ऋषि दयानन्द जिस समय सन् 1860 में गुरु विरजानन्द जी के पास विद्याध्ययन के लिये पहुँचे, उस समय उनकी आयु 36 वर्ष की थी। 1863 में उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और उनके पास से अध्ययन समाप्त कर जीवन-क्षेत्र में उतर पड़े। इस समय वे 39-40 वर्ष के हो चुके थे। विरजानन्द जी के पास उन्होंने जो कुछ सीखा वही उनकी वास्तविक शिक्षा थी। क्योंकि इससे पहले वे जो कुछ पढ आये थे, उसे विरजानन्द जी ने भुला देने की उनसे प्रतिज्ञा ली थी। इस प्रकार ऋषि दयानन्द जी की यथार्थ शिक्षा 1960 से 1963 तक अर्थात् कुल तीन वर्ष हुई थी। उन्होंने पीछे चलकर अपने जीवनकाल में जितने व्याख्यान दिये, जितने ग्रन्थ लिखे, जितने शास्त्रार्थ किये, वह इन तीन वर्षों के अध्ययन का ही परिणाम था। इसी से स्पष्ट होता है कि इन तीन सालों में उन्होंने जो पाया था वह कितना मूल्यवान था।
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वेद सन्देश- विद्या एवं ज्ञान प्राप्ति के चार चरण
Ved Katha Pravachan _35 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
अपने गुरु विरजानन्द जी से ऋषि दयानन्द ने जो गुर पाया था वह आर्ष तथा अनार्ष ग्रन्थों में भेद करना था। 36 वर्ष की आयु से पहले उन्होंने जो कुछ पढा था वह अनार्ष ग्रन्थों का अध्ययन था। आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन ने उनके जीवन, उनके विचारों में जो क्रान्ति उत्पन्न कर दी उससे भारत के पिछले वर्षों का इतिहास बन गया।
इस क्रान्ति का मूल स्रोत सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थप्रकाश 1874 में लिखा गया। मुरादाबाद के राजा जयकृष्णदास जी काशी में डिप्टी कलेक्टर थे तब ऋषि दयानन्द काशी पधारे। राजा जयकृष्ण दास ने ऋषि से कहा कि आपके उपदेशामृत से वे ही व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं जो आपके व्याख्यान सुनते हैं। जिन्हें आपके व्याख्यान सुनने का अवसर नहीं मिलता उनके लिए अगर आप विचारों को ग्रन्थ रूप में लिख दें, तो जनता का बड़ा उपकार हो। ग्रन्थ के छपने का भार राजा जयकृष्णदास ने अपने ऊपर ले लिया। यह आश्चर्य की बात है कि यह बृहत्कार्य तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ, जिसे पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने 14 बार पढकर कहा कि हर बार के अध्ययन से उन्हें नया रत्न हाथ आता है, कुल साढे तीन महीनों में लिखा गया।
केवल साढे तीन मास में- सत्यार्थप्रकाश का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इसमें 377 ग्रन्थों का हवाला है। इस ग्रन्थ में 1542 वेद-मन्त्रों या श्लोकों के उद्धरण दिये गये हैं। चारों वेद, सब ब्राह्मण ग्रन्थ, सब उपनिषद्, छहों दर्शन, अट्ठारह स्मृति, सब पुराण, सूत्रग्रन्थ, जैन-बौद्ध ग्रन्थ, बायबल, कुरान इन सबके उद्धरण ही नहीं, उनके रेफरेंस भी दिये गये हैं। किस ग्रन्थ में कौन-सा मन्त्र या श्लोक या वाक्य कहॉं है, उसकी संख्या क्या है यह सब कुछ इस साढे तीन महीनों में लिखे ग्रन्थ में मिलता है। आज का कोई रिसर्च स्कालर अगर किसी विश्वविद्यालय की संस्कृत की अप-टु-डेट लायब्रेरी में, जहॉं सब ग्रन्थ उपलब्ध हों, इतने रेफरेंस वाला कोई ग्रन्थ लिखना चाहे तो भी उसे सालों लग जायें, जिसे ऋषि दयानन्द ने साढे तीन महीनों में तैयार कर दिया था। साधारण ग्रन्थ की बात दूसरी है। सत्यार्थप्रकाश एक मौलिक विचारों का ग्रन्थ है। ऐसा ग्रन्थ जिसने समाज को एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिला दिया। जिन ग्रन्थों ने संसार को झकझोरा है उनके निर्माण में सालों लगे हैं। कार्ल मार्क्स ने 34 वर्ष इंग्लैण्ड में बैठकर "कैपिटल" ग्रन्थ लिखा था जिसने विश्व में नवीन आर्थिक दृष्टिकोण को जन्म दिया। मार्क्स के ग्रन्थ ने यूरोप का आर्थिक ढॉंचा हिला दिया तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ ने भारत का सांस्कृतिक तथा सामाजिक ढॉंचा हिला दिया।
क्रान्तिकारी विचारों का खजाना- सत्यार्थप्रकाश चुने हुए क्रान्तिकारी विचारों का खजाना है। ऐसे विचारों का जिन्हें उस युग में कोई सोच भी नहीं सकता था। समाज की रचना जन्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए, सत्यार्थ-प्रकाश का यही एक विचार इतना क्रान्तिकारी है कि इसके व्यवहार में आने से हमारी 60 प्रतिशत समस्याएँ हल हो जाती हैं। ऐसे संगठन में जन्म से न कोई ऊँचा, न कोई नीचा, जन्म से न कोई गरीब, न कोई अमीर, जो कुछ हो कर्म हो। ऐसी स्थिति में कौन-सी समस्या है जो इस सूत्र से हल नहीं हो जाती।
शिक्षा क्षेत्र में गुरुकुल शिक्षा- प्रणाली का विचार सत्यार्थप्रकाश की ही देन है, जिसे पकड़ कर उत्तर भारत में जगह-जगह गुरुकुलों का जाल बिछ गया। आज भी हमारी शिक्षा-प्रणाली की जो छीछालेदार हो रही है, उसका इलाज गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में ही निहित है।
लोकमान्य तिलक ने कहा था-"स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" दादा भाई नौरोजी ने भी "स्वराज्य" शब्द का प्रयोग किया था। इन सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 8वें समुल्लास में लिखा था-"कोई कितना ही कहे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।" ऋषि दयानन्द के ये वाक्य उस जगत्-प्रसिद्ध अंग्रेजी वाक्य से जिसमें कहा गया था- “Good government is no substitute for self-government” से इतने मिलते-जुलते हैं कि 1874 में अंग्रेजों के राज्य में कोई व्यक्ति यह लिखने का साहस कर सकता था, यह जानकर आश्चर्य होता है।
आज जिन समस्याओं को लेकर हम उलझे हैं, हरिजनों की समस्या, स्त्रियों की समस्या, गरीबी की समस्या, शिक्षा की समस्या, राष्ट्र-भाषा की समस्या, चुनाव की समस्या, नियम तथा व्यवस्था की समस्या, गोरक्षा की समस्या आदि कौन सी समस्या है जिसका हल सत्यार्थप्रकाश में मौजूद नहीं है और कौन-सा ऐसा हल आज के राजनीतिज्ञों ने ढूँढ निकाला हे, जो सत्यार्थ प्रकाश में पहले से नहीं है।
वेदों के नाम पर- हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी समस्या वेदों की थी। यहॉं हर-कोई हर बात के लिए वेदों का नाम लेता था। स्त्रियों तथा शूद्रों को वेद पढने का अधिकार क्यों नहीं? क्योंकि वेदों में लिखा है- "स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्।" बाल-विवाह क्यों नहीं होना चाहिए? क्योंकि वेदों में लिखा है- "अष्टवर्षा भवेत् गौरी नववर्षा च रोहिणी। पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च, त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्टवा कन्यां रजस्वलाम्।" जन्म से वर्णव्यवस्था क्यों मानें? क्योंकि वेद में लिखा है- "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्" - ब्राह्मण परमात्मा के मुख और शूद्र उसके पॉंव से उत्पन्न हुए हैं। जैसे मुख बाहु और बाहु मुख नहीं बन सकता, इसी प्रकार ब्राह्मण शूद्र तथा शूद ब्राह्मण नहीं बन सकता। जब ऋषि दयानन्द ने यह देखा कि वेदों का नाम लेकर हर संस्कृत वाक्य को वेद कहा जा रहा है और वेदों का उद्धरण देकर वेद-मन्त्रों का अनर्थ किया जा रहा है, तब उन्होंने निश्चय कर लिया कि वेदों को ही केन्द्र बनाकर हिन्दू-समाज की रक्षा की जा सकती है और वह रक्षा तभी की जा सकती है, जब जन-साधारण की समझ में आ जाये कि वेदों में क्या कहा गया है।
वैदिक वाड्मय के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की खोज यह थी कि हर संस्कृत वाक्य तथा हर संस्कृत ग्रन्थ वेद नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, सूत्र-ग्रन्थ ये सब वेद नहीं हैं। इन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अगर वेद-विरुद्ध है तो वह त्याज्य है, जो वेदानुकूल है वही स्वीकार करने योग्य है। ऋषि दयानन्द का हिन्दू-समाज को कहना यह था कि अगर वेद को तुम अपनी संस्कृति का आधार मानते हो, तो इस पैमाने को लेकर चलना होगा। तुम जो चाहो वह वेद नहीं है, वेद जो है वह मानना होगा। इस कसौटी पर कसने से हिन्दू-समाज की 60 प्रतिशत रुढियॉं अपने आप गिर जाती हैं। इस विचारधारा को प्रकट करने के लिए उन्होंने दो शब्दों का प्रयोग किया-आर्ष ग्रन्थ तथा अनार्ष ग्रन्थ। अब तक संस्कृत साहित्य में इस दृष्टि को किसी ने नहीं अपनाया था। संस्कृत के हर ग्रन्थ में जो कुछ लिखा मिलता था वह प्रामाणिक मान लिया जाता था। ऋषि दयानन्द ने इस विचार को ध्वस्त कर दिया।
वेदों के शब्द रूढिज नहीं- वेदों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द की दूसरी खोज यह थी कि वेदों के शब्द रूढिज नहीं, यौगिक हैं। यद्यपि यह विचार नया नहीं था, निरुक्तकार का भी यही कहना था। तो भी वेदों के सभी भाष्यकारों ने वैदिक शब्दों के रूढि अर्थ ही किये थे। सायण, उव्वट, महीधर तथा उनके पीछे चलते हुए पाश्चात्य विद्वानों मैक्समूलर, राथ, विल्सन, ग्रासमैन ने मक्खी पर मक्खी मार अनुवाद किया था। सायण आदि एक तरफ वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे तो दूसरी तरफ उनमें इतिहास भी मानते थे, जो वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने के सिद्धान्त से टकराता था। इस बात की उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी। असल में सायण का भाष्य किसी गम्भीर विद्वत्ता से नहीं किया गया था, वह एक विशिष्ट लक्ष्य को सामने रखकर किया गया था। दक्षिण के विजयनगर हिन्दू-राज्य के राजा हरिहर और बुक्का के वे मन्त्री थे। मुस्लिम संस्कृति राज्य में प्रतिष्ठित न हो जाये, इसलिए संस्कृत वाड्मय का प्रसार करना मात्र इस भाष्य का उद्देश्य था। यही कारण था कि सायण या महीधर के भाष्य गहराई तक नहीं गये और असंगत बातों के शिकार रहे। वह यज्ञों का समय था। इसलिए भाष्यकार समझते थे कि वेदों के अग्नि, वायु, इन्द्र आदि देवता सचमुच स्वर्ग से यज्ञों में पधारते हैं और दान-दक्षिणा आदि लेकर तथा यजमान को आशीर्वाद देकर स्वर्ग चले जाते हैं। पाश्चात्य विद्वानो को यह बात अपनी विचारधारा के अनुकूल पड़ती थी। उनका विचार विकासवाद पर आश्रित था। आदि में मानव जंगली था। जंगली आदमी सूर्य को, अग्नि को और वायु को देवता समझकर पूजे तो यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वान कहने लगे कि वैदिक ऋषि क्योंकि जंगली थे इसलिए अनेक देवताओं को पूजते थे। इस निष्कर्ष में सायण आदि के भाष्य उनके विचारों की पुष्टि करते थे।
ऋषि दयानन्द ने इस विचार को भी ठोकर मार कर गिरा दिया। वेदों से ही उन्होंने सिद्ध किया कि अग्नि आदि नाम विभिन्न देवताओं के नहीं अपितु एक ही परमेश्वर के हैं। ऋग्वेद में लिखा है-एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहु। परमात्मा एक है, उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। इस एक मन्त्र से सारा का सारा विकासवाद कम-से-कम जहॉं तक वेदों का सम्बन्ध है, ढह जाता है।
तीन प्रकार के अर्थ- ऋषि दयानन्द का कहना था कि वैदिक शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक। उदाहरणार्थ- इन्द्र का आधिभौतिक अर्थ अग्नि, विद्युत, सूर्य आदि है, आधिदैविक अर्थ राजा, सेनापति, अध्यापक आदि दैवीय गुणवाले व्यक्ति हैं, आध्यात्मिक अर्थ जीवात्मा, परमात्मा आदि हैं। इसी प्रकार अन्य शब्दों के विषय में कहा जा सकता है। इस कसौटी को सामने रखकर अगर वेदों को समझा जाये, तो न उनमें इतिहास मिलता है, न बहुदेवतावाद मिलता है, न जंगलीपन मिलता है, न विकासवाद मिलता है।
वेदों के जितने भाष्यकार हुए हैं, इस देश के तथा विदेशों के उनमें सबसे ऊँचा स्थान ऋषि दयानन्द का है। अगर वेदों को किसी ने समझा तो ऋषि दयानन्द ने। अरविन्द घोष ने लिखा है-
“In the matter of Vedic interpretation Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ingnorance and agelong misunderstanding, his was the eye of direct vision, that pierced the truth and fastened on that which was essential.”
इस प्रकार इस युग के महायोगी श्री अरविन्द का कहना है कि जहॉं तक वेदों का प्रश्न है, दयानन्द सबसे पहला व्यक्ति था जिसने वेदों के अर्थों को समझने की असली कुञ्जी खोज निकाली। वेदों का अर्थ समक्षने के लिए सदियों से जिस अन्धकार में हम रास्ता टटोल रहे थे उसमें दयानन्द की दृष्टि ही इस अन्धकार को भेदकर यथार्थ सत्य पर जा पहुँचती थी।
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनेक समाज सुधारक हुए। ऋषि दयानन्द, राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन इसी युग की उपज थे। वे सब एक तरफ हिन्दू-समाज के पिछड़ेपन को देख रहे थे, दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की प्रगतिशीलता को देख रहे थे। यह सब देखकर वे हिन्दू-समाज को रूढियों की दासता से मुक्त करना चाहते थे। ऋषि दयानन्द तथा दूसरों की विचारधारा में भेद यह था कि जहॉं दूसरे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-संस्कृति तथा हिन्दुत्व को समाप्त करने पर तुल गये, वहॉं ऋषि दयानन्द ने हिन्दुओं को हिन्दु रखते हुए उन्हें नवीनता के नये रंग में रंग दिया। कोई वृक्ष जड़ के बिना नहीं खड़ा रह सकता है। जड़ कट जाये, तो वृक्ष गिर जाता है। जड़ को मजबूत बनाकर जो वृक्ष उठता है, वही टिका रहता है।
कोई समाज अपने भूत के बिना नहीं जी सकता। भूत में पैर जमाकर भविष्य की तरफ बढना, पीछे भी देखना, आगे भी देखना यही किसी समाज के जीवन का गुर है। ऋषि दयानन्द ने इसी गुर को पकड़ा था। पीछे वेदों की ओर देखो, उसमें जमकर आगे भविष्य की ओर पग बढाओ। भूत को छोड़ दोगे तो वृक्ष की जड़ कट जाएगी। भविष्य की अनदेखी कर उठ नहीं सकोगे। यही सत्यार्थ प्रकाश का सन्देश है। - डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार
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The trick that Rishi Dayanand got from his Guru Virjanandji was to distinguish between joy and non-scripture. What he had read before the age of 36 was the study of non-human texts. The history of the last years of India became a history due to the revolution that arose in his life, his thoughts, by the study of the Aasha texts.
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