भारत में शिवरात्रि के पर्व का बहुत महत्व है। शिवरात्रि का अर्थ है- कल्याणकारिणी रात्रि और शिव (महादेव) से सम्बद्ध रात्रि। वर्तमान में हिन्दू समाज इस रात्रि में विशेष रूप से शिवमूर्ति की अर्चना करता है। परन्तु जब तक शिव (महादेव) के साथ इस रात्रि का क्या सम्बन्ध है, यह प्रकट न हो, तक तक यह पर्व मनाना सफल नहीं हो सकता।
महाभारत में अनेकों स्थानों पर शिव के महत्वपूर्ण कार्यों का वर्णन है। "शिव सहस्त्रनाम स्तोत्र" में तो एक-एक नाम से महात्मा शिव के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत है। महात्मा शिव सपत्नीक होते हुए भी पूर्ण ब्रह्मचारी थे। उनका पार्वती के साथ शारीरिक सम्बन्ध हुआ ही नहीं। इस ओर संकेत करने वाले "शिव सहस्त्रनाम" में अनेक नाम हैं। उदाहरण के लिये दो नाम उपस्थित हैं।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
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Ved Katha Pravachan _51 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
उत्तानशय:-इसका अर्थ है सदा सीधा सोने वाला। स्त्री-संसर्ग में पुरुष अधोमुख होता है। अत: यह नाम बताता है कि शिव ने पार्वती के साथ यौन सम्बन्ध नहीं किया था।
स्थाणु- स्थाणु का अर्थ होता है पुष्प फल से रहित ठूंठ (वृक्ष)। यह नाम बताता है कि इसी आजन्म ब्रह्मचर्य के कारण शिव सन्तानरूपी फल से रहित थे। कार्तिकेय शिव के औरस पुत्र नहीं थे, जैसा कि समझा जाता है। वे उनके पालित पुत्र थे, जैसे गणेश। इसकी ओर महाभारतस्थ कार्तिकेयोत्पत्ति का प्रकरण भी संकेत करता है।
ऐसा आजन्म ब्रह्मचर्य और वह भी पत्नी के होते हुए पालन करना अति असम्भव सा कार्य है। परन्तु शिव ने उसे भी सम्भव कर दिखाया। इसीलिये उन्हें कामारि या मदनारि कहते है। शिव का एक महत्वपूर्ण नाम है- अर्धनारीश्वर। इसका भाव यह है कि नारी पार्वती की उपस्थिति वे बाहर न मानकर अपने अर्धभाग में ही स्वीकार करते थे। जो मनुष्य अपने भीतर ही अर्धभाग में नारी की स्थिति जान लेता है वह बाह्य नारी-सम्बन्ध से दूर हो जाता है। शतपथ में कहा है- तावत् पुरुषो अर्धो भवति यावज्जायां न विन्देत अथ जायां विन्दते पूर्णो भवति।
इसका भाव यह है कि मनुष्य अपने में किसी वस्तु की न्यूनता समझता है और उसे पूर्ण करने के लिये जाया (पत्नी) को प्राप्त करता है। तब वह अपने को पूर्ण समझने लगता है।
यदि किसी को यह ज्ञान हो जावे कि जिस नारी रूपी बाह्य वस्तु की मैं कामना करता हूँ, वह तो मेरे भीतर ही अर्धभाग में स्थित है, तब वह अपने आपको पूर्ण जानकर जाया की कामना नहीं करता। यह ज्ञान परम सूक्ष्म है। इसी महत्वपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करके शिव अपने में पूर्ण हो गये और अन्य देवों की अपेक्षा महान् हो गये, महादेव बन गये। यही उनके तृतीय नेत्र (ज्ञान नेत्र) के उद्घाटन का भाव है। इसी विवेक नेत्र से उन्होंने मदन को भस्मीभूत किया था।
सम्भव है इसी ज्ञान की उपलब्धि उन्हें इस रात्रि में हुई होगी और उन्होंने काम पर विजय पाकर अर्धनारीश्वरत्व को समझा होगा।
यदि शिवभक्त महात्मा शिव के इस तत्वज्ञान को समझने के लिये कुछ प्रयत्न करें, तो यह रात्रि उनके लिये भी शिव (कल्याण रात्रि बन सकती है)।
शिवरात्रि महात्मा शिव के वैवाहिक जीवन की प्रथम रात्रि थी, सुहाग रात ! तभी असुरों ने देव सेना को ललकारा और तभी देवों के सेनापति रुद्र (शिव) ने असुर और आसुरी सभ्यता के विनाश के लिये अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। यह था शिव रात्रि व्रत! बज उठा डमरू, थिरक उठे पॉंव। सेनापति शिव अब असुर-नाश के रूप में ताण्डव नृत्य कर रहे थे। कैसे खेद का विषय है कि ऐसे योगी और ब्रह्मचारी के नाम पर "शिवलिङ्ग पूजा" का भ्रष्टाचार फैलाया गया है।
दयानन्द-बोध- इसी शिवरात्रि के साथ महान् तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। बालक मूलशङ्कर को इस रात्रि में ही कुल-परम्परा से प्राप्त शिवमूर्ति की पूजा करते हुए इस तत्व का बोध हुआ था कि इतिहास पुराणों में जिस महाबली त्रिपुरारि शिव का वर्णन मिलता है, वह यह प्रस्तरमूर्ति नहीं है। महादेव ने तो बड़े-बड़े बलवान् राक्षसों को मारा था और यह महादेव जिसकी पूजा मैं कर रहा हूँ, वह तो अपने ऊ पर से नैवेद्य को खाने वाले चूहों को भी हटाने में असमर्थ है। इसीलिये मैं उस सच्चे शिव-महादेव की खोज करूँगा, जिसका वर्णन शास्त्रों में मिलता है। इस प्रकार मूलशंकर के लिए यह रात्रि वास्तव में शिव-कल्याण की रात्रि बन गई।
मूलशंकर ने इस रात जो शिव संकल्प लिया, उसके लिए उन्होंने वैभवपूर्ण घर का त्याग करके सच्चे शिव की खोज में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया। सच्चे शिव के दर्शन के लिये योग की आवश्यकता का अनुभव होने पर योगियों की खोज मे अर्वली (आबू) पर्वत, हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों एव विन्ध्याचल की दुर्गम पर्वत श्रेणियों और जङ्गलों की रोमांचकारी यात्रायें की। "जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ" की उक्ति के अनुसार उन्हें कुछ योगीजनों के दर्शन हुए। उनसे योगविद्या सीखी और समाधि पर्यन्त उत्कृष्ट सफलता प्राप्त की।
परन्तु अभी उन्हें विद्या के क्षेत्र में न्यूनता अखरती थी। यद्यपि उन्होंने अपने दीर्घकालीन भ्रमण में जहॉं भी कोई विद्वान् मिला, उससे शिक्षा ग्रहण करने का पूरा यत्न किया, तथापि उन्हें कोई गुरु नहीं मिला, जो शास्त्रज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी हृदय में अविद्या की गॉंठ रह जाती है, उसे खोलकर शास्त्रों का तत्वज्ञान कराये। अन्त में उन्हें इसमें भी सफलता मिली और मथुरा निवासी प्रज्ञाचक्षु गुरुवर दण्डी विरजानन्द ऐसे सद्गुरु प्राप्त हुए।
यद्यपि गुरुवर विरजानन्द के चरणों में बैठकर लगभग तीन वर्ष ही विद्याध्ययन किया और वह भी व्याकरण शास्त्र का ही। तथापि गुरुवर विरजानन्द ने व्याकरणशास्त्र के अध्यापन के व्याज से उन्हें उस मूल तत्व ज्ञान से भी सम्पन्न कर दिया जिसके सहारे से दयानन्द शास्त्रों के तत्वज्ञान की उपलब्धि में समर्थ हुए। वह तत्व ज्ञान है आर्ष ग्रन्थों को पढो-पढाओ, अनार्ष ग्रन्थों का परित्याग करो।
इतना ही नहीं, गुरुवर विरजानन्द ने दयानन्द को एक महती शिक्षा यह दी कि अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट मत होवो। अज्ञानान्धकार में भटकती भारतीय जनता को सुमार्ग दर्शाकर उसके दु:खों को दूर करो। देशवासियों की उन्नति में अपनी उन्नति समझो।"
इस गुरुमन्त्र को पाकर दयानन्द ने अपने व्यक्तिगत मोक्ष के साथ-साथ दया से परिपूर्ण होकर भारतीय जनता के अज्ञानान्धकार जिसके कारण भारतवासी दु:खी, हीन दरिद्र और पराधीन थे, को दूर करके उन्हें सुमार्ग दर्शाया। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने सर्वस्व समर्पित कर दिया। इसी हेतु आर्यसमाज बनाया।
इस दृष्टि से शिवरात्रि में शिवार्चन करते हुए बालक मूलशंकर को जो बोध हुआ उसी की यह महिमा है कि मूलशंकर स्वयं सच्चे शिव को पाने में जहॉं समर्थ हुए, वहॉं उन्होंने भारतीय जनता में व्याप्त अज्ञान मतमतान्तर के विरोध एवं पराधीनता से व्याप्त दु:ख दारिद्रय को दूर करने का सच्चा मार्ग बताकर सभी भारतवासियों को शिव (कल्याण) के मार्ग पर चलने में समर्थ बनाया।
प्रत्येक भारतीय को मिथ्या मतों को त्याग शिव (कल्याण) के मार्ग (वैदिक सत्य मार्ग) पर चलने का शिवसंकल्प ग्रहण करना चाहिए। इस शिवसंकल्प से जहॉं हमारी व्यक्तिगत उन्नति होगी, वहॉं देश और संसार के भी कष्ट दूर होंगे।
गुरुवर विरजानन्द ने अपने शिष्य को जिस शास्त्रीय तत्व ज्ञान को बोध कराया और दयानन्द ने अपने जीवन में जिसका प्रचार किया, उसे हम प्राय: भुलाते जा रहे है। हमारे अध्ययन-अध्यापन में से उत्तरोत्तर आर्ष ग्रन्थों का लोप होता जा रहा है। इस क्षेत्र में आर्ष ग्रन्थों की नई व्याख्याओं के प्रकाशन का कार्य तो प्राय: अवरुद्ध ही हो गया है, प्राचीन व्याख्यायें भी अप्राप्त हो गई हैं।
आज वस्तुत: आत्म-निरीक्षण का समय है। अपनी कमियों को पूरा करने के लिये किसी शिव संकल्प को धारण करने का है। यदि आर्य जनता "आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का शुभ संकल्प लेवे" और स्वाध्याय में प्रयत्नशील होवे तो उनके लिये यह वस्तुत: शिवस्वरुप हो सकता है। (तपोभूमि मथुरा, फरवरी 1994)
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The Mahabharata describes Shiva's important works at many places. In the "Shiva Sahastranam Stotra", each name indicates the important events of Mahatma Shiva's life. Mahatma Shiva was a complete celibate despite being a son. He did not have a physical relationship with Parvati. "Shiva Sahastranama" has many names pointing towards this. For example two names are present.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...