पूर्व मीमांसा दर्शनकार जैमिनि के सम्बन्ध में एक और भयङ्कर भ्रान्ति
वेद के उपाङ्ग माने जाने वाले छह वैदिक दर्शनों पर अर्वाचीन टीकाकारों ने मूल से हटकर अपनी मनमानी काल्पनिक व्याख्या के आधार पर यह सिद्ध करने का असफल प्रयास किया कि इन छहों दर्शनों में मौलिक सिद्धान्तों पर परस्पर मतभेद है। ऋषि दयानन्द ने इन दर्शनों के मूल के अध्ययन के आधार पर उन लोगों के इस प्रयास को गलत साबित करते हुए यह सिद्ध किया कि इन वैदिक दर्शनों में परस्पर कहीं भी कोई भी विरोध नहीं है। सभी शास्त्रों और वेद तक इस मौलिक अध्ययन को स्वामी दयानन्द ने आधार बनाया और शास्त्रों के सम्बन्ध में अन्धानुकरण से प्रचलित अनेक भ्रान्तियों को दूर किया। मूल से हटकर शास्त्रों की व्याख्या करने के कारण सभी शास्त्रों की नव्य परम्परा प्रचलित हुई जो अपने आप में एक अलग शास्त्र बन गया, जिसका नाम तो प्राचीन शास्त्र के आधार पर बना रहा किन्तु वह प्राचीन शास्त्र से बहुत भिन्न थी। इसके कारण मूल शास्त्र के मौलिक सिद्धान्त उन नव्य व्याख्याओं के कारण नीचे दब गये और मूल शास्त्र का वास्तविक स्वरूप और अभिप्राय ही तिरोहित हो गया। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने इसी मूलभूत भयंकर भूल को पकड़ा और शास्त्रों के मूल की ओर लौटने का क्रान्तिकारी नारा दिया, जिसे आर्ष ग्रन्थों की परम्परा कहा जाता है।
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Ved Katha Pravachan _46 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
किन्तु आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द के भक्त कहलाने वाले कुछ आधुनिक विद्वान् ऋषि दयानन्द के ही इस नारे को भूल गये और मूल से हटकर शास्त्रों की वही गलत व्याख्या कर रहे हैं, जिसकी चेतावनी स्वामी दयानन्द ने दी थी।
"सर्वहितकारी" 14 अप्रैल 2004 के अंक में डॉ. सुदर्शनदेव आचार्य का "जैमिनिमत समीक्षा-शूद्र को ब्रह्मविद्या एवं वेदाध्ययन अधिकार" शीर्षक से लेख छपा है। इस लेख में उन्होंने "जैमिनि का मत" देते हुये वेदान्तदर्शन का मध्वादिष्वसम्भवादनधिकारं जैमिनि: (वेदान्त 1.3.31.1) सूत्र उद्धृत करते हुए लिखा है कि "जैमिनि मुनि शूद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं मानते हैं।" वेदान्त का अगला सूत्र 1.3.32 भी अपनी बात के समर्थन में उद्धृत किया, जिसमें उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्राश "त्रीणि ज्योतींषि सचते" ज्योतिषी शब्द की व्याख्या को उद्धृत करते हुए तीन ज्योतियों की अपनी मनमानी व्याख्या "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य" करके कहा है कि जैमिनि मुनि इस मत्रांश के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का ही वेदाध्ययन अधिकार मानते हैं। वेदान्त का अगला सूत्र "भावं तु बादरायणोऽस्ति हि" (1.3.32)की अपनी मनमानी व्याख्या के आधार पर पण्डित जी कहते हैं कि "बादरायण अर्थात् वेदव्यास" शूद्रों का वेदाध्ययन अधिकार मानते हैं जो जैमिनि के विरोध में है।
यहॉं भयङ्कर भूल तो यह है कि यहॉं शूद्रों का प्रसङ्ग है ही नहीं। वेदान्त के ये सूत्र शूद्रों के प्रसङ्ग-प्रकरण के हैं ही नहीं। शूद्रों का प्रकरण-प्रसङ्ग तो दुर्जनतोषन्याय से वेदान्त के अगले सूत्र "शुगस्य तदनादरश्रवणात् तदाद्रवणात् सूच्यते हि" (1.3.34) सूत्र से प्रारम्भ होता है जो वेदान्त के 1.8.38 वें सूत्र तक चलता है।
पं. सुदर्शनदेव जी को यह तो पता ही होना चाहिये कि सूत्रों में अनुवृत्ति अगले सूत्र से पिछले सूत्र में नहीं आती अपितु पिछले सूत्र से अगले सूत्र में जाती है। यहॉं शूद्र का प्रकरण वेदान्त के 1.3.34 (चौंतीसवें) सूत्र से प्रारम्भ होता है जबकि जैमिनि के मत को दिखलाने वाला सूत्र 1.3.31 (इकत्तीसवां) है जो शूद्र के प्रकरण वाले सूत्र से तीन सूत्र पहले है। कितनी भयङ्कर भ्रान्ति के शिकार हैं पं. सुदर्शनदेव जी।
वस्तुत: जैमिनि के मत को और बादरायण के मत को दिखलाने वाले सूत्रों का प्रकरण मनुष्य और देवताओं का प्रकरण है जो वेदान्त के "हृद्यपेक्षया तु मनुष्याधिकारत्वात्" वेदान्त 1.3.25 से प्रारम्भ होता है जिसका अगला ही सूत्र है "तदुपर्यपि बादरायण: सम्भवात्" वेदान्त (1.3.26) इस प्रसंग में स्पष्ट ही "मनुष्याधिकारत्वात्" शब्द है और अगले सूत्र का "तदुपर्यपि" शब्द मनुष्यों से ऊपर देवों के सम्बन्ध में वही बात करता है। यह प्रसङ्ग "देवताधिकरण" प्रसङ्ग वेदान्त में कहलाता है जो 1.3.33 तक चलता है। इस प्रसङ्ग में कहीं भी शूद्र शब्द नहीं है तथा जैमिनि और बादरायण द्वारा इन सूत्रों में प्रकट किया गया मत शूद्र के वेदाध्ययन-अधिकार के सम्बन्ध में बिल्कुल नहीं है, अपितु मनुष्य और देवताओं के सम्बन्ध में है और वह मतभेद भी कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं अपितु एक शास्त्रीय प्रक्रिया के सम्बन्ध में दो विकल्पों के सम्बन्ध में मतभेद नहीं अपितु सुझावमात्र है। इसकी व्याख्या की यहॉं अपेक्षा नहीं है। यहॉं हम केवल यह दर्शाना चाहते हैं कि जैमिनि और बादरायण के सम्बन्ध में मतभेद प्रकट करने वाले जो सूत्र पं. सुदर्शनदेवजी ने उद्धृत किये हैं, वे शूद्र सम्बन्धी प्रकरण के हैं ही नहीं। कहीं का शिर कहीं, और कहीं की टांग कहीं जोड़कर प्रकरण को सर्वथा काटकर शास्त्र पर मिथ्यारोप नहीं चलेगा। जैमिनि पर यह मिथ्या आरोप पण्डित जी के शास्त्र सम्बन्धी अज्ञान का सूचक है। इस प्रसङ्ग की अन्य विद्वानों की भी यदि ऐसी व्याख्या है तो वह भी भ्रान्त है।
पुनश्र्च जैमिनिमुनि ने "ज्योतींषि" की व्याख्या के लिये उक्त मन्त्र उद्धृत भी नहीं किया और न जैमिनि ने कहीं भी "त्रीणि ज्योतींषि" मन्त्रांश की व्याख्या ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ही तीन ज्योतियॉं बतलाया है। क्या श्री सुदर्शनदेव जी जैमिनि द्वारा की गई इस मन्त्रांश की व्याख्या दिखला सकते हैं कि "तीन ज्योतियों से अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य से संयुक्त रहता है, चतुर्थ शूद्र से नहीं?" इस मनमानी व्याख्या द्वारा श्री सुदर्शनदेव जी वेद पर भी यह आरोप लगा रहे हैं कि वेद शूद्र को ज्योति नहीं मानता। वेदमन्त्र में वर्णित तीन ज्योतियॉं कौनसी हैं इसकी व्याख्या का यहॉं प्रसंग नहीं है, क्योंकि यह मन्त्र जैमिनि ने उद्धृत नहीं किया है और न ही यह शूद्र के वेदाध्ययन अधिकार का प्रसङ्ग है। यहॉं उक्त प्रसङ्ग का इतना निष्कर्ष देना पर्याप्त है कि जैमिनि मानवमात्र के अधिकार के पक्ष में है। जबकि बादरायण मनुष्यों से ऊपर देवताओं की भी बात करते हैं। सूत्र में "अपि" शब्द से मनुष्य तो अभिप्रेत हैं ही।
अब रहा अगला प्रसङ्ग जो वेदान्त सूत्र 1.3.34 "शुगस्य तदनादरश्रवणात् तदाद्रवणात् सूच्यते हि" से प्रारम्भ होता है जिसे श्री सुदर्शनदेव जी ने उल्टवासी करके (उल्टीकला) पहले के प्रसङ्ग से भ्रान्तिवश जोड़कर जैमिनि ऋषि पर मिथ्यारोप मढ डाला है। वस्तुत: वेदान्तदर्शन की व्याख्या में जितनी खेंचतानी हुई है उतनी सम्भवत: और दर्शनों के साथ नहीं हुई। वेदान्त की भिन्न-भिन्न व्याख्या के आधार पर पांच प्रकार के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय तो प्रसिद्ध हैं ही, यथा अद्वैतवाद, शुद्ध अद्वैतवाद, विशिष्ट अद्वैतवाद, द्वैत-अद्वैतवाद आदि। इनमें शङ्कराचार्य अद्वैतवादी होते हुये भी यहॉं "शुगस्य" की व्याख्या शूद्र करके शूद्र का वेदाध्ययन अधिकार का प्रसङ्ग उठाते हैं जो वेदान्त सूत्र 1.3.38 तक चलता है और वेदान्त के रचयिता स्वयं वेदव्यास के नाम पर यह सिद्ध करते हैं कि शूद्रों को वेदाध्ययन अधिकार नहीं है । क्योंकि इस प्रसङ्ग में वेदव्यास के अतिरिक्त और किसी मुनि का नाम उल्लिखित नहीं है। अत: इस प्रसंग के सूत्र देवव्यास की ही मान्यता ज्ञापित करते हैं। शंकर आचार्य ने इस प्रसङ्ग के अन्तिम सूत्र श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्र्च (1.3.38) पर स्मृति का प्रमाण देते हुये लिखा कि श्रवणे त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रपूर्णम् और उच्चारणे जिह्वाच्छेद:। यदि शूद्र वेदमन्त्र सुन ले तो उसके कानों में त्रपु और जतु भर दो और यदि वह वेदमन्त्र उच्चारण करे तो उसकी जिह्वा काट लो। यह व्याख्या शंकराचार्य की है जो स्वयं वेदव्यास को, जो वेदान्त के रचयिता हैं इस कटघड़े में खड़ा करते हैं जैमिनि मुनि को नहीं। श्री सुदर्शनदेव जी पर भी लगता है शंकराचार्य का जादू चढ गया, किन्तु आधा। इसीलिये उन्होंने वेदव्यास को नहीं जैमिनि मुनि के गले में फंदा फिट कर दिया।
वस्तुत: यहॉं "शुगस्य" की व्याख्या शंकराचार्य आदि के आधार पर शूद्र करना और उसे वेदाध्ययन अधिकार से वेदव्यास के नाम पर भी वञ्चित रखना शास्त्र का अनर्थ है। इसीलिये स्वामी दयानन्द ने ये सभी भ्रान्त व्याख्याएं निरस्त करते हुये कहा कि व्यासमुनिकृत वेदान्त पर जैमिनि, वात्स्यायन या बोधायन आदि मुनि की व्याख्या और जैमिनि मुनिकृत पूर्व मीमांसा पर व्यासमुनिकृत व्याख्या पढें। जैमिनि ने वेदान्त पर और व्यास ने पूर्वमीमांसा पर व्याख्यायें लिखी थीं जो सर्वथा प्रामाणिक थीं। इससे यह भी स्पष्ट है कि जैमिनि और व्यास में परस्पर कोई विरोध नहीं था और न है। व्यास ने जैमिनि को आदर देने के लिये अपने वेदान्तदर्शन में ग्यारह बार स्मरण किया है और इसी प्रकार जैमिनि ने आदरार्थ बादरायण को अपने पूर्व मीमांसा में स्मरण किया है। इन दोनों में कहीं भी सैद्धान्तिक विरोध मानना अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। यदि यहॉं शूद्र का प्रकरण वेदव्यास शास्त्रकार को अभिप्रेत होता तो "शुक्" शब्द के स्थान पर स्पष्ट ही "शूद्र" शब्द का पाठ होता। इन सब सूत्रों की व्याख्या का यहॉं प्रसङ्ग नहीं है। यहॉं केवल हम यह दिखलाना चाहते हैं कि शङ्कराचार्य और उनके अन्धानुकरणकर्त्ता यहॉं जो शूद्र का प्रकरण समझकर "शुगस्य" आदि सूत्रों द्वारा स्वयं वेदव्यास पर भी शूद्र को वेदाधिकार से वञ्चित करने का आरोप लगाते हैं, वे कितने भ्रान्त हैं। यदि दुर्जनतोषन्याय से इसे शूद्र का प्रकरण मान भी लें तो भी प्रकरणान्तर होने से जैमिनि पर तो यह आरोप बनता ही नहीं।
ऋषि दयानन्द ने यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:, ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च" आदि यजुर्वेद के मन्त्र के आधार पर जो शूद्रों को वेदाध्ययन अधिकार सिद्ध किया वह भी जैमिनि के पूर्व मीमांसा के नियमों के आधार पर व्याख्या करके किया। इस बात का पता सम्भवत: विद्वानों को नहीं है। जैमिनि का सूत्र चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म: (1.1.2) यह नियम निर्धारित करता है कि वेदमन्त्रों में जो विधि वाक्य है, जो विधिलिड् या लोट् आदि प्रत्ययों के द्वारा विधान किया जाता है वह धर्म है। और उक्त मन्त्र में "आवदानि" शब्द में विधि है जो लोट् द्वारा विहित है। अत: जैमिनि के इस नियम के अनुसार वेदाध्ययन सबका धर्म है चाहे वह कोई भी वर्ण हो। इसी जैमिनि के नियम के आधार पर स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के तीसरे नियम में धर्म शब्द का प्रयोग किया- "वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" यदि जैमिनि शूद्रों को वेदाध्ययन अधिकार से वञ्चित करते तो स्वामी दयानन्द जैसा अदम्य व्यक्ति उसका अवश्य खण्डन करता। किन्तु स्वामी दयानन्द ने कहीं भी जैमिनि के विरोध में एक शब्द भी नहीं लिखा और न ही जैमिनि और वेदव्यास में कहीं सैद्धान्तिक विरोध बतलाया। अपितु वेद के उपाङ्ग माने जाने वाले इन छओं दर्शनों में परस्पर समन्वय बतलाया और इनमें विरोध मानने वालों का पुरजोर खण्डन किया। जैमिनि मनुष्यमात्र का वेदाध्ययन अधिकार मानते हैं। अपने पूर्व मीमांसा दर्शन में भी जैमिनि ने कहीं भी शूद्र का वेदाध्ययन अधिकार निषिद्ध नहीं किया। जैमिनि स्पष्ट रूप से मनुष्यमात्र के लिये कर्म और फलों का विधान करते हैं। वेदाध्ययन भी एक कर्म है और उसका भी कोई फल होता है। अत: वह भी मनुष्यमात्र के लिये है, उसमें शूद्र आदि का कोई भेद नहीं है। जैमिनि मुनि ही अपने सूत्रों के अनुसार वेदमन्त्र की व्याख्या करके वेदाध्ययन को सबका धर्म घोषित करते हैं।
मेरा विद्वानों से नम्र निवेदन है कि शास्त्र की व्याख्या बड़ी सावधानी से करें, उसकी टीका की बजाय मूल को खोजें। इन्हीं भूलों से सभी आर्षशास्त्रों का मूल अभिप्राय नष्ट हो गया, इसी भूल से वेद का अनर्थ हुआ और इसी भूल से सावधान करते हुये ऋषि दयानन्द ने स्वत: प्रमाण और परत: प्रमाण की कसौटी दी जो वेद के अतिरिक्त वैदिक शास्त्रों पर भी लागू होती है, जिनमें ऋषियों के शुद्ध, पवित्र, सरल, वास्तविक और मानवमात्र का कल्याण करने वाले भाव छुपे हुये हैं। किसी ऋषि पर इतना गम्भीर निराधार आरोप लगाना बड़ा जघन्य अपराध है, ब्रह्महत्या है। (सर्वहितकारी - 21 अप्रैल 2004) - डॉ. महावीर मीमांसक
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Here, fearfully forgetting that this is not the case of the Shudras. These sutras of Vedanta do not belong to the episode of Shudras. The case of the Shudras begins with the next sutra "Shugasya tadanadrasravanaat tadadravanatya sukhyate hi" (1.3.34) from Durjantoshanayya which runs to the 1.8.38th sutra of Vedanta.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...