आर्य समाज का तीसरा नियम है- "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।" इस नियम को समझने के लिए ऋग्वेद का "अदिति" शब्द बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। अदिति के लिए ऋग्वेद (1.89.10) में निम्न मन्त्र है-
अदिति द्यौ: अदिति अंतरिक्षं अदिति: माता स: पिता स: पुत्र:।
विश्वेदेवा: अदिति पञ्चजना: अदिति: जातं अदिति: जनित्वम्।।
संसार में जो कुछ है, वह "अदिति" है। जो दिति न हो वह अदिति होगा। "दिति" शब्द "दो, अवखण्डने" धातु से बना है। "दिति" का अर्थ है- "खण्डित"। "अदिति" का अर्थ हुआ- "अखण्डित"। खण्डित का अर्थ है- एक से दो, दो से तीन, तीन से चार- इस प्रकार बटते जाना। अखण्डित का अर्थ है- सर्वदा एक बने रहना, टुकड़ो में न बटना। जितना भौतिक ज्ञान है, जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह सब दिति के भीतर समा जाता है। अध्यात्म से सम्बन्धित सब कुछ अदिति है, जो जात या जनित्व है वह सब अदिति है, तो वेद भी अदिति है, सत्य भी अदिति है, वेद-ज्ञान भी "अदिति" है। वेद-ज्ञान को अदिति कहने का अर्थ हुआ अखण्डित-ज्ञान, ऐसा ज्ञान जो सदा-सर्वदा एक बना रहता है, कभी बदलता नहीं- सदा सत्य-सनातन। इसी "अदिति"- शब्द के लिए ऋग्वेद (8.18.6) में दो अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है जिससे हमारा विषय अधिक स्पष्ट हो जाता है। वह मन्त्र है:
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
भारत देश की गुलामी के कारण
Ved Katha Pravachan _48 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
अदितिर्नो दिवा पशुं अदितिर्नक्तं अद्वया।
अदिति: पात्वहंस: सदावृधा।
इस मन्त्र में "अदिति" के लिए "अद्वय" तथा "सदावृध" शब्दों का प्रयोग हुआ है। "अद्वय" का अर्थ है- जो दो न हो। "सदावृध" का पदच्छेद करके इसके दो अर्थ हो जाते हैं। सदावृध जो सदा बढता रहे, विकसित होता रहे, एक से दो, दो से तीन, तीन से चार होता रहे बटता रहे। इसका दूसरा अर्थ है- सदा अवृध जो सदा एक रहे, एक से दो, दो से तीन न हो, नित्य सनातन, एक रूप में बना रहे।
इस प्रकार वेद ने ज्ञान को तीन भागों में विभक्त किया है- अदिति, सदावृध तथा सदा+अवृध। अदिति वह ज्ञान है जो सदा रहता है, उसमें दो पक्ष नहीं हो सकते। सदावृध वह ज्ञान है जो सदा बढता रहता है, बदलता रहता है, आज यह और कल वह, बढेगा तो बदलकर ही बढेगा। यह वह ज्ञान है जिसे हम आज की भाषा में "विज्ञान" कहते हैं। "सदा अवृध" वह यह ज्ञान है जिसे हम पहले "अदिति" कह आए हैं- सत्य ज्ञान, अखण्डित- ज्ञान, एक-ज्ञान न बदलने वाला ज्ञान या जिसे हम "ईश्वरीय ज्ञान" कह सकते हैं।
भौतिक ज्ञान सदा बढता रहता है, सदावृध रहता है, इसका गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा आदान-प्रदान हो सकता है या मनुष्य द्वारा आविष्कार हो सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान सदा एक रहता है अदिति या "अद्वय" है, दो नहीं एक है, सदा-सनातन है, इसका आविष्कार नहीं हो सकता, यह सदा दिया जाता है। संसार में सदा एक रहने वाली अगर कोई वस्तु है तो वह "सत्य" है, "सत्य-ज्ञान" है। सत्य सदा एक रहता है, अखण्डित रहता है, वेद के शब्दों में कहें तो सत्य सदा अद्वय है, अदिति है। यह नहीं हो सकता कि किसी बात के लिए हम कहें कि यह भी ठीक है, और उसकी विरोधी बात भी ठीक है। उदाहरणार्थ हिन्दू हो, ईसाई हो, मुसलमान हो, यहूदी हो, पारसी हो- सभी कहेंगे कि सत्य बोलना चाहिए, कोई नहीं कहेगा कि सच भी बोल सकते हैं और झूठ भी बोल सकते हैं। सब कहेंगे कि प्रेम करना चाहिए, कोई नहीं कहेगा कि प्रेम भी करो और द्वेष भी करो, सब कहेंगे परोपकार करना उचित है, कोई नहीं कहेगा कि परोपकार भी करो, पर अपकार भी करो। कई ऐसे आधारभूत तत्व हैं जो अद्वय हैं अर्थात् उनमें दो पक्ष हो नहीं सकते- ऐसा सब कोई कहते हैं।
अगर अदिति का अभिप्राय अद्वय है, तो वेद ने इसी को उक्त मन्त्र में सदावृध या सदा बढने वाला वर्धमान क्यों कहा? वर्धमान तो वह तत्त्व है जो सदा बढता रहता है। छोटे से बड़ा और बड़े से बहुत बड़ा हो जाता या हो सकता है। आज जैसा है, कल वैसा नहीं है, अर्थात् पहले जैसा नहीं है।
यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में "विद्या" तथा "अविद्या" का वर्णन आता है। वहॉं कहा गया है:
अन्यदाहु: विद्या अन्यदाहु: अविद्या।
इति शुश्रुम घीराणां येनस्तद् व्याचचक्षिरे।।
विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।
इन मन्त्रों का अभिप्राय यह है कि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं और विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। कितनी बेतुकी बात लगती है यह। यदि अविद्या से मृत्यु को तर जाते हैं तब तो सबका लक्ष्य अविद्या होना चाहिए। परन्तु नहीं, वेद में तथा उपनिषद् में विद्या तथा अविद्या का अर्थ क्रमश: ज्ञान तथा अज्ञान नहीं है। वैदिक परिभाषाओं तथा लौकिक परिभाषाओं में जमीन आसमान का भेद है। वेदों तथा उपनिषदों में भौतिकवाद को अविद्या कहा गया है, अध्यात्मवाद को विद्या कहा गया है। यह स्पष्ट है कि भौतिक औषधियों के सेवन से रोग की मुक्ति होती है, दीर्घ जीवन हो सकता है, मृत्यु से लड़ा जा सकता है। इसी कारण तो कहा- अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा- अविद्या से भौतिकवाद से, मृत्यु को तो तरा जा सकता है। परन्तु विद्यया-अमृतमश्नुते- अमृत की प्राप्ति "विद्या" से ही होती है। यहॉं विद्या का अर्थ पढने-पढाने की विद्या से नहीं, आत्मज्ञान की विद्या, अध्यात्मवाद की विद्या है।
हमारा ज्ञान, ज्ञान तभी कहला सकता है जब वह वर्धमान हो, आगे-आगे बढे, उन्नति करे। आज का वैज्ञानिक-जगत इसलिए श्रेयकर माना जाता है क्योंकि आज जो बात ठीक मानी जाती है, कल रिसर्च या परीक्षण या खोज करते-करते गलत मालूम पड़ने पर छोड़ दी जाती है। अगर विज्ञान किसी जगह आकर खड़ा हो जाए, रुक जाए, तो वह फेंक देने लायक होगा। परन्तु यह बात भौतिक-विज्ञान पर ही लागू होती है, आध्यात्मिक विज्ञान पर नहीं। अध्यात्म सदा "अद्वय" तथा "वर्धमान" होता हुआ भी "अवर्धमान" (सदा+अवृध) होता है। हिंसा से शुरू कर मनुष्य "अहिंसा" पर जाकर रुकता है, असत्य से शुरू कर सत्य की खोज में भटकता है, चोरी-डाके-स्तेय से चलता-चलता अस्तेय को लक्ष्य बनाता है, अब्रह्मचर्य तथा पर-दारा-गमन से गुजरता सदाचार तथा ब्रह्मचर्य को ही जीवन का लक्ष्य बनाता है, छीना-झपटी से जीवन शुरू कर "अपरिग्रह" को ही सामाजिक-जीवन लक्ष्य बनाता है। भौतिक तत्व जब तक वर्धमान तक सीमित रहते हैं, तब तक जीवन अपने लक्ष्य को न हीं पकड़ता, जब जीवन के वर्धमान तत्व "अवर्धमान" हो जाते हैं, वे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह तक पहुंच जाते हैं, तब मनुष्य "अद्वय", "अदिति", "अवर्धमान" को, जीवन के सनातन सत्य को पा लेता है। उसी अद्वय, अदिति, अखण्डित सत्य का वर्णन वेद में किया गया है।
वेदों में मुख्यतौर पर "वर्धमान" तत्वों का, भौतिकवाद का वर्णन नहीं है। क्योंकि ये तत्व भौतिकवाद का अङ्ग होने के कारण परिवर्तनशील हैं। वेदों में "अवर्धमान" तत्वों का, आध्यात्मिक तथ्यों का वर्णन है क्योंकि वे नित्य हैं, अपरिवर्ततनशील है क्योंकि वे नित्य हैं, अपरिवर्ततनशील हैं। ज्ञान जब बढेगा तो बढते-बढते उसकी भी सीमा कभी-न-कभी आयेगी। वृक्ष ऊँचा जाता है, परन्तु कहीं तो रुक जाता है। "वर्धमान" जब "अवर्धमान" हो जाता है, तब वही "अद्वय" हो जाता है, अदिति हो जाता है। भौतिकवाद जहॉं रुक जाता है वहॉं अध्यात्मवाद शुरु हो जाता है।
ज्ञान या तो वर्धमान होगा या अवर्धमान होगा। "वर्धमान" ज्ञान भौतिक है, समय-समय पर मनुष्य की खोज के आधार पर बदलता रहता है इसलिए बढता भी रहता है। "अवर्धमान" ज्ञान आध्यात्मिक है, नित्य है, सनातन, एक है, अद्वय है, अदिति है, बदलता नहीं है। क्योंकि वेद का ज्ञान मनुष्य की खोज नहीं है, ईश्वरीय देन है, इसलिए उसे वेद ने "अद्वय" तथा अदिति कहा है। परन्तु ज्ञान का स्रोत मनुष्य तथा ईश्वर दोनों हैं- इसलिए ज्ञान को वेद ने सदावृध भी कहा है। सदावृध शब्द के यहॉं दो अर्थ किए गए हैं। सदावृध संस्कृत भाषा का विलक्षण शब्द है जिसमें ज्ञान के मानुषीय तथा ईश्वरीय दोनों पक्ष आ जाते हैं। "सदा+वृध" मानुषीय ज्ञान है, "सदा+अवृध", ईश्वरीय या वेद ज्ञान है।
जबकि हम कहते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, तब हमारा अभिप्राय क्या होता है? क्या यह अभिप्राय होता है कि वेद में फिजिक्स, कैमेस्ट्री आदि सब कुछ है। क्या रेल, हवाई जहाज, तार, टेलीफोन आदि बनाना सब सत्य विद्यायें वेद में हैं? अगर वेद में फिजिक्स, कैमिस्ट्री, रेल, तार, हवाई जहाज आदि सब कुछ है तो भगवान ने मनुष्य को अपने मस्तिष्क से सोचने समझने, खोजने के लिए क्या कुछ भी नहीं छोड़ा? हमें इस बात का भी उत्तर देना होगा कि सब भौतिक आविष्कार उन लोगों ने कैसे किये जो वेद का एक अक्षर भी नहीं जानते थे। वास्तविक स्थिति यह है कि वेदों में भौतिक-विद्याओं का बीज तो है परन्तु उसे पुष्पित तथा फलित या क्रियात्मक रूप देने के लिए उपवेदों की रचना की गई। उपवेदों का निर्माण इसलिए हुआ ताकि वेदों में जिन भौतिक विद्याओं का बीज था, परन्तु उसकी प्रधानता न थी, उपवेदों द्वारा उनका विशदीकरण किया जाये।
वेद में जो भी वैज्ञानिक बात कही गई है, वह उदाहरण या उपमा के रूप कही गई है। मुख्य रूप में नहीं कही गई है। उदाहरणार्थ यजुर्वेद के 23 वें अध्याय में यज्ञ का वर्णन करते हुए कहा है- पृच्छामि त्वां परमन्त: पृथिव्या: -मैं पूछता हूँ पृथ्वी का परम छोर क्या है? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है "इयं वेदि: परो अन्त: पृथिव्या:"- यह वेदी जहॉं हम यज्ञ कर रहे हैं, पृथ्वी का परला सिरा है। इसका अर्थ हुआ कि पृथ्वी गोल है जिसे सिद्ध करने के लिए गैलिलियो को जेल जाना पड़ा था। प्रत्येक गोल वस्तु का आदि तथा अन्त एक ही स्थल होता है, परन्तु यह कथन भूगोल या भूगर्भ के रूप में नहीं कहा गया, यज्ञ के विषय में उदाहरण के रूप में कहा गया है। हमारा कथन है कि वैज्ञानिक या भौतिक तथ्यों को परमात्मा की तरफ से बतलाए जाने की जरूरत नहीं, उनका आविष्कार करने के लिए भगवान् ने मनुष्य की बुद्धि दी है। आध्यात्मिक तथ्यों को ही वेद द्वारा दिया गया है। अध्यात्म-विद्या ही सत्य विद्या है, वही अद्वय है, वही अदिति है, वही अवर्धमान है, वही विद्या है। भौतिक-विद्या को वेद ने "सदावृद्ध"- सदा बढने वाली विद्या कहते हुए भी "अविद्या" कहा है। भौतिक-विद्या को अविद्या कहते हुए भी जीवन के लिए उपयोगी होने के कारण उसे भी वेद ने सम्मान का स्थान देते हुए कहा है- "अविद्यया मृत्युं तीत्वा"- अविद्या से मृत्यु को तो तरा ही जा सकता है, परन्तु अमरत्व तो अध्यात्म से ही प्राप्त होता है।
तो क्या वेद में विज्ञान नहीं है? हमारा उत्तर है- वेद में विज्ञान है, और अवश्य है परन्तु ऐसा विज्ञान जो नित्य है, अखण्ड है, जो सदा-अवृध है, जो बदलता नहीं है। जो विज्ञान बदलता रहता है, वह वेद की परिभाषा में अविद्या है, सदावृध- सदा-वर्धमान है। सदावृध- सदा वर्धमान ज्ञान मनुष्य के हाथ में है, "सदा-अवृध" - सदा एक रहने वाला ज्ञान वेद द्वारा भगवान् मानव को देता है। -प्रो. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार
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In this mantra, the words "Adavya" and "Sadavridha" are used for "Aditi". "Advay" means no two. It has two meanings by "Padavadh". Sadavriha, which continues to grow, continues to grow, growing from one to two, two to three, three to four. Its second meaning is to always be the one who always remains one, not one to two, two to three, always in a form.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...