सांस्कृतिक क्रान्ति- मानव चेतना संसार का वह सुन्दरतम वरदान है, जिसने पेट की क्षुधा पर विजय प्राप्त कर सत्य की ज्योति से संस्कृति का निर्माण किया है। मानव सौन्दर्य आत्मिक सौन्दर्य का नाम है, न कि शारीरिक सौन्दर्य का। यही कारण है कि सिन्धु और गंगा की फेनिल लहरों से वेदों की ऋचाओं का जो उद्घोष हुआ था, वह मानव की सांस्कृतिक क्रान्ति थी, जिसकी प्रतिध्वनि स्वामी दयानन्द की वाणी से मुखरित हो आर्यसमाज में गूंजी थी। वह नैतिकता और धर्म की अवहेलना करने वाले पश्चिम के भौतिकवाद तथा रूस के साम्यवाद से सर्वथा भिन्न आत्मा का स्वर था। यह भारतीय शरीर में यूरोपीय आत्मा डाल कर अवतारवाद, तीर्थ मन्दिर और मूर्तिपूजा से मुक्त होने का "ब्रह्मसमाजी" प्रयत्न भी नहीं था तथा न ही तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों को दूर करने वाला रानाडे का "प्रार्थना समाज" जैसा दुर्बल प्रयत्न। आर्यसमाज एक सांस्कृतिक क्रान्ति है, एक आत्मिक चेतना है। डॉ. राधाकृष्णन का कथन है कि भौतिकता द्वारा मानवता की पराजय मानव का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। आर्यसमाज ने इस दुर्बलता को पहिचाना और उनके निराकरण का सांस्कृतिक प्रयत्न किया।
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या
Ved Katha Pravachan - 97 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
दलितोद्धार आर्यसमाज की पहल- पं. विनायकराव विद्यालंकार ने आर्य समाज को उस बैंक के समान कहा है, जिसने मानव निर्माण का कार्य किया है और जिससे निकली मानव पूंजी से सामाजिक व राजनीतिक संस्थाओं ने अपने कारखाने चलाए हैं। स्वामी श्रद्धानन्द और लाला लाजपतराय केवल आर्य समाज की निधि नहीं हैं, अपितु इतिहास के अमर सेनानियों में से हैं, जिन्होंने अपने चरित्र से कांगे्रस के इतिहास को उज्ज्वल किया है। हरिजन व दलितोद्धार कांग्रेस का स्वर नहीं है, अपितु आर्य समाज का स्वर है, जिसने सबसे पूर्व दलितोद्धार सभा बनाई जो स्वामी श्रद्धानन्द के कांग्रेस में पदार्पण के पश्चात् आरम्भ हुआ। स्त्री शिक्षा के प्रसार का श्रेय पाश्चात्य सभ्यता को नहीं है, अपितु आर्य समाज को है, जिसने प्राचीन संस्कृति पर पड़ी "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्" की गर्द झाड़ कर मानवीय सन्देश सुनाया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महात्मा गान्धी भारतीय धमनियों में प्रविष्ट अंग्रेजियत के विष से बेचैन थे, पर क्या यह सत्य नहीं कि उनसे वर्षों पूर्व गुजरात के ही एक महामना ने इस रोग को पहचान लिया था। आर्य समाज ने देश को आत्मिक दासता से मुक्त करने के लिए जगह-जगह गुरुकुल जैसी शिक्षण संस्थाएं चलाई। सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर प्राचीन कुरीतियों और रूढिवादियों से मुक्त करने के लिए कहीं अधिक ज्वलन्त रूप में स्वामी दयानन्द की वाणी से आर्यसमाज इस क्षेत्र में उतरा। यह बात क्या किसी से छिपी हुई है कि ईसाइयत और इस्लाम के धार्मिक इतिहास का एक-एक पृष्ठ असहिष्णुता, घृणा और मानव रक्त से रंजित है। किसी ने तलवार की नोक से अपना कलाम लिखा और किसी ने अपने कलाम द्वारा मानव रक्त से अंजलि भरी है। आर्य समाज को छोड़ कर ऐसी कौन सी संस्था है, जिसने धर्म की वेदी पर सैकड़ों पुत्र चढा दिए हों, लेकिन जिसके हाथों पर मानव रक्त की एक बूंद भी न लगी हो।
सबकी उन्नति- आर्य समाज की स्थापना का उद्देश्य किसी एक जाति या विचारधारा की उन्नति नहीं है। वेद किसी एक जाति की सम्पत्ति नहीं है, अपितु मनुष्य मात्र की सम्पत्ति है। मैक्समूलर के शब्दों में, प्राचीन वैदिक ज्ञान में मानव जाति की शिक्षा का सम्पूर्ण रहस्य निहित है। उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण देते हुए ऋषियों के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था- "जैसे हम ऐवरेस्ट की ऊंचाई को नाप कर हिमालय की ऊंचाई का अनुमान लगाते हैं, वैसे ही हमें भारत का अनुमान वैदिक गायकों के माध्यम से ही लगाना होगा, उपनिषदों के संत ही हमारा पथ प्रदर्शन करेंगे, वेदान्त और सांख्य दर्शनों के प्रचारक ही हमें भारत विषयक ज्ञान देंगे और प्राचीन स्मृतियों के प्रणेताओं के माध्यम से ही हमें तत्कालीन भारत का ज्ञान होगा।"
आर्यसमाज पृथक् पन्थ नहीं- आर्यसमाज कोई एक पृथक् पन्थ नहीं है, अपितु सत्यासत्य की खोज करने वाला समाज है। न्यायपूर्वक आचरण करना, सौन्दर्य से प्रेम करना और सत्य की भावना के साथ विनम्रता पूर्वक व्यवहार करना, यही सबसे ऊंचा धर्म है। इस कसौटी पर कसने पर स्वामी दयानन्द विश्व मानवता के नेता दीखते हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है- "मैंने जो जो सब मतों में सत्य बाते हैं, वे-वे सबमें अविरूद्ध होने से उनको स्वीकार करके, जो-जो मत-मतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन सबका खण्डन किया है।" इस प्रकार जिस वैदिक सत्यज्ञान पर आर्यसमाज की आधारशिला स्थापित की गई है, वह किसी विशेष सम्प्रदाय व धर्म या जनसमुदाय से सम्बन्धित नहीं है, अपितु सार्वभौम है। ऋग्वेद तो कहता ही यह है- सत्येनोत्तभिता भूमि:। इसीलिए आर्यसमाज के नियमों में एक नियम यह भी है- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। वैदिक साहित्य मानव की परिमार्जित रुचियों की सबसे सुन्दर अभिव्यंजना है। श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने अपने एक भाषण में कहा था-चालीस वर्षो के सुगम्भीर चिन्तन के बाद मैं यह कह रही हूँ कि विश्व के सभी धर्मों में हिन्दू धर्म से बढ कर पूर्ण वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण धर्म दूसरा नहीं है। उस हिन्दू धर्म पर पड़ी रूढिवादिताओं की राख को झाड़ कर आर्यसमाज ने मानव कल्याण का भव्य मार्ग प्रशस्त किया है।
तर्क की कसौटी- आर्यसमाज की सबसे बड़ी देन यह है कि उसने तर्क की कसौटी से ईश्वर के सच्चिदानन्द रूप की प्रतिष्ठा की। ऐसा नहीं है कि इसके पूर्व समाज में ईश्वर के स्वरूप को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया गया। कबीर, दादू, गुरु नानक आदि सन्तों की तीर्थाटन, मूर्तिपूजा, अवतारवार की प्रबल खण्डनात्मक वाणी के पीछे भावना तो एकेश्वरवाद की थी, लेकिन शास्त्रीय प्रामाणिकता तथा प्रबल तर्क के अभाव में उनका मण्डनात्मक पक्ष अति दुर्बल रहा। परिणामत: उनके सत्य के ज्ञान का दीपक टिमटिमाता ही रहा। उसमें सूर्य सा प्रखर तेज नहीं आ सका। पाखण्ड के महावन को जला कर राख करने की क्षमता उसमें नहीं थी। वह समाज को झकझोर नहीं सका।
बौद्धों का कच्चा विद्रोह- वैदिक यज्ञों में कथित प्रचलित हिंसा तथा ब्राह्मणों के बाह्य कर्मकाण्ड को देखकर बौद्ध धर्म वेदों और ईश्वर की सत्ता को ही अस्वीकार कर बैठा। उसमें यह साहस नहीं था कि वह अपनी स्थापना को तर्क की कसौटी से स्थापित करता। स्वामी दयानन्द पलायनवादी व्यक्ति नहीं थे । अत: उन्होंने और उनकी संस्था ने सामाजिक कुरीतियों को तर्क के बाण से काटा। उन्होंने स्त्री शिक्षा, अस्पृश्यता निवारण, दलितोद्धार, अछूतोद्धार, विधवा विवाह, गोवध निषेध आदि की उपादेयता सामाजिक स्तर पर वेदों के आधार पर सिद्ध की। उन्होंने वर्तमान को वैदिक काल से तर्क की डोर से बान्ध दिया। मनु ने कहा है- यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेद नेतर:। अर्थात् जो व्यक्ति तर्क द्वारा खोज करता है, धर्म के स्वरूप को वही जान सकता है, अन्य नहीं। तर्क तो ऋषि है, जिसकी सहायता से आर्यसमाज आगे बढा है। जो तर्क को सुने ही नहीं, वह कट्टर है। जो तर्क करने का साहस ही न कर सके, वह गुलाम है।
आर्यसमाज के सिद्धान्त स्थिर हैं- स्वामी विवेकानन्द उन संन्यासियों में से थे, जिनकी भारतीय संस्कृति के रंग में रंगी सशक्त वाणी ने देश के युवकों में नवरक्त का संचार किया और भारतीय आत्मा के सुप्त स्वाभिमान को जगाने का प्रयत्न किया। परन्तु वे भी आर्यसमाज जैसी संस्था नहीं दे पाए, जिसकी वाणी नगरों से खलिहानों तक, अमीर से गरीब तक, महलों से झोंपड़ियों तक पहुंचती। इन्हीं कारणों से हर्बर्ट रिस्ले ने "प्यूपिल ऑफ इण्डिया" में लिखा है कि आर्यसमाज के विस्तार का कारण यह है कि इसके सिद्धान्त स्थिर हैं।
बाह्य कानून व नियम मनुष्य से काम तो करवा सकते हैं, लेकिन मनुष्य नहीं बना सकते, आत्मा का निर्माण नहीं कर सकते। देवता पद प्राप्त करना सरल है, पर मनुष्य बनना कठिन है। क्या मानव निर्माण स्त्री शिक्षा के बिना भी सम्भव है? महर्षि रमण के शब्दों में, पति के लिए चरित्र, सन्तान के लिए ममता, समाज के लिए शील, विश्व के लिए दया और जीवन मात्र के लिए अपने हृदय में करूणा संजो कर रखने वाले प्राणी का नाम ही नारी है। भारत के अध:पतन की कहानी उस दिन आरम्भ हो गई थी, जिस दिन हम भूल गए कि नारी मात्र स्त्री ही नहीं, वह मॉं भी है। आर्यसमाज ने शिक्षण संस्थाएं खोली! क्या आर्यसमाज को छोड़ कर उस काल में किसी संस्था को विचार आया कि जॉनसार बाबर जैसे पिछड़े प्रदेश में भी सरस्वती का प्रसाद बांटना चाहिए? उसमें मेघ और ओड़ जाति को अपने में मिलाकर उनकी शिक्षा का प्रबन्ध 1899 में उस समय आरम्भ कर दिया था जबकि अभी समाज ने शिक्षा के विषय में सोचना भी शुरू नहीं किया था। लेखक-डॉ. योगेश्वर देव
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...