चारों वेदों का अध्ययन कौन कर सकता है ? उनका अध्ययन करके उन्हें भली-भॉंति कौन समझ सकता है ? और उन्हें भली-भॉंति समझकर उनके अनुसार आचरण करके क्रियात्मक जीवन में उनसे लाभ कौन उठा सकता है ? वह जो कि जागता रहता है।

    जो जागता रहता है, जो मुस्तैद और चौकन्ना रहता है, जो सावधान और सतर्क रहता है, जो सोता नहीं रहता, जो आलसी और प्रमादी नहीं बनता, वेद उसी की कामना करते हैं, उसे ही चाहते हैं, उसी के पास जाते हैं। जो व्यक्ति आलस्य और प्रमाद को परे फैंककर, सतर्क और सावधान होकर वेद को पढ़ने और उसका मर्म समझने के लिये भरपूर परिश्रम करता है, वेद उसी के पास जाता है। वेद का गूढ़ रहस्य उसी की समझ में आता है। वेद के गूढ़ रहस्य को समझकर और फिर उसके अनुसार आचरण करके उसके क्रियात्मक जीवन में सब प्रकार के लाभ वही जागरूक वृत्ति वाला व्यक्ति ही उठा सकता है। वेद तो सब प्रकार के वरदानों की, सब प्रकार के मंगलों की खान है। पर वेद से मिलने वाले इन मंगलों को प्राप्त वह कर सकता है, जो जागता रहता है। सोते रहने वाले को वेद के ये मंगल प्राप्त नहीं होते।

    और जो व्यक्ति जागरूक होकर वेद का अध्ययन करता है, उसके मर्म को समझ लेता है और फिर तद्‌नुसार आचरण करके अपने आपको पूर्ण पवित्र और ज्ञानवान्‌ बना लेता है, उसी जागते रहने वाले को भगवान्‌ के भी दर्शन होते हैं। वेद के ऐसे जागरूक विद्यार्थी के आगे भगवान्‌ अपने पट खोल देते हैं और कहने लगते हैं- "हे जागकर वेद का स्वाध्याय करने वाले स्वाध्यायी! मैं सदा तेरी मित्रता में रहूंगा, मेरा निवास सदा नियत रूप से तेरे हृदय में रहेगा।'' भगवान सोम हैं। उनमें चन्द्रमा की-सी शान्तिदायकता और आह्लादकता है। वे शान्ति और आनन्द के धाम हैं। जब वेद के स्वाध्याय से हमें परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा, जब वेदानुकूल शुभ आचरण से हमारे हृदय निर्मल हो जायेंगे और जब उसके परिणामस्वरूप हमारे हृदयों में प्रभु की ज्योति झलकने लगेगी, तब उस शान्ति और आनन्द के धाम के हमारे हृदयों में निवास से हम भी अवर्णनीय शान्ति और आनन्द के समुद्र में गोते लगाने लगेंगे। तब शान्ति और आनन्द के धाम, रस के समुद्र, भगवान्‌ के इस दर्शन, इस साक्षात्कार से हमें जीवन का चरम लक्ष्य, एकमात्र लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा। वेद भी जागते रहने वाले को ही चाहते और प्राप्त होते हैं।

    हे मेरे आत्मा! तू भी जाग और वेद को प्राप्त कर। हे मेरे आत्मा! तू भी जाग तथा 'सोम' के, शान्ति और आनन्द के निधि वेदपति भगवान्‌ को प्राप्त कर। आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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    The mantra says that the Rigveda wishes for the same and Samveda goes to him, who remains awake. Who can study the four Vedas arising from the Rigveda and the Samveda? Who can understand them well by studying them? And considering them well and behaving according to them, who can benefit from them in a functional life? The one who keeps awake.

     

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  • जीवन के पंचशील और उनसे आगे-2

    वेद-सन्देश

    5. आस्तिक भावना-

    3म उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदान्वन्तर्वरुणो भुवानि।
    किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृलीकं सुमना अभिख्यम्‌।। ऋग्वेद7.86.2।।

    हॉं! मैं अपनी (तनु) देह से संवाद करता हूँ। पूछता हूँ कि ऐ मेरी देह! तु मुझे यह बतला कि कब मैं वरने योग्य, वरने वाले परमात्मा में अपने को विराजमान हुआ देखूं? देह से संवाद इसलिये है कि जो जन्म से मरण पर्यन्त साथ देती है। पर ऐ मेरी देह! एक दिन तू भी मेरा साथ छोड़ देगी। तू तो मेरे रहने की कुटिया है। टूटने-फूटने वाली है। तो अपने टूटने-फूटने के पहले मेरे वरुण के अन्दर मुझे बिठाती जा। वह मेरी किस भेंट को स्वागत से स्वीकार कर सके? मैं कब उस सुखस्वरूपानन्द रूप परमात्मा को अच्छे मन वाला होकर देख सकूं। देह से संवाद क्या करना। इससे तो संघर्ष करना, लड़ना-झगड़ना है। ऐ मेरी देह! क्या तू सदा संसार के भोग विलासों में जहॉं-तहॉं फैलाने के लिये है? नहीं-नहीं, तू इस काम के लिये नहीं है। परन्तु तू उस प्रभु परमात्मा के सत्संग में ले जाने, उसकी शरण में पहुंचाने के लिये है। जिस मनुष्य में उस प्रभु परमात्मा के लिये आस्तिक भाव नहीं है, अपनी आत्मा का झुकाव नहीं है, ऐसा मनुष्य संसार में दस-बीस वर्ष रोटियॉं खाकर चला गया, ऐसा रूखा-सूखा जीवन तो प्राणी मात्र का है। मानव जीवन की सफलता तो इसी में है कि वह पूर्ण आस्तिक बने। और परमात्मा की उपासना करे।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    गाय का घी विष नाशक है

    Ved Katha Pravachan _69 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    मानव जीवन के भी दो विभाग हो जाते हैं। 1. साधारण जीवन और 2. दिव्य जीवन। नक्षत्र-तारा जीवन जो लाखों मनुष्यों में किसी विरले का होता है। उसके अन्दर दिव्यता निहित होती हैजो थोड़े से संस्पर्श या संघर्ष से जाग उठती है। जैसे दयानन्द का जीवन। शिवरात्रि की रात्रि में दयानन्द के सामने छोटी सी घटना आती है। शिवलिङ्ग पर छोटा सा चूहा चढ़ जाता है और खाने-पीने के पदार्थ को खा-पी लेता है तथा ऊपर से मूत्र-पुरीष की भी कुचेष्टा कर जाता है। यह छोटी सी घटना दयानन्द के सामने होती है। दयानन्द सोचते हैं कि कथा में तो सुना था कि शिव संसार का रक्षक है। यह तो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर पाता। यह शिव नहीं है। उस रात्रि में दयानन्द जागासचमुच जागा। स्वयं जागा और मानव समाज को भी जगाया।

    जागता वही दीपक है जिसमें जागने की शक्ति हैघृत के रूप में या तेल के रूप में। जिस दीपक में घृत नहींतेल नहीं उसका क्या जागना और जगाना। जगायाकिञ्चित्‌ टिमटिमाया और बुझ गया। ऐसी क्षणिक टिमटिमाहट तो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर हो जाती है। जब कोई मनुष्य मर जाता हैउसे श्मशान ले जाते हैंकाष्ठ चिता पर रख देते हैंदाहकर्म आरम्भ हो जाता हैअग्नि की ज्वाला जलने लगती हैउस समय प्रत्येक मनुष्य के अन्दर वैराग्य की टिमटिमाहट हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता हैक्या है इस जीवन का ठिकानादो दिन का जीवन क्यों पाप कमानापरन्तु यह टिमटिमाहट मात्र हैजो घर जाते ही बुझ जाती है।

    एक वह मानव है जो अपने प्रासाद (महल) से गाड़ी में बैठकर चलता है। चलते हुए वह देखता है कि कुछ लोग कुछ उठाये जा रहे हैं। वह सारथि से पूछता है कि ये लोग क्या उठाये लिये जा रहे हैंवह उत्तर देता है कि ये लोग शव अर्थात्‌ मुर्दे को लिए जा रहे हैं। फिर पूछता है कि शव या मुर्दा किसे कहते हैंसारथि उत्तर देता है कि यह मनुष्य मर गया हैयह चल नहीं सकताहाथों से पकड़ नहीं सकताबोल नहीं सकता और समझ नहीं सकता। फिर पूछता है कि इस मुर्दे का क्या बनेगासारथि कहता है कि भस्म बना दी जायेगी। वह फिर पूछता है कि यह स्थिति मनुष्य मात्र की है क्यासारथि कहता है कि जो जन्मा है उसकी अन्तगति यही होती है। फिर वह पूछता है कि क्या मेरे लिए भीसारथि उत्तर देता है कि हॉं आपकी भी अन्तगति यही होगी। फिर वह सारथि से कहता है कि गाड़ी लोटाओमुझे सैर नहीं करनी है। अपने महल पर पहुंचकर उसे सदा के लिए त्यागने की इच्छा पैदा हुई। वे मानव महात्मा बुद्ध थे। उनकी इस वैराग्य की ज्योति पर एक कालिमा की रेखाधुएं की रेखा आ गई। उनका नवजात पुत्र उत्पन्न हुआ थाजिसका आगे राहुल नाम प्रसिद्ध हुआ था। सोचाउसका मुख तो देखता चलूं। पुत्र के मुखदर्शन का सुख गृहस्थों को होता हैयह सब जानते हैं। किन्तु वैराग्य की ज्योति फिर तीव्र हो उठी। उसने धुएं की रेखा को खा लिया। बुद्ध के अन्दर विचार आया कि इस थोड़ी सी बात के लिए अपने लक्ष्य से पीछे हटता हैलौटता है तो फिर न जाने जीवन में कितनी बार लौटना पड़ेगा। इसी प्रकार दयानन्द के जीवन में भी मृत्यु को देखकर वैराग्य की ज्योति जाग गई थी। प्यारी बहन का देहान्त उनके सामने हुआप्यारे चाचा का देहान्त उनके सामने हुआ।

    अन्त समय को देख दयानन्द घर से बन को जाता।
    निश्चय अपना किया जगत्‌ में किससे किसका नाता?

    इस प्रकार दयानन्द के वैराग्य की ज्योति पर कोई धुएं की रेखा नहीं आयी। चलते समय उनके अन्दर यह विचार नहीं आया कि मैं फिर से घर चलूंजैसे ही वैराग्य की ज्योति को धारण करके ग्राम को छोड़ान फिर पीछे मुंह मोड़ा।

    दिव्य जीवन बनाने के लिए वेद का उपदेश है कि मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.3) दिव्य जीवन बनाने के लिए तू मनु हो जाअपने मूल में चला जा अर्थात्‌ मननशील हो जा। यह इस प्रकार से दिव्य जीवन बनाने का सन्देश हैजो साधारण लाखों मनुष्यों में किसी का नक्षत्र-तारा जीवन होता है। वेद और भी आगे बढ़ने का सन्देश देता है। लाखों दिव्य जीवनों या नक्षत्र-तारा जीवनों में कोई विरला सोम जीवन होता हैचांद जीवन होता है। वेद में कहा है-

    सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
    तयोर्यत्संत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्‌।। (ऋग्वेद-7.104.12, अथर्ववेद 8.4.12)

    समझदार मनुष्य के लिए यह भली-भॉंति समझने योग्य है कि सत्य-असत्य वचन परस्पर स्पर्धा करते हैंएक दूसरे के विरुद्ध चलते हैं। इन दोनों में सत्य वह है जो अत्यन्त ऋजु हैसरल से सरल है। उसकी सोम रक्षा करता है और असत्‌ का हनन करता हैखण्डन करता है। विद्वान के सामने सत्य-असत्य विरोधी प्रतीत होते हैं। जो यह कहते और मानते हैं कि यह धर्म भी सत्य हैवह धर्म भी सत्य हैवे विद्वान नहीं हैं। विद्वानों में भी जो सत्य का रक्षण अर्थात्‌ मण्डन करता है और असत्य का खण्डन करता हैवह उनसे भी ऊंचा है। सोम नाम से कहलाने वाला चन्द्र जीवन है।

    ऐसे विद्वान्‌ भारत और विदेशों में थेजिनके सम्मुख सत्य और असत्य अलग-अलग प्रतीत होते थे। परन्तु वे सत्य को सत्य कहने के लिए और असत्य को असत्य कहने के लिए उद्यत नहीं थे। उनकी वाणी पर पक्ष काभय का और लोभ का ताला लगा हुआ था। किन्तु दयानन्द की वाणी पर पक्षभय और लोभ का ताला नहीं लगा था। उसे किसी पक्ष ने फंसाया नहींकिसी डर ने डराया नहीं और किसी लोभ ने लुभाया नहीं। लाहौर में ब्रह्मसमाजियों ने अपने यहॉं ठहराया। व्याख्यान हुआ वेद के महत्व पर। उन्होंने उनको वहॉं से हटा दिया और कहा कि तुमने हमारे धर्म की प्रशंसा नहीं कीअपितु वेद की प्रशंसा की। फिर डॉ. रहीम खॉं ने उन्हें अपनी कोठी पर ठहराया। भाषण दिया इस्लाम की आलोचना पर। लोगों ने कहा कि आप यह क्या करते हैंइन्होंने आपको स्थान देकर आपका उपकार किया और आप इन्हीं की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि ठीक हैइन्होंने मेरे ऊपर उपकार किया। मैं भी प्रत्युपकार करता हूँ। जो मनुष्य अन्धेरे में जा रहा हो उसे हाथ पकड़कर लाना भी मेरा काम है। ईसाई लोग चर्च में बुलाते हैं व्याख्यान देने को। वहॉं वे व्याख्यान देते हैं बाईबिल की आलोचना पर। ऐसा निराला वक्ता जिसे किसी पक्ष ने नहीं फंसायान उनको किसी डर ने डराया। अनेक बार विष के प्याले पिये और प्रहार सहे।

    हमने देखा कि आजकल के जो बड़े-बड़े नेता हैंगुरुकुलादि संस्थाओं में जाते हैं तो सन्ध्या-हवन की आलोचनावेद की आलोचना कर जाते हैं। किन्तु हमने न देखा न सुना कि किसी नेता ने मस्जिद में जाकर नमाज की आलोचना या कुरान की आलोचना कीहो। उन्हें गला कटने का भय और अपने पक्ष में न होने का सन्देह रहा।

    दयानन्द को किसी लोभ ने नहीं लुभाया। महाराणा उदयपुर ने कहा कि आप क्यों संसार के साथ अपना मस्तिष्क थकाते-दुखाते फिरते हैंयह लाखों रुपयों का मन्दिर आपका हैइसको सम्भालोबैठो। ऋषि ने उत्तर दिया कि यह मन्दिर तो क्याजितना आपका राज्य हैचाहूं तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ। परन्तु मैं अपने ऊपर उसको राजा मानता हूँ जो विश्वराट्‌ परमात्मा है। उसकी आज्ञा का पालन न करके और सत्य का प्रचार न करके किस कोने में जाऊंगा। इसलिए मुझे मन्दिर नहीं चाहिए। वेद और भी मुझे आगे बढ़ने को कहता है। लाखों चांद जीवनों में कोई बिरला जीवन सूर्य का जीवन होता है। वेद में कहा है कि ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत (अथर्व 11.5.19) ब्रह्मचर्य रूप तप से देव लोग मृत्यु को परास्त करते हैं। यह तो हुआ ब्रह्मचर्य का फल। किन्तु के देवाःदेव कौन हैंउत्तर- ये ब्रह्मचर्येण मृत्युमपाघ्नन्ति। जो ब्रह्मचर्य-तप से मृत्यु को परास्त करते हैं वे देव हैं। वेद में सूर्य को ब्रह्मचारी कहा है- ब्रह्मचारीषणं चरति रोदसी उभे तपसा पिपर्ति। (अथर्व. 11.5.1)

    सूर्य ब्रह्मचारी होता हुआ आकाश में विचरता है। द्युलोकपृथ्वीलोक को अपने प्रकाश रूप तप से पूरित करता है। दयानन्द भी आदित्य ब्रह्मचारी थे। उन्होंने घर पर रहते हुए बहन और चाचा की मृत्यु को देखा। घर-परिवार के जन सब रो रहे थे। परन्तु वह नहीं रो रहा था। सब लोग कह रहे थे कि कितना निष्ठुर कठोर बालक हैजरा भी आँखों मेें आंसू नहीं हैं। परन्तु कौन जानता था कि यह बालक अन्दर ही अन्दर रो रहा है और मृत्यु की औषध को खोज रहा है। वेद ने बतायाइसका औषध है "ब्रह्मचर्य'। ऋषि ने इस औषध को वेद से प्राप्त कर गटागट पान कर लिया। उनके जीवन में ब्रह्मचर्य आपूर-भरपूर हो गयाजैसे किसी नदी लहर में जब जल आपूर-भरपूर हो जाता है तो उछल-उछलकर किनारों से बाहर भी बिखरता है। विरोधियों ने एक वेश्या को बहकाकर उनके पास भेजा कि वह उनको पतित करेवेश्या ने कहा कि आप जैसा अपने अन्दर पुत्र चाहती हूँ। ऋषि ने उत्तर दिया- आज से मैं तेरा पुत्र और तू मेरी माता। ऋषि के इतना कहने पर वेश्या के अन्दर ब्रह्मचर्य की धारा दौड़ गईउसकी काया पलट गई। गिड़गिड़ाकर कहने लगी- मैंने अनेक साधु देखेपर तेरे जेसा नहीं। तूने तो मेरा जीवन सुधार दिया। उसने आयु भर वेश्या कर्म छोड़ दिया। ऋषि को ब्रह्मचर्य ने मृत्युञ्जय बना दिया। दिवाली की अमावस्या उनका मृत्युञ्जय दिवस है। उस दिन ऋषि कहते हैं कि एक मास पीछे आज सुख का दिन है।

    संसार से उनके प्रस्थान का दिन है। विष के कारण अंग-अंग में छाले-फफोड़े पड़े हुए थे। आँखों की पुतलियों में छाले-फफोड़े पड़े थे। डाक्टर लोग चकित थे कि इतने अपार दुःख में भी यह साधु हाय-हाय नहीं करता और न ही घबराता है। अजमेर से बाहर के दर्शक और भक्त आये हुए थे। उनमें पं. गुरुदत्त जी वैज्ञानिक विद्वान्‌ थे। उन्होंने ऋषि दयानन्द के सम्मुख ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न रखे थे। ऋषि ने उनका उत्तर दिया था। गुरुदत्त ने कहा था कि मेरे सारे प्रश्न हल हो गयेपरन्तु मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं हुआ। ऋषि ने कहा कि मेरा काम तुम्हारे प्रश्न उत्तर देना था। विश्वास तो अन्दर की वस्तु है। अन्दर से ही उपजेगा। पं. गुरुदत्त ऋषि के जीवन काल में ही नास्तिक रहे। प्राणान्त के समय ऋषि ने उन्हें कहा कि तुम ऐसे स्थान पर पर खड़े हो जाओजहॉं तुम मुझे देखते रहो और मैं तुम्हें न देख सकूं। इस प्रकार सब दर्शकों और भक्तों को अन्दर बुलाया और कहा- वैदिक धर्म का कार्य निरन्तर करते रहना। यह बात पं. गुरुदत्त भी सुन रहे थे। आश्चर्य कर रहे थे कि यह बात तो ऐसी है जैसे परदेश जाने वाला पीछे रहने वालों को सन्देश दे जाया करता है। फिर ऋषि मुण्डन कराते हैं। पं. भीमसेन जो उनके लेखक हैंको बुलाते हैं और कहते हैं 200 रुपए और दुशाला तुम्हारे लिये भेंट है। पीछे आनन्द में रहना। फिर आत्मानन्द शिष्य को बुलाते हैं और कहते हैं- बोलोतुम्हें क्या दिया जायेआत्मानन्द कहते हैं- महाराज! आप स्वस्थ हो जायेंमेरी यही इच्छा है। ऋषि ने कहा "यह शरीर क्षणभङ्गुर हैइसका क्या स्वस्थ होना। अब अन्त है।'' ये बातें सुन-सुनकर पं. गुरुदत्त आश्चर्य में पड़ रहे थे। फिर ऋषि ने सबकी ओर दृष्टि डालकर आँखें बन्द कर लीं। समाहित हो गये। ध्यानमग्न हो गये। कुछ देर पश्चात्‌ ऋषि ने संस्कृत में प्रार्थना कीफिर हिन्दी में की। अन्त में बोले- ईश्वर! तूने अच्छी लीला की। क्या तेरी यही इच्छा हैसचमुच तेरी यही इच्छा हैतेरी इच्छा पूर्ण हो। ऐसा कहकर श्वांस को लम्बा करके छोड़ दिया और छोड़ दिया सदा के लिये।

    हंस हंस हंस उड़ा एक उड़ान में।
    परब्रह्म में केवल में व्योम समान में।। 

    पं. गुरुदत्त जी इस दृश्य को देखकर मन में सोचने लगे- क्या यह मृत्यु का अभिनय हैऐसा मरण कभी देखने को नहीं मिला। उनके अन्दर यह भावना आई कि ऋषि दयानन्द जा रहे हैंयह कहते हुए जा रहे हैं- क्यों गुरुदत्त! अब भी ईश्वर है या नहींगुरुदत्त का हृदय भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे- ऋषि! ऋषि!! प्यारे ऋषि!!! हॉंमैं समझ गया। हैवह ईश्वर है। वह अमर ज्योति जिसके जीवन वह जो ईष्टदेव होता हैउसका अन्त समय में भी उपदेश देता हुआ चला जाता है।स्वामी ब्रह्ममुनि

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    Awakening is the same lamp that has the power to wake up, in the form of melted butter or oil. What to awaken and awaken in a lamp that has no butter, no oil. Woke up, little flicker and extinguished. Such momentary flicker occurs in every human being. When a person dies, they take him to the crematorium, place the wood on the pyre, the cremation starts, the flame of fire starts burning, at that time there is a flicker of quietness in every human being. Every human feels, what is the whereabouts of this life, why should a two-day life be sinful? But it is just flicker, which is extinguished as soon as we go home.

     

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  • जीवन के पञ्चशील और उनसे आगे -1

    वेद-सन्देश

    सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक अनेक मत एवं सम्प्रदाय चले, बहुतेरी सभाएं और समितियां बनीं। विविध दल और मण्डल स्थापित हुए। प्रश्न है, क्यों? इन सबका प्रादुर्भाव मनुष्यों के बीच में हुआ। इससे स्पष्ट है कि मानवता के प्रश्न को सुलझाने के लिये, मानव जीवन की समस्याओं को पूरा करने के लिये अर्थात्‌ मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन, गृहस्थ जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और आध्यात्मिक जीवन सुखी बने, श्रेष्ठ हो, ऊँचा उठे, यह है उद्देश्य इन सब मतों, सम्प्रदायों, सभाओं, समितियों, दलों और मण्डलों का। जिसका यह उद्देश्य न हो उसे संसार से समाप्त हो जाना चाहिये।

    जीवन का प्रश्न जिस समय हमारे सामने आता है, हमें सर्वप्रथम संसार में दो प्रकार के जीवन मिलते हैं-1. चेतन जीवन2. जड़ जीवन। चेतन जीवन में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणी वर्ग। जड़ जीवन में वृक्ष, पौधे, लता-तृण आदि वनस्पति जीवन है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    पर्यावरण के शोधन के लिए यज्ञ अनिवार्य है।

    Ved Katha Pravachan _70 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    प्रथम जड़ जीवन को देखते हैं। कोई वृक्ष जहॉं लगा हैयदि वहॉं उसके लिये खाद्य (खाद) न मिले तो मर जाता है। वर्षा धारा के तीव्र प्रताप से (मुसलाधार वर्षा से) पौधा गल जाता है। गर्मी के तीक्ष्ण ताप से पौधा सूख जाता हैशीत के घोर हिमपात से पौधा पीला पड़ जाता हैमर जाता हैअपने को बचा नहीं सकता। कोई मनुष्य उसका पत्ता तोड़ेफूल तोड़ेशाखा तोड़ेसमूल ही नष्ट कर देउससे भी बचने की उसमें शक्ति नहीं है। यह जड़ जीवन है। जिस व्यक्तिजिस समाज और जिस राष्ट्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की शक्ति नहींवह जड़निकम्मा और निरर्थक है।

    वियुज्यमाने हि तरौ पुष्पैरपि फलैरपि।
    पतति छिद्यमाने वा तरुरन्यो न शोचते।।

    किसी वृक्ष के फूल आने बन्द हो जाएंफल आने बन्द हो जाएंगिर जाने पर या काट दिये जाने पर पास का खड़ा वृक्ष उसके सम्बन्ध में कुछ सोच नहीं सकताचिन्ता नहीं करता। सहानुभूति हीन जीवन जड़ जीवन हैचाहे वह व्यक्ति होसमाज हो या राष्ट्र हो। जड़ जीवन यानी निष्क्रिय जीवन।

    इसके आगे चेतन जीवन के दो विभाग हैं। 1. मनुष्यों का जीवन। उसे मानव जीवन के नाम से कहेंगे। 2. मानव से अतिरिक्त प्राणियों का जीवन। उसे जान्तव जीवन के नाम से कहेंगे।

    कोई गधाघोड़ा या बैल जहॉं रहता हैयदि उसके लिये वहॉं चारा न मिले तो दूसरे स्थान पर चारा लेता है। दूसरे स्थान पर न मिले तो तीसरे स्थान पर लेता है। यदि वहॉं भी न मिले तो अपने लिए चारे को खेती करके उपजा नहीं सकता। वर्षा से बचनेगर्मी से बचनेठण्डी से बचने के लिये किसी बने-बनाये भवन (मकान) का आश्रय लेकर अपना बचाव कर सकता है। यदि ऐसा स्थान कहीं न मिलेतो मकान बनाने में वह असमर्थ है। कोई आक्रमणकारी आक्रमण करे तो उसका उत्तर सींगदांत और पञ्जों से दे सकता है। दूर खड़े आक्रमणकारी से अपना बचाव नहीं कर सकता। सहानुभूति भी जान्तव जीवन में थोड़ी मात्रा में होती है। जब उसके शिशु (बच्चे) समर्थ हो जाते हैंतब उनसे सहानुभूति भी हटजाती है।

    जान्तव जीवन है सक्रिय जीवन। परन्तु इसकी क्रियाओं के दो विभाग हो जाते हैं। अति दीनता या अति क्रूरता। ग्राम-नगर के पशुओं में अति दीनता पाई जाती है। किसी घोड़ेगधेबैल को लें। उस पर बोझे पर बोझा लादते चले जायें और डण्डे पर डण्डा लगाते चले जायेंवह अतिदीन है। जङ्गल के पशुओं में अतिक्रूरता पाई जाती है। सिंह आदि पशुओं को मार-मारकर खा जाते हैं। यह अतिदीनता मनुष्यों के अन्दर आ जाये तो दास बन जाता है। अतिक्रूरता आ जाये तो दस्यु बन जाता है। मानव को दस्यु और दास नहीं बनना चाहियेन बनने देना चाहिये।

    मानव अपने भोजन (आहार) के लिये पृथ्वी से नाना प्रकार के बीजों का संग्रह करता है। उन्हें कृषिविद्याउद्यानविद्या के द्वारा पुष्ट अन्नों और फलों के रूप में प्राप्त करता है। पाकविधि से भोजन बनाकर स्वास्थ्य सुख का लाभ लेता है। ऋतुओं के कोप से बचने के लिए ऋतु-ऋतु के अनुसार प्रासाद (मकान) बनाकर जीवन यात्रा सुख से निर्वाहित करता है। किसी आक्रमणकारी से बचने के लिए दण्डतलवारबन्दूक आदि से अपने को बचाता है। सहानुभूति भी यदि कहीं पूर्ण स्थान लेती है तो मानव-हृदय में लेती है। जो ग्रह-तारे-नक्षत्र-सितारे इन आँखों से स्पष्ट नहीं दीखतेउन्हें दूरवीक्षण (दूरबीन) से साक्षात करता है। इन्द्रियों का सुख बिना विपत्ति के कैसे मिल सकेइसके लिए भी उपाय करता है। शरीर में क्या रोग हैइसका निदान करके औषधिज्ञान से चिकित्सा करता है। नाना प्रकार की विद्याओं का अध्ययन करके मनोविकास और मानसिक कल्याण को प्राप्त करता है। अध्यात्म मार्ग परमात्मा की उपासना से परमानन्दपरमशान्ति और मोक्ष को पाता है। यह है मानव जीवन। जो अपनी रक्षा में स्वतन्त्र और विकासी जीवन हैऐसे जीवन को परम सफल और श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों में पञ्चशील बताए गए हैं-

    1. स्वावलम्बन की भावना -
    स्वयं वाजिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व। महिमा तेऽन्येन न सन्नशे।। यजुर्वेद 23.15।।

    हे (वाजिन्‌) शक्तिशाली जीवात्मन्‌ मनुष्य! (स्वयं तन्वं कल्पयस्व) स्वयं अपने तनु=शरीर को समर्थ बना। शरीर के समस्त साधनों अर्थात्‌ कर्मेन्द्रियोंज्ञानेन्द्रियों और अन्तःकरण को समर्थ बना। पैरों में चलने की शक्ति हैइसे मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न किया है। बालक ने उठ-उठकर गिर-गिरकर चल-चलकर स्वयं शक्ति को उत्पन्न किया है। उसके अन्दर उठने और चलने की भीतरी इच्छा और भीतरी प्रयत्न होता था। यदि भीतरी इच्छा और प्रयत्न से काम न लिया जाये तो कोई मनुष्य अपने घर से कहीं भी जाने में समर्थ न होता। यह देखा गया है कि हठयोगी साधु अपनी एक भुजा को ऊपर किये रहते हैं। भीतर इच्छा और भीतरी प्रयत्न से काम नहीं लेतेइसलिए भुजा सूख जाती है। इसी प्रकार नेत्रों में देखने की शक्ति और मन में समझने की शक्ति भी मनुष्य स्वयं उत्पन्न करता है। इन साधनों को समर्थ बनाकर (स्वयं यजस्व) स्वयं किसी कार्य क्षेत्र में लगा। (स्वयं जुषस्व) स्वयं उनका फल प्राप्त कर। जो कर्त्ता है सो भोक्ता है। (महिमा तेऽन्येन) तेरी यह त्रिविध महिमा अन्य के द्वारा (न सन्नशे) नष्ट नहीं की जा सकती।

    जो व्यक्तिजो समाज और जो राष्ट्र स्वावलम्बी होता हैवह संसार में उठ जाता हैउन्नत होता है। जो दूसरे के आश्रय पर निर्भर रहता हैउसका उन्नत होना दुर्लभ है।

    2. आशावाद -

    कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।
    गोजिद्‌ भूयासमश्वजिद्‌ धनञ्जयो हिरण्यजित्‌।।(यजुर्वेद 7.50)

    कर्म मेरे दाएं हाथ मेंजय-विजय फिर बाएं हाथ में हैं। मेरे दोनों हाथ भरे हुए हैंरिक्त नहीं हैंखाली नहीं हैं। शेखचिल्ली की भांति हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला मैं नहीं हूँ। इसलिए मैं गौवों और भूमि का विजेता बनूंघोड़ों और राष्ट्रों का विजेता बनूंधन और सम्पत्ति का विजेता बनूं। इस प्रकार मनुष्य को कर्मशील होते हुए आशावादी होना चाहिए।

    3. कर्मण्यता -

    कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।(यजुर्वेद 40.2)

    मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए 100 वर्षों और अधिक से अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। एक कर्म समाप्त हुआ तो दूसरा आरम्भ कर देना चाहिए। दूसरा समाप्त हुआ तो तीसरा प्रारम्भ कर देना चाहिए। यावज्जीवन निरन्तर काम करते रहने से निष्काम कर्म होगा। सकाम कर्म तब होगा जब कर्म करते हुए रुक जायेगाउसके फल की टटोल में पड़ेगा। कर्म का फल तो ईश्वर की व्यवस्था से अनिवार्य है। निरन्तर कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए। मरने की इच्छा करना पाप है। यह इससे सूचित होता है। आत्म-हत्या तो महापाप है।

    मनुष्य दीर्घायु तक जीने के लिए अनेक रसायनों और औषधियों का सेवन करता है। पर यहॉं वेद में औषधि बताई है- निरन्तर कर्म करने की। दो पहिये की सायकिल में जब निरन्तर कर्म अर्थात्‌ क्रिया होती हैतो वह सवार को बिठाये हुए आगे बढ़ती चली जाती है। जब क्रिया बन्द हो जाती है तो सायकिल और सवार धड़ाम से नीचे गिर जाते हैं। निरन्तर कर्म या क्रिया संकट तक से बचाती है। मोटर सायकिल का खेल करने वाला लोहे की पत्तियों के बहुत ऊंचे गोल पिञ्जरे में अपने साथी को नीचे खड़ा करके मोटर सायकिल ऊपर-नीचे चलाता है। उसके पहिए ऊपर की पत्तियों को छूते हैं और सिर नीचे होता हैफिर भी वह गिर नहीं पाता। मोटर सायकिल में निरन्तर कर्म या क्रिया होने से गिरने का अवकाश नहीं है। अपने साथी को नीचे इसलिए खड़ा करता है कि जब गति बन्द करे तब नीचे का पता लग जाए।

    इस मन्त्र में एक विशेष बात कही गई है जो "कुर्वन्‌शब्द से स्पष्ट होती है। यह पद व्याकरण शैली से शतृ प्रत्ययान्त हैजो क्रिया के लक्षण हेतु इन अर्थों में होता है- लक्षणहेत्वौः क्रियायाः (अष्टाध्यायी 3.2.126) जैसे जब यह कहा जाये कि विद्यार्थी खादन्‌ विद्यालयं गच्छतिविद्यार्थी खाता हुआ विद्यालय जाता है। यह 'जानाक्रिया का लक्षण है। और जब यह कहा जाए कि विद्यार्थी पठन्‌ विद्यालयं गच्छतिविद्यार्थी पढ़ने के हेतु विद्यालय जाता है। यह 'हेतुहुआ। ऐसे 'कुर्वन्‌शब्द भी दो अर्थों में आता है। कर्मों को करता हुआ जीने की इच्छा करे। यह जीने की क्रिया का लक्षण हुआ और (शतं समाः जिजीविषेत्‌) मनुष्य 100 और उससे भी अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करे। हेतु क्योंकर्माणि कुर्वन्‌। कर्मों के करने के हेतु। मानव का जीवन जीने मात्र के लिए नहीं हैकिन्तु कर्मों के करने के हेतु है। जीने मात्र के लिए कर्म तो चोरी आदि पाप कर्म भी हो सकते हैं। इसीलिए जीना तो ऊंचे कर्मों के करने के हेतु हैजो मानव को ऊंचे स्तर पर ले जाने वाले हैं। आज के युग में मानव का जीवन जीने मात्र के लिए समझ लिया गया है। इसीलिए सर्वत्र अशान्ति है। जो रोटी मनुष्य के द्वारा खाई जाने वाली थीआज वह मनुष्य को खा जाने वाली हो गई है। इसलिए ऊंचे स्तर पर कर्म करने की शीलता मनुष्य में होनी चाहिए।

    4. यशस्वी होने की भावना -

    यशो मा द्यावापृथिवी यशो मा इन्द्रा बृहस्पती।
    यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम्‌।
    यशस्वयस्याः संसदो अहं प्रवदितः स्याम।।(सामवेद पूर्वार्चिक 6.3.13.10)

    मेरे माता-पिता मेरे यश का कारण हों। द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्‌। मैं माता पिता की आज्ञा का पालन करूंजिससे मेरा यश हो! मेरा आचार्य मेरे यश का कारण हो। जैसे विरजानन्द का शिष्य विरजानन्द के यश का कारण है। मैं आचार्य के आदेश का ऐसा पालन करूंजैसे स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के आदेश का पालन किया।

    विद्या समाप्ति पर दयानन्द उनके लिये लौंग ले जाते हैं। विरजानन्द ने पूछा- मेरे लिये क्या भेंट लाये होदयानन्द ने लौंग बताई। विरजानन्द ने कहाअरे! मैंने तुम्हें लौंगों के लिए पढ़ाया था। दयानन्द ने कहा कि मेरे पास तो और कोई वस्तु भेंट देने के लिए नहीं है। विरजानन्द ने कहा कि मैं उस वस्तु को मांगता हूँ जो तुम्हारे पास हैबोलो दोगेदयानन्द ने देना स्वीकार किया। विरजानन्द ने कहासंसार में अवैदिकताअनार्षता और भ्रष्टाचार फैला हुआ है। उसके निवारण के लिये तुम अपने प्राणोें को दे दो। दयानन्द ने इस प्रकार इनके निवारण के लिए प्राण दे दिये। इससे उनका यश है। 

    भग ऐश्वर्य मेरे यश का कारण हो। ऐश्वर्य मनुष्य के पास आता और चला भी जाता है। सम्पत्तियॉं गाड़ी के पहिये की भांति आवर्त्तन करती रहती हैं। भूमि बदलती रहती है। आज किसी की सम्पत्ति कल किसी के पास चली जाती है। परसों तीसरे के पास चली जाती है। सम्पत्तियों या ऐश्वर्य का लाभ तो उसका दानादि में सदुपयोग करके यश लेना है। संसार में यह शरीर नहीं रहेगापरन्तु अच्छे कार्यों के कारण नाम रह सकता है। इस समाज का मैं यशस्वी वक्ता बनूं। मेरे मुख से जो कथनवचन और प्रवचन निकलेवह उसके हित में निकले। वेद में उदाहरण के रूप में यश के स्थान बताये गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य को यश प्राप्त करना चाहिये। यह मानव जीवन की सफलता है।(जारी) -स्वामी ब्रह्ममुनि

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  • डॉ. कलाम 2020 तक ऐसा भारत चाहते हैं परन्तु......

    भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आगामी 2020 तक भारत को जैसा देखना चाहते हैं, वह इस प्रकार है- 1.शहरी व ग्रामीण का अन्तर कम हो। 2. ऊर्जा और जल की पर्याप्त उपलब्धता व समान वितरण। 3. कृषि उद्योग व सेवाक्षेत्र साथ मिलकर काम करें। 4. सामाजिक अथवा आर्थिक भेदभाव के कारण किसी योग्य विद्यार्थी को शिक्षा से वंचित न रहना पड़े। 5. जो निवेशकों, वैज्ञानिकों और योग्य व्यक्तियों को प्रिय हो। 6. उच्चस्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं हों 7. सरकार पारदर्शी और भ्रष्टाचार रहित हो। गरीबी और अशिक्षा समाप्त हो। 8. महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध न हों। समाज का कोई तबका अलग-थलग महसूस न करे। 9. समृद्ध, स्वच्छ, सुरक्षित और शान्त राष्ट्र सतत विकास के पथ पर अग्रसर हो। 10. ऐसा देश बने जिसे अपने नेतृत्व पर गर्व हो और जिसे दुनियॉं में सबसे बेहतर स्थान समझा जाए। 

    Ved Katha Pravachan -2 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    डॉ. कलाम के ये स्वप्न, ये आकांक्षाएँ उस स्वर्णिम युग का स्मरण कराते हैं, जब भारत का नेतृत्व महान्‌ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, अपने श्रेष्ठतम मार्गदर्शक आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में कर रहे थे, जिन्होंने न केवल बिना भेदभाव के न्यायसंगत प्रशासन का संचालन ही किया, बल्कि अपने उज्ज्वल चरित्र के प्रकाश से सम्पूर्ण भारत को आलोकित कर दिया था। यह वह युग था जब लोगों को चोरी, लूट व हत्या का भय नहीं था। महिलाएँ सम्मानित थी और बाल-गोपाल सुरक्षित थे। विदेशी हमलों से देश सुरक्षित था। भारत का इस महिमा के प्रशंसक विदेशी यात्री थे। वर्तमान भारत के सन्दर्भ में डॉ. कलाम जी की ये आकांक्षाएँ उस वैज्ञानिक सोच की उपज हैं, जिसके अनुसार आम आदमी के चरित्र, सामाजिक व आर्थिक स्थिति आदि पर गंभीरता से अध्ययन, चिन्तन व मनन किया गया प्रतीत होता है। धन्य है ये चिन्तन और धन्य है चिन्तक, जिसने मत-सम्प्रदायों के चौखटों से बाहर निकलकर भारत को भेदभावरहित, सुखी-सम्पन्न, सुरक्षित राष्ट्र के रूप में देखने की आकांक्षा अभिव्यक्त की। भारत का यह महान्‌ वैज्ञानिक चिन्तक आगामी सन्‌ 2020 तक अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप भारत को देखना चाहता है। परन्तु यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इस अल्पावधि में ऐसा होना सम्भव है? हॉं, ऐसा होना सम्भव है। डॉ. कलाम ने इस सन्दर्भ में युवा पीढ़ी का आह्वान करते हुए कहा है- ""आई केन डू इट, वी केन डू इट, इंडिया केन डू इट'' (मैं यह कर सकता हूँ, हम यह कर सकते हैं, भारत यह कर सकता है)। यह सब कुछ तभी सम्भव है, जब ऊँच-नीच के भेदभाव, धर्म-सम्प्रदायों के चौखटों में आबद्ध असंख्य नागरिक, चरित्रहीनता के कारण भ्रष्टाचारी चरित्र, राष्ट्र व राष्ट्रीयता के प्रति उदासीनता के कारण आर्थिक विषमता और वे समस्त कारण जिन्होंने हमें अपने उत्तरदायित्वों के प्रति संवेदनाशून्य बना रखा है, इन सब क्या और क्यों के प्रश्नों का उत्तर ढूंढ निकालना होगा। साथ ही इनके निराकरण के उपायों की भी खोज करनी होगी। कहीं यह खोज पुस्तकों के प्रकाशन तक ही सीमित न रह जाए, इसे प्रभावशाली ढंग से व्यावहारिक रूप देने की जिद भी मन-मस्तिष्क में संजोना होगी। 

    डॉ. कलाम की यह अपेक्षा कि हम भारत को एक ऐसा देश बनाएं, जिसे अपने नेतृत्व पर गर्व हो और जिसे दुनिया में सबसे बेहतर स्थान समझा जाए, वन्दनीय है। इस महान्‌ स्थिति को स्थापित करने के लिए भारत के पास उपाय हैं, क्योंकि वह अतीत में "जगद्‌गुरु' के वैभव से गौरवान्वित हो चुका है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे युवा वैज्ञानिक अपने वैज्ञानिक चिन्तन व सोच से उन तत्वों को खोज निकालें, जिनके आधार पर भारत को विश्व में गौरवान्वित किया जा सके। अपेक्षा है उस नेतृत्व की जिस पर गर्व किया जा सके। उस परिवर्तन के लिए वैज्ञानिक आधार पर क्या-क्यों, कैसे की खोज अपेक्षित है। आचार्यश्री डॉ. संजयदेव

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    The expectation of Dr. Kalam that we should make India a country that is proud of its leadership and which is considered the best place in the world, is praiseworthy. India has remedies to establish this great position, because it has been proud of the glory of "Jagadguru" in the past. The need is that our young scientists should discover those elements from their scientific thinking and thinking, On the basis of which India can be made proud in the world. Expectation of leadership that can be proud of it. That change requires the discovery of what-why, on scientific basis. - Acharyashree Dr. Sanjay Dev

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  • तत्त्ववेत्ता महान क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द सरस्वती

    महर्षि के कार्य क्षेत्र में आने के समय यद्यपि भारत में कई छोटे बड़े सम्प्रदाय काम कर रहे थे, परन्तु सबके सब अपने पुराने आदर्शों से गिर चुके थे। विचार स्वातन्त्र्य का ऐसा तिरोभाव था, मानो उसका कभी प्रादुर्भाव ही नहीं हुआ हो। धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक पराधीनता ने भारत सन्तान को मुर्दा बना दिया था। किसी क्षेत्र में भी भारतवासियों को दासता की जंजीरें काटने का साहस नहीं होता था। ऐसे समय में किसी ऐसे महापुरुष की आवश्यकता थी जो धार्मिक संशोधन के क्षेत्र में मायावाद, प्रकृतिवाद और नैष्कर्म्यवाद तथा शून्यवाद के विभिन्न जालों को छिन्न-भिन्न करके कर्मवाद तथा त्रैतवाद की स्थापना करके समकालीन सब सम्प्रदायों की कमियों को पूरा कर सके।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य सबसे श्रेष्ठ क्यों और कैसे है
    Ved Katha Pravachan - 8 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    ईश्वरीय नियम में अनुसार जब-जब धर्म पर भारी आपत्ति आती हैतब-तब किसी महान आत्मा का प्रादुर्भाव होकर उसके द्वारा धर्म को शक्ति और बल प्रदान करने वाले अखण्ड स्रोत का मार्ग फिर से बतलाया जाता हैजैसा कि श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के निम्नलिखित श्लोक में कहा है-

    यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।।

    इसी के अनुसार सन्‌ 1824 में गुजरात स्थित मौरवी राज्य के टंकारा ग्राम में एक औदीच्य ब्राह्मण के घर मूलशंकर नामक एक पुण्य नक्षत्र का उदय हुआ। बाल्यावस्था में ही मूलशंकर ने देखा तथा समझ लिया कि उनके स्वजन झूठे देवों की उपासना करते हैं तथा हानिकारक अन्धश्रद्धा तथा सिद्धान्तों में फंसे हुए हैं। गौतम बुद्ध की भांति मृत्यु आदि के दु:खों को देखकर उन्होंने सच्चे शिव की खोज तथा अपने देश एवं संसार सेवा करने की तैयारी करने के लिए ऐसे स्थान से भागना चाहा जहॉं जीवनावस्था एक मिथ्या कृत्रिम तथा संकीर्ण प्रणाली के सांचे में ढली थी।

    महर्षि ने सत्य की खोज के लिए कठोर परिश्रम किया। देश के भिन्न-भिन्न भागों में उन्होंने भ्रमण कर साधुओं के आश्रमों तथा तीर्थस्थानों को खोजा। एकान्त गुफाओं व निर्जन स्थानों को खोजा। ऋषियों और योगियों की तलाश में वे इस अभिप्राय से घूमे कि उनके सत्संग से अपने को अपने देश तथा संसार की सेवा के योग्य बना सकें। उन्होंने दृढ संयम और वेद विहित सच्चे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अपने गुरु विरजानन्द सरस्वती की अभिलाषा की पूर्तिअपनी मातृभूमि के पुनरुत्थानसत्य के प्रचारज्ञान के प्रसार और धर्म की वृद्धि के निमित्त अपना जीवन अर्पण कर दिया। उन्होंने असत्य के साथ तन-मन से संग्राम करनेरोशनी फैलानेबुराई की जड़ काटने तथा न्यायाचार और धर्म का झण्डा ऊंचा गाड़ देने का पवित्र प्रण किया था।

    महर्षि दयानन्द केवल सुधारक ही नहीं थे। वरन्‌ संसार भर के शिक्षक भी थे। उनकी शिक्षा मनुष्य मात्र के कल्याण और सुधार के लिए थी। न किसी से द्वेष था और न किसी से प्रेम था। आपने देखा कि सत्य ज्ञान के बिना संसार अविद्या और अन्धविश्वास में डूबा हुआस्वार्थ परायणता और पक्षपात में टुकड़े-टुकड़े हो रहा है। व्यक्तिदेश व जाति को अपने उद्धार का मार्ग बतलाने की आवश्यकता है तथा उसकी पूर्ति केवल वेदों का ज्ञान ही कर सकता है। क्योंकि केवल यही ग्रन्थ सत्य विद्याओं का स्रोत है। आपने इसका भाष्य हिन्दी में कियाताकि उस पुष्टिकरप्राणपदबलवर्धक अमृत कुण्ड के आस-पास जो घास-पात उग आया है तथा जिन सड़े-गले प्रक्षिप्त पदार्थों की वृद्धि ने उसे ढांप लिया हैवह हट जावे और उस अमृत कुण्ड तक सबकी पहुँच हो सके। संसार के इतिहास में यह प्रथम अवसर था कि स्वामी जी की कृपा से अमीर-गरीबउच्च-नीचसंस्कारी तथा असंस्कारी सबकी पहुँच वेदों तक हो गई। वेद भाष्य के अतिरिक्त महर्षि ने महान ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाशसंस्कार विधिगौ करुणानिधिआर्याभिविनयऋग्वेदादि भाष्य भूमिका आदि अनेकानेक ग्रन्थ लिखे तथा देश भर में भ्रमण करके उन्होंने सत्य और ज्ञान के प्रकाश को फैलाया। जहॉं कहीं वे गये वहॉं वैदिक सत्य और वैदिक भावों को सार्वजनिक वक्तृताओंव्यक्तिगत सम्भाषणों एवं प्रेमपूर्वक वाद विवादों द्वारा पादरियोंमौलवियों और अन्य मतावलम्बियों पर प्रकट किया। ऐसे ही उन विद्वान ब्राह्मणों को भी समझाया जो कि अन्धविश्वासमूर्ति पूजाहानिकारक प्रथाओंअसदाचार और प्रतिष्ठाहीन बनाने वाले व्यवहारों का आचरण करते थेजिन्होंने कि हिन्दू जाति को इस दीन दशा में पहुँचाकर निर्बल बना दिया था।

    हिन्दू जाति की शक्ति का ह्रास करने वाली अनेक बुराइयॉं उस समय समाज में फैली थीं। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उन सबको दूर करने का संकल्प किया। मनुष्यों के उद्धार का कार्य यथेष्ठ रीति से चलाने और अपने प्रचलित किए हुए सुधारों को स्थाई और शाश्वत रूप देने के लिये स्वामी जी ने आर्य समाज का स्थापन किया।

    स्वामी जी संसार को कैद से छुड़ाने आये थे। मानवमात्र की कल्याण कामना के इच्छुक महर्षि जीवन भर सत्य ज्ञान का उपदेश देते रहे।

    महान्‌ पुरुषों का जैसे जीवन अद्‌भुत होता है मृत्यु भी वैसी ही अद्‌भुत होती है। संसार के ऐसे हितैषीवैदिक संस्कृति के पोषकमहान समाज सुधारकराष्ट्र की स्वतन्त्रता के स्वप्नद्रष्टा को विधर्मी मतों के प्रचारकों व फिरंगी शासकों ने एक वेश्या से मिलकर महर्षि के पाचक द्वारा इस युग पुरुष को विष दिलवा दिया। धन्य है क्षमाशील भगवान्‌ दयानन्द जिन्होंने ज्ञात होने पर अपने विष दाता को भी रुपया देकर भगा दिया व फांसी के फन्दे से बचा लिया।

    एक मास तक तीक्ष्ण पीड़ा के पश्चात्‌ कार्तिक संवत 1940 की अमावस्था के सायं दीपावली को ईश्वर प्रार्थना के पश्चात हर्ष सहित गायत्री मन्त्र का पाठ करने लगे। फिर प्रफुल्लित बदन समाधि में रहकर आँखें खोली और प्रेम भरे शब्दों में कहा-

    हे दयामय ! हे सर्व शक्तिमान्‌ ईश्वर ! तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो, अहा तैने अच्छी लीला की। इतना कहकर करवट ली और श्वांस रोककर एक बार ही प्राण त्याग दिये। संसार का प्रकाश स्तम्भ, प्यारा ऋषि जो कि विष पान कर अमृत दान करने आया था, हमसे अलग हो गया। 

    आओ उनके पावन आदर्शों पर चलकर सत्य का प्रचार करते हुए हम ऋषि की धरोहर से लाभ उठावें व उनके भारत को जगद्‌गुरु बनाने के स्वप्न को साकार करें । - जगदीश प्रसाद आर्य

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    Hey Day! O all powerful God! This is your wish, may your wish be fulfilled, aha leela well. Having said this, he took a turn and stopped breathing once and gave up his life. The pillar of light of the world, the lovely sage who came after drinking poison and donating nectar, broke away from us.

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  • तस्य वाचकः प्रणवः का रहस्य

    १/२७ योग के इस सूत्र के वास्तविक अर्थ को समझने में अध्येता प्रायः मूल करते है और केवल शब्दार्थ मात्र को ही फालतार्थ समझ लेते है। यहाँ ओ३म् पर की जगह पुरुष विशेष ईश्वर पद का प्रयोग है। यह है कि उस ओ३म् का वाचक ''प्रणव'' शब्द है तदनुसार उस ईश्वर को ओ३म् कहे या प्रणव कहें बात एक ही है। यहाँ वाचक शब्द सापेक्ष है, वह किसी दूसरे पद की यानी वाच्य है ओ३म् शब्द।

    इस सूत्र में वाच्य ओ३म् पद है और वाचक प्रणव पद है। वाचक का अर्थ वाच्य के स्वरूप को विस्तार कहने वाला है। अतः प्रणव पद का सीमित अर्थ न लेकर, शब्दार्थ-पदार्थ मात्रा न लेकर फलिस्तार्थ - विस्तारित भावार्थ लेना चाहिये। यह विस्तृत भावार्थ यौगिक अर्थ द्वारा जाना जाता है।

    Motivational speech on Vedas by Dr. Sanjay Dev
    वेद कथा - 4 | Explanation of Vedas & Dharma | धर्म एवं सम्प्रदाय में अन्तर | धर्म लड़ना नहीं सिखाता

    इसी अभिप्रायः से प्रणव शब्द का प्रयोग महर्षि पतन्जलि ने किया है। प्रणव शब्द की व्युत्पति आदि भी यही बताती है। प्रकर्सेण नूयते स्तूयते अनेनेति प्रणवः, प्रकर्सेध नीति स्तौति इति वा प्रणवः'' प्र उपसर्गपूर्वक णु स्तुतौ अदादि धातु से प्रणव पद निष्पन्न होता है प्रणवैः- ओंकारैः यजुर्वेद १९/२५। यहाँ प्रणव शब्द का का प्रयोग बहुवचन में किया गया है। अमृतं वैप्रणवः गोपथ ब्राह्मण उतर भाग ३/११। ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्रहम वै प्रणवः कौषीत की ब्राहमण ११/४ ! इन अर्थो का तात्पर्य समझने का प्रयत्न कीजिये।

    स्तुति परम जिसमें शब्दों द्वारा नम्रता से स्तुति की जाये जिसकी वह प्रणव है। ओ३म् है। अथवा मन्त्र जिसकी उत्तमता से स्तुति करता है, वह प्रणव है। ओ३म् है इन अर्थो को प्रणव पद ही बता सकता है क्यांकि केवल प्रणव पद में ही णु स्तुतौ धामु का प्रयोग है।

    ओ३म् के वाचक अन्य जितने भी पद हैं, वे इस फलितार्थ को प्रकट नहीं करते। इस वाक्य से यहाँ वाक्य ओ३म् को समझना चाहिये। यही फलितार्थ महर्षि दयानन्द जी ने पन्च महायज्ञ विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या करते समय ओ३म् पद से लिया है। संस्कार विधि में गायत्री मन्त्र की व्याख्या है। पद दो प्रकार के होते है व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द। मैंने यहां ओ३म के साथ एक साथ एक जगह पद शब्द का तथा दूसरी जगह पद की शब्द का प्रयोग किया है ऐसा क्यों किया है यह व्याकरण जानने वाले विद्वाने ही समझ सकते है। अन्य नहीं। सामान्यतया पद की जगह शब्द का और शब्द की जगह पद का प्रयोग किया जाता है।

    rishi dayanand

    महर्षि दयानन्द ने अ, उ, म, से निष्पन्न ओ३म् शब्द की विस्तृत व्याख्या कि है और परमात्मा के समस्त गुण कार्य स्वभाव वाले सभी पदों से ओ३म् पद में से लिया है। जिसकी विस्तृत व्याख्या आप सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में पढ़ सकती है। यही बात प्रणव पद से भी कही गई है या यों कहिये कि ये सारी बाते कहने एक सामर्थ्य प्रणव पद में है। इसलिए पूर्व वर्णित उस समय ईश्वर का वाचक प्रणवः कहा है।

    यह व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक है, इसी व्युत्पन्न ओ३म् शब्द का वाचक प्रणव शब्द है। इसीलिए सभी शास्त्रों का सार है कि ''ओ३म् इत्येकाक्षरं ब्रह्म'' ब्रहम - ओ३म् इति एक अक्षर वाला है। अ उ म् के संयोग से नहीं बना है। सयुक्त ओ३म् पद तो केवल एकाक्षर ओ३म् को समझने के लिए है।

    ओ३म् के गुणों को कहने वाला वाचक कोई एक पद नहीं है, क्योंकि अनंत गुणों के भंडार ओ३म् का वर्णन किसी एक पद से एक शब्द से किया जा सकता है। जितने भी गुण कथन करने वाले शब्द हैं, वे सब ''प्रणव'' पद में आ जाते है। अतः उस ईश्वर का ओ३म् का वाचक प्रणव पद है।

    यजुर्वेद के मन्त्र ४०/१५ में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ''ओ३म् इति सनन्नाम वाच्य ईश्वरम् वाच्य तो केवल अव्युत्पन्न ओ३म् शब्द है अन्य जितने भी नासम परमात्मा के है व र्स्ववाचक है। स्वयम् ओ३म् से निष्पन्न व्युत्पन्न ओ३म् पद की वाचक है अव्युत्पन्न एकाक्षर ओ३म् वाच्य है।-प्रो. रमेशचन्द्र शास्त्री

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    Maharishi Dayanand ji has taken the OM while explaining Gayatri Mantra in Panch Mahayagya method. Gayatri Mantra is explained in Sanskrit method. The terms are of two types, derivative and non-derivative. Here, along with OM, I have used the word 'Pad' in one place and the word 'Pad' in another place, only the scholars who know this grammar can understand it. No other. Generally, the word is used instead of the word and the word is used instead of the word. 

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  • त्वचा के रूखेपन से मुक्ति

    व्यक्तित्व को निखारने में त्वचा की प्रमुखता को नकारा नहीं जा सकता। सौन्दर्य की प्रमुख घटक इस त्वचा की देखभाल अत्यन्त जरूरी है, विशेषकर सर्दियों में।

    1. त्वचा का रूखापन दूर करने के लिए स्नान करने वाले पानी में नारियल के तेल की कुछ बूंदें डाल लें, त्वचा स्निग्ध रहेगी।
    2. यदि हाथ-पैर की त्वचा फट जाए, तो रात को गुनगुने पानी में थोड़ा-सा सर्फ या साबुन का घोल मिलाकर हाथ-पॉंव 15 मिनट तक डुबोएं। फिर नारियल की जटा से अच्छी तरह रगड़कर साफ कर लें। हल्का-सा क्रीम लगा लें।

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    3. कभी-कभी सर्दियों में त्वचा में खुश्की के कारण खुजली होने लगती है। ऐसा होने पर चन्दन और नारियल का तेल बराबर मात्रा में मिलाकर लगाइए। फिर कुछ देर पश्चात्‌ गुनगुने पानी से धो लीजिए। इससे खुजली भी मिट जाएगी तथा त्वचा भी मुलायम हो जाएगी।
    4. चार-पांच बून्द नीम्बू का रस एक छोटा चम्मच मलाई में मिलाकर रात्रि में सोने से पूर्व चेहरे पर मल लें। सुबह धो डालें। चेहरे का रूखापन समाप्त हो जाएगा।
    5. एड़ियों को फटने से बचाने के लिए सर्दियों में हर रात सोने से पहले एड़ियों पर नीम्बू और ग्लिसरीन की मालिश करनी चाहिए।
    7. सेब का गूदा बना लें और उसमें शहद मिला लें। अब उसमें जौ का आटा मिला लें। हल्का-सा गर्म करके चेहरे पर लगाएं। दस मिनट बाद चेहरे से उबटन को गर्म पानी, फिर ठण्डे पानी से साफ कर लें। उबटन सूखी त्वचा को चमकदार बनाता है।
    8. तिल का प्रयोग सौन्दर्य के लिए किया जाता है। एक कप तिल का तेल, कपूर और मोम मिलाकर हल्की आंच पर थोड़ी देर पकाकर गाढ़ा कर लें और शीशी में भरकर रख लें। इस लेप को रात में सोने से पहले लगा लें। ऐसा करने से हाथों का खुरदरापन कम हो जाएगा।
    9. शीत ऋतु में त्वचा शुष्क होकर फट जाती है। अतः रात्रि में सोते समय ग्लिसरीन को हाथ-पैरों एवं मुख पर अच्छी तरह मलकर सोएं और प्रातः उठकर हल्के गर्म गुनगुने जल में धो डालें। इस तरह त्वचागत रोमकूपों में मैल नहीं जम पाता।
    10. यदि आपके होंठ सर्दी या अन्य किसी कारण से फट गए हैं, तो शहद और गुलाबजल में तुलसी की पत्तियों का रस मिलाकर अधरों पर लगाएं।
    11. दूध की मलाई, नीम्बू का रस एवं बेसन मिलाकर उबटन लगाने से त्वचा की खुश्की दूर होती है।
    12. फटी हुई एड़ियों पर गर्म तिल के तेल में सेन्धा नमक और मोम मिलाकर लगाने से फायदा होता है।
    13. आधा चम्मच शहद, एक चम्मच सन्तरे का रस, दो बून्द नीम्बू का रस तीनों चीजों को अच्छी तरह मिला लें। इसे चेहरे पर हाथों पर लगाएं। यह लेप त्वचा को मुलायम बनाता है। शहद में काफी नमी होने के कारण यह रूखी त्वचा को भी मुलायम व चमकदार बना देता है।
    14. एड़ियों के सामान्य खुरदरेपन को मिटाने के लिए जैतून के तेल में थोड़ा नमक मिलाकर मालिश करना लाभप्रद रहता है।
    15. एक चम्मच चिरौञ्जी को 4 चम्मच कच्चे दूध में 12 घण्टे तक भिगोकर उसके बाद पीसकर उसका लेप तैयार कर लीजिए। इस लेप को चेहरे पर आधे घण्टे तक लगा रहने दें। उसके बाद ठण्डे पानी से धो लेना चाहिए। ऐसा करने से शुष्क त्वचा मुलायम एवं कोमल हो जाती है।
    16. सर्दी में त्वचा फटने पर ग्लिसरीन, नीम्बू और गुलाबजल की समान मात्रा रात में सोते समय प्रयोग करें। इसका प्रयोग करने से त्वचा में सूखापन नहीं रहता है।
    17. फटी एड़ियों के उपचार हेतु पुराना देशी गुड़ व हल्दी मिलाकर लेप लगाएं। दो घण्टे बाद साफ कर लें या कच्चे पपीते को पीसकर उसमें थोड़ी हल्दी और सरसों का तेल मिलाकर दो घण्टे तक लेप लगाए रखें। फिर साफ कर लें।
    18. टमाटर और नीम्बू के रस में ग्लिसरीन मिलाकर लगाएं। इसके प्रयोग से त्वचा का खुरदरापन दूर होता है।
    19. सर्दियों में चेहरे के अतिरिक्त पूरा शरीर शुष्क हो जाता है। इसके लिए नहाने के पानी में दो चम्मच ग्लिसरीन मिलाकर स्नान करें। इससे शरीर का रूखापन दूर होगा। शुष्क त्वचा वालों को चाहिए कि वे चेहरे को ठण्डे पानी से धोकर ठण्डे पानी से भीगा तौलिया चेहरे पर रखें, दो मिनट पश्चात हटा दें। त्वचा में निखार आएगा।
    20. जाड़ों में त्वचा की खुश्की, होठों का फटना एक आम बात है। एक कप गाजर के रस में भुना जीरा पीसकर मिला लें और थोड़ा-सा काला नमक मिलाकर दिन में दो बार पीने से तीन-चार दिन में खुश्की व होठों का फटना बन्द हो जाएगा। गाजर त्वचा सम्बन्धी बीमारियों से हमारे शरीर की रक्षा करती है।-डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम

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    If the skin of the hands and feet is torn, then mix a little bit of surf or soap solution in lukewarm water at night and soak your hands and feet for 15 minutes. Then clean it thoroughly by rubbing it with coconut coats. Apply a little cream.

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  • दर्शनों और ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद-महिमा

    दर्शनकारों ने मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है। वैशेषिकदर्शन में गया कहा है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्‌।। वैशोषिक. 10.1.3 

    ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं। बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। वैशेषिक. 6.1.1. वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें  सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं। अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है। सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है- न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्‌।। सांख्य. 5.46

    वेद पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं हैं। क्योेंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    वेद का शान्ति सन्देश (वेद कथा)

    Ved Katha Pravachan _60 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम्‌।। सांख्य. 5.51. वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं। 

    मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य, परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है। अतः वेद परम-प्रमाण है। 

    योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि का कथन है- स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्‌। योग. 1.26 

    वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वज गुरुओं का भी गुरु है। अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं। परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है। 

    वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है- शास्त्रयोनित्वात्‌। वेदान्त. 1.1.3 

    ईश्वर शास्त्र=वेद का कारण है। अर्थात्‌ वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। इस सूत्र पर शङ्कराचार्य का भाष्य पठनीय है। यहॉं उसका हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है-

    "ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके, ऐसा सम्भव नहीं है।'' 

    एक अन्य सूत्र में कहा गया है- अत एव च नित्यत्वम्‌। वेदान्त. 1.3.29 

    इसी कारण से (परमात्मा से वेद की उत्पत्ति हुई है) वेद नित्य हैं। मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है- चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।। मीमांसा. 1.1.3 

    जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्‌।। 1.3.18 

    शब्द नित्य है, नाशरहित है। क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता। 

    इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं। 

    ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहॉं तैत्तिरीयब्राह्मण 3.10.11.3 की एक आख्यायिका दी जा रही है-

    "महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए 300 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये, तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा- "यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे?' भरद्वाज ने उत्तर दिया कि मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्‌ठी भरकर भरद्वाज से कहा कि ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं। इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। अनन्ता वै वेदाः। वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने 300 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है, तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। 300 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्‌ठी ज्ञान प्राप्त किया है।'' 

    ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

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    The Vedas are not Pourusheya (maleized). Because their author is not a male. Being a superficial and superfluous person, all the disciplines are unable to create the Veda. Since Vedas are not the creation of humans, their inauspiciousness is proved.

     

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  • दीवाली का देवता और वेद

    दीपमाला का पर्व प्रतिवर्ष आता है। भारतवासी देश में हैं अथवा विदेशों में, अपनी-अपनी भावना व धारणा के अनुरूप इसे अपने-अपने स्थानों पर मनाते हैं। पर्व व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के विशाल शरीर व जीवन में समय-समय पर आने वाली न्यूनता अथवा त्रुटियों को पूर्ण करने का एक मौन सन्देश दे जाता है। इस दिन प्रत्येक अपने बही खाता की जांच पड़ताल करता है कि क्या पाया और गंवाया। जहॉं भी किसी प्रकार की हानि हो उसे नये वर्ष से लाभ में बदलने का संकल्प किया जा सकता है। पर्व जीवन में प्रेरणा व चेतना का सबसे बड़ा साधन है। इस की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। आर्यसमाज भी दीवाली का पर्व यत्र-तत्र-सर्वत्र समारोह से मनाता है।

    जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
    वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
    मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है, मानव निर्माण के वैदिक सूत्र
    Ved Katha Pravachan -7 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    इस पर्व का सम्बन्ध आर्य समाज के महान्‌ संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती के साथ है। इस दिन अजमेर नगर में भिनाय भवन में उस देवता ने अपने भौतिक जीवन की आहुति देकर विश्व को एक महान्‌ सन्देश दिया था। वेद में आता है- मा यज्ञादिन्द्र सोमिन:। हे मनुष्यो! उस वेद प्रचार व धर्म प्रसार के महान्‌ यज्ञ से विचलित मत होना। उस वेद प्रचार के पुनीत पथ पर निरन्तर बढते जाना तथा इस वेद प्रसार के महान्‌ यज्ञ में तन-मन-धन व जीवन की हर प्रकार की आहुति श्रद्धा भावना से भरकर देते चले जाना।

    उस देवता दयानन्द ने अपना सारा जीवन लगा दिया। गुरु दीक्षा के बाद वह एक ही व्रत के व्रती बन गये। संकल्प के संकल्पी बने। एक ही कल्प के कल्पकार तथा एक ही पथ के पथिक बनकर महान्‌ कार्य क्षेत्र में उतरे। अपने अन्तिम दिन भी सभी को यही दिव्य सन्देश दिया कि आर्यो ! मेरे पीछे खड़े हो जाओ। कभी-कभी ऋषि सरल सूत्र में सारा सन्देश दे जाते हैं। देव दयानन्द ने अपना जीवन जिस महान्‌ मिशन में अर्पित कियावह था वेद का विश्व में प्रचार और वैदिक धर्म का सर्वत्र प्रसार। मथुरा गुरुधाम से बाहर कार्यक्षेत्र में आकर वेद प्रचार का कार्य ही उनके जीवन का व्रत बन गया। इतो वेदा: ततो वेदा: सर्वत्र वेदा: एव। इस दिशा में वेद फैलेउस दिशा में वेद फैल जायेंसभी स्थानों पर वेदों का प्रचार होता जाये- यही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय बन गया। यही निष्ठा थीइसी को व्रत का रूप दे दिया। प्रलोभन की चमकीली राहों में तथा लुभाने सुहाने दृश्यों मेंभीषण यातनाओंघोर विपदाओंभारी अपमान के वातावरण में भी उस वेद प्रचारकधर्म प्रसारकविश्व सुधारकव्रतधारकसर्वजीवोपकारकदीन दलितोद्वारक देव दयानन्द का पांव तनिक भी नहीं लड़खड़ाया। न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: - के अनुसार न्यायपथ के उस महान पथिक को किसी प्रकार भी विचलित न किया जा सका। ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: - वेद के शब्दों के अनुसार वह देवता वेद प्रसार के कार्य में अविचल व अविकल अटल रहे।

    इस धरती पर समय-समय पर नानाविध व्यक्ति आयेकार्य क्षेत्र में भी उतरे तथा हलचल भी मचाई। किन्तु कुछ समय के बाद पथ से डांवाडोल हो गये। कोई सत्ता के सूत्रों में सम्बद्ध हो गया तो कोई सौन्दर्य का स्तोता बनकर सुन्दरियों का सेवक बन बैठा। कोई गुरुडम का डमरू बजाने लगा। कोई स्वर्ण के भण्डार का भण्डारी बनने में ही मस्त हो गया। कोई भय से ही भाग गया। पर धन्य हैं देव दयानन्द जीवन में जो व्रत लिया उसी पर अटल रहे। उनके सामने काम बेकाम बनकर भागा। सुन्दरियॉं दरियों में जा छिपी। धन का प्रभाव स्वयं प्रभावहीन हो गया। सत्ता अपनी महत्ता समाप्त कर बैठी। दीवाली का देवता दयानन्द अपने वेद प्रचार के महान्‌ पुनीत व्रत में निरन्तर अडिग रहा।

    उनका व्रत था वेद का प्रचार। आर्य समाज की स्थापना भी इस महान्‌ कार्य के लिए की गई। पहिले वेद का कोई नाम भी न जानता था। वेद की पवित्र पुस्तक कहीं होगी तो किसी के घर में पता नहीं कहॉं छिपाई थी। वेद मन्त्रों का पाठ व उच्चारण कौन करता थाइस बारे में तो एक धारणा बन गई थी कि वेद को वृत्रासुर ले गया है। अब वेद धरती पर हैं नहीं। अमेरिका में अपने प्रवचनों में स्वामी विवेकानन्द तक ने भी वहॉं की जनता को उत्तर दिया कि वेद तो अब हैं नहींशंकर ने अपने वेदान्त भाष्य में वेदों के सार्वजनिक पठन-पाठनश्रवण-श्रावण पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।

    दूसरी ओर वेदों को बदनाम करने में भी उस समय के विद्वानों ने कोई भी कसर नहीं उठा रखी थी। यज्ञों में क्या थावेदमन्त्रों को किस-किस प्रसंग में लगा रहे थे। सायण हो या महीधरइन लोगों ने मन्त्रों के भाष्य में वह पाप किया जो रहती दुनिया उनको कलंकित करता रहेगा। ऐसा पापमय भाष्य करते उनको तनिक भी लज्जा नहीं आई। सातों समुद्रों का जल भी उनके इस कलंक को धो नहीं सकेगा।

    स्वामी दयानन्द वेदों वाले थे। वेद उनको बहुत प्यारे थे। यह इनकी निष्ठा थी कि वेदों का सर्वत्र प्रचार हो। बाकी सभी बातें गौण थी, पर वेद प्रमुख था। दीवाली पर अन्तिम समय में भी यही सन्देश दिया कि मेरे पीछे खड़े हो जाओ। जो वेद प्रचार का कार्य मैं करता रहा हूँ, उसी को करते जाना। वेद पथ पर चलते रहना। अत: स्वामी दयानन्द जी का सबसे बड़ा यही प्रमुख सन्देश है कि वेदों को घर-घर जन-जन तक पहुँचा दो। वेद के बिना कोई परिवार, कोई संस्था, कोई प्रदेश, मनुष्य न रहे। यह उस देवता दयानन्द का सबसे प्रमुख दिव्य सन्देश है। - त्रिलोक चन्द्र शास्त्री

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    This festival is related to Maharishi Swami Dayanand Ji Saraswati, the great founder of Arya Samaj. On this day, in the Bhinay Bhawan in Ajmer city, that deity gave a great message to the world by sacrificing his physical life. Veda comes in- Ma Yajnadindra Somin:. Hey man Do not get distracted by the great yagya of propagating Vedas and spreading religion.

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  • दीवाली, दयानन्द और आर्य समाज

    मानव जीवन बहुमूल्य है। बहु आयामी है। समग्रता से युक्त जीवन, अनेक जीवनों को ज्योतित कर देता है। त्याग, तप और शुद्धाचरण व्यापक प्रभाव छोड़ता  है। देह के विसर्जन होने पर भी अदृश्य देही के गुण शताब्दियों तक नहीं भूलते। क्या अल्पज्ञ जीव जीवन में समग्रता को संजोकर साधना के मार्ग पर तत्परता के साथ जब चलता है तो उसे ही लोकोत्तर कार्य करने के कारण पूर्ण पुरुष कहते हैं। उसी के बतलाए ज्ञान के प्रकाश में जीवन को जीने की कला तो सीखते ही हैंउसको ज्योति स्तम्भ मान कर अपना पथ प्रदर्शक हृदय से स्वीकारते ही नहीं अपितु उसके एक-एक शब्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। सांसारिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐसी विभूतियॉं आध्यात्मिक दृष्टि से भी सभी की पूज्यार्ह हो जाती हैं। शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) हजारों वर्षों से अपने नाम को सार्थक करती हुई धूमधाम से मनाई जाती है, परन्तु जो दीपावली सम्वत्‌ 1940 तदनुसार 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार को मनाई गई उसकी प्रभा महर्षि दयानन्द सरस्वती की उच्च आत्मा ने नश्वर देह का परित्याग करते हुए गहरे नास्तिक को आस्तिक बनाने का चमत्कार से कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है क्या?

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    Ved Katha Pravachan -11 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev


    कितनी दीवालियॉं आई और चली गईपरन्तु एक दीपमाला ऐसी भी आई कि एक ज्योति तो देह छोड़ कर जगज्जननी की अमृतमयी क्रोड़ में आनन्द प्राप्ति हेतु समर्पण कर रही है और दूसरी ओर महर्षि दयानन्द के देह त्याग से आकर्षक मुख मण्डल की आभा-प्रभा-प्रसन्नता को देखकर एक सुपठित गुरुदत्त नास्तिकता के गहरे गर्त्त से निकल आस्तिकता की आनन्दमयी लहरों की उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो रहा है। ऐसे अवसर के लिये जो सांसारिक मुहावरा बना "जादू वही जो सिर चढ कर बोले" चरितार्थ हो गया। यह विश्व के इतिहास में आश्चर्य चकित करने वाली घटना है। किसी की मृत्यु भी किसी को जीवन दे सकती है। यदि मृत्यु मार्ग दिखा सकती है किसी को तो उसके जीवन में क्या शक्ति रही होगी यह अनुमान लगाना सहज है। ऐसे महापुरुषों का लोकोत्तर जीवन में आना और जाना लोक कल्याण के लिये होता है। चमत्कार में महर्षि दयानन्द सरस्वती को कोई विश्वास नहीं। सांसारिक दृष्टि से महत्ता प्रकट करणार्थ इससे सरल और चिरपरिचित शब्द भी नहीं जो अभिधा में ये अर्थ प्रकट करे।

    मूलशंकर ने एक सामान्य ग्राम टंकारा में जन्म पाया। माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र मूलशंकर रहा। चौदह वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना और माता-पिता की आज्ञा मान कर शिवरात्रि में व्रत रख कर मन्दिर में जागरण करना मूलशंकर की मातृ-पितृ भक्ति परायणता का परिचायक है। चौदह वर्ष की बालावस्था में सम्पूर्ण यजुर्वेद स्मरण करना जिसके चालीस अध्याय और एक हजार नौ सौ पिछत्तर मन्त्र हैं। ये उस युग के घरों की शिक्षा का खुला विवरण है। आज हमारे घरों में गृहशिक्षा न के बराबर है। गायत्री मन्त्र भी शायद हमारे बच्चों को नहीं आता। यह विडम्बना कहॉं तक झेलते रहेंगे हमस्वामी दयानन्द जी महाराज से किसी नवयुवक ने पूछा कि आप बड़े विद्वान्‌तार्किकसंस्कृतज्ञत्यागी-तपस्वी एवं वेदों के मर्म को जानने वाले हैं परन्तु आपको अपने जैसा आदमी क्यों नहीं मिलास्वामी जी महाराज का सत्यता से परिपूर्ण सरल यह उत्तर था कि "मैंने जीवन में अपना घर छोड़ कर माता-पिता की आज्ञा के विरुद्ध आचरण किया। अत: मुझे जीवन में मेरे जैसा आदमी नहीं मिला।" यह स्वाभाविक उत्तर स्वामी जी के किसी भाव को इंगित करता है। स्वामी जी के आज के अनुयायियों को सोचना चाहिए। पितृ यज्ञ का पंचमहायज्ञ विधि में नैतिक जीवन के लिये विधान है। हमारे घरों में केवल पितृयज्ञ का पालन कैसा हो रहा हैयह विचारणीय है। स्वामी जी के समस्त साहित्य में जो व्यावहारिक शिक्षाएं हैं वे सर्वोपयोगी सर्वग्राह्य है। आज भौतिकवाद की अन्धी आन्धी ने सबको आँख होते हुए भी अन्धा बना दियाहै। आर्यों के लिये भौतिकवाद की खुली चुनौती है और आर्य समाज मूक दर्शक बना हुआ है। किंकर्त्तव्यविमूढ नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।

    आर्य समाज की स्थापना करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जो स्फूर्ति और जो उर्वरा भूमि आर्य समाज के माध्यम से वेद के रूप में शाश्वत मूल्यों को प्रदान कीजिसमें विश्व के मनीषियों को ज्ञान प्राप्ति के साथ चरित्र के निर्माण हेतु आर्यावर्त्त देश में आकर शिक्षा ग्रहण का सन्देश उच्च स्वर से प्रदान कियाक्या उत्तरदायित्व लेने वाले लोगों ने इसे गम्भीरता से निभायाऐसे अकर्मण्य दिशाहीन वेदविहीन लोगों ने ऋषि की महिमा और उद्देश्य को समझा ही नहीं। अन्धेरे में लाठी चलाने का कोई लाभ नहीं। जगाने वाले गहरी नींद में सो गये। इनको कौन जगाये?

    वेद निर्भ्रान्त नित्यशाश्वतअपौरुषेय और परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद केवल चार हैं। मूल संहिताएं ही वेद हैं। ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद इनके नाम हैं। इन वेदों के लिये स्वामी दयानन्द ने कहा "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आर्य समाज की स्थापना को एक सौ अड़तीस वर्ष हो गए हैं। आर्य समाज के प्रारम्भिक पचास वर्ष को छोड़कर उपरोक्त नियमानुसार कितनी सत्यविद्याओं का प्रकाश आर्य समाज ने कियाशास्त्रार्थ युग में भी सामाजिक क्षेत्र में वेद का नाम लोगों को परिचित कराने का श्रेय आर्य समाज को जाता है। जिस दृढता के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यान्वेषक बन कर वेद को प्रमाण मान और जनता के बीच में वेद प्रमाण पुस्तक से दिखा कर वेद के लुप्त ज्ञान को जनता से सहज स्वीकार कराया। यह दयानन्द की प्रकट विधि आर्य समाज में दीर्घ जीवी नहीं हो सकी। स्वामी दयानन्द सरस्वती की वेदों के विषय में सत्य घोषणा से प्रभावित हुए अन्य लाखों लोगों ने दयानन्द की विचारधारा को स्वीकारा। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हुए लिखा-

    "वेदों के जानने वाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं।"

    "कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के बिना सम्पूर्ण सांगोपांग वेद विद्याओं को प्राप्त होने के योग्य नहीं होता।"

    "जो मनुष्य पुरुषार्थीविचारशीलवेद विद्या के जानने वाले हैं वे ही संसार के आभूषण होते हैं।"

    तेरे दीवाने जिस घड़ी दक्षिण दिशा को चल दिये।
    कितने शहीद हो गये कितनों ने सर कटा दिये।।
    अपने लहू से लेखराम तेरी कहानी लिख गये।
    तूने ही लाला लाजपत शेरे बब्बर बना दिये।।

    ये पंक्तियॉं किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं रखती। ये स्वामी जी का बोलबाला था।

    आज आर्य समाज के पुस्तकालयों में वेद गर्दोगुब्बार के नीचे दबे पड़े हैं। क्योंकि वेद स्वाध्याय का समय नहीं और वेद आर्यों के लिए उपयोगी नहीं। क्योंकि सारी सत्य विद्याओं का भण्डार आर्य समाजी बन गया। पूछो तो वेद का क ख नहीं बता सकते। ये तो पण्डित जी बतायेंगे। पण्डित जी को अपनी रोजी-रोटी से फुर्सत नहीं। क्योंकि आर्य समाज इन अधूरे पण्डितों को रखकर इनकी विवशता का पूरा लाभ उठा कर पण्डितों को गुलाम बना कर वेद प्रचार करना चाहता है। तो पूरी गलफांसी का शिकार है आर्य समाज। जो थोड़े बहुत गुरुकुलोंविद्यालयों या उपदेशक विद्यालयों में सीख कर इस क्षेत्र में आते हैं वे अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण सड़क पर रहते हैं। लगभग विद्वानों की स्थिति आर्य समाज में भिखारियों जैसी है। आर्य समाज वेद के कार्य में गम्भीर नहीं।

    चरित्र के धनी स्वामी दयानन्द ने चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बाह्य शक्ति के साथ अन्तर्तम के साहचर्य से दिव्य पावन प्रकाश के पावन आलोक में मानव का नवोत्थान है। गायत्री मन्त्र का उपदेश शिक्षा के प्रारम्भ में नैतिक शिक्षा का विश्वोपयोगी सूत्र है। बुद्धि की पवित्रता की कामना प्रभु से करे। स्मृति-श्रुति में जिस आचार का उपदेश दिया गयाउसका आचरण करके आत्मवित बनने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य से राजा राष्ट्र की रक्षा कर सकता है। अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों की व्यावहारिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे स्वामी दयानन्द। यही उनकी सफलता का रहस्य था। आर्ष शिक्षा प्रणाली के प्रबल व्यावहारिक समर्थक थे स्वामी जी। शिखा सूत्र भी हमारी शिक्षा के प्रमुख सूत्र थे। इनके नियमों को पालन करते हुए आत्मवित के साथ जीवन के मूल्यों को आचरण में रचा-पचा कर उच्च शिखर पर आरूढ होता था मनुष्य। आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:। जिस मनुष्य का आचार ठीक नहीं उसको तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की सफलता का रहस्य आचार पर ही सर्वथा निर्भर करता था। पांच यम नियम स्वामी जी ने जीवन में रचा-पचा कर ही सभी प्रकार के पाखण्डों से लड़ाई लड़ी। आजकल आचार सदाचार की परिभाषा ही बदल गई है। "लुच्चा सबसे ऊंचा" तो आचार क्या करेगा।-आचार्य हरिदत्त शास्त्री (आर्यजगत्‌ दिल्ली26 अक्टूबर 1997)

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    The secret of success of Maharishi Swami Dayanand Saraswati depended solely on ethics. The five Yama Niyam Swamis fought and fought all kinds of hypocrisies in life. Nowadays the definition of ethics has changed. What will the ethics do if "the scoundrel is the highest"? - Acharya Haridutt Shastri (Aryajagat Delhi, 26 October 1997)

     

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  • धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है

    "धर्म" के विषय में जन-मानस में अनेक भ्रांन्तियॉं हैं। धर्म अंग्रेजी के रिलिजन अथवा उर्दू के मजहब शब्दों का न तो हिन्दी अनुुवाद है और न ही पर्याय। धर्म किसी सम्प्रदाय का भी पर्यायवाची नहीं है। धार्मिक व्यक्ति का अभिप्राय पूजा-पाठ करने वाला अथवा दिन में पांच बार नमाज अदा करने वाला या फिर चर्च में जाकर ईसा की वन्दना करने वाला कदापि नहीं है। यह सब करने वाला व्यक्ति मजहबी या सम्प्रदायिक तो हो सकता है, किन्तु धार्मिक कदापि नहीं। संस्कृत के एक कवि द्वारा दुर्योधन के मुख से धर्म के विषय में कहलवाया हुआ एक श्लोक है- 

    जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः,जानाम्यधर्मं न चे मे निवृत्ति।
    केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

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    भव सागर से पार होने का रास्ता (वेद कथा)
    Ved Katha Pravachan _59 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev



    अर्थात्‌ मैं धर्म को जानता तो हूँ किन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है और मैं अधर्म को भी जानता हूँ किन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है। मेरे हृदय में किसी देवता ने जैसी मेरी नियुक्ति कर दी है, मैं वैसा कर देता हूँ। 

    अधार्मिकता का ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहॉं मिलेगा? अर्थात्‌ दुर्योधन अपनी अधार्मिकता के लिये स्वयं को दोषी न मानकर "अपने हृदयस्थित किसी देवता' पर दोषारोपण करके मुक्ति पा लेता है। किसी अधार्मिक वृत्ति के मनुष्य का यह स्पष्ट चरित्र-चित्रण है। मनुष्य के धर्म सम्बन्धी स्वभाव के लिये एक अन्य कवि ने भी कहा है- 

    फलं धर्मस्य चेच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः।
    फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।। 

    अर्थात्‌ मनुष्य धर्म के सुफल की इच्छा तो करते हैं, किन्तु धर्म पालन करने की इच्छा बिल्कुल नहीं करते। इसी प्रकार पाप के कुफल की इच्छा तो नहीं रखते, किन्तु प्रयत्नपूर्वक पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं। 

    तो धर्म क्या है? महाभारत में कहा है- "धारणात्‌ धर्म इत्याहुः। धर्मो धारयते प्रजा। अर्थात्‌ धारण करने से इसे धर्म कहा जाता है और धारण किया हुआ धर्म प्रजा अर्थात्‌ धारक की रक्षा करता है। वह धारण किया जाने वाला धर्म क्या है? वह है "करणीय कर्त्तव्य' जो किसी यज्ञ से कम नहीं। करणीय कर्त्तव्य की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति ही धार्मिक कहलाता है, किसी पूजा-पद्धति विशेष का परिपालन करने वाला नहीं। किसी पूजा-पद्धति का पालन करने वाला साम्प्रदायिक कहलाता है, धार्मिक नहीं। जैसे नमाज अदा करने वाला मुसलमान, चर्च की घण्टी बजाने वाला ईसाई और मन्दिर में आरती करने वाला पुराणपन्थी कहलाता है। 

    धर्म को यज्ञ इसलिये कहा गया है, क्योकि धर्म में जनकल्याण की भावना निहित होती है। अन्यथा नीति वचन के अनुसार तो धर्महीन व्यक्ति पशु के समान ही माना गया है। धर्महीनता से राक्षसी वृत्ति हो जाती है। राक्षस और हिंसक पशु में किंचित्‌ भी अन्तर नहीं होता। नीति वचन है- 

    आहारनिद्राभय मैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌।
    धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।। 

    अर्थात्‌ खाना-पीना, सोना-जागना, डरना और सन्तानोत्पत्ति, ये सब तो पशुओं और मनुष्यों में एक समान ही होते हैं, किन्तु वह धर्म ही है जो मनुष्यों में पशुओं से अतिरिक्त होता है। जो मनुष्य धर्म से रहित हैं वे पशु के समान हैं। संत तुलसीदास जी ने भी इसे इस प्रकार कहा है-

    सुत दारा अरु लक्ष्मी तो पापी के भी होय।
    संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय।।

    यहॉं पर तुलसीदास जी ने पापी और धार्मिक (पुण्यात्मा) मनुष्य की तुलना की है। उनकी दृष्टि में धार्मिक मनुष्य वह है जो संतों की संगति में रहता है और परमेश्वर के गुणगान (हरिकथा) पर विश्वास करता हुआ तदनुरूप आचरण करता है। तदनुरूप आचरण और करणीय कर्त्तव्य का पालनही यज्ञ है। ऐसा यज्ञ करने वाला व्यक्ति ही धार्मिक है। जो व्यक्ति अग्निहोत्र (हवन-यज्ञ) तो करता हो, किन्तु सदाचरण न करता हो, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं कहला सकता, यज्ञकर्ता नहीं कहला सकता।

    एक लोक कथा के माध्यम से विषय स्पष्ट हो जायेगा। भारत में प्राचीन समय से वर्णाश्रम परम्परा है, जो आज भी आंशिक रूप से प्रचलित है। यहॉं पर यह बात विशेष ध्यान रखने की है कि ये वर्ण जन्म-जात नहीं, अपितु अपने कर्म अथवा उद्योग से माने गये हैं। चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनमें वैश्य को समाज का भरण-पोषण करने वाला माना गया है। वैश्यों में अपने व्यापार के लाभांश में से कुछ प्रतिशत दान करने के लिये पृथक रखने की प्रथा है। एक अन्न के व्यापारी सेठ अन्न भण्डार गृह में फर्श पर गिरे अन्न कणों को एकत्रित कर उनकी पिसाई कुटाई करके उसकी दाल-रोटी बनवाकर अन्न-सत्र चलाते थे। अन्न-सत्र को सदावर्त भी कहा जाता है, उसमें भिक्षुओं अथवा आगन्तुकों को भोजन दिया जाता है। सेठ को यह भ्रम हो गया कि इस प्रकार अन्न-सत्र चलाकर वह पुण्य लाभ कर रहा है। किन्तु उसकी बहू इसको इस रूप में नहीं मानती थी। उसने किसी प्रकार अपने श्वसुर को समझाने का यत्न किया, किन्तु सेठ ने सुनी-अनसुनी कर दी। बहू को श्वसुर का अनिष्ट होता दिखाई दिया तो उसने एक उपाय किया। उसने अन्न-सत्र से एक रोटी के बराबर आटा मंगवाकर रोटी बनाई और श्वसुर जी जब भोजन करने बैठे, तो उनकी थाली में पहले वही रोटी परोस दी। श्वसुर ने मुंह में रोटी पड़ते ही थूथू करके उसे थूक दिया। उसके मुख का स्वाद बिगड़ गया, तो उसने बहू से इसका कारण पूछा। बहू ने समझाया कि मरणोपरान्त स्वर्ग में सेठ जी को वैसी ही रोटी तो मिलेगी, जैसी उन्होंने अन्न-सत्र के आटे की बनाने का निश्चय किया है। सेठ ने सुना तो उसका माथा ठनका। उसकी समझ में बात आई और उसने तुरन्त अपने अन्न-सत्र में अच्छे अन्न की रोटी बनवानी आरम्भ करके अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहा। सेठ जी परिपाटी का पालन तो करते थे, किन्तु उसमें उनकी भावना सदाचरण की नहीं, अपितु केवल परिपाटी पालनमात्र की थी। इस दृष्टि से अन्न-सत्र का संचालन करते हुए भी वे धार्मिक नहीं कहे जा सकते थे। 

    महाभारत में "यक्ष युधिष्ठिर संवाद' प्रसंग में धर्म की चर्चा हुई है। यक्ष ने पूछा- "धर्म का स्थान क्या है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "दक्षता ही धर्म का स्थान है।' दक्षता अर्थात्‌ करणीय कर्त्तव्य में दक्षता। यक्ष ने फिर प्रश्न किया- "कौन सा धर्म सबसे उत्तम है?' युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- "सब भूतों (प्राणियों) को अभय देना ही सबसे उत्तम धर्म है।' यक्ष द्वारा एक अन्य प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने बताया, "दया ही परम धर्म है।' इस प्रकार विस्तार से यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य धर्म पर चर्चा हुई। संत तुलसीदास जी ने दया को धर्म का मूल मानते हुए कहा है- 

    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
    तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।।

    ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि धर्म पालन में दया का सर्वोच्च स्थान है। दया को परम धर्म माना गया है। एक नीति वाक्य है- "धर्मस्य गहना गतिः।' अर्थात्‌ धर्म की गति बड़ी गहन है। धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति सदा अपना मस्तक ऊंचा करके ही विचरण करेगा। उसे कहीं, किसी बात पर संकुचित अथवा लज्जित होना नहीं पड़ेगा।

    धर्म का किसी मजहब, रिलिजन, पंथ अथवा सम्प्रदाय के कृत्यों से कोई सरोकार नहीं। उसका सम्बन्ध तो मनुष्यमात्र के करणीय कर्त्तव्य से है। वेदशास्त्रों ने इसे ही यज्ञ का नाम दिया है और वेद ने कहा- अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। अर्थात्‌ यह यज्ञ भुवन की, समस्त संसार की नाभि अर्थात्‌ केन्द्र बिन्दु है। धार्मिकता ही संसार का मुख्य केन्द्र-स्थल है। - आचार्य डॉ. संजयदेव

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  • नेताजी सुभाष की अग्नि परीक्षा

    नेताजी सुभाष को अनेक अग्नि परीक्षाओं में से गुजरना पड़ा था। एक बार उन्होंने भारत के सबसे बड़े राजनीतिक नेता महात्मा गान्धी तक को चुनौती दी थी। उनकी इच्छा के विरुद्ध डॉ. पट्टाभिसीतारामैया के मुकाबले में चुनाव लड़ा था और चुनाव जीत गये थे। हाथी ने हिमालय को परे धकेल दिया था। जन साधारण के मानस पर सुभाष के छाये रहने के बाद भी कांग्रेस संगठन पर गान्धी भक्तों की जकड़ पक्की थी। जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेता सुभाष के नेतृत्व को सहन नहीं कर पा रहे थे। रामगढ़ कांग्रेस के बाद एक वर्ष तो उन्होंने जैसे-तैसे सुभाष बाबू को सह लिया था, पर त्रिपुरा कांग्रेस में उन्होंने खुल्लमखुल्ला विद्रोह कर दिया। गान्धी जी समेत सभी ने कांग्रेस कार्यसमिति में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। 

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    पद तभी तक, जब तक आदर से मिले - सुभाष के लिए यह अग्नि परीक्षा की घड़ी थी। अन्त में उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया, जिससे कांग्रेस में एकता बनी रहे और स्वाधीनता आन्दोलन में कोई बाधा न पड़े। इस संघर्ष में सुभाष आग की लपट की तरह दमकते रहे, प्रतिद्वन्दियों के हिस्से में केवल राख की कालिमा ही आई।

    ईर्ष्या भुजंगिनी - निःसन्देह वे सभी त्यागी, तपस्वी, बलिदानी देशभक्त थे। परन्तु वे अपने सिवाय अन्य किसी को ऐसा देशभक्त नहीं देखना चाहते थे, जो उनसे बढ़कर हो। यही विडम्बना है! विद्वान किसी को अपने से बड़ा विद्वान्‌ नहीं देखना चाहता, वीतराग संन्यासी-महात्मा किसी को अपने से बड़ा वीतराग नहीं देखना चाहता। बलिदानी अपने से बड़े बलिदानी से खार खाता है। जो खार न खाये, वह देवता होता है। 

    सुभाष की दूसरी अग्निपरीक्षा तब हुई, जब वह न जाने किसी धुन में कालकोठरी (ब्लैकहोल) स्मारक को हटाने के लिए सत्याग्रह कर बैठे। सरकार ने अच्छा बहाना पाकर उन्हें जेल में डाल दिया।

    महापलायन - सुभाष ने कहा कि मैं कुछ व्रत-अनुष्ठान करना चाहता हूँ, इसलिए कुछ दिन बिलकुल एकान्त में रहूंगा, किसी से भी मिलूंगा नहीं। उनका भोजन पर्दे के नीचे से उनके कमरे के दरवाजे पर रख दिया जाता था और बाद में जूठे बर्तन वहीं से उठा लिये जाते थे। इस तरह दो-तीन सप्ताह बीत गये।

    मौलवी जियाउद्दीन - इस अवधि में हुआ यह कि उनकी दाढ़ी बढ़ गई। उनकी शक्ल बदल गई। एक रात वह मुसलमान मौलवी का वेश बनाकर बाहर निकल गये। पुलिस और गुप्तचर धोखा खा गये। कलकत्ते से 120 किलोमीटर कार से जाने के बाद एक छोटे से स्टेशन से उन्होंने पेशावर जाने वाली गाड़ी पकड़ी। उस समय के सैकंड क्लास के डिब्बे में वह जियाउद्दीन नाम से मौलवी के भेष में बैठे रहे। एक गुलूबन्द से उन्होंने अपना चेहरा काफी कुछ ढक रखा था। गले में कष्ट है, ऐसा दिखाकर वह बातचीत को टाल देेते थे।

    नया हनुमान भगतराम - पेशावर स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए एक आदमी आया हुआ था। अन्य किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। भगतराम नामक एक साहसी, सूझबूझ वाले युवक के साथ वह पेशावर से काबुल गये। तब तक कलकत्ते से उनके गायब होने का समाचार रेडियो पर प्रसारित हो चुका था और सारे भारत की पुलिस उनकी खोज में थी। प्रतिपल पकड़े जाने का खतरा था। ऐसी दशा में डेढ़ महीने उन्हें काबुल में रहना पड़ा। अन्त में एक दिन मार्च 1942 में बर्लिन रेडियो से उनकी आवाज सुनाई पड़ी- "मैं सुभाषचन्द्र बोस बर्लिन से बोल रहा हूँ।'' भारतीय जनता यह सुनकर आनन्द से पागल हो उठी। अंग्रेज और कांग्रेसी मन मसोसकर रह गये। सुभाष फिर आगे निकल गया था।

    सिंगापुर में - सुभाष की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा सिंगापुर में हुई। जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा करते समय जो युद्धबन्दी बनाये थे, उनमें 45000 भारतीय सैनिक भी थे। प्रसिद्ध भारतीय क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस ने उन्हें अपने पक्ष में करके एक आजाद हिन्द फौज बनानी चाही थी। पर इस कार्य में उन्हें यथेष्ट सफलता नहीं मिली थी। उधर सुभाष ने जर्मनी में एक आजाद हिन्द फौज बनाने का यत्न किया था। वहॉं लीबिया और मिस्र की लड़ाइयों में पकड़े गये भारतीय सैनिक जर्मनों के कब्जे में थे। बाद में यह उचित समझा गया कि सुभाष पनडुब्बी से जापान जायें और वहॉं आजाद हिन्द फौज बनाकर भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने का यत्न करें।

    नमकहलाल युद्धबन्दी - सुभाष सिंगापुर पहुंचे। वहॉं उन्होंने भारतीय युद्धबन्दियों से बात की। ये इंग्लैड के राजा के प्रति निष्ठा की शपथ से बन्धे हुए लोग थे। ये जिसका अन्न खाया है, उसके लिए खून बहाने को उद्यत लोग थे। भारत की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन करने वालों को ये बागी और गद्दार समझते थे। यदि इनके हाथ में हथियार होते, तो अफसर का आदेश होते ही ये बागी सुभाष को गोली से उड़ा देने में एक क्षण का विलम्ब न करते। और अफसर, गोली मारने का आदेश देने से पहले एक पल सोचते तक नहीं। "आल इंडिया रेडियो' दिन-रात सुभाष को बागी और गद्दार कह-कहकर कोसता था।

    नेहरू जी का ऐलान - इन सैनिकों का ही क्या दोष था, जब जवाहरलाल नेहरू तक ने घोषणा की थी, "यदि सुभाष ने जापानी सेना की सहायता से भारत पर आक्रमण किया, तो मैं तलवार लेकर उससे लडूंगा।'' 

    बेचारे नेहरू जी! तलवार उन्होंने देखी अवश्य होगी, परन्तु यह उन्हें पता नहीं होगा कि उसे पकड़ा किधर से जाता है और चलाया कैसे जाता है? फिर वे कांगे्रस के सदस्य होने के नाते अहिंसा की शपथ से बन्धे थे, गान्धी जी की अहिंसा की शपथ से- "कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके आगे कर दो। पलटकर प्रहार करने का विचार भी मन में मत लाओ।" यह उनका सौभाग्य था कि कभी किसी ने उन्हें थप्पड़ नहीं मारा। इसलिए यह पता नहीं चल सका कि वे अहिंसा व्रत पर कितने दृढ़ हैं। फिर, उनकी वह अहिंसा केवल अंग्रेजों के लिए थी। सरकार के सुर में सुर मिलाकर अनेक कांग्रेसी नेता चिल्ला रहे थे- "सुभाष बागी है, सुभाष देशद्रोही है।'' यह शोर इतना मचा कि आखिर गान्धी जी को कहना पड़ा- "सुभाष की देशभक्ति में कोई सन्देह नहीं है। वह हममें से किसी से भी कम देशभक्त नहीं है। पर उसका लड़ने का तरीका गलत है।''

    युद्धबन्दियों का विकट रुख - सिंगापुर के भारतीय युद्धबन्दियों का रवैया इससे कहीं अधिक उग्र था। अफसरों ने देहरादून और सैंडहर्स्ट की रक्षा अकादमियों में शिक्षा पाई थी। अंग्रेजों की कृपा से वे वैभव और प्रभुत्व का जीवन बिता रहे थे। अब बदकिस्मती से वे युद्धबन्दी थे, परन्तु भारतीय वीरों की परम्परा उनके खून में थी- "कट जाये, सिर न झुकना...।" 

    फिर शपथ भंग! राजद्रोह! यह तो सपने में भी सोचने की बात नहीं थी। उन्होंने सुभाष से मिलने और बात करने से ही इन्कार कर दिया। सुभाष को उन्होंने अपने स्तर का ही नहीं माना। सुभाष को अपनी दशा उस हिरन सी लगी, जो अपने सींगों से पहाड़ के टीले को उखाड़ना चाह रहा हो।

    सैनिक समझदार - वह साधारण सैनिकों से मिले और उन्हें अपनी बात समझाई- "तुम कहते हो कि तुमने अंग्रेजों का अन्न खाया है? वह अन्न अंग्रेजों का नहीं था। वह भारत का अन्न था। वह इंग्लैंड में नहीं उपजा था। वह पंजाब, हरियाणा और गंगा-जमना के मैदानों में उपजा था। तुम्हारी निष्ठा भारत के प्रति होनी चाहिए। तुम्हारा देश भारत है। खून बहाना है, तो उसकी आजादी के लिए बहाओ।''

    सैनिकों को सुभाष की बात समझ आ गई। उन्होंने अफसरों को समझाया कि आप लोग नेता जी से बात तो करें। असली सिक्का "खन्‌ खन्‌' बजता है। सुभाष खरा सोना था, बाहर-भीतर एक। उसकी वाणी में सत्य का बल था। शासक की कैद से भागकर जान हथेली पर लिये परदेस में मारा-मारा फिर रहा था। सबको पता था कि उसने आई.सी.एस. की ठाठ की नौकरी को लात मार दी थी। नहीं तो शायद यह आज उन पर ही हुक्म चलाता होता। 

    किसकी शपथ ? कैसी शपथ ! युद्धबन्दी अफसरों ने सुभाष से बात की, तो आग की तपन उन्हें लगी। सुभाष की यह बात उन्हें समझ आ गई कि कोई भी अन्यायपूर्ण, अधर्मपूर्ण शपथ पालने योग्य शपथ नहीं है। अपने देश पर किसी विदेशी का शासन बनाये रखने की शपथ न्यायपूर्ण शपथ नहीं हो सकती। अपनी मातृभूमि की दासता के बन्धनों को काट डालना ही सबसे बड़ा धर्म है। 

    एक बार बान्ध टूटा, तो सारा ही जल प्रवाह उमड़ पड़ा। मेजर जनरल शाहनवाज, सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लो, कर्नल दारा और गिलानी, दौड़-दौड़कर आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित हो गये। वे सुभाष के जितना निकट आते गये, हिमालय के शिखर की भांति वह उन्हें अपने से अधिक और अधिक ऊँचे लगते गये। जब कोहिमा के मोर्चे पर युद्ध शुरू हुआ, तब आजाद हिन्द फौज के हर सैनिक और अफसर ने स्वयं को धन्य माना कि उसे नेताजी सुभाष के नेतृत्व में मातृभूमि की सच्ची सेवा करने का अवसर मिला। -वैद्य विद्यारत्न

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  • प्रखर राष्ट्रभक्त लाला लाजपतराय

    इस युग में देश की श्रद्धा-विभोर जनता ने दो महामानवों को पंजाब केसरी की उपाधि से अलंकृत किया है। उनमें से प्रथम थे महाराज रणजीतसिंह। 18 दिसम्बर 1854 को जन्म हुआ मुन्शी राधाकिशन का, जिनकी प्रथम सन्तान के रूप में पंजाब को अपना दूसरा केसरी प्राप्त हुआ। अपने देश और धर्म के लिए जिस प्रकार का स्वाभिमान, अपने हिन्दूपन के लिए जितनी तड़प और उसका अपमान अथवा हानि होते देखकर जितनी तीव्र प्रतिक्रिया लाला लाजपतराय में जीवन भर होती रही, उसे देखकर यह आश्चर्यजनक लगता है कि उनके पिता अपनी आधी उम्र तक केवल नाम के हिन्दू थे। नहीं तो रमजान के दिनों में रोजे रखने में, हर रोज पॉंच बार नमाज पढ़ने में और कुरान आदि मुस्लिम ग्रन्थों के पारायण में शायद ही कोई मुसलमान उनसे बाजी ले पाता होगा। यह उनके उस्ताद का प्रभाव था, जिसके परिणामस्वरूप उनके अनेक सहपाठी विधिवत्‌ इस्लाम स्वीकार कर चुके थे।

    Ved Katha Pravachan _78 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

    मुस्लिम संस्कृति में पोषित पिता - मुन्शी राधाकिशन कलमा पढ़कर बाकायदा मुसलमान नहीं बने। इसका श्रेय बहुत अंश में उनकी पत्नी गुलाब देवी को ही है। मुन्शी जी ने अपने मुसलमान मित्रों को घर पर बुलाकर उनकी इच्छानुसार कई बार मांसादि का भोजन करवाया और कभी-कभी उनके यहॉं से पका हुआ भोजन लाकर खाया। यह सब उनके जैन मत, (अग्रवाल वैश्य) के लिए कितना सह्य था यह तो अलग प्रश्न है। किन्तु इसने उस साध्वी नारी के जीवन को अत्यन्त दुःखित बना रखा था और कई-कई दिन तक उसने गम के सिवा कुछ न खाकर और आंसू पीकर काटे थे। गोद के शिशु पर उसने अपनी ममता भी उंडेली और उसी पर अपनी सारी आशाएं भी केन्द्रित की। परन्तु सारी व्यथा सहकर भी कभी उसने उन्हें छोड़ जाने की कल्पना को पास तक नहीं आने दिया।

    एक बार तो मुन्शी जी ने इस्लाम की दीक्षा लेने का फैसला कर ही डाला और पत्नी व बालक को लेकर मस्जिद में जा पहुंचे। परन्तु सती नारी के अन्तर्मन की पीड़ा उसकी आंखों की मूक वाणी से कुछ ऐसी प्रकट हुई कि बाहर सीढ़ियों पर ही बाल लाजपत चीखकर रोने लग पड़ा। बसइस रुदन से मुन्शी राधाकिशन के दुर्बल मन का अस्थिर निश्चय डगमगा गया और वे लौट आए। आगे चलकर लाला जी ने शुद्धि का जो कार्य करना था उसका भी श्रीगणेश जैसे साक्षात्‌ अपने पिता से शैशवावस्था में ही उन्होंने कर दिया। परन्तु माता के दुःख और पिता के व्यामोह को दूर करने में अभी उन्हें देर लगने वाली थी।

    विद्यार्थी जीवन- लाला लाजपतराय को पढ़ने की लगन पिता से विरासत में मिलीपरन्तु गरीबी के कारण उनका विधिवत्‌ शिक्षण न हो पाया। जहॉं-जहॉं उनके पिता अध्यापक रहेप्रायः उन्हीं स्कूलों में वे पढ़े। शिक्षाकाल में ही वे दो-तीन बार लाहौर आए तो उन्हें दो साथी मिले- गुरुदत्त और हंसराज। कुछ समय पूर्व ही वहॉं आर्यसमाज की स्थापना हो चुकी थी और वे दोनों उस रंग में रंगे हुए थे। इस मैत्री से और इसके द्वारा आर्यसमाज के जो संस्कार लाजपतराय को मिलेउनसे उन्हें देश-जाति की सेवा का संकल्प प्राप्त हुआ। हंसराज में जो सरल सेवा की वृत्ति थीगुरुदत्त में जो बौद्धिक प्रतिभा थी और लाजपतराय में जो उग्र देश-प्रेम तथा करुणा का सागर थाउनके मिश्रण से ये त्रिमूर्ति आर्यसमाज की नींव बन गई। गुरुदत्त तो अकाल मृत्यु के ग्रास बनेपरन्तु लाला लाजपतराय और महात्मा हंसराज की मैत्री आजीवन रही।

    समाज सेवा - लाजपतराय अत्यन्त भावुक प्रकृति के थे। स्वभाव की भावना प्रधानता के कारण उन्हें जहॉं कहीं कष्ट दिखाई पड़ाचाहे वह राजपूताना का अकाल थाचाहे कांगड़ा का भूकम्पवहीं पहुंचे और जन-जन के कष्ट को कम करने में जुटे। पैसा उन्होंने कमाया पर उसमें मन नहीं लगायाउसे जीवनपूर्ति का प्रमुख कार्य नहीं बनाया। यही नहींउन्होंने अन्याय के विरुद्ध सदा आवाज उठाई। कौन कितना बड़ा हैइसकी परवाह किए बगैर उन्होंने अन्यायपूर्ण बात का विरोध किया।

    मुस्लिम कांग्रेस अध्यक्ष को उत्तर - ऐसा ही एक प्रसंग थाजब 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से मौलाना मुहम्मद अली ने कहा था कि हिन्दू अपनी अछूत जाति की समस्या हल नहीं कर सकते। इसलिए क्यों न उन्हें आधा-आधा बांट लिया जाये! आधे अछूत मुसलमानों को दे दिए जाएं। यह तर्क जितना लचर और निर्लज्ज थाउतना ही हिन्दू भावना पर चोट करने वाला भी था। बाकी लोग भले ही इस अपमान को पी सकेपरन्तु लालाजी की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी- "यह हमारा घरेलू प्रश्न है। किसी और के दखल की इसमें जरूरत नहीं। हिन्दू ही छूआछूत की समस्या का हल करेंगे। फिर अछूत जातियॉं क्या ढोर पशु हैंजिनके इस तरह बंटवारे की बात की जा रही है?''

    हिन्दू भाव उनके हृदय में क्यों रहता थाइसका उत्तर उन्हीं के शब्दों में यह है- "यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनेंतो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगाजब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएं। उन्हें त्याग कर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है।''

    जब वे कांग्रेस में रहे तो ऐसे उत्साह के साथ जो सरल व सच्चे हृदयों में ही हो सकता है और जो हर कदम पर हानि-लाभ का विचार करने का अभ्यस्त नहीं होता। वह "आग से खेलता है तो झुलस जाने के लिए तैयार भी रहता है।'' और इसमें कोई दो मत नहीं कि ब्रिटिश सरकार के साथ संघर्ष में इन प्रश्नों पर उलझने के अवसर उनके लिए अनेक आए।

    हिन्दूपन का भाव - राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण से लाला लाजपतराय के जीवन का दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही अलीगढ़ के सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को उससे अलग रखने का झण्डा उठा लिया था। उनके लेखों के उत्तर में अनेक पत्र उन्हीं के पुराने विचारों के हवाले से छपे। चाहे वे पत्र गुमनाम थेपरन्तु अधिक दिन तक यह छिपा न रहा कि वे किस लेखनी का प्रसाद थे। उनके कारण लाला जी की जो प्रसिद्धि हुईउसका परिणाम यह था कि कांग्रेस के संस्थापक श्री ह्यूम और पण्डित मालवीय आदि ने प्रयाग कांग्रेस के समय उनका स्वयं स्टेशन पर स्वागत किया और श्री ह्यूम ने उन चिट्ठियों का स्वयं सम्पादन करके पुस्तकाकार में प्रकाशित किया। लाला जी सम्भवत पहले व्यक्ति थेजिन्होंने तब अंग्रेजी में काम करने वाली कांगे्रस के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया। उनकी असाधारण वक्तृत्व शक्ति ने उन्हें शीघ्र ही संस्था की चोटी के नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा किया।

    बंग-भंग आन्दोलन में - और तब 1905 में आया बंग-भंग का वह निर्णयजिसके विरोध में 'लाल-बाल-पालकी त्रिमूर्ति गरम दल के रूप में देश के उद्‌गारों का प्रतिनिधित्व करने लगी। प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के प्रश्न पर बनारस अधिवेशन में कांग्रेस के नरम और गरम दलों में टक्कर हो गई। इसके बाद जागृति की जो लहर देश भर में चली वह मीठे-मीठे भाषणोंसरकार के नाम भेजे गये आवेदन पत्रों और 'गॉड सेव द किंगके गायन की मर्यादाओं को ध्वस्त करके 'स्वराज्यस्वदेशी और बहिष्कारके मन्त्रों के रूप में चारों दिशाओं में व्यापक हो गई। इस नए जागरण के निर्माता यदि महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक और इनका 'केसरीथेतो पंजाब में लाजपत राय और उनका 'पंजाबीतथा बंगाल में विपिनचन्द्र पाल और अरविन्द घोष के सम्पादन में चलने वाला 'वन्देमातरम्‌'। लाला जी की वाणी में ओज तो था हीअब वह आग बरसाने लगी। नौकरशाही इस ताक में रहने लगी कि उनको किस प्रकार रास्ते से हटाए। तभी पंजाब में नहरी आबादियों के कानून के विरुद्ध आन्दोलन चला। सही या गलत यह धारणा कृषकों में घर कर गई कि अंग्रेज कानून द्वारा उत्तराधिकार के नियम को बदलने की तैयारी में है। लाला जी आन्दोलन के समर्थक तो थेपर उसमें सक्रिय नहीं हुए। किन्तु चाहते हुए भी वे खिंचकर उसमें उलझ ही गए। लायलपुर की एक सभा में वे अध्यक्ष बनाए गए। वहीं भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह ने भाषण दियाजो काफी विद्रोहपूर्ण था।

    नरम और गरम दल - अजीत सिंह और लाजपतराय दोनों को 1818 के पुराने रेगुलेशन के अधीन निर्वासन का दण्ड दिया गया। 6 महीने की कैद के बाद लाला जी मांडले जेल से रिहा होकर लौटे। इस कैद ने उनकी कीर्ति को दिग्‌दिगन्त तक फैला दिया। उसके शीघ्र बाद ही सूरत कांग्रेस का अधिवेशन था। जनता के हृदयों पर तो लाला जी का शासन था और तिलक भी चाहते थे उन्हीं को अध्यक्ष बनाना। परन्तु लाला जी दलबन्दी में पड़ना न चाहते थे। अधिवेशन तो मार-पिटाई और उछलते जूतों की गड़गड़ में समाप्त हो गया। साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि नरम और गरम दल वालों के रास्ते बिलकुल फट गये हैं। लाला जी ने कांग्रेस को छोड़ा तो नहीं पर विरक्ति उन्हें अवश्य हो गईकांग्रेस से ही नहीं राजनीति से भी। कुछ काल के लिए उन्होंने फिर आर्यसमाज के क्षेत्र को अपना लिया। 1914 में वे इंग्लैंड चले गये। वे वहीं थे जब महायुद्ध शुरू हो गया।

    युद्ध नीति - अब भारतीयों और कांग्रेस के सामने यह प्रश्न था कि उनकी नीति युद्ध के बारे में क्या होगांधी जी बिना किसी शर्त के सरकार की सहायता करने के पक्ष में थे। लाला जी का दृष्टिकोण क्या था? "मैं युद्ध में अंग्रेजों की सहायता के विरोध का आन्दोलन चलाने के पक्ष में तो नहीं था। मैं तो उनकी युद्ध नीति का समर्थन करने को भी उद्यत थायदि उसमें हमारे युवकों को भी सेना में प्रतिष्ठित पदों की प्राप्तिशस्त्रास्त्र के प्रयोग तथा युद्धकला में निपुणता प्राप्त करने का अवसर मिल जाता। सरकार ने ये दोनों बातें अस्वीकार कर दीं।.... इस दशा में मैं बिना किसी शर्त के युद्ध में भर्ती होने को तैयार नहीं था। परन्तु मेरे देश के शिक्षित नेताओं का मत इससे भिन्न था।'' लाला जी व तिलक जी दोनों का दृष्टिकोण एक ही था जो कि गांधी जी तुलना में यथार्थवादी भी था और जो कम से कम आज तो स्वीकार किया जा सकता है। अधिक दूरदर्शिता पूर्ण भी था। लाला जी और तिलक जी का दृष्टिकोण! इसी दूरदर्शिता ने लाला जी को देश न लौटने तथा कहीं नजरबन्द हो जाने के स्थान पर बाहर रहने के लिए प्रेरित किया। वे फरवरी 1920 तक नहीं लौटे।

    निरंकुश लाठियॉं - लौटे तो ब्रेडला हाल के पीछे मैदान में उनका पहला भाषण हुआ। उसमें उनकी अंग्रेजों को चुनौती थी- "खिचड़ी पक रही है। न खाएंगे न खाने देंगे। न सोएंगेन सोने देंगे! मंजिल पर पहुंचे बिना चैन न लेंगे।'' और सच में वह महापुरुष न सोया न उसने प्रतिपक्षी को सोने दियाजब तक निरंकुश शासकों की लाठियों ने उसे सदा की नींद न सुला दिया। उन लाठियों के विषय में लाला जी के शब्द किसी भी क्रांति की चिनगारी से कम ज्वलन्त नहीं थे- "हम पर की गई एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में एक-एक कील सिद्ध होगी!'' उन्होंने यह भी कहा कि ''यदि मैं मर गया और जिन नवयुवकों को मैंने काबू में रखा हुआ थाउन्होंने शांतिपूर्ण उपायों के अतिरिक्त अन्य मार्ग ग्रहण करने का निश्चय कियातो मेरी आत्मा उनके कार्य को आशीर्वाद देगी!''

    अपने निर्वांण समय के निकट मद्रास समुद्र तट पर हुई एक विशाल सभा में जो कुछ लाला जी ने कहावह उनके जीवनभर के भावों को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकट करता है- "अब जब जीवन की संध्या होते देखता हूँ और सिंहावलोकन करता हूँ तो खेद होता है कि जिस माता की कोख से जन्माजिसकी गोद को मलमूत्र से अपवित्र कियाजिसका स्तन पियावह माता बन्धन में ही है और मेरे जीवन के सूर्य का अस्ताचल की ओर प्रयाण तीव्रगति से हो चला है। माता के बन्धन तोड़ने के लिए मैंने कुछ नहीं कियाइसी की तीव्र वेदना मुझे व्यथित करती रहती है।''

    आज जब माता के बन्धन टूट चुके हैंलाला लाजपतराय और उनके अन्य साथियों के आदर्श कहॉं तक पूरे हो रहे हैंआज की राजनीति की ऊहापोह में मन खोजता है ऐसे साहसी व उदात्त चरित्रों कोजिन्होंने आदर्शवाद से प्रेरित होकर जीवन को यज्ञ बनाया होजिनके श्वासों में देशप्रेम होजिनकी धड़कनों में राष्ट्र की व्यथा हो। कहॉं हैं ऐसे राजनीतिज्ञ जो स्वयं को उन महापुरुषों के उत्तराधिकारी कह सकेंजिन्होंने पत्थर बनकर स्वातन्त्र्य मन्दिर की नींव को भरा था?

    यदि स्वराज्य लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बनें तो यह एक प्रकार की स्वतन्त्रता अंग्रेज हमें देंगे। परन्तु स्वराज्य तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरूप में स्थिर रहकर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरूप है हमारा धर्महमारी संस्कृति और हमारी अपनी देशगतजातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज्यस्वराज्य नहीं है। -डॉ. भाई महावीर (पूर्व राज्यपालम.प्र.)

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