लेखक- आचार्य डॉ.संजय देव
आर्यसमाज की स्थापना सन् 1875 ई. में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की थी। आर्यसमाज ने आरम्भ से आज तक 138 वर्षो के दीर्घकाल में मानव सेवा, गौ आदि प्राणीमात्र की सेवा, वेद धर्म प्रचार, शिक्षा, वर्णाश्रम धर्म का उद्धार, भारतीय स्वाधीनता संग्राम, सामाजिक-धार्मिक सुधार
जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। आर्यसमाज का परिचय प्राप्त करने के लिए एक ओर तो आर्यसमाज के नियमों से परिचित होना चाहिए, दूसरे जिन सिद्धातों, जिन मान्यताओं का वर्णन स्वामी दयानन्द जी के साहित्य में मिलता है, उन्हें देखना चाहिए। क्रियात्मक रूप से आर्यसमाज ने जो कार्य किये हैं, उनसे भी उसका अच्छा परिचय मिल जाता है।
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है - 2
Ved Katha Pravachan -2 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
आर्य समाज के दस नियम हैं। इन नियमों में ईश्वर और वेद को मुख्य आधार बनाया गया है। नियम इतने सार्वजनिक हैं कि किसी भी मत-पथ का व्यक्ति उनको स्वीकार करने में दुविधा का बोध नहीं करेगा।
आर्य समाज का एक नियम है, संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। इससे अधिक उदार चिन्तन हो ही नहीं सकता। एक और नियम देखिये-प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। इसी प्रकार से सभी नियम अत्यन्त सार्वजनिक और मनुष्य मात्र को स्वीकारणीय है। एक और नियम देखिये- सत्य के ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिए। सारे नियमों की यह ही कहानी है। दस नियमों में दो नियम ईश्वर से सम्बन्धित हैं, एक नियम वेद को सब सत्य विद्याओं का स्रोत बताता है और शेष सात नियम मनुष्य मात्र की उन्नति, देश, जाति, मत, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर मानव मात्र के कल्याण की व्यवस्था करते हैं। मान्यताओं का पूर्ण ज्ञान तो नियमों को पढ़ने से ही होता है। महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने आर्यसमाज की स्थापना क्यों की? वे स्वयं कहते हैं, सर्वत्र सत्य का प्रचार कर सबको ऐक्य मत में करो, द्वेष छोड़ो। परस्पर में दृढ़ प्रीति युक्त करा के सबसे सबको लाभ पहुंचाने के लिए मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य- आर्यसमाज की स्थापना 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अन्तिम चरण 1875 ई. में हुई। यह भारतवर्ष के इतिहास में नव जागरण का काल है। जनता धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी सोयी हुई सी थी। सच्चाई तो यह है कि इस समय जातीय जीवन दिशाहीन ही नहीं, जिजीविषाहीन भी हो गया था । भारतीय जनता में विशेष रूप से हिन्दू जनता में सैकड़ों कुरीतियॉं घर कर गई थीं। विद्या का ह्रास हो गया था। अध्ययन-अध्यापन के प्रति लोगों में रुचि नहीं रह गई थी। वेद जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ जैसे धरती से ही उठ गए थे। पुरुष तो कुछ थोड़ा बहुत पढ़ते भी थे, स्त्रियॉं तो सर्वथा अनपढ़ थीं। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि उन्हें बलपूर्वक अनपढ़ रखा जाता था। विद्वान और धर्मभीरु लोग नारी-शिक्षा को धर्म विरुद्ध समझने लगे थे। यह गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी नारियों का देश है, यह समझना भी कठिन था। धर्म के नाम पर बड़े स्वार्थी व निकृष्ट विचारों का प्रचार होने लगा था। ऋषि- मुनियों के नाम पर स्वार्थी लोगों ने पुस्तकें छाप दी। सदाचार- सुविचार घटने लगे, वैदिक शिक्षा बन्द हुई, अंग्रेजी शिक्षा चल पड़ी। हमारी इस दुर्बल स्थिति का लाभ विधर्मी उठाने लगे। हिन्दू पराजित मनोवृत्ति का हो गया था। इसका लाभ ईसाई मुसलमान दोनों उठा रहे थे। हिन्दुओं के देवी-देवताओं की भर्त्सना की जा रही थी, उनके धर्म की, मान्यताओं की, पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई जा रही थी । हिन्दुओं में कोई साहस न था कि उनका उत्तर देते। आर्य समाज के प्रचार से हिन्दू जाति जाग उठी, हिन्दुओं में धर्म रक्षा के लिए संगठन और बलिदान के भाव जागने लगे। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने बड़े प्यार से लिखा है-
ऐ मेरे प्रिय आर्य समाज
घर में घुस आये थे चोर,
तुमने शोर मचाया घोर,
कुछ तो टूटा तंद्रिल ज्वर।
किसी कवि ने ठीक ही लिखा है-
सब कुछ छोड़ चुके थे धर्म-कर्म
गौरव गुमान ऋषि मुनियों का,
इन्हीं परिस्थितियों में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। और आर्यसमाज का एक नियम भी घोषित किया कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। इस नियम में दो बातें समाई हुई हैं। एक तो वेदों की महत्ता और दूसरी मानव मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार। मौलवी और पादरी स्वामी दयानन्द पर शास्त्रार्थ के लिए टूट पड़े। किन्तु इस योद्धा संन्यासी ने सैकड़ों शास्त्रार्थ किये, हजारों व्याख्यान दिये और वेदों की तथा हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की । राजा राम मोहन राय और महादेव गोविन्द रानाड़े, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे सुधारक सुरक्षा या बचाव के मोर्चे पर जुटे हुए थे।
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There is a rule of the Arya Samaj, benefiting the world is the main objective of this society, that is, physical, spiritual and social progress. There cannot be more generous thinking than this. Look at another rule - each one should not be content in his own progress, but everyone should understand his own progress. In the same way, all rules are very public and acceptable only to human beings.
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जनप्रतिनिधियों की असीमित सुविधाएं जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना जिनके लिए दे...