विद्यालय की चारदिवारी के अन्दर मानव जाति का भाग्य गढ़ा जाता है - प्राचीनकाल से ही विद्यालय समाज का प्रभावशाली मार्गदर्शक तथा प्रकाश का केन्द्र रहा है। विद्यालय विद्या के मन्दिर होते हैं। विद्यालय सीधे परमात्मा से प्रकाश ग्रहण करके बच्चों के माध्यम से अभिभावकों तथा समाज तक अपना प्रकाश फैलाते थे। परमात्मा से सीधे जुड़े नालन्दा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय तथा गुरुकुलों के ज्ञान का प्रकाश सारे समाज को आलोकित करता आया है। इस कारण से प्राचीनकाल में हर राजा तथा शासक से ऊपर गुरु अर्थात् शिक्षक का सम्मानपूर्ण स्थान था। भारत का स्थान सारे विश्व में "जगत गुरु' का था।
परम पिता परमात्मा सम्पूर्ण ज्ञान का स्रोत है- कालान्तर में विद्यालय ने धीरे-धीरे परमात्मा से ही सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। यह ऐसे ही है जैसे कोई बल्ब पॉवर हाउस से अलग हो जाये तो उसमें प्रकाश नहीं आ सकता। ठीक उसी प्रकार यदि विद्यालय तथा उसके व्यवस्थापकगण एवं शिक्षकगण का सम्बन्ध परमात्मा से विच्छेद हो जाये, तो विद्यालय भी प्रकाशविहीन हो जायेगा और जो विद्यालय स्वयं प्रकाशविहीन हो, वह कैसे बच्चों तथा उनके माध्यम से अभिभावकों तथा समाज को प्रकाशित करेगा ?
Ved Katha 1 part 2 (Greatness of Vedas & India) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
विद्यालय समाज का मार्गदर्शक बने- विद्यालय की डगर की दिशा परमात्मा की ओर जाती है। यदि विद्यालय दिशाविहीन होगा तो वह बालक को अधूरा ज्ञान देकर दिशाविहीन बना देगा। आगे बालक के माध्यम से यह अज्ञान का अन्धेरा परिवार तथा सारे समाज को दिशाविहीन बना देगा। जिस अनुपात में विद्यालय अपना वास्तविक स्वरूप भूलकर तथा प्रकाशविहीन बनकर केवल अपना भौतिक लाभ (व्यवसाय) बढ़ायेगा, उसी अनुपात में समाज का विनाश होता चला जायेगा।
प्रभुमार्ग से विचलित शिक्षा के कारण समाज का अहित- बालक पैदा होते ही परिवार के सम्पर्क में आता है। परिवार समाज का लघु स्वरूप है। परिवार का व्यापक स्वरूप ही समाज कहलाता है। अभी तक तो समाज के तीन मार्गदर्शक (1) विद्यालय (2) विभिन्न धर्मों के सम्माननीय धर्म गुरु तथा (3) समाज की व्यवस्था बनाने वाले माननीय राजनेता के रूप में रहे हैं। अब समाज के चौथे मार्गदर्शक की पहुँच घर-घर में टी.वी./सिनेमा के रूप में हो गयी है। समाज के ये चार मार्गदर्शक ही बालक के जीवन को "अच्छा या बुरा' बनाने के लिए उत्तरदायी हैं।
अपने मन का दीया तो जलाओ- बालक को जीने की राह दिखाने वाले विद्यालय दिग्भ्रमित एवं दिशाहीन हो गए हैं। इस भटकन के चलते आज विद्यालय अपनी राह से बहुत दूर जा चुका है। सीधी राह से भटकाव भरी अन्धेरी गलियों में उसे कहीं मंजिल नजर नहीं आ रही है। जिसे स्वयं मंजिल का पता नहीं, वह दूसरों को मंजिल पर पहुंचने की सही राह दिखाने में कैसे सहायता करेगा? जिन्दगी की राह दिखाने वाले! जरा ठहरकर अपने ज्ञान का बुझा हुआ दीया तो जला ले।
मॉं की गोद से बालक सीधे शिक्षक की कक्षा में जाता है- बालक के माता-पिता अपने जिगर के टुकड़ों को कितनी आशा तथा विश्वास के साथ हम स्कूल वालों के पास ज्ञान-प्राप्ति तथा जीवन जीने की कला सीखने के लिये भेजते हैं। अज्ञानता के कारण समाज की दुर्दशा देखकर जो आत्मग्लानि होती है, उस पीड़ा का वर्णन करने में लेखनी असमर्थ है। समाज के चारित्रिक तथा नैतिक पतन के लिए शिक्षक पूरी तरह से दोषी हैं।
स्कूल अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता- हर बालक संसार में परमात्मा के इस दिव्य सन्देश को लेकर आता है कि अभी परमात्मा मनुष्य से निराश नहीं हुआ है। बालक की तीन पाठशालायें प्रथम परिवार, दूसरा समाज तथा तीसरा स्कूल हैं। विद्यालय समाज के प्रकाश का केन्द्र होता है। इसलिए परिवार तथा समाज को मार्गदर्शन देना उसके हिस्से में आता है। स्कूल को विकृत हो चुके परिवार तथा समाज से प्रभावित नहीं होना चाहिए वरन् ईश्वरीय प्रकाश देकर विकृत हो चुके परिवार तथा समाज को निरन्तर प्रकाशित करते रहना चाहिए। परिवार तथा समाज बच्चों के जीवन निर्माण के प्रति अपने उत्तरादियत्व से विमुक्त भी हो जो जाए, लेकिन स्कूल बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता। प्रायः स्कूल वाले तथा शिक्षक यह कहते पाये जाते हैं कि समाज में आज जो हो रहा है उसके लिए हम क्या कर सकते हैं ?
शिक्षा उद्देश्यपूर्ण हो- सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित मनुष्य की ओर से की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में सर्वाधिक महान सेवा है- (अ) बच्चों की शिक्षा (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न करना। अब ऐसे विद्यालयों की आवश्यकता है जो एक साथ (1) भौतिक (2) सामाजिक तथा (3) आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शिक्षा बालक को देकर उसे सन्तुलित नागरिक बना सकें ।
"जागते रहो' की प्रेरणा- शिक्षक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं वरन् वह समाज का निर्माता है। बालक का भाग्य विधाता है। शिक्षक बालक के जीवन निर्माण का उत्तरदायित्व पूरे मनोयोग तथा एकाग्रता से निभा सके, उसका वातावरण उपलब्ध कराना समाज की जिम्मेदारी है। एक समय ऐसा आता है जब स्कूल को सामाजिक बदलाव लाने की भूमिका निभानी पड़ती है। स्कूल को स्वयं निरन्तर जागते रहकर समाज को "जागते रहो' की प्रेरणा देते रहना होगा।
परिणाम-पत्रक केवल भौतिक ज्ञान का आइना है- परीक्षा का परिणाम (रिजल्ट) बालक द्वारा अर्जित भौतिक ज्ञान को नापता है। लेकिन यह बालक के सम्पूर्ण जीवन की सफलता की गारण्टी नहीं देता है। पढ़ाई-लिखाई में तेज होने का महत्व तब है, जब जीवन में परमात्मा के प्रेम की मिठास भी घुली हो। यदि स्कूल भी बालक को केवल भौतिक ज्ञान देकर रोटी कमाने की उत्पादन क्षमता बढ़ाने अर्थात् विभिन्न विषयों में अच्छे अंक अर्जित करके परीक्षा उत्तीर्ण करने की शिक्षा तक ही अपने को सीमित कर लें तो यह मानव जाति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। ऐसी विकृत सोच भावी पीढ़ी के जीवन को असन्तुलित तथा अन्धकारमय बनाने का मुख्य कारण है।
समाज के प्रकाश का केन्द्र- एक आधुनिक स्कूल को समाज के प्रकाश का केन्द्र बनने, शिक्षकों को नौतिकता के प्रेषक, चरित्र के निर्माता तथा उदार संस्कृति के संरक्षक की अपनी पारम्परिक भूमिका बालक को उसके चुने हुए क्षेत्र में सफल बनाने के लिए निभानी पड़ेगी ।
बालक के तीन विद्यालय- परिवार में मॉं की कोख, गोद तथा घर का आंगन बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार में सबसे पहले बालक को ज्ञान देने का उत्तरदायित्व माता-पिता का है। माता-पिता बच्चों को उनकी बाल्यावस्था में शिक्षित करके उन्हें अच्छे तथा बुरे का ज्ञान कराते हैं। बालक परिवार में आँखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है, वैसी ही उसके अवचेतन मन में धारणा बनती जाती है। बालक की वैसी सोच तथा चिन्तन बनता जाता है। बालक की सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। पारिवारिक कलह, माता-पिता का आपस का व्यवहार, माता-पिता में आपसी दूरियॉं, अच्छा व्यवहार, बुरा व्यवहार आदि जैसा बालक देखता है, वैसे उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हैं।
परिवार से युगानुकूल ज्ञान देने की आशा नहीं दिखाई देती- आज प्रायः यह देखा जा रहा है कि माता-पिता अत्यधिक व्यवस्तता तथा पुरानी विचारधारा से जुड़े होने की विवशता के कारण बालक को आज के विश्वव्यापी स्वरूप धारण कर चुके समाज के अनुकूल आगे का ज्ञान देने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं। आज के परिवार धर्म के अज्ञानता तथा संकुचित राष्ट्रीयता से बुरी तरह लिपटे हैं। ऐसी परिस्थितियों में बालक को युगानुकूल ज्ञान देने की आशा परिवार से नहीं की जा सकती।
भौतिकता एकांगी विकास है- यदि बालक घर में मिलजुल कर प्रार्थना करने का माहौल देखता है तो उसी प्रकार का ईश्वरभक्त वह बन जाता है। आज अधिकांस परिवारों में बालक मात्र भौतिक ज्ञान लेकर ही विकसित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में मात्र भौतिक सुख का लक्ष्य ही जीवन का मूल उद्देश्य बन जाता है। यह मानव जीवन का एकांगी विकास है। ऐसे बालक किशोर तथा युवा बनकर एक ही चीज सोचते हैं कि भौतिक लाभ तथा भौतिक सुख की पूर्ति कैसे हो? वह भौतिकता को सब कुछ मान लेता है। तब कोई भी उसे आसामी से बरगलाकर भौतिक लाभ तथा धार्मिक विद्वेष के लिए प्रेरित कर सकता है। ऐसा भटका हुआ युवा कोई भी बुरा काम छिपकर तथा दूसरे को हिंसा के द्वारा नुकसान पहुँचाकर कर सकता है। यदि ऐसे बालक की संगत बुरे लोगोें से हो जाये तो उसे आसानी से गलत मार्ग पर जाने की प्रेरणा मिल जाती है।
धर्म का आदि स्रोत परमात्मा- धर्म के प्रति अज्ञानता के कारण समाज के धर्मगुरु धर्म को अलग-अलग बताने में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहे हैं। इन धर्मगुरुओं के सत्संग में बड़ी उम्र के लोगों की संख्या अधिक होती है। अच्चे विचार देने तथा उसे ग्रहण करने की सबसे श्रेष्ठ अवस्था बचपन की होती है। बड़ी उम्र में स्थायी स्वरूप धारण कर चुके संस्कारों को बदलने की उम्मीद न के बराबर होती है। अलग-अलग धर्मगुरुओं के कारण लोगों में यह अज्ञान फैल गया है कि जैसे परमात्मा का एक धर्म नहीं वरन् अलग-अलग अनेक धर्म हैं।
धार्मिक विद्वेष की दुःखदायी स्थिति- धार्मिक कट्टरता के चलते एक धर्मसमूह दूसरे धर्मसमूह के पूजास्थलों को तोड़ने, एक-दूसरे को जलाने तथा जान से मारने की सारी हदें पार कर जाते हैं। धर्म के प्रति अज्ञानता से दंगे भड़कते हैं। धार्मिक विद्वेष के बीज दंगाई के अवचेतन मन में बचपन में ही बोए गए होते हैं। आगे चलकर इससे जो हरीभरी फसल तैयार होती है, उसकी सोच यह होती है कि जो अपने मजहब का नहीं है उसे मारने में कोई हानि नहीं है। जब तक मनुष्य धर्म की गहराई में जाकर आध्यात्मिकता का सच्चा ज्ञान तथा ईश्वरीय गुणों को अपने अन्दर विकसित करने का प्रयास नहीं करता है तब वह धर्म के सतही मायने को लेकर एक-दूसरे को दुःख तथा हानि पहुँचाने के लिए धर्म का सहारा लेता है। धार्मिक विद्वेष की यह स्थिति पूरे समाज के लिए दुःखदायी बन जाती है।
अधिकांशतः विभिन्न मतों के सन्त-महात्मा तथा धर्म संस्था के संचालकों को धर्म का स्वयं ही सही ज्ञान नहीं होता है। अज्ञानतावश उनके माध्यम से धार्मिक कटुता, कट्टरवाद और धार्मिक विद्वेष की भावना समाज में पैदा हो जाती है। यह धार्मिक टकराव आगे चलकर धार्मिक आतंकवाद के रूप में सारे संसार में फैलता जा रहा है। आज के समय में विभिन्न मतों के सन्त-महात्मा तथा धर्म संस्था के संचालकों में से कोई भी बेपढ़ा-लिखा नहीं है। ये सभी काफी पढ़े-लिखे होते हैं। सच्चाई यह है कि सन्त-महात्मा तथा धर्म संस्था के संचालकों के संस्कारों में भी वही बातें आ जाती हैं जो परिवार, समाज तथा विद्यालय से बचपन में उन्हें मिले होते हैं। अर्थात् बचपन में जैसी व्यापक अथवा संकुचित शिक्षा उन्हें परिवार, समाज तथा विद्यालय से मिली होती है उनकी सोच भी वैसी ही ढल जाती है। ये अज्ञानी सन्त-महात्मा तथा धर्म संस्था के संचालक अपने धर्मभीरू तथा भोले-भाले अनुयायियों को भी उसी धार्मिक अल्पज्ञान से भरी विचारधारा में ढालने का प्रयास करते हैं। इस धार्मिक अज्ञानता के कारण ही आज संसार में अव्यवस्था, मारामारी तथा आतंकवाद तेजी से सारे विश्व में फैलता जा रहा है।
विश्व का राजनैतिक शरीर बुरी तरह से बीमार- संसार के राजनेता भी राजनीति के द्वारा समाज सेवा के मूल उद्देश्य को भुलाकर सम्प्रदाय तथा जाति के नाम पर सत्ता हथियाने की होड़ में बुरी तरह से लिप्त हो गये हैं। विश्व के राजनैतिज्ञों की मनमानी से दो विश्व युद्ध लड़े जा चुके हैं। विश्व के विभिन्न देशों ने 36 हजार परमाणु बमों का जखीरा एकत्रित कर रखा है। तृतीय विश्व युद्ध की अघोषित तैयारी जमकर चल रही है। विश्व के राजनीतिज्ञों का ज्यादा गुणगान करने का कोई विशेष लाभ दिखाई नहीं देता। क्योंकि धर्मगुरुओं की तरह ही ये भी बचपन में परिवार, समाज तथा स्कूल में मिली अच्छी तथा बुरी शिक्षा के शिकार हैं।
टी.वी./सिनेमा का बच्चों पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव- समाज का सबसे तेज तथा आधुनिक मार्गदर्शक रंगीन टी.वी./सिनेमा को माता-पिता ने घर-घर में लाकर अपने बालक के लिये स्वयं नियुक्त कर दिया है। टी.वी. सीरियलों तथा सिनेमा का बच्चों की एकाग्रता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सिनेमा वाली सारी गन्दगी परोसकर मनुष्य के मस्तिष्क को प्रदूषित कर रहे हैं। हिंसा तथा सेक्स से भरी फिल्में सबसे अधिक बच्चों के कोमल मन को गन्दा कर रही है। भावी एवं युवा पीढ़ी में लालच, क्रूरता, बलात्कार, लूटपाट, रैगिंग का उत्पात, आत्महत्या, हत्या आदि के बढ़ने का मुख्य कारण गन्दी फिल्में ही हैं। बच्चे आजकल ऑडियो-विजुअल तरीके से जल्दी सीखते हैं। अच्छी फिल्मों का अधिक से अधिक निर्माण करके भावी एवं युवा पीढ़ी के जीवन को बरबाद होने से बचाया जा सकता है।
परिवार तथा समाज की विकृति- संसार में आज कोई स्कूल, धर्मगुरु, राजनेता तथा टी.वी./सिनेमा के कार्यक्रम ऐसे नहीं दिखाई देते, जो बच्चों को यह ज्ञान दें कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है। हम सब एक पिता के बच्चे हैं तथा हमारी एक धरती माता है। जिसे ईश्वरभक्ति की शिक्षा नहीं मिलती, वह परमात्मा तथा उसकी सृष्टि का विरोधी बनता है। इसी सोच के चलते घर-घर में तथा समाज में राजनेता हम एक-दूसरे को आतंकित कर रहे हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को बम बनाकर आतंकित कर रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परिवार तथा समाज पूरी तरह विकृत हो चुके हैं। उनसे सार्थक बदलाव की आशा करना व्यर्थ ही है। समाज में बदलाव की एकमात्र आशा विद्यालय पर आकर टिकती है।
बालक कोरे कागज के समान- अब प्रश्न है कि परिवार तथा समाज की विकृतियों को दूर करके कैसे सम्भाला जाये? दोनों जगह बालक को भौतिक ज्ञान तो बहुत मिल रहा है, लेकिन सामाजिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान बहुत कम है। बालक कोरे कागज की तरह है। इस पर जो इबादत लिख देंगे वह हमेशा के लिए लिख जायेगी।
स्वार्थ साधना की आन्धी- घोर भौतिकता की भी डिग्रियॉं होती हैं। स्वार्थ से इसकी शुरुआत होती है। स्वार्थ के चलते मनुष्य आगे चलकर आत्म केन्द्रित बन जाता है। आगे स्वार्थ पर अंकुश न होने पर वह अपराध का स्वरूप धारण कर लेता है। भौतिकता की सबसे ऊँची तथा अन्तिम डिग्री आतंकवादी तथा आत्मघाती के रूप में देखने को मिलती है। आतंकवादी स्वार्थ का ही अन्तिम फल है।
जो जैसा सोचता है वैसा बन जाता है- बालक सामाजिक गतिविधियों से आरम्भ से ही प्रभावित होना शुरु हो जाता है। बालक जब शुरु से ही समाज में जाति-धर्म के नाम पर कटुता तथा मारामारी देखता है, तो उसका बाल मन अशान्त होना प्रारम्भ हो जाता है। मोहल्ले में तनाव, दूरियॉं, अन्य बालकों के साथ खेलने-कूदने की मनाही, चुनाव के समय राजनैतिक विद्वेष, घर में लगे टेलीविजन में मारकाट तथा खून-खराबे से भरे कार्यक्रम भी बाल-मन को विचलित तथा विकृत कर देते हैं।
अब समाज को प्रकाश देने की एकमात्र आशा विद्यालय के रूप में बची है। बालक को अच्छा या बुरा, ज्ञानी और अज्ञानी बनाने में विद्यालय का वातावरण, शिक्षकों एवं विद्यालय की अच्छी और बुरी शिक्षायें उत्तरदायी हैं। वैसे तो विद्यालय में भी अधिकांश शिक्षक समाज में अज्ञान फैलाने का कारण बने हुए हैं। यदि आप यह जानना चाहते हैं कि कल का समाज कैसा होगा, तो इसके लिये आप किसी स्कूल के "स्टाफ रूम' में होने वाली बातचीत को सुनें, तो आपको इस प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा। "स्टाफ रूम' में टीचर्स की बातचीत तथा सोच में केवल यह चर्चा होती है कि बच्चे को कौन-कौन से उत्तर रटा दिये जायें, जिससे वे किसी तरह अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हो जायें। कक्षा में पढ़ाने में अरुचि तथा अधिक से अधिक ट्यूशन पढ़ाने में रूचि आदि बातें सबसे बड़ी प्राथमिकता के रूप में होती हैं। बालक को कैसे नेक हृदय का बनाना है, इस बात की तो कल्पना भी अधिकांश शिक्षकों के मस्तिष्क में नहीं पायी जाती है।
बालक के जीवन में सबसे बड़ा योगदान विद्यालय का होता है- वैसे तो तीनों स्कूलोें (1) परिवार (2) समाज तथा (3) विद्यालय के अच्छे-बुरे वातावरण का प्रभाव बालक के कोमल मन पर पड़ता है। लेकिन इन तीनों में सबसे ज्यादा प्रभाव बालक के जीवन निर्माण में विद्यालय का पड़ता है। बालक बाल्यावस्था में सर्वाधिक सक्रिय समय स्कूल में देता हैतथा बालक विद्यालय में ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लेकर ही आता है।
जो मन, वचन तथा कर्म से पवित्र है वह चरित्रवान ही महान है- यदि किसी स्कूल में भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों गुणों से ओतप्रोत एक भी शिक्षक आ जाये, तो वह स्कूल के वातावरण को बदल सकता है और बालकों के जीवन में प्रकाश भर सकता है। वह शिक्षक बच्चों को इतना पवित्र, महान तथा चरित्रवान बना सकता है कि ये बच्चे अपने मॉं-बाप को भी बदलकर समाज की बुराई से उन्हें बचा सकते हैं। विद्यालय मेें समाज के मार्गदर्शकों के बच्चे भी पढ़ने आते हैं। कोई भी मॉं-बाप अपने बच्चों का विश्वास खोकर जीना नहीं चाहते हैं। साथ ही ऐसे बालक स्वयं भी अच्छे नागरिक बनकर सुन्दर समाज के निर्माण की प्रेरणा दे सकते हैं। इस प्रकार विद्यालय परिवार को सुन्दर बना सकता है और समाज को भी अच्छा बनने की प्रेरणा दे सकता है।
हम स्कूल वाले बालक को आत्मज्ञान देना ही भूल गये- आज के विद्यालय, माता-पिता, विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के सन्त, राजनेता और सिनेमा निर्माताओं के कारण समाज में दिन-प्रतिदिन अज्ञानता बढ़ती जाने से हाहाकार मचा हुआ है। काश! समाज के मार्गदर्शकों को जब ये बचपन में किसी स्कूल में पढ़ने अबोध बालक के रूप में आये थे, तब हम स्कूल वालों ने इन्हें एक शिक्षक के रूप में एक साथ (1) भौतिक (2) सामाजिक तथा (3) आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शिक्षा देकर सम्पूर्ण गुणात्मक व्यक्ति बना दिया होता, तो आज मानव जाति वसुधैव कुटुम्बकम् (अर्थात् सारी वसुधा एक कुटुम्ब के समान है) के अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर चुकी होती। - जगदीश गान्धी
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From the lap of mother, the child goes directly to the teacher's class - with the hope and belief that the parents of the child send their pieces of liver to the school children to learn and learn the art of living. Writings are unable to describe the suffering that occurs due to ignorance, seeing the plight of the society. Teachers are completely to blame for the social and moral degradation of the society.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...